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→‎पंचपदी शिक्षण पद्धति: लेख सम्पादित किया
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== पंचपदी शिक्षण पद्धति ==
 
== पंचपदी शिक्षण पद्धति ==
छात्र जिस प्रक्रिया से ज्ञानार्जन करता है उसे हम पंचपदी कह सकते हैं । पंचपटदी का अर्थ है पाँच पद वाली प्रक्रिया । पाँच पद इस प्रकार हैं । अधीति, बोध, अभ्यास, प्रयोग और प्रसार । अधीति पहला पद है । अध्येता किसी भी विषय को सुनता है, देखता है या पढ़ता है । यह कार्य ज्ञानेंद्रियों से होता है । उदाहरण के लिए वह गीत या कहानी या भाषण सुनता है । वह नाटक देखता है । वह किसी वस्तु को छूकर परखने का प्रयास करता है । वह किसी घटना को देखता और सुनता है । वह और लोगों की बातचीत सुनता है । वह किसी वार्तालाप या घटना का साक्षी बनता है । वह हाथ से परखता भी है । किसी चित्र के रंग और आकृति का निरीक्षण करता है। अपनी कर्मेन्द्रियों  और ज्ञानेन्द्रियों से वह विषय को ग्रहण करता है । यह श्रवण, दर्शन, निरीक्षण । परीक्षण अधीति है । परंतु
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छात्र जिस प्रक्रिया से ज्ञानार्जन करता है उसे हम पंचपदी कह सकते हैं । पंचपटदी का अर्थ है पाँच पद वाली प्रक्रिया । पाँच पद इस प्रकार हैं । अधीति, बोध, अभ्यास, प्रयोग और प्रसार । अधीति पहला पद है । अध्येता किसी भी विषय को सुनता है, देखता है या पढ़ता है । यह कार्य ज्ञानेंद्रियों से होता है । उदाहरण के लिए वह गीत या कहानी या भाषण सुनता है । वह नाटक देखता है । वह किसी वस्तु को छूकर परखने का प्रयास करता है । वह किसी घटना को देखता और सुनता है । वह और लोगों की बातचीत सुनता है । वह किसी वार्तालाप या घटना का साक्षी बनता है । वह हाथ से परखता भी है । किसी चित्र के रंग और आकृति का निरीक्षण करता है। अपनी कर्मेन्द्रियों  और ज्ञानेन्द्रियों से वह विषय को ग्रहण करता है । यह श्रवण, दर्शन, निरीक्षण । परीक्षण अधीति है । परंतु अधीति मात्र से वह विषय को जानता नहीं है । जानने का यह केवल प्रारंभ है । दूसरा पद है बोध । बोध का अर्थ है समझना । जो देखा है, सुना है या परखा है उसके ऊपर मनन करके वह विषय को आत्मसात करने का प्रयास करता है। ज्ञानेंद्रियों से ग्रहण किए हुए विषय को वह विचारों में रूपांतरित करता है और जानने के लिए विचारों को बुद्धि के आगे प्रस्तुत करता है । बुद्धि निरीक्षण और परीक्षण के साथ साथ विश्लेषण, संश्लेषण, कार्यकारण भाव आदि की सहायता से अपनी चिंतन प्रक्रिया चलाती है ।
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अधीति मात्र से वह विषय को जानता नहीं है । जानने का
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इस मनन और चिंतन के आधार पर सुने हुए या देखे हुए विषय का बोध होता है अर्थात छात्र विषय को समझता है । यह अध्ययन का दूसरा पद है । अभी भी अध्ययन पूर्ण नहीं हुआ । सुने हुए और समझे हुए विषय की धारणा भी होनी चाहिए अर्थात वह दीर्घकाल तक अध्येता की बुद्धि का अविभाज्य अंग बनकर रहना चाहिए । हम कई बार अनुभव करते हैं की हमारे द्वारा पढ़ाए हुए विषय को छात्र ने समझ तो लिया है परंतु दूसरे दिन अथवा १ सप्ताह के बाद यदि उससे उस विषय के संबंध में पूछा जाए तो वह ठीक से बता नहीं पाता । इसका कारण यह है कि पढ़ा हुआ विषय उसने धारण नहीं किया है । धारणा के लिए समझे हुए विषय का अभ्यास आवश्यक है । अभ्यास अध्ययन का तीसरा पद है । अभ्यास का अर्थ है किसी भी क्रिया को पुनः पुनः करना । इसे ही पुनरावर्तन कहते हैं । पुनरावर्तन करने से विषय का बोध पक्का हो जाता है और वह अध्येता की बुद्धि का अंग बन जाता है । अभ्यास से पूर्व यह सावधानी रखनी चाहिए कि विषय का बोध ठीक से हुआ हो । यदि ठीक से नहीं हुआ और अभ्यास पक्का हुआ तो गलत बात पक्की हो जाती है । उसे ठीक करना बहुत कठिन या लगभग असंभव हो जाता है । उदाहरण के लिए उसने गीत सुना, उसे समझने का प्रयास भी किया, कहीं पर गलती हुई है तो उसे भी ठीक कर लिया, परंतु वह ठीक नहीं हुआ है । वह कच्चा रह गया है । इस कच्चे स्वर के साथ ही यदि अभ्यास किया तो गीत का स्वर गलत ही पक्का हो जाएगा । बाद में उसे ठीक करना अत्यंत कठिन हो जाएगा । छात्रों के संबंध में यह दोष तो हम अनेक बार देखते ही हैं। इसलिए अभ्यास से पूर्व बोध ठीक होना चाहिए। बोध ठीक हो गया परंतु अभ्यास नहीं हुआ तो विषय जल्दी भूल जाता है । इसलिए अभ्यास अत्यंत आवश्यक है । किसी भी बात का अभ्यास ज्ञान को सहज बनाता है । ज्ञान व्यक्तित्व के साथ समरस हो जाता है । उदाहरण के लिए बचपन में पहाड़ों का रोज रोज अभ्यास किया है तो वह बड़ी आयु में भी भूला नहीं जाता । नींद से उठाकर भी कोई कहे तो हम पहाड़े बोल सकते हैं । और कोई काम करते हुए पहाड़े बोलना हमारे लिए सहज होता है । पहाड़े बोलने के लिए कोई विशेष प्रयास नहीं करना पड़ता । यही बात बचपन में रटे हुए श्लोकों, मंत्रों, गीतों के लिए लागू है । संगीत का, योग का, धनुर्विद्या का, साइकिल चलाने का अभ्यास भी बहुत मायने रखता है । अभ्यास से ही परिपक्कता आती है । अभ्यास के बाद अध्ययन चौथे पद की ओर बढ़ता है । चौथा पद है प्रयोग। ज्ञान यदि व्यवहार में व्यक्त नहीं होता तो वह निरुपयोगी है अथवा निरर्थक है । उदाहरण के लिए नाड़ी शुद्धि प्राणायाम का अच्छा अभ्यास हुआ है तो व्यक्ति को देखते ही उसका पता चल जाता है । शरीर कृश और हल्का हो जाता है, वाणी मधुर हो जाती है, नेत्र निर्मल हो जाते हैं और चित्त की प्रसन्नता मुख पर झलकती है । उसे कहना नहीं पड़ता कि उसने नाडीशुद्धि प्राणायाम का अभ्यास किया है । जिस कक्षा में पचास छात्र एक साथ प्रतिदिन ओमकार का उच्चारण करते हैं उस कक्षा का वातावरण ही ओमकार की तरंगों से भर जाता है । किसी को कहना नहीं पड़ता कि वहाँ ओमकार का उच्चारण होता है ।
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यह केवल प्रारंभ है । दूसरा पद है बोध बोध का अर्थ है
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भारतीय शास्त्रीय संगीत का अच्छा अभ्यास करने वाले का व्यक्तित्व अत्यंत संतुलित और मधुर बन जाता है । भौतिक विज्ञान का अच्छा अभ्यास करने वाले का व्यवहार भौतिक विज्ञान के सिद्धांतों को ध्यान में रखकर ही होता है। शरीरविज्ञान का अध्ययन करने वाला और जिसका अभ्यास पक्का हुआ है वह अपने शरीर की सफाई ठीक से रखता है। आहारशास्त्र का ज्ञान जब प्रयोग के स्तर पर पहुंचता है तब वह व्यक्ति कभी विरुद्ध आहार नहीं करता । आहार के सभी नियमों का सहज ही पालन करता है। प्रयोग के बाद पाँचवा पद है प्रसार । प्राप्त किए हुए ज्ञान को अन्य लोगों तक पहुँचाना ही प्रसार है । प्रसार के दो आयाम हैं । एक है स्वाध्याय और दूसरा है प्रवचन। स्वाध्याय का अर्थ है स्वयं ही अध्ययन करना अथवा स्वयं का अध्ययन करना । स्वयं ही अध्ययन करने का अर्थ है प्राप्त किए हुए ज्ञान को मनन, चिंतन, अभ्यास और प्रयोग के आधार पर निरंतर परिष्कृत करते रहना । ऐसा करने से ज्ञान अधिकाधिक आत्मसात होता जाता है । चिंतन के नए नए आविष्कार होते जाते हैं । अध्येता को अपने आप समझने लगता है कि संदर्भ के अनुसार ज्ञान को प्रयुक्त करने के लिए किस प्रकार उसका स्वरूप परिवर्तन करना । यही अनुसंधान है । इसमें सारी मौलिकता और सृजनशीलता प्रयुक्त होती है । व्यक्ति के अंतःकरण से ज्ञान प्रस्फुटित होता है । सीखा हुआ पूर्ण रूप से व्यक्ति का अपना हो जाता है और वह प्रकट होता है। स्व के अध्ययन का अर्थ है अपने व्यवहार को, अपने विचारों को अपने चिंतन को नित्य परखते रहना और उत्तरोत्तर निर्दोष बनाते जाना । यह प्रगत अध्ययन का क्षेत्र है। अपने सीखे हुए विषय पर और लोग क्या कहते हैं इसको भी जानते जाना । अपने विषय की अपने ही जैसे अध्ययन करने वालों के साथ चर्चा करना, विमर्श करना और ज्ञान को समृद्ध बनाना प्रसार का दूसरा आयाम है प्रवचन प्रवचन का अर्थ है अध्यापन । सीखे हुए ज्ञान को अध्येता को देना अध्यापन है । यह प्रक्रिया कैसे होती है ?
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समझना । जो देखा है, सुना है या परखा है उसके ऊपर
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गाय घास चरती है । उसकी जुगाली करती है । अपने शरीर में पचाती है । अपने अंतःकरण की सारी भावनाएँ उसमें उडेलती है बछड़े के लिए जो वात्सल्यभाव है वह भी उसमें डालती है । खाया हुआ घास दूध में परिवर्तित होता है और बछड़े को वह दूध पिलाती है । घास से दूध बनने की प्रक्रिया अधीति से प्रसार की प्रक्रिया है । यही अध्ययन के अध्यापन तक पहुंचने की प्रक्रिया है । यही वास्तव में शिक्षा है । अध्यापक का प्रवचन अध्येता के लिए अधीति है । एक ओर प्रवचन और दूसरी ओर अधीति के रूप में अध्यापक और अध्येता तथा अध्यापन और अध्ययन जुड़ते हैं। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को ज्ञान का हस्तांतरण होता है। ज्ञानप्रवाह की शुंखला बनती है। इस शृंखला की एक कड़ी अध्यापक है और दूसरी कड़ी अध्येता । पीढ़ी दर पीढ़ी यह देना और लेना चलता रहता है और ज्ञानधारा अविरल बहती रहती है ।
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मनन करके वह विषय को आत्मसात करने का प्रयास
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हमारा अनुभव है कि ज्ञान प्राप्त करने वाले सबके सब अध्यापन नहीं करते । सबके सब पढ़ाते नहीं हैं । वे अन्यान्य कार्यों में जुड़ते हैं । तब प्रवचन का स्वरूप कैसा होगा? अपने प्राप्त किए हुए ज्ञान को दूसरों के भले के लिए प्रयुक्त करना भी प्रवचन है । ज्ञान का केवल अपने लिए उपयोग करना किसी भी प्रकार से समर्थनीय नहीं है। अपने ज्ञान का यदि किसी के लिए उपयोग नहीं हुआ तो एक प्रकार का सांस्कृतिक अपराध होगा । प्रवचन के माध्यम से व्यक्ति अपने ऋषिक्ण से मुक्त होता है । जब उसने अधीति से प्रारंभ किया था तब वह पूर्वजों के ऋण को स्वीकार कर चुका था । अब उसने जब दूसरे को ज्ञान दिया या दूसरों के लिए ज्ञान का उपयोग किया तब वह प्रवचन के माध्यम से उस ऋण से मुक्त हुआ । साथ ही उसने अध्येता को अपना ऋणी बनाया । इस प्रकार अध्यापक और अध्येता के मध्य अधीती, बोध, अभ्यास, प्रयोग और प्रसार, और प्रसार से फिर अधीती के रूप में ज्ञानधारा निरंतर प्रवाहित होती रहती है और आवश्यकता के अनुसार समय समय पर परिष्कृत भी होती रहती है । इसे ही चिरपुरातन नित्यनूतन कहते हैं । यही सनातनता का भी अर्थ है । पंचपदी की यह प्रक्रिया अत्यंत सहज होनी चाहिए । परंतु आज उसका जरा भी आकलन नहीं हो रहा है । आज कक्षाकक्षा में अधिकांश देखा जाता है कि अधीति से सीधे प्रवचन के पद पर अध्यापक पहुँच जाता है। बीच के बोध, अभ्यास और प्रयोग की कोई चिंता ही नहीं करता ।
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करता है। ज्ञानेंद्रियों से ग्रहण किए हुए विषय को वह
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अध्यापक स्वयं जब अपने लिए चिंता नहीं करता तो छात्र से भी अपेक्षा नहीं करता । इसी कारण से ज्ञान निर्र्थक और निष्प्रयोज्य बन जाता है । हम देखते हैं कि कौशल हो, विवेक हो या चित्र हो, शिक्षित और अशिक्षित व्यक्ति में लगभग कोई अंतर दिखाई नहीं देता । आज आवश्यकता इस बात की है कि हम समस्त शिक्षाप्रक्रिया में और विशेष रूप से आचार्यों की शिक्षा में पंचपदी को आपग्रहपूर्वक अपनाएँ । विद्यालयों के कक्षाकक्षों में होने वाला अध्ययन अध्यापन पंचपदी के रुप में चले इस प्रकार से वर्तमान व्यवस्था में परिवर्तन करने की अति आवश्यकता है ।
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विचारों में रूपांतरित करता है और जानने के लिए विचारों
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यहाँ बहुत संक्षेप में पंचपदी के पाँच पदों का विवरण किया गया है । पढ़ने में तो वह बहुत ही सरल लगता है परंतु समझने में अनेक प्रकार से कठिनाई हो सकती है क्योंकि इस प्रकार के अध्ययन और अध्यापन की कल्पना भी आज लगभग कहीं नहीं की जाती है । ऐसा कहीं देखा भी नहीं जाता है ।
 
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को बुद्धि के आगे प्रस्तुत करता है । बुद्धि निरीक्षण और
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परीक्षण के साथ साथ विश्लेषण, संश्लेषण, कार्यकारण भाव
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आदि की सहायता से अपनी चिंतन प्रक्रिया चलाती है ।
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इस मनन और चिंतन के आधार पर सुने हुए या देखे हुए
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विषय का बोध होता है अर्थात छात्र विषय को समझता
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है । यह अध्ययन का दूसरा पद है । अभी भी अध्ययन पूर्ण
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नहीं हुआ । सुने हुए और समझे हुए विषय की धारणा भी
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होनी चाहिए अर्थात वह दीर्घकाल तक अध्येता की बुद्धि
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का अविभाज्य अंग बनकर रहना चाहिए । हम कई बार
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अनुभव करते हैं की हमारे द्वारा पढ़ाए हुए विषय को छात्र
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ने समझ तो लिया है परंतु दूसरे दिन अथवा १ सप्ताह के
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बाद यदि उससे उस विषय के संबंध में पूछा जाए तो वह
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ठीक से बता नहीं पाता । इसका कारण यह है कि पढ़ा
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हुआ विषय उसने धारण नहीं किया है । धारणा के लिए
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समझे हुए विषय का अभ्यास आवश्यक है । अभ्यास
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अध्ययन का तीसरा पद है । अभ्यास का अर्थ है किसी भी
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क्रिया को पुनः पुनः करना । इसे ही पुनरावर्तन कहते हैं ।
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पुनरावर्तन करने से विषय का बोध पक्का हो जाता है और
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वह अध्येता की बुद्धि का अंग बन जाता है । अभ्यास से
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पूर्व यह सावधानी रखनी चाहिए कि
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विषय का बोध ठीक से हुआ हो । यदि ठीक से नहीं हुआ
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और अभ्यास पक्का हुआ तो गलत बात पक्की हो जाती है ।
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उसे ठीक करना बहुत कठिन या लगभग असंभव हो जाता
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है । उदाहरण के लिए उसने गीत सुना, उसे समझने का
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प्रयास भी किया, कहीं पर गलती हुई है तो उसे भी ठीक
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कर लिया, परंतु वह ठीक नहीं हुआ है । वह कच्चा रह
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गया है । इस कच्चे स्वर के साथ ही यदि अभ्यास किया तो
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गीत का स्वर गलत ही पक्का हो जाएगा । बाद में उसे ठीक
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करना अत्यंत कठिन हो जाएगा । छात्रों के संबंध में यह
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दोष तो हम अनेक बार देखते ही हैं । इसलिए अभ्यास से
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पूर्व बोध ठीक होना चाहिए। बोध ठीक हो गया परंतु
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अभ्यास नहीं हुआ तो विषय जल्दी भूल जाता है । इसलिए
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अभ्यास अत्यंत आवश्यक है । किसी भी बात का अभ्यास
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ज्ञान को सहज बनाता है । ज्ञान व्यक्तित्व के साथ समरस
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हो जाता है । उदाहरण के लिए बचपन में पहाड़ों का रोज
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रोज अभ्यास किया है तो वह बड़ी आयु में भी भूला नहीं
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जाता । नींद से उठाकर भी कोई कहे तो हम पहाड़े बोल
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सकते हैं । और कोई काम करते हुए पहाड़े बोलना हमारे
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लिए सहज होता है । पहाड़े बोलने के लिए कोई विशेष
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प्रयास नहीं करना पड़ता । यही बात बचपन में रटे हुए
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श्लोकों, मंत्रों, गीतों के लिए लागू है । संगीत का, योग
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का, धनुर्विद्या का, साइकिल चलाने का अभ्यास भी बहुत
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मायने रखता है । अभ्यास से ही परिपक्कता आती है ।
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अभ्यास के बाद अध्ययन चौथे पद की ओर बढ़ता है ।
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चौथा पद है प्रयोग । ज्ञान यदि व्यवहार में व्यक्त नहीं होता
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तो वह निरुपयोगी है अथवा निरर्थक है । उदाहरण के लिए
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नाड़ी शुद्धि प्राणायाम का अच्छा अभ्यास हुआ है तो व्यक्ति
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को देखते ही उसका पता चल जाता है । शरीर कृश और
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हल्का हो जाता है, वाणी मधुर हो जाती है, नेत्र निर्मल हो
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जाते हैं और चित्त की प्रसन्नता मुख पर झलकती है । उसे
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कहना नहीं पड़ता कि उसने नाडीशुद्धि प्राणायाम का
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अभ्यास किया है । जिस कक्षा में पचास छात्र एक साथ
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प्रतिदिन ओमकार का उच्चारण करते हैं उस कक्षा का
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Rx?
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भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
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वातावरण ही ओऑकार की तरंगों से भर जाता है । किसीको
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कहना नहीं पड़ता कि वहाँ ओकार का उच्चारण होता है ।
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भारतीय शास्त्रीय संगीत का अच्छा अभ्यास करने वाले का
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व्यक्तित्व अत्यंत संतुलित और मधुर बन जाता है । भौतिक
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विज्ञान का अच्छा अभ्यास करने वाले का व्यवहार भौतिक
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विज्ञान के सिद्धांतों को ध्यान में रखकर ही होता है।
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शरीरविज्ञान का अध्ययन करने वाला और जिसका अभ्यास
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पक्का हुआ है वह अपने शरीर की सफाई ठीक से रखता
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है । आहारशास्त्र का ज्ञान जब प्रयोग के स्तर पर पहुंचता है
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तब वह व्यक्ति कभी विरुद्ध आहार नहीं करता । आहार के
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सभी नियमों का सहज ही पालन करता है । प्रयोग के बाद
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पाँचवा पद है प्रसार । प्राप्त किए हुए ज्ञान को अन्य लोगों
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तक पहुँचाना ही प्रसार है । प्रसार के दो आयाम हैं । एक है
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स्वाध्याय और दूसरा है प्रवचन । स्वाध्याय का अर्थ है
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स्वयं ही अध्ययन करना अथवा स्वयं का अध्ययन करना ।
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स्वयं ही अध्ययन करने का अर्थ है प्राप्त किए हुए ज्ञान को
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मनन, चिंतन, अभ्यास और प्रयोग के आधार पर निरंतर
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परिष्कृत करते रहना । ऐसा करने से ज्ञान अधिकाधिक
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आत्मसात होता जाता है । चिंतन के नए नए आविष्कार
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होते जाते हैं । अध्येता को अपने आप समझने लगता है
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कि संदर्भ के अनुसार ज्ञान को प्रयुक्त करने के लिए किस
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प्रकार उसका स्वरूप परिवर्तन करना । यही अनुसंधान है ।
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इसमें सारी मौलिकता और सृजनशीलता प्रयुक्त होती है ।
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व्यक्ति के अंतःकरण से ज्ञान प्रस्फुटित होता है । सीखा
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हुआ पूर्ण रूप से व्यक्ति का अपना हो जाता है और वह
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प्रकट होता है । स्व के अध्ययन का अर्थ है अपने व्यवहार
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को, अपने विचारों को अपने चिंतन को नित्य परखते रहना
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और उत्तरोत्तर निर्दोष बनाते जाना । यह प्रगत अध्ययन का
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क्षेत्र है । अपने सीखे हुए विषय पर और लोग क्या कहते हैं
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इसको भी जानते जाना । अपने विषय की अपने ही जैसे
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अध्ययन करने वालों के साथ चर्चा करना, विमर्श करना
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और ज्ञान को समृद्ध बनाना । प्रसार का दूसरा आयाम है
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प्रवचन । प्रवचन का अर्थ है अध्यापन । सीखे हुए ज्ञान को
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अध्येता को देना अध्यापन है । यह प्रक्रिया कैसे होती है ?
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पर्व ३ : शिक्षा का मनोविज्ञान
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गाय घास चरती है । उसकी जुगाली करती है । अपने शरीर
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में पचाती है । अपने अंतःकरण की सारी भावनाएँ उसमें
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उडेलती है । बछड़े के लिए जो वात्सल्यभाव है वह भी
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उसमें डालती है । खाया हुआ घास दूध में परिवर्तित होता
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है और बछड़े को वह दूध पिलाती है । घास से दूध बनने
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की प्रक्रिया अधीति से प्रसार की प्रक्रिया है । यही अध्ययन
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के अध्यापन तक पहुंचने की प्रक्रिया है । यही वास्तव में
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शिक्षा है । अध्यापक का प्रवचन अध्येता के लिए अधीति
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है । एक ओर प्रवचन और दूसरी ओर अधीति के रूप में
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अध्यापक और अध्येता तथा अध्यापन और अध्ययन जुड़ते
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हैं । एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को ज्ञान का हस्तांतरण होता
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है । ज्ञानप्रवाह की शुंखला बनती है । इस शृंखला की एक
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कड़ी अध्यापक है और दूसरी कड़ी अध्येता । पीढ़ी दर
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पीढ़ी यह देना और लेना चलता रहता है और ज्ञानधारा
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अविरल बहती रहती है ।
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हमारा अनुभव है कि ज्ञान प्राप्त करने वाले सबके
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सब अध्यापन नहीं करते । सबके सब पढ़ाते नहीं हैं । वे
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अन्यान्य कार्यों में जुड़ते हैं । तब प्रवचन का स्वरूप कैसा
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होगा ? अपने प्राप्त किए हुए ज्ञान को दूसरों के भले के
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लिए प्रयुक्त करना भी प्रवचन है । ज्ञान का केवल अपने
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लिए उपयोग करना किसी भी प्रकार से समर्थनीय नहीं है ।
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अपने ज्ञान का यदि किसी के लिए उपयोग नहीं हुआ तो
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एक प्रकार का सांस्कृतिक अपराध होगा । प्रवचन के
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माध्यम से व्यक्ति अपने ऋषिक्ण से मुक्त होता है । जब
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उसने अधीति से प्रारंभ किया था तब वह पूर्वजों के ऋण
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को स्वीकार कर चुका था । अब उसने जब दूसरे को ज्ञान
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दिया या दूसरों के लिए ज्ञान का उपयोग किया तब वह
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प्रवचन के माध्यम से उस ्रण से मुक्त हुआ । साथ ही
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उसने अध्येता को अपना क्रणी बनाया । इस प्रकार
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अध्यापक और अध्येता के मध्य अधीती, बोध, अभ्यास,
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प्रयोग और प्रसार, और प्रसार से फिर अधीती के रूप में
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ज्ञानधारा निरंतर प्रवाहित होती रहती है और आवश्यकता
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के अनुसार समय समय पर परिष्कृत भी होती रहती है । इसे
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ही चिरपुरातन नित्यनूतन कहते हैं । यही सनातनता का भी
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श्ढ३े
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अर्थ है ।
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पंचपदी की यह प्रक्रिया अत्यंत सहज होनी चाहिए ।
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परंतु आज उसका जरा भी आकलन नहीं हो रहा है । आज
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कक्षाकक्षा में अधिकांश देखा जाता है कि अधीति से सीधे
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  −
प्रवचन के पद पर अध्यापक पहुँच जाता है। बीच के
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  −
बोध, अभ्यास और प्रयोग की कोई चिंता ही नहीं करता ।
  −
 
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अध्यापक स्वयं जब अपने लिए चिंता नहीं करता तो छात्र
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से भी अपेक्षा नहीं करता । इसी कारण से ज्ञान निर्र्थक
  −
 
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और निष्प्रयोज्य बन जाता है । हम देखते हैं कि कौशल
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  −
हो, विवेक हो या चित्र हो, शिक्षित और अशिक्षित व्यक्ति
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में लगभग कोई अंतर दिखाई नहीं देता ।
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आज आवश्यकता इस बात की है कि हम समस्त
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शिक्षाप्रक्रिया में और विशेष रूप से आचार्यों की शिक्षा में
  −
 
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पंचपदी को आपग्रहपूर्वक अपनाएँ । विद्यालयों के कक्षाकक्षों
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में होने वाला अध्ययन अध्यापन पंचपदी के रुप में चले इस
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प्रकार से वर्तमान व्यवस्था में परिवर्तन करने की अति
  −
 
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आवश्यकता है ।
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यहाँ बहुत संक्षेप में पंचपदी के पाँच पदों का विवरण
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किया गया है । पढ़ने में तो वह बहुत ही सरल लगता है
  −
 
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परंतु समझने में अनेक प्रकार से कठिनाई हो सकती है
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क्योंकि इस प्रकार के अध्ययन और अध्यापन की कल्पना
  −
 
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भी आज लगभग कहीं नहीं की जाती है । ऐसा कहीं देखा
  −
 
  −
भी नहीं जाता है ।
      
== साइकिल चलाने का उदाहरण ==
 
== साइकिल चलाने का उदाहरण ==

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