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| स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि समस्त ज्ञान हमारे अन्दर ही होता है, शिक्षा से इसका अनावरण होता है<ref>श्रीमद् भगवद्गीता 5.15</ref>। | | स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि समस्त ज्ञान हमारे अन्दर ही होता है, शिक्षा से इसका अनावरण होता है<ref>श्रीमद् भगवद्गीता 5.15</ref>। |
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− | श्रीमद्भागवद्गीता भी कहती है<ref>भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला १), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>:<blockquote>अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।5.15।।</blockquote>अर्थात ज्ञान अज्ञान से आवृत होता है इसलिए मनुष्य दिग्श्रमित होते हैं । | + | श्रीमद्भागवद्गीता भी कहती है<ref name=":0">भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला १), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>:<blockquote>अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।5.15।।</blockquote>अर्थात ज्ञान अज्ञान से आवृत होता है इसलिए मनुष्य दिग्श्रमित होते हैं । |
| | | |
| अज्ञान का आवरण दूर कर अन्दर के ज्ञान को प्रकट करने हेतु सहायता करने वाले साधन मनुष्य को जन्मजात मिले हुए हैं । उन्हें ही ज्ञानार्जन के करण कहते हैं। इन करणों के जो कार्य हैं वे ही ज्ञानार्जन की प्रक्रिया है । ज्ञानार्जन के करण और उनके कार्य इस प्रकार हैं: | | अज्ञान का आवरण दूर कर अन्दर के ज्ञान को प्रकट करने हेतु सहायता करने वाले साधन मनुष्य को जन्मजात मिले हुए हैं । उन्हें ही ज्ञानार्जन के करण कहते हैं। इन करणों के जो कार्य हैं वे ही ज्ञानार्जन की प्रक्रिया है । ज्ञानार्जन के करण और उनके कार्य इस प्रकार हैं: |
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| == अनुभूति == | | == अनुभूति == |
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− | === <u>अनुभूति की शिक्षा</u> === | + | === अनुभूति की शिक्षा === |
− | ज्ञानेन्द्रियों से और कर्मन्द्रियों से जानना होता है । वह | + | ज्ञानेन्द्रियों से और कर्मन्द्रियों से जानना होता है । वह इंद्रियों के माध्यम से होने वाली शिक्षा होती है। यह जानकारी के रूप में होने वाला ज्ञान है । कई बातें ऐसी हैं जो केवल जानकारी से परे होती हैं । उदाहरण के लिए आँख किसी वस्तु का रंग पहचानती है । इससे रंग के विषय में जानकारी मिलती है । परन्तु वह अच्छा है कि नहीं, सुखद है कि नहीं, हितकारी है कि नहीं यह जानना आँख का काम नहीं है । वह आँख की शक्ति के परे है । |
| | | |
− | इंद्रियों के माध्यम से होने वाली शिक्षा होती है। यह | + | आँख नहीं अपितु मन के स्तर पर यह जाना जाता है कि आँख ने जिसे लाल रंग के रूप में जाना वह सुख देने वाला है कि नहीं, वह अच्छा लगता है कि नहीं । मन के स्वभाव के अनुसार किसीको लाल रंग अच्छा लगता है, किसी को अच्छा नहीं लगता । परन्तु यह मन के स्तर का ज्ञान हुआ । यह अनुभूति नहीं है । मन के स्तर पर होने वाला ज्ञान यथार्थज्ञान नहीं है, वह सापेक्ष ज्ञान है। सापेक्षता मन का ही विषय है । मन को होने वाला ज्ञान संकल्पविकल्प के स्वरूप का होता है । मन ज्ञानिन्द्रियों के संवेदनों को विचार के रूप में, भावना के रूप में ग्रहण करता है । कई बातों में इंद्रियों के बिना ही मन जानता है । उदाहरण के लिए किसी व्यक्ति से मिलने का सुख ज्ञानेन्द्रियों के बिना ही होता है । अच्छी कहानी सुनने का सुख बिना इंद्रियों के होता है । किसी भी प्रकार से हो मन से होने वाला ज्ञान सापेक्ष ही होता है । मन तत्वार्थ नहीं जान सकता । |
| | | |
− | जानकारी के रूप में होने वाला ज्ञान है । कई बातें ऐसी हैं
| + | तत्वार्थ जानने के लिए बुद्धि सक्षम होती है । वह विवेक से काम लेती है । विवेक निरपेक्ष होता है । वह मन के आधार पर नहीं जानती । वह अपने ही साधनों से जानती है । हम जानते हैं कि बुद्धि तर्क, तुलना, अनुमान, संश्लेषण आदि के आधार पर विवेक करती है । इसके आधार पर जो ज्ञान होता है वह यथार्थ ज्ञान तो होता है परन्तु वह इस भौतिक जगत का ही ज्ञान होता है । यह अपरा विद्या का क्षेत्र है। ज्ञानार्जन के बहि:करण और अन्तःकरण के माध्यम से होने वाला ज्ञान इस दुनिया का व्यवहार चलाने के लिए उपयोगी होता है। परन्तु यह अनुभूति नहीं है । अनुभूति का क्षेत्र बुद्धि से परे हैं । अनुभूति क्या है और वह कैसे होती है यह शब्दों में समझाया नहीं जाता है । शब्द कि सीमा भी बुद्धि तक ही है । फिर भी अनुभूति होती है यह सब जानते हैं । कुछ उदाहरण देखें: |
| | | |
− | जो केवल जानकारी से परे होती हैं । उदाहरण के लिए
| + | कक्षा १ में हमें संख्या १ क्या है यह समझाना है । संख्या अमूर्त पदार्थ है इसलिए किसी भी मूर्त वस्तु कि सहायता से हम उसे समझा नहीं सकते । फिर हम क्या करते हैं? एक वस्तु बताकर पूछते हैं कि यह क्या है । बालक वस्तु का नाम देता है । फिर पूछते हैं कि वस्तु कितनी है। बालक उत्तर नहीं दे सकता । फिर हम बताते हैं कि यह एक वस्तु है । परन्तु बालक को संकल्पना समझती नहीं है। हम बार बार भिन्न भिन्न वस्तुये बताकर प्रथम वस्तु का नाम और बाद में संख्या पूछते हैं । हर बार कितनी पूछने पर उत्तर एक ही होता है । तब किसी एक क्षण में बालक को एक क्या है इसकी अनुभूति होती है और वह संकल्पना समझता है । यह अनुभूति कब होगी इसका निश्चय कोई नहीं कर सकता । शिक्षक केवल अनुभूति का मार्ग प्रशस्त करता है, वहाँ पहुँचने में सहायता करता है, परन्तु अनुभूति कब होगी इसका कोई नियम नहीं होता । संभव है कि किसी व्यक्ति को बड़ा हो जाने के बाद भी एक की संख्या क्या है इसकी अनुभूति हुई हो न हो, व्यवहार तो चला लेता है, गणित भी कर लेता है, परन्तु गणित के आनंद का अनुभव नहीं प्राप्त करता । |
| | | |
− | आँख किसी वस्तु का रंग पहचानती है । इससे रंग के
| + | एक शिक्षिका छोटे बालक के साथ खेल रही है । छोटे छोटे नारियल के सोलह फल लेकर खेल चल रहा है । शिक्षिका बालक को सोलह नारियल को दो समान पंक्तियों में जमाने को कहती है । बालक को समान हिस्से ज्ञात नहीं हैं इसलिए वह एक पंक्ति में दस और दूसरी में छः फल रखता है । गिनने पर यह असमान विभाजन होता है। दूसरी बार करता है। इस बार नौ और सात होते हैं । बालक दो तीन बार करता है परन्तु समान हिस्से नहीं होते हैं। अब शिक्षिका संकेत देकर सहायता करती है । वह कहती है कि प्रथम पहली पंक्ति में १ फल रखो फिर इसके नीचे दूसरी पंक्ति में १ रखो । इस प्रकार दोनों पंक्तियों में समान संख्या होगी । बालक वैसा करता है और उसे सफलता मिलती है । फिर शिक्षिका इस प्रकार तीन पंक्तियाँ बनाने के लिए कहती है । बालक यही क्रम अपनाता है परन्तु उसे समान पंक्तियाँ बनाने में सफलता नहीं मिलती । शिक्षिका उसे चार पंक्तियाँ बनाने के लिए कहती है । बालक सरलता से चार पंक्तियाँ बनाता है । अब शिक्षिका और बालक दोनों खड़ी और पड़ी पंक्तियाँ बार बार गिनते हैं । दोनों चार चार हैं । अचानक बालक खड़ा हो जाता है और ज़ोर से चिल्लाता है, चोकू चोकू सोलह' । यह क्या है ? यह चार का पहाड़ा है जो उसने रटा हुआ है । चार बार संख्या दोहराते दोहराते उसे पहाड़े की अनुभूति होती है । वह अब अनुभूति से जानता है की चार का पहाड़ा क्या है। अनुभूति उसकी चिल्लाहट में और चेहरे के आनन्द में व्यक्त होती है परन्तु वह उसे तर्क से समझा नहीं सकता । बालक तो क्या कोई भी अपनी अनुभूति को समझा नहीं सकता, वह केवल व्यक्त होती है। |
| | | |
− | विषय में जानकारी मिलती है । परन्तु वह अच्छा है कि
| + | पानी में नमक डालकर उसे चम्मच से हिलाने से नमक पानी में घुलता है । घुलने की प्रक्रिया देखी जा सकती है और प्रतीतिपूर्वक समझी भी जा सकती है परन्तु घुलने की अनुभूति नहीं हो सकती । घुलने की अनुभूति सर्वथा आध्यात्मिक प्रक्रिया है और उसकी कोई निश्चित विधि नहीं है । |
| | | |
− | नहीं, सुखद है कि नहीं, हितकारी है कि नहीं यह जानना | + | मुनि उद्दालक से उनका पुत्र और शिष्य श्वेतकेतु पूछता है कि ब्रह्म का स्वरूप क्या है । मुनि उद्दालक उसे बरगद के वृक्ष के कुछ फल तोड़कर लाने को कहते हैं । श्वेतकेतु फल लाता है । मुनि उसे एक फल को तोड़ने को कहते हैं। श्वेतकेतु फल को ताड़ता है और देखता है कि उसमें असंख्य छोटे छोटे बीज हैं । मुनि उसे एक बीज लेकर उसे भी तोड़ने के लिए कहते हैं । श्वेतकेतु बीज को तोड़ता है और कहता है कि उस बीज के अन्दर कुछ भी नहीं है । मुनि कहते हैं कि बीज के अन्दर के उस कुछ नहीं से ही सम्पूर्ण वृक्ष विकसित हुआ है । ठीक उसी प्रकार कुछ नहीं जैसे ब्रह्म से ही यह सारी सृष्टि व्यक्त हुई है । श्वेतकेतु को समझाने का यह बौद्धिक तरीका है । श्वेतकेतु बुद्धि से यह समझता है परन्तु अनुभूति तो उसे तपश्चर्या से ही होती है, बुद्धि से नहीं । बुद्धि से अनुभूति के मार्ग पर ले जाया जा सकता है परन्तु अनुभूति करवाना संभव नहीं है। |
| | | |
− | आँख का काम नहीं है । वह आँख की शक्ति के परे है ।
| + | भगवान रामकृष्ण से स्वामी विवेकानन्द का बहुत बार वादविवाद होता था । स्वामीजी बहुत तर्क करते थे । ईश्वर के अस्तित्व के बारे में शंका करते थे । एक बार भगवान रामकृष्ण ने स्वामीजी को ध्यान करने को कहा । स्वामीजी ध्यान कर रहे थे तब भगवान रामकृष्ण ने उनकी भूकुटी के मध्यभाग में अंगूठे से स्पर्श किया । स्वामीजी कहते हैं कि उस स्पर्श के कारण से एक वस्तु से दूसरी वस्तु का भेद बताने वाली सारी सीमायें मिट गईं और सर्वं खल्विदं ब्रह्म का अनुभव हो गया । इस अनुभव का कोई बुद्धिगम्य खुलासा नहीं हो सकता परन्तु इसे नकारना असंभव है । |
| | | |
− | आँख नहीं अपितु मन के स्तर पर यह जाना जाता है कि
| + | श्री रामकृष्ण स्वयं काली माता के भक्त थे । उन्होंने काली माता का साक्षात्कार किया था । परन्तु स्वामी तोतापुरी ने उन्हें निराकार ब्रह्म की अनुभूति करानी चाही । जब श्री रामकृष्ण ध्यान कर रहे थे तब स्वामी तोतापुरी ने उनकी भूकुटी के मध्यभाग में एक काँच का टुकड़ा चुभो दिया । रक्त का प्रवाह बहा, परन्तु कालीमाता की मूर्ति के टुकड़े टुकड़े होकर उसका साकार स्वरूप बिखर गया और श्री रामकृष्ण को निराकार ब्रह्म की अनुभूति हुई । परन्तु इस उदाहरण से कोई यह नहीं कह सकता कि निराकार ब्रह्म का साक्षात्कार भूकुटी के मध्यभाग में काँच का टुकड़ा चुभोने से होता है । अनुभूति तो बस होती है । |
| | | |
− | आँख ने जिसे लाल रंग के रूप में जाना वह सुख देने
| + | एक बड़े कारखाने में विदेश से यंत्रसामग्री आई । विदेशी अभियंताओं ने उसे स्थापित कर कारखाने के अभियन्ताओं को उस यंत्रसामग्री का संचालन सीखा दिया । काम शुरू हुआ । कुछ समय के बाद एक यंत्र रुक गया । अभियन्ताओं के बहुत प्रयासों के बाद भी वह शुरू नहीं हुआ | सब निराश होकर विचार कर रहे थे कि अब विदेश से अभियंता को बुलाना पड़ेगा । तब एक मेकेनिक ने कहा कि उसे प्रयास करने की अनुमति दी जाये । अधिकारियों ने कुछ सशंक होकर और अविश्वासपूर्वक अनुमति दी। उस मेकेनिक ने कुछ प्रयास किया और सबके आश्चर्य के बीच यंत्र शुरू हो गया । लोगों ने पूछा की उसे कहाँ दोष था इसका पता कैसे चला । उस मेकेनिक ने कहा कि यंत्र उससे बात करता है । निर्जीव यंत्र सजीव मनुष्य के साथ बात कैसे कर सकता है ? जब यंत्र के साथ तादात्म्य होता है तो यंत्र अपना आंतरिक रहस्य व्यक्ति के समक्ष प्रकट कर देता है । |
| | | |
− | वाला है कि नहीं, वह अच्छा लगता है कि नहीं । मन के
| + | समाधि जिनकी सिद्ध हुई है ऐसे योगियों को बिना किसी साधन से पता चला है कि मनुष्य के शरीर में ७२,००० नाड़ियाँ हैं । प्रेम अनुभूति का साधन हो सकता है । सृष्टि के साथ यदि प्रेम है तो उस व्यक्ति के समक्ष सृष्टि अपने रहस्य स्वयं प्रकट करती है । यह अनुभूति ही वास्तव में ज्ञान का सही स्वरूप है । शेष सारा ज्ञान ज्ञान का आभास है। जगत का व्यवहार इस आभासी ज्ञान के क्षेत्र में चलता है । इसलिए अनुभूत ज्ञान को ज्ञान कहते हैं, शेष को अज्ञान । इसे परा विद्या कहते हैं, शेष को अपरा । इसे विद्या कहते हैं, शेष को अविद्या । इसे ब्रह्म विद्या कहते हैं, शेष को भूतविद्या । वेद से लेकर सामान्य जानकारी तक का सारा ज्ञान अपरा विद्या का क्षेत्र है । अपरा विद्या का क्षेत्र परा के प्रकाश में ही सार्थक है । अनुभूति तक पहुँचना ही सारे ज्ञान प्राप्त करने के पुरुषार्थ का लक्ष्य है । |
| | | |
− | स्वभाव के अनुसार किसीको लाल रंग अच्छा लगता है,
| + | भक्तियोग, कर्मयोग, राजयोग, ज्ञानयोग आदि अनुभूति तक पहुँचने के मार्ग हैं, अनुभूति नहीं । मार्ग में ज्ञान के विभिन्न स्वरूप सामने आते हैं जिन्हें व्यक्ति ज्ञान समझ लेता है परन्तु वे मार्ग के पड़ाव ही हैं यह समझना आवश्यक है । अध्ययन अध्यापन की विभिन्न पद्धतियों में अनुभूति का तत्व निर्तर सामने रखने से ज्ञानार्जन के आनन्द की प्राप्ति हो सकती है । भले ही अनुभूति न हो तो भी उसकी झलक हमेशा मिलती रहती है। यह झलक भी बहुत मूल्यवान होती है । |
| | | |
− | किसीको अच्छा नहीं लगता । परन्तु यह मन के स्तर का
| + | भारत में ज्ञानसाधना क्रिया, संवेदन, विचार, भावना, विवेक, निर्णय, दायित्वबोध, अनुभूति स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि समस्त ज्ञान हमारे अन्दर ही होता है, शिक्षा से इसका अनावरण होता है । |
| | | |
− | ज्ञान हुआ । यह अनुभूति नहीं है । मन के स्तर पर होने | + | श्रीमद्भागवद्गीता भी कहती है<ref name=":0" />:<blockquote>अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।5.15।।</blockquote>अर्थात ज्ञान अज्ञान से आवृत होता है इसलिए मनुष्य दिग्श्रमित होते हैं । |
| | | |
− | वाला ज्ञान यथार्थज्ञान नहीं है, वह सापेक्ष ज्ञान है।
| + | अज्ञान का आवरण दूर कर अन्दर के ज्ञान को प्रकट करने हेतु सहायता करने वाले साधन मनुष्य को जन्मजात मिले हुए हैं । उन्हें ही ज्ञानार्जन के करण कहते हैं। इन करणों के जो कार्य हैं वे ही ज्ञानार्जन की प्रक्रिया है । ज्ञानार्जन के करण और उनके कार्य इस प्रकार हैं: |
| | | |
− | सापेक्षता मन का ही विषय है । मन को होने वाला ज्ञान
| + | कर्मन्द्रियाँ का कार्य क्रिया करना, ज्ञानेन्द्रियों का कार्य संवेदनों का अनुभव करना, मन का कार्य विचार करना और भावना का अनुभव करना, बुद्धि का कार्य विवेक करना, अहंकार का कार्य निर्णय करना, चित्त का कार्य संस्कारों को ग्रहण करना, इन सबके परिणामस्वरूप ज्ञान का उदय होता है अर्थात आत्मस्वरूप ज्ञान प्रकट होता है अर्थात अनावृत होता है । हम इन सब क्रियाओं को क्रमश: समझने का प्रयास करेंगे । |
− | | |
− | संकल्पविकल्प के स्वरूप का होता है । मन ज्ञानिन्द्रियों के
| |
− | | |
− | संवेदनों को विचार के रूप में, भावना के रूप में ग्रहण
| |
− | | |
− | करता है । कई बातों में इंद्रियों के बिना ही मन जानता है ।
| |
− | | |
− | उदाहरण के लिए किसी व्यक्ति से मिलने का सुख
| |
− | | |
− | ज्ञानेन्द्रियों के बिना ही होता है । अच्छी कहानी सुनने का
| |
− | | |
− | १३६
| |
− | | |
− | भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
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− | | |
− | सुख बिना इंद्रियों के होता है । किसी भी प्रकार से हो मन
| |
− | | |
− | से होने वाला ज्ञान सापेक्ष ही होता है । मन तत्वार्थ नहीं
| |
− | | |
− | जान सकता ।
| |
− | | |
− | तत्वार्थ जानने के लिए बुद्धि सक्षम होती है । वह
| |
− | | |
− | विवेक से काम लेती है । विवेक निरपेक्ष होता है । वह मन
| |
− | | |
− | के आधार पर नहीं जानती । वह अपने ही साधनों से
| |
− | | |
− | जानती है । हम जानते हैं कि बुद्धि तर्क, तुलना, अनुमान,
| |
− | | |
− | संश्लेषण आदि के आधार पर विवेक करती है । इसके
| |
− | | |
− | आधार पर जो ज्ञान होता है वह यथार्थ ज्ञान तो होता है
| |
− | | |
− | परन्तु वह इस भौतिक जगत का ही ज्ञान होता है । यह
| |
− | | |
− | अपरा विद्या का क्षेत्र है। ज्ञानार्जन के बहि:करण और
| |
− | | |
− | अन्तःकरण के माध्यम से होने वाला ज्ञान इस दुनिया का
| |
− | | |
− | व्यवहार चलाने के लिए उपयोगी होता है। परन्तु यह
| |
− | | |
− | अनुभूति नहीं है । अनुभूति का क्षेत्र बुद्धि से परे हैं ।
| |
− | | |
− | अनुभूति क्या है और वह कैसे होती है यह शब्दों में
| |
− | | |
− | समझाया नहीं जाता है । शब्द कि सीमा भी बुद्धि तक हि
| |
− | | |
− | है । फिर भी अनुभूति होती है यह सब जानते हैं ।
| |
− | | |
− | कुछ उदाहरण देखें ....
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− | | |
− | कक्षा १ में हमें संख्या १ क्या है यह समझाना है ।
| |
− | | |
− | संख्या अमूर्त पदार्थ है इसलिए किसी भी मूर्त वस्तु
| |
− | | |
− | कि सहायता से हम उसे समझा नहीं सकते । फिर हम
| |
− | | |
− | क्या करते हैं ? एक वस्तु बताकर पूछते हैं कि यह
| |
− | | |
− | क्या है । बालक वस्तु का नाम देता है । फिर पूछते
| |
− | | |
− | हैं कि वस्तु कितनी है। बालक उत्तर नहीं दे
| |
− | | |
− | सकता । फिर हम बताते हैं कि यह एक वस्तु है ।
| |
− | | |
− | परन्तु बालक को संकल्पना समझती नहीं है। हम
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− | | |
− | बार बार भिन्न भिन्न वस्तुये बताकर प्रथम वस्तु का
| |
− | | |
− | नाम और बाद में संख्या पूछते हैं । हर बार कितनी
| |
− | | |
− | पूछने पर उत्तर एक हि होता है । तब किसी एक क्षण
| |
− | | |
− | में बालक को एक क्या है इसकी अनुभूति होती है
| |
− | | |
− | और वह संकल्पना समझता है । यह अनुभूति कब
| |
− | | |
− | होगी इसका निश्चय कोई नहीं कर सकता । शिक्षक
| |
− | | |
− | केवल अनुभूति का मार्ग प्रशस्त करता है, वहाँ
| |
− | | |
− | पहुँचने में सहायता करता है, परन्तु अनुभूति कब
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− | | |
− | ............. page-153 .............
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− | | |
− | पर्व ३ : शिक्षा का मनोविज्ञान
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− | | |
− | होगी इसका कोई नियम नहीं होता । संभव है कि
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− | | |
− | किसी व्यक्ति को बड़ा हो जाने के बाद भी एक की
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− | | |
− | संख्या क्या है इसकी अनुभूति हुई हि न हो ae
| |
− | | |
− | व्यवहार तो चला लेता है, गणित भी कर लेता है
| |
− | | |
− | परन्तु गणित के आनंद का अनुभव नहीं प्राप्त करता ।
| |
− | | |
− | एक शिक्षिका छोटे बालक के साथ खेल रही है ।
| |
− | | |
− | छोटे छोटे नारियल के सोलह फल लेकर खेल चल
| |
− | | |
− | रहा है । शिक्षिका बालक को सोलह नारियल को दो
| |
− | | |
− | समान पंक्तियों में जमाने को कहती है । बालक को
| |
− | | |
− | समान हिस्से ज्ञात नहीं हैं इसलिए वह एक पंक्ति में
| |
− | | |
− | दस और दूसरी में छः फल रखता है । गिनने पर यह
| |
− | | |
− | असमान विभाजन होता है । दूसरी बार करता है।
| |
− | | |
− | इस बार नौ और सात होते हैं । बालक दो तीन बार
| |
− | | |
− | करता है परन्तु समान हिस्से नहीं होते हैं। अब
| |
− | | |
− | शिक्षिका संकेत देकर सहायता करती है । वह कहती
| |
− | | |
− | है कि प्रथम पहली पंक्ति में १ फल रखो फिर इसके
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− | | |
− | नीचे दूसरी पंक्ति में १ रखो । इस प्रकार दोनों पंक्तियों
| |
− | | |
− | में समान संख्या होगी । बालक वैसा करता है और
| |
− | | |
− | उसे सफलता मिलती है । फिर शिक्षिका इस प्रकार
| |
− | | |
− | तीन पंक्तियाँ बनाने के लिए कहती है । बालक यही
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− | | |
− | क्रम अपनाता है परन्तु उसे समान पंक्तियाँ बनाने में
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− | | |
− | सफलता नहीं मिलती । शिक्षिका उसे चार परंक्तियाँ
| |
− | | |
− | बनाने के लिए कहती है । बालक सरलता से चार
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− | | |
− | पंक्तियाँ बनाता है । अब शिक्षिका और बालक दोनों
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− | | |
− | खड़ी और पड़ी पंक्तियाँ बार बार गिनते हैं । दोनों
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− | | |
− | चार चार हैं । अचानक बालक खड़ा हो जाता है
| |
− | | |
− | और ज़ोर से चिछ्ठाता है, चोकू चोकू सोलह' । यह
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− | | |
− | क्या है ? यह चार का पहाड़ा है जो उसने रटा हुआ
| |
− | | |
− | है । चार बार संख्या दोहराते दोहराते उसे पहाड़े की
| |
− | | |
− | अनुभूति होती है । वह अब अनुभूति से जानता है
| |
− | | |
− | की चार का पहाड़ा क्या है। अनुभूति उसकी
| |
− | | |
− | चिछ्लाहट में और चेहरे के आनन्द में व्यक्त होती है
| |
− | | |
− | परन्तु वह उसे तर्क से समझा नहीं सकता । बालक
| |
− | | |
− | तो क्या कोई भी अपनी अनुभूति को समझा नहीं
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− | | |
− | १३७
| |
− | | |
− | सकता, वह केवल व्यक्त होती
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− | | |
− | है।
| |
− | | |
− | पानी में नमक डालकर उसे चम्मच से हिलाने से
| |
− | | |
− | नमक पानी में घुलता है । घुलने की प्रक्रिया देखी जा
| |
− | | |
− | सकती है और प्रतीतिपूर्वक समझी भी जा सकती है
| |
− | | |
− | परन्तु घुलने की अनुभूति नहीं हो सकती । घुलने की
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− | | |
− | अनुभूति सर्वथा आध्यात्मिक प्रक्रिया है और उसकी
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− | | |
− | कोई निश्चित विधि नहीं है ।
| |
− | | |
− | मुनि उद्दालक से उनका पुत्र और शिष्य श्वेतकेतु
| |
− | | |
− | पूछता है कि ब्रह्म का स्वरूप क्या है । मुनि उद्दालक
| |
− | | |
− | उसे बरगद के वृक्ष के कुछ फल तोड़कर लाने को
| |
− | | |
− | कहते हैं । श्वेतकेतु फल लाता है । मुनि उसे एक
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− | | |
− | फल को तोड़ने को कहते हैं। श्वेतकेतु फल को
| |
− | | |
− | ताड़ता है और देखता है कि उसमें असंख्य छोटे छोटे
| |
− | | |
− | बीज हैं । मुनि उसे एक बीज लेकर उसे भी तोड़ने के
| |
− | | |
− | लिए कहते हैं । श्वेतकेतु बीज को तोड़ता है और
| |
− | | |
− | कहता है कि उस बीज के अन्दर कुछ भी नहीं है ।
| |
− | | |
− | मुनि कहते हैं कि बीज के अन्दर के उस कुछ नहीं से
| |
− | | |
− | हि सम्पूर्ण वृक्ष विकसित हुआ है । ठीक उसी प्रकार
| |
− | | |
− | कुछ नहीं जैसे ब्रह्म से ही यह सारी सृष्टि व्यक्त हुई
| |
− | | |
− | है । श्वेतकेतु को समझाने का यह बौद्धिक तरीका है ।
| |
− | | |
− | श्रेतकेतु बुद्धि से यह समझता है परन्तु अनुभूति तो
| |
− | | |
− | उसे तपश्चर्या से ही होती है, बुद्धि से नहीं । बुद्धि से
| |
− | | |
− | अनुभूति के मार्ग पर ले जाया जा सकता है परन्तु
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− | | |
− | अनुभूति करवाना संभव नहीं है ।
| |
− | | |
− | भगवान रामकृष्ण से स्वामी विवेकानन्द का बहुत बार
| |
− | | |
− | वादविवाद होता था । स्वामीजी बहुत तर्क करते थे ।
| |
− | | |
− | ईश्वर के अस्तित्वके बारे में शंका करते थे । एक बार
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− | | |
− | भगवान रामकृष्ण ने स्वामीजी को ध्यान करने को
| |
− | | |
− | कहा । स्वामीजी ध्यान कर रहे थे तब भगवान
| |
− | | |
− | रामकृष्ण ने उनकी भूकुटी के मध्यभाग में अंगूठे से
| |
− | | |
− | स्पर्श किया । स्वामीजी कहते हैं कि उस स्पर्श के
| |
− | | |
− | कारण से एक वस्तु से दूसरी वस्तु का भेद बताने
| |
− | | |
− | वाली सारी सीमायें मिट गईं sik wd wa sq Wa
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− | | |
− | ............. page-154 .............
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− | | |
− | का अनुभव हो गया । इस अनुभव का
| |
− | | |
− | कोई बुद्धिगम्य खुलासा नहीं हो सकता परन्तु इसे
| |
− | | |
− | नकारना असंभव है ।
| |
− | | |
− | श्री रामकृष्ण स्वयं काली माता के भक्त थे । उन्होंने
| |
− | | |
− | कालिमाता का साक्षात्कार किया था । परन्तु स्वामी
| |
− | | |
− | तोतापुरी ने उन्हें निराकार ब्रह्म की अनुभूति करानी
| |
− | | |
− | चाही । जब श्री रामकृष्ण ध्यान कर रहे थे तब स्वामी
| |
− | | |
− | तोतापुरी ने उनकी भूकुटी के मध्यभाग में एक काँच का
| |
− | | |
− | टुकड़ा चुभो दिया । th A Yale बहा परन्तु
| |
− | | |
− | कालिमाता की मूर्ति के टुकड़े टुकड़े होकर उसका
| |
− | | |
− | साकार स्वरूप बिखर गया और श्री रामकृष्ण को
| |
− | | |
− | निराकार ब्रह्म की अनुभूति हुई । परन्तु इस उदाहरण से
| |
− | | |
− | कोई यह नहीं कह सकता कि निराकार ब्रह्म का
| |
− | | |
− | साक्षात्कार भूकुटी के मध्यभाग में काँच का टुकड़ा
| |
− | | |
− | चुभोने से होता है । अनुभूति तो बस होती है ।
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− | | |
− | एक बड़े कारखाने में विदेश से यंत्रसामग्री आई ।
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− | | |
− | विदेशी अभियंताओं ने उसे स्थापित कर कारखाने के
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− | अभियन्ताओं को उस यंत्रसामग्री का संचालन सीखा
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− | दिया । काम शुरू हुआ । कुछ समय के बाद एक
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− | यंत्र रुक गया । अभियन्ताओं के बहुत प्रयासों के
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− | बाद भी वह शुरू नहीं हुआ | सब निराश होकर
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− | विचार कर रहे थे कि अब विदेश से अभियंता को
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− | बुलाना पड़ेगा । तब एक मेकेनिक ने कहा कि उसे
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− | प्रयास करने की अनुमति दी जाये । अधिकारियों ने
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− | कुछ साशंक होकर और अविश्वासपूर्वक अनुमति दी ।
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− | उस मेकेनिक ने कुछ प्रयास किया और सबके आश्चर्य
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− | के बीच यंत्र शुरू हो गया । लोगों ने पूछा की उसे
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− | कहाँ दोष था इसका पता कैसे चला । उस मेकेनिक
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− | ने कहा कि यंत्र उससे बात करता है । निर्जीव यंत्र
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− | सजीव मनुष्य के साथ बात कैसे कर सकता है ?
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− | जब यंत्र के साथ तादात्म्य होता है तो यंत्र अपना
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− | आंतरिक रहस्य व्यक्ति के समक्ष प्रकट कर देता है ।
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− | भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
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− | समाधि जिनकी सिद्ध हुई है ऐसे योगियों को बिना
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− | किसी साधन से पता चला है कि मनुष्य के शरीर में
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− | ७२,००० नाड़ियाँ हैं ।
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− | प्रेम अनुभूति का साधन हो सकता है । सृष्टि के साथ
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− | यदि प्रेम है तो उस व्यक्ति के समक्ष सृष्टि अपने
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− | रहस्य स्वयं प्रकट करती है ।
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− | यह अनुभूति हि वास्तव में ज्ञान का सही स्वरूप है ।
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− | शेष सारा ज्ञान ज्ञान का आभास है। जगत का
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− | व्यवहार इस आभासी ज्ञान के क्षेत्र में चलता है ।
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− | इसलिए अनुभूत ज्ञान को ज्ञान कहते हैं, शेष को
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− | अज्ञान । इसे परा विद्या कहते हैं, शेष को अपरा ।
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− | इसे विद्या कहते हैं, शेष को अविद्या । इसे ब्रह्म
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− | विद्या कहते हैं, शेष को भूतविद्या ।
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− | वेद से लेकर सामान्य जानकारी तक का सारा ज्ञान
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− | अपरा विद्या का क्षेत्र है ।
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− | अपरा विद्या का क्षेत्र परा के प्रकाश में हि सार्थक
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− | है । अनुभूति तक पहुँचना हि सारे ज्ञान प्राप्त करने के
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− | पुरुषार्थ का लक्ष्य है ।
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− | भक्तियोग, कर्मयोग, राजयोग, ज्ञानयोग आदि
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− | अनुभूति तक पहुँचने के मार्ग हैं, अनुभूति नहीं । मार्ग
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− | में ज्ञान के विभिन्न स्वरूप सामने आते हैं जिन्हें
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− | व्यक्ति ज्ञान समझ लेता है परन्तु वे मार्ग के पड़ाव ही
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− | हैं यह समझना आवश्यक है ।
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− | अध्ययन अध्यापन की विभिन्न पद्धतियों में अनुभूति
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− | का तत्व निर्तर सामने रखने से ज्ञानार्जन के आनन्द
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− | की प्राप्ति हो सकती है । भले हि अनुभूति न हो तो
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− | भी उसकी झलक हमेशा मिलती रहती है। यह
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− | झलक भी बहुत मूल्यवान होती है ।
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− | भारत में ज्ञानसाधना
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− | क्रिया, संवेदन, विचार, भावना, विवेक, निर्णय, दायित्वबोध, अनुभूति
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− | स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि समस्त ज्ञान हमारे
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− | अन्दर ही होता है, शिक्षा से इसका अनावरण होता है ।
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− | श्रीमद्धगवद्ीता भी कहती है, 'अज्ञानेनावृतम्ू ज्ञानमू तेन
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− | मुहयन्ति जन्तव:' अर्थात ज्ञान अज्ञान से आवृत होता है
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− | इसलिए मनुष्य दिग्श्रमित होते हैं । अज्ञान का आवरण दूर
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− | कर अन्दर के ज्ञान को प्रकट करने हेतु सहायता करने वाले
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− | साधन मनुष्य को जन्मजात मिले हुए हैं । उन्हें ही ज्ञानार्जन
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− | के करण कहते हैं। इन करणों के जो कार्य हैं वे ही
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− | ज्ञानार्जन की प्रक्रिया है । ज्ञाना्जन के करण और उनके
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− | कार्य इस प्रकार हैं ...
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− | कर्मेन््रियों का कार्य क्रिया करना
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− | ज्ञानेन्द्रियों का कार्य संवेदनों का अनुभव करना | |
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− | मन का कार्य विचार करना और भावना का अनुभव | |
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− | करना | |
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− | बुद्धि का कार्य विवेक करना | |
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− | अहंकार का कार्य निर्णय करना | |
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− | चित्त का कार्य संस्कारों को ग्रहण करना | |
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− | इन सबके परिणामस्वरूप ज्ञान का उदय होता है | |
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− | अर्थात आत्मस्वरूप ज्ञान प्रकट होता है अर्थात अनावृत | |
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− | होता है । | |
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− | हम इन सब क्रियाओं को क्रमश: समझने का प्रयास | |
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− | करेंगे । | |
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− | क्रिया
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| + | == क्रिया == |
| कर्मन्द्रियाँ क्रिया करती हैं। पाँच में से हम तीन | | कर्मन्द्रियाँ क्रिया करती हैं। पाँच में से हम तीन |
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