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| आज कर्मन्द्रियों की क्रियाओं की इतनी दुर्दशा हुई है कि उसे फूहड़ कहना ही ठीक लगता है । एक तो हाथ, पैर आदि अब काम करने के लिए हैं ऐसा हमें लगता ही नहीं है । परन्तु इस धारणा में ही बदल करने की आवश्यकता है क्योंकि काम नहीं किया तो ये इंद्रियाँ स्वस्थ नहीं रहतीं और उन्हें यंत्र की तरह ही जंग लग जाती है । आज का अक्रिय मनोरंजन कर्मन्द्रियों को बीमार कर देता है। अक्रिय का अर्थ यह है कि हम संगीत सुनना चाहते हैं, स्वयं गाना नहीं, नृत्य देखना चाहते हैं, स्वयं नृत्य करना नहीं, हम यंत्रों से काम करवाना चाहते हैं हाथ से नहीं । हम वाहन से आनाजाना चाहते हैं, पैरों से नहीं । इस कारण से कर्मन्ट्रियों को असुख का अनुभव होता है, वे अपमानित और उपेक्षित अनुभव करती हैं, काम करने से वंचित रहती हैं इसलिए उदास रहती हैं और इसका परिणाम यह होता है कि भोक्ता अर्थात हम स्वयं आनन्द का अनुभव नहीं कर सकते । काम करने का आनन्द क्या होता है इसका हमें अनुभव ही नहीं होता है । | | आज कर्मन्द्रियों की क्रियाओं की इतनी दुर्दशा हुई है कि उसे फूहड़ कहना ही ठीक लगता है । एक तो हाथ, पैर आदि अब काम करने के लिए हैं ऐसा हमें लगता ही नहीं है । परन्तु इस धारणा में ही बदल करने की आवश्यकता है क्योंकि काम नहीं किया तो ये इंद्रियाँ स्वस्थ नहीं रहतीं और उन्हें यंत्र की तरह ही जंग लग जाती है । आज का अक्रिय मनोरंजन कर्मन्द्रियों को बीमार कर देता है। अक्रिय का अर्थ यह है कि हम संगीत सुनना चाहते हैं, स्वयं गाना नहीं, नृत्य देखना चाहते हैं, स्वयं नृत्य करना नहीं, हम यंत्रों से काम करवाना चाहते हैं हाथ से नहीं । हम वाहन से आनाजाना चाहते हैं, पैरों से नहीं । इस कारण से कर्मन्ट्रियों को असुख का अनुभव होता है, वे अपमानित और उपेक्षित अनुभव करती हैं, काम करने से वंचित रहती हैं इसलिए उदास रहती हैं और इसका परिणाम यह होता है कि भोक्ता अर्थात हम स्वयं आनन्द का अनुभव नहीं कर सकते । काम करने का आनन्द क्या होता है इसका हमें अनुभव ही नहीं होता है । |
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− | बाल अवस्था में कर्मेन्ट्रियाँ सक्रिय होने लगती हैं और काम चाहती हैं । यह ऐसा ही है जिस प्रकार भूख लगने पर पेट भोजन मांगता है । भूख इसलिए लगती है क्योंकि भोजन से शरीर की पुष्टि होती है । भूख लगने पर भोजन नहीं किया तो शरीर कृश होने लगता है, बलहीन होता है और अस्वस्थ भी होने लगता है । अच्छा भोजन नहीं होने पर शरीर बीमार भी होता है । उसी प्रकार बालअवस्था में कर्मन्द्रियाँ काम मांगती हैं क्योंकि यह उनकी आवश्यकता है । उस समय काम मिला और वह अच्छे से करना सिखाया तो वे सुख का अनुभव करती हैं, उन्हें अपने होने में सार्थकता का अनुभव होता है और वे स्वस्थ और कार्यक्षम होती हैं । अत: बालअवस्था की शिक्षा क्रियाआधारित होनी चाहिए । क्रिया सिखाना पहली बात है और क्रिया के माध्यम से अन्य बातें सीखना दूसरी बात है । | + | बाल अवस्था में कर्मेन्द्रियाँ सक्रिय होने लगती हैं और काम चाहती हैं । यह ऐसा ही है जिस प्रकार भूख लगने पर पेट भोजन मांगता है । भूख इसलिए लगती है क्योंकि भोजन से शरीर की पुष्टि होती है । भूख लगने पर भोजन नहीं किया तो शरीर कृश होने लगता है, बलहीन होता है और अस्वस्थ भी होने लगता है । अच्छा भोजन नहीं होने पर शरीर बीमार भी होता है । उसी प्रकार बालअवस्था में कर्मन्द्रियाँ काम मांगती हैं क्योंकि यह उनकी आवश्यकता है । उस समय काम मिला और वह अच्छे से करना सिखाया तो वे सुख का अनुभव करती हैं, उन्हें अपने होने में सार्थकता का अनुभव होता है और वे स्वस्थ और कार्यक्षम होती हैं । अत: बालअवस्था की शिक्षा क्रियाआधारित होनी चाहिए । क्रिया सिखाना पहली बात है और क्रिया के माध्यम से अन्य बातें सीखना दूसरी बात है । |
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| केवल कर्मेन्द्रियाँ ही क्रिया करती हैं ऐसा नहीं है। कर्मन्द्रियों के साथ साथ, कर्मन्द्रियों की सहायता से पूरा शरीर क्रिया करता है । पूरा शरीर यंत्र ही है जो काम करने के लिए बना है । शरीर को कार्यशील रखना आवश्यक है । उस दृष्टि से उसे काम करना सीखाना चाहिए और उससे काम लेना चाहिए । शरीर कार्यशील रहे इसलिए उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति करनी चाहिए । उसकी रक्षा भी करनी चाहिए । अन्न, वस्त्र, आवास की योजना शरीर को ध्यान में रखकर होनी चाहिए । यह विषय वैसे तो अति सामान्य है । परन्तु आज तथाकथित बडी बड़ी बातों के पीछे लगकर हमने इस सामान्य परन्तु अत्यन्त आवश्यक विषय को विस्मृत कर दिया है । ऐसा करने के कारण पूरी शिक्षा दुर्बल और निस्तेज बन गई है । भारतीय शिक्षा को पुन: शरीर रूपी यंत्र को कार्यरत करना होगा । | | केवल कर्मेन्द्रियाँ ही क्रिया करती हैं ऐसा नहीं है। कर्मन्द्रियों के साथ साथ, कर्मन्द्रियों की सहायता से पूरा शरीर क्रिया करता है । पूरा शरीर यंत्र ही है जो काम करने के लिए बना है । शरीर को कार्यशील रखना आवश्यक है । उस दृष्टि से उसे काम करना सीखाना चाहिए और उससे काम लेना चाहिए । शरीर कार्यशील रहे इसलिए उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति करनी चाहिए । उसकी रक्षा भी करनी चाहिए । अन्न, वस्त्र, आवास की योजना शरीर को ध्यान में रखकर होनी चाहिए । यह विषय वैसे तो अति सामान्य है । परन्तु आज तथाकथित बडी बड़ी बातों के पीछे लगकर हमने इस सामान्य परन्तु अत्यन्त आवश्यक विषय को विस्मृत कर दिया है । ऐसा करने के कारण पूरी शिक्षा दुर्बल और निस्तेज बन गई है । भारतीय शिक्षा को पुन: शरीर रूपी यंत्र को कार्यरत करना होगा । |
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| == विवेक == | | == विवेक == |
− | सही क्या और गलत क्या, उचित क्या और अनुचित | + | सही क्या और गलत क्या, उचित क्या और अनुचित क्या, करणीय क्या और अकरणीय क्या, अच्छा क्या और बुरा क्या यह स्पष्ट रूप से जानना यह विवेक है । अपरा |
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− | क्या, करणीय क्या और अकरणीय क्या, अच्छा क्या और
| + | विद्या का यह सर्वोच्च स्तर है । यही जानना है, समझना है, ज्ञात होना है । यह बुद्धि का क्षेत्र है । यह विज्ञान का क्षेत्र है । विज्ञान का अर्थ है जो जैसा है वैसा जानना।मन की ओर से विचारों के तरंग बुद्धि के पास आते हैं । उस समय वे मन के रंग में रंगे होते हैं । कभी कभी तो मन की ओर से आई हुई सामग्री इतनी गड्डमड्ड होती है कि बुद्धि को उसे ठीक करना बहुत कठिन पड़ता है । बुद्धि उसे सुलझाने का बहुत प्रयास करती है। अधिकांश वह सुलझाने में यशस्वी होती है पर कभी अभी हार भी जाती है और गलत समझ लेती है । अर्थात जो जैसा है वैसा नहीं अपितु मन जैसा कहता है वैसा समझ लेती है । विवेक तक पहुँचने के लिए विचारों को अनेक प्रक्रियाओं से गुजरना होता है। बुद्धि ही ये प्रक्रियायें चलाती हैं । |
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− | बुरा क्या यह स्पष्ट रूप से जानना यह विवेक है । अपरा
| + | सबसे सरल प्रक्रिया है निरीक्षण की । यह प्रक्रिया दर्शनेन्द्रिय की सहायता से होती है । दर्शनेन्द्रिय ने अपनी क्षमता से उसे जिस रंग के या आकृति के रूप में पहचाना है और मन ने जिन विचार तरंगों को ग्रहण कर प्रस्तुत किया है उन पर बुद्धि संकल्प की मुहर लगाती है । यह सम्पूर्ण रूप से आँख पर ही निर्भर करता है कि आँख क्या देखती है । |
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− | विद्या का यह सर्वोच्च स्तर है । यही जानना है, समझना है,
| + | यदि पूर्ण रूप से बुद्धि आँख और मन पर ही निर्भर है तो बुद्धि की भूमिका क्या रहेगी ? यदि आँख किसी पदार्थ को लाल रंग के और वृत्ताकार के रूप में पहचानती है और मन उसे नीला रंग और आयताकार कहता है तो बुद्धि तटस्थ होकर इसे लोक में और शास्त्रों में क्या कहा गया है यह देखकर अपना निश्चय करती है कि वास्तव में उस पदार्थ का आकार और रंग वही हैं जो मन कहता है या भिन्न । यदि भिन्न है तो वह मन का कहा नहीं मानती । ऐसे अनेक अनुभवों से वह यह भी तय करती है कि मन विश्वसनीय है कि नहीं । |
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− | ज्ञात होना है । यह बुद्धि का क्षेत्र है । यह विज्ञान का क्षेत्र
| + | प्रश्न यह उठेगा कि फिर बुद्धि सीधे ही निरीक्षण क्यों नहीं करती, मन को बीच में लाती ही क्यों है ? या इन्द्रियां सीधे बुद्धि के समक्ष अपने संवेदनों को क्यों नहीं भेजतीं। बीच में मन को लाती ही क्यों हैं ? बुद्धि और इंद्रियों को मन को बीच में लाना ही पड़ता है क्योंकि मन है और वह सक्रिय है । मन यदि अक्रिय हो जाता है तो यह काम सीधे भी हो सकता है। परन्तु मन अक्रिय हो ही नहीं सकता । वह सक्रिय भी है और बलवान और जिद्दी भी है। मन की बात मानने या नहीं मानने के लिए बुद्धि को सक्षम और शक्तिशाली होना ही पड़ता है। |
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− | है । विज्ञान का अर्थ है जो जैसा है वैसा जानना । | + | इंद्रियों और बुद्धि के बीच में मन आता है उसे अपने वश में रखना, अथवा दूसरे शब्दों में कहें तो उसके वश में नहीं हो जाना बुद्धि का काम है । बुद्धि के पास कार्यकारण भाव को समझने की शक्ति है, उसका प्रयोग बुद्धि को करना होता है। मन के पास ऐसी शक्ति नहीं है। वह नियम नहीं जानता, वह तटस्थ नहीं होता इसलिए तो हम किसी को |
| | | |
− | मन की ओर से विचारों के तरंग बुद्धि के पास आते
| + | ''कहते हैं कि “क्या मनमें आया ae ah |= उनके मिश्रण का अनुपात, मिश्रण करने की प्रक्रिया आदि'' |
| | | |
− | हैं । उस समय वे मन के रंग में रंगे होते हैं । कभी कभी तो
| + | ''जा रहे हो, जरा बुद्धि से तो विचार करके बोलो । मन में BMT अलग समझने के स्थान पर पूरा पदार्थ एक साथ'' |
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− | मन की ओर से आई हुई सामग्री इतनी गड्डमड्ड होती है कि
| + | ''कुछ भी संगत असंगत बातें आ सकती हैं बुद्धि में नहीं ।.. समझना संभ्लेषण है । उदाहरण के लिए हलुवा और लड्डू'' |
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− | बुद्धि को उसे ठीक करना बहुत कठिन पड़ता है । बुद्धि उसे
| + | ''कुछ भी नहीं, जो ठीक है वही आना यही विवेक है । जो... दोनों में आटा, घी और गुड ही सम्मिश्रित हुए हैं परन्तु'' |
| | | |
− | सुलझाने का बहुत प्रयास करती है। अधिकांश वह
| + | ''ठीक है उसीको यथार्थ कहते हैं । उनके मिश्रण की प्रक्रिया अलग अलग है इसलिए उनका'' |
| | | |
− | सुलझाने में यशस्वी होती है पर कभी अभी हार भी जाती है
| + | ''बुद्धि जब दुर्बल होती है और मन को वश में नहीं. रूप, रंग, स्वाद सब अलग अलग होता एकत्व का है ।'' |
| | | |
− | और गलत समझ लेती है । अर्थात जो जैसा है वैसा नहीं | + | ''कर सकती अथवा मन की उपेक्षा नहीं कर सकती तब. विश्लेषण करके भिन्नता समझना और संश्लेषण करके'' |
| | | |
− | अपितु मन जैसा कहता है वैसा समझ लेती है ।
| + | ''आकलन और निर्णय सही नहीं होते हैं । इसलिए मन को... अनुभव करना बुद्धि का काम है । एक चित्र में कौन कौन'' |
| | | |
− | विवेक तक पहुँचने के लिए विचारों को अनेक
| + | ''बीच में आने से रोकना बहुत आवश्यक है । मन को इस... से रंग हैं यह जानना विश्लेषण है और उस चित्र के सौन्दर्य'' |
| | | |
− | प्रक्रियाओं से गुजरना होता है। बुद्धि ही ये प्रक्रियायें
| + | ''प्रकार साधना चाहिए कि वह बुद्धि के अनुकूल हो और का आस्वाद लेना संश्लेषण है। आनन्द लेने के लिए'' |
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− | $33
| + | ''उसकी बात माने । केवल उपेक्षा करते रहने से तो वह ताक. संश्लेषणात्मक प्रक्रिया चाहिए, प्रक्रिया समझने के लिए'' |
| | | |
− | चलाती हैं ।
| + | ''में रहता है कि कब मौका मिले और कब मनमानी करे । विश्लेषणात्मक पद्धति चाहिए । ये दोनों बुद्धि से होते हैं'' |
| | | |
− | सबसे सरल प्रक्रिया है निरीक्षण की । यह प्रक्रिया
| + | ''बुद्धि की दूसरी शक्ति या साधन है परीक्षण । यह भी... और विवेक के प्रति ले जाते हैं ।'' |
| | | |
− | दशनिन्द्रिय की सहायता से होती है ।
| + | ''ज्ञानेन्द्रियों के सहयोग से ही होता है । यह केवल दर्शनिन्द्रिय निरीक्षण, परीक्षण, विश्लेषण और संश्लेषण के'' |
| | | |
− | दर्शनेन्द्रिय ने अपनी क्षमता से उसे जिस रंग के या
| + | ''से नहीं तो पांचों ज्ञानेंद्रियों के सहयोग से होता है । इसकी. आधार पर विवेक होता है । अभ्यास से यह विवेकशक्ति'' |
| | | |
− | आकृति के रूप में पहचाना है और मन ने जिन विचार
| + | ''भी स्थिति दृशनिन्द्रिय और मन के जैसी ही होती है । बढ़ती जाती है । अभ्यास से आकलन शक्ति भी बढ़ती'' |
| | | |
− | तरंगों को ग्रहण कर प्रस्तुत किया है उन पर बुद्धि संकल्प
| + | ''इसके आगे कार्यकारण सम्बन्ध जानने की जो शक्ति... जाती है। मन सहयोगी बन जाता है। मन को समझाया'' |
| | | |
− | की मुहर लगाती है । यह सम्पूर्ण रूप से आँख पर ही निर्भर | + | ''है वह बुद्धि की अपनी ही है परन्तु निरीक्षण और परीक्षण... जाता है तब तो वह सही में सहयोगी बनता है, उसे दबाया'' |
| | | |
− | करता है कि आँख क्या देखती है ।
| + | ''के परिपक्क होने से ही वह आती है । अपने आसपास की... जाता है तो कभी भी अविश्वासु अनुचर के समान धोखा'' |
| | | |
− | यदि पूर्ण रूप से बुद्धि आँख और मन पर ही निर्भर है
| + | ''परिस्थिति का आकलन करना और चित्त में जो पूर्व. देता है और मनमानी का प्रभाव बुद्धि पर होकर वह भटक'' |
| | | |
− | तो बुद्धि की भूमिका कया रहेगी ?
| + | ''अनुभवों की स्मृतियाँ संग्रहीत हैं उनके आधार पर... जाती है।'' |
| | | |
− | यदि आँख किसी पदार्थ को लाल रंग के और
| + | ''कार्यकारण सम्बन्ध समझना उसके लिए सम्भव होता है । अभ्यास से बुद्धि तेजस्वी बनती है और अटपटे और'' |
| | | |
− | वृत्ताकार के रूप में पहचानती है और मन उसे नीला रंग
| + | ''बुद्धि मन से पीछा छुड़ाकर चित्तनिष्ठ और आत्मनिष्ठ बनकर... जटिल विषय भी उसे कठिन नहीं लगते । समझने में उसे देर'' |
| | | |
− | और आयताकार कहता है तो बुद्धि तटस्थ होकर इसे लोक
| + | ''व्यवहार करती है तभी विवेक कर सकती है । कार्यकारण. भी नहीं लगती । तब हम व्यक्ति को बुद्धिमान कहते हैं ।'' |
| | | |
− | में और शास्त्रों में क्या कहा गया है यह देखकर अपना
| + | ''सम्बन्ध बिठाने के लिए संश्लेषण और विश्लेषण करना... जैसे सधे हुए हाथ सहजता से काम कर लेते हैं वैसे ही'' |
| | | |
− | निश्चय करती है कि वास्तव में उस पदार्थ का आकार और
| + | ''होता है । एक ही घटना अथवा पदार्थ या रचना के भिन्न. सधी हुई बुद्धि सहजता से समझ लेती है । ऐसे व्यक्ति को'' |
| | | |
− | रंग वही हैं जो मन कहता है या भिन्न । यदि भिन्न है तो वह
| + | ''भिन्न आयामों को अलग अलग कर समझना विश्लेषण है ।. हम बुद्धिमान व्यक्ति कहते हैं । यह बुद्धि तेजस्वी के साथ'' |
| | | |
− | मन का कहा नहीं मानती । ऐसे अनेक अनुभवों से वह यह
| + | ''उदाहरण के लिए हमारा पूरा शरीर एक ही है परन्तु उसका... साथ कुशाग्र भी होती है और विशाल भी होती है । कुशाग्र'' |
| | | |
− | भी तय करती है कि मन विश्वसनीय है कि नहीं ।
| + | ''कार्य समझने के लिए हम हाथ, पैर, मस्तक ऐसे अलग... बुद्धि वह है जो अत्यन्त जटिल बातों की बारिकियों को'' |
| | | |
− | प्रश्न यह उठेगा कि फिर बुद्धि सीधे ही निरीक्षण क्यों
| + | ''अलग हिस्से कर उनके कार्य समझते हैं । खाद्य पदार्थ एक... स्पष्ट समझती है । विशाल बुद्धि वह है जो अत्यन्त व्यापक'' |
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− | नहीं करती, मन को बीच में लाती ही क्यों है ? या इन्द्रियां
| + | ''ही है परन्तु उसमें कौन कौन से पदार्थों का संमिश्रण है और. बातों का आकलन भी सहजता से कर लेती है । यह सब'' |
| | | |
− | सीधे बुद्धि के समक्ष अपने संवेदनों को क्यों नहीं भेजतीं ।
| + | ''उनके मिश्रण की क्या प्रक्रिया है यह अलग अलग करके... संभव है।'' |
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− | बीच में मन को लाती ही क्यों हैं ?
| + | ''समझने का प्रयास करते हैं । बुद्धि स्वभाव से आत्मनिष्ठ होती है। वह अपने'' |
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− | बुद्धि और इंद्रियों को मन को बीच में लाना ही पड़ता
| + | ''उसके ठीक विपरीत प्रक्रिया संश्लेषण की है । पदार्थ, ... कार्यों के लिए चित्त पर निर्भर करती है यह अभी हमने'' |
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− | है क्योंकि मन है और वह सक्रिय है । मन यदि अक्रिय हो | + | देखा । चित्त संस्कारों का भंडार है । जन्मजन्मांतर के संस्कार इसमें संग्रहीत हैं । संस्कारों की ही स्मृति होती है । इस स्मृति का बुद्धि को बहुत उपयोग होता है । बुद्धि की विवेकशक्ति अत्यन्त परिपक्क होती है तब सृष्टि के सारे रहस्य उसके समक्ष प्रकट होते हैं । सृष्टि का मूल स्वरूप आत्मतत्व है यह सत्य उद्घाटित होता है और वह आत्मतत्व मैं ही हूँ, यह भी समझता है । केवल मैं ही नहीं तो समग्र सृष्टि ही आत्मतत्व है यह भी समझ में आता है। अत: मैं और सृष्टि के सभी पदार्थ एक ही हैं ऐसा भी समझ में आता है। परिणामस्वरूप आपपर भाव समाप्त हो जाता है। और अहम ब्रह्मास्मि तथा सर्व खलु इदं ब्रह्म समझ में आता है। यह बुद्धि से आत्मतत्व को जानना है । इसे भगवान शंकराचार्य विवेकख्याति कहते हैं। विवेकख्याति से यथार्थबोध होता है। बुद्धि से आत्मतत्व को समझना ज्ञानमार्ग अथवा ज्ञानयोग है । बुद्धि से तत्व को समझना तत्वज्ञान है। बुद्धि से शास्त्रों को समझना अपरा विद्या से परा विद्या की ओर जाना है। परिपक्क बुद्धि में अनुभूति की ओर जाने कि क्षमता होती है । |
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− | जाता है तो यह काम सीधे भी हो सकता है । परन्तु मन
| + | विवेकशक्ति को जागृत करना और विकसित करना शिक्षा का लक्ष्य है। परन्तु आज हम बुद्धि के केवल भौतिक पक्ष पर अटक गए हैं । जीवन को और जगत को भौतिक दृष्टिकोण से देखने का यह परिणाम है। इसे भौतिकवाद से बचाने का काम प्रथम करना होगा । दूसरा अवरोध यह है कि हम इंद्रियों और मन में अटक गए हैं। भौतिकवाद में अतिशय विश्वास होने के कारण हमने मापन और आकलन के यांत्रिक साधन विकसित किए हैं और बौद्धिक क्षमताओं के स्थान पर साधनों का प्रयोग शुरू किया है जो बुद्धिविकास में अवरोध बनता है । उदाहरण के लिये पहाड़ो के स्थान पर गणनयंत्र का उपयोग करके हमने गणनक्षमता को कुंठित कर दिया । भारत की पारंपरिक पद्धति में पहाड़े कंठस्थ करना हमारा अंगभूत गणनयंत्र था । उसकी अवमानना कर यान्त्रिक साधन को अपनाना हानिकारक ही सिद्ध होता है । यह उल्टी दिशा है जो बुद्धिविकास के लिए हानिकारक है । ऐसी तो सैकड़ों बाते हैं जो सुविधा के नाम पर बुद्धिविकास के मार्ग में अवरोध बनकर जम गईं हैं । इन सबकी चर्चा करने का यह स्थान नहीं है परन्तु ज्ञानक्षेत्र के सन्दर्भ में इनका विचार करना अपरिहार्य है । |
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− | अक्रिय हो ही नहीं सकता । वह सक्रिय भी है और बलवान
| + | == निर्णय और दायित्वबोध == |
| + | पदार्थ को कर्मेन्द्रिय ने भौतिक रूप में, ज्ञानेन्द्रियों ने संवेदन के रूप में, मन ने विचार के रूप में और बुद्धि ने विवेक के रूप में ग्रहण किया । तात्विक रूप में बुद्धि ने निश्चय करके पदार्थ को यथार्थ रूप में बताया । परन्तु ज्ञान किसे हुआ ? व्यवहार क्षेत्र में ज्ञान अहकार को होता है क्योंकि वही कर्ता है । किसी भी प्रकार की क्रिया को करने वाला और किसी भी बात को जानने वाला अहंकार है । मैं जानता हूँ, मैं करता हूँ, मैं चाहता हूँ, मुझे चाहिए ऐसा कहने वाला अहंकार होता है । इसलिए बुद्धि ने जो निश्चय करके दिया उसे लागू करने का निर्णय अहंकार का होता है। |
| | | |
− | और जिद्दी भी है। मन की बात मानने या नहीं मानने के
| + | अहंकार के समक्ष दो विकल्प होते हैं । आत्मतत्व की सत्ता मानकर उसके प्रतिनिधि के रूप में निर्णय करना एक विकल्प है । आत्मतत्व को न मानकर अपने आप ही ज्ञान का स्वामित्व स्वीकार कर निर्णय करना दूसरा विकल्प है । आत्मतत्व को मानता है तब वह विनम्र होता है, नहीं मानता है तब मदान्वित होता है । व्यवहार में हम दोनों प्रकार के मनुष्य देखते ही हैं । (तीसरा एक दम्भी प्रकार होता है जो आत्मतत्व को मानता तो नहीं है परन्तु मानता है ऐसा बताकर झूठी नम्रता धारण करता है ।) विवेकशक्ति में कहीं चूक होती है तब अहंकार आत्मतत्व को नहीं मानता है । |
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− | लिए बुद्धि को सक्षम और शक्तिशाली होना ही पड़ता 2 |
| + | आत्मतत्व को नहीं मानने वाला अहंकार आसुरी होता है जिसका यथार्थ वर्णन भगवद्दीता में किया गया है । विनम्र अहंकार के साथ ज्ञाताभाव, भोक्ताभाव और कर्ताभाव होता है । इसलिए व्यवहारजगत में उसके साथ दायित्वबोध जुड़ता है । जो भी हो रहा है मेरे करने से हो रहा है, जो भी मैं कर रहा हूँ उसका फल मुझे भोगना है, मेरे भोग के लिए जिम्मेदार मैं ही हूँ, जो भी हो रहा है उसे मैं जानता हूँ इसलिए दायित्व भी मेरा ही है ऐसा दायित्वबोध अहंकार की शक्ति है । यह विधायक भी होता है और नकारात्मक भी । |
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− | इंद्रियों और बुद्धि के बीच में मन आता है उसे अपने वश में
| + | अत: ज्ञानक्षेत्र के साथ दायित्वबोध जुड़ने की अत्यन्त आवश्यकता है । व्यक्तिगत जीवन की तथा राष्ट्रीय जीवन की हर समस्याका ज्ञानात्मक समाधान देना ज्ञानक्षेत्र का दायित्व है। |
− | | |
− | रखना, अथवा दूसरे शब्दों में कहें तो उसके वश में नहीं हो
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− | जाना बुद्धि का काम है । बुद्धि के पास कार्यकारण भाव को
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− | समझने की शक्ति है, उसका प्रयोग बुद्धि को करना होता
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− | है। मन के पास ऐसी शक्ति नहीं है। वह नियम नहीं
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− | जानता, वह तटस्थ नहीं होता इसलिए तो हम किसीको
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− | ............. page-150 .............
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− | भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
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− | कहते हैं कि “क्या मनमें आया ae ah |= उनके मिश्रण का अनुपात, मिश्रण करने की प्रक्रिया आदि
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− | जा रहे हो, जरा बुद्धि से तो विचार करके बोलो । मन में BMT अलग समझने के स्थान पर पूरा पदार्थ एक साथ
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− | | |
− | कुछ भी संगत असंगत बातें आ सकती हैं बुद्धि में नहीं ।.. समझना संभ्लेषण है । उदाहरण के लिए हलुवा और लड्डू
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− | | |
− | कुछ भी नहीं, जो ठीक है वही आना यही विवेक है । जो... दोनों में आटा, घी और गुड ही सम्मिश्रित हुए हैं परन्तु
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− | ठीक है उसीको यथार्थ कहते हैं । उनके मिश्रण की प्रक्रिया अलग अलग है इसलिए उनका
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− | | |
− | बुद्धि जब दुर्बल होती है और मन को वश में नहीं. रूप, रंग, स्वाद सब अलग अलग होता एकत्व का है ।
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− | | |
− | कर सकती अथवा मन की उपेक्षा नहीं कर सकती तब. विश्लेषण करके भिन्नता समझना और संश्लेषण करके
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− | | |
− | आकलन और निर्णय सही नहीं होते हैं । इसलिए मन को... अनुभव करना बुद्धि का काम है । एक चित्र में कौन कौन
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− | | |
− | बीच में आने से रोकना बहुत आवश्यक है । मन को इस... से रंग हैं यह जानना विश्लेषण है और उस चित्र के सौन्दर्य
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− | | |
− | प्रकार साधना चाहिए कि वह बुद्धि के अनुकूल हो और का आस्वाद लेना संश्लेषण है। आनन्द लेने के लिए
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− | | |
− | उसकी बात माने । केवल उपेक्षा करते रहने से तो वह ताक. संश्लेषणात्मक प्रक्रिया चाहिए, प्रक्रिया समझने के लिए
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− | | |
− | में रहता है कि कब मौका मिले और कब मनमानी करे । विश्लेषणात्मक पद्धति चाहिए । ये दोनों बुद्धि से होते हैं
| |
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− | बुद्धि की दूसरी शक्ति या साधन है परीक्षण । यह भी... और विवेक के प्रति ले जाते हैं ।
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− | ज्ञानेन्द्रियों के सहयोग से ही होता है । यह केवल दर्शनिन्द्रिय निरीक्षण, परीक्षण, विश्लेषण और संश्लेषण के
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− | से नहीं तो पांचों ज्ञानेंद्रियों के सहयोग से होता है । इसकी. आधार पर विवेक होता है । अभ्यास से यह विवेकशक्ति
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− | भी स्थिति दृशनिन्द्रिय और मन के जैसी ही होती है । बढ़ती जाती है । अभ्यास से आकलन शक्ति भी बढ़ती
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− | इसके आगे कार्यकारण सम्बन्ध जानने की जो शक्ति... जाती है। मन सहयोगी बन जाता है। मन को समझाया
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− | है वह बुद्धि की अपनी ही है परन्तु निरीक्षण और परीक्षण... जाता है तब तो वह सही में सहयोगी बनता है, उसे दबाया
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− | के परिपक्क होने से ही वह आती है । अपने आसपास की... जाता है तो कभी भी अविश्वासु अनुचर के समान धोखा
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− | परिस्थिति का आकलन करना और चित्त में जो पूर्व. देता है और मनमानी का प्रभाव बुद्धि पर होकर वह भटक
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− | अनुभवों की स्मृतियाँ संग्रहीत हैं उनके आधार पर... जाती है।
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− | कार्यकारण सम्बन्ध समझना उसके लिए सम्भव होता है । अभ्यास से बुद्धि तेजस्वी बनती है और अटपटे और
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− | बुद्धि मन से पीछा छुड़ाकर चित्तनिष्ठ और आत्मनिष्ठ बनकर... जटिल विषय भी उसे कठिन नहीं लगते । समझने में उसे देर
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− | व्यवहार करती है तभी विवेक कर सकती है । कार्यकारण. भी नहीं लगती । तब हम व्यक्ति को बुद्धिमान कहते हैं ।
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− | सम्बन्ध बिठाने के लिए संश्लेषण और विश्लेषण करना... जैसे सधे हुए हाथ सहजता से काम कर लेते हैं वैसे ही
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− | होता है । एक ही घटना अथवा पदार्थ या रचना के भिन्न. सधी हुई बुद्धि सहजता से समझ लेती है । ऐसे व्यक्ति को
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− | भिन्न आयामों को अलग अलग कर समझना विश्लेषण है ।. हम बुद्धिमान व्यक्ति कहते हैं । यह बुद्धि तेजस्वी के साथ
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− | उदाहरण के लिए हमारा पूरा शरीर एक ही है परन्तु उसका... साथ कुशाग्र भी होती है और विशाल भी होती है । कुशाग्र
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− | कार्य समझने के लिए हम हाथ, पैर, मस्तक ऐसे अलग... बुद्धि वह है जो अत्यन्त जटिल बातों की बारिकियों को
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− | अलग हिस्से कर उनके कार्य समझते हैं । खाद्य पदार्थ एक... स्पष्ट समझती है । विशाल बुद्धि वह है जो अत्यन्त व्यापक
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− | ही है परन्तु उसमें कौन कौन से पदार्थों का संमिश्रण है और. बातों का आकलन भी सहजता से कर लेती है । यह सब
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− | उनके मिश्रण की क्या प्रक्रिया है यह अलग अलग करके... संभव है।
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− | समझने का प्रयास करते हैं । बुद्धि स्वभाव से आत्मनिष्ठ होती है। वह अपने
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− | उसके ठीक विपरीत प्रक्रिया संश्लेषण की है । पदार्थ, ... कार्यों के लिए चित्त पर निर्भर करती है यह अभी हमने
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− | 83x
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− | पर्व ३ : शिक्षा का मनोविज्ञान
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− | देखा । चित्त संस्कारों का भंडार है । जन्मजन्मांतर के
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− | संस्कार इसमें संग्रहीत हैं । संस्कारों की ही स्मृति होती है ।
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− | इस स्मृति का बुद्धि को बहुत उपयोग होता है ।
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− | | |
− | बुद्धि की विवेकशक्ति अत्यन्त परिपक्क होती है तब
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− | | |
− | सृष्टि के सारे रहस्य उसके समक्ष प्रकट होते हैं [सृष्टि का
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− | | |
− | मूल स्वरूप आत्मतत्त्व है यह सत्य उद्घाटित होता है और
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− | | |
− | वह आत्मतत्त्व मैं ही हूँ यह भी समझता है । केवल मैं ही
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− | | |
− | नहीं तो समग्र सृष्टि ही आत्मतत्त्व है यह भी समझ में आता
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− | | |
− | है । अत: मैं और सृष्टि के सभी पदार्थ एक ही हैं ऐसा भी
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− | | |
− | समझ में आता है । परिणामस्वरूप आपपर भाव समाप्त हो
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− | | |
− | जाता है। और अहम ब्रह्मास्मि तथा सर्व खलु इदं ब्रह्म
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− | | |
− | समझ में आता है ।
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− | यह बुद्धि से आत्मतत्त्त को जानना है । इसे भगवान
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− | शंकराचार्य विवेकख्याति कहते हैं। विवेकख्याति से
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− | यथार्थबोध होता है ।
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− | | |
− | बुद्धि से आत्मतत्त्व को समझना ज्ञानमार्ग अथवा
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− | | |
− | ज्ञानयोग है । बुद्धि से तत्त्व को समझना तत्त्वज्ञान है । बुद्धि
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− | | |
− | से शास्त्रों को समझना अपरा विद्या से परा विद्या की ओर
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− | | |
− | जाना है। परिपक्क बुद्धि में अनुभूति की ओर जाने कि
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− | | |
− | क्षमता होती है ।
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− | विवेकशक्ति को जागृत करना और विकसित करना
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− | | |
− | शिक्षा का लक्ष्य है। परन्तु आज हम बुद्धि के केवल
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− | | |
− | भौतिक पक्ष पर अटक गए हैं । जीवन को और जगत को
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− | | |
− | भौतिक दृष्टिकोण से देखने का यह परिणाम है। इसे
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− | | |
− | भौतिकवाद से बचाने का काम प्रथम करना होगा ।
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− | | |
− | दूसरा अवरोध यह है कि हम इंद्रियों और मन में
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− | | |
− | अटक गए हैं। भौतिकवाद में अतिशय विश्वास होनेके
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− | | |
− | कारण हमने मापन और आकलन के यांत्रिक साधन
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− | | |
− | विकसित किए हैं और बौद्धिक क्षमताओं के स्थान पर
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− | | |
− | साधनों का प्रयोग शुरू किया है जो बुद्धिबिकास में अवरोध
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− | | |
− | बनता है । उदाहरण के लिये पहाड़ो के स्थान पर गणनयंत्र
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− | | |
− | का उपयोग करके हमने गणनक्षमता को कुंठित कर दिया ।
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− | | |
− | भारत की पारंपरिक पद्धति में पहाड़े कंठस्थ करना हमारा
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− | अंगभूत गणनयंत्र था । उसकी अवमानना कर यान्त्रिक
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− | श्३५्
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− | साधन को अपनाना हानिकारक ही
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− | | |
− | सिद्ध होता है । यह उल्टी दिशा है जो बुद्धिविकास के लिए
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− | हानिकारक है । ऐसी तो सेंकड़ों बाते हैं जो सुविधा के नाम
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− | | |
− | पर बुद्धिविकास के मार्ग में अवरोध बनकर जम गईं हैं । इन
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− | | |
− | सबकी चर्चा करने का यह स्थान नहीं है परन्तु ज्ञानक्षेत्र के
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− | | |
− | सन्दर्भ में इनका विचार करना अपरिहार्य है ।
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− | == निर्णय और दायित्वबोध ==
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− | पदार्थ को कर्मेन्ट्रिय ने भौतिक रूप में, ज्ञानेन्द्रियों ने
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− | | |
− | संवेदन के रूप में, मन ने विचार के रूप में और बुद्धि ने
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− | | |
− | विवेक के रूप में ग्रहण किया । तात्विक रूप में बुद्धि ने
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− | | |
− | निश्चय करके पदार्थ को यथार्थ रूप में बताया । परन्तु ज्ञान
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− | | |
− | किसे हुआ ? व्यवहार क्षेत्र में ज्ञान अहकार को होता है
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− | | |
− | क्योंकि वही कर्ता है । किसी भी प्रकार की क्रिया को करने
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− | वाला और किसी भी बात को जानने वाला अहंकार है । मैं
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− | | |
− | जानता हूँ, मैं करता हूँ, मैं चाहता हूँ, मुझे चाहिए ऐसा
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− | | |
− | कहने वाला अहंकार होता है । इसलिए बुद्धि ने जो निश्चय
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− | | |
− | करके दिया उसे लागू करने का निर्णय अहंकार का होता
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− | | |
− | है।
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− | अहंकार के समक्ष दो विकल्प होते हैं । आत्मतत्त्व
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− | | |
− | की सत्ता मानकर उसके प्रतिनिधि के रूप में निर्णय करना
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− | | |
− | एक विकल्प है । आत्मतत्त्व को न मानकर अपने आप ही
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− | | |
− | ज्ञान का स्वामित्व स्वीकार कर निर्णय करना दूसरा विकल्प
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− | | |
− | है । आत्मतत्त्व को मानता है तब वह विनम्र होता है, नहीं
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− | | |
− | मानता है तब मदान्वित होता है । व्यवहार में हम दोनों
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− | | |
− | प्रकार के मनुष्य देखते ही हैं । (तीसरा एक दम्भी प्रकार
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− | | |
− | होता है जो आत्मतत्त्व को मानता तो नहीं है परन्तु मानता
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− | | |
− | है ऐसा बताकर झूठी नम्रता धारण करता है ।) विवेकशक्ति
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− | | |
− | में कहीं चूक होती है तब अहंकार आत्मतत्त्व को नहीं
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− | मानता है ।
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− | आत्मतत्त्व को नहीं मानने वाला अहंकार आसुरी
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− | | |
− | होता है जिसका यथार्थ वर्णन भगवद्दीता में किया गया है ।
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− | | |
− | विनम्र अहंकार के साथ ज्ञाताभाव, भोक्ताभाव और
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− | कतभिाव होता है । इसलिए व्यवहारजगत में उसके साथ
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− | दायित्वबोध जुड़ता है । जो भी हो रहा
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− | है मेरे करने से हो रहा है, जो भी मैं कर रहा हूँ उसका फल
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− | | |
− | मुझे भोगना है, मेरे भोग के लिए जिम्मेदार मैं ही हूँ, जो भी
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− | | |
− | हो रहा है उसे मैं जानता हूँ इसलिए दायित्व भी मेरा ही है
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− | | |
− | ऐसा दायित्वबोध अहंकार कि शक्ति है । यह विधायक भी
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− | होता है और नकारात्मक भी ।
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− | अत: ज्ञानक्षेत्र के साथ दायित्वबोध जुड़ने की | |
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− | अत्यन्त आवश्यकता है । व्यक्तिगत जीवन की तथा राष्ट्रीय | |
− | | |
− | जीवन की हर समस्याका ज्ञानात्मक समाधान देना ज्ञानक्षेत्र | |
− | | |
− | का दायित्व है । | |
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| == अनुभूति == | | == अनुभूति == |
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− | === अनुभूति की शिक्षा === | + | === <u>अनुभूति की शिक्षा</u> === |
| ज्ञानेन्द्रियों से और कर्मन्द्रियों से जानना होता है । वह | | ज्ञानेन्द्रियों से और कर्मन्द्रियों से जानना होता है । वह |
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| सुख बिना इंद्रियों के होता है । किसी भी प्रकार से हो मन | | सुख बिना इंद्रियों के होता है । किसी भी प्रकार से हो मन |
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− | से होने वाला ज्ञान सापेक्ष ही होता है । मन तत्त्वार्थ नहीं | + | से होने वाला ज्ञान सापेक्ष ही होता है । मन तत्वार्थ नहीं |
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| जान सकता । | | जान सकता । |
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− | तत्त्वार्थ जानने के लिए बुद्धि सक्षम होती है । वह
| + | तत्वार्थ जानने के लिए बुद्धि सक्षम होती है । वह |
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| विवेक से काम लेती है । विवेक निरपेक्ष होता है । वह मन | | विवेक से काम लेती है । विवेक निरपेक्ष होता है । वह मन |
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| अध्ययन अध्यापन की विभिन्न पद्धतियों में अनुभूति | | अध्ययन अध्यापन की विभिन्न पद्धतियों में अनुभूति |
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− | का तत्त्व निर्तर सामने रखने से ज्ञानार्जन के आनन्द | + | का तत्व निर्तर सामने रखने से ज्ञानार्जन के आनन्द |
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| की प्राप्ति हो सकती है । भले हि अनुभूति न हो तो | | की प्राप्ति हो सकती है । भले हि अनुभूति न हो तो |
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| इसका हमें अनुभव ही नहीं होता है । | | इसका हमें अनुभव ही नहीं होता है । |
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− | बाल अवस्था में कर्मेन्ट्रियाँ सक्रिय होने लगती हैं | + | बाल अवस्था में कर्मेन्द्रियाँ सक्रिय होने लगती हैं |
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| और काम चाहती हैं । यह ऐसा ही है जिस प्रकार भूख | | और काम चाहती हैं । यह ऐसा ही है जिस प्रकार भूख |
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| सृष्टि के सारे रहस्य उसके समक्ष प्रकट होते हैं [सृष्टि का | | सृष्टि के सारे रहस्य उसके समक्ष प्रकट होते हैं [सृष्टि का |
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− | मूल स्वरूप आत्मतत्त्व है यह सत्य उद्घाटित होता है और | + | मूल स्वरूप आत्मतत्व है यह सत्य उद्घाटित होता है और |
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− | वह आत्मतत्त्व मैं ही हूँ यह भी समझता है । केवल मैं ही | + | वह आत्मतत्व मैं ही हूँ यह भी समझता है । केवल मैं ही |
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− | नहीं तो समग्र सृष्टि ही आत्मतत्त्व है यह भी समझ में आता | + | नहीं तो समग्र सृष्टि ही आत्मतत्व है यह भी समझ में आता |
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| है । अत: मैं और सृष्टि के सभी पदार्थ एक ही हैं ऐसा भी | | है । अत: मैं और सृष्टि के सभी पदार्थ एक ही हैं ऐसा भी |
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| यथार्थबोध होता है । | | यथार्थबोध होता है । |
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− | बुद्धि से आत्मतत्त्व को समझना ज्ञानमार्ग अथवा | + | बुद्धि से आत्मतत्व को समझना ज्ञानमार्ग अथवा |
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− | ज्ञानयोग है । बुद्धि से तत्त्व को समझना तत्त्वज्ञान है । बुद्धि | + | ज्ञानयोग है । बुद्धि से तत्व को समझना तत्वज्ञान है । बुद्धि |
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| से शास्त्रों को समझना अपरा विद्या से परा विद्या की ओर | | से शास्त्रों को समझना अपरा विद्या से परा विद्या की ओर |
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| निर्णय और दायित्वबोध | | निर्णय और दायित्वबोध |
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− | पदार्थ को कर्मेन्ट्रिय ने भौतिक रूप में, ज्ञानेन्द्रियों ने | + | पदार्थ को कर्मेन्द्रिय ने भौतिक रूप में, ज्ञानेन्द्रियों ने |
| | | |
| संवेदन के रूप में, मन ने विचार के रूप में और बुद्धि ने | | संवेदन के रूप में, मन ने विचार के रूप में और बुद्धि ने |
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| है। | | है। |
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− | अहंकार के समक्ष दो विकल्प होते हैं । आत्मतत्त्व | + | अहंकार के समक्ष दो विकल्प होते हैं । आत्मतत्व |
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| की सत्ता मानकर उसके प्रतिनिधि के रूप में निर्णय करना | | की सत्ता मानकर उसके प्रतिनिधि के रूप में निर्णय करना |
| | | |
− | एक विकल्प है । आत्मतत्त्व को न मानकर अपने आप ही | + | एक विकल्प है । आत्मतत्व को न मानकर अपने आप ही |
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| ज्ञान का स्वामित्व स्वीकार कर निर्णय करना दूसरा विकल्प | | ज्ञान का स्वामित्व स्वीकार कर निर्णय करना दूसरा विकल्प |
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− | है । आत्मतत्त्व को मानता है तब वह विनम्र होता है, नहीं | + | है । आत्मतत्व को मानता है तब वह विनम्र होता है, नहीं |
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| मानता है तब मदान्वित होता है । व्यवहार में हम दोनों | | मानता है तब मदान्वित होता है । व्यवहार में हम दोनों |
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| प्रकार के मनुष्य देखते ही हैं । (तीसरा एक दम्भी प्रकार | | प्रकार के मनुष्य देखते ही हैं । (तीसरा एक दम्भी प्रकार |
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− | होता है जो आत्मतत्त्व को मानता तो नहीं है परन्तु मानता | + | होता है जो आत्मतत्व को मानता तो नहीं है परन्तु मानता |
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| है ऐसा बताकर झूठी नम्रता धारण करता है ।) विवेकशक्ति | | है ऐसा बताकर झूठी नम्रता धारण करता है ।) विवेकशक्ति |
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− | में कहीं चूक होती है तब अहंकार आत्मतत्त्व को नहीं | + | में कहीं चूक होती है तब अहंकार आत्मतत्व को नहीं |
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| मानता है । | | मानता है । |
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− | आत्मतत्त्व को नहीं मानने वाला अहंकार आसुरी
| + | आत्मतत्व को नहीं मानने वाला अहंकार आसुरी |
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| होता है जिसका यथार्थ वर्णन भगवद्दीता में किया गया है । | | होता है जिसका यथार्थ वर्णन भगवद्दीता में किया गया है । |
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Line 1,802: |
| सुख बिना इंद्रियों के होता है । किसी भी प्रकार से हो मन | | सुख बिना इंद्रियों के होता है । किसी भी प्रकार से हो मन |
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− | से होने वाला ज्ञान सापेक्ष ही होता है । मन तत्त्वार्थ नहीं | + | से होने वाला ज्ञान सापेक्ष ही होता है । मन तत्वार्थ नहीं |
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| जान सकता । | | जान सकता । |
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− | तत्त्वार्थ जानने के लिए बुद्धि सक्षम होती है । वह
| + | तत्वार्थ जानने के लिए बुद्धि सक्षम होती है । वह |
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| विवेक से काम लेती है । विवेक निरपेक्ष होता है । वह मन | | विवेक से काम लेती है । विवेक निरपेक्ष होता है । वह मन |
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Line 2,126: |
| अध्ययन अध्यापन की विभिन्न पद्धतियों में अनुभूति | | अध्ययन अध्यापन की विभिन्न पद्धतियों में अनुभूति |
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− | का तत्त्व निर्तर सामने रखने से ज्ञानार्जन के आनन्द | + | का तत्व निर्तर सामने रखने से ज्ञानार्जन के आनन्द |
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| की प्राप्ति हो सकती है । भले हि अनुभूति न हो तो | | की प्राप्ति हो सकती है । भले हि अनुभूति न हो तो |