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→‎वनवासी क्षेत्र और शिक्षा: लेख सम्पादित किया
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* जीवन की उनकी अपनी समझ है । उनके मनुष्यों के साथ और वन्य पशुओं तथा वनस्पति जगत के साथ सम्बन्ध मूल रूप से न्याय, मैत्री और प्रामाणिकता के होते हैं। उनकी जीवनविषयक समझ सादी परन्तु सीधी होती है, जटिलता बहुत कम होती है ।
 
* जीवन की उनकी अपनी समझ है । उनके मनुष्यों के साथ और वन्य पशुओं तथा वनस्पति जगत के साथ सम्बन्ध मूल रूप से न्याय, मैत्री और प्रामाणिकता के होते हैं। उनकी जीवनविषयक समझ सादी परन्तु सीधी होती है, जटिलता बहुत कम होती है ।
 
* संक्षेप में कहें तो सांस्कृतिक और भौतिक दोनों दृष्टि से उनका जीवन स्वयमपूर्ण होता है । इस संस्कृति पर आज जो संकट छाये हैं वे अधिकांश हमारे कारण से हैं । इनका स्वरूप इस प्रकार का है:
 
* संक्षेप में कहें तो सांस्कृतिक और भौतिक दोनों दृष्टि से उनका जीवन स्वयमपूर्ण होता है । इस संस्कृति पर आज जो संकट छाये हैं वे अधिकांश हमारे कारण से हैं । इनका स्वरूप इस प्रकार का है:
हम उन्हें समझने की परवाह नहीं करते हैं । हमारे
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# हम उन्हें समझने की परवाह नहीं करते हैं । हमारे अल्पज्ञान के कारण वे हमारे जैसे नहीं हैं इसलिए विकसित नहीं हैं और हमारे पास हैं ऐसी सुविधायें नहीं हैं इसलिए वे दुःखी हैं ऐसा मानते हैं । हमारे जैसी शिक्षा देंगे तो उनका विकास होगा यह हमारा भ्रम है। हमारे जैसी शिक्षा प्राप्त कर हमारे जैसी नौकरी करना, हमारे जैसे कपड़े पहनना, हमारे जैसी भाषा बोलना, हमारे जैसे घरों में रहना आदि विकास के लक्षण हैं ऐसा हमारा विचार उनके लिये संकट का ही कारण बनता है परन्तु इसका विचार हमें नहीं आता है। जो हमारे जैसा नहीं वह विकसित नहीं यह तो बहुत ही असहिष्णु विचार है, अमानवीय विचार है, भारत की संस्कृति का यह विचार है ही नहीं । इसलिए शिक्षा का विचार करते समय हमें उन्हें अपने जैसा बनाना है यह विचार ही छोड़ देना चाहिए ।
 
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# वन्य सम्पदा की भयंकर लूट, हमारे ही लाभ के कानून बनाकर उनका होने वाला भयानक शोषण और उन्हें असंस्कृत मानकर उनके लिए की जाने वाली हमारे जैसी शिक्षा व्यवस्था हमने उन पर किया हुआ आक्रमण है। हमारे बुद्धिबल, सत्ताबल और पुलिसबल के कारण हमने उन्हें कहीं का नहीं रखा है । उनके लिये शिक्षा की व्यवस्था करने से पूर्व हमें ही अपनी समझ और व्यवहार ठीक कर लेने की आवश्यकता है ।
अल्पज्ञान के कारण वे हमारे जैसे नहीं हैं इसलिए
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# जिस प्रकार नागरी संस्कृति का आक्रमण उनके लिये संकट का एक निमित्त है उसी प्रकार धर्मांतरण का संकट बहुत बड़ा है। भारतीयता की मुख्य धारा से तोड़ने का काम एक ओर ईसाई मिशनरी और दूसरी ओर साम्यवादी खेमा करता है । विश्व के व्यापारी संगठन वन्य सम्पदा की लूट चला रहे है । भारत के व्यापारी भी इसमें पीछे नहीं हैं । एक संकट मानसिकता बदलने का है । ब्रिटीशों ने अपने शासन के दौरान उनके लिये आदिवासी शब्द का प्रयोग शुरू किया । स्वतन्त्र भारत में हमने भी बिना कोई विचार किए उसे अपना लिया है। इसका पुनर्विचार होने की आवश्यकता है । एक सादा प्रश्र पुछने की आवश्यकता है कि यदि वनवासी इस देश में मूल निवासी हैं तो हम नगरों और ग्रामों में रहने वाले, जो वनों में नहीं रहते हैं वे लोग, कौन हैं ? ब्रिटीशों ने लिखे अथवा लिखवाये इतिहास की थियरी कहती है कि जिस प्रकार आप ब्रिटीशों को आक्रान्ता कहते हैं उसी प्रकार ये नगरों और ग्रामों में रहने वाले, अपने आपको आर्य बताने वाले लोग भी भारत के नहीं हैं, वे भी बाहर से ही आक्रान्ता बनकर ही आए हैं, इसलिए यदि ब्रिटिश इस देश को छोड़कर जाएँ ऐसा कहना है तो आर्यों को भी इस देश को छोड़कर जाना चाहिए । अब तो विश्व इतिहास ने भी आर्य बाहर से भारत में आए इस थियरी को नकार दिया है । अब विश्व स्वीकार करता है कि आर्य इस देश के ही थे औए भारत से सम्पूर्ण विश्व में गए थे। परन्तु आज भी वनवासी अपने आपको वनवासी न कहकर आदिवासी अथवा मूल निवासी कहलाना अधिक पसन्द करते हैं। और नागरी लोगों को अपने शत्रु मानते हैं । नागरी लोग को भी आत्म निरीक्षण करना चाहिए। इस कारण से उनके लिये शिक्षा की व्यवस्था करना तो दूर हमने अपने आपको रोकने की आवश्यकता है । इन दो बातों का सन्दर्भ ठीक से ध्यान में लेकर उनका परिहार कैसे करना इसका ठीक से विचार कर लेने के बाद उनके लिये और उनके सन्दर्भ में शिक्षा का विचार करना चाहिए । ऐसा विचार करने के आयाम कुछ इस प्रकार हैं:
 
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* सर्व प्रथम हमारे विश्वविद्यालयों में वनवासी संस्कृति का अध्ययन होना चाहिए । ऐसे अध्ययन हेतु कुछ बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिए । ऐसा अध्ययन उनके साथ नागरी जीवन की समरसता स्थापित करने की दृष्टि से होना आवश्यक है । उनकी संस्कृति की विशेषताओं को जानने की दृष्टि से होना चाहिए । हमें उनकी रक्षा के लिये क्या क्या करने की आवश्यकता पड़ेगी यह जानने की दृष्टि से होना चाहिए ।
विकसित नहीं हैं और हमारे पास हैं ऐसी सुविधायें
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* ऐसा अध्ययन वनवासी क्षेत्र में रहकर, उनके साथ समरस होकर, उन्हें हमारे साथ सहभागी बनाकर होना चाहिए । आज तो उनके मन में हमारे लिये विश्वास नहीं है। यह विश्वास जागृत करने का काम प्रथम करना चाहिए । वनवासी संस्कृति का अध्ययन हमें भी करना चाहिए और उनके लिये भी योजना बनानी चाहिए ।
 
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* इस अध्ययन का केन्द्र अनिवार्य रूप से वनवासी क्षेत्र में ही होना चाहिए । वनवासी परिवेश में ही होना चाहिए । वहाँ अध्ययन करने वाले लोगों ने वहाँ की जीवनशैली अपनानी चाहिए । हम यदि नगरों में आने वाले वनवासियों को नगरों के खानपान और वस्त्र परिधान के लिये बाध्य कर सकते हैं तो हम भी उनकी शैली अपना सकते हैं ।
नहीं हैं इसलिए वे दुःखी हैं ऐसा मानते हैं । हमारे
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* वनवासियों के पास जो ज्ञान है उसका अध्ययन करना चाहिए । अभी उनके पास जो ज्ञान है वह शास्त्रीय नहीं है, पारम्परिक है । परन्तु अनुभव यह आता है कि शास्त्रीय ज्ञान प्राप्त किए हुए अनेक लोगों की तुलना में वह अधिक पक्का और परिणामकारी है । उसका बहुत बड़ा कारण तो यह है कि उनका पारम्परिक ज्ञान भारतीयता की बैठक लिये हुए है और हमारे विश्वविद्यालयों में दिया जाने वाला ज्ञान यूरोअमेरिकी अधिष्ठान लिए हुए है । ऊपर से हमारे विश्वविद्यालयों में निष्ठापूर्वक अध्ययन भी नहीं होता है। इन दो कारणों से वनवासियों के ज्ञान का और हमारे विश्वविद्यालयों के ज्ञान का कोई मेल नहीं है । इस परिप्रेक्ष्य में उनके ज्ञान को हमने ठीक से अध्ययन कर उसे प्रतिष्ठा दिलाने का प्रयास करना चाहिए ।
 
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जैसी शिक्षा देंगे तो उनका विकास होगा यह हमारा
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भ्रम है। हमारे जैसी शिक्षा प्राप्त कर हमारे जैसी
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नौकरी करना, हमारे जैसे कपड़े पहनना, हमारे जैसी
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भाषा बोलना, हमारे जैसे घरों में रहना आदि विकास
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के लक्षण हैं ऐसा हमारा विचार उनके लिये संकट का
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ही कारण बनता है परन्तु इसका विचार हमें नहीं आता
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है। जो हमारे जैसा नहीं वह विकसित नहीं यह तो
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बहुत ही असहिष्णु विचार है, अमानवीय विचार है,
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भारत की संस्कृति का यह विचार है ही नहीं ।
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इसलिए शिक्षा का विचार करते समय हमें उन्हें अपने
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जैसा बनाना है यह विचार ही छोड़ देना चाहिए ।
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वन्य सम्पदा की भयंकर लूट, हमारे ही लाभ के
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कानून बनाकर उनका होने वाला भयानक शोषण और
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उन्हें असंस्कृत मानकर उनके लिए की जाने वाली
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हमारे जैसी शिक्षा व्यवस्था हमने उन पर किया हुआ
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आक्रमण है। हमारे बुद्धिबल, सत्ताबल और
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पुलिसबल के कारण हमने उन्हें कहीं का नहीं रखा
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है । उनके लिये शिक्षा की व्यवस्था करने से पूर्व हमें
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ही अपनी समझ और व्यवहार ठीक कर लेने की
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आवश्यकता है ।
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जिस प्रकार नागरी संस्कृति का आक्रमण उनके लिये
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संकट का एक निमित्त है उसी प्रकार धर्मांतरण का संकट बहुत बड़ा है। भारतीयता की
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मुख्य धारा से तोड़ने का काम एक ओर ईसाई
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मिशनरी और दूसरी ओर साम्यवादी खेमा करता है ।
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विश्व के व्यापारी संगठन वन्य सम्पदा की लूट चला
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रहे है । भारत के व्यापारी भी इसमें पीछे नहीं हैं । एक
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संकट मानसिकता बदलने का है । ब्रिटीशों ने अपने
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शासन के दौरान उनके लिये आदिवासी शब्द का
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प्रयोग शुरू किया । स्वतन्त्र भारत में हमने भी बिना
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कोई विचार किए उसे अपना लिया है। इसका
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पुनर्विचार होने की आवश्यकता है । एक सादा प्रश्र
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पुछने की आवश्यकता है कि यदि वनवासी इस देश में
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आदि क्वासी अर्थात मूल निवासी हैं तो हम नगरों और
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ग्रामों में रहने वाले, जो वनों में नहीं रहते हैं वे लोग,
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कौन हैं ? ब्रिटीशों ने लिखे अथवा लिखवाये इतिहास
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की थियरी कहती है कि जिस प्रकार आप ब्रिटीशों को
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आक्रान्ता कहते हैं उसी प्रकार ये नगरों और ग्रामों में
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रहने वाले, अपने आपको आर्य बताने वाले लोग भी
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भारत के नहीं हैं, वे भी बाहर से ही आफ्रान्ता बनकर
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ही आए हैं, इसलिए यदि ब्रिटिश इस देश को छोड़कर
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जाएँ ऐसा कहना है तो आर्यों को भी इस देश को
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छोड़कर जाना चाहिए । अब तो विश्व इतिहास ने भी
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आर्य बाहर से भारत में आए इस थियरी को नकार
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दिया है । अब विश्व स्वीकार करता है कि आर्य इस
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देश के ही थे औए भारत से सम्पूर्ण विश्व में गए थे ।
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परन्तु आज भी वनवासी अपने आपको वनवासी न
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कहकर आदिवासी अथवा मूल निवासी कहलाना
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अधिक पसन्द करते हैं । और नागरी लोगों को अपने
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शत्रु मानते हैं । (नागरी लोग वैसे हैं भी इस कारण
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से उनके लिये शिक्षा की व्यवस्था करना तो दूर हमने
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अपने आपको रोकने की आवश्यकता है ।
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इन दो बातों का सन्दर्भ ठीक से ध्यान में लेकर उनका
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परिहार कैसे करना इसका ठीक से विचार कर लेने के बाद
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उनके लिये और उनके सन्दर्भ में शिक्षा का विचार करना
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चाहिए । ऐसा विचार करने के आयाम कुछ इस प्रकार हैं
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०... सर्व प्रथम हमारे विश्वविद्यालयों में वनवासी संस्कृति
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का अध्ययन होना चाहिए । ऐसे अध्ययन हेतु कुछ
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बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिए । ऐसा अध्ययन
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उनके साथ नागरी जीवन की समरसता स्थापित करने
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की दृष्टि से होना आवश्यक है । उनकी संस्कृति की
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विशेषताओं को जानने की दृष्टि से होना चाहिए । हमें
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उनकी रक्षा के लिये क्या क्या करने की आवश्यकता
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पड़ेगी यह जानने की दृष्टि से होना चाहिए ।
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ऐसा अध्ययन वनवासी क्षेत्र में रहकर, उनके साथ
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समरस होकर, उन्हें हमारे साथ सहभागी बनाकर होना
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चाहिए । आज तो उनके मन में हमारे लिये विश्वास
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नहीं है। यह विश्वास जागृत करने का काम प्रथम
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करना चाहिए । वनवासी संस्कृति का अध्ययन हमें भी
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करना चाहिए और उनके लिये भी योजना बनानी
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चाहिए ।
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इस अध्ययन का केन्द्र अनिवार्य रूप से वनवासी क्षेत्र
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में ही होना चाहिए । वनवासी परिवेश में ही होना
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चाहिए । वहाँ अध्ययन करने वाले लोगों ने वहाँ की
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जीवनशैली अपनानी चाहिए । हम यदि नगरों में आने
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वाले वनवासियों को नगरों के खानपान और
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वसख्त्रपरिधान के लिये बाध्य कर सकते हैं तो हम भी
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उनकी शैली अपना सकते हैं ।
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वनवासियों के पास जो ज्ञान है उसका अध्ययन करना
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चाहिए । अभी उनके पास जो ज्ञान है वह शास्त्रीय
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नहीं है, पारम्परिक है । परन्तु अनुभव यह आता है
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यूरोअमेरिकी अधिष्ठान लिए हुए है । ऊपर से हमारे
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है। इन दो कारणों से वनवासियों के ज्ञान का और
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हमारे विश्वविद्यालयों के ज्ञान का कोई मेल नहीं है ।
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इस परिप्रेक्ष्य में उनके ज्ञान को हमने ठीक से अध्ययन
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कर उसे प्रतिष्ठा दिलाने का प्रयास करना चाहिए ।
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''हमारी सरकारी नीतियाँ आज तो इसके विपरीत हैं अध्ययन के प्रतिकूल होता है ।''
 
''हमारी सरकारी नीतियाँ आज तो इसके विपरीत हैं अध्ययन के प्रतिकूल होता है ।''
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''नगरों का वातावरण तो वैसे भी कलुषित और वह गाँव है ।''
 
''नगरों का वातावरण तो वैसे भी कलुषित और वह गाँव है ।''
 
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* गाँव उद्योगकेन्द्र होते हैं। भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना गाँव का काम है। उद्योग का अर्थ है उत्पादनकेन्द्र । गाँव में सभी भौतिक वस्तुओं का उत्पादन होता है।
° wa उद्योगकेन्द्र होते हैं।
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* गाँव का मुख्य उद्योग कृषि है । वह मनुष्य की अन्न की आवश्यकताओं की पूर्ति करता है । कृषक केवल अपने अन्न की आवश्यकताओं की पूर्ति करता नहीं है, सारे गाँव की अन्न की आवश्यकताओं की पूर्ति करता है ।
 
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* कृषि के लिये आवश्यक अन्य यन्त्रसामग्री का उत्पादन करने वाले उद्योग गाँव में होते हैं । उदाहरण के लिये, हल, बैलगाड़ी तथा अन्य सामग्री का उत्पादन करने वाले लोहार, सुथार, बुनकर, चमार आदि अनेक कारीगर गाँव में होते हैं । कृषि के साथ साथ लोहार, सुधार आदि लोगों के घर की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं ।
भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना गाँव का काम
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* भौतिक आवश्यकताओं के साथ साथ शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक स्तर की जितनी भी आवश्यकतायें होती हैं उनकी भी पूर्ति करने की व्यवस्था गाँव में होती है । उदाहरण के लिये शिक्षक, पुरोहित, महाजन, पंचायत, व्यापारी आदि भी गाँव में होते ही हैं।  
 
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* इस प्रकार गाँव एक स्वयम्पूर्ण आर्थिक,सामाजिक इकाई है ।
है। उद्योग का अर्थ है उत्पादनकेन्द्र । गाँव में सभी
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भौतिक वस्तुओं का उत्पादन होता है ।
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गाँव का मुख्य उद्योग कृषि है । वह मनुष्य की अन्न
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की आवश्यकताओं की पूर्ति करता है । कृषक केवल
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अपने अन्न की आवश्यकताओं की पूर्ति करता नहीं
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है, सारे गाँव की अन्न की आवश्यकताओं की पूर्ति
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करता है ।
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उत्पादन करने वाले उद्योग गाँव में होते हैं । उदाहरण
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होती है । उदाहरण के लिये शिक्षक, पुरोहित,
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इस प्रकार गाँव एक स्वयम्पूर्ण आर्थिक,सामाजिक
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इकाई है ।
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जनसंख्या परिवारों के रूप में गिनी जाती है । उस
 
जनसंख्या परिवारों के रूप में गिनी जाती है । उस
  

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