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=== वातावरण के संस्कार ===
 
=== वातावरण के संस्कार ===
जन्म के बाद व्यक्ति जिस वातावरण में, जिस संगत
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जन्म के बाद व्यक्ति जिस वातावरण में, जिस संगत में, जिस परिस्थिति में रहता है वैसे संस्कार उस पर होते हैं । वह यदि अच्छे लोगों की संगत में रहे, स्वच्छ और पवित्र वातावरण में रहे, उसको सभी का प्रेमपूर्ण व्यवहार मिले तो वेह दिव्य गुण संपन्न व्यक्ति बनता है । और उसके विपरीत वातावरण में बिलकुल विरोधी प्रकार का मनुष्य बनता है ।
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में, जिस परिस्थिति में रहता है वैसे संस्कार उसपर होते हैं ।
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वातावरण के संस्कार बहुत ही ऊपरी होते हैं और वातावरण बदलने पर उन संस्कारों का स्वरुप भी बदलता है। इन चार प्रकार के संस्कारों में पूर्वजन्म के संस्कार सबसे बलवान होते हैं, दूसरे क्रम पर आनुवंशिक, तीसरे क्रम पर संस्कृति के और चतुर्थ क्रम पर वातावरण के संस्कार प्रभावी होते हैं ।
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वह यदि अच्छे लोगों की संगत में रहे, स्वच्छ और पवित्र
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== संस्कारों का सामाजिक सांस्कृतिक संदर्भ ==
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इस संदर्भ में संस्कार की परिभाषा इस प्रकार की गई है-<blockquote>दोषापनयनं गुणान्तराधानं संस्कार: ।</blockquote>किसी भी पदार्थ में, और इसी प्रकार किसी भी व्यक्ति में दोषों का अपनयन करना अर्थात्‌ दोषों को दूर करना, सुधार करना, उसके गुण बदलना और गुर्णों का आधान
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वातावरण में रहे, उसको सभी का प्रेमपूर्ण व्यवहार मिले तो
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करना यह संस्कार करना है।
 
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ae fear संपन्न व्यक्ति बनता है । और उसके विपरीत
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वातावरण में बिलकुल विरोधी प्रकार का मनुष्य बनता है ।
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वातावरण के संस्कार बहुत ही ऊपरी होते हैं और
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वातावरण बदलने पर उन संस्कारों का स्वरुप भी बदलता
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है।
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इन चार प्रकार के संस्कारों में पूर्वजन्म के संस्कार
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सबसे बलवान होते हैं, दूसरे क्रम पर आनुवंशिक, तीसरे
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क्रम पर संस्कृति के और चतुर्थ क्रम पर वातावरण के
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संस्कार प्रभावी होते हैं ।
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(२) संस्कारों का सामाजिक सांस्कृतिक संदर्भ
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इस संदर्भ में संस्कार की परिभाषा इस प्रकार की गई
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है-
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दोषापनयनं गुणान्तराधानं संस्कार: ।
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किसी भी पदार्थ में, और इसी प्रकार किसी भी व्यक्ति
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में दोषों का अपनयन करना अर्थात्‌ दोषों को दूर करना,
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सुधार करना, उसके गुण बदलना और गुर्णों का आधान
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करना यह संस्कार करना है ।
      
इसमें तीन बातें समाहित हैं ।
 
इसमें तीन बातें समाहित हैं ।
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# दोष हों तो उनको दूर करना और पदार्थों का शुद्धीकरण करना |
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# गुणों में परिवर्तन करना अर्थात्‌ अवांछित स्वरुप बदलकर उसे वांछनीय बनाना |
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# नहीं हैं ऐसे गुण जोड़ना।
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यह प्रक्रिया पदार्थ को लागू करके सरलता पूर्वक समझ सकेंगे।
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* गुवार, लोभिया आदि का गुण वायु करने का है । उसे अजवाइन से संस्कारित करने से वायु के दोष दूर होते हैं और सब्जी गुणकारी बनती है । पानी को उबालने से उसका भारीपन दूर होकर हलका बनता है। यह हुआ दोषापनयन।
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* तिल को पीस कर निकाला हुआ तेल कफ और वायु का नाश करता है, जब कि गुड और तिल मिलाकर बनने वाली चीक्की कफवर्धक बनती है । एक ही पदार्थ के गुण
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* प्रक्रिया के कारण बदल जाते हैं। यह हुआ गुणान्तर।
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* शक्कर, दूध, चावल आदि शरदपूर्णिमा की चांदनी में रखने से चन्द्रप्रकाश का पित्तशामक और शीतलता का गुण उसमें संक्रान्त होने से इस पदार्थ के पित्तशमन के गुण में वृद्धि होती है, यह हुआ गुणों का आधान।
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व्यक्तियों के साथ जोड़कर उदाहरण देखें तो इस प्रकार समझ सकते हैं -
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* वीर पुरुषों और वीरांगनाओं की कथा सुनने के कारण व्यक्ति में से दीनता और कायरतारुपी दोष दूर होते हैं । यह हुआ दोषापनयन |
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* स्वयं अतिशय अपकार करे तो भी सामने वाला व्यक्ति वैर लेने के स्थान पर उपकार ही करता है तो व्यक्ति के द्वेष का रुपांतर स्नेह में होता है । इसे कहते हैं गुणान्तर।
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* विद्यारंभ संस्कार करने से बालक में विद्याप्रीति का गुण पैदा होता है। यह हुआ गुण का आधान।
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इस प्रकार व्यक्ति को उत्तम बनाने के लिए जो कुछ भी किया जाता है उसे संस्कार कहते हैं । संस्कार दो प्रकार के होते हैं। सुसंस्कार और कुसंस्कार । परंतु व्यवहार में सुसंस्कार को ही संस्कार कहा जाता है । संस्कारी व्यक्ति अर्थात्‌ सद्गुणी व्यक्ति और असंस्कारी व्यक्ति अर्थात्‌ दुर्गुणी व्यक्ति इस प्रकार की सामान्य पहचान बन जाती है ।
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,. दोष हों तो उनको दूर करना और पदार्थों का
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दोषों को दूर करने के लिए, दोषों को गुणों में परिवर्तित करने के लिए और गुण पैदा करने के लिए जो भी कुछ किया जाता है उसे संस्कार कहते हैं । व्यक्ति में इस प्रकार के परिवर्तन करने से समाज की स्थिति भी अच्छी बनती है । अच्छा समाज ही श्रेष्ठ समाज माना जाता है ।
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शुद्धीकरण करना |
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समाज को श्रेष्ठ बनाने के लिए धर्मवेत्ता विद्वान भिन्न भिन्न प्रकार के शास्त्रों की रचना करते हैं और सभी के लिए श्रेष्ठ जीवन की एक चर्या अर्थात्‌ आचारपद्धति निश्चित करते हैं । इस आचारपद्धति की बालकों को पद्धतिपूर्वक शिक्षा दी जाती है । मात्र बालकों के लिये ही नहीं तो छोटे बडे सबके लिये दोषापनयन, गुणान्तर और गुणाधान की कोई न कोई व्यवस्था समाज में होती ही है । कथा, वार्ता, साहित्य, सत्संग, उपदेश, कृपा,  अनुकंपा, सहायता, सहयोग, सहानुभूति, रक्षण, पोषण, शिक्षण, दूंड, न्याय आदि अनेक प्रकार से मनुष्य को संस्कारी बनाने की व्यवस्था अच्छा और श्रेष्ठ समाज करता है ।
 
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२... गुणों में परिवर्तन करना अर्थात्‌ अवांछित स्वरुप
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बदलकर उसे वांछनीय बनाना |
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३... नहीं हैं ऐसे गुण जोड़ना ।
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यह प्रक्रिया पदार्थ को लागू करके सरलता पूर्वक
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समझ सकेंगे । गुवार, लोभिया आदि का गुण वायु करने का
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है । उसे अजवाइन से संस्कारित करने से वायु के दोष दूर
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होते हैं और सब्जी गुणकारी बनती है । पानी को उबालने से
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उसका भारीपन दूर होकर हलका बनता है। यह हुआ
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दोषापनयन ।
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तिल को पीस कर निकाला हुआ तेल कफ और वायु
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का नाश करता है, जब कि गुड और तिल मिलाकर बनने
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वाली चीक्की कफवर्धक बनती है । एक ही पदार्थ के गुण
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प्रक्रिया के कारण बदल जाते हैं । यह हुआ गुणान्तर ।
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शक्कर, दूध, चावल आदि शरदपूर्णिमा की चांदनी में
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रखने से चन्द्रप्रकाश का पित्तशामक और शीतलता का गुण
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उसमें संक्रान्त होने से इस पदार्थ के पित्तशमन के गुण में
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वृद्धि होती है, यह हुआ गुणों का आधान ।
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व्यक्तियों के साथ जोड़कर उदाहरण देखें तो इस प्रकार
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समझ सकते हैं -
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वीर पुरुषों और वीरांगनाओं की कथा सुनने के कारण
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व्यक्ति में से दीनता और कायरतारुपी दोष दूर होते हैं । यह
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हुआ दोषापनयन |
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स्वयं अतिशय अपकार करे तो भी सामने वाला व्यक्ति
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वैर लेने के स्थान पर उपकार ही करता है तो व्यक्ति के ट्रेष
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का रुपांतर स्नेह में होता है । इसे कहते हैं गुणान्तर ।
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विद्यारंभ संस्कार करने से बालक में विद्याप्रीति का
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गुण पैदा होता है । यह हुआ गुण का आधान ।
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इस प्रकार व्यक्ति को उत्तम बनाने के लिए जो कुछ
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भी किया जाता है उसे संस्कार कहते हैं ।
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संस्कार दो प्रकार के होते हैं। सुसंस्कार और
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कुसंस्कार । परंतु व्यवहार में सुसंस्कार को ही संस्कार कहा
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जाता है । संस्कारी व्यक्ति अर्थात्‌ सद्गुणी व्यक्ति और
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असंस्कारी व्यक्ति अर्थात्‌ दुर्गुणी व्यक्ति इस प्रकार की
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सामान्य पहचान बन जाती है ।
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दोषों को दूर करने के लिए, दोषों को गुणों में
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परिवर्तित करने के लिए और गुण पैदा करने के लिए जो भी
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कुछ किया जाता है उसे संस्कार कहते हैं । व्यक्ति में इस
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प्रकार के परिवर्तन करने से समाज की स्थिति भी अच्छी
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बनती है । अच्छा समाज ही श्रेष्ठ समाज माना जाता है ।
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समाज को श्रेष्ठ बनाने के लिए धर्मवेत्ता विद्वान भिन्न
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भिन्न प्रकार के शास्त्रों की रचना करते हैं और सभी के लिए
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श्रेष्ठ जीवन की एक चर्या अर्थात्‌ आचारपद्धति निश्चित करते
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हैं । इस आचारपद्धति की बालकों को पद्धतिपूर्वक शिक्षा दी
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जाती है । मात्र बालकों के लिये ही नहीं तो छोटे बडे सबके
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लिये दोषापनयन, गुणान्तर और गुणाधान की कोई न कोई
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व्यवस्था समाज में होती ही है । कथा, वार्ता, साहित्य,
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सत्संग, उपदेश, कृपा,  अनुकंपा, सहायता, सहयोग,
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सहानुभूति, रक्षण, पोषण, शिक्षण, दूंड, न्याय आदि अनेक
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प्रकार से मनुष्य को संस्कारी बनाने की व्यवस्था अच्छा
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और श्रेष्ठ समाज करता है ।
      
उदाहरणार्थ, ..,
 
उदाहरणार्थ, ..,
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* घर के सभी सदस्य प्रातः जल्दी ही जगते हों तो बालकों को भी जल्दी उठने की प्रेरणा अपने आप मिलती है।
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* घर के किशोर वय के पुत्र को सूर्यनमस्कार करने की वृत्ति न होती हो अथवा ठीक तरह से करना न आता हो तो पिता स्वयं उसे करके दिखायें और इस प्रकार सिखायें और साथ में रहकर आग्रहपूर्वक सूर्यनमस्कार करवायें यह शिक्षा और प्रच्छन्न दंड का प्रकार हुआ |
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* घर में स्वच्छता, पवित्रता, शांति आदि का वातावरण हो तो आगरंतुक को भी यह सब करने की इच्छा होती है अथवा न करने में संकोच होता है ।
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* राम की भाँति व्यवहार करना, रावण की तरह नहीं ऐसा रामकथा का उपदेश भी संस्कार करने की पद्धति है ।
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* दूसरे पक्ष में टी.वी. में दिखने वाले नट और नटी की तरह वर्तन करना, घर्‌ के बुजुर्ग करते हैं अथवा कहते हैं उस प्रकार से नहीं, यह भी संस्कार ही है ।
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* 'अरे ! चुप हो जाओ ! वरना कुत्ता आकर ले जाएगा इस प्रकार छोटे बालक को भय बताने वाले पिता भी संस्कार ही दे रहे हैं ।
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संस्कार प्राकृत मनुष्य को सुसंस्कृत बनाने की व्यवस्था है ।
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घर के सभी सदस्य प्रातः जलदी ही जगते हों तो
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== पारंपरिक कर्मकांड के रूप में संस्कार ==
 
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जिस प्रकार अभी बताया, प्राकृत मनुष्य को सुसंस्कृत बनाने की व्यवस्था ही संस्कार है । युगों से भारत में ऐसी व्यवस्था बहुत सोचसमझ कर की गई है और आग्रहपूर्वक उसका पालन भी होता आया है और करवाया भी गया है । यह हेतूपूर्ण और समझदारी पूर्वक की व्यवस्था और उसका आचरण परिपक्क होते होते कुछ बातें अत्यंत दूढ और निश्चित बन गयी हैं । मनुष्यजीवन के आनुवंशिक और संस्कृतिगत संस्कारों को दृढ़ करने के लिए अलग अलग समय में आवश्यक ऐसी बातों को कर्तव्यपालन के स्वरुप में प्रचलित और दृढ़ बना दिया जाता है । इन बातों को भी संस्कार का नाम दिया गया है ।
बालकों को भी जलदी उठने की प्रेरणा अपने आप मिलती
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है।
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घर के किशोर वय के पुत्र को सूर्यनमस्कार करने की
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वृत्ति न होती हो अथवा ठीक तरह से करना न आता हो तो
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पिता स्वयं उसे करके दिखायें और इस प्रकार सिखायें और
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साथ में रहकर आग्रहपूर्वक सूर्यनमस्कार करवायें यह शिक्षा
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और प्रच्छन्न दंड का प्रकार हुआ |
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घर में स्वच्छता, पवित्रता, शांति
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आदि का वातावरण हो तो आगरंतुक को भी यह सब करने
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की इच्छा होती है अथवा न करने में संकोच होता है ।
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राम की भाँति व्यवहार करना, रावण की तरह नहीं
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ऐसा रामकथा का उपदेश भी संस्कार करने की पद्धति है ।
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दूसरे पक्ष में टी.वी. में दिखने वाले नट और नटी की
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तरह वर्तन करना, घर्‌ के बुजुर्ग करते हैं अथवा कहते हैं उस
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प्रकार से नहीं, यह भी संस्कार ही है ।
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'अरे ! चुप हो जाओ ! वरना कुत्ता आकर ले
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जाएगा इस प्रकार छोटे बालक को भय बताने वाले पिता
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भी संस्कार ही कर रहे हैं ।
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संस्कार प्राकृत मनुष्य को सुसंस्कृत बनाने की
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व्यवस्था है ।
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(३) पारंपरिक कर्मकांड के रूप में संस्कार
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जिस प्रकार अभी बताया, प्राकृत मनुष्य को सुसंस्कृत
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बनाने की व्यवस्था ही संस्कार है । युगों से भारत में ऐसी
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व्यवस्था बहुत सोचसमझ कर की गई है और आग्रहपूर्वक
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उसका पालन भी होता आया है और करवाया भी गया है ।
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यह हेतूपूर्ण और समझदारी पूर्वक की व्यवस्था और उसका
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आचरण परिपक्क होते होते कुछ बातें अत्यंत दूढ और निश्चित
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बन गयी हैं । मनुष्यजीवन के आनुवंशिक और संस्कृतिगत
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संस्कारों को दृढ़ करने के लिए अलग अलग समय में
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आवश्यक ऐसी बातों को कर्तव्यपालन के स्वरुप में प्रचलित
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और दृढ़ बना दिया जाता है । इन बातों को भी संस्कार का
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नाम दिया गया है ।
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ऐसे संस्कारों की संख्या अन्यान्य ग्रंथों में कहीं ४० तो
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कहीं २८, कहीं २६ तो कहीं २० ऐसी प्राप्त होती है । उनमें
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१६ संस्कार सर्वमान्य माने गये हैं ।
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ऐसे संस्कारों की संख्या अन्यान्य ग्रंथों में कहीं ४० तो कहीं २८, कहीं २६ तो कहीं २० ऐसी प्राप्त होती है । उनमें १६ संस्कार सर्वमान्य माने गये हैं ।
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ये सोलह संस्कार इस प्रकार हैं
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ये सोलह संस्कार इस प्रकार हैं:
    
१, गर्भाधान. 2. Yaar हे... सीमन्तोन्नयन
 
१, गर्भाधान. 2. Yaar हे... सीमन्तोन्नयन

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