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लेख सम्पादित किया
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वर्तमान व्यवस्था की तरह शिक्षा को केवल विद्यालय के साथ और केवल जीवन के प्रारंभिक वर्षों के साथ नहीं जोड़ा गया । शिक्षा का जीवन के साथ वैसा संबंध जोड़ा भी नहीं जा सकता है । कारण यह है की व्यक्ति का इस जन्म का जीवन शुरू होता है तब से शिक्षा उसके साथ जुड़ जाती है । सीखना शब्द संपूर्ण जीवन के साथ हर पहलू में जुड़ा है । गर्भाधान से ही व्यक्ति सीखना शुरू करता है । पुराणों में हम इसके अनेक उदाहरण देखते हैं । अभिमन्यु, अष्टावक्र आदि ने गर्भावस्था में ही अनेक बातें सीख ली थीं । केवल पुराणों के ही नहीं तो अर्वाचीन काल के, और केवल भारत में ही नहीं तो विश्व के अन्य देशों में भी ऐसे उदाहरण प्राप्त होते हैं । व्यक्ति अपनी मातृभाषा गर्भावस्था में ही सीखना प्रारम्भ कर देता है । पूर्व जन्म के और आनुवांशिक संस्कारों के रूप में व्यक्ति इस जन्म में जो साथ लेकर आता है उसमें गर्भावस्‍था से ही वह जोड़ना शुरू कर देता है । जन्म के बाद पहले ही दिन से उसकी शिक्षा प्रारम्भ हो जाती है । वह रोना, लेटना, दूध पीना सीखता ही है । वह रेंगना, घुटने चलना, खड़ा होना, हँसना, रोना, खाना, चलना, बोलना सीखता ही है। लोगों को पहचानना, उनका अनुकरण करना, सुनी हुई भाषा बोलना सीखता है । असंख्य बातें ऐसी हैं जो वह घर में, मातापिता के और अन्य जनों के साथ रहते रहते सीखता है । सीखते सीखते ही वह बड़ा होता है । जैसे जैसे बड़ा होता है वह अनेक प्रकार के काम करना सीखता है। अनेक वस्तुओं का उपयोग करना सीखता है । लोगों के साथ व्यवहार करना सीखता है, विचार करना, अपने अभिप्राय बनाना, अपने विचार व्यक्त करना,कल्पनायें करना सीखता है । अनेक खेल, अनेक हुनर, अनेक खूबियाँ, अनेक युक्तियाँ सीखता है । बड़ा होता है तो जीवन को समझता जाता है । प्रेरणा ग्रहण करता है और विवेक सीखता है । कर्तव्य समझता है, कर्तव्य निभाता भी है। बड़ा होता है तो पैसा कमाना सीखता है । अपने परिवार को चलाना सीखता है । अपने जीवन का अर्थ क्या है इसका विचार करता है । अपने मातापिता से, संबंधियों से, मित्रों से, साधुसंतों से वह अनेक बातें सीखता है । अपने अन्तःकारण से भी सीखता है । जप करके, ध्यान करके, दर्शन करके, तीर्थयात्रा करके वह अनेक बातें सीखता है। अनुभव से सिखता है । संक्षेप में एक दिन भी बिना सीखे खाली नहीं जाता । जीवन उसे सिखाता है, जगत उसे सिखाता है, अंतरात्मा उसे सिखाती है ।
 
वर्तमान व्यवस्था की तरह शिक्षा को केवल विद्यालय के साथ और केवल जीवन के प्रारंभिक वर्षों के साथ नहीं जोड़ा गया । शिक्षा का जीवन के साथ वैसा संबंध जोड़ा भी नहीं जा सकता है । कारण यह है की व्यक्ति का इस जन्म का जीवन शुरू होता है तब से शिक्षा उसके साथ जुड़ जाती है । सीखना शब्द संपूर्ण जीवन के साथ हर पहलू में जुड़ा है । गर्भाधान से ही व्यक्ति सीखना शुरू करता है । पुराणों में हम इसके अनेक उदाहरण देखते हैं । अभिमन्यु, अष्टावक्र आदि ने गर्भावस्था में ही अनेक बातें सीख ली थीं । केवल पुराणों के ही नहीं तो अर्वाचीन काल के, और केवल भारत में ही नहीं तो विश्व के अन्य देशों में भी ऐसे उदाहरण प्राप्त होते हैं । व्यक्ति अपनी मातृभाषा गर्भावस्था में ही सीखना प्रारम्भ कर देता है । पूर्व जन्म के और आनुवांशिक संस्कारों के रूप में व्यक्ति इस जन्म में जो साथ लेकर आता है उसमें गर्भावस्‍था से ही वह जोड़ना शुरू कर देता है । जन्म के बाद पहले ही दिन से उसकी शिक्षा प्रारम्भ हो जाती है । वह रोना, लेटना, दूध पीना सीखता ही है । वह रेंगना, घुटने चलना, खड़ा होना, हँसना, रोना, खाना, चलना, बोलना सीखता ही है। लोगों को पहचानना, उनका अनुकरण करना, सुनी हुई भाषा बोलना सीखता है । असंख्य बातें ऐसी हैं जो वह घर में, मातापिता के और अन्य जनों के साथ रहते रहते सीखता है । सीखते सीखते ही वह बड़ा होता है । जैसे जैसे बड़ा होता है वह अनेक प्रकार के काम करना सीखता है। अनेक वस्तुओं का उपयोग करना सीखता है । लोगों के साथ व्यवहार करना सीखता है, विचार करना, अपने अभिप्राय बनाना, अपने विचार व्यक्त करना,कल्पनायें करना सीखता है । अनेक खेल, अनेक हुनर, अनेक खूबियाँ, अनेक युक्तियाँ सीखता है । बड़ा होता है तो जीवन को समझता जाता है । प्रेरणा ग्रहण करता है और विवेक सीखता है । कर्तव्य समझता है, कर्तव्य निभाता भी है। बड़ा होता है तो पैसा कमाना सीखता है । अपने परिवार को चलाना सीखता है । अपने जीवन का अर्थ क्या है इसका विचार करता है । अपने मातापिता से, संबंधियों से, मित्रों से, साधुसंतों से वह अनेक बातें सीखता है । अपने अन्तःकारण से भी सीखता है । जप करके, ध्यान करके, दर्शन करके, तीर्थयात्रा करके वह अनेक बातें सीखता है। अनुभव से सिखता है । संक्षेप में एक दिन भी बिना सीखे खाली नहीं जाता । जीवन उसे सिखाता है, जगत उसे सिखाता है, अंतरात्मा उसे सिखाती है ।
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''तत्त्व के बारे में जानने की इच्छा होती है । मनुष्य ही काव्य''
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''तत्व के बारे में जानने की इच्छा होती है । मनुष्य ही काव्य''
    
''अपने जीवन के अंतिम दिन तक वह सिखता ही है । मृत्यु. की रचना कर सकता है, मनुष्य ही नये नये आविष्कार कर''
 
''अपने जीवन के अंतिम दिन तक वह सिखता ही है । मृत्यु. की रचना कर सकता है, मनुष्य ही नये नये आविष्कार कर''
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== आजीवन चलने वाली शिक्षा ==
 
== आजीवन चलने वाली शिक्षा ==
मनुष्य गर्भाधान के समय अपने पूर्वजन्मों के संचित कर्म लेकर इस जन्म में आता है और उसकी शिक्षा शुरू होती है । गर्भ के रूप में आने से पहले ही गर्भाधान संस्कार किए जाते हैं जो उसकी शिक्षा का प्रारम्भ है । इस जन्म के उसके प्रथम शिक्षक उसके मातापिता ही हैं जो अपने कुल में आने के लिये उसका आवाहन और स्वागत करते हैं । उसके अध्ययन के लिये आवास बनाते हैं । पिता की चौदह और माता की पाँच पीढ़ियों के संस्कार उसे अनुवंश के नाते प्राप्त हो जाते हैं । गर्भाधान के समय भी माता और पिता से उसे सम्पूर्ण जीवन का पाथेय प्राप्त हो जाता है जिसके बल पर वह अपनी भविष्य की यात्रा करता है । उसकी प्रथम पाठशाला घर है और उसकी प्रथम कक्षा माता की कोख में है । माता के गर्भाशय में गर्भ के रूप में रहते हुए वह माता के माध्यम से शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक क्षमातायें प्राप्त करता है, माता की ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से ही बाहर की दुनिया के अन्यान्य विषयों के अनुभव ग्रहण करता है ।
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मनुष्य गर्भाधान के समय अपने पूर्वजन्मों के संचित कर्म लेकर इस जन्म में आता है और उसकी शिक्षा शुरू होती है। गर्भ के रूप में आने से पहले ही गर्भाधान संस्कार किए जाते हैं जो उसकी शिक्षा का प्रारम्भ है । इस जन्म के उसके प्रथम शिक्षक उसके मातापिता ही हैं जो अपने कुल में आने के लिये उसका आवाहन और स्वागत करते हैं। उसके अध्ययन के लिये आवास बनाते हैं । पिता की चौदह और माता की पाँच पीढ़ियों के संस्कार उसे अनुवंश के नाते प्राप्त हो जाते हैं । गर्भाधान के समय भी माता और पिता से उसे सम्पूर्ण जीवन का पाथेय प्राप्त हो जाता है जिसके बल पर वह अपनी भविष्य की यात्रा करता है। उसकी प्रथम पाठशाला घर है और उसकी प्रथम कक्षा माता की कोख में है । माता के गर्भाशय में गर्भ के रूप में रहते हुए वह माता के माध्यम से शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक क्षमातायें प्राप्त करता है, माता की ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से ही बाहर की दुनिया के अन्यान्य विषयों के अनुभव ग्रहण करता है।
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आयुर्वेद के अनुसार गर्भावस्‍था में मातृज, पितृज, रसज, सत्वज, सात्म्यज, आत्मज ऐसे छः भावों से उसका पिण्ड बनता है जो केवल शरीर नहीं होता अपितु उसका पूरा व्यक्तित्व होता है, उसका चरित्र होता है । जन्म का समय माता से स्वतंत्र अपने बल पर जीवन की यात्रा शुरू करने का है । गर्भोपनिषद्‌ कहता है{{Citation needed}}  
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आयुर्वेद के अनुसार गर्भावस्‍था में मातृज, पितृज, रसज, सत्वज, सात्म्यज, आत्मज ऐसे छः भावों से उसका पिण्ड बनता है जो केवल शरीर नहीं होता अपितु उसका पूरा व्यक्तित्व होता है, उसका चरित्र होता है। जन्म का समय माता से स्वतंत्र अपने बल पर जीवन की यात्रा शुरू करने का है । गर्भोपनिषद्‌ कहता है{{Citation needed}}  
  कि जब जीव माता के गर्भाशय में होता है तब वहाँ की स्थिति से परेशान होता हुआ सदैव विचार करता है कि यदि मैं इस कारागार से मुक्त होता हूँ तो जीवन में और कुछ नहीं करूँगा, केवल नारायण का नाम ही जपूँगा जिससे मेरी मुक्ति हो, परन्तु जैसे ही वह गर्भाशय से बाहर आना शुरू करता है माया का आवरण विस्मृति बनकर उसे लपेट लेता है और वह अपना संकल्प भूल जाता है और संसार में आसक्त हो जाता है ।<blockquote>अथ जन्तु: ख्रीयोनिशतं योनिट्वारि संप्राप्तो, यन्त्रेणापीद्यमानो महता दुःखेन जातमात्रस्तु</blockquote><blockquote>वैष्णवेन वायुना संस्पृश्यते तदा न स्मरति, जन्ममरणं न च कर्म शुभाशुभम्‌ ।।४।॥।</blockquote><blockquote>अर्थात्‌ वह योनिट्टवार को प्राप्त होकर योनिरूप यन्त्र में दबाया जाकर बड़े कष्ट से जन्म ग्रहण करता है । बाहर निकलते ही वैष्णवी वायु (माया) के स्पर्श से वह अपने पिछले जन्म और मृत्युओं को भूल जाता है और शुभाशुभ कर्म भी उसके सामने से हट जाते हैं ॥।</blockquote>इस जन्म की पूरी शिक्षायात्रा अपने भूले हुए संकल्प को याद करने के लिये है । जन्म के समय शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध, आसपास के लोगों के मनोभावों से जिस प्रकार उसका स्वागत होता है वैसे संस्कार उसके चित्त पर होते हैं । संस्कारों के रूप में होने वाले यह संस्कार बहुत प्रभावी शिक्षा है जो जीवनभर नींव बनकर, चरित्र का अभिन्न अंग बनकर उसके साथ रहती है। जन्म के बाद के प्रथम पाँच वर्ष में मुख्य रूप में संस्कारों के माध्यम से शिक्षा होती है । जीवन का घनिष्ठततम अनुभव वह ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त करता है परन्तु ग्रहण करने वाला तो चित्त ही होता है । इस समय मातापिता का लालनपालन उसके चरित्र को आकार देता है । आहारविहार और बड़ों के अनुकरण से वह आकार लेता है । आनन्द उसका केंद्रवर्ती भाव होता है । पाँच वर्ष की आयु तक उसकी शिशु अवस्था होती है जिसमें उसकी शिक्षा संस्कारों के रूप में होती है ।
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  कि जब जीव माता के गर्भाशय में होता है तब वहाँ की स्थिति से परेशान होता हुआ सदैव विचार करता है कि यदि मैं इस कारागार से मुक्त होता हूँ तो जीवन में और कुछ नहीं करूँगा, केवल नारायण का नाम ही जपूँगा जिससे मेरी मुक्ति हो, परन्तु जैसे ही वह गर्भाशय से बाहर आना शुरू करता है माया का आवरण विस्मृति बनकर उसे लपेट लेता है और वह अपना संकल्प भूल जाता है और संसार में आसक्त हो जाता है।<blockquote>अथ जन्तु: ख्रीयोनिशतं योनिट्वारि संप्राप्तो, यन्त्रेणापीद्यमानो महता दुःखेन जातमात्रस्तु</blockquote><blockquote>वैष्णवेन वायुना संस्पृश्यते तदा न स्मरति, जन्ममरणं न च कर्म शुभाशुभम्‌ ।।४।॥।</blockquote><blockquote>अर्थात्‌ वह योनिट्टवार को प्राप्त होकर योनिरूप यन्त्र में दबाया जाकर बड़े कष्ट से जन्म ग्रहण करता है । बाहर निकलते ही वैष्णवी वायु (माया) के स्पर्श से वह अपने पिछले जन्म और मृत्युओं को भूल जाता है और शुभाशुभ कर्म भी उसके सामने से हट जाते हैं </blockquote>इस जन्म की पूरी शिक्षायात्रा अपने भूले हुए संकल्प को याद करने के लिये है। जन्म के समय शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध, आसपास के लोगों के मनोभावों से जिस प्रकार उसका स्वागत होता है वैसे संस्कार उसके चित्त पर होते हैं । संस्कारों के रूप में होने वाले यह संस्कार बहुत प्रभावी शिक्षा है जो जीवनभर नींव बनकर, चरित्र का अभिन्न अंग बनकर उसके साथ रहती है। जन्म के बाद के प्रथम पाँच वर्ष में मुख्य रूप में संस्कारों के माध्यम से शिक्षा होती है । जीवन का घनिष्ठततम अनुभव वह ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त करता है परन्तु ग्रहण करने वाला तो चित्त ही होता है। इस समय मातापिता का लालनपालन उसके चरित्र को आकार देता है । आहारविहार और बड़ों के अनुकरण से वह आकार लेता है। आनन्द उसका केंद्रवर्ती भाव होता है। पाँच वर्ष की आयु तक उसकी शिशु अवस्था होती है जिसमें उसकी शिक्षा संस्कारों के रूप में होती है।
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आगे बढ़कर बालअवस्था में मुख्य रूप से वह क्रिया आधारित और अनुभव आधारित शिक्षा ग्रहण करता है । इस आयु में उसका प्रेरणा पक्ष भी प्रबल होता है । अब उसके सीखने के दो स्थान हैं । एक है घर और दूसरा है विद्यालय ।
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आगे बढ़कर बालअवस्था में मुख्य रूप से वह क्रिया आधारित और अनुभव आधारित शिक्षा ग्रहण करता है। इस आयु में उसका प्रेरणा पक्ष भी प्रबल होता है। अब उसके सीखने के दो स्थान हैं। एक है घर और दूसरा है विद्यालय।
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घर में उसे मन की शिक्षा प्राप्त होती है । वह नियमपालन, आज्ञापालन, संयम, अनुशासन, परिश्रम करना आदि की शिक्षा प्राप्त करता है । विद्यालय में वह अनेक प्रकार के कौशल, जानकारी प्रेरणा ग्रहण करता है । उसकी आदतें बनती हैं, उसके स्वभाव का गठन होता है । खेल, कहानी, भ्रमण, प्रयोग, परिश्रम आदि उसके सीखने के माध्यम होते हैं । उसका मन बहुत सक्रिय होता है परन्तु विचार से भावना पक्ष ही अधिक प्रबल होता है । बारह वर्ष की आयु तक उसके चरित्र का गठन ठीक ठीक हो जाता है । आगे किशोर अवस्था में वह विचार करता है । निरीक्षण और परीक्षण करना सीखता है । अपने अभिमत बनाता है । अपने आसपास के जगत का मूल्यांकन करता है। बड़ों से सीखने लायक बातें सीखता है । अब वह स्वतंत्र होने की राह पर होता है । बड़ा नहीं हुआ है परन्तु बनने की अनुभूति करता है । सोलह वर्ष का होते होते वह स्वतंत्र बुद्धि का हो जाता है । अब तक इंद्रियों, मन और बुद्धि का जितना भी विकास हुआ है उसके आधार पर अब वह जीवन का और जगत का अध्ययन स्वत: शुरू करता है । वह बुद्धि से स्वतंत्र है । अब उसे व्यवहार में भी स्वतंत्र होना है । अब उसकी आगे गृहस्थाश्रम चलाने की तैयारी शुरू होती है । वह अब बुद्धि से सीखता है, अहंकार के कारण अस्मिता जागृत होती है। कर्ताभाव जुड़ता है । अहंकार विधायक रहा तो दायित्वबोध भी जागृत होता है ।
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घर में उसे मन की शिक्षा प्राप्त होती है। वह नियमपालन, आज्ञापालन, संयम, अनुशासन, परिश्रम करना आदि की शिक्षा प्राप्त करता है। विद्यालय में वह अनेक प्रकार के कौशल, जानकारी प्रेरणा ग्रहण करता है। उसकी आदतें बनती हैं, उसके स्वभाव का गठन होता है। खेल, कहानी, भ्रमण, प्रयोग, परिश्रम आदि उसके सीखने के माध्यम होते हैं। उसका मन बहुत सक्रिय होता है परन्तु विचार से भावना पक्ष ही अधिक प्रबल होता है। बारह वर्ष की आयु तक उसके चरित्र का गठन ठीक ठीक हो जाता है । आगे किशोर अवस्था में वह विचार करता है। निरीक्षण और परीक्षण करना सीखता है। अपने अभिमत बनाता है । अपने आसपास के जगत का मूल्यांकन करता है। बड़ों से सीखने लायक बातें सीखता है। अब वह स्वतंत्र होने की राह पर होता है। बड़ा नहीं हुआ है परन्तु बनने की अनुभूति करता है। सोलह वर्ष का होते होते वह स्वतंत्र बुद्धि का हो जाता है। अब तक इंद्रियों, मन और बुद्धि का जितना भी विकास हुआ है उसके आधार पर अब वह जीवन का और जगत का अध्ययन स्वत: शुरू करता है। वह बुद्धि से स्वतंत्र है। अब उसे व्यवहार में भी स्वतंत्र होना है। अब उसकी आगे गृहस्थाश्रम चलाने की तैयारी शुरू होती है। वह अब बुद्धि से सीखता है, अहंकार के कारण अस्मिता जागृत होती है। कर्ताभाव जुड़ता है। अहंकार विधायक रहा तो दायित्वबोध भी जागृत होता है।
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गृहस्थाश्रम चलाने के लिये दो प्रकार की तैयारी उसे करनी है । एक है अथर्जिन की और दूसरी है विवाह की । एक के लिये उसे व्यवसाय निश्चित करना है और सीखना है । दूसरे के लिये उसे गृहस्थी कैसे चलती है यह सीखना है । एक विद्यालय में सीखा जाता है, दूसरा घर में । एक शिक्षकों से सीखना है, दूसरा मातापिता से । लगभग दस वर्ष यह तैयारी चलती है । फिर उसका विवाह होता है और दोनों बातें अर्थात्‌ गृहस्थी और अधथर्जिन शुरू होते हैं ।
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गृहस्थाश्रम चलाने के लिये दो प्रकार की तैयारी उसे करनी है। एक है अथर्जिन की और दूसरी है विवाह की। एक के लिये उसे व्यवसाय निश्चित करना है और सीखना है। दूसरे के लिये उसे गृहस्थी कैसे चलती है यह सीखना है। एक विद्यालय में सीखा जाता है, दूसरा घर में । एक शिक्षकों से सीखना है, दूसरा मातापिता से । लगभग दस वर्ष यह तैयारी चलती है। फिर उसका विवाह होता है और दोनों बातें अर्थात्‌ गृहस्थी और अधथर्जिन शुरू होते हैं ।
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अब उसे विद्यालय में जाकर नहीं सीखना है । अब उसके सीखने के दो केंद्र हैं। एक है घर और दूसरा है समाज । अब वह अपने बड़ों से नई पीढ़ी को कैसे शिक्षा देना यह सीखता है । अपने कुल की रीत, समाज में कैसे रहना, यश और प्रतिष्ठा कैसे प्राप्त करना, अपने सामाजिक कर्तव्य कैसे निभाना आदि सीखता है । साथ ही अपने बालकों को शिक्षा भी देता है । अथर्जिन का स्थान भी बहुत कुछ सीखने का केंद्र है। वह अभ्यास से अपने व्यवसाय में माहिर होता जाता है, अनुभवी होता जाता है । सामाजिक कर्तव्य भी निभाता है । अपने मित्रों से सीखता है, अनुभवों से सीखता है । गलतियाँ करके भी सीखता है ।
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अब उसे विद्यालय में जाकर नहीं सीखना है। अब उसके सीखने के दो केंद्र हैं। एक है घर और दूसरा है समाज। अब वह अपने बड़ों से नई पीढ़ी को कैसे शिक्षा देना यह सीखता है। अपने कुल की रीत, समाज में कैसे रहना, यश और प्रतिष्ठा कैसे प्राप्त करना, अपने सामाजिक कर्तव्य कैसे निभाना आदि सीखता है । साथ ही अपने बालकों को शिक्षा भी देता है। अथर्जिन का स्थान भी बहुत कुछ सीखने का केंद्र है। वह अभ्यास से अपने व्यवसाय में माहिर होता जाता है, अनुभवी होता जाता है । सामाजिक कर्तव्य भी निभाता है। अपने मित्रों से सीखता है, अनुभवों से सीखता है । गलतियाँ करके भी सीखता है।
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धीरे धीरे वह आयु में बढ़ता जाता है। अपने बच्चों की शिक्षा और भावी गृहस्थों की शिक्षा पूर्ण होते ही अपनी सांसारिक ज़िम्मेदारी पूर्ण करता है । संतानों के विवाह सम्पन्न होते ही वह वानप्रस्थी होने की तैयारी करता है । संसार के सभी दायित्व पूर्ण कर वह वानप्रस्थी बनता है । अब वह अपने बारे में चिंतन करता है, जीवन का मूल्यांकन करता है । अपने मन को अनासक्त बनाने का अभ्यास करता है । छोटों को मार्गदर्शन करता है । अधिकार छोड़ने की तैयारी करता है । उसकी बुद्धि परिपक्क और तटस्थ होती जाती है । अब वह सत्संग और उपदेश श्रवण से शिक्षा ग्रहण करता है। जीवन के अन्तिम पड़ाव में यदि विरक्त हुआ तो संन्यासी बनता है, नहीं तो घर में ही वानप्रस्थ जीवन जीता है । अपने पुत्रों को सहायता करता है । अपने मन को पूर्ण रूप से शान्त बनाता है । आगामी जन्म का चिंतन भी करता है । अपने इस जन्म का हिसाब कर भावी जन्म के लिये क्या साथ ले जाएगा इसका विचार करता है और एक दिन उसका इस जन्म का जीवन पूर्ण होता है ।
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धीरे धीरे वह आयु में बढ़ता जाता है। अपने बच्चों की शिक्षा और भावी गृहस्थों की शिक्षा पूर्ण होते ही अपनी सांसारिक ज़िम्मेदारी पूर्ण करता है । संतानों के विवाह सम्पन्न होते ही वह वानप्रस्थी होने की तैयारी करता है। संसार के सभी दायित्व पूर्ण कर वह वानप्रस्थी बनता है । अब वह अपने बारे में चिंतन करता है, जीवन का मूल्यांकन करता है। अपने मन को अनासक्त बनाने का अभ्यास करता है । छोटों को मार्गदर्शन करता है । अधिकार छोड़ने की तैयारी करता है । उसकी बुद्धि परिपक्क और तटस्थ होती जाती है। अब वह सत्संग और उपदेश श्रवण से शिक्षा ग्रहण करता है। जीवन के अन्तिम पड़ाव में यदि विरक्त हुआ तो संन्यासी बनता है, नहीं तो घर में ही वानप्रस्थ जीवन जीता है। अपने पुत्रों को सहायता करता है । अपने मन को पूर्ण रूप से शान्त बनाता है । आगामी जन्म का चिंतन भी करता है । अपने इस जन्म का हिसाब कर भावी जन्म के लिये क्या साथ ले जाएगा इसका विचार करता है और एक दिन उसका इस जन्म का जीवन पूर्ण होता है।
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जीवन के हर पड़ाव पर वह भिन्न भिन्न रूप से सीखता ही जाता है । कभी उसकी गति मन्द होती है, कभी तेज, कभी वह बहुत अच्छा सीखता है कभी साधारण, कभी वह सीखने लायक बातें सीखता है कभी न सीखने लायक, कभी वह सीखाने के रूप में भी सीखता है कभी केवल सीखता है । उसके सीखने के तरीके बहुत भिन्न भिन्न होते हैं । उसे सिखाने वाले भी तरह तरह के होते हैं ।
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जीवन के हर पड़ाव पर वह भिन्न भिन्न रूप से सीखता ही जाता है । कभी उसकी गति मन्द होती है, कभी तेज, कभी वह बहुत अच्छा सीखता है कभी साधारण, कभी वह सीखने लायक बातें सीखता है कभी न सीखने लायक, कभी वह सीखाने के रूप में भी सीखता है कभी केवल सीखता है। उसके सीखने के तरीके बहुत भिन्न भिन्न होते हैं । उसे सिखाने वाले भी तरह तरह के होते हैं ।
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कैसे भी हो वह सीखता अवश्य है । जीवन शिक्षा का यह समग्र स्वरूप है । विद्यालय की बारह पंद्रह वर्षों की शिक्षा इसका एक छोटा अंश है । वह भी महत्त्वपूर्ण अवश्य है परन्तु आज केवल विद्यालयीन शिक्षा का विचार करने से काम बनने वाला नहीं है । अत: आजीवन शिक्षा का विचार, वह भी समग्रता में, करना होगा ।
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कैसे भी हो वह सीखता अवश्य है। जीवन शिक्षा का यह समग्र स्वरूप है । विद्यालय की बारह पंद्रह वर्षों की शिक्षा इसका एक छोटा अंश है। वह भी महत्त्वपूर्ण अवश्य है परन्तु आज केवल विद्यालयीन शिक्षा का विचार करने से काम बनने वाला नहीं है । अत: आजीवन शिक्षा का विचार, वह भी समग्रता में, करना होगा।
    
== व्यक्ति की सर्व क्षमताओं का विकास करने वाली शिक्षा ==
 
== व्यक्ति की सर्व क्षमताओं का विकास करने वाली शिक्षा ==
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं कि शिक्षा मनुष्य की
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स्वामी विवेकानन्द कहते हैं कि शिक्षा मनुष्य की अंतर्निहित पूर्णता का प्रकटीकरण है । इसका तात्विक अर्थ क्या है ? इसका अर्थ यह है कि मनुष्य अपने आपमें पूर्ण है। अब जीवित हाडचाम का मनुष्य तो पूर्ण नहीं हो सकता। कोई भी मनुष्य सत्त्व, रज, तम इन त्रिगुणों से युक्त ही होता है। कोई भी मनुष्य अच्छे बुरे, इष्ट, अनिष्ट का ट्रंटर ही होता है। केवल अच्छा या केवल बुरा तो होता नहीं। केवल सत्त्वगुणी, केवल रजोगुणी या केवल तमोगुणी होता नहीं । शत प्रतिशत सज्जन या शत प्रतिशत दुर्जन होता नहीं। जब तक ये तीनों गुण होते हैं और जब तक अच्छे बुरे का द्वंद्व होता है तब तक मनुष्य पूर्ण नहीं होता है ।
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अंतर्निहित पूर्णता का प्रकटीकरण है । इसका तात्विक अर्थ
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इस स्थिति में मनुष्य की अंतर्निहित पूर्णता से तात्पर्य यह है कि मनुष्य मूल रूप में आत्मतत्व ही है । केवल आत्मतत्व के स्वरूप में ही वह पूर्ण होता है । मनुष्य का जीवन लक्ष्य अपने आप को आत्मतत्व के रूप में जानने का है । यह जानने के लिये शिक्षा होती है ।
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क्या है ? इसका अर्थ यह है कि मनुष्य अपने आपमें पूर्ण
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अपने आपको आत्मतत्व के रूप में जानने की यह यात्रा जन्मजन्मांतर में चलती है। मनुष्य हर जन्म में इस यात्रा में आगे बढ़ता जाता है । मनुष्य इस जन्म में उस पूर्णता के अंश स्वरूप कुछ क्षमतायें लेकर आता है । शिक्षा इन क्षमताओं का प्रकटीकरण करती है । यही अंतर्निहित क्षमताओं का विकास है। मनुष्य की इस जन्म की अंतर्निहित क्षमताओं को उसकी विकास की संभावना कहा जाता है । अर्थात्‌ इस जन्म में कितना विकास होगा इसका आधार उसकी अंतर्निहित क्षमतायें कितनी हैं उसके ऊपर निर्भर होता है। मनुष्य की क्षमतायें कितनी हैं यह जानने से पूर्व मनुष्य का स्वरूप क्या है यह जानना आवश्यक है । मनुष्य की क्षमताओं के आयाम कौन से हैं यह जानना आवश्यक है । इस संदर्भ में भारतीय शास्त्रों में विभिन्न प्रकार से मनुष्य का जो वर्णन किया गया है उसके सार रूप में कहें तो मनुष्य का व्यक्तित्व पाँचआयामी है । ये पाँच आयाम इस प्रकार हैं:
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# शरीर
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# प्राण
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# मन
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# बुद्धि और
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# चित्त ।
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# ये पाँच उसका व्यक्त स्वरूप दर्शाते हैं । इस व्यक्त स्वरूप के पीछे उसका एक अव्यक्त स्वरूप है । वह अव्यक्त स्वरूप है आत्मा ।
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# यह अव्यक्त स्वरूप ही उसका सत्य स्वरूप है, मूल स्वरूप है ।
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# शास्त्र कहते हैं कि अव्यक्त स्वरूप ही व्यक्त हुआ है। इसलिए व्यक्त और अव्यक्त ऐसे दो भेद नहीं हैं। अव्यक्त आत्मा ही शरीर, प्राण आदि में व्यक्त हुआ है । व्यक्त स्वरूप के मूल अव्यक्त स्वरूप की अनुभूति करना और उस अनुभूति के आधार पर इस जगत में व्यवहार करना यह ज्ञान है । सर्व शिक्षा का लक्ष्य इस ज्ञान को प्राप्त करना है । इस ज्ञान को ब्रह्मज्ञान कहते हैं । ज्ञान का अर्थ ही ब्रह्मज्ञान है। ब्रह्मज्ञान आत्मस्वरूप है। जिस प्रकार आत्मा शरीर, प्राण, मन, बुद्धि, चित्त आदि के रूप में व्यक्त हुई है, उस प्रकार ब्रह्मज्ञान विभिन्न स्तरों पर जानकारी, विचार, भावना, विवेक आदि के रूप में प्रकट होता है । ज्ञान प्रकट होता है इसका अर्थ है ज्ञान प्राप्त होता है । अर्थात्‌ जगत का सर्व ज्ञान भी आत्मज्ञान अथवा ब्रह्मज्ञान का ही स्वरूप है ।
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# भारतीय जीवनदृष्टि का और भारतीय शिक्षा का यह मूल सिद्धांत है । इसे ठीक से जानना भारतीय शिक्षा के स्वरूप को जानने के लिये समुचित प्रस्थान है । अब हम मनुष्य के अव्यक्त और व्यक्त रूप को जानने का प्रयास करेंगे ।
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है। अब जीवित हाडचाम का मनुष्य तो पूर्ण नहीं हो
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== आत्मतत्व ==
 
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सकता । कोई भी मनुष्य सत्त्व, रज, तम इन त्रिगुणों से युक्त
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ही होता है । कोई भी मनुष्य अच्छे बुरे, इष्ट, अनिष्ट का ट्रंटर
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ही होता है । केवल अच्छा या केवल बुरा तो होता नहीं ।
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केवल सत्त्वगुणी, केवल रजोगुणी या केवल तमोगुणी होता
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नहीं । शत प्रतिशत सज्जन या शत प्रतिशत दुर्जन होता नहीं ।
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जब तक ये तीनों गुण होते हैं और जब तक अच्छे बुरे का
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टूंद्र होता है तब तक मनुष्य पूर्ण नहीं होता है । इस स्थिति में
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मनुष्य की अंतर्निहित पूर्णता से तात्पर्य यह है कि मनुष्य मूल
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रूप में आत्मतत्त्व ही है । केवल आत्मतत्त्व के स्वरूप में ही
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वह पूर्ण होता है ।
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मनुष्य का जीवन लक्ष्य अपने आप को आत्मतत्त्व के
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रूप में जानने का है । यह जानने के लिये
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शिक्षा होती है ।
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अपने आपको आत्मतत्त्व के रूप में जानने की यह
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यात्रा जन्मजन्मांतर में चलती है । मनुष्य हर जन्म में इस
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यात्रा में आगे बढ़ता जाता है । मनुष्य इस जन्म में उस
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पूर्णता के अंश स्वरूप कुछ क्षमतायें लेकर आता है । शिक्षा
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इन क्षमताओं का प्रकटीकरण करती है । यही अंतर्निहित
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क्षमताओं का विकास है ।
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मनुष्य की इस जन्म की अंतर्निहित क्षमताओं को उसकी विकास की संभावना कहा जाता है । अर्थात्‌ इस
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जन्म में कितना विकास होगा इसका आधार उसकी
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अंतर्निहित क्षमतायें कितनी हैं उसके ऊपर निर्भर होता है ।
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मनुष्य की क्षमतायें कितनी हैं यह जानने से पूर्व मनुष्य का
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स्वरूप क्या है यह जानना आवश्यक है । मनुष्य की
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क्षमताओं के आयाम कौनसे हैं यह जानना आवश्यक है ।
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इस संदर्भ में भारतीय शास्त्रों में विभिन्न प्रकार से मनुष्य का
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जो वर्णन किया गया है उसके साररूप में कहें तो मनुष्य का
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व्यक्तित्व पाँचआयामी है । ये पाँच आयाम इस प्रकार हैं ।
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१, शरीर, २. प्राण, 3. मन, ४. बुद्धि और
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५. चित्त ।
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२. ये पाँच उसका व्यक्त स्वरूप दृशाति हैं । इस व्यक्त
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स्वरूप के पीछे उसका एक अव्यक्त स्वरूप है । वह अव्यक्त
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स्वरूप है आत्मा ।
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3. यह Seam स्वरूप ही उसका सत्य स्वरूप है,
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मूल स्वरूप है ।
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४. शाख्र कहते हैं कि अव्यक्त स्वरूप ही व्यक्त हुआ
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है । इसलिए व्यक्त और अव्यक्त ऐसे दो भेद नहीं हैं। अव्यक्त
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आत्मा ही शरीर, प्राण आदि में व्यक्त हुआ है ।
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व्यक्त स्वरूप के मूल अव्यक्त स्वरूप की अनुभूति
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करना और उस अनुभूति के आधार पर इस जगत में व्यवहार
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करना यह ज्ञान है । सर्व शिक्षा का लक्ष्य इस ज्ञान को प्राप्त
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करना है ।
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इस ज्ञान को ब्रह्मज्ञान कहते हैं । ज्ञान का अर्थ ही
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ब्रह्जज्ञान है । ब्रह्नज्ञान आत्मस्वरूप है । जिस प्रकार आत्मा
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शरीर, प्राण, मन, बुद्धि, चित्त आदि के रूप में व्यक्त हुई है
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उस प्रकार ब्रह्मज्ञान विभिन्न स्तरों पर जानकारी, विचार,
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भावना, विवेक आदि के रूप में प्रकट होता है । ज्ञान प्रकट
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होता है इसका अर्थ है ज्ञान प्राप्त होता है । अर्थात्‌ जगत का
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सर्व ज्ञान भी आत्मज्ञान अथवा ब्रह्मज्ञान का ही स्वरूप है ।
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भारतीय जीवनदृष्टि का और भारतीय शिक्षा का यह
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मूल सिद्धांत है । इसे ठीक से जानना भारतीय शिक्षा के
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स्वरूप को जानने के लिये समुचित प्रस्थान है ।
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अब हम मनुष्य के अव्यक्त और व्यक्त रूप को जानने
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का प्रयास करेंगे ।
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== आत्मतत्त्व ==
   
आत्मा की संकल्पना भारतीय विचारविश्व की खास
 
आत्मा की संकल्पना भारतीय विचारविश्व की खास
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ऐसा ही किया जाता है इसलिये भारत की विश्व में पहचान
 
ऐसा ही किया जाता है इसलिये भारत की विश्व में पहचान
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आध्यात्मिक देश की है । यह आत्मतत्त्व न केवल मनुष्य
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आध्यात्मिक देश की है । यह आत्मतत्व न केवल मनुष्य
    
का अपितु सृष्टि में जो जो भी इंट्रियगम्य, मनोगम्य,
 
का अपितु सृष्टि में जो जो भी इंट्रियगम्य, मनोगम्य,
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है । इस त्रिपुटी को अर्थात्‌ ज्ञाता, जय और ज्ञान तीनों को
 
है । इस त्रिपुटी को अर्थात्‌ ज्ञाता, जय और ज्ञान तीनों को
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आत्मतत्त्व ही कहा गया है ।
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आत्मतत्व ही कहा गया है ।
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आत्मतत्त्व अपने अव्यक्त रूप में अजर अर्थात्‌ जो कभी वृद्ध नहीं होता, अक्षर अर्थात्‌
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आत्मतत्व अपने अव्यक्त रूप में अजर अर्थात्‌ जो कभी वृद्ध नहीं होता, अक्षर अर्थात्‌
    
जिसका कभी क्षरण नहीं होता, अचिंत्य अर्थात्‌ जिसका
 
जिसका कभी क्षरण नहीं होता, अचिंत्य अर्थात्‌ जिसका
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है।
 
है।
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इस आत्मतत्त्व ने ही इस सृष्टि का रूप धारण किया
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इस आत्मतत्व ने ही इस सृष्टि का रूप धारण किया
    
है । इसलिये इस सृष्टि को परमात्मा का विश्वरूप कहते हैं ।
 
है । इसलिये इस सृष्टि को परमात्मा का विश्वरूप कहते हैं ।
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आध्यात्मिक विचार है । मनुष्य की तरह सृष्टि के सारे पदार्थ
 
आध्यात्मिक विचार है । मनुष्य की तरह सृष्टि के सारे पदार्थ
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भी मूल रूप में परमात्मतत्त्व हैं यह आध्यात्मिक विचार है ।
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भी मूल रूप में परमात्मतत्व हैं यह आध्यात्मिक विचार है ।
    
इसे जानना शिक्षा का लक्ष्य है ।
 
इसे जानना शिक्षा का लक्ष्य है ।
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बताया शरीर, प्राण, मन, बुद्धि और चित्त हैं । अर्थात्‌ मनुष्य
 
बताया शरीर, प्राण, मन, बुद्धि और चित्त हैं । अर्थात्‌ मनुष्य
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में आत्मतत्त्व इन पाँच आयामों में व्यक्त हुआ है । उपनिषद्‌
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में आत्मतत्व इन पाँच आयामों में व्यक्त हुआ है । उपनिषद्‌
    
की शास्त्रीय परिभाषा में इसे निम्नानुसार बताया है ...
 
की शास्त्रीय परिभाषा में इसे निम्नानुसार बताया है ...

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