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− | पुरा तक्षशिलासंस्थं निवृत्तमपराजितम्। | + | पुरा तक्षशिलासंस्थं निवृत्तमपराजितम्। |
| + | सम्यग्विजयिनं दृष्ट्वा समन्तान्मन्त्रिभिर्वृतम्॥ 1-3-171 |
| + | तस्मै जयाशिषः पूर्वं यथान्यायं प्रयुज्य सः। |
| + | उवाचैनं वचः काले शब्दसम्पन्नया गिरा॥ 1-3-172 |
| + | उद[त्त]ङ्क उवाच |
| + | अन्यस्मिन्करणीये तु कार्ये पार्थिवसत्तम। |
| + | बाल्यादिवान्यदेव त्वं कुरुषे नृपसत्तम॥ 1-3-173 |
| + | सौतिरुवाच |
| + | एवमुक्तस्तु विप्रेण स राजा जनमेजयः। |
| + | अर्चयित्वा यथान्यायं प्रत्युवाच द्विजोत्तमम्॥ 1-3-174 |
| + | जनमेजय उवाच |
| + | आसां प्रजानां परिपालनेन स्वं क्षत्रधर्मं परिपालयामि। |
| + | प्रब्रूहि मे किं करणीयमद्य येनासि कार्येण समागतस्त्वम्॥ 1-3-175 |
| + | सौतिरुवाच |
| + | स एवमुक्तस्तु नृपोत्तमेन द्विजोत्तमः पुण्यकृतां वरिष्ठः। |
| + | उवाच राजानमदीनसत्त्वं स्वमेव कार्यं नृपते कुरुष्व॥ 1-3-176 |
| + | उद[त्त]ङ्क उवाच |
| + | तक्षकेण महीन्द्रेन्द्र येन ते हिंसितः पिता। |
| + | तस्मै प्रतिकुरुष्व त्वं पन्नगाय दुरात्मने॥ 1-3-177 |
| + | कार्यकालं हि मन्येऽहं विधिदृष्टस्य कर्मणः। |
| + | तद्गच्छापचितिं राजन्पितुस्तस्य महात्मनः॥ 1-3-178 |
| + | तेन ह्यनपराधी स दष्टो दुष्टान्तरात्मना। |
| + | पञ्चत्वमगमद्राजा वज्राहत इव द्रुमः॥ 1-3-179 |
| + | बलदर्पसमुत्सिक्तस्तक्षकः पन्नगाधमः। |
| + | अकार्यं कृतवान्पापो योऽदशत्पितरं तव॥ 1-3-180 |
| + | राजर्षिवंशगोप्तारममरप्रतिमं नृपम्। |
| + | यियासुं काश्यपं चैव न्यवर्तयत्पापकृत्॥ 1-3-181 |
| + | होतुमर्हसि तं पापं ज्वलिते हव्यवाहने। |
| + | सर्पसत्रे महाराज त्वरितं तद्विधीयताम्॥ 1-3-182 |
| + | एवं पितुश्चापचितिं कृतवांस्त्वं भविष्यसि। |
| + | मम प्रियं च सुमहत्कृतं राजन्भविष्यसि॥ 1-3-183 |
| + | कर्मणः पृथिवीपाल मम येन दुरात्मना। |
| + | विघ्नः कृतो महाराज गुर्वर्थं चरतोऽनघ॥ 1-3-184 |
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− | सम्यग्विजयिनं दृष्ट्वा समन्तान्मन्त्रिभिर्वृतम्॥ 1-3-171
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− | तस्मै जयाशिषः पूर्वं यथान्यायं प्रयुज्य सः।
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− | उवाचैनं वचः काले शब्दसम्पन्नया गिरा॥ 1-3-172
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− | उद[त्त]ङ्क उवाच
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− | अन्यस्मिन्करणीये तु कार्ये पार्थिवसत्तम।
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− | बाल्यादिवान्यदेव त्वं कुरुषे नृपसत्तम॥ 1-3-173
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− | सौतिरुवाच
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− | एवमुक्तस्तु विप्रेण स राजा जनमेजयः।
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− | अर्चयित्वा यथान्यायं प्रत्युवाच द्विजोत्तमम्॥ 1-3-174
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− | जनमेजय उवाच
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− | आसां प्रजानां परिपालनेन स्वं क्षत्रधर्मं परिपालयामि।
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− | प्रब्रूहि मे किं करणीयमद्य येनासि कार्येण समागतस्त्वम्॥ 1-3-175
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− | स एवमुक्तस्तु नृपोत्तमेन द्विजोत्तमः पुण्यकृतां वरिष्ठः।
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− | उवाच राजानमदीनसत्त्वं स्वमेव कार्यं नृपते कुरुष्व॥ 1-3-176
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− | उद[त्त]ङ्क उवाच
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− | तक्षकेण महीन्द्रेन्द्र येन ते हिंसितः पिता।
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− | तस्मै प्रतिकुरुष्व त्वं पन्नगाय दुरात्मने॥ 1-3-177
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− | कार्यकालं हि मन्येऽहं विधिदृष्टस्य कर्मणः।
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− | तद्गच्छापचितिं राजन्पितुस्तस्य महात्मनः॥ 1-3-178
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− | तेन ह्यनपराधी स दष्टो दुष्टान्तरात्मना।
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− | पञ्चत्वमगमद्राजा वज्राहत इव द्रुमः॥ 1-3-179
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− | बलदर्पसमुत्सिक्तस्तक्षकः पन्नगाधमः।
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− | अकार्यं कृतवान्पापो योऽदशत्पितरं तव॥ 1-3-180
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− | राजर्षिवंशगोप्तारममरप्रतिमं नृपम्।
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− | यियासुं काश्यपं चैव न्यवर्तयत्पापकृत्॥ 1-3-181
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− | होतुमर्हसि तं पापं ज्वलिते हव्यवाहने।
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− | सर्पसत्रे महाराज त्वरितं तद्विधीयताम्॥ 1-3-182
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− | एवं पितुश्चापचितिं कृतवांस्त्वं भविष्यसि।
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− | मम प्रियं च सुमहत्कृतं राजन्भविष्यसि॥ 1-3-183
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− | कर्मणः पृथिवीपाल मम येन दुरात्मना।
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| सौतिरुवाच | | सौतिरुवाच |