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| श[स]मन्तपञ्चकाख्यं च श्रोतुमर्हथ सत्तमाः॥ 1-2-2 | | श[स]मन्तपञ्चकाख्यं च श्रोतुमर्हथ सत्तमाः॥ 1-2-2 |
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− | त्रेताद्वापरयोः सन्धौ रामः शस्त्रभृतां वरः।
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− | असकृत्पार्थिवं क्षत्रं जघानामर्षचोदितः॥ 1-2-3 | + | त्रेताद्वापरयोः सन्धौ रामः शस्त्रभृतां वरः। |
| + | असकृत्पार्थिवं क्षत्रं जघानामर्षचोदितः॥ 1-2-3 |
| + | स सर्वं क्षत्रमुत्साद्य स्ववीर्येणानलद्युतिः। |
| + | श[स]मन्तपञ्चके पञ्च चकार रौधिरान्ह्रदान्॥ 1-2-4 |
| + | स तेषु रुधिराम्भःसु ह्रदेषु क्रोधमूर्च्छितः। |
| + | पितॄन्संतर्पयामास रुधिरेणेति नः श्रुतम्॥ 1-2-5 |
| + | अथर्चीकादयोऽभ्येत्य पितरो राममब्रुवन्। |
| + | राम राम महाभाग प्रीताः स्म तव भार्गव॥ 1-2-6 |
| + | अनया पितृभक्त्या च विक्रमेण तव प्रभो। |
| + | वरं वृणीष्व भद्रं ते यमिच्छसि महाद्युते॥ 1-2-7 |
| + | राम उवाच |
| + | यदि मे पितरः प्रीता यद्यनुग्राह्यता मयि। |
| + | यच्च रोषाभिभूतेन क्षत्रमुत्सादितं मया॥ 1-2-8 |
| + | अतश्च पापान्मुच्येऽहमेष मे प्रार्थितो वरः। |
| + | ह्रदाश्च तीर्थभूता मे भवेयुर्भुवि विश्रुताः॥ 1-2-9 |
| + | एवं भविष्यतीत्येवं पितरस्तमथाब्रुवन्। |
| + | तं क्षमस्वेति निषिषिधुस्ततः स विरराम ह॥ 1-2-10 |
| + | तेषां समीपे यो देशो ह्रदानां रुधिराम्भसाम्। |
| + | श[स]मन्तपञ्चकमिति पुण्यं तत्परिकीर्तितम्॥ 1-2-11 |
| + | येन लिङ्गेन यो देशो युक्तः समुपलक्ष्यते। |
| + | तेनैव नाम्ना तं देशं वाच्यमाहुर्मनीषिणः॥ 1-2-12 |
| + | अन्तरे चैव सम्प्राप्ते कलिद्वापरयोरभूत्। |
| + | श[स]मन्तपञ्चके युद्धं कुरुपाण्डवसेनयोः॥ 1-2-13 |
| + | तस्मिन्परमधर्मिष्ठे देशे भूदोषवर्जिते। |
| + | अष्टादश समाजग्मुः अक्षौहिण्यो युयुत्सया॥ 1-2-14 |
| + | समेत्य तं द्विजास्ताश्च तत्रैव निधनं गताः। |
| + | एतन्नामाभिनिर्वृत्तं तस्य देशस्य वै द्विजाः॥ 1-2-15 |
| + | पुण्यश्च रमणीयश्च स देशो वः प्रकीर्तितः। |
| + | तदेतत्कथितं सर्वं मया ब्राह्मणसत्तमाः॥ 1-2-16 |
| + | यथा देशः स विख्यातस्त्रिषु लोकेषु सुव्रताः। |
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− | स सर्वं क्षत्रमुत्साद्य स्ववीर्येणानलद्युतिः।
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− | श[स]मन्तपञ्चके पञ्च चकार रौधिरान्ह्रदान्॥ 1-2-4
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− | स तेषु रुधिराम्भःसु ह्रदेषु क्रोधमूर्च्छितः।
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− | पितॄन्संतर्पयामास रुधिरेणेति नः श्रुतम्॥ 1-2-5
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− | अथर्चीकादयोऽभ्येत्य पितरो राममब्रुवन्।
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− | राम राम महाभाग प्रीताः स्म तव भार्गव॥ 1-2-6
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− | अनया पितृभक्त्या च विक्रमेण तव प्रभो।
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− | वरं वृणीष्व भद्रं ते यमिच्छसि महाद्युते॥ 1-2-7
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− | राम उवाच
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− | यदि मे पितरः प्रीता यद्यनुग्राह्यता मयि।
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− | यच्च रोषाभिभूतेन क्षत्रमुत्सादितं मया॥ 1-2-8
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− | अतश्च पापान्मुच्येऽहमेष मे प्रार्थितो वरः।
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− | ह्रदाश्च तीर्थभूता मे भवेयुर्भुवि विश्रुताः॥ 1-2-9
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− | एवं भविष्यतीत्येवं पितरस्तमथाब्रुवन्।
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− | तं क्षमस्वेति निषिषिधुस्ततः स विरराम ह॥ 1-2-10
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− | तेषां समीपे यो देशो ह्रदानां रुधिराम्भसाम्।
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− | श[स]मन्तपञ्चकमिति पुण्यं तत्परिकीर्तितम्॥ 1-2-11
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− | येन लिङ्गेन यो देशो युक्तः समुपलक्ष्यते।
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− | तेनैव नाम्ना तं देशं वाच्यमाहुर्मनीषिणः॥ 1-2-12
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− | अन्तरे चैव सम्प्राप्ते कलिद्वापरयोरभूत्।
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− | तस्मिन्परमधर्मिष्ठे देशे भूदोषवर्जिते।
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− | समेत्य तं द्विजास्ताश्च तत्रैव निधनं गताः।
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− | एतन्नामाभिनिर्वृत्तं तस्य देशस्य वै द्विजाः॥ 1-2-15
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− | पुण्यश्च रमणीयश्च स देशो वः प्रकीर्तितः।
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− | तदेतत्कथितं सर्वं मया ब्राह्मणसत्तमाः॥ 1-2-16
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− | यथा देशः स विख्यातस्त्रिषु लोकेषु सुव्रताः।
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| ऋषयः ऊचुः | | ऋषयः ऊचुः |