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→‎वानप्रस्थाश्रम: लेख सम्पादित किया
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आदि का औचित्य साधना चाहिये । ब्रत, अनुष्ठान आदि... प्रकार के ऋण होते हैं । एक है पितूऋण, दूसरा है देवकऋण
 
आदि का औचित्य साधना चाहिये । ब्रत, अनुष्ठान आदि... प्रकार के ऋण होते हैं । एक है पितूऋण, दूसरा है देवकऋण
 
भी करने चाहिये । सादगी अपनाना चाहिये । रसवृत्ति का... और तीसरा है ऋषिकऋण । ऋषि ज्ञान के क्षेत्र के, देव
 
भी करने चाहिये । सादगी अपनाना चाहिये । रसवृत्ति का... और तीसरा है ऋषिकऋण । ऋषि ज्ञान के क्षेत्र के, देव
त्याग करना चाहिये । अपनी इन्द्रियों को वश में करना... प्रकृति के क्षेत्र के और पितृ अनुवंश के क्षेत्र के ऐसे तत्त्व हैं
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त्याग करना चाहिये । अपनी इन्द्रियों को वश में करना... प्रकृति के क्षेत्र के और पितृ अनुवंश के क्षेत्र के ऐसे तत्व हैं
 
चाहिये । कठोर ब्रह्मचर्य अपनाना चाहिये । जिनके कारण मनुष्य का इस जन्म का जीवन सम्भव होता
 
चाहिये । कठोर ब्रह्मचर्य अपनाना चाहिये । जिनके कारण मनुष्य का इस जन्म का जीवन सम्भव होता
 
ऐसा करने से उसमें ओज, तेज, बल, कौशल, मेधा, है । ज्ञान के कारण मनुष्य का जीवन सुसंस्कृत बनता है,
 
ऐसा करने से उसमें ओज, तेज, बल, कौशल, मेधा, है । ज्ञान के कारण मनुष्य का जीवन सुसंस्कृत बनता है,
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वानप्रस्थाश्रम के मुख्य लक्षण इस प्रकार हैं:
 
वानप्रस्थाश्रम के मुख्य लक्षण इस प्रकार हैं:
* गृहत्याग : ब्रह्मचर्याश्रम में भी व्यक्ति अपने घर में नहीं रहता है। परन्तु वह गुरुगृह वास होता है। वह गुरु के रक्षण में और गुरु के अधीन होता है। वानप्रस्थाश्रम में वह गृहत्यागी तो   
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* गृहत्याग : ब्रह्मचर्याश्रम में भी व्यक्ति अपने घर में नहीं रहता है। परन्तु वह गुरुगृह वास होता है। वह गुरु के रक्षण में और गुरु के अधीन होता है। वानप्रस्थाश्रम में वह गृहत्यागी तो होता है पर वह स्वाधीन होता है। वह गृहत्याग करता है, उसके साथ ही गृह की सुविधाओं और सुखों का भी त्याग करता है। वह पत्नी को पुत्रों को सौंपता है। यदि पत्नी साथ आना चाहती है तो पत्नी के साथ गृहत्याग करता है और वन में रहता है। वन में जो भी संसाधन मिलते हैं उनसे ही अपना निवास और आहार प्राप्त करता है ।  
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* अधिकार का त्याग : सांसारिक दायित्वों के साथ साथ वह सांसारिक अधिकारों का भी त्याग करता है। 
* स्वाधीन होता है । वह गृहत्याग करता है �
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* धर्माचरण : इस आश्रम में भी अतिथिसेवा, यज्ञ, दान और तप को छोड़ना नहीं है ।
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* सादगी : वह वन में उगने वाले नीवार, कन्द, मूल, फल आदि खाकर रहता है । दिन में एक बार भोजन करता है। सादे वस्त्र धारण करता है। श्रृंगार नहीं करता है।अग्निहोत्र करता है। प्राणियों के प्रति दयाभाव रखता है। 
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* स्वाध्याय : वानप्रस्थाश्रम स्वाध्याय का काल है। शास्त्रों का अध्ययन और अध्यापन उसे करना है। चिन्तन कर उसका मर्म समझने का प्रयास करना है। तितिक्षा और तप, वैराग्य और मुमुक्षा वानप्रस्थाश्रम के केन्द्रवर्ती तत्व हैं। 
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वानप्रस्थाश्रम निवृत्ति का काल है। थकी हुई इन्द्रियों और मन को विश्रान्ति देने का काल है। साथ ही विरक्ति और भगवदूभक्ति का भी काल है । परिवार को और समाज को अपने जीवन के अनुभवों के आधार पर मार्गदर्शन देने का काल है। साथ ही सर्व प्रकार के अधिकारों को छोड़ने का काल है। भोगविलास को छोडने का काल है। सांसारिक दायित्वों से मुक्त होकर अपने कल्याण हेतु तपश्चर्या करने का काल है ।
उसके साथ ही गृह की सुविधाओं और
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सुखों का भी त्याग करता है। वह पत्नी को पुत्रों को
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सौंपता है । यदि पत्नी साथ आना चाहती है तो पत्नी के
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साथ गृहत्याग करता है और वन में रहता है । वन में जो
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भी संसाधन मिलते हैं उनसे ही अपना निवास और आहार
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प्राप्त करता है ।
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अधिकार का त्याग : सांसारिक दायित्वों के साथ
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साथ वह सांसारिक अधिकारों का भी त्याग करता है ।
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धर्माचरण : इस आश्रम में भी अतिथिसेवा, यज्ञ, दान
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और तप को छोड़ना नहीं है ।
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सादगी : वह वन में उगने वाले नीवार, कन्द, मूल,
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फल आदि खाकर रहता है । दिन में एक बार भोजन करता
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है। सादे वस्त्र धारण करता है । शुंगार नहीं करता है।
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अग्िहोत्र करता है । प्राणियों के प्रति द्याभाव रखता है ।
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स्वाध्याय : वानप्रस्थाश्रम स्वाध्याय का काल है।
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शास्त्रों का अध्ययन और अध्यापन उसे करना है । चिन्तन
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कर उसका मर्म समझने का प्रयास करना है ।
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तितिक्षा और तप, वैराग्य और मुमुक्षा वानप्रस्थाश्रम
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के केन्द्रवर्ती तत्त्व हैं ।
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वानप्रस्थाश्रम निवृत्ति का काल है। थकी हुई
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gaat atk मन को विश्रान्ति देने का काल है । साथ ही
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विरक्ति और भगवदूभक्ति का भी काल है । परिवार को और
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समाज को अपने जीवन के अनुभवों के आधार पर
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मार्गदर्शन देने का काल है। साथ ही सर्व प्रकार के
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अधिकारों को छोड़ने का काल है । भोगविलास को छोडने
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का काल है। सांसारिक दायित्वों से मुक्त होकर अपने
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कल्याण हेतु तपश्चर्या करने का काल है ।
      
=== संन्यस्ताश्रम ===
 
=== संन्यस्ताश्रम ===
वानप्रस्थाश्रम में तप और तितिक्षा, वैराग्य और
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वानप्रस्थाश्रम में तप और तितिक्षा, वैराग्य और मुमुक्षा परिपक्क हो जाने पर व्यक्ति संन्यस्ताश्रम में प्रवेश करता है। यह आश्रम बिना अधिकार के नहीं अपनाया जाता है। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ और वानप्रस्थ यथाक्रम लगभग सभी के लिये विहित हैं परन्तु संन्यास सभी के लिये नहीं अपितु जिन्हें तीव्र वैराग्य उत्पन्न हुआ है उन्हीं के लिये विहित है। वैराग्य के बिना संन्यास व्यर्थ है, मिथ्या है।
मुमुक्षा परिपक्क हो जाने पर व्यक्ति संन्यस्ताश्रम में प्रवेश
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करता है ।
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यह आश्रम बिना अधिकार के नहीं अपनाया जाता
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है । ब्रह्मचर्य, गृहस्थ और वानप्रस्थ यथाक्रम लगभग सभी
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के लिये विहित हैं परन्तु संन्यास सभीके लिये नहीं अपितु
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जिन्हें तीव्र वैराग्य उत्पन्न हुआ है उन्हींके लिये विहित है ।
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वैराग्य के बिना संन्यास व्यर्थ है, मिथ्या है ।
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संन्यस्ताश्रम की मुख्य बातें इस प्रकार हैं ...
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संन्यस्ताश्रम की मुख्य बातें इस प्रकार हैं:
    
सर्वसंगपरित्याग : संन्यासी सब कुछ छोडता है।
 
सर्वसंगपरित्याग : संन्यासी सब कुछ छोडता है।
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उसका परम धर्म है । इस धर्म का सम्यक पालन करने के
 
उसका परम धर्म है । इस धर्म का सम्यक पालन करने के
 
लिए उसे प्रकृति को जानना आवश्यक है । साथ ही सृष्टि के
 
लिए उसे प्रकृति को जानना आवश्यक है । साथ ही सृष्टि के
सारे पदार्थ एक ही आत्मतत्त्व का विस्तार है यह समझकर
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सारे पदार्थ एक ही आत्मतत्व का विस्तार है यह समझकर
 
आत्मीय सम्बन्ध भी बनाने की आवश्यकता होती है ।
 
आत्मीय सम्बन्ध भी बनाने की आवश्यकता होती है ।
 
प्रकृतिधर्म का पालन समाज के लिए अभ्युद्य और निःश्रेयस
 
प्रकृतिधर्म का पालन समाज के लिए अभ्युद्य और निःश्रेयस
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और कृतज्ञता के रूप में व्यक्त कर उसने लौकिक सुख का
 
और कृतज्ञता के रूप में व्यक्त कर उसने लौकिक सुख का
 
उन्नयन किया । भौतिक समृद्धि, ज्ञान, पवित्रता, स्वास्थ्य,
 
उन्नयन किया । भौतिक समृद्धि, ज्ञान, पवित्रता, स्वास्थ्य,
पोषण, संयम, त्याग आदि सर्व प्रकार के तत्त्वों को मूर्त
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पोषण, संयम, त्याग आदि सर्व प्रकार के तत्वों को मूर्त
 
रूप देकर उनका पूजा विधान बनाया । इसमें से विभिन्न
 
रूप देकर उनका पूजा विधान बनाया । इसमें से विभिन्न
 
उपासना पद्धतियों का विकास किया । हम देखते हैं कि
 
उपासना पद्धतियों का विकास किया । हम देखते हैं कि
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कंप्यूटर निष्णात, चाहे वह मंत्री बने या सरकारी
 
कंप्यूटर निष्णात, चाहे वह मंत्री बने या सरकारी
 
कर्मचारी, चाहे वह साहित्य पढ़े या चित्रकला,
 
कर्मचारी, चाहे वह साहित्य पढ़े या चित्रकला,
चाहे वह वाणिज्य पढ़े या तत्त्वज्ञान, चाहे वह
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चाहे वह वाणिज्य पढ़े या तत्वज्ञान, चाहे वह
 
केवल प्राथमिक शिक्षा तक ही पढ़े या
 
केवल प्राथमिक शिक्षा तक ही पढ़े या
 
उच्चविद्याविभूषित बने, चाहे वह मजदूर बने या
 
उच्चविद्याविभूषित बने, चाहे वह मजदूर बने या

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