| Line 1: |
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| | {{One source|date=March 2019}} | | {{One source|date=March 2019}} |
| | | | |
| − | | + | == धर्म क्या है == |
| − | अध्याय ५
| |
| − | | |
| − | धर्मपुरुषार्थ और शिक्षा
| |
| − | | |
| − | धर्म कया है | |
| − | | |
| | काम पुरुषार्थ मनुष्य की प्रकृति के साथ जुड़ा हुआ | | काम पुरुषार्थ मनुष्य की प्रकृति के साथ जुड़ा हुआ |
| | है । कामपुरुषार्थ की सिद्धता हेतु अर्थपुरुषार्थ प्रस्तुत होता | | है । कामपुरुषार्थ की सिद्धता हेतु अर्थपुरुषार्थ प्रस्तुत होता |
| Line 14: |
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| | है । नियमन और नियंत्रण के लिए धर्मपुरुषार्थ होता है । | | है । नियमन और नियंत्रण के लिए धर्मपुरुषार्थ होता है । |
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| − | धर्म कया है ? धर्म विश्वनियम है । सृष्टि की उत्पत्ति | + | धर्म क्या है ? धर्म विश्वनियम है । सृष्टि की उत्पत्ति |
| | के साथ ही सृष्टि को धारण करने वाले विश्वनियम भी उत्पन्न | | के साथ ही सृष्टि को धारण करने वाले विश्वनियम भी उत्पन्न |
| | हुए हैं । इस विश्वनियम की व्यवस्था के अनुसरण में मनुष्य | | हुए हैं । इस विश्वनियम की व्यवस्था के अनुसरण में मनुष्य |
| Line 64: |
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| | हैं... | | हैं... |
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| − | आश्रमधर्म | + | == आश्रमधर्म == |
| − | | |
| | मनुष्य परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ कृति है । उसे अनेक | | मनुष्य परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ कृति है । उसे अनेक |
| | प्रकार की शक्तियाँ मिली हैं । इन शक्तियों से वह जो चाहे | | प्रकार की शक्तियाँ मिली हैं । इन शक्तियों से वह जो चाहे |
| Line 79: |
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| − |
| + | === आश्रमचतुष्य === |
| − |
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| − |
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| − | | |
| − | आश्रमचतुष्य | |
| − | | |
| | आश्रम शब्द का मूल है श्रम । जहाँ रहकर मनुष्य को | | आश्रम शब्द का मूल है श्रम । जहाँ रहकर मनुष्य को |
| | श्रम करना पड़ता है वह आश्रम है। आश्रम शब्द | | श्रम करना पड़ता है वह आश्रम है। आश्रम शब्द |
| Line 141: |
Line 129: |
| | गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्यस्ताश्रम । | | गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्यस्ताश्रम । |
| | | | |
| − | ब्रहमचर्या श्रम | + | === ब्रहमचर्या श्रम === |
| − | | |
| | आयु के प्रथम पचीस वर्ष ब्रह्मचर्याश्रम के होते हैं । | | आयु के प्रथम पचीस वर्ष ब्रह्मचर्याश्रम के होते हैं । |
| | प्रथम छः से आठ वर्ष घर में ही बीतते हैं । जन्म से पूर्व | | प्रथम छः से आठ वर्ष घर में ही बीतते हैं । जन्म से पूर्व |
| Line 303: |
Line 290: |
| | अपने सर्व प्रकार के सांसारिक दायित्वों को पूर्ण करने का... मनुष्ययज्ञ और पाँचवाँ पितृयज्ञ । यज्ञ का अर्थ है दूसरों के | | अपने सर्व प्रकार के सांसारिक दायित्वों को पूर्ण करने का... मनुष्ययज्ञ और पाँचवाँ पितृयज्ञ । यज्ञ का अर्थ है दूसरों के |
| | | | |
| − | गृहस्थाश्रम के दायित्व | + | === गृहस्थाश्रम === |
| | | | |
| − | गृहस्थाश्रम | + | ==== गृहस्थाश्रम के दायित्व ==== |
| | | | |
| | रद | | रद |
| Line 385: |
Line 372: |
| | इसलिये गृहस्थाश्रम को सभी आश्रमों में श्रेष्ठ कहा है | | | इसलिये गृहस्थाश्रम को सभी आश्रमों में श्रेष्ठ कहा है | |
| | | | |
| − | वानप्रस्था श्रम | + | === वानप्रस्था श्रम === |
| − | | |
| | धर्माचरण करते हुए, सुखों को भोगते हुए पचीस वर्ष | | धर्माचरण करते हुए, सुखों को भोगते हुए पचीस वर्ष |
| | बीत जाते हैं । उसकी सन्तानें वयस्क हो गई हैं । उनके भी | | बीत जाते हैं । उसकी सन्तानें वयस्क हो गई हैं । उनके भी |
| Line 447: |
Line 433: |
| | कल्याण हेतु तपश्चर्या करने का काल है । | | कल्याण हेतु तपश्चर्या करने का काल है । |
| | | | |
| − | संन्यस्ताश्रम | + | === संन्यस्ताश्रम === |
| − | | |
| | वानप्रस्थाश्रम में तप और तितिक्षा, वैराग्य और | | वानप्रस्थाश्रम में तप और तितिक्षा, वैराग्य और |
| | मुमुक्षा परिपक्क हो जाने पर व्यक्ति संन्यस्ताश्रम में प्रवेश | | मुमुक्षा परिपक्क हो जाने पर व्यक्ति संन्यस्ताश्रम में प्रवेश |
| Line 534: |
Line 519: |
| | कि हम इसे पुन: प्रस्थापित करें । | | कि हम इसे पुन: प्रस्थापित करें । |
| | | | |
| − | बर्णधर्म | + | == बर्णधर्म == |
| − | | |
| | समाज में सबको साथ मिलकर रहना है । सौहार्द से | | समाज में सबको साथ मिलकर रहना है । सौहार्द से |
| | रहना है। सबके लिए सुख, शान्ति, समृद्धि, संस्कार सुलभ | | रहना है। सबके लिए सुख, शान्ति, समृद्धि, संस्कार सुलभ |
| Line 696: |
Line 680: |
| | माध्यम से वर्णधर्म समाज का रक्षक है । | | माध्यम से वर्णधर्म समाज का रक्षक है । |
| | | | |
| − | प्रकृतिधर्म | + | === प्रकृतिधर्म === |
| − | | |
| | इस सृष्टि में सभी पदार्थों का अपना अपना स्वभाव | | इस सृष्टि में सभी पदार्थों का अपना अपना स्वभाव |
| | होता है । उसे उस पदार्थ का गुणधर्म कहते हैं । उसे उसकी | | होता है । उसे उस पदार्थ का गुणधर्म कहते हैं । उसे उसकी |
| Line 722: |
Line 705: |
| | का बलवान साधन है । | | का बलवान साधन है । |
| | | | |
| − | धर्म उपासना के रूप में | + | == धर्म उपासना के रूप में == |
| − | | |
| | धर्म का यह स्वरूप बड़ा अद्भुत है । साथ ही मनुष्य | | धर्म का यह स्वरूप बड़ा अद्भुत है । साथ ही मनुष्य |
| | | | |
| Line 802: |
Line 784: |
| | सारी शक्ति लगाकर आचरणीय है । | | सारी शक्ति लगाकर आचरणीय है । |
| | | | |
| − | धर्म पुरुषार्थ हेतु शिक्षा | + | == धर्म पुरुषार्थ हेतु शिक्षा == |
| − | | |
| | शिक्षा वही है जो धर्म सिखाती है, ऐसा एक वाक्य | | शिक्षा वही है जो धर्म सिखाती है, ऐसा एक वाक्य |
| | में शिक्षा का वर्णन किया जा सकता है । बहुत प्रसिद्ध | | में शिक्षा का वर्णन किया जा सकता है । बहुत प्रसिद्ध |
| Line 958: |
Line 939: |
| | fu am ade में पढ़ाया जाता है कि | | fu am ade में पढ़ाया जाता है कि |
| | अर्थशास्त्र का धर्म से या मूल्यों से कोई लेना देना | | अर्थशास्त्र का धर्म से या मूल्यों से कोई लेना देना |
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| − | BR
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| − | भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
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| − | अध्याय ६
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| − |
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| − | अर्थपुरुषार्थ और शिक्षा
| |
| − |
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| − | अर्थपुरुषार्थ
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| − |
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| − | मनुष्य के प्राकृत जीवन का केन्द्र काम पुरुषार्थ है ।
| |
| − | काम पुरुषार्थ का सहयोगी अर्थ पुरुषार्थ है । इच्छाओं की
| |
| − | पूर्ति के लिये मनुष्य को असंख्य पदार्थों की आवश्यकता
| |
| − | होती है । इनमें से अनेक पदार्थ उसे बिना परिश्रम किये
| |
| − | प्राप्त हो जाते हैं । उदाहरण के लिये उसे हवा, सूर्य प्रकाश,
| |
| − | फूलों की सुगन्ध, पक्षियों के कलरव का संगीत बिना प्रयास
| |
| − | किये प्राप्त होते हैं । परन्तु असंख्य पदार्थ ऐसे हैं जो उसे
| |
| − | प्रयास करके प्राप्त करने पड़ते हैं । उदाहरण के लिये वन में
| |
| − | अपने आप ऊगे हुए वृक्षों के फल, फूल अथवा धान्य बिना
| |
| − | प्रयास किये प्राप्त होते हैं । परन्तु आवश्यकता के अनुसार
| |
| − | फल, सागसब्जी और धान्य प्राप्त करने हेतु उसे कृषि करनी
| |
| − | पड़ती है । वख्र प्राप्त करने हेतु उसे प्रयास करना पड़ता है ।
| |
| − | इन प्रयासों को ही अर्थपुरुषार्थ कहते हैं ।
| |
| − |
| |
| − | अर्थ कामानुसारी है । जिस जिस पदार्थ की मनुष्य
| |
| − | को इच्छा होती है उस उस पदार्थ को प्राप्त करने हेतु मनुष्य
| |
| − | प्रयास करता है । इन प्रयासों के परिणामस्वरूप अनेक
| |
| − | प्रकार के उद्योग पैदा हुए हैं । अन्न की आवश्यकता की
| |
| − | पूर्ति हेतु कृषि उद्योग का, वस्त्र की आवश्यकता की पूर्ति
| |
| − | हेतु वस्र उद्योग का, निवास की व्यवस्था हेतु भवन बनाने
| |
| − | के उद्योग का विकास होता है । कृषि के लिये आवश्यक
| |
| − | उपकरण निर्माण करने हेतु भी अनेक प्रकार के उद्योग
| |
| − | स्थापित किये जाते हैं । इन उद्योगों का बड़ा जाल बनता है
| |
| − | क्योंकि सारे उद्योग एकदूसरे के साथ अंग अंगी संबंध से
| |
| − | जुड़े होते हैं । विचार करने पर ध्यान में आता है कि कृषि
| |
| − | मूल उद्योग है और शेष सारे उद्योग या तो कृषि के सहायक
| |
| − | हैं या उसके ऊपर निर्भर करते हैं । उदाहरण के लिये वस्त्र
| |
| − | उद्योग अत्यन्त महत्त्वपूर्ण उद्योग है परन्तु उसकी कच्ची
| |
| − | सामाग्री कृषि से ही प्राप्त होती है । इसलिये वह कृषि पर
| |
| − |
| |
| − | BS
| |
| − |
| |
| − | निर्भर है । बैलगाड़ी, हल, कुदाल आदि बनाने का उद्योग
| |
| − | कृषि का सहायक उद्योग है । उद्योगों का यह जाल बहुत
| |
| − | व्यापक और बहुत जटिल है। उसे समझना और उसे
| |
| − | व्यवस्थित ढंग से चलाना अर्थपुरुषार्थ का महत्त्वपूर्ण आयाम
| |
| − | है।
| |
| − |
| |
| − | कामपुरुषार्थ प्राकृतिक है, अर्थपुरुषार्थ मनुष्य की
| |
| − | व्यवस्था है । मनुष्य द्वारा निर्मित व्यवस्था होने के कारण
| |
| − | उसकी अनेक व्यवस्थायें हैं, इन व्यवस्थाओं को चलाने हेतु
| |
| − | अनेक नियम हैं । इनसे महत्त्वपूर्ण शास्त्र बनता है, जिसे
| |
| − | अर्थशास्त्र कहते हैं ।
| |
| − |
| |
| − | अर्थपुरुषार्थ के आयाम इस प्रकार हैं ....
| |
| − |
| |
| − | 8. समृद्धि प्राप्त करने की तत्परता : मनुष्य को दरिद्र
| |
| − | नहीं रहना चाहिये । उसे समृद्धि की इच्छा करनी
| |
| − | चाहिये । जीवन के लिये आवश्यक, शरीर, मन
| |
| − | आदि को सुख देने वाले, चित्त को प्रसन्न बनाने वाले
| |
| − | अनेक पदार्थों का सेवन करने हेतु अर्थ चाहिये । वह
| |
| − | प्रभूत मात्रा में प्राप्त हो, इसका विचार करना
| |
| − | चाहिये । अपने भण्डार धान्य से भरे हों, उत्तम प्रकार
| |
| − | के वस्त्रालंकार प्राप्त हों, कहीं किसीके लिए किसी
| |
| − | बात का अभाव न हो, ऐसा आयोजन मनुष्य को
| |
| − | करना चाहिये । समृद्धि कैसे प्राप्त होती है इसका ज्ञान
| |
| − | प्राप्त करना चाहिये ।
| |
| − |
| |
| − | समृद्धि प्राप्त करने हेतु उद्यमशील होना : समृद्धि
| |
| − | प्राप्त करने की इच्छा मात्र से वह प्राप्त नहीं होती ।
| |
| − | “उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथै:” मनुष्य
| |
| − | को वैसी इच्छा भी नहीं करनी चाहिये । अपने
| |
| − | परिश्रम से वह प्राप्त हो इस दृष्टि से उसे काम करना
| |
| − | चाहिये । अनेक प्रकार के हुनर सीखने चाहिये,
| |
| − | �
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| − | ............. page-61 .............
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| − |
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| − | पर्व १ : उपोद्धात
| |
| − |
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| − |
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| |
| − | निरन्तर काम करना चाहिये । बिना काम किये समृद्धि
| |
| − | प्राप्त होती ही नहीं है यह जानना चाहिये । बिना काम
| |
| − | किये जो समृद्धि प्राप्त होती दिखाई देती है वह
| |
| − | आभासी समृद्धि होती है और वह काम नहीं करने
| |
| − | वाले और उसके आसपास के लोगों का नाश करती
| |
| − | है।
| |
| − |
| |
| − | उद्यम की प्रतिष्ठा : काम करने के परिणामस्वरूप
| |
| − | समृद्धि प्राप्त करने हेतु काम करने को प्रतिष्ठा का
| |
| − | विषय मानना भी आवश्यक है । आज के सन्दर्भ में
| |
| − | तो यह बात खास आवश्यक है क्योंकि आज काम
| |
| − | करने को हेय और काम करवाने वाले को प्रतिष्ठित
| |
| − | माना जाता है । ऐसा करने से समृद्धि का आभास
| |
| − | निर्माण होता है और वास्तविक समृद्धि का नाश होता
| |
| − | है। काम करने की कुशलता अर्जित करना प्रमुख
| |
| − | लक्ष्य बनना चाहिये । जब कुशलता प्राप्त होती है तो
| |
| − | काम की गति बढ़ती है, बुद्धि सक्रिय होती है,
| |
| − | कल्पनाशक्ति जागृत होती है और नये नये आविष्कार
| |
| − | सम्भव होते हैं । इससे काम को कला का दर्जा प्राप्त
| |
| − | होता है और काम करने में आनन्द का अनुभव होता
| |
| − | है। श्रम और काम में आनन्द का अनुभव सच्चा
| |
| − | सुख देने वाला होता है ।
| |
| − |
| |
| − | सबके लिये समृद्धि : समृद्धि की कामना अकेले के
| |
| − | लिये नहीं करनी चाहिये । समृद्धि से प्राप्त होने वाला
| |
| − | सुख, सुख को भोगने के लिये अनुकूल स्वास्थ्य,
| |
| − | समृद्धि को काम करने के परिणामस्वरूप प्राप्त होने
| |
| − | वाले प्रसाद के रूप में ग्रहण करने की वृत्ति से प्राप्त
| |
| − | होने वाला कल्याण सबके लिये होना चाहिए ऐसी
| |
| − | कामना करनी चाहिये । ऐसी कामना करने से समृद्धि
| |
| − | निरन्तर बनी रहती है अन्यथा वह शीघ्र ही नष्ट हो
| |
| − | जाती है । इस कामना को भारतीय मानस के शाश्वत
| |
| − | स्वरूप के अर्थ में इस श्लोक में प्रस्तुत किया गया
| |
| − | सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया: ।
| |
| − | सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिदुःखभाग्भवेत् ।।
| |
| − |
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| − | ४५
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| − |
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| − | तनाव और उत्तेजना से मुक्ति :
| |
| − | परिश्रमपूर्वक काम करने से शारीरिक और मानसिक
| |
| − | स्वास्थ्य प्राप्त होता है। इसके परिणामस्वरूप
| |
| − | व्यक्तिगत और सामुदायिक जीवन में लोभ मोहजनित
| |
| − | जो तनाव और उत्तेजना व्याप्त होते हैं वे कम होते
| |
| − | हैं। संघर्ष और हिंसा कम होते हैं । अर्थ से प्राप्त
| |
| − | समृद्धि भोगने का आनन्द मिलता है ।
| |
| − |
| |
| − | संयमित उपभोग : परिश्रम के साथ उत्पादन को
| |
| − | जोड़ने पर उपभोग स्वाभाविक रूप में ही संयमित
| |
| − | रहता है क्योंकि उपभोग के लिये समय भी कम रहता
| |
| − | है और परिश्रमपूर्वक किये गये काम में आनन्द भी
| |
| − | पर्याप्त मिलता है । वह आनन्द सृजनात्मक होने के
| |
| − | कारण से उसकी गुणवत्ता भी अधिक अच्छी होती
| |
| − | है । शरीर, मन, बुद्धि आदि जिस उद्देश्य के लिये बने
| |
| − | हैं उस उद्देश्य की पूर्ति होने के कारण से आनन्द
| |
| − | स्वाभाविक होता है, कृत्रिम नहीं ।
| |
| − |
| |
| − | सामाजिकता : अर्थप्राप्ति हेतु परिश्रम करने में और
| |
| − | उत्पादन के हेतु से परिश्रम होने में और भी दो बातें
| |
| − | अपने आप घटित होती हैं। एक तो उत्पादन
| |
| − | उपयोगी वस्तुओं का ही होता है और दूसरा केवल
| |
| − | स्वयं के ही लिये न होकर अन्यों के लिये भी होता
| |
| − | है। इस कारण से इसके ट्वारा सामाजिकता का
| |
| − | विकास होने में बहुत सहायता होती है । सामाजिकता
| |
| − | का अपना एक सार्थक आनन्द होता है जिसमें सुरक्षा
| |
| − | और निर्ध्चितता अपने आप समाहित होती है ।
| |
| − |
| |
| − | अर्थपुरुषार्थ हेतु करणीय बातें
| |
| − |
| |
| − | अर्थपुरुषार्थ की सिद्धि के लिये कुछ बातों का खास
| |
| − |
| |
| − | ध्यान रखना होता है । ये बातें इस प्रकार हैं
| |
| − |
| |
| − | श्,
| |
| − |
| |
| − | अर्थव्यवहार हमेशा समूह में ही चलता है । उपभोग
| |
| − | हेतु जो भी सामग्री चाहिये वह कभी किसी एक
| |
| − | व्यक्ति के द्वारा उत्पादित नहीं हो सकती । कपड़ा एक
| |
| − | व्यक्ति बनाता है तो अनाज दूसरा व्यक्ति उगाता है ।
| |
| − | मकान तीसरा व्यक्ति बनाता है तो मेज कुर्सी कोई
| |
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| − | ............. page-62 .............
| |
| − |
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| − |
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| − |
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| − | औओर ही बनाता है । जब सामूहिक काम
| |
| − | होता है तब सबका ध्यान रखकर ही काम किया
| |
| − | जाता है । सबका ध्यान रखने से क्या तात्पर्य है ?
| |
| − | एक तो यह कि सबके लिये आवश्यक वस्तुओं का
| |
| − | उत्पादन पर्याप्त मात्रा में हो सके इस प्रकार उत्पादन
| |
| − | सुनिश्चित करना चाहिये । दूसरा, उत्पादन के दायरे से
| |
| − | लोग बाहर ही हो जाएँ इस प्रकार से उत्पादन की
| |
| − | व्यवस्था नहीं होनी चाहिये । तात्पर्य यह है कि
| |
| − | उत्पादन आवश्यकता से अधिक केन्द्रित नहीं हो
| |
| − | जाना चाहिये । परिश्रम पर आधारित उत्पादन से
| |
| − | केन्द्रीकरण नहीं होता ।
| |
| − |
| |
| − | उत्पादन के साथ व्यवसाय जुड़े होते हैं । व्यवसाय के
| |
| − | साथ अधथर्जिन जुड़ा होता है । उत्पादन सबके उपभोग
| |
| − | के लिये होता है जबकि sabe af से
| |
| − | सम्बन्धित होता है । दोनों का मेल बैठना चाहिये ।
| |
| − | उत्पादन और अथर्जिन सबके लिये सुलभ बनना
| |
| − | चाहिये । इस दृष्टि से ही हमारे देश में वर्ण और जाति
| |
| − | व्यवस्था बनाई गई थी । वर्णों और जातियों का
| |
| − | सम्बन्ध आचार और व्यवसाय से जोड़ा गया था ।
| |
| − | व्यवसाय सबका स्वधर्म माना जाता था । स्वधर्म को
| |
| − | किसी भी स्थिति में छोड़ना नहीं चाहिये ऐसा
| |
| − | सामाजिक बन्धन भी था । समाज और व्यक्ति की
| |
| − | आर्थिक सुरक्षा और सबके लिये उत्पादन और
| |
| − | अथार्जिन की सुलभता इससे बनती थी । आज हमने
| |
| − | वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था al ade त्याग
| |
| − | दिया है, न केवल त्याग दिया है अपितु उसे विकृत
| |
| − | बना दिया है और वर्ण के प्रश्न को उलझा दिया है ।
| |
| − | उसकी चर्चा कहीं अन्यत्र करेंगे परन्तु अभी वर्तमान
| |
| − | व्यवस्था ( या अव्यवस्था ) के संदर्भ में ही बात
| |
| − | करनी होगी ।
| |
| − |
| |
| − | उत्पादन के साथ वितरण की व्यवस्था भी जुड़ी है ।
| |
| − | इसका अर्थ है, आवश्यक वस्तुओं का उत्पादन होने
| |
| − | के बाद आवश्यकता के अनुसार सबको उत्पाद
| |
| − | मिलना भी चाहिये । इस दृष्टि से वितरण के नियम
| |
| − |
| |
| − | रद
| |
| − |
| |
| − | रे.
| |
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| − | भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
| |
| − |
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| − |
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| − | भी बनने चाहिये । उत्पादन, वितरण और अआअथर्जिन
| |
| − | की व्यवस्था ही बाजार है । इस बाजार का नियंत्रण
| |
| − | आवश्यकताओं की पूर्ति के आधार पर होना
| |
| − | चाहिये । आज अआथर्जिन आधार बन गया है,
| |
| − | आवश्यकता की पूर्ति और जीवनधारणा नहीं । यह
| |
| − | बड़ा अमानवीय व्यवहार है, इसे बदलने की
| |
| − | आवश्यकता है ।
| |
| − |
| |
| − | उत्पादन के सम्बन्ध में उत्पादनीय वस्तुओं की
| |
| − | वरीयता निश्चित करना अत्यन्त आवश्यक है ।
| |
| − | उदाहरण के लिये अनाज और वस्त्र के उत्पादन को
| |
| − | खिलौने के उत्पादन से ऊपर का स्थान देना चाहिये ।
| |
| − | व्यक्ति को अनाज के उत्पादन के लिए अधिक
| |
| − | परिश्रम और कम अथार्जिन होता हो और खिलौनों के
| |
| − | उत्पादन में कम परिश्रम और अधिक अथर्जिन होता
| |
| − | हो तो भी अनाज के उत्पादन को खिलौनों के
| |
| − | उत्पादन की अपेक्षा वरीयता देनी चाहिये और उसके
| |
| − | उत्पादन की बाध्यता बनानी चाहिये । आज इसे
| |
| − | अधथर्जिन की स्वतन्त्रता का मुद्दा बनाया जाता है न
| |
| − | कि सामाजिक ज़िम्मेदारी का । सुसंस्कृत समाज
| |
| − | ज़िम्मेदारी को प्रथम स्थान देता है और व्यक्तिगत
| |
| − | लाभ को उसके आगे गौण मानता है ।
| |
| − |
| |
| − | परिश्रम आधारित उत्पादन व्यवस्था में यंत्रों का स्थान
| |
| − | आर्थिक और सांस्कृतिक विवेक के आधार पर
| |
| − | निश्चित किया जाता है । मनुष्य का कष्ट कम करने में
| |
| − | और काम को सुकर बनाने में यंत्रों का योगदान
| |
| − | महत्त्वपूर्ण है। परन्तु वे मनुष्य के सहायक होने
| |
| − | चाहिये, मनुष्य का स्थान लेने वाले और उसके काम
| |
| − | के अवसर छीन लेने वाले नहीं । उदाहरण के लिये
| |
| − | गरम वस्तु पकड़ने के लिये चिमटा, सामान का
| |
| − | यातायात करने हेतु गाड़ी और उसे चलाने हेतु चक्र,
| |
| − | कुएँ से पानी निकालने हेतु घिरनी जैसे यंत्र अत्यन्त
| |
| − | उपकारक हैं परन्तु पेट्रोल, डिझेल, विद्युत की ऊर्जा
| |
| − | से चलने वाले, एकसाथ विपुल उत्पादन कि बाध्यता
| |
| − | निर्माण करने वाले, उत्पादन को केंद्रित बना देने
| |
| − | �
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| − | ............. page-63 .............
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| − |
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| − | पर्व १ : उपोद्धात
| |
| − |
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| − | वाले और अनेक लोगों की आर्थिक स्वतन्त्रता छीन
| |
| − | लेने वाले यंत्र वास्तव में आसुरी शक्ति हैं । इन्हें
| |
| − | त्याज्य मानना चाहिये । आज हम इसी आसुरी शक्ति
| |
| − | के दमन का शिकार बने हुए हैं परन्तु उसे ही विकास
| |
| − | का स्वरूप मान रहे हैं ।
| |
| − |
| |
| − | अर्थव्यवस्था एवम् मनुष्यों की आर्थिक स्वतन्त्रता का
| |
| − | मुद्दा अहम है। स्वतन्त्रता मनुष्य का जन्मसिद्ध
| |
| − | अधिकार है । आर्थिक स्वतन्त्रता उसका महत्त्वपूर्ण
| |
| − | आयाम है । उसकी रक्षा होनी ही चाहिये । जो मनुष्य
| |
| − | आर्थिक दृष्टि से स्वतंत्र नहीं है वह दीन हीन हो जाता
| |
| − | है और ऐसे मनुष्यों की संख्या बढ़ने से संस्कृति की
| |
| − | ही हानि होती है । इसलिए अर्थव्यवस्था ऐसी होनी
| |
| − | चाहिये जिसमें उत्पादन केंद्रित न हो जाये, वितरण
| |
| − | दुष्कर न हो जाये और वस्तुओं की प्राप्ति दुर्लभ न हो
| |
| − | जाये । ये सारे समाज को दृरि्रि बनाते हैं । इसलिए
| |
| − | यंत्रों पर आधारित उत्पादनव्यवस्था पर सुविचारित
| |
| − | नियंत्रण होना चाहिये ।
| |
| − |
| |
| − | वर्तमान में जिस प्रकार से यंत्रों का उपयोग होता है
| |
| − | उससे तीन प्रकार से हानि होती है । एक, पेट्रोलियम
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| − | जैसे प्राकृतिक संसाधनों का विनाशकारी प्रयोग होने
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| − | से पर्यावरण का संतुलन भयानक रूप से बिगड़ता
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| − | है । पेट्रोल, डिझेल, विद्युत जैसी ऊर्जा का प्रयोग,
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| − | लोहा, सिमेन्ट और प्लास्टिक जैसे पदार्थ बनाकर
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| − | उनका अधिकाधिक उपयोग पर्यावरण के विनाश के
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| − | साथ साथ मनुष्य के स्वास्थ्य का भी नाश करता है ।
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| − | उत्पादन के केन्द्रीकण के कारण से बेरोजगारी
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| − | बढ़कर आर्थिक स्वतन्त्रता का नाश होता है।
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| − | वर्तमान में ऐसी भीषण परिस्थिति निर्माण हो गई है
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| − | कि बिना यंत्र के, बिना कारखाने के, बिना पेट्रोल,
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| − | डिझेल या विद्युत के कुछ संभव है ऐसा हमें लगता
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| − | ही नहीं है। इससे निर्माण होने वाले विषचक्र से
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| − | बाहर निकलने के लिये भी समर्थ प्रयासों की
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| − | आवश्यकता है ।
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| − | पंचमहाभूत, . वनस्पतिजगत
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| − | और
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| − | प्राणीजगत
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| − | 'ढी9
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| − | अर्थव्यवस्था... में. महत्त्वपूर्ण
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| − | भूमिका निभाते हैं । वास्तव में भौतिक समृद्धि का
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| − | मूल आधार ये सब ही हैं । परमात्मा की कृपा से
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| − | भारत को ये सारे संसाधन विपुल मात्रा में प्राप्त हुए
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| − | हैं । भारत की भूमि उपजाऊ है और केवल भारत में
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| − | ही वर्ष में तीन फसल ली जा सकें ऐसे भूखंड हैं ।
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| − | भारत की जलवायु शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य के
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| − | लिये अधिक अनुकूल हैं । भारत में छः waa
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| − | नियमित रूप से होती हैं । हमारे अरण्य फल, फूल,
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| − | औषधियों से भरे हुए हैं । तुलसी, नीम, गंगा, गोमाता
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| − | भारत के ही भाग्य में हैं । भूमि, जल, वायु, अरण्य,
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| − | पर्वत, तापमान आदि सब शारीरिक और मानसिक
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| − | स्वास्थ्य के रक्षक और पोषक हैं । कुल मिलाकर
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| − | प्राकृतिक संसाधनों की दृष्टि से भारत में समृद्ध होने
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| − | की सारी संभावनायें हैं ।
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| − | समृद्धि का दूसरा आधार प्राकृतिक संसाधनों का
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| − | उपयोग करने में हमारी कर्मन्द्रि यों और बुद्धि का
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| − | उपयोग कर हम कितना अच्छा और कितना उत्कृष्ट
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| − | उत्पादन करते हैं वह है । युगों से भारत ने अपने
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| − | कुशल हाथों का और सृजनशील बुद्धि का उपयोग
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| − | कर, प्रभूत, उत्कृष्ट और वैविध्यपूर्ण उत्पादन किया
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| − | है । ऐसी अनेक वस्तुयें हैं जो गुणवत्ता और उत्कृष्टता
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| − | के क्षेत्र में आज भी विश्व में अद्वितीय हैं।
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| − | यंत्रनिर्माण, वस्तुओं का निर्माण, उत्पादन की
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| − | व्यवस्था, वितरण की व्यवस्था, संस्कारयुक्त संयमित
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| − | उपभोग भी समृद्धि के आधार रहे हैं । वर्तमान में
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| − | हमने इस विवेक को खो दिया है । श्रम को हेय
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| − | मानने की विपरीत बुद्धि के शिकार होकर हमने यंत्र
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| − | आधारित, प्राकृतिक संसाधनों के शोषण पर
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| − | आधारित केंद्रीकृत उद्योगों को बढ़ावा देकर दारिद्य,
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| − | बेरोजगारी और बीमारी को मोल लिया है । इसमें
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| − | भारी परिवर्तन की आवश्यकता है ।
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| − | .. सारे समाज की सही समृद्धि हेतु भारत में एक अद्भुत
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| − | व्यवस्था रही है जो विश्व में अन्यत्र कहीं नहीं रही
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| − | और वर्तमान समय में भारत में भी
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| − | असम्भव मानी जाती है वह है, श्रेष्ठ एवं पतित्र
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| − | वस्तुओं को अर्थव्यवहार से मुक्त रखना । उदाहरण
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| − | के लिये सेवा, अन्न, पानी, दूध, चिकित्सा, शिक्षा
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| − | आदि बातें बेचने और खरीदने के लिये नहीं थीं, दान
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| − | करने के लिये थीं । आज इन सारी बातों का बाजार
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| − | बन गया है । उस व्यवस्था में समृद्धि को तो हानि
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| − | नहीं होती थी, उल्टे वह बढ़ती भी थी, साथ ही
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| − | किसी बात का अभाव नहीं रहता था तथा समाज में
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| − | सौहार्द, शान्ति, और संस्कारिता भी बने रहते थे ।
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| − | आज इस पर पुन: विचार करने की आवश्यकता है ।
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| − | अर्थव्यवस्था हेतु गाँव को इकाई मानना भी भारत के
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| − | अर्थशास्त्रियों की एक अत्यन्त सफल कल्पना थी ।
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| − | गाँव में व्यवसाय किसी व्यक्ति का नहीं होता था ।
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| − | व्यवसाय हेतु परिवार ही इकाई थी। गाँव की
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| − | आवश्यकतायें उत्पादन का नियमन करती थीं ।
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| − | सबकी आवश्यकताओं की पूर्ति हो यह देखने का
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| − | काम गाँव के मुखिया का होता था । इस दृष्टि से
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| − | अर्थव्यवस्था स्वायत्त भी थी । समाजजीवन के सुचारु
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| − | संचालन के लिये इस वि्केंट्रित अर्थव्यवस्था का
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| − | बहुत महत्त्व है । वह अत्यन्त कम झंझट वाली और
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| − | परिणामदायी होती है ।
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| − | श्श्,
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| − | भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
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| − | १२. स्वायत्तता का एक महत्त्वपूर्ण आयाम स्वतन्त्रता है ।
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| − | आर्थिक स्वतन्त्रता का अर्थ है अपने व्यवसाय का
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| − | मालिक होना । इस व्यवस्था के पीछे एक बड़ा
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| − | मनोवैज्ञानिक तथ्य रहा है जो सुसंस्कृत व्यवस्था में
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| − | निहित है । कोई भी व्यक्ति अन्य किसीके लिये काम
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| − | क्यों करेगा ? स्वार्थ से, भय से, लालच से,
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| − | विवशता से प्रेरित होकर करना अर्थात् मजबूरी से
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| − | करना गुलामी का ही एक प्रकार है । स्नेह से, आदर
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| − | से, श्रद्धा से, कर्तव्यभाव से प्रेरित होकर करना सेवा
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| − | है । सुसंस्कृत समाज सेवा को प्रधानता देता है और
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| − | किसीको किसीकी गुलामी न करनी पड़े यह सुनिश्चित
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| − | करता है । इस दृष्टि से व्यवसायों में स्वामित्व अथवा
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| − | बड़ा व्यवसाय है तो सहभागिता की व्यवस्था की
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| − | जाती रही है । इस दृष्टि से नौकरी करना हेय माना
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| − | जाता रहा है । विवशता के कारण यदि नौकरी करनी
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| − | ही पड़ती थी तो शीघ्रातिशीघ्र नौकरी से मुक्त होना
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| − | नौकरी करने वाला और नौकरी में रखने वाला भी
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| − | चाहता था । शिक्षा, चिकित्सा, पौरोहित्य करने वाले
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| − | तो कभी भी नौकरी नहीं करते थे क्योंकि वह मनुष्य
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| − | से भी अधिक ज्ञान को नौकर बनाने जैसा था जो
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| − | कभी भी मान्य नहीं था ।
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| | == References == | | == References == |
| | <references /> | | <references /> |
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