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भारत की वैश्विकता के सूत्र हैं:  <blockquote>कृण्वन्तो विश्वमार्यमू। अर्थात विश्व को आर्य बनायें। आर्य अर्थात श्रेष्ठ बनायें</blockquote><blockquote>उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् || <ref>महोपनिषद्, अध्याय ४, श्‍लोक ७१</ref></blockquote><blockquote>उदार हृदय के व्यक्तियों के लिये तो सम्पूर्ण बसुधा कुटुंब है। वसुधा में केवल मनुष्य का नहीं तो चराचर सृष्टि का समावेश होता है।</blockquote><blockquote>सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे संतु निरामया:। </blockquote><blockquote>अर्थात सब सुखी हों, सब निरामय हों। सब में केवल भारतीय नहीं हैं, चराचर सृष्टि सहित पूरा विश्व है।</blockquote>तात्पर्य यह है कि भारत का चिन्तन तो हमेशा वैश्विक ही रहा है। भारत की जीवनदृष्टि अर्थनिष्ठ नहीं अपितु धर्मनिष्ठ है इसलिए भारत की वैश्विकता भी सांस्कृतिक है।
 
भारत की वैश्विकता के सूत्र हैं:  <blockquote>कृण्वन्तो विश्वमार्यमू। अर्थात विश्व को आर्य बनायें। आर्य अर्थात श्रेष्ठ बनायें</blockquote><blockquote>उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् || <ref>महोपनिषद्, अध्याय ४, श्‍लोक ७१</ref></blockquote><blockquote>उदार हृदय के व्यक्तियों के लिये तो सम्पूर्ण बसुधा कुटुंब है। वसुधा में केवल मनुष्य का नहीं तो चराचर सृष्टि का समावेश होता है।</blockquote><blockquote>सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे संतु निरामया:। </blockquote><blockquote>अर्थात सब सुखी हों, सब निरामय हों। सब में केवल भारतीय नहीं हैं, चराचर सृष्टि सहित पूरा विश्व है।</blockquote>तात्पर्य यह है कि भारत का चिन्तन तो हमेशा वैश्विक ही रहा है। भारत की जीवनदृष्टि अर्थनिष्ठ नहीं अपितु धर्मनिष्ठ है इसलिए भारत की वैश्विकता भी सांस्कृतिक है।
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आज स्थिति यह है कि भारत आर्थिक वैश्विकता में उलझ गया है। पश्चिम की यह आर्थिक वैश्विकता विश्व को अपना बाजार बनाना चाहती है। परन्तु जो भी अर्थनिष्ठ बनाता है वह अनात्मीय व्यवहार करता है। भारत के सुज्ञ सुभाषितकार ने कहा है:<blockquote>अर्थातुराणां न गुरुर्न बन्धु:</blockquote><blockquote>अर्थात जो अर्थ के पीछे पड़ता है उसे न कोई गुरु होता है न स्वजन।</blockquote>ऐसे अनात्मीय सम्बन्ध से स्पर्धा, हिंसा, संघर्ष,
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आज स्थिति यह है कि भारत आर्थिक वैश्विकता में उलझ गया है। पश्चिम की यह आर्थिक वैश्विकता विश्व को अपना बाजार बनाना चाहती है। परन्तु जो भी अर्थनिष्ठ बनाता है वह अनात्मीय व्यवहार करता है। भारत के सुज्ञ सुभाषितकार ने कहा है {{Citation needed}}
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:<blockquote>अर्थातुराणां न गुरुर्न बन्धु:</blockquote><blockquote>अर्थात जो अर्थ के पीछे पड़ता है उसे न कोई गुरु होता है न स्वजन।</blockquote>ऐसे अनात्मीय सम्बन्ध से स्पर्धा, हिंसा, संघर्ष,
 
विनाश ही फैलते हैं। पश्चिमी देशों की अर्थनिष्ठा उन्हें भी
 
विनाश ही फैलते हैं। पश्चिमी देशों की अर्थनिष्ठा उन्हें भी
 
विनाश की ओर ही ले जा रही है। हम यदि उसका ही
 
विनाश की ओर ही ले जा रही है। हम यदि उसका ही

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