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| == विज्ञान और शास्त्र == | | == विज्ञान और शास्त्र == |
− | सामान्यत: लोग इन दो शब्दों का प्रयोग इन के भिन्न अर्थों को समझे बिना ही करते रहते हैं| किसी पदार्थ की बनावट याने रचना को समझना विज्ञान है| और इस विज्ञान से प्राप्त जानकारी के आधारपर उस पदार्थ का क्यों, कैसे, किस के लिए उपयोग करना चाहिए आदि समझना यह शास्त्र है| जैसे मानव शरीर की रचना को जानना शरीर विज्ञान है| लेकिन इस विज्ञान के आधारपर शरीर को स्वस्थ बनाये रखने की जानकारी को आरोग्य शास्त्र कहेंगे| विभिन्न प्रकारके मानव जाति के लिए उपयुक्त खाद्य पदार्थों की जानकारी को आहार विज्ञान कहेंगे| जब की व्यक्ति की प्रकृति के अनुसार, मौसम के अनुसार क्या खाना चाहिए और क्या नहीं खाना चाहिए, कब खाना चाहिए और कब नहीं खाना चाहिए, किसने कितना खाना चाहिए आदि की जानकारी आहारशास्त्र है| भारतीय दृष्टि से अर्थ से तात्पर्य इच्छाओं की पूर्ति के लिए किये गए प्रयास और उपयोग में लाये गए धन, साधन और संसाधन होता है| इन इच्छाओं को और उनकी पूर्ति के प्रयासों तथा इस हेतु उपयोजित धन, साधन और संसाधनों की जानकारी को अर्थ विज्ञान कहेंगे| जब की इस जानकारी का उपयोग मानव जीवन को सार्थक बनाने में किस तरह और क्यों करना इसे जानना समृद्धि शास्त्र कहलाएगा| परमात्मा के स्वरूप को समझने के लिए जो बताया या लिखा जाता है वह अध्यात्म विज्ञान है| और परमात्मा की प्राप्ति के लिए क्या क्या करना चाहिए यह जानना अध्यात्म शास्त्र है| | + | सामान्यत: लोग इन दो शब्दों का प्रयोग इन के भिन्न अर्थों को समझे बिना ही करते रहते हैं। किसी पदार्थ की बनावट याने रचना को समझना विज्ञान है। और इस विज्ञान से प्राप्त जानकारी के आधारपर उस पदार्थ का क्यों, कैसे, किस के लिए उपयोग करना चाहिए आदि समझना यह शास्त्र है। जैसे मानव शरीर की रचना को जानना शरीर विज्ञान है। लेकिन इस विज्ञान के आधार पर शरीर को स्वस्थ बनाये रखने की जानकारी को आरोग्य शास्त्र कहेंगे। |
− | तन्त्रज्ञान यह शास्त्र का ही एक हिस्सा है| क्यों कि शास्त्र में विज्ञान के माध्यम से प्रस्तुत जानकारी के प्रत्यक्ष उपयोजन का विषय भी होता है| और प्रत्यक्ष उपयोजन की प्रक्रिया ही तन्त्रज्ञान है| लेकिन इस के साथ ही उस विज्ञान का और तन्त्रज्ञान का उपयोग किसने करना चाहिये, किसने नहीं करना चाहिए, कब करना चाहिए कब नहीं करना चाहिए, किसलिए करना चाहिए और किस लिए नहीं करना चाहिए इन सब बातों को जानना शास्त्र है| | + | |
− | वर्तमान का वास्तव | + | विभिन्न प्रकार के मानव जाति के लिए उपयुक्त खाद्य पदार्थों की जानकारी को आहार विज्ञान कहेंगे। जबकि व्यक्ति की प्रकृति के अनुसार, मौसम के अनुसार क्या खाना चाहिए और क्या नहीं खाना चाहिए, कब खाना चाहिए और कब नहीं खाना चाहिए, किसने कितना खाना चाहिए आदि की जानकारी आहारशास्त्र है। भारतीय दृष्टि से अर्थ से तात्पर्य इच्छाओं की पूर्ति के लिए किये गए प्रयास और उपयोग में लाये गए धन, साधन और संसाधन होता है। इन इच्छाओं को और उनकी पूर्ति के प्रयासों तथा इस हेतु उपयोजित धन, साधन और संसाधनों की जानकारी को अर्थ विज्ञान कहेंगे। जबकि इस जानकारी का उपयोग मानव जीवन को सार्थक बनाने में किस तरह और क्यों करना है, इसे जानना समृद्धि शास्त्र कहलाएगा। परमात्मा के स्वरूप को समझने के लिए जो बताया या लिखा जाता है वह अध्यात्म विज्ञान है। और परमात्मा की प्राप्ति के लिए क्या क्या करना चाहिए यह जानना अध्यात्म शास्त्र है। |
− | मानव के सभी क्रियाकलापों का उद्देष्य सुख की प्राप्ति यही होता है। लेकिन जब मानव के सुख को या संतोष को भी वैज्ञानिकता की कसौटीपर तौला जाता है तब समस्याएँ खडीं होतीं हैं। वर्तमान में सारे विश्व में ‘वैज्ञानिक दृष्टिकोण’ का बोलबाला है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण का आतंक है यह भी कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी| | + | |
− | मनुष्य यह सृष्टि का सबसे बुद्धिमान प्राणि माना जाता है। लेकिन वर्तमान शिक्षा के कारण वह सुविधाओं को ही सुख समझने लग गया है। सुविधाओं को याने शारीरिक सुख को वह मन के सुख से याने प्रेम, ममता, परोपकार, सहानुभूति आदि भावनाओं से या बुद्धि के सुख याने ज्ञान प्राप्ति के सुख आदि से अधिक श्रेष्ठ मानने लग गया है। | + | तन्त्रज्ञान शास्त्र का ही एक हिस्सा है। क्योंकि शास्त्र में विज्ञान के माध्यम से प्रस्तुत जानकारी के प्रत्यक्ष उपयोजन का विषय भी होता है। और प्रत्यक्ष उपयोजन की प्रक्रिया ही तन्त्रज्ञान है। लेकिन इस के साथ ही उस विज्ञान का और तन्त्रज्ञान का उपयोग किसे करना चाहिये, किसे नहीं करना चाहिए, कब करना चाहिए, कब नहीं करना चाहिए, किसलिए करना चाहिए और किसलिए नहीं करना चाहिए, इन सब बातों को जानना शास्त्र है। |
− | गत २५०-३०० वर्षों में सायंस ने जो प्रगति की है वह ऑंखों को चौधियानेवाली है। इस प्रगति की व्याप्ति चहुँमुखी है। मानव जीवन का कोई पहलू इससे अछूता नहीं रह गया है। हमारे सुबह (नींद से) उठने से लेकर दूसरे दिन फिर से सुबह उठनेतक के हमारे दैनंदिन जीवन का विचार करें तो समझ में आएगा कि हमारे जीवन में तन्त्रज्ञान की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण बन गई है। आईये ! एक सरसरी निगाह तन्त्रज्ञान की इस प्रगतिपर डालें।
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| + | == वर्तमान का वास्तव == |
| + | मानव के सभी क्रियाकलापों का उद्देश्य सुख की प्राप्ति ही होता है। लेकिन जब मानव के सुख को या संतोष को भी वैज्ञानिकता की कसौटी पर तौला जाता है, तब समस्याएँ खडीं होतीं हैं। वर्तमान में सारे विश्व में ‘वैज्ञानिक दृष्टिकोण’ का बोलबाला है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण का आतंक है यह भी कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। मनुष्य सृष्टि का सबसे बुद्धिमान प्राणि माना जाता है। लेकिन वर्तमान शिक्षा के कारण वह सुविधाओं को ही सुख समझने लग गया है। सुविधाओं को याने शारीरिक सुख को वह मन के सुख से याने प्रेम, ममता, परोपकार, सहानुभूति आदि भावनाओं से या बुद्धि के सुख याने ज्ञान प्राप्ति के सुख आदि से अधिक श्रेष्ठ मानने लग गया है। गत २५०-३०० वर्षों में सायंस ने जो प्रगति की है वह आँखों को चौंधियाने वाली है। इस प्रगति की व्याप्ति चहुँमुखी है। मानव जीवन का कोई पहलू इससे अछूता नहीं रह गया है। हमारे सुबह (नींद से) उठने से लेकर दूसरे दिन फिर से सुबह उठने तक के हमारे दैनंदिन जीवन का विचार करें तो समझ में आएगा कि हमारे जीवन में तन्त्रज्ञान की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण बन गई है। |
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| == विविध क्षेत्रों में तन्त्रज्ञान की छलांग == | | == विविध क्षेत्रों में तन्त्रज्ञान की छलांग == |
− | - विद्युत निर्माण - अणू / जल / औष्णिक /सौर - स्वास्थ्य यंत्रावली - आवागमन के साधन - प्रसार माध्यम - यांत्रिक कृषि - रासायनिक उत्पादन - प्लॅस्टिक की वस्तुएँ - अवकाश तन्त्रज्ञान - भवन निर्माण - स्वयंचलितीकरण / यंत्रमानव - मृदा - सारक ( अर्थ-मूव्हिंग) यंत्र प्रंणाली - संगणक / अणूडाक, आंतरजाल आदि
| + | विद्युत निर्माण - अणू / जल / औष्णिक /सौर - स्वास्थ्य यंत्रावली - आवागमन के साधन - प्रसार माध्यम - यांत्रिक कृषि - रासायनिक उत्पादन - प्लॅस्टिक की वस्तुएँ - अवकाश तन्त्रज्ञान - भवन निर्माण - स्वयंचलितीकरण / यंत्रमानव - मृदा - सारक ( अर्थ-मूव्हिंग) यंत्र प्रंणाली - संगणक / अणूडाक, आंतरजाल आदि |
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| == दिनचर्या में तंत्रज्ञान पर अवलंबन == | | == दिनचर्या में तंत्रज्ञान पर अवलंबन == |
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| भोजन : मॅकडोनाल्ड्स्, २ मिनिट मॅगी, जंक फूड (वर्किंग लंच), कॉफी, बर्गर, पिझ्झा, केक, पेस्ट्री, आईस्क्रीम आदि | | भोजन : मॅकडोनाल्ड्स्, २ मिनिट मॅगी, जंक फूड (वर्किंग लंच), कॉफी, बर्गर, पिझ्झा, केक, पेस्ट्री, आईस्क्रीम आदि |
| सोने से पूर्व दूरदर्शन की मालिकाएँ, पोर्न सिनेमा, सोने के लिये वातानुकूलित कमरा, मच्छरमार यंत्र, लक्झरी बिस्तर आदि | | सोने से पूर्व दूरदर्शन की मालिकाएँ, पोर्न सिनेमा, सोने के लिये वातानुकूलित कमरा, मच्छरमार यंत्र, लक्झरी बिस्तर आदि |
− | तात्पर्य यह है कि तंत्रज्ञानने हमारे पूरे जीवन को व्याप लिया है| | + | तात्पर्य यह है कि तंत्रज्ञानने हमारे पूरे जीवन को व्याप लिया है। |
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| ३. तो क्या मानव समाज सुखी हुवा है?........ मूल्यांकन के लिये कुछ प्रश्न …… | | ३. तो क्या मानव समाज सुखी हुवा है?........ मूल्यांकन के लिये कुछ प्रश्न …… |
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| == भारतीय और यूरो अमरीकी जीवन दृष्टि और व्यवहार सूत्र == | | == भारतीय और यूरो अमरीकी जीवन दृष्टि और व्यवहार सूत्र == |
− | इन के विषय में हमने जीवन के प्रतिमान विषय की चर्चा में मोटी मोटी बातें जानीं हैं| इसलिए अब हम इस सत्र में केवल उनका अति-संक्षिप्त पुनर्स्मरण करते हुए आगे बढ़ेंगे| (अभारतीय जीवन दृष्टि के ३ और भारतीय जीवन दृष्टि के ५ सूत्र तथा उनपर आधारित व्यवहार सूत्र देखें अध्याय ७ और ८) | + | इन के विषय में हमने जीवन के प्रतिमान विषय की चर्चा में मोटी मोटी बातें जानीं हैं। इसलिए अब हम इस सत्र में केवल उनका अति-संक्षिप्त पुनर्स्मरण करते हुए आगे बढ़ेंगे। (अभारतीय जीवन दृष्टि के ३ और भारतीय जीवन दृष्टि के ५ सूत्र तथा उनपर आधारित व्यवहार सूत्र देखें अध्याय ७ और ८) |
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| == वर्तमान साईंस और तन्त्रज्ञान के विकास की पृष्ठभूमि == | | == वर्तमान साईंस और तन्त्रज्ञान के विकास की पृष्ठभूमि == |
− | इंग्लैण्ड में ग्यारहवीं सदी के मध्य में नॉर्मन जनजाति के विजय के बाद उमरावशाही प्रस्थापित हुई| अन्य देशों में इसके प्रस्थापित होने के अनेक कारण हैं| कार्ल मार्क्स, फ्रेड्रिक एंजल्स आदि के मतानुसार तन्त्रज्ञान में होनेवाला बड़ा परिवर्तन भी उनमें से एक कारण है| धर्मपालजी अपनी पुस्तक भारत का पुनर्बोध में पृष्ट २५८ पर बताते हैं - युद्धों के कारण विज्ञान एवं तन्त्रज्ञान को गति प्राप्त होती है, वह यूरोप के अंतिम कुछ शताब्दियों के अनुभवों का ही परिणाम है| इसी पृष्ठपर आगे और कहा है – अर्थात् आधुनिक विज्ञान गुलामी की प्रथा, उमरावशाही, विश्वविजय एवं अत्याचार तथा अधिपत्य की ही उपज है| | + | इंग्लैण्ड में ग्यारहवीं सदी के मध्य में नॉर्मन जनजाति के विजय के बाद उमरावशाही प्रस्थापित हुई। अन्य देशों में इसके प्रस्थापित होने के अनेक कारण हैं। कार्ल मार्क्स, फ्रेड्रिक एंजल्स आदि के मतानुसार तन्त्रज्ञान में होनेवाला बड़ा परिवर्तन भी उनमें से एक कारण है। धर्मपालजी अपनी पुस्तक भारत का पुनर्बोध में पृष्ट २५८ पर बताते हैं - युद्धों के कारण विज्ञान एवं तन्त्रज्ञान को गति प्राप्त होती है, वह यूरोप के अंतिम कुछ शताब्दियों के अनुभवों का ही परिणाम है। इसी पृष्ठपर आगे और कहा है – अर्थात् आधुनिक विज्ञान गुलामी की प्रथा, उमरावशाही, विश्वविजय एवं अत्याचार तथा अधिपत्य की ही उपज है। |
− | वर्तमान साईंस का विकास युरोपीय देशों में अभी २००-२५० वर्ष में ही हुवा है। इस विकास में ईसाई मत के कारण कई साईंटिस्टों को कष्ट सहन करने पडे| ब्रूनो जैसे वैज्ञानिकों को जान से हाथ धोना पडा। गॅलिलियो जैसे साईंटिस्ट को मृत्यू के डर से क्षमा माँगनी पडी तथा कारागृह में सडना पडा| फिर भी यूरोप के साईंटिस्टों ने हार नहीं मानी। साईंस के क्षेत्र में अद्वितीय ऐसा पराक्रम कर दिखाया। तन्त्रज्ञान के क्षेत्र में भी मुश्किल से २५० वर्षों में जो प्रगति हुई है वह स्तंभित करने वाली है। | + | वर्तमान साईंस का विकास युरोपीय देशों में अभी २००-२५० वर्ष में ही हुवा है। इस विकास में ईसाई मत के कारण कई साईंटिस्टों को कष्ट सहन करने पडे। ब्रूनो जैसे वैज्ञानिकों को जान से हाथ धोना पडा। गॅलिलियो जैसे साईंटिस्ट को मृत्यू के डर से क्षमा माँगनी पडी तथा कारागृह में सडना पडा। फिर भी यूरोप के साईंटिस्टों ने हार नहीं मानी। साईंस के क्षेत्र में अद्वितीय ऐसा पराक्रम कर दिखाया। तन्त्रज्ञान के क्षेत्र में भी मुश्किल से २५० वर्षों में जो प्रगति हुई है वह स्तंभित करने वाली है। |
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| == वर्तमान साईंस और तन्त्रज्ञान दृष्टि == | | == वर्तमान साईंस और तन्त्रज्ञान दृष्टि == |
− | वर्तमान में भारतीय विज्ञान और तन्त्रज्ञान दृष्टि नष्ट हो गयी है| जो भी है वह अभारतीय साईंस और तन्त्रज्ञान दृष्टि ही है| रेने देकार्ते को इस यूरोपीय साईंस दृष्टि का जनक माना जाता है। रेने देकार्ते एक गणिति तथा फिलॉसॉफर था। उस के द्वारा प्रतिपादित साईंस दृष्टि के महत्वपूर्ण पहलू निम्न है। | + | वर्तमान में भारतीय विज्ञान और तन्त्रज्ञान दृष्टि नष्ट हो गयी है। जो भी है वह अभारतीय साईंस और तन्त्रज्ञान दृष्टि ही है। रेने देकार्ते को इस यूरोपीय साईंस दृष्टि का जनक माना जाता है। रेने देकार्ते एक गणिति तथा फिलॉसॉफर था। उस के द्वारा प्रतिपादित साईंस दृष्टि के महत्वपूर्ण पहलू निम्न है। |
− | १. द्वैतवाद : इस का भारतीय द्वैतवाद से कोई संबंध नहीं है। इस में यह माना गया है कि विश्व में मैं और अन्य सारी सृष्टि ऐसे दो घटक है। मैं इस सृष्टि का ज्ञान प्राप्त करने वाला हूं। मैं इस सृष्टि का भोग करनेवाला हूँ| मैं इस सृष्टी से भिन्न हूँ| | + | १. द्वैतवाद : इस का भारतीय द्वैतवाद से कोई संबंध नहीं है। इस में यह माना गया है कि विश्व में मैं और अन्य सारी सृष्टि ऐसे दो घटक है। मैं इस सृष्टि का ज्ञान प्राप्त करने वाला हूं। मैं इस सृष्टि का भोग करनेवाला हूँ। मैं इस सृष्टी से भिन्न हूँ। |
− | २. वस्तुनिष्ठता : जो प्रत्येक सामान्य मनुष्य द्वारा समान रूप से जाना जा सकता है वही वस्तुनिष्ठ है। १ साडी की लम्बाई और चौडाई तो सभी महिलाओं के लिये एक जितनी ही होगी। किन्तु उसका स्पर्श का अनुभव हर स्त्री को भिन्न होगा। १ किलो लड्डू का वजन कोई भी करे वह १ किलो ही होगा। किन्तु उस लड्डू का स्वाद हर मनुष्य के लिये भिन्न हो सकता है। इस लिये जिसका मापन किया जा सकता है वह साईंस के दायरे में आता है। लेकिन स्पर्श, स्वाद आदि जो हर व्यक्ति के अनुसार भिन्न भिन्न होंगे वे साईंस के विषय नहीं बन सकते | | + | २. वस्तुनिष्ठता : जो प्रत्येक सामान्य मनुष्य द्वारा समान रूप से जाना जा सकता है वही वस्तुनिष्ठ है। १ साडी की लम्बाई और चौडाई तो सभी महिलाओं के लिये एक जितनी ही होगी। किन्तु उसका स्पर्श का अनुभव हर स्त्री को भिन्न होगा। १ किलो लड्डू का वजन कोई भी करे वह १ किलो ही होगा। किन्तु उस लड्डू का स्वाद हर मनुष्य के लिये भिन्न हो सकता है। इस लिये जिसका मापन किया जा सकता है वह साईंस के दायरे में आता है। लेकिन स्पर्श, स्वाद आदि जो हर व्यक्ति के अनुसार भिन्न भिन्न होंगे वे साईंस के विषय नहीं बन सकते । |
| ३. विखंडित विश्लेषण पध्दति : वैज्ञानिक दृष्टिकोण की विचारधारा को देकार्ते की यह सब से बडी देन है। उस ने पेंचिदा बातों को समझने के लिये सामान्य मनुष्य के लिये विखंडित विश्लेषण पध्दति के रूप में एक प्रणालि बताई। इस पध्दति के अनुसार पूर्ण वस्तू का ज्ञान उसके छोटे छोटे टुकडों के प्राप्त किये ज्ञान का जोड होगा। | | ३. विखंडित विश्लेषण पध्दति : वैज्ञानिक दृष्टिकोण की विचारधारा को देकार्ते की यह सब से बडी देन है। उस ने पेंचिदा बातों को समझने के लिये सामान्य मनुष्य के लिये विखंडित विश्लेषण पध्दति के रूप में एक प्रणालि बताई। इस पध्दति के अनुसार पूर्ण वस्तू का ज्ञान उसके छोटे छोटे टुकडों के प्राप्त किये ज्ञान का जोड होगा। |
| ४. जडवाद : जड का अर्थ है अजीव। पूरी सृष्टि अजीव पदार्थों की बनीं है। साईंस के अनुसार सारी सृष्टि में चेतन कुछ भी नहीं है। स्वयंप्रेरणा, स्वत: कुछ करने की शक्ति सृष्टि में कहीं नहीं है। साईंस भावना, प्रेम, सहानुभूति आदि नहीं मानता। मिलर की परिकल्पना के अनुसार जिन्हे हम जीव् समझते है वे वास्तव में रासायनिक प्रक्रियाओं के पुलिंदे होते है। | | ४. जडवाद : जड का अर्थ है अजीव। पूरी सृष्टि अजीव पदार्थों की बनीं है। साईंस के अनुसार सारी सृष्टि में चेतन कुछ भी नहीं है। स्वयंप्रेरणा, स्वत: कुछ करने की शक्ति सृष्टि में कहीं नहीं है। साईंस भावना, प्रेम, सहानुभूति आदि नहीं मानता। मिलर की परिकल्पना के अनुसार जिन्हे हम जीव् समझते है वे वास्तव में रासायनिक प्रक्रियाओं के पुलिंदे होते है। |
| ५. यांत्रिक दृष्टिकोण : टुकडों के ज्ञान को जोडकर संपूर्ण को जानना तब ही संभव होगा जब उस पूर्ण की बनावट यांत्रिक होगी। यंत्र में एक एक पुर्जा कृत्रिम रूप से एक दूसरे के साथ जोडा जाता है। उसे अलग अलग कर उसके कार्य को समझना सरल होता है। ऐसे प्रत्येक पुर्जेका कार्य समझ कर पूरे यंत्र के कार्य को समझा जा सकता है। | | ५. यांत्रिक दृष्टिकोण : टुकडों के ज्ञान को जोडकर संपूर्ण को जानना तब ही संभव होगा जब उस पूर्ण की बनावट यांत्रिक होगी। यंत्र में एक एक पुर्जा कृत्रिम रूप से एक दूसरे के साथ जोडा जाता है। उसे अलग अलग कर उसके कार्य को समझना सरल होता है। ऐसे प्रत्येक पुर्जेका कार्य समझ कर पूरे यंत्र के कार्य को समझा जा सकता है। |
− | इस विचार में जड को समझने की, यंत्रों को समझने की सटीकता तो है। किन्तु चेतन को नकारने के कारण चेतन के क्षेत्र में इस का उपयोग मर्यादित रह जाता है। चेतन और जड़ मिलकर जीव बनाता है| जीव का निर्माण जड पंचमहाभूत और आत्म तत्त्व इन के योग से होता है। परिवर्तन तो जड में ही होता है। लेकिन वह चेतन की उपस्थिति के बिना नहीं हो सकता। इस लिये जीव का जितना भौतिक हिस्सा है उस हिस्से के लिये साईंस को प्रमाण मानना उचित ही है। इस भौतिक हिस्से के मापन की भी मर्यादा है। जड भौतिक शरीर के साथ जब आत्म शक्ति जुड जाति है तब वह केवल जड की भौतिक शक्ति नहीं रह जाती। और प्रत्येक जीव यह जड और चेतन का योग ही होता है। इस लिये चेतन के मन, बुद्धि, अहंकार आदि विषयों में फिझिकल साईंस की कसौटियों को प्रमाण नहीं माना जा सकता। | + | इस विचार में जड को समझने की, यंत्रों को समझने की सटीकता तो है। किन्तु चेतन को नकारने के कारण चेतन के क्षेत्र में इस का उपयोग मर्यादित रह जाता है। चेतन और जड़ मिलकर जीव बनाता है। जीव का निर्माण जड पंचमहाभूत और आत्म तत्त्व इन के योग से होता है। परिवर्तन तो जड में ही होता है। लेकिन वह चेतन की उपस्थिति के बिना नहीं हो सकता। इस लिये जीव का जितना भौतिक हिस्सा है उस हिस्से के लिये साईंस को प्रमाण मानना उचित ही है। इस भौतिक हिस्से के मापन की भी मर्यादा है। जड भौतिक शरीर के साथ जब आत्म शक्ति जुड जाति है तब वह केवल जड की भौतिक शक्ति नहीं रह जाती। और प्रत्येक जीव यह जड और चेतन का योग ही होता है। इस लिये चेतन के मन, बुद्धि, अहंकार आदि विषयों में फिझिकल साईंस की कसौटियों को प्रमाण नहीं माना जा सकता। |
| अनिश्चितता का प्रमेय (थियरी ऑफ अनसर्टेंटी), क्वॉटम मेकॅनिक्स, अंतराल भौतिकी (एस्ट्रो फिजीक्स), कण भौतिकी (पार्टिकल फिजीक्स) आदि प्रमेयों और साईंस की आधुनिक शाखाओं ने देकार्ते के प्रतिमान की मर्यादाएं स्पष्ट कर दीं है। | | अनिश्चितता का प्रमेय (थियरी ऑफ अनसर्टेंटी), क्वॉटम मेकॅनिक्स, अंतराल भौतिकी (एस्ट्रो फिजीक्स), कण भौतिकी (पार्टिकल फिजीक्स) आदि प्रमेयों और साईंस की आधुनिक शाखाओं ने देकार्ते के प्रतिमान की मर्यादाएं स्पष्ट कर दीं है। |
− | अपने अधिकार कोई छोडना नहीं चाहता। यह बात स्वाभाविक है। इसी के कारण आज का साईंटिस्ट प्रमाण के क्षेत्र में अपना महत्व खोना नहीं चाहता। पुनर्जन्म से संबंधित कार्यक्रम कई दूरदर्शन की वाहिनियों ने प्रसारित किये हैं| सभी में वह दूरचित्र वाहिनी एक टोली बनाती है। इस टोली में एक साईंटिस्ट भी लिया जाता है। फिर टोली द्वारा सुने हुवे पुनर्जन्म के किस्सों की तहकीकात की जाती है। प्रत्यक्ष जिन बच्चों को पुर्वजन्म की कुछ स्मृतियाँ है उन से मिल कर उन से पूर्व जन्म की जानकारी ली जाती है। फिर उस बच्चे के पूर्व जन्म के स्थान पर जाकर बच्चे की दी हुई जानकारी को जाँचा जाता है। उसे सत्य पाया जाता है। ऐसी कई घटनाओं का प्रत्यक्ष प्रसारण वाहिनी के कार्यक्रम में होता है। अंत में उस तहकीकात करने वाली टोलि के सदस्य साईंटिस्ट को प्रश्न पूछ जाता है कि आपने यह सब प्रत्यक्ष देखा है। इस पर आप की क्या राय है? साईंटिस्ट का उत्तर होता है - यह सब तो ठीक है। किन्तु साईंस पुनर्जन्म को मान्यता नहीं देता। | + | अपने अधिकार कोई छोडना नहीं चाहता। यह बात स्वाभाविक है। इसी के कारण आज का साईंटिस्ट प्रमाण के क्षेत्र में अपना महत्व खोना नहीं चाहता। पुनर्जन्म से संबंधित कार्यक्रम कई दूरदर्शन की वाहिनियों ने प्रसारित किये हैं। सभी में वह दूरचित्र वाहिनी एक टोली बनाती है। इस टोली में एक साईंटिस्ट भी लिया जाता है। फिर टोली द्वारा सुने हुवे पुनर्जन्म के किस्सों की तहकीकात की जाती है। प्रत्यक्ष जिन बच्चों को पुर्वजन्म की कुछ स्मृतियाँ है उन से मिल कर उन से पूर्व जन्म की जानकारी ली जाती है। फिर उस बच्चे के पूर्व जन्म के स्थान पर जाकर बच्चे की दी हुई जानकारी को जाँचा जाता है। उसे सत्य पाया जाता है। ऐसी कई घटनाओं का प्रत्यक्ष प्रसारण वाहिनी के कार्यक्रम में होता है। अंत में उस तहकीकात करने वाली टोलि के सदस्य साईंटिस्ट को प्रश्न पूछ जाता है कि आपने यह सब प्रत्यक्ष देखा है। इस पर आप की क्या राय है? साईंटिस्ट का उत्तर होता है - यह सब तो ठीक है। किन्तु साईंस पुनर्जन्म को मान्यता नहीं देता। |
− | इस में समझने की कुछ बातें है। दूरचित्रवाहिनीवाले और वह साईंटिस्ट साईंस की सीमाएं या मर्यादाएं जानते नहीं हैं| इन मर्यादाओं को नहीं समझने के कारण वह साईंटिस्ट भी अपने अधिकार के क्षेत्र (भौतिक शास्त्र) के बाहर के विषयों में भी साईंस के आधार पर अपनी राय देता है। किन्तु वास्तव में तो यह पूरा कार्यक्रम साईंस की मर्यादा को ही स्पष्ट करता है। | + | इस में समझने की कुछ बातें है। दूरचित्रवाहिनीवाले और वह साईंटिस्ट साईंस की सीमाएं या मर्यादाएं जानते नहीं हैं। इन मर्यादाओं को नहीं समझने के कारण वह साईंटिस्ट भी अपने अधिकार के क्षेत्र (भौतिक शास्त्र) के बाहर के विषयों में भी साईंस के आधार पर अपनी राय देता है। किन्तु वास्तव में तो यह पूरा कार्यक्रम साईंस की मर्यादा को ही स्पष्ट करता है। |
− | साईंस की कसौटि की मर्यादा समझने के उपरांत साईंस की मर्यादा से बाहर किसे प्रमाण मानना यह प्रश्न रह ही जाता है। इसे कैसे सुलझाएं? इसकी जानकारी हमने अध्याय ३० ‘भारतीय शोध दृष्टि’ में प्राप्त की है| | + | साईंस की कसौटि की मर्यादा समझने के उपरांत साईंस की मर्यादा से बाहर किसे प्रमाण मानना यह प्रश्न रह ही जाता है। इसे कैसे सुलझाएं? इसकी जानकारी हमने अध्याय ३० ‘भारतीय शोध दृष्टि’ में प्राप्त की है। |
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| == भारतीय जीवनदृष्टि पर आधारित भारतीय तन्त्रज्ञान दृष्टि के सूत्र == | | == भारतीय जीवनदृष्टि पर आधारित भारतीय तन्त्रज्ञान दृष्टि के सूत्र == |
− | इस सन्दर्भ में हमें वर्तमान साईंस और भारतीय विज्ञान में अंतर को समझना होगा| वर्तमान साईंस का भारतीय विज्ञान के साथ या अध्यात्म के साथ कोइ झगड़ा या विरोध नहीं है| उलटे वर्तमान साईंस यह भारतीय विज्ञान का एक हिस्सा मात्र है| इसे समझना भी महत्त्वपूर्ण है| | + | इस सन्दर्भ में हमें वर्तमान साईंस और भारतीय विज्ञान में अंतर को समझना होगा। वर्तमान साईंस का भारतीय विज्ञान के साथ या अध्यात्म के साथ कोइ झगड़ा या विरोध नहीं है। उलटे वर्तमान साईंस यह भारतीय विज्ञान का एक हिस्सा मात्र है। इसे समझना भी महत्त्वपूर्ण है। |
| १. विज्ञान की भारतीय व्याख्या जो श्रीमद्भगवद्गीता में मिलती है उसके अनुसार - | | १. विज्ञान की भारतीय व्याख्या जो श्रीमद्भगवद्गीता में मिलती है उसके अनुसार - |
| भूमिरापोऽनलो वायू: खं मनो बुद्धिरेव च | | भूमिरापोऽनलो वायू: खं मनो बुद्धिरेव च |
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| == जीवन की इष्ट गति == | | == जीवन की इष्ट गति == |
− | तन्त्रज्ञान का एक और महत्वपूर्ण पहलू है| वह है सामाजिक जीवन की गति को प्रभावित करना| वर्तमान में तन्त्रज्ञान ने समाज जीवन की गति को बहुत तेज कर दिया है| समाज में तन्त्रज्ञान की अच्छी समझ रखनेवालों का बहुत छोटा वर्ग समाज को तन्त्रज्ञान के विकास की गति के साथ घसीट रहा नजर आ रहा है| वर्तमान में व्यक्तिवादी, इहवादी और जडवादी और पैनी मतिवाले लोग याने यूरो-अमरीकी लोग मनुष्य के जीवन की गति का निर्धारण कर रहे है। इसलिए इसमें पैनी मति के लोग बौध्दिक (सबसे श्रेष्ठ) सुख पा रहे हैं। सामान्य मनुष्य जी जान से प्रयास कर रहा है कि वह इस गति के साथ चल सके। इस प्रयास में सामान्य मनुष्य उसका सुख-चैन खोता जा रहा है। आत्मीयता को माननेवाले लोग भी कम बुद्धिमान नहीं हैं| लेकिन उनकी धर्म की समझ और धर्म में निष्ठा कम हुई समझ में आती है| इसलिए वे न तो व्यक्तिश: हानिकारक तन्त्रज्ञान के विरोध में डटकर खड़े होते हैं और न ही विरोध को संगठित करते हैं| | + | तन्त्रज्ञान का एक और महत्वपूर्ण पहलू है। वह है सामाजिक जीवन की गति को प्रभावित करना। वर्तमान में तन्त्रज्ञान ने समाज जीवन की गति को बहुत तेज कर दिया है। समाज में तन्त्रज्ञान की अच्छी समझ रखनेवालों का बहुत छोटा वर्ग समाज को तन्त्रज्ञान के विकास की गति के साथ घसीट रहा नजर आ रहा है। वर्तमान में व्यक्तिवादी, इहवादी और जडवादी और पैनी मतिवाले लोग याने यूरो-अमरीकी लोग मनुष्य के जीवन की गति का निर्धारण कर रहे है। इसलिए इसमें पैनी मति के लोग बौध्दिक (सबसे श्रेष्ठ) सुख पा रहे हैं। सामान्य मनुष्य जी जान से प्रयास कर रहा है कि वह इस गति के साथ चल सके। इस प्रयास में सामान्य मनुष्य उसका सुख-चैन खोता जा रहा है। आत्मीयता को माननेवाले लोग भी कम बुद्धिमान नहीं हैं। लेकिन उनकी धर्म की समझ और धर्म में निष्ठा कम हुई समझ में आती है। इसलिए वे न तो व्यक्तिश: हानिकारक तन्त्रज्ञान के विरोध में डटकर खड़े होते हैं और न ही विरोध को संगठित करते हैं। |
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| === मति और जीवन की गति का संबंध === | | === मति और जीवन की गति का संबंध === |