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| {{One source|date=January 2019}} | | {{One source|date=January 2019}} |
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− | सहकार दृष्टि
| + | == प्रस्तावना == |
− | प्रस्तावना | + | सहकारिता की हर कृति के पीछे काम करनेवाले विचारों के कारण सहकारिता के तीन स्वरूप बनते है । पहला है पाशव विचारपर आधारित सहकारिता । दूसरा विचार है मानव विचारपर आधारित सहकारिता । और तीसरा है दैवी विचारपर आधारित सहकारिता । पाशव विचार पर आधारित सहकारिता में पूर्णत: स्वार्थ की भावना से सहकार किया जाता है। यह सभी जीवों की, फिर वह पशु हो, पक्षी हो, कृमी-कीटक हो या मानव हो स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है। शरीर की बनावट को छोड दें तो, जन्म के समय मनुष्य और पशु में कोई भेद नहीं होता । किंतु संस्कारित मानव पशु नहीं होता । इसलिये मानव विचार की सहकारिता में, अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्तितक अर्थात् एक मर्यादित सीमातक स्वार्थ का (वह भी दूसरों का छीनकर नहीं) और आगे पूरी तरह आत्मीयता का आधार होता है । दैवी सहकारिता में अपने स्वार्थ का लेषमात्र भी नहीं होता| |
− | सहकारिता की हर कृति के पीछे काम करनेवाले विचारों के कारण सहकारिता के तीन स्वरूप बनते है । पहला है पाशव विचारपर आधारित सहकारिता । दूसरा विचार है मानव विचारपर आधारित सहकारिता । और तीसरा है दैवी विचारपर आधारित सहकारिता । पाशव विचार पर आधारित सहकारिता में पूर्णत: स्वार्थ की भावना से सहकार किया जाता है। यह सभी जीवों की, फिर वह पशु हो, पक्षी हो, कृमी-कीटक हो या मानव हो स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है। शरीर की बनावट को छोड दें तो, जन्म के समय मनुष्य और पशु में कोई भेद नहीं होता । किंतु संस्कारित मानव पशु नहीं होता । इसलिये मानव विचार की सहकारिता में, अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्तितक अर्थात् एक मर्यादित सीमातक स्वार्थ का (वह भी दूसरों का छीनकर नहीं) और आगे पूरी तरह आत्मीयता का आधार होता है । दैवी सहकारिता में अपने स्वार्थ का लेषमात्र भी नहीं होता|
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| संस्कार और शिक्षा ही मानव जाति के अर्भक को मानव बनाते है और आगे देवत्व की ओर ले जाते हैं| मानव जब योग्य संस्कार और शिक्षा प्राप्त कर लेता है उस की प्रवृत्ती में परिवर्तन आता है । इस परिवर्तन की सम्भावनाएँ भी केवल मानव जाति में ही है । अन्य किसी पशु, पक्षी, कृमि-कीटक आदी में नहीं है । संस्कार और शिक्षा से मानव स्वार्थ प्रवृत्ती को छोडकर आत्मीयता की ओर बढता है । मानव बनता है । अच्छे संस्कारों से वह देवत्व पाता है । अपने लिये नहीं, अपनों के लिये जीता है । इसीलिये आत्मीयता की भावना से सहकार करना यह मानवीय और दैवी विचार है। आत्मीयता का व्यवहार जहाँ होता है आत्मीयजनों के या औरों के हित को प्राथमिकता दी जाती है, अपने स्वार्थ से उपर उठकर अपनों के लिये या औरों के लिये कुछ हितकारी करने की भावना ही भारतीय दृष्टि में सहकारिता है। यही एकात्म मानव दर्शन का मार्गदर्शन है। यही “मैं नहीं तूही” की भावना है| | | संस्कार और शिक्षा ही मानव जाति के अर्भक को मानव बनाते है और आगे देवत्व की ओर ले जाते हैं| मानव जब योग्य संस्कार और शिक्षा प्राप्त कर लेता है उस की प्रवृत्ती में परिवर्तन आता है । इस परिवर्तन की सम्भावनाएँ भी केवल मानव जाति में ही है । अन्य किसी पशु, पक्षी, कृमि-कीटक आदी में नहीं है । संस्कार और शिक्षा से मानव स्वार्थ प्रवृत्ती को छोडकर आत्मीयता की ओर बढता है । मानव बनता है । अच्छे संस्कारों से वह देवत्व पाता है । अपने लिये नहीं, अपनों के लिये जीता है । इसीलिये आत्मीयता की भावना से सहकार करना यह मानवीय और दैवी विचार है। आत्मीयता का व्यवहार जहाँ होता है आत्मीयजनों के या औरों के हित को प्राथमिकता दी जाती है, अपने स्वार्थ से उपर उठकर अपनों के लिये या औरों के लिये कुछ हितकारी करने की भावना ही भारतीय दृष्टि में सहकारिता है। यही एकात्म मानव दर्शन का मार्गदर्शन है। यही “मैं नहीं तूही” की भावना है| |
| सहकारिता की अति प्राचीन काल की और विशालतम घटना है देवों और दानवोंद्वारा साझे प्रयासों से किया गया ‘सागरमंथन’। इस में सज्जन और दुर्जन दोनों ही प्रकार के लोग थे । दानव स्वार्थ-केंद्री थे और देव आत्मीयता-केंद्री थे । सागर में छिपे अनमोल रत्न मंथन के बगैर नहीं मिल सकते, ऐसा विचार देवों के मन में आया । इतना बडा उपक्रम और लाभ देखकर दानव भी आ जुटे । लेकिन दानवों का देवों के प्रति मन का बैर और दुष्ट भावना छुटी नहीं थी। इसलिये मंथन से रत्न निकलते समय, रत्न कौन लेगा इस मुद्देपर झगडे हो गये । देवों के चतुर नेतृत्व ने सभी मौल्यवान रत्न हथिया लिये । अमृत भी हथिया लिया । जब मंथन से विष निकला तो महादेव ने उस विष को भी ग्रहण कर पचा डाला । इन अमूल्य रत्नों को यदि चतुर और आत्मीयतायुक्त देवों ने दानवों के साथ में बाँट लिया होता तो कल्पना नहीं कर सकते, ऐसा अनर्थ पृथिवी को सहना पडता । इस कथा से कुछ मार्गदर्शक बिंदू उभरकर सामने आते हैं| | | सहकारिता की अति प्राचीन काल की और विशालतम घटना है देवों और दानवोंद्वारा साझे प्रयासों से किया गया ‘सागरमंथन’। इस में सज्जन और दुर्जन दोनों ही प्रकार के लोग थे । दानव स्वार्थ-केंद्री थे और देव आत्मीयता-केंद्री थे । सागर में छिपे अनमोल रत्न मंथन के बगैर नहीं मिल सकते, ऐसा विचार देवों के मन में आया । इतना बडा उपक्रम और लाभ देखकर दानव भी आ जुटे । लेकिन दानवों का देवों के प्रति मन का बैर और दुष्ट भावना छुटी नहीं थी। इसलिये मंथन से रत्न निकलते समय, रत्न कौन लेगा इस मुद्देपर झगडे हो गये । देवों के चतुर नेतृत्व ने सभी मौल्यवान रत्न हथिया लिये । अमृत भी हथिया लिया । जब मंथन से विष निकला तो महादेव ने उस विष को भी ग्रहण कर पचा डाला । इन अमूल्य रत्नों को यदि चतुर और आत्मीयतायुक्त देवों ने दानवों के साथ में बाँट लिया होता तो कल्पना नहीं कर सकते, ऐसा अनर्थ पृथिवी को सहना पडता । इस कथा से कुछ मार्गदर्शक बिंदू उभरकर सामने आते हैं| |
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| वर्तमान में ‘सहकारी’ विशेषण लगाकर काम करनेवाली लगभग सभी संस्थाएं अपने अपने स्वार्थ साधने के लिये निर्माण की गई हैं| अन्य लोगों के हित के लिये नहीं| फिर वह सहनिवास संस्था हो, सहकारी पतसंस्था हो, सहकारी मच्छीमार संस्था हो या सहकारी शकर कारखाना हो| ये सभी संस्थाएं, अपने अपने स्वार्थ के लिये कुछ लोगों ने एकत्रित आकर चलाए हुवे उपक्रम है । इन सभी के पीछे पाश्चात्य ' समाजशास्त्र ' की भावना काम कर रही है । सोशल कॉण्ट्रॅक्ट थियरी के आधारपर अर्थात् परस्पर स्वार्थ की पूर्ति के लिये जब लोग एकत्रित होते हैं तो समाज बनता है, इस विचार से प्रेरित यह सभी सहकारिता के नाम से चलनेवाले प्रयास हैं| | | वर्तमान में ‘सहकारी’ विशेषण लगाकर काम करनेवाली लगभग सभी संस्थाएं अपने अपने स्वार्थ साधने के लिये निर्माण की गई हैं| अन्य लोगों के हित के लिये नहीं| फिर वह सहनिवास संस्था हो, सहकारी पतसंस्था हो, सहकारी मच्छीमार संस्था हो या सहकारी शकर कारखाना हो| ये सभी संस्थाएं, अपने अपने स्वार्थ के लिये कुछ लोगों ने एकत्रित आकर चलाए हुवे उपक्रम है । इन सभी के पीछे पाश्चात्य ' समाजशास्त्र ' की भावना काम कर रही है । सोशल कॉण्ट्रॅक्ट थियरी के आधारपर अर्थात् परस्पर स्वार्थ की पूर्ति के लिये जब लोग एकत्रित होते हैं तो समाज बनता है, इस विचार से प्रेरित यह सभी सहकारिता के नाम से चलनेवाले प्रयास हैं| |
| मैं जबतक बलवान नहीं बनूंगा मेरा हित नहीं होगा। मैं अकेला अपने स्वार्थ कि साधना में बहुत दुर्बल हूं। इसलिये जो मेरे जैसे ही दुर्बल हैं, ऐसे लोगों की मदद से मैं मेरे जैसे अन्य दुर्बलों से बलवान बन जाऊंगा, इस भावना से सहकारिता का आंदोलन आज चलाया जा रहा है । इस का आधार पूर्णत: स्वार्थ भावना अर्थात् पाशव विचार अर्थात् पाश्चात्य समाजशास्त्रीय विचार ही है । | | मैं जबतक बलवान नहीं बनूंगा मेरा हित नहीं होगा। मैं अकेला अपने स्वार्थ कि साधना में बहुत दुर्बल हूं। इसलिये जो मेरे जैसे ही दुर्बल हैं, ऐसे लोगों की मदद से मैं मेरे जैसे अन्य दुर्बलों से बलवान बन जाऊंगा, इस भावना से सहकारिता का आंदोलन आज चलाया जा रहा है । इस का आधार पूर्णत: स्वार्थ भावना अर्थात् पाशव विचार अर्थात् पाश्चात्य समाजशास्त्रीय विचार ही है । |
− | एकत्रित रूप से पुरुषार्थ करने की भावना गलत नहीं है । किंतु उस के पीछे यदि पाश्चात्य विचार अर्थात् केवल स्वार्थ भावना काम कर रही हो तो समाज का विघटन अवश्यम्भावी है । समाज में विषमता फैलेगी| इस विषमता के लक्षण आज भी स्पष्ट दिखाई दे रहे है। पूरी बात को ठीक से समझने के लिये हमें मूल पाश्चात्य जीवनदृष्टि के आधारभूत विचार को और उसपर आधारित वर्तनसूत्रों को समझना होगा । | + | एकत्रित रूप से पुरुषार्थ करने की भावना गलत नहीं है । किंतु उस के पीछे यदि पाश्चात्य विचार अर्थात् केवल स्वार्थ भावना काम कर रही हो तो समाज का विघटन अवश्यम्भावी है । समाज में विषमता फैलेगी| इस विषमता के लक्षण आज भी स्पष्ट दिखाई दे रहे है। पूरी बात को ठीक से समझने के लिये हमें मूल पाश्चात्य जीवनदृष्टि के आधारभूत विचार को और उसपर आधारित वर्तनसूत्रों को समझना होगा । |
− | पाश्चात्य जीवनदृष्टी | + | |
− | पाश्चात्य जीवनदृष्टी का गहरा प्रभाव आज पूरे विश्वपर है, यह सब जानते है । मै और शेष विश्व ऐसा द्वप्रत और यह शेष विश्व मेरे उपभोग के लिये बना है, यह है पाश्चात्य मान्यता । यह मान्यता पाश्चात्य जीवनदृष्टी का आधाररूप विचार है । एक ही जीव हो तो झगडे, द्वेष, वैमनस्य, झूठ, मत्सर, शोषण आदी बातें सम्भव नहीं है । किंतु जैसे ही समाज का हर घटक अपने उपभोग के लिये दुनियाँ बनी है यह समझकर व्यवहार करने लगता है तो झगडे, द्वेष, वैमनस्य, झूठ, मत्सर, शोषण यह सभी बातें होनी ही होनी है । यही आज विश्वभर मे होता दिखाई दे रहा है । समाज जीवन की विभिन्न व्यवस्थाएं भी इसी विचारपर आधारित होने से इस विचार और व्यवहार का पोषण हो रहा है । समस्याएं दिन प्रतिदिन बढती जा रहीं है ।
| + | == पाश्चात्य जीवनदृष्टी == |
− | पाश्चात्य वर्तनसूत्र और उन के परिणाम | + | पाश्चात्य जीवनदृष्टी का गहरा प्रभाव आज पूरे विश्वपर है, यह सब जानते है । मै और शेष विश्व ऐसा द्वप्रत और यह शेष विश्व मेरे उपभोग के लिये बना है, यह है पाश्चात्य मान्यता । यह मान्यता पाश्चात्य जीवनदृष्टी का आधाररूप विचार है । एक ही जीव हो तो झगडे, द्वेष, वैमनस्य, झूठ, मत्सर, शोषण आदी बातें सम्भव नहीं है । किंतु जैसे ही समाज का हर घटक अपने उपभोग के लिये दुनियाँ बनी है यह समझकर व्यवहार करने लगता है तो झगडे, द्वेष, वैमनस्य, झूठ, मत्सर, शोषण यह सभी बातें होनी ही होनी है । यही आज विश्वभर मे होता दिखाई दे रहा है । समाज जीवन की विभिन्न व्यवस्थाएं भी इसी विचारपर आधारित होने से इस विचार और व्यवहार का पोषण हो रहा है । समस्याएं दिन प्रतिदिन बढती जा रहीं है । |
− | अब हम इन पाश्चात्य वर्तनसूत्राप्त के आधारपर इस के परिणामों की चर्चा करेंगे ।
| + | |
| + | === पाश्चात्य वर्तनसूत्र और उन के परिणाम === |
| + | अब हम इन पाश्चात्य वर्तनसूत्राप्त के आधारपर इस के परिणामों की चर्चा करेंगे । |
| १. सर्व्हायव्हल ऑफ द फिटेस्ट ऍंड एक्स्प्लॉयटेशन ऑफ द वीक.. बलवान ही जियेगा । बलवानों की आवश्यकता के अनुसार ही, दुर्बल कितना और कैसे जियेगा यह बलवान तय करेगा । पाश्चात्य विचार से राजा सर्वशक्तिमान होता है । उस के हित की व्यवस्थाएं ही वह निर्माण करेगा और चलने देगा । जनमत का आक्रोश सीमा से अधिक न बढे इतना राजा देखेगा । आज राजा यह व्यवस्था नहीं है । उस का स्थान प्रजातंत्र ने लिया है । अब प्रजातांत्रिक ढंग से या किसी भी तंत्र से जो चुनाव जीतेगा वह सर्वसत्ताधीश होगा । इस सरकारपर बलवानों का अंकुश रहता है । फिर वह बल धन का हो, सत्ता का हो, माफिया गुंडाशक्ती का हो, चतुराई का हो या एकगठ्ठा मतों का हो । | | १. सर्व्हायव्हल ऑफ द फिटेस्ट ऍंड एक्स्प्लॉयटेशन ऑफ द वीक.. बलवान ही जियेगा । बलवानों की आवश्यकता के अनुसार ही, दुर्बल कितना और कैसे जियेगा यह बलवान तय करेगा । पाश्चात्य विचार से राजा सर्वशक्तिमान होता है । उस के हित की व्यवस्थाएं ही वह निर्माण करेगा और चलने देगा । जनमत का आक्रोश सीमा से अधिक न बढे इतना राजा देखेगा । आज राजा यह व्यवस्था नहीं है । उस का स्थान प्रजातंत्र ने लिया है । अब प्रजातांत्रिक ढंग से या किसी भी तंत्र से जो चुनाव जीतेगा वह सर्वसत्ताधीश होगा । इस सरकारपर बलवानों का अंकुश रहता है । फिर वह बल धन का हो, सत्ता का हो, माफिया गुंडाशक्ती का हो, चतुराई का हो या एकगठ्ठा मतों का हो । |
| इसलिये अर्थव्यवस्था बलवानों के लिये चलती है । हाल ही में पाश्चात्य जगतपर भीषण आर्थिक संकट आया था । बडी बडी कंपनियों के लोभ के कारण यह संकट निर्माण हुवा था । किंतु उसका नुकसान किसी बलवान को नहीं सामान्य करदाता को ही भुगतना पडा था । | | इसलिये अर्थव्यवस्था बलवानों के लिये चलती है । हाल ही में पाश्चात्य जगतपर भीषण आर्थिक संकट आया था । बडी बडी कंपनियों के लोभ के कारण यह संकट निर्माण हुवा था । किंतु उसका नुकसान किसी बलवान को नहीं सामान्य करदाता को ही भुगतना पडा था । |
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| ५. धिस इज द ओन्ली लाईफ. अर्थात् मेरे मरने के बाद दुनियाँ भले डूबे । जो कुछ है बस यही जन्म है । इसलिये प्रकृति को लूट-खसोटकर तथा दुर्बलों का शोषण कर जितना उपभोग मिल सके उतना भोगने की महत्वाकांक्षा अन्य उद्योगपतियों की ही तरह सहकारी क्षेत्र के उद्योगपतियों में भी पाई जाती है । सहकारी क्षेत्र के जानेमाने नेता, एक ओर तो मंदिरों में पूजा के फोटो छपवाकर अपनी छवि को धार्मिक बनाने का प्रयास करते है वहीं दूसरी ओर सैंकड़ों/हजारों/लाखों करोड का गबन करते हुवे दिखाई देते है । | | ५. धिस इज द ओन्ली लाईफ. अर्थात् मेरे मरने के बाद दुनियाँ भले डूबे । जो कुछ है बस यही जन्म है । इसलिये प्रकृति को लूट-खसोटकर तथा दुर्बलों का शोषण कर जितना उपभोग मिल सके उतना भोगने की महत्वाकांक्षा अन्य उद्योगपतियों की ही तरह सहकारी क्षेत्र के उद्योगपतियों में भी पाई जाती है । सहकारी क्षेत्र के जानेमाने नेता, एक ओर तो मंदिरों में पूजा के फोटो छपवाकर अपनी छवि को धार्मिक बनाने का प्रयास करते है वहीं दूसरी ओर सैंकड़ों/हजारों/लाखों करोड का गबन करते हुवे दिखाई देते है । |
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− | एकात्म मानव दर्शनपर आधारित, भारतीय ' सहकार ' का स्वरूप | + | == एकात्म मानव दर्शनपर आधारित, भारतीय ' सहकार ' का स्वरूप == |
− | स्वार्थ भावना के बिना विश्व के व्यवहार चल ही नहीं सकते । यह वस्तुस्थिती है । इसीलिये ' काम ' को हमारे शास्त्रों ने पुरूषार्थ कहा है । काम अर्थात् कामनाओं की पूर्ति करने के लिये किये गये प्रयासों को भी हमारे शास्त्रों की मान्यता है । ऐसे प्रयासों को अर्थ पुरूषार्थ कहा गया है । किंतु व्यक्ति का विचार समाज के और प्रकृति के विचार के बिना अधूरा रहता है । इन तीनों का परस्पर अन्योन्याश्रित संबंध है । समाज और सृष्टि के हित के दायरे में काम और अर्थ को रखने के प्रयासों को धर्म कहा गया है । अपनी कामनाओं/इच्छाओं को और उन की पूर्ति के प्रयासों को धर्मानुकूल रखना भारतीय शास्त्रों की दृष्टि से अनिवार्य बात है । मुझे अच्छा खाना मिले । ऐसी इच्छा करना गलत नहीं है । अच्छा खाना मिलने के लिये प्रयास करना भी गलत नहीं है । किंतु मुझे अच्छा खाना मिले इस हेतु दूसरे का खाना छीनकर खाने को धर्म का विरोध है । मुझे सुंदर पत्नि मिले ऐसी इच्छा करना गलत नहीं है । उस हेतु धर्मानुकूल प्रयास करना भी मान्य है । किंतु उस हेतु से अन्यों की पत्नियों को बुरी नजर से देखना, उन्हे छल, बल, कपट से पाने के लिये प्रयास करना धर्म को मान्य नहीं है । धर्मानुकूल iiइच्छाओं की पूर्तितक स्वार्थ स्वीकार्य है| लेकिन अन्यों के हित में जब नि:स्वार्थ भाव से काम करते हैं, सहकार की भावना से काम करते हैं तब वह भारतीय सहकार का नमूना होता है|
| + | स्वार्थ भावना के बिना विश्व के व्यवहार चल ही नहीं सकते । यह वस्तुस्थिती है । इसीलिये ' काम ' को हमारे शास्त्रों ने पुरूषार्थ कहा है । काम अर्थात् कामनाओं की पूर्ति करने के लिये किये गये प्रयासों को भी हमारे शास्त्रों की मान्यता है । ऐसे प्रयासों को अर्थ पुरूषार्थ कहा गया है । किंतु व्यक्ति का विचार समाज के और प्रकृति के विचार के बिना अधूरा रहता है । इन तीनों का परस्पर अन्योन्याश्रित संबंध है । समाज और सृष्टि के हित के दायरे में काम और अर्थ को रखने के प्रयासों को धर्म कहा गया है । अपनी कामनाओं/इच्छाओं को और उन की पूर्ति के प्रयासों को धर्मानुकूल रखना भारतीय शास्त्रों की दृष्टि से अनिवार्य बात है । मुझे अच्छा खाना मिले । ऐसी इच्छा करना गलत नहीं है । अच्छा खाना मिलने के लिये प्रयास करना भी गलत नहीं है । किंतु मुझे अच्छा खाना मिले इस हेतु दूसरे का खाना छीनकर खाने को धर्म का विरोध है । मुझे सुंदर पत्नि मिले ऐसी इच्छा करना गलत नहीं है । उस हेतु धर्मानुकूल प्रयास करना भी मान्य है । किंतु उस हेतु से अन्यों की पत्नियों को बुरी नजर से देखना, उन्हे छल, बल, कपट से पाने के लिये प्रयास करना धर्म को मान्य नहीं है । धर्मानुकूल iiइच्छाओं की पूर्तितक स्वार्थ स्वीकार्य है| लेकिन अन्यों के हित में जब नि:स्वार्थ भाव से काम करते हैं, सहकार की भावना से काम करते हैं तब वह भारतीय सहकार का नमूना होता है| |
− | एकात्म मानव दर्शनपर आधारित वर्तमान में चलनेवाले सहकारिता के उपक्रम | + | |
| + | === एकात्म मानव दर्शनपर आधारित वर्तमान में चलनेवाले सहकारिता के उपक्रम === |
| १. एकात्म मानव दर्शनपर आधारित सर्वश्रेष्ठ सहकारिता का उदाहरण एकत्रित भारतीय कुटुम्ब है । कौटुम्बिक भावना के आधारपर ही विकसित किये ग्रामकुल और आगे “वसुधैव कुटुंबकम्” व्यवहार में लाने के प्रयास अपने भारतीय पूर्वजों ने किये थे । इस प्रकार के उपक्रमों में सहकारिता की शून्य स्तर की भावना रखनेवाले नवजात शिशू को संस्कारित और शिक्षित कर धर्मानुकूल इच्छा और प्रयत्न करने की क्षमता रखनेवाला, किंतु साथ ही में औरों के लिये जीनेवाला कुटुम्ब घटक निर्माण किया जाता है । | | १. एकात्म मानव दर्शनपर आधारित सर्वश्रेष्ठ सहकारिता का उदाहरण एकत्रित भारतीय कुटुम्ब है । कौटुम्बिक भावना के आधारपर ही विकसित किये ग्रामकुल और आगे “वसुधैव कुटुंबकम्” व्यवहार में लाने के प्रयास अपने भारतीय पूर्वजों ने किये थे । इस प्रकार के उपक्रमों में सहकारिता की शून्य स्तर की भावना रखनेवाले नवजात शिशू को संस्कारित और शिक्षित कर धर्मानुकूल इच्छा और प्रयत्न करने की क्षमता रखनेवाला, किंतु साथ ही में औरों के लिये जीनेवाला कुटुम्ब घटक निर्माण किया जाता है । |
| २. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या तत्सम संगठनोंद्वारा चलाये हुए सेवाकार्य । केवल संघ के कार्यकर्ताओं ने चलाए हुए ऐसे १.५ लाख से अधिक उपक्रम हैं| ये चलानेवाले लोग नि:स्वार्थ भाव से औरों के हित में काम करते हैं| इन उपक्रमों के नामों में ' सहकारी ' यह शब्द नहीं है। लेकिन यह सभी उपक्रम एकात्म मानव दर्शनद्वारा मार्गदर्शित भारतीय सहकारितापर आधारित ही हैं| इस में सहकार की भावना शुध्द एकात्मता की है । | | २. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या तत्सम संगठनोंद्वारा चलाये हुए सेवाकार्य । केवल संघ के कार्यकर्ताओं ने चलाए हुए ऐसे १.५ लाख से अधिक उपक्रम हैं| ये चलानेवाले लोग नि:स्वार्थ भाव से औरों के हित में काम करते हैं| इन उपक्रमों के नामों में ' सहकारी ' यह शब्द नहीं है। लेकिन यह सभी उपक्रम एकात्म मानव दर्शनद्वारा मार्गदर्शित भारतीय सहकारितापर आधारित ही हैं| इस में सहकार की भावना शुध्द एकात्मता की है । |
| ३. और एक प्रकार के उपक्रम वे है जिन में लोगों ने मिलकर संस्था निर्माण की है जिन में पूर्णत: या अंशत: एकात्मतापर आधारित व्यवहार होता है । वैसे पूर्णत: एकात्मता का व्यवहार करनेवाली संस्था अभीतक लेखक ने न देखी है न सुनी है । लेकिन शायद हो सकती है । कुछ सहकारी बँक धर्मादाय के नामपर समाजसेवी संगठनों को आर्थिक मदद करती हैं| उन बँकों की यह कृति तो एकात्मता से सुसंगत कृति है । लेकिन जब यही बँक २ घंटे में वाहन खरीदीपर कर्जा उपलब्ध कराती है, यह उपभोक्तावाद को बढावा देने और प्राकृतिक संसाधनों के दुरुपयोग को बढावा देने के कारण भारतीय सहकारिता का मार्गदर्शक उदाहरण नहीं रह जाती । | | ३. और एक प्रकार के उपक्रम वे है जिन में लोगों ने मिलकर संस्था निर्माण की है जिन में पूर्णत: या अंशत: एकात्मतापर आधारित व्यवहार होता है । वैसे पूर्णत: एकात्मता का व्यवहार करनेवाली संस्था अभीतक लेखक ने न देखी है न सुनी है । लेकिन शायद हो सकती है । कुछ सहकारी बँक धर्मादाय के नामपर समाजसेवी संगठनों को आर्थिक मदद करती हैं| उन बँकों की यह कृति तो एकात्मता से सुसंगत कृति है । लेकिन जब यही बँक २ घंटे में वाहन खरीदीपर कर्जा उपलब्ध कराती है, यह उपभोक्तावाद को बढावा देने और प्राकृतिक संसाधनों के दुरुपयोग को बढावा देने के कारण भारतीय सहकारिता का मार्गदर्शक उदाहरण नहीं रह जाती । |
− | एकात्म मानव दर्शनपर आधारित सहकारिता के मार्गदर्शक बिंदू. | + | |
| + | === एकात्म मानव दर्शनपर आधारित सहकारिता के मार्गदर्शक बिंदू === |
| + | . |
| १. एकात्म मानव दर्शनपर आधारित सर्वश्रेष्ठ उपक्रम हमारी भारतीय एकत्रित कुटुम्ब व्यवस्था है । इस उपक्रम में जिस शिशू के मन में १०० प्रतिशत केवल अपने लिये सोचने की मानसिकता है, ऐसे शिशू को संस्कारित कर उस के मन में सहकारिता की ज्योत जलाई जाती है। उसे क्रमश: सर्वेषाम् अविरोधेन और आगे सर्वे भवन्तु सुखिन: की दिशा में बढाया जाता है। अपने हित के लिये धर्मानुकूल इच्छा और इच्छाओं की पूर्ति के लिये किये गये धर्मानुकूल प्रयत्न अनिवार्य है। किंतु इस से आगे केवल एकात्मता की भावना से पुरूषार्थ करना अपेक्षित है । | | १. एकात्म मानव दर्शनपर आधारित सर्वश्रेष्ठ उपक्रम हमारी भारतीय एकत्रित कुटुम्ब व्यवस्था है । इस उपक्रम में जिस शिशू के मन में १०० प्रतिशत केवल अपने लिये सोचने की मानसिकता है, ऐसे शिशू को संस्कारित कर उस के मन में सहकारिता की ज्योत जलाई जाती है। उसे क्रमश: सर्वेषाम् अविरोधेन और आगे सर्वे भवन्तु सुखिन: की दिशा में बढाया जाता है। अपने हित के लिये धर्मानुकूल इच्छा और इच्छाओं की पूर्ति के लिये किये गये धर्मानुकूल प्रयत्न अनिवार्य है। किंतु इस से आगे केवल एकात्मता की भावना से पुरूषार्थ करना अपेक्षित है । |
| २. एकात्मतापर आधारित पहले स्तर के सहकारी उपक्रम वही हो सकते है जो चराचर के हित में हों । | | २. एकात्मतापर आधारित पहले स्तर के सहकारी उपक्रम वही हो सकते है जो चराचर के हित में हों । |
− | ३. दुसरे क्रमांकपर आनेवाले एकात्मतापर आधारित सहकारी उपक्रम वे है जो किसी का अहित नहीं करते । | + | ३. दुसरे क्रमांकपर आनेवाले एकात्मतापर आधारित सहकारी उपक्रम वे है जो किसी का अहित नहीं करते । |
− | भारतीय समृद्धि शास्त्र की पुनर्प्रस्तुति की आवश्यकता | + | |
− | सहकारिता के क्षेत्र में काम करने से पहले हमें भारतीय दृष्टिकोण से ' समाजशास्त्र ' और आगे ' समृद्धिशास्त्र ' की प्रस्तुति करनी होगी। इन के अभाव में हम भारतीय सहकारिता के तत्व को व्यवहार में नहीं ला सकेंगे । सहकारी उपक्रम यह अर्थ पुरुषार्थ का एक पहलू है । इसलिये समृद्धिशास्त्र के और मानव के शाश्वत विकास के प्राथमिक तत्वों की प्रस्तुति भी एकात्म मानव दर्शन के आधारपर करनी होगी ।
| + | == भारतीय समृद्धि शास्त्र की पुनर्प्रस्तुति की आवश्यकता == |
| + | सहकारिता के क्षेत्र में काम करने से पहले हमें भारतीय दृष्टिकोण से ' समाजशास्त्र ' और आगे ' समृद्धिशास्त्र ' की प्रस्तुति करनी होगी। इन के अभाव में हम भारतीय सहकारिता के तत्व को व्यवहार में नहीं ला सकेंगे । सहकारी उपक्रम यह अर्थ पुरुषार्थ का एक पहलू है । इसलिये समृद्धिशास्त्र के और मानव के शाश्वत विकास के प्राथमिक तत्वों की प्रस्तुति भी एकात्म मानव दर्शन के आधारपर करनी होगी । |
| आफ्रिका के देश अविकसित माने जाते हैं| कई आशिया के देशों को भी अविकसित माना जाता है । अमरिका शायद सबसे अधिक विकसित देश माना जाता है । योरप के भी काफी देश विकसित माने जाते हैं| किंतु अमरिका और योरप के देशोंसमेत एक भी ऐसा देश नहीं है जो और अधिक विकास नहीं करना चाहता । और उनके विकास का अर्थ है, और अधिक उपभोग । अधिक और अधिक प्राकृतिक संसाधनों का उपभोग । इसे ही विकास कहा जाता है । विकास की दर बढाने की होड में हर देश लगा हुवा है । इसी होड के कारण आज विश्वभर के सभी देशों ने पाश्चात्य अर्थशास्त्र का स्वीकार किया है । इसके तीन प्रमुख कारण है । एक तो यह की पश्चिमी देशों की तकनीकी प्रगति के कारण सभी की ऑंखें चौंधिया गयी है । और दूसरा कारण यह है की भारत को छोड़कर इस पाश्चात्य इकोनोमिक्स से अधिक श्रेष्ठ ऐसा अन्य कोई विकल्प आज विश्व के किसी भी देश के सामने नहीं है । और तीसरा कारण यह भी है की जिस प्रकार से हिंसक पशु पागल होकर जंगल में आतंक फैलाकर जंगल का जीवन भयप्रद कर देते है, इस विश्व के पर्यावरण में कई बलवान और मदांध देशों का आतंक मचा हुवा है । उस आतंक से जूझने के लिये, उसपर विजय प्राप्त करने के लिये जापान और भारत जैसे देश भी पाश्चात्य अधर्म युध्द के मार्गपर चल पडे है । | | आफ्रिका के देश अविकसित माने जाते हैं| कई आशिया के देशों को भी अविकसित माना जाता है । अमरिका शायद सबसे अधिक विकसित देश माना जाता है । योरप के भी काफी देश विकसित माने जाते हैं| किंतु अमरिका और योरप के देशोंसमेत एक भी ऐसा देश नहीं है जो और अधिक विकास नहीं करना चाहता । और उनके विकास का अर्थ है, और अधिक उपभोग । अधिक और अधिक प्राकृतिक संसाधनों का उपभोग । इसे ही विकास कहा जाता है । विकास की दर बढाने की होड में हर देश लगा हुवा है । इसी होड के कारण आज विश्वभर के सभी देशों ने पाश्चात्य अर्थशास्त्र का स्वीकार किया है । इसके तीन प्रमुख कारण है । एक तो यह की पश्चिमी देशों की तकनीकी प्रगति के कारण सभी की ऑंखें चौंधिया गयी है । और दूसरा कारण यह है की भारत को छोड़कर इस पाश्चात्य इकोनोमिक्स से अधिक श्रेष्ठ ऐसा अन्य कोई विकल्प आज विश्व के किसी भी देश के सामने नहीं है । और तीसरा कारण यह भी है की जिस प्रकार से हिंसक पशु पागल होकर जंगल में आतंक फैलाकर जंगल का जीवन भयप्रद कर देते है, इस विश्व के पर्यावरण में कई बलवान और मदांध देशों का आतंक मचा हुवा है । उस आतंक से जूझने के लिये, उसपर विजय प्राप्त करने के लिये जापान और भारत जैसे देश भी पाश्चात्य अधर्म युध्द के मार्गपर चल पडे है । |
| वास्तव में देखें तो कोई भी देश इस स्पर्धा के कारण सुखी नहीं है । प्रगत देशों के केवल बलशाली लोग हैं, वह इस होड से लाभ पा रहे है । विश्व का हर देश इस विकास की होड में घसीटा जा रहा है । किसी में भी यह हिम्मत नहीं है की इसका विरोध कर सके। ऐसी स्थिती में एक भिन्न इकोनोमिक्स की प्रस्तुति और व्यवहार यह बहुत ही हिम्मत की बात है । ऐसे इकोनोमिक्स को व्यवहार में लाने की क्षमता भी उस देश के पास होना आवश्यक है । इस दृष्टी से भारत का स्थान अनन्य साधारण है । भारत अपने आप में एक विश्व हैं| हमारे पास संख्यात्मक और गुणात्मक दृष्टी से विश्व की सर्वश्रेष्ठ मानवीय प्रतिभा है और संसाधनों की विपुलता है| विश्व के इतिहास में जबजब ऐसे प्रसंग आये भारत ने ही विश्व को मार्गदर्शन किया है। आज भी विश्व को भारत से यही अपेक्षा है । | | वास्तव में देखें तो कोई भी देश इस स्पर्धा के कारण सुखी नहीं है । प्रगत देशों के केवल बलशाली लोग हैं, वह इस होड से लाभ पा रहे है । विश्व का हर देश इस विकास की होड में घसीटा जा रहा है । किसी में भी यह हिम्मत नहीं है की इसका विरोध कर सके। ऐसी स्थिती में एक भिन्न इकोनोमिक्स की प्रस्तुति और व्यवहार यह बहुत ही हिम्मत की बात है । ऐसे इकोनोमिक्स को व्यवहार में लाने की क्षमता भी उस देश के पास होना आवश्यक है । इस दृष्टी से भारत का स्थान अनन्य साधारण है । भारत अपने आप में एक विश्व हैं| हमारे पास संख्यात्मक और गुणात्मक दृष्टी से विश्व की सर्वश्रेष्ठ मानवीय प्रतिभा है और संसाधनों की विपुलता है| विश्व के इतिहास में जबजब ऐसे प्रसंग आये भारत ने ही विश्व को मार्गदर्शन किया है। आज भी विश्व को भारत से यही अपेक्षा है । |
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− | एकात्म मानव दर्शनपर आधारित सहकारिता के प्रतिमान : दो उदाहरण | + | == एकात्म मानव दर्शनपर आधारित सहकारिता के प्रतिमान : दो उदाहरण == |
| योगेश्वर कृषि और मत्स्यगंधा : स्वाध्याय कुटुम्ब के पुरोधा स्वर्गीय श्री पांडुरंग शास्त्री उपाख्य दादा आठवलेद्वारा यह दो प्रयोग सफलता से किये गये है । दोनों ही में वर्षभर में गाँव का प्रत्येक कुटुम्ब एक दिन गाँव के लिये देता है । इस परिश्रम से जो उपज या मत्स्य-उत्पादन होता है उस का विनियोग दुर्बल घटकों को सबल बनाने के किया किया जाता है । इस प्रक्रिया के चलते स्वर्गीय दादा ने ऐसे कई गाँव सबल बनाये है । इन गाँवों में कोई दुर्बल नहीं है। यह गाँव अब अन्य गाँवों को मार्गदर्शन कर वहाँ के दुर्बलों को सबल बनाने का प्रयास कर रहे है । इन दोनों उपक्रमों से विशाल पूँजी का निर्माण यह गाँव कर सके है । | | योगेश्वर कृषि और मत्स्यगंधा : स्वाध्याय कुटुम्ब के पुरोधा स्वर्गीय श्री पांडुरंग शास्त्री उपाख्य दादा आठवलेद्वारा यह दो प्रयोग सफलता से किये गये है । दोनों ही में वर्षभर में गाँव का प्रत्येक कुटुम्ब एक दिन गाँव के लिये देता है । इस परिश्रम से जो उपज या मत्स्य-उत्पादन होता है उस का विनियोग दुर्बल घटकों को सबल बनाने के किया किया जाता है । इस प्रक्रिया के चलते स्वर्गीय दादा ने ऐसे कई गाँव सबल बनाये है । इन गाँवों में कोई दुर्बल नहीं है। यह गाँव अब अन्य गाँवों को मार्गदर्शन कर वहाँ के दुर्बलों को सबल बनाने का प्रयास कर रहे है । इन दोनों उपक्रमों से विशाल पूँजी का निर्माण यह गाँव कर सके है । |
− | उपसंहार | + | |
− | कौटुम्बिक भावना से चलाए गये उपक्रम सामने रखकर ही हमें भावी सहकारिता के क्षेत्र की पुनर्रचना करनी होगी । इस बातपर विचारपूर्वक और हिम्मत से प्रयोग करने की आवश्यकता है । ग्रामकुल जैसी व्यवस्थाएं कुछ गाँवों में क्षीण अवस्था में, लेकिन आज भी विद्यमान है । इन व्यवस्थाओं का और पू. दादा आठवलेजी ने किये प्रयोगों का अध्ययन करना होगा । भारतीयता की दृष्टि से ग्रामीण लोग अधिक भारतीय है । वर्तमान शिक्षा का असर उनपर उतना नहीं हुवा है जितना शहरी लोगोंपर हुवा है । ग्रामीण लोग अभी भी एकात्म मानव दर्शन के विचार से पूर्णत: विलग नहीं हुए है । इसीलिये सहकारिता में हो या अर्थशास्त्र में, परिवर्तन के प्रयोग हमें ग्रामीण क्षेत्र से ही प्रारभ करने होंगे ।
| + | == उपसंहार == |
| + | कौटुम्बिक भावना से चलाए गये उपक्रम सामने रखकर ही हमें भावी सहकारिता के क्षेत्र की पुनर्रचना करनी होगी । इस बातपर विचारपूर्वक और हिम्मत से प्रयोग करने की आवश्यकता है । ग्रामकुल जैसी व्यवस्थाएं कुछ गाँवों में क्षीण अवस्था में, लेकिन आज भी विद्यमान है । इन व्यवस्थाओं का और पू. दादा आठवलेजी ने किये प्रयोगों का अध्ययन करना होगा । भारतीयता की दृष्टि से ग्रामीण लोग अधिक भारतीय है । वर्तमान शिक्षा का असर उनपर उतना नहीं हुवा है जितना शहरी लोगोंपर हुवा है । ग्रामीण लोग अभी भी एकात्म मानव दर्शन के विचार से पूर्णत: विलग नहीं हुए है । इसीलिये सहकारिता में हो या अर्थशास्त्र में, परिवर्तन के प्रयोग हमें ग्रामीण क्षेत्र से ही प्रारभ करने होंगे । |
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| ==References== | | ==References== |