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अराजक दूर करने के लिये 'राज्य' की आवश्यकता होती है। इस लिये राज्य व्यवस्था का कर्तव्य जनता में बढते काम और लोभ को नियंत्रण में रखने का होता है। जिन का काम और मोह नियंत्रण में नहीं है ऐसे बलवान और स्वार्थी लोगों से सज्जन और दुर्बलों को बचाने का होता है।  
 
अराजक दूर करने के लिये 'राज्य' की आवश्यकता होती है। इस लिये राज्य व्यवस्था का कर्तव्य जनता में बढते काम और लोभ को नियंत्रण में रखने का होता है। जिन का काम और मोह नियंत्रण में नहीं है ऐसे बलवान और स्वार्थी लोगों से सज्जन और दुर्बलों को बचाने का होता है।  
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अराजक होने का प्रत्यक्ष में शासक होने या नहीं होने से संबंध नहीं है। अराजक होने का संबंध काम और मोह अनियंत्रित होने से है। एक समय था जब सभी लोग धर्माचरण करते थे। महाभारत में शांतिपर्व में बताया है<ref>महाभारत, शांतिपर्व</ref> - <blockquote>न राज्यं न राजासित न दंडयो न च दांडिक: ।</blockquote><blockquote>धर्मेणैव प्रजासर्वं रक्षतिस्म परस्परम् ॥</blockquote>धर्माचरण करने के कारण वे सभी अपनी सुरक्षा अपने आप करते थे। कहने का तात्पर्य यह है कि वे धर्माचरणी होने के कारण काम और मोह को धर्म के नियंत्रण से बाहर नहीं जाने देते थे। इस कारण अराजक नहीं था। इसीलिये किसी राज्य की या शासक की आवश्यकता ही नहीं थी।  
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अराजक होने का प्रत्यक्ष में शासक होने या नहीं होने से संबंध नहीं है। अराजक होने का संबंध काम और मोह अनियंत्रित होने से है। एक समय था जब सभी लोग धर्माचरण करते थे। महाभारत में शांतिपर्व में बताया है<ref>महाभारत, शांतिपर्व</ref> <blockquote>न राज्यं न राजासित न दंडयो न च दांडिक:।</blockquote><blockquote>धर्मेणैव प्रजासर्वं रक्षतिस्म परस्परम् ॥</blockquote>धर्माचरण करने के कारण वे सभी अपनी सुरक्षा अपने आप करते थे। कहने का तात्पर्य यह है कि वे धर्माचरणी होने के कारण काम और मोह को धर्म के नियंत्रण से बाहर नहीं जाने देते थे। इस कारण अराजक नहीं था। इसीलिये किसी राज्य की या शासक की आवश्यकता ही नहीं थी।  
    
किंतु मानव के स्खलनशील स्वभाव के कारण धर्माचरण में कमी आई। आबादी भी बढी। आबादी की घनता भी बढी। प्राकृतिक संसाधनों की निकटता की समस्या खडी हो गई। निकट में प्राप्त प्राकृतिक संसाधनों को लेकर लोग झगडने लगे। निकटवाले संसाधन के लिये झगडने वाले लोगों की कामनाओं और मोह को धर्म के नियंत्रण में रखने के लिये किये हुए शिक्षा के प्रयास भी कम पडने लगे। अराजक की अवस्था निर्माण हो गई। तब समाज का सदैव हितचिंतन करनेवाले विद्वान एकत्रित हुए। उन्होंने मंत्रणा की। और सब मिलकर धर्माचरण करनेवाले, धर्म को स्थापित करने की क्षमता रखनेवाले ऐसे बलवान और क्षात्रतेज से युक्त व्यक्ति के पास गये। उससे उन्होंने अनुरोध किया कि वह राजा बने। दण्ड व्यवस्था निर्माण करे। कोई किसी पर भी अन्याय नहीं कर सके ऐसी शासन व्यवस्था निर्माण करे। इस व्यवस्था को चलाने के लिये लोगों से 'कर' ले।  
 
किंतु मानव के स्खलनशील स्वभाव के कारण धर्माचरण में कमी आई। आबादी भी बढी। आबादी की घनता भी बढी। प्राकृतिक संसाधनों की निकटता की समस्या खडी हो गई। निकट में प्राप्त प्राकृतिक संसाधनों को लेकर लोग झगडने लगे। निकटवाले संसाधन के लिये झगडने वाले लोगों की कामनाओं और मोह को धर्म के नियंत्रण में रखने के लिये किये हुए शिक्षा के प्रयास भी कम पडने लगे। अराजक की अवस्था निर्माण हो गई। तब समाज का सदैव हितचिंतन करनेवाले विद्वान एकत्रित हुए। उन्होंने मंत्रणा की। और सब मिलकर धर्माचरण करनेवाले, धर्म को स्थापित करने की क्षमता रखनेवाले ऐसे बलवान और क्षात्रतेज से युक्त व्यक्ति के पास गये। उससे उन्होंने अनुरोध किया कि वह राजा बने। दण्ड व्यवस्था निर्माण करे। कोई किसी पर भी अन्याय नहीं कर सके ऐसी शासन व्यवस्था निर्माण करे। इस व्यवस्था को चलाने के लिये लोगों से 'कर' ले।  
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== राजा और प्रजा संबंधी भारतीय मान्यताएँ ==
 
== राजा और प्रजा संबंधी भारतीय मान्यताएँ ==
भारतीय सोच में राजा और प्रजा के संबंध में कई स्वस्थ मान्यताएँ स्थापित थीं। वे निम्न हैं।
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भारतीय सोच में राजा और प्रजा के संबंध में कई स्वस्थ मान्यताएँ स्थापित थीं। वे निम्न हैं:
१. यथा राजा तथा प्रजा : सामान्य जन राजा का अनुकरण करते हैं। इस से यदि राजा श्रेष्ठ होता है तो प्रजा भी वैसी ही बन जाती है।  
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# यथा राजा तथा प्रजा : सामान्य जन राजा का अनुकरण करते हैं। इस से यदि राजा श्रेष्ठ होता है तो प्रजा भी वैसी ही बन जाती है।
२. राज्यो रक्षति रक्षित: : जब राजा प्रजा की रक्षा करता है तब प्रजा भी राज्य और राजा की रक्षा में कोई कसर नहीं रखती।
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# राज्यो रक्षति रक्षित: : जब राजा प्रजा की रक्षा करता है तब प्रजा भी राज्य और राजा की रक्षा में कोई कसर नहीं रखती।
३. मूलत: राजा की प्रजा इस शब्दावली से ही राजा और प्रजा के संबंध स्पष्ट हो जाते हैं। प्रजा का अर्थ ही 'संतान' होता है। राजा प्रजा का पालक है, पिता-स्वरूप है ऐसा यहाँ की प्रजा भी मानती थी और राजा भी मानते थे।
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# मूलत: राजा की प्रजा इस शब्दावली से ही राजा और प्रजा के संबंध स्पष्ट हो जाते हैं। प्रजा का अर्थ ही 'संतान' होता है। राजा प्रजा का पालक है, पिता-स्वरूप है ऐसा यहाँ की प्रजा भी मानती थी और राजा भी मानते थे।
४. जब तक प्रजा दु:खी है राजा को चैन की नींद सोने का अधिकार नहीं है । राजा का अपना कोई व्यक्ति जीवन नहीं होता। वह सदैव प्रजाराधन के लिये उपलब्ध हो यह आवश्यक माना गया है। सभी प्रकार के भोग उपलब्ध होते हुए भी वह भोग लिप्त नहीं हो यह शासक से अपेक्षा होती है।
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# जब तक प्रजा दु:खी है राजा को चैन की नींद सोने का अधिकार नहीं है। राजा का अपना कोई व्यक्ति जीवन नहीं होता। वह सदैव प्रजाराधन के लिये उपलब्ध हो यह आवश्यक माना गया है। सभी प्रकार के भोग उपलब्ध होते हुए भी वह भोग लिप्त नहीं हो यह शासक से अपेक्षा होती है।
५. किसी राजा के राज्य में यदि पाप होता है तो राजा भी उस पाप में हिस्सेदार बनता है अर्थात् उसका बुरा फल भी पाता है। इसी तरह यदि राजा कोई पाप करता है तो प्रजा को भी उस के फल भोगने पडते हैं। जैसे जवाहरलाल नेहरू ने प्रधानमंत्री पद से कश्मीर के संबंध में जो पाप किया था उस के परिणाम ७० वर्षों के बाद भी जनता भुगत रही है।
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# किसी राजा के राज्य में यदि पाप होता है तो राजा भी उस पाप में हिस्सेदार बनता है अर्थात् उसका बुरा फल भी पाता है। इसी तरह यदि राजा कोई पाप करता है तो प्रजा को भी उस के फल भोगने पडते हैं। जैसे जवाहरलाल नेहरू ने प्रधानमंत्री पद से कश्मीर के संबंध में जो पाप किया था उस के परिणाम ७० वर्षों के बाद भी जनता भुगत रही है।
६. राजा कालस्य कारणम् : जिस प्रकार का राजा होगा वैसी परिस्थितियाँ बनतीं जातीं हैं। अच्छे राजा के काल में प्रजा को सुख-शांति प्राप्त होगी और बुरे राजा के काल में प्रजा का सुख चैन छिन जायेगा।
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# राजा कालस्य कारणम् : जिस प्रकार का राजा होगा वैसी परिस्थितियाँ बनतीं जातीं हैं। अच्छे राजा के काल में प्रजा को सुख-शांति प्राप्त होगी और बुरे राजा के काल में प्रजा का सुख चैन छिन जायेगा।
७. महर्षि व्यास कहते हैं
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# महर्षि व्यास कहते हैं<ref>महाभारतम्-12-शांतिपर्व-055, 12 and 13</ref>:
आदावेव कुरुश्रेष्ठ राजा रंजन काम्यया । दैवतानां द्विजानां च वर्तितव्यं यथा विधिम् ।। देवितान्यर्चयित्वा हि ब्राह्मणाश्च कुरुद्वः, । आनृष्यं याति धर्मस्य लोकेन च समर्च्यते ।।
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<blockquote>आदावेव कुरुश्रेष्ठ राजा रंजन काम्यया। दैवतानां द्विजानां च वर्तितव्यं यथा विधिम् ।।</blockquote><blockquote>देवितान्यर्चयित्वा हि ब्राह्मणाश्च कुरुद्वः। आनृष्यं याति धर्मस्य लोकेन च समर्च्यते ।।</blockquote><blockquote>भावार्थ : प्रजारंजन के दो कार्य हैं। विद्वानों का पूजन और देवताओं का पूजन। विद्वानों के पूजन से तात्पर्य है विद्वानों के मार्गदर्शन में राज्य चलाना। राजा विद्वानों के बनाए राजा होता है। शिक्षित उसे कहते हैं जो शिक्षा प्राप्त कर अपनी भलाई में लगा हुआ है। विद्वान वह होता है जो बिना नियुक्ति के ही लोकहित का चिंतन करता रहता है। विद्वान यह जानता ही लोककल्याण ही विद्वत्ता का सार है। देवताओं के पूजन से तात्पर्य है  देवताओं के (प्रकृति) प्रकोप से जनता को बचाना। इस दृष्टि से अकाल का सामना करने के लिए अन्न के भण्डार रखना। बारिश नहीं होनेपर भी पानी की कमी न हो ऐसे तालाब, बाँध, कुए, बावड़ियां पर्याप्त मात्रा में बनाना।</blockquote>
भावार्थ : प्रजारंजन के दो कार्य हैं। विद्वानों का पूजन और देवताओं का पूजन। विद्वानों के पूजन से तात्पर्य है विद्वानों के मार्गदर्शन में राज्य चलाना। राजा विद्वानों के बनाए राजा होता है। शिक्षित उसे कहते हैं जो शिक्षा प्राप्त कर अपनी भलाई में लगा हुआ है। विद्वान वह होता है जो बिना नियुक्ति के ही लोकहित का चिंतन करता रहता है। विद्वान यह जानता ही लोककल्याण ही विद्वत्ता का सार है। देवताओं के पूजन से तात्पर्य है  देवताओं के (प्रकृति) प्रकोप से जनता को बचाना। इस दृष्टि से अकाल का सामना करने के लिए अन्न के भण्डार रखना। बारिश नहीं होनेपर भी पानी की कमी न हो ऐसे तालाब, बाँध, कुए, बावड़ियां पर्याप्त मात्रा में बनाना।
      
== लोकतंत्र के लिये अनिवार्य बातें ==
 
== लोकतंत्र के लिये अनिवार्य बातें ==
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