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* अन्याय ही नहीं हो ऐसी शासन व्यवस्था हो। जिस राज्य में माँगने से न्याय मिलता है वह घटिया शासन है। जिस राज्य में झगडने से न्याय मिलता है वह निकम्मा शासन है। माँगने से मिलने वाला न्याय घटिया होता है। झगडकर मिलने वाले न्याय में तो अन्याय होने की ही सम्भावनाएँ रहतीं हैं। झगड कर (मुकदमे चलाकर) मिलने वाला न्याय बलवानों के पक्ष में ही जाता है।  
 
* अन्याय ही नहीं हो ऐसी शासन व्यवस्था हो। जिस राज्य में माँगने से न्याय मिलता है वह घटिया शासन है। जिस राज्य में झगडने से न्याय मिलता है वह निकम्मा शासन है। माँगने से मिलने वाला न्याय घटिया होता है। झगडकर मिलने वाले न्याय में तो अन्याय होने की ही सम्भावनाएँ रहतीं हैं। झगड कर (मुकदमे चलाकर) मिलने वाला न्याय बलवानों के पक्ष में ही जाता है।  
 
* लोकतंत्र की मर्यादाएं और दोषों को समझना। सर्वसहमति का लोकतंत्र ही भारतीय लोकतंत्र है। लोकतंत्रात्मक शासन व्यवस्था नहीं सुशासन - जिससे “सर्वे भवन्तु सुखिन: साध्य होगा” वह लक्ष्य हो।  
 
* लोकतंत्र की मर्यादाएं और दोषों को समझना। सर्वसहमति का लोकतंत्र ही भारतीय लोकतंत्र है। लोकतंत्रात्मक शासन व्यवस्था नहीं सुशासन - जिससे “सर्वे भवन्तु सुखिन: साध्य होगा” वह लक्ष्य हो।  
* भारतीय शासन व्यवस्था में किसी अधिकारी के दायरे में अपराध होने से वह व्यक्ति अपराधी माना जाता था। किसी अधिकारी के क्षेत्र में आनेवाले किसी के घर में चोरी हुए माल को वह अधिकारी यदि ढूण्ढने में असफल हो जाता था तो जिसका नुकसान हुवा है उस की नुकसान भरपाई उस अधिकारी को करनी पडती थी।  
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* भारतीय शासन व्यवस्था में किसी अधिकारी के दायरे में अपराध होने से वह व्यक्ति अपराधी माना जाता था। किसी अधिकारी के क्षेत्र में आनेवाले किसी के घर में चोरी हुए माल को वह अधिकारी यदि ढूण्ढने में असफल हो जाता था तो जिसका नुकसान हुआ है उस की नुकसान भरपाई उस अधिकारी को करनी पडती थी।  
    
== राज्य की आवश्यकता - भारतीय दृष्टि ==
 
== राज्य की आवश्यकता - भारतीय दृष्टि ==
मनुष्य यह जन्म से तो प्राणी ही होता है। जो प्राणिक आवेगों के स्तरपर जीता है उसे प्राणी कहते हैं। प्राणिक स्तर पर व्यवहार करना इस का अर्थ है आहार, निद्रा, भय और मैथुन इन प्राणिक आवेगों के अधीन रहकर कम करना। सामान्यत: पशू, पक्षी और प्राणीयों के आवेग अनियंत्रित ही होते हैं। ऐसे प्राणिक आवेग की स्थिति में वह केवल अपने आवेग की पूर्ति के विषय में ही सोचता है। लेकिन पशुओं में भी आवेगों की पूर्ति के उपरांत पशु उस आवेग को कुछ काल के लिये भूल जाता है। यानी जब तक फिर उसे उस आवेग का दौर नहीं पडता तब तक भूल जाता है। भूख मिट जाने के उपरांत वह सामने कितना भी ताजा, सहज प्राप्त अन्न मिलने पर भी उस की वासना नहीं रखता।  
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मनुष्य जन्म से तो प्राणी ही होता है। जो प्राणिक आवेगों के स्तर पर जीता है, उसे प्राणी कहते हैं। प्राणिक स्तर पर व्यवहार करना इस का अर्थ है आहार, निद्रा, भय और मैथुन इन प्राणिक आवेगों के अधीन रहकर काम करना। सामान्यत: पशू, पक्षी और प्राणियों के आवेग अनियंत्रित ही होते हैं। ऐसे प्राणिक आवेग की स्थिति में वह केवल अपने आवेग की पूर्ति के विषय में ही सोचता है। लेकिन पशुओं में भी आवेगों की पूर्ति के उपरांत पशु उस आवेग को कुछ काल के लिये भूल जाता है। यानी जब तक फिर उसे उस आवेग का दौर नहीं पडता तब तक भूल जाता है। भूख मिट जाने के उपरांत वह सामने कितना भी ताजा, सहज प्राप्त अन्न मिलने पर भी उस की वासना नहीं रखता।  
किंतु मनुष्य का ऐसा नहीं है। वह पशु से अधिक बुद्धि रखता है। विचार करने वाला मन रखता है। इस लिये वह प्राणिक आवेगों की पूर्ति की व्यवस्था निरंतर बनीं रहे इस का प्रयास करता है। पशु जैसा ही अपने आवेगों की पूर्ति में आने वाले किसी अवरोध को पसंद नहीं करता। बुद्धि के कारण वह अपने मृत्यू के या अभाव के 'भय' के आवेग से बचने के लिये आवेगों की पूर्ति होती रहे इस की व्यवस्था करता है। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हो, यहाँ तक अपने विषय में जैसे पशु सोचता है वैसा सोचना यह तो मनुष्य के लिये भी स्वाभाविक ही है। किंतु जब वह आवश्यकताओं से अधिक का संचय और अन्यों की आवश्यकताओं पर अतिक्रमण करता है तो वह विरोध, संघर्ष आदि निर्माण करता है। इस तरह अपने काम यानी इच्छाओं के और मोह के प्रभाव में जब वह होता है तो समाज की शांति का भंग होता है। जब समाज में जिनका काम और मोह नियंत्रण में नहीं है ऐसे लोगों की बहुलता हो जाती है तो समाज में अराजक हो गया माना जाता है। काम और मोह ये मन की भावनाएँ होतीं हैं। काम और मोह को नियंत्रण में रखना सिखाने को ही 'शिक्षा' कहते हैं।  
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स्वहित या स्वार्थ साधने के लिए स्वतन्त्रता आवश्यक होती है। काम और मोह अनियंत्रित हो जाने के कारण मनुष्य अपनी स्वतन्त्रता के लिए अन्यों के हित का हनन करने लग जाता है। इससे समाज नष्ट न हो इस हेतु से सदाचार सिखाया जाता है। सदाचार के लिए सहानुभूति आवश्यक होती है। सहानुभूति का अर्थ है अन्यों की स्वतन्त्रता की रक्षा करना। मनुष्य न केवल स्वतन्त्रता से और न ही केवल सदाचार से जी सकता है। इसलिए व्यवस्था की आवश्यकता होती है। इसलिए व्यवस्था यह धर्म अनुपालन का साधन है।  
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किंतु मनुष्य का ऐसा नहीं है। वह पशु से अधिक बुद्धि रखता है। विचार करने वाला मन रखता है। इस लिये वह प्रयास करता है कि प्राणिक आवेगों की पूर्ति की व्यवस्था निरंतर बनीं रहे। पशु जैसा ही मनुष्य भी अपने आवेगों की पूर्ति में आने वाले किसी अवरोध को पसंद नहीं करता। बुद्धि के कारण वह अपने मृत्यू के या अभाव के 'भय' के आवेग से बचने के लिये आवेगों की पूर्ति होती रहे इस की व्यवस्था करता है। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हो, यहाँ तक अपने विषय में जैसे पशु सोचता है वैसा सोचना यह तो मनुष्य के लिये भी स्वाभाविक ही है। किंतु जब वह आवश्यकताओं से अधिक का संचय और अन्यों की आवश्यकताओं पर अतिक्रमण करता है तो वह विरोध, संघर्ष आदि निर्माण करता है। इस तरह अपने काम यानी इच्छाओं के और मोह के प्रभाव में जब वह होता है तो समाज की शांति का भंग होता है। जब समाज में जिनका काम और मोह नियंत्रण में नहीं है ऐसे लोगों की बहुलता हो जाती है तो समाज में अराजक हो गया माना जाता है। काम और मोह ये मन की भावनाएँ होतीं हैं। काम और मोह को नियंत्रण में रखना सिखाने को ही 'शिक्षा' कहते हैं।  
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स्वहित या स्वार्थ साधने के लिए स्वतन्त्रता आवश्यक होती है। काम और मोह अनियंत्रित हो जाने के कारण मनुष्य अपनी स्वतन्त्रता के लिए अन्यों के हित का हनन करने लग जाता है। इससे समाज नष्ट न हो इस हेतु से सदाचार सिखाया जाता है। सदाचार के लिए सहानुभूति आवश्यक होती है। सहानुभूति का अर्थ है अन्यों की स्वतन्त्रता की रक्षा करना। मनुष्य न केवल स्वतन्त्रता से और न ही केवल सदाचार से जी सकता है। इसलिए व्यवस्था की आवश्यकता होती है। इसलिए व्यवस्था धर्म अनुपालन का साधन है।
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अराजक दूर करने के लिये 'राज्य' की आवश्यकता होती है। इस लिये राज्य व्यवस्था का कर्तव्य जनता में बढते काम और लोभ को नियंत्रण में रखने का होता है। जिन का काम और मोह नियंत्रण में नहीं है ऐसे बलवान और स्वार्थी लोगों से सज्जन और दुर्बलों को बचाने का होता है।  
 
अराजक दूर करने के लिये 'राज्य' की आवश्यकता होती है। इस लिये राज्य व्यवस्था का कर्तव्य जनता में बढते काम और लोभ को नियंत्रण में रखने का होता है। जिन का काम और मोह नियंत्रण में नहीं है ऐसे बलवान और स्वार्थी लोगों से सज्जन और दुर्बलों को बचाने का होता है।  
अराजक होने का प्रत्यक्ष में शासक होने या नहीं होने से संबंध नहीं है। अराजक होने का संबंध काम और मोह अनियंत्रित होने से है। एक समय था जब सभी लोग धर्माचरण करते थे। महाभारत में शांतिपर्व में बताया है -
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न राज्यं न राजासित न दंडयो न च दांडिक:  ।
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धर्मेणैव प्रजासर्वं रक्षतिस्म परस्परम् ॥
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धर्माचरण करने के कारण वे सभी अपनी सुरक्षा अपने आप करते थे। कहने का तात्पर्य यह है कि वे धर्माचरणी होने के कारण काम और मोह को धर्म के नियंत्रण से बाहर नहीं जाने देते थे। इस कारण अराजक नहीं था। इसीलिये किसी राज्य की या शासक की आवश्यकता ही नहीं थी।
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किंतु मानव के स्खलनशील स्वभाव के कारण धर्माचरण में कमी आई। आबादी भी बढी। आबादी की घनता भी बढी। प्राकृतिक संसाधनों की निकटता की समस्या खडी हो गई। निकट में प्राप्त प्राकृतिक संसाधनों को लेकर लोग झगडने लगे। निकटवाले संसाधन के लिये झगडनेवाले लोगों की कामनाओं और मोह को धर्म के नियंत्रण में रखने के लिये किये हुए शिक्षा के प्रयास भी कम पडने लगे। अराजक की अवस्था निर्माण हो गई। तब समाज का सदैव हितचिंतन करनेवाले विद्वान एकत्रित हुए। उन्होंने मंत्रणा की। और सब मिलकर धर्माचरण करनेवाले, धर्म को स्थापित करने की क्षमता रखनेवाले ऐसे बलवान और क्षात्रतेज से युक्त व्यक्ति के पास गये। उससे उन्होंने अनुरोध किया की वह राजा बने। दण्ड व्यवस्था निर्माण करे। कोई किसीपर भी अन्याय नहीं कर सके ऐसी शासन व्यवस्था निर्माण करे। इस व्यवस्था को चलाने के लिये लोगों से 'कर' ले।
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कुछ राजाओं का कार्यकाल तो ठीक चला किंतु एक राजा मनमानी करने लगा। अधर्माचरण करने लगा। तब विद्वानों के नेतृत्व में प्रजा ने उस का वध कर दिया। अब राजा के राज्याभिषेक के साथ ही यह स्पष्ट कर दिया जाने लगा की राजा की इच्छा या सत्ता सर्वोपरी नहीं है। धर्म ही सर्वोपरी है। राजा के राज्याभिषेक के समय सिंहासनपर आरूढ होने से पहले राजा कहता ‘अदंडयोऽस्मि’ धर्मगुरू या राजपुरोहित धर्मदंड से राजा के सिरपर हल्की चोट देकर कहता था ‘धर्मदंडयोसि’। ऐसा तीन बार दोहराने के बाद यानी धर्मसत्ता के नियंत्रण में रहने को मान्य कर राजा सिंहासनपर बैठने का अधिकारी बनता था।
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अराजक होने का प्रत्यक्ष में शासक होने या नहीं होने से संबंध नहीं है। अराजक होने का संबंध काम और मोह अनियंत्रित होने से है। एक समय था जब सभी लोग धर्माचरण करते थे। महाभारत में शांतिपर्व में बताया है<ref>महाभारत, शांतिपर्व</ref> - <blockquote>न राज्यं न राजासित न दंडयो न च दांडिक: ।</blockquote><blockquote>धर्मेणैव प्रजासर्वं रक्षतिस्म परस्परम् ॥</blockquote>धर्माचरण करने के कारण वे सभी अपनी सुरक्षा अपने आप करते थे। कहने का तात्पर्य यह है कि वे धर्माचरणी होने के कारण काम और मोह को धर्म के नियंत्रण से बाहर नहीं जाने देते थे। इस कारण अराजक नहीं था। इसीलिये किसी राज्य की या शासक की आवश्यकता ही नहीं थी।
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किंतु मानव के स्खलनशील स्वभाव के कारण धर्माचरण में कमी आई। आबादी भी बढी। आबादी की घनता भी बढी। प्राकृतिक संसाधनों की निकटता की समस्या खडी हो गई। निकट में प्राप्त प्राकृतिक संसाधनों को लेकर लोग झगडने लगे। निकटवाले संसाधन के लिये झगडने वाले लोगों की कामनाओं और मोह को धर्म के नियंत्रण में रखने के लिये किये हुए शिक्षा के प्रयास भी कम पडने लगे। अराजक की अवस्था निर्माण हो गई। तब समाज का सदैव हितचिंतन करनेवाले विद्वान एकत्रित हुए। उन्होंने मंत्रणा की। और सब मिलकर धर्माचरण करनेवाले, धर्म को स्थापित करने की क्षमता रखनेवाले ऐसे बलवान और क्षात्रतेज से युक्त व्यक्ति के पास गये। उससे उन्होंने अनुरोध किया कि वह राजा बने। दण्ड व्यवस्था निर्माण करे। कोई किसी पर भी अन्याय नहीं कर सके ऐसी शासन व्यवस्था निर्माण करे। इस व्यवस्था को चलाने के लिये लोगों से 'कर' ले।
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कुछ राजाओं का कार्यकाल तो ठीक चला किंतु एक राजा मनमानी करने लगा। अधर्माचरण करने लगा। तब विद्वानों के नेतृत्व में प्रजा ने उस का वध कर दिया। अब राजा के राज्याभिषेक के साथ ही यह स्पष्ट कर दिया जाने लगा की राजा की इच्छा या सत्ता सर्वोपरि नहीं है। धर्म ही सर्वोपरि है। राजा के राज्याभिषेक के समय सिंहासन पर आरूढ होने से पहले राजा कहता ‘अदंडयोऽस्मि’ धर्मगुरू या राजपुरोहित धर्मदंड से राजा के सिर पर हल्की चोट देकर कहता था ‘धर्मदंडयोसि’। ऐसा तीन बार दोहराने के बाद यानी धर्मसत्ता के नियंत्रण में रहने को मान्य कर राजा सिंहासन पर बैठने का अधिकारी बनता था।
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भारतीय सामाजिक व्यवस्थाओं के संबंध में एक और महत्व की बात यह है कि भारतीय समाज में सभी सामाजिक संबंधों का आधार और इसलिये सभी व्यवस्थाओं का आधार भी कौटुम्बिक संबंध ही हुवा करते हैं। गुरू शिष्य का मानसपिता होता है। व्याख्यान सुनने आए हुए लोग केवल ‘लेडीज ऍंड जंटलमेन’ नहीं होते। वे होते हैं ‘मेरे प्रिय भाईयों और बहनों (स्वामी विवेकानंद का शिकागो धर्मपरिषद में संबोधन)’। इस कारण से ही राजाद्वारा शासित जनसमूह को प्रजा (संतान) कहा जाता है। राजा प्रजा का मानसपिता होता है। पालनकर्ता होता है। पोषण और रक्षण का जिम्मेदार होता है। प्रजा दुखी हो तो राजा की नींद हराम होनी चाहिये। प्रजा दुखी होनेपर राजा को सुख की नींद सोने का कोई अधिकार नहीं है ऐसा माना जाता है।
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भारतीय सामाजिक व्यवस्थाओं के संबंध में एक और महत्व की बात यह है कि भारतीय समाज में सभी सामाजिक संबंधों का आधार और इसलिये सभी व्यवस्थाओं का आधार भी कौटुम्बिक संबंध ही हुआ करते हैं। गुरू शिष्य का मानस पिता होता है। व्याख्यान सुनने आए हुए लोग केवल ‘लेडीज ऍंड जंटलमेन’ नहीं होते। वे होते हैं ‘मेरे प्रिय भाईयों और बहनों<ref>स्वामी विवेकानंद का शिकागो धर्मपरिषद में संबोधन</ref> (स्वामी विवेकानंद का शिकागो धर्मपरिषद में संबोधन)’। इस कारण से ही राजा द्वारा शासित जनसमूह को प्रजा (संतान) कहा जाता है। राजा प्रजा का मानस पिता होता है। पालनकर्ता होता है। पोषण और रक्षण का जिम्मेदार होता है। प्रजा दुखी हो तो राजा की नींद हराम होनी चाहिये। प्रजा दुखी होने पर राजा को सुख की नींद सोने का कोई अधिकार नहीं है ऐसा माना जाता है।
    
== राजा और प्रजा संबंधी भारतीय मान्यताएँ ==
 
== राजा और प्रजा संबंधी भारतीय मान्यताएँ ==
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३. मतदाता का 'मत' कई कारणों से प्रभावित होता है। चुनाव लड रहे हर प्रत्याशी की अंदर बाहर से जानकारी नहीं होने से, जिस पद के लिये चुनाव हो रहे हैं उस पद की जिम्मेदारियाँ क्या हैं इस की जानकारी नहीं होने से, और उपर्युक्त लोकतंत्र के लिये अनिवार्य बातों में से कुछ बातों के अनुपोस्थित होने से यह हो सकता है। एॅसी परिस्थिति में मतदाता ने किया मतदान सटीक नहीं रह सकता।
 
३. मतदाता का 'मत' कई कारणों से प्रभावित होता है। चुनाव लड रहे हर प्रत्याशी की अंदर बाहर से जानकारी नहीं होने से, जिस पद के लिये चुनाव हो रहे हैं उस पद की जिम्मेदारियाँ क्या हैं इस की जानकारी नहीं होने से, और उपर्युक्त लोकतंत्र के लिये अनिवार्य बातों में से कुछ बातों के अनुपोस्थित होने से यह हो सकता है। एॅसी परिस्थिति में मतदाता ने किया मतदान सटीक नहीं रह सकता।
 
४. जिस प्रकार से मतदाता की अर्हता महत्वपूर्ण है उसी प्रकार से प्रत्याशी की अर्हता तो उस से भी अधिक महत्व रखती है। किंतु इस विषय में भी जिस पद के लिये वह चुनाव लड रहा है उस दृष्टि से प्रत्याशी के संस्कार, लालन-पालन, उसकी शिक्षा और प्रशिक्षण इन बातों की कोई शर्त नहीं होती।
 
४. जिस प्रकार से मतदाता की अर्हता महत्वपूर्ण है उसी प्रकार से प्रत्याशी की अर्हता तो उस से भी अधिक महत्व रखती है। किंतु इस विषय में भी जिस पद के लिये वह चुनाव लड रहा है उस दृष्टि से प्रत्याशी के संस्कार, लालन-पालन, उसकी शिक्षा और प्रशिक्षण इन बातों की कोई शर्त नहीं होती।
५. मतदान कभी भी १०० प्रतिशत नहीं होता। जो होता है उसी में अधिकतम मत जिसे मिलते हैं वह चुनाव जीत जाता है। विभिन्न कारणों से कई बार मतदान ४० प्रतिशत से भी कम होता है। ऐसी स्थिति में या अधिक प्रत्याशी संख्या होने पर मात्र २० प्रतिशत मत पाने वाला प्रत्याशी भी चुनाव जीत जाता है। स्वाधीनता के बाद के चुनाव में काँग्रेस ने संसद और विधानसभा की मिलाकर देशभर में ७२ प्रतिशत बैठकें जीतीं थीं। किंतु कुल बालिग मतदान का प्रत्यक्ष पेटी में प्राप्त हुवा मतदान मात्र २३ प्रतिशत ही था। इस २३ प्रतिशत में भी काँग्रेस को केवल ४५ प्रतिशत मत ही प्राप्त हुए थे। इसका अर्थ यह है कि कुल मतों में से केवल १०.३५ प्रतिशत मत पाने से काँग्रेस को पाशवी (ब्रूटल) बहुमत प्राप्त हो गया था।
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५. मतदान कभी भी १०० प्रतिशत नहीं होता। जो होता है उसी में अधिकतम मत जिसे मिलते हैं वह चुनाव जीत जाता है। विभिन्न कारणों से कई बार मतदान ४० प्रतिशत से भी कम होता है। ऐसी स्थिति में या अधिक प्रत्याशी संख्या होने पर मात्र २० प्रतिशत मत पाने वाला प्रत्याशी भी चुनाव जीत जाता है। स्वाधीनता के बाद के चुनाव में काँग्रेस ने संसद और विधानसभा की मिलाकर देशभर में ७२ प्रतिशत बैठकें जीतीं थीं। किंतु कुल बालिग मतदान का प्रत्यक्ष पेटी में प्राप्त हुआ मतदान मात्र २३ प्रतिशत ही था। इस २३ प्रतिशत में भी काँग्रेस को केवल ४५ प्रतिशत मत ही प्राप्त हुए थे। इसका अर्थ यह है कि कुल मतों में से केवल १०.३५ प्रतिशत मत पाने से काँग्रेस को पाशवी (ब्रूटल) बहुमत प्राप्त हो गया था।
 
६. चुनाव का व्यय इतना अधिक होता है कि सामान्य माली हालत वाला व्यक्ति चुनाव लडने का व्यय वहन नहीं कर सकता। फिर वह विविध प्रकार के हथकण्डे अपनाकर धन की व्यवस्था करता है। जब चुन कर आ जाता है तो जिन से उसने धन लिया है वे अपने दिये धन से कई गुना लाभ उससे प्राप्त करते हैं। इस से भ्रष्टाचार को बढावा मिलता है। कई बार तो लोग गुण्डों की मदद लेते हैं। विदेशी शक्तियों की मदद लेने वाले भी कई लोग होते हैं। ऐसे लोग चुन कर आने के बाद उन गुण्डों के लिये या विदेशी शक्तियों के लिये काम करते हैं।
 
६. चुनाव का व्यय इतना अधिक होता है कि सामान्य माली हालत वाला व्यक्ति चुनाव लडने का व्यय वहन नहीं कर सकता। फिर वह विविध प्रकार के हथकण्डे अपनाकर धन की व्यवस्था करता है। जब चुन कर आ जाता है तो जिन से उसने धन लिया है वे अपने दिये धन से कई गुना लाभ उससे प्राप्त करते हैं। इस से भ्रष्टाचार को बढावा मिलता है। कई बार तो लोग गुण्डों की मदद लेते हैं। विदेशी शक्तियों की मदद लेने वाले भी कई लोग होते हैं। ऐसे लोग चुन कर आने के बाद उन गुण्डों के लिये या विदेशी शक्तियों के लिये काम करते हैं।
७. वास्तव में अल्पमत और बहुमत वाला लोकतंत्र तो सीधा ' सर्व्हायव्हल ऑफ द फिटेस्ट यानी बलवानों को ही जीने का अधिकार है' इस सूत्र के आधार पर ही बनाया हुवा तंत्र है। जब आप बहुमत में आ जाते हैं यानी बलवान हो जाते हैं तब आप की इच्छा के अनुसार अल्पमत वालों को चलना पडेगा।
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७. वास्तव में अल्पमत और बहुमत वाला लोकतंत्र तो सीधा ' सर्व्हायव्हल ऑफ द फिटेस्ट यानी बलवानों को ही जीने का अधिकार है' इस सूत्र के आधार पर ही बनाया हुआ तंत्र है। जब आप बहुमत में आ जाते हैं यानी बलवान हो जाते हैं तब आप की इच्छा के अनुसार अल्पमत वालों को चलना पडेगा।
 
८. प्रत्याशी लोगों को क्या आश्वासन दे इस के कोई नियम नहीं बनाये जाते। चाँद तोडकर लाने जैसे झूठे आश्वासन भी वे दे सकते हैं। सामान्यत: सभी प्रत्याशी लोगों के काम (अपेक्षाओं) और मोह को बढाने वाले आश्वासन ही देते हैं। आश्वासनों की पूर्ति नहीं होने पर समाज में अराजक निर्माण होता है।  
 
८. प्रत्याशी लोगों को क्या आश्वासन दे इस के कोई नियम नहीं बनाये जाते। चाँद तोडकर लाने जैसे झूठे आश्वासन भी वे दे सकते हैं। सामान्यत: सभी प्रत्याशी लोगों के काम (अपेक्षाओं) और मोह को बढाने वाले आश्वासन ही देते हैं। आश्वासनों की पूर्ति नहीं होने पर समाज में अराजक निर्माण होता है।  
 
९. चुन कर आने के लिये प्रत्याशी का चालाक होना अनिवार्य होता है। बुध्दिमान होना, विवेकी होना इन गुणों से चालाकी को वरीयता मिलती है। चालाक प्रत्याशी लोगों को अच्छी तरह से भ्रमित कर (वास्तव में बेवकूफ बना) सकता है। बार बार भ्रमित कर सकता है।
 
९. चुन कर आने के लिये प्रत्याशी का चालाक होना अनिवार्य होता है। बुध्दिमान होना, विवेकी होना इन गुणों से चालाकी को वरीयता मिलती है। चालाक प्रत्याशी लोगों को अच्छी तरह से भ्रमित कर (वास्तव में बेवकूफ बना) सकता है। बार बार भ्रमित कर सकता है।
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