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शासन दृष्टि  
 
शासन दृष्टि  
 
समाज के व्यवहार सुख शांति, समाधान से चलें, समाज और समाज के विभिन्न घटक जीवन के अपने अपने लक्ष्य की प्राप्ति में अग्रसर हो सकें, समाज में अन्याय नहीं हों, सज्जनों को सुरक्षा मिले, दुष्टों को नियंत्रण में रखा जाये इसलिये शासन व्यवस्था होती है। यही शासन व्यवस्था के निर्माण का उद्देश्य होना चाहिये ऐसा सामान्य लोगों को लगता है। यह स्वाभाविक भी है। किंतु इस के लिये व्यवस्था कैसी हो, उस व्यवस्था को चलाने का काम कौन करेगा आदि तय करना यह सामान्य लोगों का काम नहीं है।
 
समाज के व्यवहार सुख शांति, समाधान से चलें, समाज और समाज के विभिन्न घटक जीवन के अपने अपने लक्ष्य की प्राप्ति में अग्रसर हो सकें, समाज में अन्याय नहीं हों, सज्जनों को सुरक्षा मिले, दुष्टों को नियंत्रण में रखा जाये इसलिये शासन व्यवस्था होती है। यही शासन व्यवस्था के निर्माण का उद्देश्य होना चाहिये ऐसा सामान्य लोगों को लगता है। यह स्वाभाविक भी है। किंतु इस के लिये व्यवस्था कैसी हो, उस व्यवस्था को चलाने का काम कौन करेगा आदि तय करना यह सामान्य लोगों का काम नहीं है।
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धर्माचरण करने के कारण वे सभी अपनी सुरक्षा अपने आप करते थे। कहने का तात्पर्य यह है कि वे धर्माचरणी होने के कारण काम और मोह को धर्म के नियंत्रण से बाहर नहीं जाने देते थे। इस कारण अराजक नहीं था। इसीलिये किसी राज्य की या शासक की आवश्यकता ही नहीं थी।
 
धर्माचरण करने के कारण वे सभी अपनी सुरक्षा अपने आप करते थे। कहने का तात्पर्य यह है कि वे धर्माचरणी होने के कारण काम और मोह को धर्म के नियंत्रण से बाहर नहीं जाने देते थे। इस कारण अराजक नहीं था। इसीलिये किसी राज्य की या शासक की आवश्यकता ही नहीं थी।
 
किंतु मानव के स्खलनशील स्वभाव के कारण धर्माचरण में कमी आई। आबादी भी बढी। आबादी की घनता भी बढी। प्राकृतिक संसाधनों की निकटता की समस्या खडी हो गई। निकट में प्राप्त प्राकृतिक संसाधनों को लेकर लोग झगडने लगे। निकटवाले संसाधन के लिये झगडनेवाले लोगों की कामनाओं और मोह को धर्म के नियंत्रण में रखने के लिये किये हुए शिक्षा के प्रयास भी कम पडने लगे। अराजक की अवस्था निर्माण हो गई। तब समाज का सदैव हितचिंतन करनेवाले विद्वान एकत्रित हुए। उन्होंने मंत्रणा की। और सब मिलकर धर्माचरण करनेवाले, धर्म को स्थापित करने की क्षमता रखनेवाले ऐसे बलवान और क्षात्रतेज से युक्त व्यक्ति के पास गये। उससे उन्होंने अनुरोध किया की वह राजा बने। दण्ड व्यवस्था निर्माण करे। कोई किसीपर भी अन्याय नहीं कर सके ऐसी शासन व्यवस्था निर्माण करे। इस व्यवस्था को चलाने के लिये लोगों से 'कर' ले।  
 
किंतु मानव के स्खलनशील स्वभाव के कारण धर्माचरण में कमी आई। आबादी भी बढी। आबादी की घनता भी बढी। प्राकृतिक संसाधनों की निकटता की समस्या खडी हो गई। निकट में प्राप्त प्राकृतिक संसाधनों को लेकर लोग झगडने लगे। निकटवाले संसाधन के लिये झगडनेवाले लोगों की कामनाओं और मोह को धर्म के नियंत्रण में रखने के लिये किये हुए शिक्षा के प्रयास भी कम पडने लगे। अराजक की अवस्था निर्माण हो गई। तब समाज का सदैव हितचिंतन करनेवाले विद्वान एकत्रित हुए। उन्होंने मंत्रणा की। और सब मिलकर धर्माचरण करनेवाले, धर्म को स्थापित करने की क्षमता रखनेवाले ऐसे बलवान और क्षात्रतेज से युक्त व्यक्ति के पास गये। उससे उन्होंने अनुरोध किया की वह राजा बने। दण्ड व्यवस्था निर्माण करे। कोई किसीपर भी अन्याय नहीं कर सके ऐसी शासन व्यवस्था निर्माण करे। इस व्यवस्था को चलाने के लिये लोगों से 'कर' ले।  
कुछ राजाओं का कार्यकाल तो ठीक चला किंतु एक राजा मनमानी करने लगा। अधर्माचरण करने लगा। तब विद्वानों के नेतृत्व में प्रजा ने उस का वध कर दिया। अब राजा के राज्याभिषेक के साथ ही यह स्पष्ट कर दिया जाने लगा की राजा की इच्छा या सत्ता सर्वोपरी नहीं है। धर्म ही सर्वोपरी है। राजा के राज्याभिषेक के समय सिंहासनपर आरूढ होने से पहले राजा कहता ‘अदंडयोऽस्मि’ धर्मगुरू या राजपुरोहित धर्मदंड से राजा के सिरपर हल्की चोट देकर कहता था ‘धर्मदंडयोसि’। ऐसा तीन बार दोहराने के बाद यानी धर्मसत्ता के नियंत्रण में रहने को मान्य कर राजा सिंहासनपर बैठने का अधिकारी बनता था।
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भारतीय सामाजिक व्यवस्थाओं के संबंध में एक और महत्व की बात यह है कि भारतीय समाज में सभी सामाजिक संबंधों का आधार और इसलिये सभी व्यवस्थाओं का आधार भी कौटुम्बिक संबंध ही हुवा करते हैं। गुरू शिष्य का मानसपिता होता है। व्याख्यान सुनने आए हुए लोग केवल ‘लेडीज ऍंड जंटलमेन’ नहीं होते। वे होते हैं ‘मेरे प्रिय भाईयों और बहनों (स्वामी विवेकानंद का शिकागो धर्मपरिषद में संबोधन)’। इस कारण से ही राजाद्वारा शासित जनसमूह को प्रजा (संतान) कहा जाता है। राजा प्रजा का मानसपिता होता है। पालनकर्ता होता है। पोषण और रक्षण का जिम्मेदार होता है। प्रजा दुखी हो तो राजा की नींद हराम होनी चाहिये। प्रजा दुखी होनेपर राजा को सुख की नींद सोने का कोई अधिकार नहीं है ऐसा माना जाता है।
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कुछ राजाओं का कार्यकाल तो ठीक चला किंतु एक राजा मनमानी करने लगा। अधर्माचरण करने लगा। तब विद्वानों के नेतृत्व में प्रजा ने उस का वध कर दिया। अब राजा के राज्याभिषेक के साथ ही यह स्पष्ट कर दिया जाने लगा की राजा की इच्छा या सत्ता सर्वोपरी नहीं है। धर्म ही सर्वोपरी है। राजा के राज्याभिषेक के समय सिंहासनपर आरूढ होने से पहले राजा कहता ‘अदंडयोऽस्मि’ धर्मगुरू या राजपुरोहित धर्मदंड से राजा के सिरपर हल्की चोट देकर कहता था ‘धर्मदंडयोसि’। ऐसा तीन बार दोहराने के बाद यानी धर्मसत्ता के नियंत्रण में रहने को मान्य कर राजा सिंहासनपर बैठने का अधिकारी बनता था।
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भारतीय सामाजिक व्यवस्थाओं के संबंध में एक और महत्व की बात यह है कि भारतीय समाज में सभी सामाजिक संबंधों का आधार और इसलिये सभी व्यवस्थाओं का आधार भी कौटुम्बिक संबंध ही हुवा करते हैं। गुरू शिष्य का मानसपिता होता है। व्याख्यान सुनने आए हुए लोग केवल ‘लेडीज ऍंड जंटलमेन’ नहीं होते। वे होते हैं ‘मेरे प्रिय भाईयों और बहनों (स्वामी विवेकानंद का शिकागो धर्मपरिषद में संबोधन)’। इस कारण से ही राजाद्वारा शासित जनसमूह को प्रजा (संतान) कहा जाता है। राजा प्रजा का मानसपिता होता है। पालनकर्ता होता है। पोषण और रक्षण का जिम्मेदार होता है। प्रजा दुखी हो तो राजा की नींद हराम होनी चाहिये। प्रजा दुखी होनेपर राजा को सुख की नींद सोने का कोई अधिकार नहीं है ऐसा माना जाता है।
 
राजा और प्रजा संबंधी भारतीय मान्यताएँ
 
राजा और प्रजा संबंधी भारतीय मान्यताएँ
 
भारतीय सोच में राजा और प्रजा के संबंध में कई स्वस्थ मान्यताएँ स्थापित थीं। वे निम्न हैं।
 
भारतीय सोच में राजा और प्रजा के संबंध में कई स्वस्थ मान्यताएँ स्थापित थीं। वे निम्न हैं।
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६. राजा कालस्य कारणम् : जिस प्रकार का राजा होगा वैसी परिस्थितियाँ बनतीं जातीं हैं। अच्छे राजा के काल में प्रजा को सुख-शांति प्राप्त होगी और बुरे राजा के काल में प्रजा का सुख चैन छिन जायेगा।
 
६. राजा कालस्य कारणम् : जिस प्रकार का राजा होगा वैसी परिस्थितियाँ बनतीं जातीं हैं। अच्छे राजा के काल में प्रजा को सुख-शांति प्राप्त होगी और बुरे राजा के काल में प्रजा का सुख चैन छिन जायेगा।
 
७. महर्षि व्यास कहते हैं –
 
७. महर्षि व्यास कहते हैं –
आदावेव कुरुश्रेष्ठ राजा रंजन काम्यया | दैवतानां द्विजानां च वर्तितव्यं यथा विधिम् || देवितान्यर्चयित्वा हि ब्राह्मणाश्च कुरुद्वः, | आनृष्यं याति धर्मस्य लोकेन च समर्च्यते ||
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आदावेव कुरुश्रेष्ठ राजा रंजन काम्यया | दैवतानां द्विजानां च वर्तितव्यं यथा विधिम् || देवितान्यर्चयित्वा हि ब्राह्मणाश्च कुरुद्वः, | आनृष्यं याति धर्मस्य लोकेन च समर्च्यते ||
 
भावार्थ : प्रजारंजन के दो कार्य हैं| विद्वानों का पूजन और देवताओं का पूजन| विद्वानों के पूजन से तात्पर्य है विद्वानों के मार्गदर्शन में राज्य चलाना| राजा विद्वानों के बनाए राजा होता है| शिक्षित उसे कहते हैं जो शिक्षा प्राप्त कर अपनी भलाई में लगा हुआ है| विद्वान वह होता है जो बिना नियुक्ति के ही लोकहित का चिंतन करता रहता है| विद्वान यह जानता ही लोककल्याण ही विद्वत्ता का सार है| देवताओं के पूजन से तात्पर्य है  देवताओं के (प्रकृति) प्रकोप से जनता को बचाना| इस दृष्टी से अकाल का सामना करने के लिए अन्न के भण्डार रखना| बारिश नहीं होनेपर भी पानी की कमी न हो ऐसे तालाब, बाँध, कुए, बावड़ियां पर्याप्त मात्रा में बनाना|
 
भावार्थ : प्रजारंजन के दो कार्य हैं| विद्वानों का पूजन और देवताओं का पूजन| विद्वानों के पूजन से तात्पर्य है विद्वानों के मार्गदर्शन में राज्य चलाना| राजा विद्वानों के बनाए राजा होता है| शिक्षित उसे कहते हैं जो शिक्षा प्राप्त कर अपनी भलाई में लगा हुआ है| विद्वान वह होता है जो बिना नियुक्ति के ही लोकहित का चिंतन करता रहता है| विद्वान यह जानता ही लोककल्याण ही विद्वत्ता का सार है| देवताओं के पूजन से तात्पर्य है  देवताओं के (प्रकृति) प्रकोप से जनता को बचाना| इस दृष्टी से अकाल का सामना करने के लिए अन्न के भण्डार रखना| बारिश नहीं होनेपर भी पानी की कमी न हो ऐसे तालाब, बाँध, कुए, बावड़ियां पर्याप्त मात्रा में बनाना|
 
लोकतंत्र के लिये अनिवार्य बातें
 
लोकतंत्र के लिये अनिवार्य बातें
अच्छे लोकतंत्र के अच्छी तरह चलने के लिये कुछ बातें अनिवार्य होती हैं। वे निम्न हैं।
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अच्छे लोकतंत्र के अच्छी तरह चलने के लिये कुछ बातें अनिवार्य होती हैं। वे निम्न हैं।
 
१.  लोग स्वतंत्र हों : स्वतंत्र होने का अर्थ है लोग अपनी इच्छा के अनुसार जिस किसी प्रतिनिधि का चयन करना चाहते हैं उसका चयन कर सकें। यह तब होता है जब लोग आत्मनिर्भर या स्वावलंबी भी होते हैं।  
 
१.  लोग स्वतंत्र हों : स्वतंत्र होने का अर्थ है लोग अपनी इच्छा के अनुसार जिस किसी प्रतिनिधि का चयन करना चाहते हैं उसका चयन कर सकें। यह तब होता है जब लोग आत्मनिर्भर या स्वावलंबी भी होते हैं।  
 
२.  लोग शिक्षित हों : लोग जब पढे-लिखे होंगे तो उनकी चुनाव लड रहे सभी प्रत्याशियों के बारे में जानकारी प्राप्त कर सकने की संभावनाएँ बढतीं हैं। अनपढ तो चुनाव में धूर्तोंद्वारा कई तरह से बेवकूफ बनाया जा    सकता है।
 
२.  लोग शिक्षित हों : लोग जब पढे-लिखे होंगे तो उनकी चुनाव लड रहे सभी प्रत्याशियों के बारे में जानकारी प्राप्त कर सकने की संभावनाएँ बढतीं हैं। अनपढ तो चुनाव में धूर्तोंद्वारा कई तरह से बेवकूफ बनाया जा    सकता है।
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