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<li>इसीलिये ब्राह्मण वर्ण को सर्वोच्च जिम्मेदारी के अनुसार सर्वोच्च प्रतिष्ठा और क्षत्रिय को दूसरे क्रमांक की प्रातिष्ठा समाज में प्राप्त होनी चाहिये। इन स्वतंत्रताओं की प्राप्ति ही सामाजिक दृष्टि से मानव का लक्ष्य है । ऐसा देशिक शास्त्र का कहना है। श्रीमद्भगवद्गीता कर्म का महत्व विषद करती है। श्रीमद्भगवद्गीता कहती है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने ‘स्वभावज’ कर्म अनिवार्यता से करने चाहिये। स्वभावज का अर्थ है जन्म से ही जैसा स्वभाव है उस के अनुरूप। श्रीमद्भगवद्गीता में शब्दप्रयोग हैं: ब्रह्मकर्मस्वभावजम्, वैश्यकर्मस्वभावजम् आदि। साथ में यह भी कहा है कि अपने वर्ण का काम भले ही अच्छा नहीं लगता हो तब भी वही करना चाहिये। सामान्य मानव को तो इसी तरह व्यवहार करना चाहिये।
 
<li>इसीलिये ब्राह्मण वर्ण को सर्वोच्च जिम्मेदारी के अनुसार सर्वोच्च प्रतिष्ठा और क्षत्रिय को दूसरे क्रमांक की प्रातिष्ठा समाज में प्राप्त होनी चाहिये। इन स्वतंत्रताओं की प्राप्ति ही सामाजिक दृष्टि से मानव का लक्ष्य है । ऐसा देशिक शास्त्र का कहना है। श्रीमद्भगवद्गीता कर्म का महत्व विषद करती है। श्रीमद्भगवद्गीता कहती है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने ‘स्वभावज’ कर्म अनिवार्यता से करने चाहिये। स्वभावज का अर्थ है जन्म से ही जैसा स्वभाव है उस के अनुरूप। श्रीमद्भगवद्गीता में शब्दप्रयोग हैं: ब्रह्मकर्मस्वभावजम्, वैश्यकर्मस्वभावजम् आदि। साथ में यह भी कहा है कि अपने वर्ण का काम भले ही अच्छा नहीं लगता हो तब भी वही करना चाहिये। सामान्य मानव को तो इसी तरह व्यवहार करना चाहिये।
* जो प्रतिभावान हैं उन्हें शायद सामान्य नियम नहीं लगाये जाते। जैसे गुरू के बिना भवसागर तर नहीं सकते ऐसा कहते हैं। लेकिन जो विशेष प्रतिभावान हैं उन्हें यह बात अनिवार्य नहीं है। वे तो आप ही बिना गुरू के मोक्षगामी हो सकते हैं। वर्णों में परस्पर पूरकता और परस्पर अनुकूलता होती है। इसीलिये वेद कहते हैं कि चारों वर्ण एक शरीर के चार अंगों के समान हैं। जब ज्ञान का विषय होगा, स्वाभाविक स्ववतंत्रता की रक्षा का विषय होगा तो ब्राह्मण का, जब सुरक्षा का प्रश्न होगा,शासनिक स्वतंत्रता की रक्षा का विषय होगा तब क्षत्रिय का, जब उदरभरण का, आर्थिक स्वतंत्रता की रक्षा का विषय होगा तो वैश्य का और जब कला, कारीगरी, परिचर्या, मनोरंजन आदि का विषय होगा तो शूद्र का महत्व होगा।
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* जो प्रतिभावान हैं उन्हें संभवतः सामान्य नियम नहीं लगाये जाते। जैसे गुरू के बिना भवसागर तर नहीं सकते ऐसा कहते हैं। लेकिन जो विशेष प्रतिभावान हैं उन्हें यह बात अनिवार्य नहीं है। वे तो आप ही बिना गुरू के मोक्षगामी हो सकते हैं। वर्णों में परस्पर पूरकता और परस्पर अनुकूलता होती है। इसीलिये वेद कहते हैं कि चारों वर्ण एक शरीर के चार अंगों के समान हैं। जब ज्ञान का विषय होगा, स्वाभाविक स्ववतंत्रता की रक्षा का विषय होगा तो ब्राह्मण का, जब सुरक्षा का प्रश्न होगा,शासनिक स्वतंत्रता की रक्षा का विषय होगा तब क्षत्रिय का, जब उदरभरण का, आर्थिक स्वतंत्रता की रक्षा का विषय होगा तो वैश्य का और जब कला, कारीगरी, परिचर्या, मनोरंजन आदि का विषय होगा तो शूद्र का महत्व होगा।
 
* श्रेष्ठ और हीन का विवेक समझाने का, अभ्युदय के साथ नि:श्रेयस की प्राप्ति का मार्गदर्शन करने का काम ब्राह्मण का होने से वह समाज का शिक्षक बन जाता है। स्वाभाविक स्वतंत्रता में शासनिक स्वतंत्रता और आर्थिक स्वतंत्रता दोनों का समावेश होता है। पूरे समाज की स्वाभाविक स्वतंत्रता की रक्षा का दायित्व उठाने के कारण शिक्षक सर्वोच्च आदर प्राप्ति का अधिकारी होता है। मोक्ष - इस परम लक्ष्य के कारण शिक्षक या गुरू का सम्मान सबसे अधिक होना उचित ही है।
 
* श्रेष्ठ और हीन का विवेक समझाने का, अभ्युदय के साथ नि:श्रेयस की प्राप्ति का मार्गदर्शन करने का काम ब्राह्मण का होने से वह समाज का शिक्षक बन जाता है। स्वाभाविक स्वतंत्रता में शासनिक स्वतंत्रता और आर्थिक स्वतंत्रता दोनों का समावेश होता है। पूरे समाज की स्वाभाविक स्वतंत्रता की रक्षा का दायित्व उठाने के कारण शिक्षक सर्वोच्च आदर प्राप्ति का अधिकारी होता है। मोक्ष - इस परम लक्ष्य के कारण शिक्षक या गुरू का सम्मान सबसे अधिक होना उचित ही है।
 
* दूसरे क्रमांक पर शासनिक स्वतंत्रता याने सुरक्षा का विषय आता है। शासनिक स्वतंत्रता की जिम्मेदारी लेने के कारण शासक या क्षत्रिय वर्ग का सम्मान होना भी स्वाभाविक ही है। किंतु अपने वर्ण के अनुसार व्यवहार नहीं करना और अपने ब्राह्मण या क्षत्रिय होने का दंभ भरना यह समाज के पतन की आश्वस्ति है। ऐसे लोग कठोर दण्ड के अधिकारी हैं।
 
* दूसरे क्रमांक पर शासनिक स्वतंत्रता याने सुरक्षा का विषय आता है। शासनिक स्वतंत्रता की जिम्मेदारी लेने के कारण शासक या क्षत्रिय वर्ग का सम्मान होना भी स्वाभाविक ही है। किंतु अपने वर्ण के अनुसार व्यवहार नहीं करना और अपने ब्राह्मण या क्षत्रिय होने का दंभ भरना यह समाज के पतन की आश्वस्ति है। ऐसे लोग कठोर दण्ड के अधिकारी हैं।
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== पुरूष और स्त्री की विशेषताएं ==
 
== पुरूष और स्त्री की विशेषताएं ==
पुरूष और स्त्री को परमात्मा ने मूलत: ही भिन्न बनाया है। फिर भी यदि ठीक से देखा जाये तो बच्चे को जन्म देना, जो दोनों का साझा काम है, उसे छोडकर दूसरा ऐसा कोई भी काम नहीं है जो स्त्री या पुरूष नहीं कर सकता। किंतु केवल ' कर सकना ' के आधार पर स्त्री और पुरूष दोनों जो काम वर्तमान में स्त्रियाँ करतीं है वही करने लग जाएं तो जीना हराम हो जाएगा। इसीलिये सामान्यत: विभिन्न कामों का स्त्री सुलभ और पुरूष सुलभ कामों में बँटवारा किया जाता है और स्त्री के काम कौन से है और पुरूष के कौन से है यह निश्चय किया जाता है। वैसे तो कई काम ऐसे है जो सीमा रेखा पर होते है। जो स्त्री भी और पुरूष भी सहजता से कर सकते है।
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पुरूष और स्त्री को परमात्मा ने मूलत: ही भिन्न बनाया है। तथापि यदि ठीक से देखा जाये तो बच्चे को जन्म देना, जो दोनों का साझा काम है, उसे छोडकर दूसरा ऐसा कोई भी काम नहीं है जो स्त्री या पुरूष नहीं कर सकता। किंतु केवल ' कर सकना ' के आधार पर स्त्री और पुरूष दोनों जो काम वर्तमान में स्त्रियाँ करतीं है वही करने लग जाएं तो जीना हराम हो जाएगा। इसीलिये सामान्यत: विभिन्न कामों का स्त्री सुलभ और पुरूष सुलभ कामों में बँटवारा किया जाता है और स्त्री के काम कौन से है और पुरूष के कौन से है यह निश्चय किया जाता है। वैसे तो कई काम ऐसे है जो सीमा रेखा पर होते है। जो स्त्री भी और पुरूष भी सहजता से कर सकते है।
    
स्त्री में इस्ट्रोजन और प्रोजेस्टेरॉन नाम के लैंगिक अंत:स्त्राव (हार्मोन) होते है। इन के कारण स्त्री के शरीर और अवयवों की रचना भिन्न और कोमल बनती है। पुरूष में ऍंड्रोजन और टेस्टोस्टेरॉन नाम के स्त्राव (हार्मोन) होते है। इन के कारण पुरूष के शरीर और अवयवों की रचना भिन्न और मजबूत बनती है। वैसे तो स्त्री और पुरूष दोनों में इस्ट्रोजन और टेस्टोस्टेरॉन दोनों हार्मोन होते ही है। लेकिन पुरूष में टेस्टोस्टेरॉन का प्रमाण स्त्री से १५ से २० गुना अधिक होता है। इसी प्रकार से स्त्री के शरीर में २६ प्रतिशत चरबी (फॅट्) और २० प्रतिशत प्रथिन (प्रोटीन) होते है तो पुरूष के शरीर में १५ प्रतिशत चरबी और ४५ प्रतिशत प्रथिन होते है। इन्हीं घटकों के कारण स्त्री और पुरूष में शारीरिक और मानसिक भिन्नता होती है। स्त्री में स्त्रीत्व और पुरूष में पुरूषत्व होता है। स्त्री का स्त्रीत्व और पुरूष का पुरूषत्व तीव्र होने से संतति अधिक तेजस्वी और ओजस्वी बनती है। सामाजिक संस्कारों के माध्यम से स्त्री के स्त्रीत्व को और पुरूष के पुरूषत्व को अधिक तीव्र बनाया जा सकता है। अधिजनन शास्त्र के माध्यम से धार्मिक  परंपराओं में ऐसा बनाया जाता रहा है।
 
स्त्री में इस्ट्रोजन और प्रोजेस्टेरॉन नाम के लैंगिक अंत:स्त्राव (हार्मोन) होते है। इन के कारण स्त्री के शरीर और अवयवों की रचना भिन्न और कोमल बनती है। पुरूष में ऍंड्रोजन और टेस्टोस्टेरॉन नाम के स्त्राव (हार्मोन) होते है। इन के कारण पुरूष के शरीर और अवयवों की रचना भिन्न और मजबूत बनती है। वैसे तो स्त्री और पुरूष दोनों में इस्ट्रोजन और टेस्टोस्टेरॉन दोनों हार्मोन होते ही है। लेकिन पुरूष में टेस्टोस्टेरॉन का प्रमाण स्त्री से १५ से २० गुना अधिक होता है। इसी प्रकार से स्त्री के शरीर में २६ प्रतिशत चरबी (फॅट्) और २० प्रतिशत प्रथिन (प्रोटीन) होते है तो पुरूष के शरीर में १५ प्रतिशत चरबी और ४५ प्रतिशत प्रथिन होते है। इन्हीं घटकों के कारण स्त्री और पुरूष में शारीरिक और मानसिक भिन्नता होती है। स्त्री में स्त्रीत्व और पुरूष में पुरूषत्व होता है। स्त्री का स्त्रीत्व और पुरूष का पुरूषत्व तीव्र होने से संतति अधिक तेजस्वी और ओजस्वी बनती है। सामाजिक संस्कारों के माध्यम से स्त्री के स्त्रीत्व को और पुरूष के पुरूषत्व को अधिक तीव्र बनाया जा सकता है। अधिजनन शास्त्र के माध्यम से धार्मिक  परंपराओं में ऐसा बनाया जाता रहा है।
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[[Category:Dharmik Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान - भाग १)]]
 
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[[Category:Dharmik Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान)]]
 
[[Category:Dharmik Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान)]]
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[[Category:Dharmik Jeevan Pratimaan Paathykram]]

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