Changes

Jump to navigation Jump to search
नया लेख बनाया
Line 1: Line 1:  
== प्रस्तावना ==
 
== प्रस्तावना ==
पृथ्वी ही ऐसा स्थल हे जिसने जैव विविधता का पोषक और रक्षण किया है। “माता भूमिः पुत्रोऽहम्‌ पृथित्याः” वेदों में भूमि संरक्षण माता रूपी भूमि कौ रक्षा के अन्तर्भाव में ही निहित है। अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त में तो यहां तक कहा गया है कि भूमि की रक्षा के लिए हम आत्म-बलिदान के लिए तैयार रहें-
+
पृथ्वी ही ऐसा स्थल हे जिसने जैव विविधता का पोषक और रक्षण किया है। “माता भूमिः पुत्रोऽहम्‌ पृथित्याः” वेदों में भूमि संरक्षण माता रूपी भूमि कौ रक्षा के अन्तर्भाव में ही निहित है। अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त में तो यहां तक कहा गया है कि भूमि की रक्षा के लिए हम आत्म-बलिदान के लिए तैयार रहें-<blockquote>'''“वयं तुश्यं बलिहृतःस्याम।”'''</blockquote>वैदिक संस्कृति में भूमि के संरक्षण पर अत्यधिक बल दिया गया है। अथर्ववेद का पृथ्वी सूक्त इस विषय में उल्लेखनीय हे-<blockquote>'''“यत्रे भूमि विखनामि क्षिप्रं तदपि रोहतु।'''
   −
“वयं तुश्यं बलिहृतःस्याम।”
+
'''माते मर्म विमृग्वरि मा ते हृदयमर्पितम्‌।।'''</blockquote>( अथर्ववेद 12.1.35)
 
  −
वैदिक संस्कृति में भूमि के संरक्षण पर अत्यधिक बल दिया गया है। अथर्ववेद का पृथ्वी सूक्त इस विषय में उल्लेखनीय हे-
  −
 
  −
“यत्रे भूमि विखनामि क्षिप्रं तदपि रोहतु।
  −
 
  −
माते मर्म विमृग्वरि मा ते हृदयमर्पितम्‌।।
  −
 
  −
( अथर्ववेद 12.1.35)
        Line 17: Line 9:  
पृथ्वी के प्रति व्यक्तिगत तौर पर यह प्रार्थना यह दर्शाती हे कि वैदिक ऋषि पृथ्वी को लेकर कितना संवेदनशील हे। अगर ऐसी ही संवेदना हम भी हमारे मनों में रखें तो भूमि का संरक्षण स्वयंमेव ही हो जायेगा।
 
पृथ्वी के प्रति व्यक्तिगत तौर पर यह प्रार्थना यह दर्शाती हे कि वैदिक ऋषि पृथ्वी को लेकर कितना संवेदनशील हे। अगर ऐसी ही संवेदना हम भी हमारे मनों में रखें तो भूमि का संरक्षण स्वयंमेव ही हो जायेगा।
    +
वेदों के अनुसार पृथ्वी हम सबका आश्रय स्थल है। यह हमें पोषित करती हे, पालती है। हमें धारण करती हे। इसलिए इसका संरक्षण करना हमारा दायित्व है। अथर्ववेद में ऋषि कहता है कि हे भूमि! जब तक यम सूर्य के साथ आपके निबन्ध रूपों का दर्शन करूँ, तब तक मेरी दृष्टि उत्तम और अनुकूल क्रिया को नष्ट न करे-  <blockquote>'''यावत्‌ तेऽभि विपश्यानि भूमे सूर्येव मेदिना।'''
   −
वेदों के अनुसार पृथ्वी हम सबका आश्रय स्थल है। यह हमें पोषित करती हे, पालती है। हमें धारण करती हे। इसलिए इसका संरक्षण करना हमारा दायित्व है। अथर्ववेद में ऋषि कहता है कि हे भूमि! जब तक यम सूर्य के साथ आपके निबन्ध रूपों का दर्शन करूँ, तब तक मेरी दृष्टि उत्तम और अनुकूल क्रिया को नष्ट न करे- 
+
'''तावन्मे चक्षुर्मा मेण्टोतरामुत्तरां समास्‌। |'''</blockquote>( अथर्ववेद 12.01.33) |
 
  −
यावत्‌ तेऽभि विपश्यानि भूमे सूर्येव मेदिना।
  −
 
  −
तावन्मे चक्षुर्मा मेण्टोतरामुत्तरां समास्‌। |
  −
 
  −
( अथर्ववेद 12.01.33) |
      
यहाँ पर ऋषि पृथ्वी के विभिन्न रूपों के संरक्षण की कामना करता है।
 
यहाँ पर ऋषि पृथ्वी के विभिन्न रूपों के संरक्षण की कामना करता है।
    +
ऋग्वेद के ऋषि अथर्वा का कहना हे कि हमें पृथ्वी का संरक्षण करना चाहिए क्योंकि यह पृथ्वी हम सबका भरण-पोषण करती है, हमारी सम्पत्ति की रक्षा करती है, दृढ आधार वाली है, अपने में स्वर्ण को समायें हुए है , सदैव चालयमान है, सभी को सुख प्रदान करती है, अग्नि का पोषण करने वाली है , इन्द्र को प्रधान मानने वाली ऐसी भूमि धन-बल के बीच हमें सुरक्षित रखे-<blockquote>'''“विश्वम्भरा रसुचानी प्रतिष्ठा हिरण्यवक्षा जगतो विनेशनी'''
   −
ऋग्वेद के ऋषि अथर्वा का कहना हे कि हमें पृथ्वी का संरक्षण करना चाहिए क्योंकि यह पृथ्वी हम सबका भरण-पोषण करती है, हमारी सम्पत्ति की रक्षा करती है, दृढ आधार वाली है, अपने में स्वर्ण को समायें हुए है , सदैव चालयमान है, सभी को सुख प्रदान करती है, अग्नि का पोषण करने वाली है , इन्द्र को प्रधान मानने वाली ऐसी भूमि धन-बल के बीच हमें सुरक्षित रखे-
+
'''वैश्वानरं बिभ्रती भूमिरग्निसिद्ध ऋषना द्रविणे नोदघातु।'''</blockquote>( अथर्ववेद 12.01.6)
 
  −
“विश्वम्भरा रसुचानी प्रतिष्ठा हिरण्यवक्षा जगतो विनेशनी
  −
 
  −
वैश्वानरं बिभ्रती भूमिरग्निसिद्ध ऋषना द्रविणे नोदघातु।
  −
 
  −
( अथर्ववेद 12.01.6)
      
पृथ्वी के संरक्षण के लिए अथर्ववेद का ऋषि अपनी चिंता व्यक्त करता है और कहता हे कि हे पृथ्वी! तेरी गोद में हम निरोग बनें। अपनी धातु को दीर्घ काल  तक बनाये रखते हुए तेरे लिए बलिदान देने लायक बने रहें। यहाँ पर ऋषि पृथ्वी के संरक्षण के लिए अपना बलिदान तक देने की बात कहता हे-
 
पृथ्वी के संरक्षण के लिए अथर्ववेद का ऋषि अपनी चिंता व्यक्त करता है और कहता हे कि हे पृथ्वी! तेरी गोद में हम निरोग बनें। अपनी धातु को दीर्घ काल  तक बनाये रखते हुए तेरे लिए बलिदान देने लायक बने रहें। यहाँ पर ऋषि पृथ्वी के संरक्षण के लिए अपना बलिदान तक देने की बात कहता हे-
      −
चित्र 4.3 वन सरंक्षण सर्वस्व बलिदान
+
चित्र 4.3 वन सरंक्षण सर्वस्व बलिदान<blockquote>'''उपस्थास्ते अनमीवा अयक्ष्मा अस्मभ्यं पतु पृथिवि रसूताः'''
   −
उपस्थास्ते अनमीवा अयक्ष्मा अस्मभ्यं पतु पृथिवि रसूताः
+
'''दीर्घ न आपुः प्रतिबुहयमाना वयं तुश्यं बलिहृतः स्याम।।'''</blockquote>( अथर्ववेद 12.1.62)
   −
दीर्घ आपुः प्रतिबुहयमाना वयं तुश्यं बलिहृतः स्याम।।
+
अर्थववेद का ऋषि सचेत करते हुए कहता है कि यदि समय रहते पृथ्वी को संरक्षित नहीं किया गया तो मनुष्य प्रजाति को दुष्परिणम भुगतने के लिए तैयार रहना चाहिए क्योंकि जिस प्रकार अश्व धूल कणों को हिला देता है उसी प्रकार यह हर्षदायिनी, अग्रगामिनी, संसार की रक्षा करने वाली, वनस्पतियों और औषधियों की ग्रहणस्थली पृथ्वी ने उन मनुष्यों को हमेशा ही हिलाया हे जो इसका सरंक्षण कर हानि पहुंचाते हे-<blockquote>'''अश्व इव रजो दुन्धुवे नि तान जनान्‌ य आक्षियन पृथिवी यादजायत्‌।'''
   −
( अथर्ववेद 12.1.62)
+
'''मन्द्राग्रेत्वरी भुवनस्य गोपा वनस्पतीनां गृभिरोषधीनाम्‌।।'''</blockquote>( अर्थववेद 12.1.57)  
   −
अर्थववेद का ऋषि सचेत करते हुए कहता है कि यदि समय रहते पृथ्वी को संरक्षित नहीं किया गया तो मनुष्य प्रजाति को दुष्परिणम भुगतने के लिए तैयार रहना चाहिए क्योंकि जिस प्रकार अश्व धूल कणों को हिला देता है उसी प्रकार यह हर्षदायिनी, अग्रगामिनी, संसार की रक्षा करने वाली, वनस्पतियों और औषधियों की ग्रहणस्थली पृथ्वी ने उन मनुष्यों को हमेशा ही हिलाया हे जो इसका सरंक्षण न कर हानि पहुंचाते हे-
+
ऋग्वेद का ऋषि पृथ्वी को माता के रूप में दर्जा प्रदान करता है-<blockquote>'''“( ) पिता जनिता नाभिस्त्र बन्युर्मे माता पृथिवी महीयम्‌।'''</blockquote>(ऋग्वेद 1.164.23) |  
 
  −
अश्व इव रजो दुन्धुवे नि तान जनान्‌ य आक्षियन पृथिवी यादजायत्‌।
  −
 
  −
मन्द्राग्रेत्वरी भुवनस्य गोपा वनस्पतीनां गृभिरोषधीनाम्‌।।
  −
 
  −
( अर्थववेद 12.1.57)
  −
 
  −
ऋग्वेद का ऋषि पृथ्वी को माता के रूप में दर्जा प्रदान करता है-
  −
 
  −
“( ) पिता जनिता नाभिस्त्र बन्युर्मे माता पृथिवी महीयम्‌।
  −
 
  −
(ऋग्वेद 1.164.23) |  
      
अर्थात्‌ आकाश मेरे पिता है, बन्धु वातावरण मेरी नाभि है और यह पृथ्वी मेरी माता है जो कि सबसे महान हेै।
 
अर्थात्‌ आकाश मेरे पिता है, बन्धु वातावरण मेरी नाभि है और यह पृथ्वी मेरी माता है जो कि सबसे महान हेै।
    +
वृहदारण्पकोपनिषद्‌ में याज्ञवल्क्य ऋषि मैत्रेयी को समझाते हुए कहते हैं कि यह पृथ्वी सभी भूतों (मूल तत्वों) का मधु है और सब भूत इस पृथ्वी के मधु हैं-<blockquote>'''इयं पृथ्वी सर्वेषां भूतानां मध्वस्यै'''
   −
वृहदारण्पकोपनिषद्‌ में याज्ञवल्क्य ऋषि मैत्रेयी को समझाते हुए कहते हैं कि यह पृथ्वी सभी भूतों (मूल तत्वों) का मधु है और सब भूत इस पृथ्वी के मधु हैं-
+
'''पृथिव्यै सर्वाणि भूतानि मयु।'''</blockquote>( वृहदारण्यकोपनिषद्‌ 2.5)
 
  −
इयं पृथ्वी सर्वेषां भूतानां मध्वस्यै
  −
 
  −
पृथिव्यै सर्वाणि भूतानि मयु।
  −
 
  −
( वृहदारण्यकोपनिषद्‌ 2.5)
       
1,192

edits

Navigation menu