Difference between revisions of "Vedanga Jyotish (वेदाङ्गज्योतिष)"

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ज्योतिष शास्त्र की गणना वेदाङ्गों में की जाती है। वेद अनन्त ज्ञानराशि हैं। धर्म का भी मूल वेद ही है। इन वेदों के अर्थ गाम्भीर्य तथा दुरूहता के कारण कालान्तर में वेदाङ्गों की रचना हुई। वेदाङ्ग शब्द के द्वारा षडङ्गों का बोध होता है। इस लेख में मुख्य रूप से ज्योतिष को वेदाङ्ग का हिस्सा बताया गया है, इसलिए वेदाङ्गज्योतिष शब्द का प्रयोग किया गया है, जो महर्षि लगध द्वारा दिए गए मूल्यवान ग्रंथ का नाम भी है। भारतवर्ष के गौरवास्पद विषयों में वेदाङ्गज्योतिष का प्रमुख स्थान है। वेदाङ्गवाङ्मय में व्याकरणादि अन्य का भी प्रचार प्रसार है किन्तु वेदाङ्गज्योतिष ज्योतिषविद्या में और कालगणना पद्धति में अतीव महत्वपूर्ण स्थान रखने वाले वेदों में उपलब्ध ज्योतिषशास्त्र के स्वरूप को पूर्णता की ओर अग्रसर करने में वेदाङ्गज्योतिष विषयक ग्रन्थ की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। वैदिक काल में जीवन के साथ ज्योतिष का उद्देश्य यज्ञों को करने के लिए उपयुक्त समय का ज्ञानप्राप्त करना वैदिकधर्मकृत्यों के कालों के निरूपण में यह ग्रन्थ अत्यन्त प्रामाणिक माना गया है। आधुनिक सामान्य भाषा में ज्योतिष शब्द का अर्थ पूर्वानुमान ज्योतिष (फलित ज्योतिष) से है , परन्तु वेदाङ्गज्योतिष में ज्योतिष शब्द खगोल विज्ञान के विज्ञान से जुड़ा है जिसमें गणित सम्मिलित है।
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ज्योतिष शास्त्र की गणना वेदाङ्गों में की जाती है। वेदों के अर्थ गाम्भीर्य तथा दुरूहता के कारण कालान्तर में वेदाङ्गों की रचना हुई। वेदाङ्ग शब्द के द्वारा षडङ्गों का बोध होता है। इस लेख में मुख्य रूप से वेदाङ्गज्योतिष नामक ग्रन्थके विषयमें बताया जा रहा है, जो महर्षि लगध द्वारा प्रणीत ग्रन्थ है। भारतवर्ष के गौरवास्पद विषयों में वेदाङ्गज्योतिष का प्रमुख स्थान है। ज्योतिषविद्या में और कालगणना पद्धति में अतीव महत्वपूर्ण स्थान रखने वाले एवं वेदों में उपलब्ध ज्योतिषशास्त्र के स्वरूप को पूर्णता की ओर अग्रसर करने में वेदाङ्गज्योतिष ग्रन्थ की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। वैदिक काल में जीवन के साथ ज्योतिष का उद्देश्य यज्ञों को करने के लिए उपयुक्त समय का ज्ञानप्राप्त करना था। वैदिकधर्मकृत्यों के कालों के निरूपण में यह ग्रन्थ अत्यन्त प्रामाणिक माना गया है। आधुनिक सामान्य भाषा में ज्योतिष शब्द का अर्थ पूर्वानुमान ज्योतिष (फलित ज्योतिष) से है , परन्तु वेदाङ्गज्योतिष में ज्योतिष शब्द खगोल विज्ञान के विज्ञान से जुड़ा है जिसमें गणित सम्मिलित है।
  
 
== परिचयः || Introduction ==
 
== परिचयः || Introduction ==
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वेदाङ्गज्योतिष ग्रन्थमें सामूहिक ज्योतिषशास्त्र की चर्चा की गई है। वेदाङ्गज्योतिष की दृष्टीसे संप्रति तीन पुस्तकें परिगणित हैं-
  
== ज्योतिष॥ Jyotisha ==
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* '''आर्च्(ऋग्) ज्योतिष'''- ३६ श्लोक उपलब्ध हैं।
अप्रत्यक्षाणि शास्त्राणि विवादस्तेषु केवलम् । प्रत्यक्षं ज्योतिषं शास्त्रं चन्द्राऽक यत्र साक्षिणौ ॥
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* '''याजुष् (यजुर् )ज्योतिष-''' ५५श्लोक उपलब्ध हैं।
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* '''आथर्वण(अथर्व)ज्योतिष'''- १६८ श्लोक प्राप्त होते हैं।
  
अभिप्राय यह है कि अन्य शास्त्रों का प्रत्यक्षीकरण सुलभ नहीं है, परन्तु ज्योतिष शास्त्र प्रत्यक्ष शास्त्र है। इसकी प्रमाणिकता के एकमात्र साक्षी सूर्य और चन्द्र हैं। आचार्यों ने ज्योतिष शास्त्र को तीन स्कन्धों में विभक्त किया है- सिद्धान्त, संहिता और होरा। इसके लिए यह श्लोक प्रसिद्ध है—<blockquote>सिद्धान्त संहिता होरा रूपस्कन्ध त्रयात्मकम् । वेदस्य निर्मलं चक्षुः ज्योतिषशास्त्रमकल्मषम् ॥</blockquote>इस प्रकार ज्योतिष शास्त्र के मुख्यतः दो ही स्कन्ध हैं- गणित एवं फलित।
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अयनचलन के विचार के लिये अत्यन्त उपयोगी करीब ३४०० वर्ष प्राचीन आलेख, जो भूमण्डल के अन्य देशों के ज्योतिषवाग्मय में सर्वथा अनुपलब्ध है, इस ग्रन्थ में उपलब्ध होने से कालगणना पद्धति के विषय में इस ग्रन्थ का लौकिक महत्त्व भी विलक्षण और अद्वितीय है। भारतवर्ष का नवीन इतिहास नाम के ग्रन्थ में  डा० ईश्वरी प्रसाद जी ने लिखा है-<blockquote>ईसा के पूर्व द्वितीय शताब्दी के आसपास ज्योतिषशास्त्र की अनेक बातें भारतीयों ने यूरोप से सीखीं। वे रोम और यूनान को ज्योतिषशास्त्र का घर समझते थे। ज्योतिष के अनेक यूनानी ग्रन्थों का अनुवाद संस्कृत में किया गया एवं भारतीय पञ्चागों का भी यूनानियों की सलाह से संशोधन हुआ। </blockquote>कुन्दन लाल शर्मा ने वैदिक वाग्मय का बृहद इतिहास नामके ग्रन्थ के षष्ठ खण्ड में लिखा है- <blockquote>यद्यपि भारतीय ज्योतिषियों ने वेदांग ज्योतिष के सिद्धान्त का परित्याग प्रथम ईसवी शती के आरंभ में  करके यूनानी सिद्धान्त को स्वीकार करके अपनी गणना पद्धति में परिवर्तन तथा संशोधन कर लिया था तो भी वैदिक ब्राह्मणों में वर्तमान वेदवेदाग ग्रन्थों के नित्य ब्रह्मयज्ञ की परम्परा के बल से ३४०० वर्ष पुराना वेदागज्योतिष ग्रन्थ उपलब्ध है। अब भी वैदिकब्राह्मण ब्रह्मयज्ञ में लगधप्रोक्त वेदाङ ज्योतिष ग्रन्थ पढा जाता है। </blockquote>अतः ज्योतिषीय ग्रन्थों में पाश्चात्य संस्कृति का सम्मेलन होने पर भी वेदांग ज्योतिष कण्ठस्थीकरण परम्परा वशात् मूलभूत सिद्धान्तों का ही प्रयोग दृष्टिगोचर होता आ रहा है। जैसा कि कहा गया है कि-
  
'''गणितशास्त्र''' – गणितशास्त्र गणना शब्द से बना है। जिसका अर्थ गिनना है। परन्तु गणना के बिना कोई भी क्रिया आसानी से सम्पन्न नहीं हो सकती। गणितशास्त्र का हमारे भारतीय आचार्यों ने दो भेद किया है। १. व्यक्त गणित और २. अव्यक्त गणित।
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== रचनाकार॥ Author ==
  
व्यक्त गणित में अंक गणित, रेखागणित (ज्यामिति), त्रिकोणमिति, चलन कलनादि माने जा सकते हैं। अव्यक्त गणित में मुख्यतः बीजगणित जिसे अंग्रेजी में अलज़ेबरा कहा जाता है। अंकों द्वारा गणित क्रिया करके जोड़, घटाव, गुणा, भाग, वर्ग, वर्गमूल, घन, घनमूल, गुणन खण्ड तथा अन्य आवश्यक गणितीय क्रियाएँ की जाती हैं। आजकल आधुनिक जगत् में गणित का विस्तार अनेक रूपों में किया गया है । हमारे वेदों में भी वैदिक गणित बताया गया है । वैदिक मैथमेटिक्स की पुस्तकें भी प्रकाशित हैं ।<ref>श्रीरामचन्द्र पाठक, बृहज्जातकम् , ज्योति हिन्दी टीका, वाराणसीः चौखम्बा प्रकाशन (पृ०११-१३)।</ref>
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प्राचीन भारतीय परम्परा में प्राय: आचार्यों ने अपनी अहंता बुद्धि को सदा ही पृष्ठ में रखा है। यही कारण है बहुत सारे शास्त्रीय ग्रन्थों में प्रणेताओं का परिचय नहीं मिलता है। यद्यपि महात्मा लगध ने स्वयं का कोई परिचय नहीं दिया है तथापि ऋक्ज्योतिष के द्वितीय श्लोक में उनका कुछ परिचय प्राप्त होता है-
  
'''फलित ज्योतिष-''' फलादेश कथन की विद्या का नाम फलित ज्योतिष है। शुभाशुभ फलोंको बताना ही इस शास्त्र का परम लक्ष्य रहा है। इसकी भी अनेक विधाएँ आज प्रचलित हैं। जैसे चिकित्सा शास्त्र का मूल आयुर्वेद है परन्तु आज होमोपैथ तथा एलोपैथ भी प्रचलित हैं और इन विधाओं के द्वार भी रोगमुक्ति मिलती है। उसी तरह फलित ज्योतिष की भी कई विधाएँ जिनके द्वारा शुभाशुभ फल कहे जा सकते हैं। ये विधाएँ मुख्यतः निम्नलिखित हैं-
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प्रणम्य शिरसा ज्ञानम् अभिवाद्य सरस्वतीम्। कालज्ञानं प्रवक्ष्यामि लगधस्य महात्मनः॥(ऋक्ज्योतिषम्, श्लोक 2)
  
१. जातकशास्त्र, २. संहिताशास्त्र, ३. मुहूर्त्तशास्त्र ४. ताजिकशास्त्र, ५. रमलशास्त्र, ६. स्वरशास्त्र, ७. हस्तरेखा अथव अङ्गविद्याशास्त्र एवं ८. प्रश्नशास्त्र।
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अर्थात् सरस्वती देवी का अभिवादन करके और सिर झुकाकर प्रणाम करते हुये महात्मा लगध के (द्वारा उपस्थापित) काल-ज्ञान को कहूंगा।
  
# जातकशास्त्र – मानव के आजन्म मृत्युपर्यन्त समग्र जीवन का भविष् ज्ञान प्रतिपादक फलित ज्योतिष का नाम जातक ज्योतिष है । वाराह नारचन्द्र, सिद्धसेन, ढुण्ढिराज, केशव, श्रीपति, श्रीधर आदि होरा ज्योतिष आचार्य हैं ।
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लगध आचार्य के सन्दर्भ में यह ज्ञात होता है कि उन्होंने वेदांगज्योतिष की रचना की थी, जिसका रचनाकाल अनुमानतः ईसा पूर्व १४०० ई० प्राप्त होता है। रचनाकाल के संबंध में शंकर बालकृष्ण दीक्षित जी के भारतीय ज्योतिषशास्त्रा चा प्राचीन आणी अर्वाचीन इतिहास' नामक मराठी भाषा में लिखे गये इतिहास का अवलोकन करने पर ग्रन्थानुसार विभिन्न इतिहासकारों में मत भिन्नता भी देखने को मिलती है, जो कि नीचे दी गई सारणी का अवलोकन करने पर स्पष्ट हो जाती है -
# संहिता ज्योतिष - संहिता ज्योतिष में सूर्य, चन्द्र, राहु, बुध, गुरु शुक्र, शनि, केतु, सप्तर्षिचार, कूर्म नक्षत्र, ग्रहयुद्ध, ग्रहवर्ष, गर्भ लक्षण गर्भधारण, सन्ध्या लक्षण, भूकम्प, उल्का, परिवेश, इन्द्रायुध् रजोलक्षण, उत्पाताध्याय, अंगविद्या, वास्तुविद्या, वृक्षायुर्वेद, प्रसादलक्षण वज्रलेप (छत बनाने का मसाला), गो, महिष, कुत्ता, अज, हरि काकशकुन, श्वान, शृगाल, अश्व, हाथी प्रभृति जीवों की चेष्टाएं आदि भवि ज्ञान के साथ सुन्दर भोजन, निर्माण के विविध प्रकार (पाकशास्त्र) आ विषयों का जिस शास्त्र से ज्ञान किया जाता है वह फलित ज्योतिष का संहि ज्योतिष कहा गया है।
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{| class="wikitable"
# मुहूर्त्तशास्त्र – मुहूर्त्त शास्त्र फलित ज्योतिष का वह अंग है जिस द्वारा जातक के कथित संस्कारों के मुहूर्त्त, नामकरण, भूमि उपवेशन, कटि बन्धन, अन्नप्राशन, मुण्डन, उपनयन, समावर्त्तन आदि संस्कारों के समय ज्ञान किया जाता है।
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# ताजिकशास्त्र – मानव के आयु में प्रत्येक नवीन वर्ष प्रवेश का समय का ज्ञानकर तदनुसार कुण्डली द्वारा वर्ष पर्यन्त प्रत्येक दिन, मास का फल ज्ञान प्रतिपादन फलित ज्योतिष का ताजिकशास्त्र कहलाता है।
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!इतिहासकार
# रमलशास्त्र – इस शास्त्र के अन्तर्गत पाशा डालने की प्रक्रिया होती है । इसके द्वारा फल कथन की विधि का नाम रमलशास्त्र है।
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!निर्धारितकाल
# स्वरशास्त्र – स्वस्थ मनुष्य के स्वांस निःसरण के द्वारा दक्षिण या वाम स्वांस गति की जानकारी कर फलादेश किया जाता है । इसे फलितशास्त्र में स्वरशास्त्र नाम से कहा जाता है ।
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# अंग विद्या – शरीर के अवयवों को देखकर जैसे ललाट, मस्तक, बाहु तथा वक्ष को देखकर फलादेश किया जाता है । साथ ही हाथ या पैर की रेखाएँ भी देख कर फलादेश कहने की विधि को अंग विद्या (पामेस्ट्री) के नाम से कहा जाता है।
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|कोल ब्रुक
# प्रश्नशास्त्र – आकस्मिक किसी समय की ग्रहस्थितिवश भविष्यफल ज्ञापक शास्त्र का नाम प्रश्न ज्योतिष है । इसका सम्बन्ध मनोविज्ञान से भी है । इसी का सहयोगी केरल ज्योतिष भी है ।
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|ईसा पूर्व १४१०
 
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इस प्रकार हमारे फलित ज्योतिष के अनेकों विभाग हैं जिसके द्वारा फल कथन किया जाता है। इन सभी शाखाओं का मूलस्त्रोत ग्रहगणित है । इस ग्रहगणित स्कन्ध को सिद्धान्त स्कन्ध भी कहा जाता है । ज्योतिष कल्पवृक्ष का मूल ग्रहगणित है जो खगोल विद्या से जाना जाता है । अंकगणित, बीजगणित, रेखागणित, त्रिकोणमिति गणित, गोलीय रेखागणित इस स्कन्ध के अन्तर्गत आते हैं। किसी भी अभीष्ट समय के क्षितिज, क्रान्तवृत्त सम्पात रूप लग्न बिन्दु के ज्ञान से विश्व के चराचर जीवों का, मानव सृष्टि में उत्पन्न जातक को शुभाशुभ ज्ञान की भूमिका होती है । इस प्रकार ज्योतिष की महिमा वेद, वेदाङ्ग तथा पुराण एवं धर्मशास्त्रों में सर्वत्र उपलब्ध है।
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|प्रो०ह्विटनी
 
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|ईसा प्
== ज्योतिष में त्रिदोष॥ ==
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ज्ञान का मूल स्रोत वेद है। वेदों की महिमा देश-देशान्तर में स्तुत्य है। वेद चार हैं तथा चार उपवेद भी हैं । हमारे संस्कृत वाङ्मय में चार वेदों का नाम सर्वविदित है । जो इस प्रकार हैं- १. ऋग्वेद, २. यजुर्वेद, ३. सामवेद, एवं ४. अथर्ववेद । इन वेदों के सरलीकरण के लिये वेदाङ्गों की रचना हुयी जिसे छह शास्त्र के नाम से व्यवहृत किया जाता है । ये षट्शास्त्र इस प्रकार हैं—शिक्षा, कल्प, निरुक्त, व्याकरण, छन्द और ज्योतिष हैं । अब यहाँ त्रिदोष चर्चा में चिकित्सा शास्त्र का जनक आयुर्वेद है जिसे कुछ विद्वान् पञ्चमवेद भी कहते हैं। <nowiki>''</nowiki>शरीरं व्याधि मन्दिरम्<nowiki>''</nowiki> इस उक्ति के समाधान में आयुर्वेद शास्त्र की रचना हुई। आज चिकित्सा के कई रूप उपलब्ध हैं पर सभी का जन्मदाता आयुर्वेद ही है। आयुर्वेद, एलोपैथ तथा होम्योपैथ की चिकित्सा सम्पूर्ण देश में सर्वमान्य है। भारतीय चिकित्सा शास्त्र में त्रिदोष का वर्णन सर्वत्र है, अर्थात् वात, पित्त और कफ जन्य ही रोग होते हैं। चिकित्साशास्त्र इन्हीं पर आधारित है । हमारे ज्योतिष शास्त्र में भी त्रिदोष की चर्चा है। ग्रह नक्षत्रों का शास्त्र ज्योतिष हैं । नवग्रहों की प्रधानता ज्योतिष शास्त्र में वर्णित है। ये सभी ग्रह त्रिदोष से सम्बन्धित हैं। इनमें से कोई वातज, कोई पित्तज तथा कोई कफज है। इस प्रकार मुख्य रूप से शनि, राहु, केतु वात व्याधि सूचक कहे गए हैं। सूर्य, मंगल, गुरु पित्तज हैं तथा शुक्र, चन्द्र कफज हैं। बुध को तटस्थ (न्यूट्रल) कहा गया है। इन ग्रहों के दाय काल में अथवा इनके दुर्बल होने से उक्त त्रिदोषजन्य व्याधियाँ होती है। जिसे व्यवहार में भी अनुभव किया गया है।
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=== वातजन्य व्याधियॉं ॥ ===
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शनि, राहु, केतु के दुष्प्रभाव से वात जन्य व्याधियाँ होती हैं । यह पहले भी कहा जा चुका है । ये वात व्याधियाँ चिकित्सा शास्त्र के जनक आयुर्वेद शास्त्र के चरक संहिता में अस्सी प्रकार की बताई गई हैं । इन सभी के अनेक भेद तथा उपभेद भी हैं । जिसपर चिकित्साशास्त्र आधारित हैं । इसी प्रसंग में इन ८० प्रकार की वात व्याधियों का नाम चरक संहिता से संग्रहीत कर नीचे दिया जा रहा है-  
 
 
 
१. नखभेद, २. व्यवाई, ३. पादशूल, ४. पाद भ्रंश, ५. पाद सुप्तता, ६. पाद खुड्डता, ७. गुल्मग्रह, ८. पिण्डिकोद्वेष्टन, ९. गृध्रसी, १०. जानुभेद, ११. जानुविश्लेष. १२. उरुस्तम्भ, १३. उरुसाद, १४. पाङ्गुल्य, १५. गुदभ्रंश, १६. गुदार्ति, १७. वृषणोत्क्षेप, १८. शेफस्तम्भ, १९. वक्षणान, २०. श्रोणिमेद, २१. विड्भेद, २२. उदावर्त, २३. खञ्जता, २४. कुब्जता, २५. वामनत्व, २६. तृक्ग्रह, २७ पुष्टग्रह, २८. पार्श्वावमर्द, २९. उदरावेष्ट, ३०. हृन्मोह, ३१. हृदद्रव, ३२. वक्षोघर्ष, ३३. वक्षोपरोध, ३४. वक्षस्तोद, ३५. वाडूशोष, ३६. ग्रवास्तम्भ, ३७. मन्यास्तम्भ, ३८. कण्ठोध्वंस, ३९ हनुभेद, ४०. ओष्ठभेद, ४१. अक्षिभेद, ४२. दन्तभेद, ४३. दन्तशैथिल्य, ४४. मूकत्व, ४५. वाक्संग, ४६. काषायस्यता, ४७. मुख शोष, ४८ अरसज्ञता, ४९. घ्राणनाश, ५०. कर्णमूल, ५१. ५२ उच्चैश्रुति, ५३. बहरापन, ५४. वर्त्मस्तम्भ, ५५. वर्त्मसंकोच, ५६. तिमिर, ५७. नेत्रशूल, ५८. अक्षिब्युदास, ५९. ब्रूव्युदास, ६०. शंखभेद, ६१ ललाटभेद, ६२. शिरःशूल, ६३. केशभूमिस्फुटन, ६४. आदिंत, ६५. एकाङ्गरोग, ६६. सर्वाङ्गरोग, ६७. आक्षेपक, ६८. दण्डक, ६९. तम, ७०. भ्रम, ७१. वैपयु, ७२. जम्भाई, ७३. हिचकी, ७४. विषाद, ७५. अतिप्रलाप, ७६. रुक्षता, ७७. परुषता, ७८. श्यावशरीर, ७९. लाल शरीर, ८०. अस्वप्न अनवस्थित । ये मुख्यतः वात जन्य व्याधियाँ हैं । शनि, राहु, तथा केतु ग्रह की दुर्बलता, अनिष्ट अरिष्ट सूचक होने पर उक्त व्याधियों का होना सुनिश्चित है ।
 
 
 
=== पित्तजन्य व्याधियॉं॥ ===
 
पित्तजन्य ४० प्रकार की व्याधियाँ (रोग) होती हैं । हमारे ज्योतिष शास्त्र के अनुसार सूर्य, मंगल तथा गुरु के दुर्बल तथा अरिष्ट सूचक होने पर अघोलिखित व्याधियाँ (रोग) होती हैं, जिनकी नामावली अधोलिखित हैं-
 
 
 
१. ओष, २. प्लोष, ३. दाह, ४. दवधु, ५. धूमक, ६. अम्लक, ७. विदाह, ८. अन्तरदाह, ९. अंशदाह, १०. उष्माधिक्य, ११. अतिश्वेद, १२. अङ्गरान्ध, १३. अङ्कावदरण, १४. शोणितक्लेद, १५. मांस क्लेद, १६. त्वक्टाह, १७. त्वगवदरण, १८. चरमावदरण, १९. रक्तकोष्ठ, २०. रक्तविस्फोट, २१. रक्तपित्त, २२. रक्तमण्डल, २३. हरितत्त्व, २४. हारिद्रवत्व, २५. नीलिका, २६. कथ्या, २७. कामला, २८. तिक्तास्यता, २९. लोहितगन्धास्यता, ३०. अक्षिपाक, ३१. तृष्णाधिक्य, ३२. अतृप्ति, ३३. आस्यविपाक, ३४. गलपाक, ३५. अक्षिपाक, ३६. गुदपाक, ३७. मुडपाक और जीवादान, ३८. तमः प्रवेश, ३९. नेत्र शूल, ४०. अमलका हरा वर्ण या पीला वर्ण। गुरु, सूर्य तथा मंगल के कारण ये व्याधियाँ होती हैं। इसलिये इन ग्रहों के दायकाल में इनका निदान तथा समाधान आवश्यक है।
 
 
 
=== कफजन्य व्याधियॉं॥ ===
 
कफ जन्य रोग चन्द्रमा और शुक्र के प्रभाव से होते हैं। चन्द्र और शुक्र दोनों ग्रहों की प्रकृति शीतल है। शीतव्याधि से २० प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं। जिसकी चर्चा चिकित्सा शास्त्र में महर्षि चरक ने चरक संहिता के २०वें अध्याय में वर्णित किया है। इन रोगों के भी उपरोग अनेकों हैं। जिसकी चर्चा आयुर्वेद शास्त्र में विस्तार पूर्वक की गयी है। ये व्याधियाँ प्रसंगतः अधोलिखित रूप से यहाँ दी जा रही हैं-  
 
 
 
१. तृप्ति, २. तन्द्रा, ३. निद्राधिक्य, ४. स्तैमित्य, ५. गुरुगात्रता, ६. आलस्य, ७. मुखमाधुर्य, ८. मुखस्राव, ९. श्लेष्मोगिरण, १०. मलस्याधिक्य, ११. बलासक, १२. अपचन, १३. हृदयोपलेप, १४. कण्ठोपलेप, १५. धमनीप्रतिचय, १६. गलगण्ड, १७. अतिस्थौल्य, १८. शीताग्निता, १९. उदर्द, २०. श्वेतावगासता (मूत्र, नेत्र का श्वेत होना) ।
 
 
 
इन तथ्यों के आधार पर चिकित्साशास्त्र और ज्योतिष शास्त्र का तादात्म्य सम्बन्ध है । इसीलिये चिकित्सा को ज्योतिष से जोड़कर कार्य किया जाय तो अधिकाधिक लाभ तथा नैरुज्यता प्रदान की जा सकती है । ग्रह और राशियाँ सभी त्रिदोष युक्त हैं । संस्कृत में लिङ्ग भेद प्रसंग में तीन लिङ्गों का वर्णन आया है । १. स्त्री लिङ्ग, २. पुलिङ्ग, ३. नपुंसक लिङ्ग। ग्रहों में भी बुध को नपुंसक कहा गया है । बुध जिस ग्रह के साथ रहता है वह उसी के अनुरूप फल प्रदान करता है । अतः बुध ग्रह के दाय काल में बुध की स्थिति तथा साहचर्य पर विचार कर रोगों के विषय में फलादेश करना चाहिए| वात-पित्त-कफ तीनों में ग्रह साहचर्य के अनुसार गुणदोष का ज्ञान कर बुध ग्रह की स्थिति जानकर फल कहना उचित होगा । बुध को न्यूट्रल कहा गया है । अतः गुण, स्वभाव का भी उसी के आधार पर निरूपण करना चाहिए।
 
  
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लगध मुनि सम्बन्धी एक मात्र परिचयात्मक इस श्लोक से यह पता चलता है कि यद्यपि महात्मा लगध ज्योतिष शास्त्र के आचार्य रहे हैं तथापि वेदाङ्ग-ज्योतिष के रचयिता वह स्वयं नहीं अपितु उनका कोई शिष्य है। तथा सम्भवतः लगध के ही प्रतिपादित सूत्रों का संकलन ऋक्ज्योतिष, याजुष ज्योतिष एवं अथर्व ज्योतिष इत्यादि नाम से उनके शिष्यों ने किया। इसके अतिरिक्त लगध मुनि के विषय में अन्य कोई प्रामाणिक सूचना नहीं मिलती है क्यूंकि संस्कृत वाङ्मय में इस नाम के किसी आचार्य का अन्यत्र उल्लेख नहीं मिलता है। पाश्चात्य विद्वान ‘लगध' को ‘लगड़’ या ‘लाट’ कहते हैं, जिससे उनका समय पांचवी शताब्दी के आस-पास आता है जो कि सर्वथा निराधार है। इसका कारण ग्रन्थोक्त उत्तरायण-बिन्दु की स्थिति है जो खगोलीय गणना के आधार पर लगध का काल १४००-१५०० ईसा पूर्व निश्चित करता है।
  
 
== वेदाङ्गज्योतिष की परिभाषा॥ Definition of Vedanga Jyotisha ==
 
== वेदाङ्गज्योतिष की परिभाषा॥ Definition of Vedanga Jyotisha ==
वेदाङ्ग शब्द की व्युत्पत्ति वेद तथा अङ्ग इन दो शब्दों के मिलने से हुई है।
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वेदाङ्ग शब्द की उत्पत्ति वेद तथा अङ्ग इन दो शब्दों के मिलने से हुई है वेद का सामान्य अर्थ है ज्ञान। शब्दकल्पद्रुम में अङ्ग की परिभाषा इस प्रकार की गई है-<blockquote>'''अङ्ग-'''अङ्य्न्ते ज्ञायन्ते एभिरिति अङ्गानि। (शब्दकल्पद्रुम भाग १ )</blockquote>जिनके द्वारा किसी वस्तु के स्वरूप को जानने में सहायता प्राप्त होती हो उन्हैं अङ्ग कहते हैं। वेद के स्वरूप को समझाने में सहायक ग्रन्थ वेदाङ्ग कहे गए हैं।
 
 
अङ्य्न्ते ज्ञायन्ते एभिरिति अङ्गानि। (शब्दकल्पद्रुम भाग १ )
 
 
 
जिनके द्वारा किसी वस्तु के स्वरूप को जानने में सहायता प्राप्त होती हो उन्हैं अङ्ग कहते हैं। वेद के स्वरूप को समझाने में सहायक ग्रन्थ वेदाङ्ग कहे गए हैं।
 
 
 
'''ज्योतिषं''', क्ली,= ज्योतिः सूर्य्यादीनां ग्रहाणां गत्यादिकं प्रतिपाद्यतया अस्त्यस्येति अच् । वेदाङ्ग-शास्त्रविशेषः । तत् ग्रहणादिगणनशास्त्रम् ।
 
  
== वेदाङ्गज्योतिष का महत्त्व॥ Importance of Vedanga Jyotisha ==
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'''ज्योतिषं-''' वेदाङ्ग-शास्त्रविशेषः तत् ग्रहणादिगणनशास्त्रम् ज्योतिषम् ।  ज्योतिः सूर्य्यादीनां ग्रहाणां प्रतिपाद्यतया अस्त्यस्येति अच् ।
  
== वेदों में ज्योतिष॥ Jyotisha in Vedas ==
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ज्योतिष अर्थात् सूर्यादि ग्रह-नक्षत्रों की गति, स्थिति एवं फलका प्रतिपादन जिसमें किया गया उस शास्त्रको ज्योतिष शास्त्र कहा गया है।
  
 
== वेदाङ्गज्योतिष के विषय॥ Contents of Vedanga Jyotisha ==
 
== वेदाङ्गज्योतिष के विषय॥ Contents of Vedanga Jyotisha ==
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# '''युग॥ Yuga''' - वेदों में कालमान की बडी इकाई के रूप में युग का उल्लेख मिलता है। कृत, त्रेता, द्वापर एवं कलि इन चारों युगों के नामों का भी व्यवहार अनेक स्थलों पर किया गया है किन्तु इनके परिमाण का उल्लेख नहीं मिलता है। कृतादि युगों के अतिरिक्त पञ्च संवत्सरात्मक युगों का भी उल्लेख है। पॉंचों संवत्सरों के नाम इस प्रकार है- सम्वत्सर, परिवत्सर, इदावत्सर, अनुवत्सर और इद्वत्सर। कहीं कहीं इद्वत्सर को अनुवत्सर भी कहा गया है।
 
# '''युग॥ Yuga''' - वेदों में कालमान की बडी इकाई के रूप में युग का उल्लेख मिलता है। कृत, त्रेता, द्वापर एवं कलि इन चारों युगों के नामों का भी व्यवहार अनेक स्थलों पर किया गया है किन्तु इनके परिमाण का उल्लेख नहीं मिलता है। कृतादि युगों के अतिरिक्त पञ्च संवत्सरात्मक युगों का भी उल्लेख है। पॉंचों संवत्सरों के नाम इस प्रकार है- सम्वत्सर, परिवत्सर, इदावत्सर, अनुवत्सर और इद्वत्सर। कहीं कहीं इद्वत्सर को अनुवत्सर भी कहा गया है।
# '''सम्वत्सर॥ Samvatsara'''- संवत्सर द्वादश मासों का
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# '''सम्वत्सर॥ Samvatsara'''- सूर्य, चन्द्र और बृहस्पति के विभिन्न राशियों के परिभ्रमण के आधार पर गिने जाने वाले प्रभव, विभव आदि साठ संवत्सरों को क्रमशः सौर, चान्द्र एवं बार्हस्पत्य संवत्सर कहा जाता है ।
 
# '''अयन॥ Ayana-''' अयन दो कहे गए हैं- उत्तरायण और दक्षिणायन। सायन मकर से लेकर मिथुन पर्यन्त उत्तरायण और सायन कर्क से लेकर धनु पर्यन्त दक्षिणायन होता है।
 
# '''अयन॥ Ayana-''' अयन दो कहे गए हैं- उत्तरायण और दक्षिणायन। सायन मकर से लेकर मिथुन पर्यन्त उत्तरायण और सायन कर्क से लेकर धनु पर्यन्त दक्षिणायन होता है।
 
# '''ऋतु॥ Season-'''  अयन से ठीक छोटा कालमान ऋतु है। वैदिक साहित्य में सामान्यतया छः ऋतुओं का उल्लेख प्राप्त होता है। शिशिर, वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद तथा हेमन्त ऋतुओं का उल्लेख प्राप्त हो रहा है।
 
# '''ऋतु॥ Season-'''  अयन से ठीक छोटा कालमान ऋतु है। वैदिक साहित्य में सामान्यतया छः ऋतुओं का उल्लेख प्राप्त होता है। शिशिर, वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद तथा हेमन्त ऋतुओं का उल्लेख प्राप्त हो रहा है।
 
# '''मास॥''' '''month-''' ऋतु से ठीक छोटा कालमान मास है। पञ्च वर्षीय युग के प्रारम्भ में माघ मास तथा समाप्ति पर पौष मास का निर्देश वेदाङ्गज्योतिष में किया गया है। मासों की संख्या बारह है- माघ, फाल्गुन, चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष तथा पौष।  
 
# '''मास॥''' '''month-''' ऋतु से ठीक छोटा कालमान मास है। पञ्च वर्षीय युग के प्रारम्भ में माघ मास तथा समाप्ति पर पौष मास का निर्देश वेदाङ्गज्योतिष में किया गया है। मासों की संख्या बारह है- माघ, फाल्गुन, चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष तथा पौष।  
 
# '''पक्ष ॥ Paksha-''' एक मास में दो पक्ष होते हैं। शुक्लपक्ष एवं कृष्ण पक्ष। प्रत्येक पक्ष पन्द्रह दिनों(तिथियों) का होता है।
 
# '''पक्ष ॥ Paksha-''' एक मास में दो पक्ष होते हैं। शुक्लपक्ष एवं कृष्ण पक्ष। प्रत्येक पक्ष पन्द्रह दिनों(तिथियों) का होता है।
# '''तिथि॥ Tithi-''' शास्त्रों में दो प्रकार की तिथियॉं प्रचलित हैं। सौर तिथि एवं चान्द्र तिथि। सूर्य की गति के अनुसार मान्य तिथि को सौर तिथि तथा चन्द्रगति के अनुसार मान्य तिथि को चान्द्र तिथि कहते हैं।
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# '''[[Tithi (तिथि)|तिथि॥ Tithi]]-''' शास्त्रों में दो प्रकार की तिथियॉं प्रचलित हैं। सौर तिथि एवं चान्द्र तिथि। सूर्य की गति के अनुसार मान्य तिथि को सौर तिथि तथा चन्द्रगति के अनुसार मान्य तिथि को चान्द्र तिथि कहते हैं।
 
# '''वार॥ Day-''' वार शब्द का अर्थ है अवसर अर्थात् नियमानुसार प्राप्त समय होता है। तदनुसार वार शब्द का प्रकृत अर्थ यह होता है कि जो अहोरात्र (सूर्योदय से सूर्योदय होने ) पर्यन्त जिसकी स्थिति होती है उसे वार कहते हैं।  
 
# '''वार॥ Day-''' वार शब्द का अर्थ है अवसर अर्थात् नियमानुसार प्राप्त समय होता है। तदनुसार वार शब्द का प्रकृत अर्थ यह होता है कि जो अहोरात्र (सूर्योदय से सूर्योदय होने ) पर्यन्त जिसकी स्थिति होती है उसे वार कहते हैं।  
# '''करण Karana-'''  
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# '''करण Karana-''' (तिथ्यर्धं करणः) तिथि के अर्ध भाग को करण कहा गया है।
# '''मुहूर्त्त॥ Muhurta-'''
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# '''मुहूर्त्त॥ Muhurta-''' दिन और रात्रि को १५-१५ भागों में विभक्त किया गया है। प्रत्येक भागकी मुहूर्त्त संज्ञा है।
# '''पर्व॥ parva-'''
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# '''पर्व॥ parva-''' धर्म, पुण्यकार्य अथवा यज्ञ आदि के लिये उपयुक्त काल को पर्वकहा गया है- कृष्णपक्ष की अष्टमी, चतुर्दशी, रवि संक्रान्ति एवं अमावस्या एवं पूर्णिमा इन पॉंचों की पर्व संज्ञा है।
# '''विषुवत् तिथि॥ vishuvat-'''
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# '''विषुवत् तिथि॥ vishuvat-''' विषुव दिन का अभिप्राय है दिवस और रात्रि की समानता का दिवस। संवत्सर सत्र के प्रसंग में विषुववान् दिवस का उल्लेख मिलता है। संवत्सर के आदि में तथा मध्य में एक-एक विषुवान दिवस होते हैं।
# '''नक्षत्र॥ nakshatra-'''
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# '''नक्षत्र॥ nakshatra-''' आकाश में स्वयं प्रकाशमान तारों को "तारा" तथा रात्रिचक्र या चन्द्रविमण्डल के अन्तर्गत आने वालों को नक्षत्र कहा जाता है।
# '''अधिकमास॥ adhikamasa-'''
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# '''अधिकमास॥ adhikamasa-''' जिस चन्द्रमास में सूर्य-संक्रान्ति नहीं पडती उस मास को अधिक मास कहा गया है। इसे लोक व्यवहार में अधिमास या मलमास के नाम से भी जाना जाता है।
  
 
उपर्युक्त ये विषय प्रतिपादित हैं। श्रौतस्मार्तधर्म कृत्यों में इन की ही अपेक्षा होने से इस वेदाङ्गज्योतिष ग्रन्थ में इन विषयों का ही मुख्यतया प्रतिपादन किया गया है।
 
उपर्युक्त ये विषय प्रतिपादित हैं। श्रौतस्मार्तधर्म कृत्यों में इन की ही अपेक्षा होने से इस वेदाङ्गज्योतिष ग्रन्थ में इन विषयों का ही मुख्यतया प्रतिपादन किया गया है।
  
 
== वेदाङ्गज्योतिष का काल निर्धारण॥ Time Determination of Vedang Jyotish ==
 
== वेदाङ्गज्योतिष का काल निर्धारण॥ Time Determination of Vedang Jyotish ==
वेदाङ्ग होने के कारण निश्चित रूप से वेदाङ्गज्योतिषका ग्रन्थ बहुत प्राचीन प्रतीत होता है। इस सन्दर्भ में अनेक प्रमाण इनसे सम्बन्धित ग्रन्थों में ऋक् ज्योतिष, याजुष् ज्योतिष तथा आथर्वण ज्योतिष में प्राप्त होते हैं।<ref>सुनयना भारती, वेदाङ्गज्योतिष का समीक्षात्मक अध्ययन,सन् २०१२, दिल्ली विश्वविद्यालय, अध्याय ०३, (पृ०१००-१०५)।</ref>  
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वेदांगज्योतिष काल (ईसापूर्व १४वीं शताब्दी) के भारतीय खगोलशास्त्र एवं ज्योतिष के सन्दर्भ में, तथा सम्बन्ध में, जब हम ऐतिहासिक साक्ष्यों का बारीकी से अवलोकन करते हैं, तब हमें ज्ञात होता है कि उस काल में महात्मा लगध आचार्य ने इन शास्त्रों के खगोलीय और ज्यौतिषीय तथ्यों का संकलन ऋग्वेद एवं यजुर्वेद में आए हुए खगोलज्यौतिषीय ऋचाओं को आगम मानकर किया था।
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वेदाङ्ग होने के कारण निश्चित रूप से वेदाङ्गज्योतिषका ग्रन्थ बहुत प्राचीन प्रतीत होता है। इस सन्दर्भ में अनेक प्रमाण इनसे सम्बन्धित ग्रन्थों में ऋक् ज्योतिष, याजुष् ज्योतिष तथा आथर्वण ज्योतिष में प्राप्त होते हैं।<ref>सुनयना भारती, वेदाङ्गज्योतिष का समीक्षात्मक अध्ययन,सन् २०१२, दिल्ली विश्वविद्यालय, अध्याय ०३, (पृ०१००-१०५)।</ref>
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==सारांश==
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भारतीय ज्ञान, विज्ञान, सामाजिक एवं व्यावहारिक ज्ञान तथा तकनीकि ज्ञान का आदि स्रोत वेद हैं। इन्हीं वेदों की ऋचाओं को आधार मानकर आचार्य लगध ने वेदांगज्योतिष शास्त्र का निर्माण ईसापूर्व १४ वीं शताब्दी में किया था। क्योंकि यज्ञ, यागादिकों की प्रवृत्ति वेदों के द्वारा हि होती है और यज्ञादि कृत्य काल के आश्रित हैं, तथा काल का ज्ञान प्राप्त कराने में समर्थ जो वैज्ञानिक विधा है, वह है खगोल एवं ज्योतिष शास्त्र।
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आचार्य लगध के द्वारा पूर्णांकपरिकर्मचतुष्टय, त्रैराशिक आदि गणित का प्रयोग पंचसंवत्सरात्मक युग के आनयन में किया गया है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि वेदांगज्योतिष काल में इन गणित विधाओं का संज्ञान था।
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इस शास्त्र में युगमान, पर्वगणों के मान, अयन मान, ऋतुओं का मान, नक्षत्र, तिथि मान, दिनमान, चान्द्रमासों के मान, सौरमासों के मान, अधिमासों के मान, मुहूर्त आदि लघु काल विभागों के मान इत्यादि का विवरण प्राप्त होता है। यह ग्रन्थ खगोलज्योतिष का मुनि रचित प्रथम आर्ष ग्रन्थ है।
  
== उद्धरण॥ References ==
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==उद्धरण॥ References==
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[[Category:Jyotisha]]
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[[Category:Vedangas]]

Latest revision as of 22:42, 18 November 2023

ज्योतिष शास्त्र की गणना वेदाङ्गों में की जाती है। वेदों के अर्थ गाम्भीर्य तथा दुरूहता के कारण कालान्तर में वेदाङ्गों की रचना हुई। वेदाङ्ग शब्द के द्वारा षडङ्गों का बोध होता है। इस लेख में मुख्य रूप से वेदाङ्गज्योतिष नामक ग्रन्थके विषयमें बताया जा रहा है, जो महर्षि लगध द्वारा प्रणीत ग्रन्थ है। भारतवर्ष के गौरवास्पद विषयों में वेदाङ्गज्योतिष का प्रमुख स्थान है। ज्योतिषविद्या में और कालगणना पद्धति में अतीव महत्वपूर्ण स्थान रखने वाले एवं वेदों में उपलब्ध ज्योतिषशास्त्र के स्वरूप को पूर्णता की ओर अग्रसर करने में वेदाङ्गज्योतिष ग्रन्थ की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। वैदिक काल में जीवन के साथ ज्योतिष का उद्देश्य यज्ञों को करने के लिए उपयुक्त समय का ज्ञानप्राप्त करना था। वैदिकधर्मकृत्यों के कालों के निरूपण में यह ग्रन्थ अत्यन्त प्रामाणिक माना गया है। आधुनिक सामान्य भाषा में ज्योतिष शब्द का अर्थ पूर्वानुमान ज्योतिष (फलित ज्योतिष) से है , परन्तु वेदाङ्गज्योतिष में ज्योतिष शब्द खगोल विज्ञान के विज्ञान से जुड़ा है जिसमें गणित सम्मिलित है।

परिचयः || Introduction

वेदाङ्गज्योतिष ग्रन्थमें सामूहिक ज्योतिषशास्त्र की चर्चा की गई है। वेदाङ्गज्योतिष की दृष्टीसे संप्रति तीन पुस्तकें परिगणित हैं-

  • आर्च्(ऋग्) ज्योतिष- ३६ श्लोक उपलब्ध हैं।
  • याजुष् (यजुर् )ज्योतिष- ५५श्लोक उपलब्ध हैं।
  • आथर्वण(अथर्व)ज्योतिष- १६८ श्लोक प्राप्त होते हैं।

अयनचलन के विचार के लिये अत्यन्त उपयोगी करीब ३४०० वर्ष प्राचीन आलेख, जो भूमण्डल के अन्य देशों के ज्योतिषवाग्मय में सर्वथा अनुपलब्ध है, इस ग्रन्थ में उपलब्ध होने से कालगणना पद्धति के विषय में इस ग्रन्थ का लौकिक महत्त्व भी विलक्षण और अद्वितीय है। भारतवर्ष का नवीन इतिहास नाम के ग्रन्थ में डा० ईश्वरी प्रसाद जी ने लिखा है-

ईसा के पूर्व द्वितीय शताब्दी के आसपास ज्योतिषशास्त्र की अनेक बातें भारतीयों ने यूरोप से सीखीं। वे रोम और यूनान को ज्योतिषशास्त्र का घर समझते थे। ज्योतिष के अनेक यूनानी ग्रन्थों का अनुवाद संस्कृत में किया गया एवं भारतीय पञ्चागों का भी यूनानियों की सलाह से संशोधन हुआ।

कुन्दन लाल शर्मा ने वैदिक वाग्मय का बृहद इतिहास नामके ग्रन्थ के षष्ठ खण्ड में लिखा है-

यद्यपि भारतीय ज्योतिषियों ने वेदांग ज्योतिष के सिद्धान्त का परित्याग प्रथम ईसवी शती के आरंभ में करके यूनानी सिद्धान्त को स्वीकार करके अपनी गणना पद्धति में परिवर्तन तथा संशोधन कर लिया था तो भी वैदिक ब्राह्मणों में वर्तमान वेदवेदाग ग्रन्थों के नित्य ब्रह्मयज्ञ की परम्परा के बल से ३४०० वर्ष पुराना वेदागज्योतिष ग्रन्थ उपलब्ध है। अब भी वैदिकब्राह्मण ब्रह्मयज्ञ में लगधप्रोक्त वेदाङ ज्योतिष ग्रन्थ पढा जाता है।

अतः ज्योतिषीय ग्रन्थों में पाश्चात्य संस्कृति का सम्मेलन होने पर भी वेदांग ज्योतिष कण्ठस्थीकरण परम्परा वशात् मूलभूत सिद्धान्तों का ही प्रयोग दृष्टिगोचर होता आ रहा है। जैसा कि कहा गया है कि-

रचनाकार॥ Author

प्राचीन भारतीय परम्परा में प्राय: आचार्यों ने अपनी अहंता बुद्धि को सदा ही पृष्ठ में रखा है। यही कारण है बहुत सारे शास्त्रीय ग्रन्थों में प्रणेताओं का परिचय नहीं मिलता है। यद्यपि महात्मा लगध ने स्वयं का कोई परिचय नहीं दिया है तथापि ऋक्ज्योतिष के द्वितीय श्लोक में उनका कुछ परिचय प्राप्त होता है-

प्रणम्य शिरसा ज्ञानम् अभिवाद्य सरस्वतीम्। कालज्ञानं प्रवक्ष्यामि लगधस्य महात्मनः॥(ऋक्ज्योतिषम्, श्लोक 2)

अर्थात् सरस्वती देवी का अभिवादन करके और सिर झुकाकर प्रणाम करते हुये महात्मा लगध के (द्वारा उपस्थापित) काल-ज्ञान को कहूंगा।

लगध आचार्य के सन्दर्भ में यह ज्ञात होता है कि उन्होंने वेदांगज्योतिष की रचना की थी, जिसका रचनाकाल अनुमानतः ईसा पूर्व १४०० ई० प्राप्त होता है। रचनाकाल के संबंध में शंकर बालकृष्ण दीक्षित जी के भारतीय ज्योतिषशास्त्रा चा प्राचीन आणी अर्वाचीन इतिहास' नामक मराठी भाषा में लिखे गये इतिहास का अवलोकन करने पर ग्रन्थानुसार विभिन्न इतिहासकारों में मत भिन्नता भी देखने को मिलती है, जो कि नीचे दी गई सारणी का अवलोकन करने पर स्पष्ट हो जाती है -

इतिहासकार निर्धारितकाल
कोल ब्रुक ईसा पूर्व १४१०
प्रो०ह्विटनी ईसा प्

लगध मुनि सम्बन्धी एक मात्र परिचयात्मक इस श्लोक से यह पता चलता है कि यद्यपि महात्मा लगध ज्योतिष शास्त्र के आचार्य रहे हैं तथापि वेदाङ्ग-ज्योतिष के रचयिता वह स्वयं नहीं अपितु उनका कोई शिष्य है। तथा सम्भवतः लगध के ही प्रतिपादित सूत्रों का संकलन ऋक्ज्योतिष, याजुष ज्योतिष एवं अथर्व ज्योतिष इत्यादि नाम से उनके शिष्यों ने किया। इसके अतिरिक्त लगध मुनि के विषय में अन्य कोई प्रामाणिक सूचना नहीं मिलती है क्यूंकि संस्कृत वाङ्मय में इस नाम के किसी आचार्य का अन्यत्र उल्लेख नहीं मिलता है। पाश्चात्य विद्वान ‘लगध' को ‘लगड़’ या ‘लाट’ कहते हैं, जिससे उनका समय पांचवी शताब्दी के आस-पास आता है जो कि सर्वथा निराधार है। इसका कारण ग्रन्थोक्त उत्तरायण-बिन्दु की स्थिति है जो खगोलीय गणना के आधार पर लगध का काल १४००-१५०० ईसा पूर्व निश्चित करता है।

वेदाङ्गज्योतिष की परिभाषा॥ Definition of Vedanga Jyotisha

वेदाङ्ग शब्द की उत्पत्ति वेद तथा अङ्ग इन दो शब्दों के मिलने से हुई है वेद का सामान्य अर्थ है ज्ञान। शब्दकल्पद्रुम में अङ्ग की परिभाषा इस प्रकार की गई है-

अङ्ग-अङ्य्न्ते ज्ञायन्ते एभिरिति अङ्गानि। (शब्दकल्पद्रुम भाग १ )

जिनके द्वारा किसी वस्तु के स्वरूप को जानने में सहायता प्राप्त होती हो उन्हैं अङ्ग कहते हैं। वेद के स्वरूप को समझाने में सहायक ग्रन्थ वेदाङ्ग कहे गए हैं।

ज्योतिषं- वेदाङ्ग-शास्त्रविशेषः तत् ग्रहणादिगणनशास्त्रम् ज्योतिषम् । ज्योतिः सूर्य्यादीनां ग्रहाणां प्रतिपाद्यतया अस्त्यस्येति अच् ।

ज्योतिष अर्थात् सूर्यादि ग्रह-नक्षत्रों की गति, स्थिति एवं फलका प्रतिपादन जिसमें किया गया उस शास्त्रको ज्योतिष शास्त्र कहा गया है।

वेदाङ्गज्योतिष के विषय॥ Contents of Vedanga Jyotisha

लगधप्रोक्त वेदाङ्गज्योतिष ग्रन्थ में मुख्यतः निम्नाङ्कित विषयों का प्रतिपादन किया गया है-[1]

  1. युग॥ Yuga - वेदों में कालमान की बडी इकाई के रूप में युग का उल्लेख मिलता है। कृत, त्रेता, द्वापर एवं कलि इन चारों युगों के नामों का भी व्यवहार अनेक स्थलों पर किया गया है किन्तु इनके परिमाण का उल्लेख नहीं मिलता है। कृतादि युगों के अतिरिक्त पञ्च संवत्सरात्मक युगों का भी उल्लेख है। पॉंचों संवत्सरों के नाम इस प्रकार है- सम्वत्सर, परिवत्सर, इदावत्सर, अनुवत्सर और इद्वत्सर। कहीं कहीं इद्वत्सर को अनुवत्सर भी कहा गया है।
  2. सम्वत्सर॥ Samvatsara- सूर्य, चन्द्र और बृहस्पति के विभिन्न राशियों के परिभ्रमण के आधार पर गिने जाने वाले प्रभव, विभव आदि साठ संवत्सरों को क्रमशः सौर, चान्द्र एवं बार्हस्पत्य संवत्सर कहा जाता है ।
  3. अयन॥ Ayana- अयन दो कहे गए हैं- उत्तरायण और दक्षिणायन। सायन मकर से लेकर मिथुन पर्यन्त उत्तरायण और सायन कर्क से लेकर धनु पर्यन्त दक्षिणायन होता है।
  4. ऋतु॥ Season- अयन से ठीक छोटा कालमान ऋतु है। वैदिक साहित्य में सामान्यतया छः ऋतुओं का उल्लेख प्राप्त होता है। शिशिर, वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद तथा हेमन्त ऋतुओं का उल्लेख प्राप्त हो रहा है।
  5. मास॥ month- ऋतु से ठीक छोटा कालमान मास है। पञ्च वर्षीय युग के प्रारम्भ में माघ मास तथा समाप्ति पर पौष मास का निर्देश वेदाङ्गज्योतिष में किया गया है। मासों की संख्या बारह है- माघ, फाल्गुन, चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष तथा पौष।
  6. पक्ष ॥ Paksha- एक मास में दो पक्ष होते हैं। शुक्लपक्ष एवं कृष्ण पक्ष। प्रत्येक पक्ष पन्द्रह दिनों(तिथियों) का होता है।
  7. तिथि॥ Tithi- शास्त्रों में दो प्रकार की तिथियॉं प्रचलित हैं। सौर तिथि एवं चान्द्र तिथि। सूर्य की गति के अनुसार मान्य तिथि को सौर तिथि तथा चन्द्रगति के अनुसार मान्य तिथि को चान्द्र तिथि कहते हैं।
  8. वार॥ Day- वार शब्द का अर्थ है अवसर अर्थात् नियमानुसार प्राप्त समय होता है। तदनुसार वार शब्द का प्रकृत अर्थ यह होता है कि जो अहोरात्र (सूर्योदय से सूर्योदय होने ) पर्यन्त जिसकी स्थिति होती है उसे वार कहते हैं।
  9. करण Karana- (तिथ्यर्धं करणः) तिथि के अर्ध भाग को करण कहा गया है।
  10. मुहूर्त्त॥ Muhurta- दिन और रात्रि को १५-१५ भागों में विभक्त किया गया है। प्रत्येक भागकी मुहूर्त्त संज्ञा है।
  11. पर्व॥ parva- धर्म, पुण्यकार्य अथवा यज्ञ आदि के लिये उपयुक्त काल को पर्वकहा गया है- कृष्णपक्ष की अष्टमी, चतुर्दशी, रवि संक्रान्ति एवं अमावस्या एवं पूर्णिमा इन पॉंचों की पर्व संज्ञा है।
  12. विषुवत् तिथि॥ vishuvat- विषुव दिन का अभिप्राय है दिवस और रात्रि की समानता का दिवस। संवत्सर सत्र के प्रसंग में विषुववान् दिवस का उल्लेख मिलता है। संवत्सर के आदि में तथा मध्य में एक-एक विषुवान दिवस होते हैं।
  13. नक्षत्र॥ nakshatra- आकाश में स्वयं प्रकाशमान तारों को "तारा" तथा रात्रिचक्र या चन्द्रविमण्डल के अन्तर्गत आने वालों को नक्षत्र कहा जाता है।
  14. अधिकमास॥ adhikamasa- जिस चन्द्रमास में सूर्य-संक्रान्ति नहीं पडती उस मास को अधिक मास कहा गया है। इसे लोक व्यवहार में अधिमास या मलमास के नाम से भी जाना जाता है।

उपर्युक्त ये विषय प्रतिपादित हैं। श्रौतस्मार्तधर्म कृत्यों में इन की ही अपेक्षा होने से इस वेदाङ्गज्योतिष ग्रन्थ में इन विषयों का ही मुख्यतया प्रतिपादन किया गया है।

वेदाङ्गज्योतिष का काल निर्धारण॥ Time Determination of Vedang Jyotish

वेदांगज्योतिष काल (ईसापूर्व १४वीं शताब्दी) के भारतीय खगोलशास्त्र एवं ज्योतिष के सन्दर्भ में, तथा सम्बन्ध में, जब हम ऐतिहासिक साक्ष्यों का बारीकी से अवलोकन करते हैं, तब हमें ज्ञात होता है कि उस काल में महात्मा लगध आचार्य ने इन शास्त्रों के खगोलीय और ज्यौतिषीय तथ्यों का संकलन ऋग्वेद एवं यजुर्वेद में आए हुए खगोलज्यौतिषीय ऋचाओं को आगम मानकर किया था।

वेदाङ्ग होने के कारण निश्चित रूप से वेदाङ्गज्योतिषका ग्रन्थ बहुत प्राचीन प्रतीत होता है। इस सन्दर्भ में अनेक प्रमाण इनसे सम्बन्धित ग्रन्थों में ऋक् ज्योतिष, याजुष् ज्योतिष तथा आथर्वण ज्योतिष में प्राप्त होते हैं।[2]

सारांश

भारतीय ज्ञान, विज्ञान, सामाजिक एवं व्यावहारिक ज्ञान तथा तकनीकि ज्ञान का आदि स्रोत वेद हैं। इन्हीं वेदों की ऋचाओं को आधार मानकर आचार्य लगध ने वेदांगज्योतिष शास्त्र का निर्माण ईसापूर्व १४ वीं शताब्दी में किया था। क्योंकि यज्ञ, यागादिकों की प्रवृत्ति वेदों के द्वारा हि होती है और यज्ञादि कृत्य काल के आश्रित हैं, तथा काल का ज्ञान प्राप्त कराने में समर्थ जो वैज्ञानिक विधा है, वह है खगोल एवं ज्योतिष शास्त्र।

आचार्य लगध के द्वारा पूर्णांकपरिकर्मचतुष्टय, त्रैराशिक आदि गणित का प्रयोग पंचसंवत्सरात्मक युग के आनयन में किया गया है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि वेदांगज्योतिष काल में इन गणित विधाओं का संज्ञान था।

इस शास्त्र में युगमान, पर्वगणों के मान, अयन मान, ऋतुओं का मान, नक्षत्र, तिथि मान, दिनमान, चान्द्रमासों के मान, सौरमासों के मान, अधिमासों के मान, मुहूर्त आदि लघु काल विभागों के मान इत्यादि का विवरण प्राप्त होता है। यह ग्रन्थ खगोलज्योतिष का मुनि रचित प्रथम आर्ष ग्रन्थ है।

उद्धरण॥ References

  1. शिवराज आचार्यः कौण्डिन्न्यायनः, वेदाङ्गज्योतिषम् , भूमिका,वाराणसीःचौखम्बा विद्याभवन (पृ०१२)।
  2. सुनयना भारती, वेदाङ्गज्योतिष का समीक्षात्मक अध्ययन,सन् २०१२, दिल्ली विश्वविद्यालय, अध्याय ०३, (पृ०१००-१०५)।