Tithi (तिथि)

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तिथि भारतीय पंचांग का सबसे मुख्य अंग है। तिथि के नाम से सर्वप्रथम ध्यान तारीख की ओर जाता है किन्तु भारतीय ज्योतिष शास्त्र के अनुसार चन्द्रमा अपने विमण्डलमें स्वगति से चलता हुआ जिस समय सूर्य के सन्निकट पहुँच जाता है तब वह अमावस्या तिथि होती है। अमावस्या के दिन सूर्य एवं चन्द्र दोनों एक राशि पर आ जाते हैं। उसके बाद सूर्य एवं चन्द्रमा दोनों अपने-अपने मार्ग पर घूमते हुये जो दूरी (१२ अंश की) उत्पन्न करते हैं उसी को तिथि कहा गया है। यह भारतीय चान्द्रमास का एक दिन होता है। तिथि के आधार पर ही सभी दिन, त्यौहार, जन्मदिन, जयन्ती और पुण्यतिथि आदि का निर्धारण होता है। तिथिका हमारे मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव पडता है। इससे हमारे जन्म, मृत्यु आदि कई विशेष कार्य जुडे होते हैं। किसी भी तिथि के पूरी होने में लगने वाला समय सदैव बदलता रहता है। वह कम से कम २० घण्टों का और अधिक से अधिक २७ घण्टों का हो सकता है।

Introduction to Elements of a Panchanga - Tithi. Courtesy: Prof. K. Ramasubramaniam and Shaale.com

उद्देश्य

प्रस्तुत लेख के अध्ययन के पश्चात् तिथि संबंधि मुख्य बिन्दुओं के ज्ञान में प्रवीण हुआ जा सकता है। जो कि इस प्रकार हैं -

  • तिथि ज्ञान की परम्परा क्या है?
  • तिथि किसे कहते हैं एवं तिथियों की कौन-कौन सी संज्ञाएं हैं?
  • तिथियों का साधन कैसे होता एवं मान क्या है?
  • तिथिक्षय एवं तिथिवृद्धि कैसे होती है?
  • तिथियों में विहितकर्म एवं तिथि और तारीख में अन्तर क्या है?
  • दैनन्दिन कार्य जैसे- जन्म दिवस, वैवाहिक वर्षगांठ एवं पुण्यतिथि आदि का ज्ञान।
  • व्रत-पर्व निर्धारण

परिचय॥ Parichaya

चन्द्रमा की एक कलाको तिथि कहते हैं। चन्द्र कलारूप क्रिया उपलक्षित कालको तिथि के रूप में व्यवहृत किया जाता है। तिथियाँ १ से ३० तक अर्थात् एक मास में ३० होती हैं। ये पक्षों में विभाजित हैं। प्रत्येक पक्ष में १५-१५ तिथियाँ होती हैं। प्रत्येक तिथि का एक नाम है। चन्द्र जलतत्व है और चन्द्र के गमन पर तिथि आधारित है अतः हमारे मन एवं मस्तिष्क की स्थिति को भी तिथि दर्शाती है। जन्मकुण्डली में तिथि अतिआवश्यक हिस्सा है। जन्म के दिन पडने वाली तिथि को जन्मतिथि कहते हैं।

  • पंचांग के अवयवों पर विचार करते समय तिथि को शरीर माना गया है।
  • शरीर(तिथि) शुद्ध और बलवान होने पर ही प्रबलता की कामना की जाती है।
  • तिथिमें दोष उत्पन्न होने पर चन्द्रबल, लग्नबल और ग्रहबल फल नहीं देते हैं।
  • मानव के दैनन्दिन जीवन से जुडे अनेक क्रियाकलापों में तिथि की महत्वपूर्ण भूमिका है।
  • व्रत-पर्व निर्धारण में भी तिथि ज्ञान आवश्यक है।
  • लौकिक कार्यों के लिये सूर्योदय के क्षण की तिथि, उस क्षण से लेकर आगामी सूर्योदय तक, बदली नहीं जाती है।[1]

तिथियों के नाम

सामान्यतया जन्माष्टमी, रामनवमी, विजयादशमी, एकादशी इत्यादि नाम सभी ने सुने होते हैं। इसमें अष्टमी, नवमी, दशमी, और एकादशी ये तिथियों के नाम हैं। जिस तरह अंग्रेजी कैलेण्डर में एक महीने में प्रायः ३० दिन होते हैं ठीक उसी प्रकार एक चान्द्र महीने में ३० तिथियां होती हैं। इनमें १५ तिथियां शुक्ल-पक्ष की एवं १५ कृष्ण पक्ष की होती हैं। पक्ष की तिथियों के नाम इस प्रकार हैं -

प्रतिपच्चद्वितीया च तृतीयातदनन्तरम्। चतुर्थी पञ्चमी षष्ठी सप्तमी चाष्टमी तथा॥

नवमी दशमी चैवैकादशी द्वादशी ततः। त्रयोदशी ततो ज्ञेया ततः प्रोक्ता चतुर्दशी॥

पञ्चदशी तिथिः शुक्ले पूर्णिमेति निगद्यते। कृष्णे पञ्चदशी या च सा त्वमा परिकीर्त्यते॥(मुहू०चि०)[2]

अर्थ- प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया, चतुर्थी, पञ्चमी, षष्ठी, सप्तमी, अष्टमी, नवमी, दशमी, एकादशी, द्वादशी, त्रयोदशी, चतुर्दशी और पञ्चदशी; शुक्ल पक्ष की पञ्चदशी को पूर्णिमा और कृष्णपक्ष की पञ्चदशी अमावस्या ये तिथियों के नाम हैं।

शुक्लपक्ष में प्रतिपदा से आरम्भ होकर, चन्द्रमा की कला प्रतिदिन बढती हुई पूर्णिमा अर्थात् पक्ष के १५वें दिन पूर्ण वृत्ताकार होती है। इसके पश्चात् कृष्ण पक्ष आरम्भ होता है जिसमें प्रतिपदा के दिन से आरम्भ होकर चन्द्रमा की कला क्रमशः घटती हुई अमावस्या के दिन सम्पूर्ण कलाओं से विहीन प्रकाश-रहित चन्द्रमा होता है।

परिभाषा॥ Paribhasha

तिथि क्या है! इस पर विचार करते हुये आचार्यों ने तिथि की परिभाषा इस प्रकार की है -

तनोति विस्तारयति वर्द्धमानां क्षीयमाणांवा चन्द्रकलामेकां यः कालविशेषः सा तिथिः।[3]

अर्थ- चन्द्रमा के एक-एक कला वृद्धि एवं क्षय के अवच्छिन्न काल को तिथि कहा जाता है।

सूर्यचन्द्रयोः यदा अन्तरं द्वादशांशमितं भवति तदा एका तिथिः भवति।

वस्तुतः सूर्य एवं चन्द्रमा के द्वादश अंशात्मक गत्यन्तर को तिथि कहते हैं। यही अन्तरांश का मध्यम मान है।[4]

तिथि-निरूपण

भारतवर्ष में दो प्रकार की तिथियाँ प्रचलित हैं। सौर तिथि एवं चान्द्र तिथि। सूर्य की गति के अनुसार मान्य तिथि को सौर तिथि तथा चन्द्रगति के अनुसार मान्य तिथि को चान्द्र तिथि कहते हैं। वसिष्ठ संहिताकार ने इस प्रकार कहा है-

सूर्यान्निर्गत्य यत्प्राचीं शशी याति दिने-दिने। लिप्तादिसाम्ये सूर्येन्दुं तिथ्यन्तेऽर्कांशकैस्तिथिः॥

अर्थात् गत्यन्तर वश सूर्य से पूर्व दिशा की ओर चन्द्रमा जैसे-जैसे बढता है वैसे-वैसे तिथियों की उत्पत्ति होती है तथा अमावस्या तिथि में सूर्य चन्द्रमा का राशि, अंश, कला और विकलादि साम्य हो जाता है तथा पुनः दोनों के बीच अमावस्या से आगे यह अन्तर हमेशा १२-१२ अंश के अन्तर से बढता हुआ चान्द्रमास पर्यन्त तिथि चक्र को पूर्ण करता है।[5]

सौर तिथि- सौर तिथि में सूर्य का राशि भ्रमण मुख्य हेतु है। सौर तिथि दो प्रकार से मानी जाती है। एक प्रकार यह है कि जिस-जिस दिन सूर्य की संक्रांति लगती है उस दिन को प्रथम तिथि माना जाये। दूसरा प्रकार यह है कि संक्रान्ति के दूसरे दिन से प्रथम तिथि माना जाय। बंगाल एवं पञ्जाब में इन तिथियों का प्रयोग विशेष रूप से होता है। अन्यत्र भी सौर तिथि के नाम से इनका प्रचलन है। किन्तु, भारत में प्रचलित व्रतों एवं उत्सवादि में इन तिथियों का प्रयोग प्रायः कम ही होता है।

चान्द्र तिथि- भारतीय धार्मिक कार्यों में विशेषरूप से चान्द्र तिथियों का ही प्रयोग होता है। इन तिथियों का नाम एवं तिथि स्वामी इस प्रकार हैं-

(तिथियों के नाम, तिथियों के पर्यायवाची शब्द एवं तिथियों के स्वामी तालिका)[6]
क्र०सं० सूर्य और चन्द्र के मध्य अंतर शुक्ल पक्ष तिथियों का नाम सूर्य और चन्द्र के मध्य अंतर कृष्ण पक्ष तिथियों पर्यायवाची शब्द तिथि संज्ञा तिथि स्वामी
1. 0० - 12० प्रतिपदा 180० - 192० पक्षति, आद्यतिथि, भू और चन्द्रके सभी पर्यायवाचक शब्द(भूमि, भू, कु, शशी, इन्दु आदि) नंदा अग्नि
2. 12० - 24० द्वितीया 192० - 204० युग्म, द्वि, यम और नेत्रके सभी पर्याय (नेत्र, अक्षि, अन्तक) अश्वि आदि। भद्रा विधि
3. 24० - 36० तृतीया 204० - 216० अग्नि, वह्नि, हुताशन, अनल, शिवस्वेद। जया गौरी
4. 36० - 48० चतुर्थी 216० - 228० युग, वेद, अब्धि, उदधि। रिक्ता गणेश
5. 48० - 60० पञ्चमी 228० - 240० बाण, शर, नाग, इषु। पूर्णा अहि(सर्प)
6. 60० - 72० षष्ठी 240० - 252० स्कन्द, रस, अंग। नंदा गुह(स्कन्द स्वामी)
7. 72० - 84० सप्तमी 252० - 264० अश्व, हय, शैल, वायु, अर्क, अद्रि। भद्रा रवि
8. 84० - 96० अष्टमी 264० - 276० वसु, गज, नाग, उरग। जया शिव
9. 96० - 108० नवमी 276० - 288० अंक, गो, ग्रह, नन्द, दुर्गा। रिक्ता दुर्गा
10. 108० - 120० दशमी 288० - 300० दिक् , आशा, काष्ठा। पूर्णा अन्तक(यम)
11. 120० - 132० एकादशी 300० - 312० शिव, रुद्र, ईश। नंदा विश्वेदेव
12. 132० - 144० द्वादशी 312० - 324० अर्क, रवि, सूर्य, हरि। भद्रा हरि
13. 144० - 156० त्रयोदशी 324० - 336० विश्वे, काम, मदन जया कामदेव
14. 156० - 168० चतुर्दशी 336० - 348० यम, इन्द्र, मनु, शक्र। रिक्ता शिव
15. 168० - 180० अमावस्या(कृष्णपक्ष की पञ्चदशी) अमा, दर्श, कुहू। पूर्णा पितृ देवता
16. पूर्णिमा(शुक्लपक्ष की पञ्चदशी) 348०- 360० तिथि, पंचदशी, राका। शशि( चन्द्रमा)

तिथियों का ऐतिहासिक स्वरूप

तिथियों के स्वामी तथा संज्ञाएं

नन्दादि संज्ञाऐँ

ज्योतिषशास्त्रमें समग्र तिथियों की क्रमशः नन्दा आदि पाँच भागों में विभाजित किया गया हैं-

नन्दा च भद्रा जया च रिक्ता पूर्णेति तिथ्यो अशुभमध्यशस्ताः। सिते असिते शस्तसमाधमाः स्युः सितज्ञभौमार्किगुरौ च सिद्धाः॥(मु०चि०)[6]

नन्दा, भद्रा, जया, रिक्ता और पूर्णा संज्ञक।

  • नन्दा तिथि- प्रतिपदा, षष्ठी, और एकादशी।
  • भद्रा तिथि- द्वितीया, सप्तमी और द्वादशी।
  • जया तिथि- तृतीया, अष्टमी और त्रयोदशी।
  • रिक्ता तिथि- चतुर्थी, नवमी और चतुर्दशी।
  • पूर्णा तिथि- पञ्चमी, दशमी, पूर्णिमा और अमावस्या।

चन्द्रमा के पूर्ण और क्षीण होने से तिथियों में बलत्व और निर्बलत्व होता है। अतः शुक्लपक्ष में प्रतिपद् से पंचमी तक चन्द्रमा के क्षीण होने के कारण प्रथमावृत्ति की नन्दादि तिथियाँ अशुभ, षष्ठी से दशमी तक चन्द्रमा के मध्य(न पूर्ण, न क्षीण) होने से द्वितीयावृत्ति की नन्दादि(६,७।८।९।१०) तिथियाँ मध्य और इसी भाँति तृतीयावृत्ति की नन्दादि(११।१२।१३।१४।१५/३०) तिथियाँ चन्द्रमा के पूर्ण होने के कारणशुभ कही गईं हैं। एवं कृष्णपक्षमें १-५ तिथियाँ शुभ, ६-१० तक तिथियाँ मध्य, ११-१५/३० तक की तिथियाँ चन्द्रमा के क्षीण होने के कारण अशुभ मानी गईं हैं।[6] स्पष्टज्ञानार्थ सारिणी-

(नन्दादि संज्ञाऐं एवं फल ज्ञान सारिणी)
तिथि संज्ञा तिथियाँ
प्रथमावृत्ति द्वितीयावृत्ति तृतीयावृत्ति
नन्दा ११
भद्रा १२
जया १३
रिक्ता १४
पूर्णा १० १५,३०
शुक्लपक्ष में अशुभ मध्य शुभ
कृष्णपक्ष में शुभ मध्य अशुभ

अमावस्या एवं पूर्णिमा निर्णय

सूर्य एवं चन्द्रमा जिस दिन एक बिन्दु पर आ जाते हैं उस तिथि को अमावस्या कहते हैं। उस दिन सूर्य और चन्द्रमाका गति अन्तर शून्य अक्षांश होता है। एवं इसी प्रकार सूर्य एवं चन्द्रमा परस्पर आमने-सामने अर्थात् ६राशि या १८० अंशके अन्तरपर होते हैं, उस तिथि को पूर्णिमा या पूर्णमासी कहते हैं।

दर्शः सूर्येन्दु संगमः।

सूर्य और चन्द्र के संगम को दर्श (अमावस्या) कहते हैं। वसिष्ठ संहिता में इसी बात को श्लोकबद्ध किया गया है-

सूर्यान्निर्गत्य यत्प्राचीं शशी याति दिने-दिने। लिप्तादिसाम्ये सूर्येन्दु तिथ्यन्तेऽर्कांशकैस्तिथिः॥

सूर्य से बाहर निकल कर पूर्व दिशा की ओर चन्द्रमा जैसे-जैसे बढता है वैसे-वैसे तिथि बढती है। अमावस्या तिथि में राशि,अंश और कला का साम्य होता है दोनों के बीच।अमावस्या तिथि दो प्रकार की होती है-[7]

  1. सिनीवाली अमावस्या- जो चतुर्दशी तिथिमिश्रित अमावस्या हो वह सिनीवाली संज्ञक कहलाती है।
  2. कुहू अमावस्या- जो प्रतिपदा तिथि मिश्रित अमावस्या हो वह कुहू संज्ञक कहलाती है।

पूर्णिमा तिथि के दो प्रकार हैं-

  1. अनुमति पूर्णिमा- जो चतुर्दशी तिथिमिश्रित पूर्णिमा हो वह अनुमति संज्ञक कहलाती है।
  2. राका पूर्णिमा- जो प्रतिपदा तिथि मिश्रित पूर्णिमा हो वह राका संज्ञक कहलाती है।

शास्त्रों में अमावस्या तिथि की दर्श एवं पूर्णिमा तिथि की पर्व संज्ञा विहित है।

तिथि वृद्धि एवं तिथि क्षय

एक तिथिका मान १२ अंश होता है, कम न अधिक। सूर्योदयके साथ ही तिथि नाम एवं संख्या बदल जाती है। यदि किसी तिथिका अंशादि मान आगामी सूर्योदयकालसे पूर्व ही समाप्त हो रहा होता है तो वह तिथि समाप्त होकर आनेवाली तिथि का प्रारम्भ मानी जायेगी और सूर्योदयकालपर जो तिथि वर्तमान है, वही तिथि उस दिन आगे रहेगी। यदि तिथिका अंशादि मान आगामी सूर्योदयकालके उपरान्ततक, चाहे थोड़े ही कालके लिये सही रहता है तो वह तिथि- वृद्धि मानी जायगी। यदि दो सूर्योदयकालके भीतर दो तिथियाँ आ जाती हैं तो दूसरी तिथि का क्षय माना जायगा और उस क्षयतिथिकी क्रमसंख्या पंचांगमें नहीं लिखते, वह तिथि अंक छोड़ देते हैं।[8]

तिथि वृद्धि

आशय यह है कि सूर्योदयकालतक जिस भी तिथिका अंशादि मान वर्तमान रहता है। चाहे कुछ मिनटोंके लिये ही सही, वही तिथि वर्तमानमें मानी जाती है। तिथि-क्षयवृद्धिका आधार सूर्योदयकाल है।[9]

तिथीनां त्रितयं वारमेकं स्पृशति यत्र वै। अवमं तद्दिनं ज्ञेयं शुभकार्येषु संत्यजेत्॥(ज्यो०मयू० ५९)[2] वाराणां त्रितयं यत्र तिथिमेकां स्पृशेद्यदा। वृद्धिस्पृक् चेति सा ख्याता न ग्राह्या मंगलादिषु॥(ज्यो०मयू०६०)[2]

जिसमें एक सूर्योदय हो वह शुद्ध तिथि कहलाती है। जिसमें सूर्योदय नहीं हो वह क्षय तिथि और जिसमें दो सूर्योदय हो उनमें अग्रिम अधिक तिथि कहलाती है। शुभकार्य में क्षय और अधिक तिथि त्याज्य और शुद्ध तिथि प्रशस्त है।

तिथि क्षय

जिस तिथि में दो सूर्योदय हो, उसे क्षयतिथि कहते हैं। क्षयतिथि पड़ने पर एक अहोरात्र में तीन तिथियों की सन्धियाँ होती हैं। इस प्रकार से पूर्वतिथि सूर्योदय के बाद ७घटी के भीतर कभी भी समाप्त हो जाती है। एवं एक तिथि तीन दिनों को स्पर्श करती है तो उसे अधितिथि कहा जाता है। क्षय-वृद्धि दोनों तिथियों को शुभ कर्म में निन्दित कहा गया है।

शुद्ध तिथि

जिस तिथि में केवल एक सूर्योदय हो। मध्यम तिथि ६० घटी से छोटी होती है। धर्मशस्त्रीय दृष्टि से तिथ्यारम्भ तथा अवसान के कालभेद से व्रतपर्व उत्सव जयन्ती प्रभृति के लिये अनेक प्रकार के विचार होते हैं।

तिथियों में विहित कर्म

देवालय निर्माण और देवप्रतिष्ठा आदि माङ्गलिक कार्यों हेतु जो तिथि, नक्षत्र, मुहूर्त आदि का विधान किया गया है वह तद्तद् तिथि अधिष्ठातृ स्वामियों के कालमें भी किया जा सकता है। जैसाकि वाराहसंहिता में कहा गया है-

यत्कार्यं नक्षत्रे तद्दैवत्यासु तिथिषु तत्कार्यम् । करणमुहूर्तेष्वपि तत्सिद्धिकरं देवतानां च ॥

तिथियों के स्वामी

तिथीशा वह्निकौ गौरी गणेशोऽहिर्गुहो रविः। शिवो दुर्गान्तको विश्वे हरिः कामः शिवः शशी॥(मुहू०चिन्ता०१/३)[10]

इस श्लोक के अनुसार प्रत्येक तिथियों के अलग-अलग स्वामी कहे गये हैं। जैसे - प्रतिपदा - अग्नि, द्वितीया- ब्रह्मा, तृतीया - गौरी, चतुर्थी - गणेश, पंचमी - सर्प, षष्ठी - कार्तिकेय, सप्तमी - सूर्य, अष्टमी - शिव, नवमी - दुर्गा, दशमी - यम, एकादशी - विश्वेदेव, द्वादशी - विष्णु, त्रयोदशी - कामदेव, चतुर्दशी - शिव, पूर्णिमा - चन्द्रमा और अमावस्या के स्वामी पितर कहे गये हैं।अग्निपुराण में भी तिथि विहित कार्यों का विचार किया गया है-

प्रतिपद्यग्निपूजा स्याद् द्वितीयाया च वेधसः।षष्ठ्यां पूजा गुहस्य च। चतुर्थ्यां गणनाथस्य गौर्यास्तत्पूर्ववासरे। सरस्वत्या नवम्यां च सप्तम्यां भास्करस्य च॥

अष्टम्याश्च चतुर्दश्यामेकादश्यां शिवस्य च। द्वादश्यां च त्रयोदश्यां हरेश्च मदनस्य च ॥

शेषादीनां फणीशानां पञ्चम्यां पूजनं भवेत्। पर्वणीन्दोस्तिथिष्वासु पक्षद्वयगतास्वपि इति॥

प्रत्येक तिथिविहित देवता पूजा विधान के साथ ही प्रतिपदा आदि तिथियों में किस कार्य को करना चाहिये अथवा किस को नहीं करना चाहिये श्री महर्षि वसिष्ठ जी तिथि प्रयुक्त कार्यों का उल्लेख करते हैं-[11]

नोद्वाहयात्रोपनयप्रतिष्ठां सीमन्तचौलाखिलवास्तुकर्म। गृहप्रवेशाखिलमङ्गलाद्यं कार्यं हि मासाद्यतिथौ कदाचित्॥१॥

सप्ताङ्गचिह्नानि नृपस्य वास्तुव्रतप्रतिष्ठाखिलमङ्गलानि। यात्राविवाहाखिलभूषणाद्यं कार्यं द्वितीयादिवसे सदैव॥२॥

सङ्गीतविद्याखिलशिल्पकर्मसीमन्तचौलान्नगृहप्रवेशम्। कार्यं द्वितीयादिवसे यदुक्तं सदा तृतीयादिवसेऽपि कार्यम् ॥३॥

रिक्तासु विद्युद्वधबन्धशस्त्रविषाग्निघातादि च याति सिद्धिम्। यन्मङ्गलं तासु कृतं विमूढैर्विनाशमायाति तदाशु नूनम् ॥४॥

शुभानि कार्याणि चरस्थिराणि चोक्तान्यनुक्तान्यपि यानि तानि। सिद्धिं प्रयान्त्याशु ऋणप्रदानं विनाशदं नागतिथौ विधेयम् ॥५॥

अभ्यङ्गयात्रापितृकर्म दन्तकाष्ठं विना पौष्टिकमङ्गलानि। षष्ठ्यां विधेयानि रणोपयोग्यशिल्पानि वास्त्वम्बरभूषणानि॥६॥

द्वितीयायां तृतीयायां पञ्चम्यां कथितान्यपि। तानि सिध्यन्ति कार्याणि सप्तम्यां निखिलान्यपि॥७॥

सङ्ग्रामयोग्याखिलवास्तुशिल्पनृपप्रमोदाखिललेखनानि। स्त्रीरत्नकार्याखिलभूषणानि कार्याणि कार्याणि महेशतिथ्याम् ॥८॥

द्वितीयायां तृतीयायां पञ्चम्यां सप्तमीतिथौ । उक्तानि यानि सिध्यन्ति दशम्यां तानि सर्वदा॥९॥

व्रतोपवासाखिलधर्मकृत्यं सुरोत्सवाद्याखिलवास्तुकर्म। सङ्ग्रामयोग्याखिलवस्तुकर्म विश्वेतिथौ सिध्यति शिल्पकर्म॥१०॥

पृथिव्यां यानि कर्माणि धर्मपुष्टिशुभानि च। चरस्थिराणि द्वादश्यां यात्रां नवगृहं विना॥११॥

विधातृगौरीभुजगभान्वन्तकदिनेषु च। उक्तानि तानि सिध्यन्ति त्रयोदश्यां विशेषतः॥१२॥

यज्ञक्रियापौष्टिक मङ्गलानि सङ्ग्रामयोग्याखिलवास्तुकर्म। उद्वाहशिल्पाखिलभूषणाद्यं कार्यं प्रतिष्ठा खलु पौर्णमास्याम् ॥१३॥

सदैव दर्शे पितृकर्म कृत्वा नान्यद्विधेयं शुभपौष्टिकाद्यम्। मूढैः कृतं तत्र शुभोत्सवाद्यं विनाशमायात्यचिराद्भृशं तत् ॥१४ ॥

तिथियों में किए जाने वाले कार्य की सारणी -
तिथि स्वामी निर्दिष्ट कर्म
प्रतिपदा अग्नि विवाह, उपनयन, यात्रा, प्रतिष्ठा, सीमन्त, चौल, वास्तुकर्म, गृहप्रवेश आदि समस्त माङ्गलिक कार्य प्रतिपदा को नहीं करने चाहिये।
द्वितीया ब्रह्मा यात्रा, विवाह, आभूषण, सङ्गीतविद्या, शिल्प आदि कार्य द्वितीया को नहीं करना चाहिये।
तृतीया पार्वती द्वितीया तिथि में निषेध कार्यों को तृतीया तिथिमें करना चाहिये।
चतुर्थी गणेश विद्युत्कर्म, वध, बन्धन, शस्त्र, विष, अग्नि, घात आदि कार्य चतुर्थी तिथिमें करनेसे सिद्ध नहीं होते हैं।
पंचमी सर्प द्वितीया तिथि में निषेध कार्यों को पञ्चमी तिथिमें करना चाहिये।
षष्ठी कार्तिकेय अभ्यंग, यात्रा, पितृकर्म, दन्तकाष्ठ आदि सञ्चय नहीं करना चाहिये।
सप्तमी सूर्य द्वितीया, तृतीया और पञ्चमी तिथियों की तरह ही उनसभी कार्यों को सप्तमी तिथिमें भी आचरण करना चाहिये।
अष्टमी शिव संग्राम, वास्तु, शिल्पराज, प्रमोद, लेखन, स्त्री, रत्न, अखिल आभूषण आदि सभी कार्यों को अष्टमी तिथिमें करना शुभ होता है।
नवमी दुर्गा चतुर्थी तिथिमें उक्त कार्यों को नवमी तिथि में करना चाहिये।
दशमी यम द्वितीया, तृतीया, पञ्चमी और सप्तमी तिथियों की तरह ही उनसभी कार्यों को नवमी तिथिमें भी आचरण करना चाहिये।
एकादशी विश्वेदेवा व्रत, उपवास, अनेक धार्मिक कृत्यों को, देव उत्सव, उद्यापन और कथा आदि शुभ कर्मों को एकादशी तिथि में करना चाहिये।
द्वादशी हरि यात्रा आदि को छोडकर पुष्टिकारक सभी धार्मिक एवं शुभ कार्यों को द्वादशी तिथिमें करना चाहिये।
त्रयोदशी काम द्वितीया, तृतीया, पञ्चमी, सप्तमी और नवमी तिथियों की तरह ही उनसभी कार्यों को त्रयोदशी तिथिमें भी आचरण करना चाहिये।
चतुर्दशी शिव चतुर्थी तिथिमें विहित कार्यों को चतुर्दशी तिथि में भी करना चाहिये।
पूर्णिमा चन्द्रमा अमावस्या तिथि में सदा पैतृक कर्मों को ही करना चाहिए। अन्य आचरणीय शुभ कार्यों को अमावस्या में त्याग देना चाहिये।
अमावस्या पितर विवाह, शिल्प, पौष्टिककर्म, मंगलकर्म, संग्राम, वास्तुकर्म, यज्ञक्रिया प्रतिष्ठा आदि कार्यों को पूर्णिमा तिथिमें करना चाहिये।

युगादि-मन्वादि तिथियाँ

शास्त्रों में युगादि एवं मन्वादि तिथियों को पुण्यहेतु बहुत उपयुक्त कहा है। इन तिथियों में जो भी पुण्यप्रद कार्य किया जाता है वह कोटि गुणित ज्यादा एवं अक्षय फल देता हैं।

  1. सत्ययुगादि- कार्तिक शुक्ल पक्ष नवमी।
  2. त्रेतायुग- वैशाख शुक्लपक्ष तृतीया।
  3. द्वापरयुग- माघ अमावस्या।
  4. कलियुग- भाद्रपद कृष्णपक्ष त्रयोदशी।

मन्वादि तिथियों का परिगणन नारद पुराण प्रथम पाद एवं अन्यान्य शास्त्रों में इस प्रकार किया गया है-

मन्वादि तिथियाँ
क्रम मनु का नाम प्रारम्भ तिथियाँ क्रम मनु का नाम प्रारम्भ तिथियाँ
स्वायम्भुव चैत्र शुक्ल तृतीया सावर्णि फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा
स्वारोचिष चैत्र शुक्ल पूर्णिमा दक्षसावर्णि आश्विन शुक्ल नवमी
औत्तम कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा १० ब्रह्मसावर्णि माघ शुक्ल सप्तमी
तामस कार्तिक शुक्ल द्वादशी ११ धर्मसावर्णि पौष शुक्ल त्रयोदशी
रैवत आषाढ शुक्ल द्वादशी १२ रुद्रसावर्णि भाद्रपद शुक्ल तृतीया
चाक्षुष आषाढ शुक्ल पूर्णिमा १३ दैवसावर्णि श्रावण कृष्ण अमावस्या
वैवस्वत ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा १४ इन्द्रसावर्णि भाद्रपद(श्रावण) कृष्ण अष्टमी

ये १४ मनुओं की आद्य तिथि कही गयी हैं इनमें स्नान, दान, जप, होम एवं पितृकर्म (पार्वण श्राद्ध) आदि करना अत्यन्त पुण्यको देने वाला होता है एवं इन तिथियों में अनध्याय विहित है।

पर्व तिथियाँ

अमावास्याऽष्टमी चैव पूर्णिमा चैव चतुर्दशी। इति पर्वाणि कथ्यन्ते रविसंक्रान्तिगं दिनम्॥

अमावस्या ८, १५, १४ ये तिथियाँ और सूर्य की संक्रान्ति ये ५ पर्व कहलाते हैं। इनमें स्नान दानादि का अधिक महत्व कहा गया है।

तिथि समय

सूर्योदय के समय जो तिथि वर्तमान हो वह उदयव्यापिनी तिथि सम्पूर्ण दिन रात्रि तक दान, पठन, व्रतोपवास, स्नान, देवकर्म, विवाहादि संस्कार तथा प्रतिष्ठादि समस्त मांगलिक कार्यों में ग्राह्य है। परन्तु श्राद्ध शरीर पर तैल उबटन का प्रयोग, मैथुन तथा जन्म मरण में तात्कालिक कर्मव्यापिनी तिथि को ही ग्रहण करनी चाहिये।

तिथि निर्णय

सूर्यसिद्धान्त ग्रन्थ में भी तिथि को सैद्धान्तिक रूप से इस प्रकार परिभाषित किया है -

अर्काद्विनिसृतः प्राचीं यद्यात्यहरहः शशी। तच्चान्द्रमानमंशैस्तु ज्ञेया द्वादशभिस्तिथिः॥

अर्थात् अमावस्या को सूर्य तथा चन्द्रमा के राशि-अंश-कला-विकला आदि (भोगांशादि) समान हो जाते हैं, फिर चन्द्रमा सूर्य को छोडकर प्रतिदिन पूर्व दिशा में १२ अंश बढता है, उतनी देर में एक तिथि होती है।

चन्द्रमा अपने विमण्डल में स्वगति से चलता हुआ जिस समय सूर्य के सन्निकट पहुँच जाता है तब वह अमावस्या तिथि होती है। अर्थात् अमावस्या तिथि के दिन सूर्य-चन्द्र दोनों एक राशि पर आ जाते हैं। उसके बाद सूर्य एवं चन्द्रमा दोनों अपने-अपने मार्ग पर घूमते हुए जो दूरी (१२ अंश की) उत्पन्न करते हैं, उसी को तिथि कहा गया है। १२-१२ अंशात्मक अन्तर की एक-एक तिथि होती है। ३६० अंश पूरा होने पर पुनः सूर्य-चन्द्र एक राशि पर आ जाते हैं, तब एक चान्द्रमास होता है। सूर्य चन्द्र का १२ अंश अन्तर जिस समय में पूरा होता है, उसको तिथि का भोगकाल कहते हैं। जब १, २, ३, ४ आदि तिथियों में चन्द्रमा की कलाएँ बढती रहती हैं, उसको शुक्ल पक्ष और जिस समय चन्द्रमा की कलाएँ घटने लगती हैं, उसे कृष्णपक्ष कहा जाता है।


जब चंद्रमा की कलायें पूर्णता को प्राप्त हो जाती हैं उसे पूर्णिमा एवं घटते-घटते जब कलाएँ हीन हो जाती है, तो वह अमावस्या कही जाती है। सूर्य का मध्यम दैनिक गति १ अंश है तथा चन्द्रमा का मध्यम दैनिक गति १३ अंश है। अर्थात् ये पूर्वाभिमुख होकर १२ अंशों के अन्तर पर गति करते हैं। सूर्य तथा चन्द्रमा का १२ अंशों का अन्तर जब कभी कम या ज्यादा हो जाता है तब कभी तिथि क्षय या वृद्धि होती है। जब सूर्यांशों से चन्द्रमा सूर्य से 12 x 15 = 180 अंश आगे हो जाता है तब पूर्णिमा तिथि समाप्त होती है और कृष्णपक्ष की प्रतिपदा का आरम्भ होता है जब चन्द्रमा और सूर्य का अन्तर ३६० अंश अर्थात् शून्य हो जाता है तो अमावस्या होती है। इसी परिभ्रमण को चान्द्रमास कहते हैं।

चन्द्र जब सूर्य से १२ अंश आगे निकलता है तो एक तिथि होती है।

तिथि संख्या = (चन्द्र - सूर्य) / १२ अंश

० से १ तक अर्थात् १ अंश से १२ अंश तक पहली तिथि प्रतिपदा।

सूर्य से ११ अंश के भीतर चन्द्र रहने पर वह नहीं दिखता है। शुक्ल पक्ष की द्वितीया(१२ -२४ अंश) से चन्द्र दिखता है।

गणना में तिथि संख्या १५ से अधिक आने पर कृष्ण पक्ष शुरू होता है और तिथि से शुक्ल पक्ष की १५ तिथि घटाते हैं।

उदाहरण- (चन्द्र - सूर्य) = २०७ अंश

१२ से भाग देने पर -१७.२५ अर्थात् १८वीं तिथि। १५ घटाने पर यह कृष्ण तृतीया हुआ।

गणित के अनुसार पूरे विश्व में तिथि का आरम्भ एक ही साथ होता है।

व्यवहार के लिये किसी स्थान पर सूर्योदय के समय जो तिथि होती है, वही तिथि अगले सूर्योदय तक मानी जाती है।

चन्द्रमा की गति सूर्यसे प्रायः तेरह गुना अधिक है। जब इन दोनों की गति में १२ अंश का अन्तर आ जाता है, तब एक तिथि बनती है। इस प्रकार ३६० अंशवाले 'भचक्र'(आकाश मण्डल) में ३६०÷१२=३० तिथियों का निर्माण होता है। एक मास में ३० तिथियाँ होती हैं। यह नैसर्गिक क्रम निरन्तर चालू रहता है।

तिथि और तारीख

तिथि और तारीख में अन्तर है। एक सूर्योदयकालसे अगले सूर्योदयकाल तक के समयको तिथि कहते हैं। तिथिका मान रेखांशके आधारपर विभिन्न स्थानोंपर कुछ मिनट या घण्टा घट-बढ सकता है। तारीख आधी रातसे अगली आधीरात तक के समयको कहते हैं। तारीख चौबीस घण्टेकी होती है। यह आधी रात बारह बजे प्रारम्भ होकर दूसरे दिन आधी रात बारह बजे समाप्त होती है। यह सब स्थानों पर एक समान चौबीस घण्टेकी है।[7]

विचार-विमर्श

हमारे सभी पर्व और पूजा चन्द्र की स्थिति के अनुसार होते हैं, क्योंकि चन्द्रमा मन को प्रभावित करता है। अंग्रेजी में भी चन्द्र का विशेषण ल्यूनर है तथा मनोरोगी को ल्यूनेटिक कहते हैं। चन्द्र का मन पर प्रभाव पूरे विश्व में पता था। फाइलेरिया आदि कई बीमारियों का चान्द्र तिथि से सम्बन्ध है। व्रत, पर्व एवं उत्सवों के निर्णय हेतु तिथियों का विशेष महत्व है। जिस चान्द्र मास में जो तिथि शुभ-अशुभ बताई गयी है। उसी के आधार पर व्रत, पर्व एवं उत्सवों के मुहूर्तों का निर्णय किया जाता है। यहाँ तिथियों के नाम उनकी संज्ञायें उनके फल तथा विशेष कृतियों हेतु तिथियों का शुभत्व व अशुभत्व जानकर व्रत, पर्व एवं उत्सवों का ज्ञान प्राप्त करने में समर्थ हो सकेंगे।उपलब्ध वैदिक संहिताओं में तिथियों का स्पष्ट उल्लेख नहीं होता। वेदों में तिथि के अर्थ में अहन् या दिन शब्द का प्रयोग है। किन्तु वेदों के ब्राह्मण भागमें तिथियों का वर्णन प्राप्त होता है। जैसा कि एतरेय ब्राह्मण में तिथि शब्द की व्याख्या में कहा गया है कि-[12]

यां पर्यस्तमियादभ्युदियादिति सा तिथिः।(ऐत०ब्राह्म० ७.११)[13]

अर्थात् जिस काल विशेष में चन्द्रमा का उदय अस्त होता है उसको तिथि कहते हैं। तैत्तिरीय ब्राह्मण में -

चन्द्रमा वै पञ्चदशः। एष हि पञ्चदश्यामपक्षीयते। पञ्चदश्यामापूर्यते॥(तै०ब्रा० १/५/१०)[14]

इस प्रकार के कथन से पञ्चदशी शब्द के द्वारा प्रतिपदा आदि तिथियों की भी गणना की सम्भावना दिखाई देती है। इसी प्रकार सामविधान ब्राह्मण में भी कृष्णचतुर्दशी, कृष्णपञ्चमी, शुक्ल चतुर्दशी का भी उल्लेख प्राप्त होता है।

सन्दर्भ

  1. गोरख प्रसाद, भारतीय ज्योतिष का इतिहास, सन् १९५६,उत्तरप्रदेश सरकार, लखनऊ (पृ० २६३)।
  2. 2.0 2.1 2.2 गोविन्द रामचंद्र, ज्योतिर्मयूख, सन् १९२०, निर्णय सागर प्रेस, मुम्बई (पृ० २२)।
  3. सृजन झा, अमरकोश, शब्दकल्पद्रुम सहित, मुम्बईः क०जे० सोमैयासंस्कृतविद्यापीठम् ।
  4. नेमिचंद शास्त्री, भारतीय ज्योतिष, सन् १९७०, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन वाराणसी, (पृ० १६३)।
  5. विनय कुमार पाण्डेय, तिथि साधन, सन् २०२१, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ० १०८)।
  6. 6.0 6.1 6.2 श्री विन्ध्येश्वरीप्रसाद द्विवेदी, म्हूर्तचिन्तामणि, पीयूषधारा टीका, शुभाशुभ प्रकरण, सन् २०१८, वाराणसीः चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन (पृ०१०/११)
  7. 7.0 7.1 पं०श्री सीतारामजी स्वामी, ज्योतिषतत्त्वांक, भारतीय काल गणना, सन् २०१९,गोरखपुर गीताप्रेस, (पृ०२१०)।
  8. श्री मीठालाल हिंमतराम ओझा, भारतीय-कुण्डली-विज्ञान, सन् 2004, देवर्षि प्रकाशन, वाराणसी (पृ० 2)।
  9. श्री बलदेव उपाध्याय, संस्कृत वाग्मय का बृहद् इतिहास, ज्योतिषशास्त्र, सन् २०१२, लखनऊः उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान (पृ०१२६)।
  10. रामदैवज्ञ, मुहूर्तचिन्तामणि, भाषाटीका सहित, पंडित रामरत्न अवस्थी, सन् २००४, नवल किशोर प्रेस, लखनऊ, अध्याय-१, श्लोक-२,(पृ०२)।
  11. श्री विन्ध्येश्वरीप्रसाद द्विवेदी, म्हूर्तचिन्तामणि, पीयूषधारा टीका, शुभाशुभ प्रकरण, सन् २०१८, वाराणसीः चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन (पृ०११/१२)
  12. डॉ० कपिलदेव द्विवेदी, वेदों में विज्ञान, सन् २०००, विश्वभारती अनुसंधान परिषद् भदोही (पृ० २१७)।
  13. ऐतरेय ब्राह्मण, सप्तम पञ्चिका, ११ खण्ड।
  14. तैत्तिरीयब्राह्मण, काण्ड-१, प्रपाठक- ०५।