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सुधार जारी
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सभी विनायकों के मध्य विराजित श्री ढुण्ढिराज विनायक तथा निकट साक्षी विनायक जी के दर्शन मात्र से यात्रा मे कोई त्रुटि हो वह पूर्ण हो जाती है और साक्षी विनायक यात्रा के साक्षी हो जाते है।
 
सभी विनायकों के मध्य विराजित श्री ढुण्ढिराज विनायक तथा निकट साक्षी विनायक जी के दर्शन मात्र से यात्रा मे कोई त्रुटि हो वह पूर्ण हो जाती है और साक्षी विनायक यात्रा के साक्षी हो जाते है।
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=== नवग्रह यात्रा (कार्तिक अक्षय नवमी ) ===
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धर्मसम्राट स्वामी करपात्री जी के निर्देशानुसार आज के दिन काशी में आंवला के पेड़ के पूजा के पश्च्यात नवग्रह की यात्रा करने का विधान है ।
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इसी विधान के अंतर्गत सर्वपथम
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1. चन्द्रेश्वर
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2. अंगारेश्वर (मंगल)
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3. बुधेश्वर
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4. बृहस्पतिश्वर
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5. शुक्रेश्वर
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6. शनिश्वर
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7. गभस्तीश्वर( सूर्य)
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8. राह्वीश्वर  कामलेश्वतरेश्वर(राहु)
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9. केतविश्वर अश्वतरेश्वर (केतु)
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सभी काशी खण्डोक्त लिंग हैं। काशी में नवग्रहों ने शिव जी को प्रसन्न करने के लिए लिंग स्थापन के साथ उग्र तपस्या की थी , तत्पश्चात शिव जी ने सभी को दर्शन दे कर उचित वरदान दिया और ग्रहत्व का भार प्रदान किया था।
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=== वार्षिक यात्रा(काशी खण्डोक्त) ===
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कंबलाश्वतरेश्वर महादेव(राहु रूपात्मक शिव लिंग)
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अश्वतरेश्वर महादेव (केतु रूपात्मक शिव लिंग)
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पता - ck8/13 गोमठ काका राम की गली,गढ़वासी टोला, चौक, वाराणसी।
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कंबलाश्वतरेश्वर जिनको बहुत से लोग राह्वीश्वर और अश्वतरेश्वर को केतविश्वर के रूप में भी जानते है । स्थानीय लोगों के मत अनुसार यह दोनों लिंग त्रेतायुग कालीन है , इनके दर्शन से राहु और केतु ग्रह की शांति और इनसे सम्बंधित अनुकूल फल मिलने लगते है ।
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काशी में नवग्रह लिंग यात्रा में (यात्रा के जानकर लोग) राहु केतु के रुप में इन्ही का दर्शन कर के लाभ ग्रहण करते आये है।
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==== योगिनी यात्रा  (काशी_खण्डोक्त) ====
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काशी में कुल चौसठ योगिनी के नाम
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इन चौसठ योगिनियो के नाम लेने मात्र से ही यह देवियाँ उसकी रक्षा करने पर आतुर होजाती है ।
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यह सभी योगिनिया माता काली की ही रूप है जो योगसाधना की सिद्धि भी देती है , अश्विन मास के शुक्ल पक्ष प्रतिपदा से नवमी तक इनका नाम लेना और दर्शन करना और झबेर के (सिक्के बराबर गोली से )  गुग्गुल की गोली घी के साथ , प्रणव के सहित , इनका नाम लेकर अग्नि में हवन करने से , डाकिनी शाकिनी कुष्मांडा राक्षस प्रेतादि बाधा रोग बाल ग्रहादि सब उपद्रव नष्ट करके गर्भ रक्षा करती है । काशी में चौसट्टी देवी के पूजा से ही सम्पूर्ण फल मिल जाता है ।
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1. गजाननायै नमः = राणा महल घाट सरस्वती विनायक के बगल मे d 21/ 22.
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2. सिंहमुख्यै नमः =  मन्दिर लुप्त होगया है
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3.गृध्रास्यायै नमः = मन्दिर लुप्त
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4. काकतुण्डीकायै नमः = लुप्त
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5. उष्ट्रग्रीवायै नमः = लुप्त
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6. हयग्रीवायै नमः = आनन्द मयी अस्पताल के बगल मे, b 3 / 25, भदैनी, अस्सी, varanasi
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7. वराह्यै( वाराहये ) नमः = मानमन्दिर घाट d 16 / 84.
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8. शरभाननायै नमः = मान मन्दिर लुप्त
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9. उलूकीकायै नमः = लुप्त
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10. शिवा शवायै नमः = लुप्त
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11. मयुर्यै नमः = राणा महल चौसट्टीघाट की सीढ़ी पर दाहिने दीवाल में , d 22 / 16 . दूसरा स्थान लक्ष्मी कुंड पर लक्ष्मी देवी मंदिर में मयूरी देवी ।
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12. विकटाननायै नमः ( कात्यायनी देवी) = सिंधिया घाट के ऊपर आत्मविरेश्वर मंदिर में ck 7 / 158 ।
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अश्विन शुक्ल पक्ष षष्टि तिथि को इन्ही के दर्शन का विधान है ।
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13. अष्टवक्रायै नमः = लुप्त
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14. कोटराक्ष्यै नमः = लुप्त
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15. कुन्जायै नमः = लुप्त
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16. विकट लोचनायै नमः =  मैदागिन , दारा नगर , मध्यमेश्वर महादेव मंदिर में k 53 / 63 .
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17. शुष्कोदर्यै नमः = कृतिवासेश्वर मन्दिर के पास.
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18. लोलज्जिहवाय नमः = लुप्त
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19.शवदष्ट्र्यायै नमः = लुप्त
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20. वानराननायै नमः = लुप्त
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21. ऋक्षाक्ष्यै  नमः = लुप्त्
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22. केकराक्ष्यै नमः = लुप्त
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23. बृहतुण्डायै नमः = लुप्त
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24. सुराप्रियायै नमः = लुप्त
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25. कपाल हस्तायै नमः = लुप्त
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26. रक्ताक्ष्यै नमः = लुप्त
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27. शुकिश्येन्यै नमः = ड्योधिया वीर के पास b 19 / 68.
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28. कपोतिकायै नमः = लुप्त
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29. पाशहस्तायै नमः = लुप्त
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30. प्रचण्डायै नमः = लुप्त
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31. दण्डहस्तायै नमः = लुप्त
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32. चण्ड विक्रमायै नमः = लुप्त
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33. शिशुध्न्यै नमः = लुप्त
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34. पापहन्त्र्यै नमः = लुप्त
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35. काल्यै नमः (कालरात्रि  कालिका गली d 9 / 17
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36. रुधिरपाण्ये नमः = लुप्त
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37. वसाधर्यायै नमः = लुप्त
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38. गर्भभक्षायै नमः = लुप्त
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39. शवहस्तायै नमः = लुप्त
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40. अन्त्रमालिन्यै नमः = लुप्त
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41. स्थुलकेश्यै नमः = लुप्त
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42. बृहत्कुक्ष्यै नमः = लुप्त
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43. सर्पास्यायै नमः = लुप्त
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44. प्रेतवाहनाये नमः = लुप्त
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45. दन्तशूकरायै नमः = लुप्त
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46. क्रोंच्यै नमः = लुप्त
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47. मृगशिर्षाये नमः = लुप्त
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48. वृषाननायै नमः = लुप्त
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49. व्यात्तास्यायै नमः = लुप्त
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50. घूमनिश्वासायै नमः = लुप्त
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51. व्योमैकचर्णायै नमः = लुप्त
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52.उधर्वदृक्यै नमः = ऊर्धरेबा फ़ुल्वरिया, मण्डूआ डीह कुश्माण्ड विनायक के बगल मे
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53. तापिन्यै नमः = कालिका गली, कालिका देवी के पास
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54. शोषनदृषटयै नमः = लुप्त
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55. कोर्टर्यै नमः = लुप्त
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56. स्थुलनासिकायै नमः = लुप्त
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57. विद्युत्प्रभायै नमः = लुप्त
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58. वलाकास्यायै नमः = लुप्त
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59. मार्जार्यै नमः = लुप्त
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60. कठपुतनायै नमः = लुप्त
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61. अट्टातहसायै नमः = लुप्त
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62. कामाक्षायै नमः = कमक्षा देवी b 21 / 123.
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63. मृगाक्ष्यै नमः = लुप्त
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64. सृगलोचनायै(पिशाच घण्ट ) = ललिता घाट कोरिडोर मे लुप्त
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अब प्रायः लोग चौसट्टी घाट पर ही चौसट्टी देवी का दर्शन कर लेते है जिसमे कि चौसठ योगिनियो के दर्शन का फल मिल जाता है , पर काशी में चौसठ योगिनियो का स्थान अलग अलग था ।
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इन चौसठ योगिनियो में से कात्यायनी और कालरात्रि इनका स्थान नौ देवियों में है ।
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====== विश्वभुजा_गौरी (काशी_खण्डोक्त) ======
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नवरात्रि यात्रा  आदि अन्नपूर्णा
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अश्विन_शुक्ल_पक्ष  प्रतिप्रदा से नवमी तक
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यह मंदिर आदि अन्नपूर्णा नाम से भी जाना जाता है। काशी खण्ड पुस्तक के अनुसार काशी वाशियो को क्षेम कुशल के लिए यहां नवरात्रि के पूरे नौ दिन तक यात्रा करनी चाहिए ।
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मुने विश्वभुजा गौरी विशालाक्षी पुरेः स्थिता | सहंरन्ति महाविघ्नम् क्षेत्रभक्तिजुषां सदा ||
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शारदं  नवरात्रं च  कार्या  यात्रा प्रयत्नतः | देव्या विश्वभुजया वै  सर्वकाम समृध्यये  ||
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यो न विश्वभुजां देवीं वारणास्यां नमेन्नरः |कुतो महोपसर्गेभ्यस्तस्य्  शान्तिदुरात्मनः ||
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यस्तु विश्वभुजा देवी वारणास्यां स्तुताःर्चिता  | न हि तान् विघ्नसंघातो बाधते सुकृतात्मनः ||
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विशालाक्षी के सन्मुख ही विश्वभुजा गौरी स्थित है , जो क्षेत्र के भक्तिमान लोगो के बड़े बड़े विघ्नों का सदैव संहार करती रहती है ।
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अश्विन मास के शारदीय नवरात्र भर उनकी यात्रा बड़े परिश्रम से करनी चाहिए , क्योंकि विश्वभुजा गौरी ही सभी कामनाओं को सम्पन्न करती है ।
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जो मनुष्य काशी में विश्वभुजा देवी को प्रणाम नही करता , भला उस दुरात्मा के बड़े भारी पापों की शांति कैसे हो सकती है।
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जो पुण्यात्मा वाराणासी पूरी में विश्वभुजा देवी की स्तुति और पूजा कर सकते है उनको कभी भी विघ्न समूह कोई बाधा नही पहुँचा सकते ।
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अन्नपूर्णा माता के भी पहले से ही यह आदि अन्नपूर्णा माँ जो कि विश्वभुजा गौरी ही है , काशी में अन्न की और काशीवासियो के समस्त कामनाओं की पूर्ति कर रही है ।
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इसीलिए इनका दर्शन विश्वनाथ जी के दर्शन के साथ ही करना चाहिए ।
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इनकी प्राचीनता इतनी है कि काशी के राजा दिवोदास ने भी इन्ही के सन्मुख दिवोदासेश्वर नामक शिव लिंग की स्थापना की थी और साथ ही चतुरलिंगात्मक नामक चार लिंगो में शिव जी खुद यहां वास करते है ।
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इस शक्ति पीठ के ठीक सामने ही धर्मपीठ (धर्म कूप) है और धर्म राज़द्वारा धर्मेश्वर नामक लिंग भी स्थापित है ।
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पता - विशालाक्षी मंदिर के पास वाली गली में , मीरघाट
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===== अश्विन_कृष्ण_पक्ष_त्रयोदशी_यात्रा =====
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काशी_खण्डोक्त_लिंग
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1. मनप्रकामेश्वर_महादेव
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2. धनकामेश्वर_महादेव
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काशी के प्रकांड विद्वान करपात्री जी के शिष्य श्री डंडी स्वामी शिवानंद सरस्वती जी के  पुस्तक #दिव्य_काशी_दर्शन  के अनुसार आज त्रयोदशी के दिन मनप्रकामेश्वर शिव लिंग के दर्शन करने से सभी प्रकार के मनोरथ पूर्ण होते है ।
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और धनकामेश्वर के दर्शन करने से धन का आवगमन अच्छे से बना रहता है ।
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यह दोनों लिंग अत्यंत ही प्राचीन है और स्थानीय लोगो के कथन के अनुसार यहाँ रुद्राभिषेक करने से सभी प्रकार की मानशिक अशांति और धन के संबंधित दिक्कतें दूर होने लगती है ।
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पता - विश्वनाथ गली में साक्षी विनायक मंदिर के पास d 10 / 50
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===== शांति_यात्रा  ( काशी खण्डोक्त लिंग) =====
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उपशांतेश्वर_महादेव 
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उपशांत_शिव 
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काशी में अनादि काल से ही सभी प्रकार की शांति को देने के लिए यहां पर उपशान्त शिव विराजमान हुवे है । जो व्यक्ति मानसिक रूप में परेशान चल रहे हो या मन अशांत चल रहा है वह लोग यहां दर्शन पूजन कर के विशेष लाभ ले सकते है ।
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मंदिर प्रांगण में उपस्थित होते ही असीम शांति एवं ऊर्जा मिलती है और अक्सर यहाँ विशेष प्रकार के पूजा हवन (अनुष्ठान) होते रहते है जिसमे ,
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<nowiki>#</nowiki>मूढ़शांति , #कालसर्पदोष शांति , #मंगलदोष शांति , #मारकग्रह शान्ति न जाने कितने ही प्रकार के अनुष्ठान होते है जिसमे कुंडली मे बन रहे दोष शांत हो जाते है ।
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<nowiki>#</nowiki>उपशांतेश्वर_महिमा
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तस्य लिङ्गष्य संस्प्शार्त्परां शान्तिं समृछति | उप शान्तशिवं लिङ्गं दृष्ट्वा जन्मशतार्जितम ||
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त्यजेदश्रेयसोराशीं श्रेयोराशिं च विदन्ति |
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इस लिंग के स्पर्श करते ही परम शांति आजाती है एवं उस उपशान्त नामक शिवलिंग के दर्शन करने मात्र से सैकड़ो जन्मों के बटोरे हुवे पापुंज तत्काल नष्ट होजाते है और व्यक्ति मंगल राशि को प्राप्त होजाता  है ।
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पता - 2/4पटनी टोला , भोसला घाट , चौक , वाराणसी (संकठा गली से भोसला घाट मार्ग पर प्रसिद्ध मंदिर)
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===== पितृपक्ष दर्शन यात्रा (काशी_खण्डोक्त) =====
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पितृरेश्वर_महादेव 
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काशीखण्ड के कथा अनुसार जो भी व्यक्ति पितृपक्ष के दिन पितृकुण्ड में स्नान कर के श्राद्ध तर्पण करने के बाद पितृरेश्वर महादेव के दर्शन करता है तोह उसके पित्र उसपर प्रसन्न (संतुष्ट) होजाते है । स्कन्दपुराण  में पितृकुंड को #काशी_गया के नाम से संबोधन किया गया है ।
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पता-पितरकुंडा , वाराणसी
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संसार में जल से अधिक किसी भी दान को बड़ा नहीं बताया गया है। भलाई चाहने वाला मनुष्य प्रतिदिन जल का दान करे। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि “जल सर्वदेव मय है। अधिक क्या कहें यह मेरा स्वरूप है। पवित्रता के लिए भूमि की शुद्धि जल से करें।“
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पितरों के तर्पण में जल की प्रधानता हैं क्योंकि बिना जल के तर्पण सम्भव नही होता , वही श्री हरि विष्णु का नारायण नाम भी नार=जल  , आयन= स्थान ( नारायण = जल का स्थान) है
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<nowiki>#</nowiki>श्राद्ध_प्रकरण
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आयुः प्रजां विद्यां स्वर्ग मोक्षं सुखानि च  | प्रयछन्ति तथा राज्य पितरः श्राद्ध तपिर्ता || (#वृहद_सनातन_मार्तंड)
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श्राद्ध करने से पित्र तृप्त होकर श्राद्ध करने वाले अपने संतान को दीर्घायु , संतान , धन , विद्या , सुख , राज्य , स्वर्ग , तथा मोक्ष प्रदान करते है ।
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जीवतो वाक्य कर्णान्न मृताहे भूरि भोजनात | गयायां  पिण्डदानाच्च  त्रिभिः पुत्रस्य पुत्रता || (#देवीभागवत )
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माता पिता गुरु और गुरुजनों की वृद्धावस्था में उनकी सेवा का और आज्ञा का पालन करने से और उनके मार जाने पर दैहिक संस्कार कर ब्राह्मण भोजन कराने से तथा काशी में और गया तीर्थ में जाकर पिण्ड दान करने से पुत्र का पुत्रत्व पूर्ण सिद्ध होता है(पुत्र होने का फर्ज निभता है)
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काशी में अपने पितरों के नाम से किसी भी देव देवालय , लिंग , देवी दर्शन , विग्रह दर्शन करने से पूर्ण फल पितरों को मिल जाता है , दैनिक यात्रा से लेकर पंचकोशी और चौरासी कोशी यात्रा भी अगर अपने पितरों के नाम से करते है तोह सम्पूर्ण फल पित्रो को मिलता है ।
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===== ललिता गौरी वार्षिक दर्शन =====
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ललिता_गौरी  काशी_खण्डोक्त
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<nowiki>#</nowiki>अश्विन_कृष्ण_पक्ष_द्वितीया 22-9 से 23-9 21 तक
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स्नात्वा च ललितातीर्थे ललितांप्रणि पत्य वै | अश्विन कृष्ण द्वितीयायां ललिताम्प्रिपुज्य वै ||
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नारी वा पुरषो वापि लभते वांछितम्पदम  | सा  च पूज्या प्रयत्नेन  सर्व सम्पत्  समृध्ये  ||
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ललितापुजकाना  जातु विघ्नो न  जायते    |(#काशी_खंड)
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अश्विन कृष्ण द्वितीया तिथि के दिन ललिता देवी की पूजा करने से नर , नारी के वांछित सभी मनोरथ पूर्ण होते है । मनुष्यो को भी संपत्ति प्राप्त करने के लिए ललिता गौरी की प्रयत्न पूर्वक पूजा करनी चाहिए । जो मनुषय ललिता देवी की पूजा करते है उन्हें कभी भी काशी में विघ्न नही प्राप्त होते है , साथ राज राजेश्वरी ललिता यह दश महाविद्याओं में से है इनका भी दर्शन करना चाहिए ।
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===== विश्वकर्मा_जयंती_दर्शन_यात्रा =====
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आज 17/9/21#विश्वकरमेश्वर_महादेव    #काशी_खण्डोक्त
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<nowiki>#</nowiki>भाद्र_शुक्ल_पक्ष_एकादशी
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विश्वकर्मा जी ब्रह्मा जी के पुत्र त्वष्टा के यहां जन्म लिए थे , बचपन से ही हर कार्य मे निपुण होने के कारण उनका नाम विश्वकर्मा पड़ा , बाल्यकाल में ही यग्योपवित होजाने के कारण वह केवल भिक्षा द्वारा ही भोजन करते थे ।
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गरुकुल में पढ़ाई के साथ साथ अपने गुरु के आज्ञा को ही सर्वोपरि मान कर कार्य किया करते थे ,
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एक बार वर्षा ऋतु में उनके #गुरु ने उनसे ऐसा घर बनाने को कहा जो सदा नया और मजबूत रहे ।
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<nowiki>#</nowiki>गुरु_माता ने भी ऐसे वस्त्रों की मांग की जो कभी खराब न हो और हमेशा उज्ज्वल रहे ।
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<nowiki>#</nowiki>गुरु_पुत्र ने कभी न टूटने वाली पादुका (चप्पल) की मांग की जो बिना चमड़े की हो और पानी मे भी चल पाए ।
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<nowiki>#</nowiki>गुरु_कन्या में हाथी दांत के खिलौने , सोने के कर्णफूल (झुमके) कभी न टूटने वाले बर्तन , और कुछ बड़े बर्तन भी जो बिना धोए ही साफ रहे ।
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इनको बनाने की विद्या से अनभिज्ञ होने पर भी विश्वकर्मा ने यह सब बनाने का संकल्प ले लिया और कुछ दिन सोच में पड़े रहने के बाद , वह निर्जन जंगल मे चले गए और चिंता में कहने लगे कि मैं। "" क्या करूँ? किसकी शरण मे जाऊ ? जो गरुकुल कि प्रतिज्ञा पूरी नही करता वह नरक में जाता है ।
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इतने में ही एक वृद्ध सन्यासी उनकी बातों को सुन कर उनकी काशी में विश्वनाथ की आराधना और शिव लिंग स्थापित करने को कहा और शिव ही तुम्हारी सभी इक्षाओ को पूर्ण कर सकते है इतना बोल कर वह अंतर ध्यान हो गए । (बाद में विश्वकर्मा को ज्ञात हुआ कि यह स्वयं शिव ही थे) ।
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काशी में उन्होंने शिव लिंग स्थापित कर के 3 वर्षों तक लगातार कन्द मूल फल के भोग करते हुवे पुष्पों द्वारा उनका पूजन किया जिससे शिव जी उसी लिंग से प्रकट होकर बोले कि , ""मैं तुम्हारी इस दृढ़ भक्ति से प्रसन्न हो तुम्हे वर देता हूं - "गुरु कुटुंब की सबके अभिलाषा अनुसार वस्तु तुम बना दोगे , और स्वर्ण धातु , पत्थर , लकड़ी , मणी रत्नादि समस्त संसारी और स्वर्गीय प्रदार्थो से यथेप्सित देवालय , भूषणआदि , विमान आदि सब बना सकोगे । इंद्रजाल विद्या तुम्हारे अधीन रहेगी , त्रयलोक के सभी कर्म पूर्ण करने में तुम सक्षम रहोगे । विश्व भर के कार्य कर लेने में सक्षम होने के कारण तुम्हारा नाम विश्वकर्मा होगा और यह लिंग विश्वकरमेश्वर नाम से जाना जाएगा ।
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इसी प्रकार से शिवलिंग स्थापन और शिव पूजा से ही आज विश्वकर्मा के विद्या से ही विश्व भर में समस्त निर्माण कार्य होते चले आरहे है ।
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पता- सिंधिया घाट पर , आत्मविरेश्वर मंदिर में पीछे कुवे के बगल में ।
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===== सोहरहिया_मेला_दर्शन =====
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महालक्ष्मीश्वर  सोहरहिया_महादेव काशीखण्डोक्त_लिंग 
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महालक्ष्मी देवी के द्वारा पूजित लिंग
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कुण्ड श्रीकण्ठसंज्ञितं तत्र कुण्डे नरः स्नात्वा
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दाता नृप प्रभावातः
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महालक्ष्मिश्वर लिङ्गं तस्य कुण्डस्य सन्निधो
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महालक्षमीं समभ्यचर्य स्नातस्तत्कुण्ड्वारिषु
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चामरासक्त हस्ता भिर्दिदिव्यस्त्रीभिस्च विज्यते
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जो व्यक्ति श्रीकंठ (लक्ष्मीकुंड) नामक कुंड में स्नान करता है वह लक्ष्मी जी की कृपा से राजा के तरह बहुत भारी दाता होजाता है ।
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उस कुंड के समीप महालक्ष्मीश्वर(सोहरहिया महादेव) नामक शिव लिंग है , उस कुंड में नहाकर जो उस लिंग का दर्शन करता है वह स्वर्ग में दिव्यात्माओं द्वारा चामर से बिजित होता है ।
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स्वर्ग वासी देवता लोग जब भी काशी में मत्योदरी तीर्थ और ओम्कारेश्वर के दर्शन को आते है वह इस कुंड में स्नान और श्री महालक्ष्मीश्वर के दर्शन करते हुवे इसी मार्ग से जाते है ।
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पता - लक्ष्मीकुंड के पास सोहरहिया महादेव नाम से प्रसिद्ध।
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<nowiki>#</nowiki>श्री_महालक्ष्मी_देवी    #काशीखण्डोक्त
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<nowiki>#</nowiki>सोरहिया_मेला_यात्रा    #काशी_वार्षिक_यात्रा
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<nowiki>#</nowiki>लक्खा_मेला
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महालक्ष्मी के पूजन और व्रत का नाम सोरहिया इसलिए पड़ा क्योंकि इसमें 16 के अंक का विशेष महत्व है और यह मेला और व्रत 16 दिनों तक चलता है
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16 दिनाें तक व्रत रखने वाली महिलाओं ने मां को 16 गांठ का धागा अर्पित करती है । 16 दाना चावल की 16 पुड़िया और 16 दूर्वा अर्पित करके महिलाओं ने माता के स्वरूप की 16 परिक्रमा कर विधान पूर्ण किया जाता है ।  माता पार्वती ने महालक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए काशी में यह पूजन किया था। उन्होंने 16 कलश स्थापित करके पूजन किया और महालक्ष्मी प्रसन्न हुई थीं। उन्होंने माता पार्वती को पुत्रवती होने का वरदान दिया और कहा कि जो भी यह 16 दिनों का व्रत अनुष्ठान करेगा उसको धन-धान्य, सौभाग्य और पुत्र की प्राप्ति होगी।
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<nowiki>#</nowiki>महिमा
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स्नात्वा श्रीकुण्डतिर्थे तु समचर्या जग्दम्बिका
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पित्रन संतपर्य विधिवतीर्थे श्रीकुण्डसंज्ञिते
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दत्वा दानानि विधिवन्न लक्ष्म्या परिमुच्येते
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लक्ष्मी कुंड में नहा कर महालक्ष्मी की पूजा करनी चाहिए , तथा उस जल से लक्ष्मी कुंड नामक तीर्थ में विधिपूर्वक पितरों का तर्पण और विविध तरह के दान के करने से मनुष्य सदैव लक्ष्मीवान बना रहता है ।
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लक्ष्मीक्षेत्रं महापिठं साधकस्येव सिद्धिदम
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साधकस्तत्र मन्त्राश्च नरः सिद्धिमवाप्युनात
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साधको का परमसिद्धिप्रद लक्ष्मीक्षेत्र नामक महापीठ है , जो मनुष्य वहां पर मन्त्रो की साधना करता है , वह अनायास ही सिद्धि को पा जाता है ।
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सन्ति पीठान्यकानि काश्यां सिद्धिकरण्यपि
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महालक्ष्मीपीठसमं नान्यल्क्ष्मीकरं परम
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महालक्ष्म्यष्टमीं  प्राप्य तत्र यात्राकृतां नृणां
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संपुजिते विधिवत् पद्मा सद्म न मुच्चति
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काशीपूरी में सिद्धि देने वाले अनेक पीठ है , पर महालक्ष्मी के समान परमलक्ष्मीकारक दूसरा कोई नही है । (कुआर वदी) महालक्ष्मी की अष्टमी पर वहां की यात्रा करने वालो के घर को विधिवत पूजित होने से महालक्ष्मी देवी काशी में कभी नही छोड़ती ।
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पता - D52/40 luxa laxmi kund
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<nowiki>#</nowiki>संतानेश्वर_महादेव    #काशी_खण्डोक्त
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<nowiki>#</nowiki>भाद्रशुक्ल_सप्तमी  #संतान_सप्तमी_यात्रा 13/9/21
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लोलार्क षष्टि के ठीक दूसरे दिन सप्तमी तिथि में संतानेश्वर महादेव के दर्शन का विधान प्राचीन काल से ही चला आरहा है। आज के दिन यहां दर्शन करने से संतान की रक्षा होती है साथ ही संतान की वृद्धि होती है ।
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काशी खण्ड पुस्तक के अनुसार यदि किसी शादी शुदा दंपति को शादी के सालों बाद भी संतान उत्पत्ति नही हो रही हो तोह यहां संतानेश्वर महादेव की पूजा अर्चना करने से संतान प्राप्ति अवश्य होती है , ऐसे कई लोग मिल जाएंगे जिन्होंने यहां पूजा कर संतान की मनोकामना को प्राप्त किया है ।
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मंदिर प्रांगण में #अमृतेश्वर महादेव लिंग भी है जो दर्शनार्थियों को जीवन दान देने में पूर्णरूप से सक्षम है
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<nowiki>#</nowiki>काल_माधव का दर्शन हर एकादशी को करने से तमाम तरह की शारीरिक व्याधियां नष्ट होती है
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साथ ही #अमृत_सिद्धि_गणेश तमाम तरह की सिद्धियो के साथ निरोगता प्रदान करते है ।
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पता- k 34 / 4  चौखम्बा भैरोनाथ मार्ग पर
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<nowiki>#</nowiki>लोलार्क_आदित्य #लोलार्क़ेश्वर_महादेव #काशी_खण्ड
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<nowiki>#</nowiki>भाद्रशुक्ल_पक्ष_षष्टी  #रविवार_यात्रा
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<nowiki>#</nowiki>लोलार्क_षष्टी  12-9-21
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आज के विशेष दिन में संतानहीन लोग आज के तिथि में लोलार्क कुंड में श्रद्धा के डुबकी लगाते है , फलस्वरूप उनको संतान की प्राप्ति होती है , बहुत दूर दूर से लोग यहां अपनी मंन्नत मांगने आज के दिन यहां स्नान करने आते है ।
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वैसे काशी में कुल 12 आदित्य है
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अरुण आदित्य
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द्रौपद आदित्य
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गंगा आदित्य
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केशव आदित्य
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खखोलक आदित्य
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लोलार्क आदित्य
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मयूख आदित्य
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साम्ब आदित्य
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उत्तार्क आदित्य
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विमल आदित्य
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वृद्ध आदित्य
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यम आदित्य
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पर आज के तिथि में  काशी खण्ड पुस्तक के अनुसार लोलार्क आदित्य और लोलरकेश्वर महादेव का विशेष दर्शन होता है ।
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वाराणसी में असी गंगा संगम के पास लोलार्क कुंड पर स्थित है। काशी में लोलार्क कुंड को बहुत महत्व दिया गया है। लोलार्क आदित्य को वाराणसी के सबसे खूबसूरत स्थानों में से एक के रूप में वर्गीकृत किया गया है और यह माना जाता है कि वे काशी के मूल निवासियों के कल्याण का ध्यान रखते हैं। असी संगम पर होने के कारण जहां लोलार्क कुंड का पानी गंगा नदी के पानी से मिलता है और फिर वाराणसी के अन्य तीर्थों तक पहुंचता है, इसे वाराणसी के प्रमुख तीर्थों में से एक माना जाता है।
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काशी खंड में उल्लिखित एक कहानी के अनुसार, भगवान शिव ने सूर्यदेव को आदेश दिया कि वे अपनी शक्तियों से काशी के तत्कालीन राजा दिवोदास के शासन की खामियों को खोजे    और उनकी शक्तियों को नष्ट करदे। सूर्यदेव ने भगवान शिव की आज्ञा का पालन किया और काशी चले गए।
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काशी पहुंचने पर, सूर्यदेव मोक्ष देने वाले शहर का पता लगाने के लिए उत्साहित हो गए। बाद में, सूर्यदेव ने शहर में आंतरिक और बाहरी जांच की, लेकिन राजा के खिलाफ कोई अधर्म नहीं पाया। अंत में, सूर्यदेव ने मंदराचल नहीं लौटने का निर्णय लिया और अपनी बारह मूर्तियों के रूप में काशी में स्थापित हो गए। क्योंकि भगवान आदित्य काशी की सुंदरता से मंत्रमुग्ध हो गए थे, इसलिए उन्हें यहाँ लोलार्क कहा जाता था।
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ऐसा माना जाता है कि अगर कोई अगहन माह के रविवार को लोलार्क जाता है तो वह अपने सभी पापों से छुटकारा पा सकता है। जो भक्त आसी संगम में डुबकी लगाता है, और अपने पूर्वजों का श्राद्ध करता है, उसे पितृ-ऋण से मुक्त किया जाता है। जनवरी-फरवरी के शुक्ल सप्तमी पर, यदि कोई व्यक्ति लोलार्क कुंड में गंगा नदी और असि के संगम में पवित्र डुबकी लगाता है, तो वह अपने सात जन्मों के अपने सभी पापों से मुक्त हो जाता है।
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पता- अस्सीघाट के पास भदैनी मुहल्ले में , वाराणसी ।
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<nowiki>#</nowiki>ढूंढी_विनायक        #काशी_खण्डोक्त
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<nowiki>#</nowiki>भाद्_शुक्ल_पक्ष_गणेश_चतुर्थी_दर्शन
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10-9-21 तिथि दर्शन
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प्रथम पूज्य श्री ढूंढी राज़ गणेश
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जब काशी में शिव जी द्वारा सभी गणों , देवी , देव , सूर्य , योगिनी , नक्षत्र , भैरव , गौरी को भेजा जा रहा था और सभी राजा दिवोदास के राज्य में खामी नही निकाल पाये और यही रुक गए , उसी क्रम में शिव जी ने अपने पुत्र गणेश को भेजा जो इस कार्य मे सफल होगये और वृद्ध ब्राह्मण बन कर ज्योतिष विद्या के माया प्रपंच से राजा दिवोदास की मति को भ्रमित करदिया और समस्त काशी को अपने वश में कर लिया।
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गणेश जी के वश में हो जाने के बाद विष्णु जी ने राजा को काशी से उच्चाटीत (मुक्त) कर के विश्वकर्मा के द्वारा नई काशी का निर्माण करवाया और शिव जी को मंदरांचल से काशी आने का निमंत्रण दिया ।
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<nowiki>#</nowiki>गणेश_चतुर्थी_व्रत_कथा (ganesh chaturthi vrat katha)
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धार्मिक दृष्टि से कई पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं, जिनमें से एक पौराणिक कथा ये भी है. पुराणों के अनुसार एक बार सभी देवता संकट में घिर गए और उसके निवारण के लिए वे भगवान शिव के पास पहुंचे. उस समय भगवान शिव और माता पार्वती अपने दोनों पुत्र कार्तिकेय और गणेश के साथ मौजूद थे. देवताओं की समस्या सुनकर भगवान शिव ने दोनों पुत्र से प्रश्न किया कि देवताओं की समस्याओं का निवारण तुम में से कौन कर सकता है. ऐसे में दोनों ने एक ही स्वर में खुद को इसके योग्य बताया.
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दोनों के मुख से एक साथ हां सुनकर भगवान शिव भी असमंजस में पड़ गए कि किसे ये कार्य सौंपा जाए. और इसे सुलाझाने के लिए उन्होंने कहा कि तुम दोनों में से सबसे पहले जो इस पूरी पृथ्वी का चक्कर लगा कर आएगा, वही देवताओं की मदद करने जाएगा. शिव की बात सुनते ही कार्तिकेय अपने वाहन मोर पर बैठ कर पृथ्वी का चक्कर लगाने के लिए निकल गए. लेकिन गणेश सोचने लगे कि मोषक पर बैठकर वह कैसे जल्दी पृथ्वी की परिक्रमा कर पाएंगे. बहुत सोच-विचार के बाद उन्हें एक उपाय सूझा. गणेश अपने स्थान से उठे और अपने माता-पिता भगवान शिव और माता पार्वती की सात बार परिक्रमा करके बैठ गए और कार्तिकेय के आने का इंतजार करने लगे.
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गणेश को ऐसा करता देख सब अचंभित थे कि आखिर वो ऐसा करके आराम से क्यों बैठ गए हैं. भगवान शिव ने गणेश से परिक्रमा न करने का कारण पूछा, तो उन्होंने कहा कि माता-पिता के चरणों में ही समस्त लोक है. उनके इस जवाब से सभी दंग रह गए. गणेश का ऐसा उत्तर पाकर भगवान शिव भी प्रसन्न हो गए और उन्हें देवता की मदद करने का कार्य सौंपा. साथ ही कहा, कि हर चतुर्थी के दिन जो तुम्हारी पूजन और उपासना करेगा उसके सभी कष्टों का निवारण होगा. इस व्रत को करने वाले के जीवन में सुख-समृद्धि का आगमन होगा. कहते हैं कि गणेश चतुर्थी के दिन व्रत कथा पढ़ने और सुनने से सभी कष्टों का नाश होता है, और जीवन भर किसी कष्ट का सामना नहीं करना पड़ता.
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काशी विश्वनाथ जाने वाले गेट नंबर 1 पर ही इनका  मंदिर है (अन्नपूर्णा मंदिर के पहले)
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<nowiki>#</nowiki>मंगला_गौरी      #काशी_खण्डोक्त
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<nowiki>#</nowiki>भाद्रशुक्ल_पक्ष_तृतीया_दर्शन    9-8-21
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<nowiki>#</nowiki>हरतालिका_तीज_वार्षिक_यात्रा
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आज के दिन समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाली देवी माँ मंगला गौरी के पूजा से मनचाहा जीवन साथी और अपने जीवन साथी के लंबी उम्र के लिए यहां प्राचीन समय से ही (हरतालिका तीज के दिन)माताएं और बहने दर्शन करती आई है ।
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मंगला गौरा की स्थापना स्वयं सूर्य देव द्वारा माता पार्वती के रूप में किया गया था , बाद में माता पार्वती के वरदान स्वरूप इनका नाम मंगला गौरी पड़ा निसंतान दंपत्ती भी यहां संतान की मनोकामना से दर्शन पूजन करते है और अपने इक्षित अभिलाषा का वरदान प्राप्त करते है ।
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हरतालिका तीज की कथा
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एक कथा के अनुसार माँ पार्वती ने अपने पूर्व जन्म में भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए हिमालय पर गंगा के तट पर अपनी बाल्यावस्था में अधोमुखी होकर घोर तप किया। इस दौरान उन्होंने अन्न का सेवन नहीं किया। काफी समय सूखे पत्ते चबाकर ही काटे और फिर कई वर्षों तक उन्होंने केवल हवा ही ग्रहण कर जीवन व्यतीत किया। माता पार्वती की यह स्थिति देखकर उनके पिता अत्यंत दुःखी थे।
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इसी दौरान एक दिन महर्षि नारद भगवान विष्णु की ओर से पार्वतीजी के विवाह का प्रस्ताव लेकर माँ पार्वती के पिता के पास पहुँचे जिसे उन्होंने सहर्ष ही स्वीकार कर लिया। पिता ने जब बेटी पार्वती को उनके विवाह की बात बतलाई तो वे बहुत दु:खी हो गईं और जोर-जोर से विलाप करने लगीं।
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फिर एक सखी के पूछने पर माता ने उसे बताया कि वे यह कठोर व्रत भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए कर रही हैं, जबकि उनके पिता उनका विवाह श्री विष्णु से कराना चाहते हैं। तब उनकी सहेली ने उनका हरण कर के कही और ले गयी फिर सहेली की सलाह पर माता पार्वती घने वन में चली गईं और वहाँ एक गुफा में जाकर भगवान शिव की आराधना में लीन हो गईं। माँ पार्वती के इस तपस्वनी रूप को नवरात्रि के दौरान माता शैलपुत्री के नाम से पूजा जाता है।
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आज के दिन अपने सखी द्वारा हरण करने और व्रत रखने  के कारण ही आज के दिन का नाम हरतालिका तीज पड़ा
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भाद्रपद शुक्ल तृतीया तिथि के हस्त नक्षत्र मे माता पार्वती ने रेत से शिवलिंग का निर्माण किया और भोलेनाथ की स्तुति में लीन होकर रात्रि जागरण किया। तब माता के इस कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें दर्शन दिए और इच्छानुसार उनको अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कर लिया।
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【इसी कारण काशी में तभी से हर माह के तृतीया तिथि को मंगला गौरी की यात्रा की जाती है】
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मान्यता है कि इस दिन जो महिलाएं विधि-विधानपूर्वक और पूर्ण निष्ठा से इस व्रत को करती हैं, वे अपने मन के अनुरूप पति को प्राप्त करतीं हैं। साथ ही यह पर्व दांपत्य जीवन में खुशी बनाए रखने के उद्देश्य से भी मनाया जाता है।
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पता -पंचगंगा घाट पर स्थित मंगला गौरी प्रसिद्ध मंदिर है ।
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<nowiki>#</nowiki>अंगारेश्वर_महादेव (मंगलेश्वर)  #काशी_खण्डोक्त
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<nowiki>#</nowiki>मंगलवार_यात्रा
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मंगल देवता जिनको कुज ,अंगारक , भौम और लोहित के नाम से भी जाना जाता है यह युद्ध के देवता और धरती माता के पुत्र है और शिव जी के पसीने से उत्पन्न हुवे है , इनकी चार भुजाएं और शरीर लाल (रक्त)वर्ण का है ।
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अंगारेश्वर लिंग की महिमा
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~पुरा तपस्यतः  शम्भोदर्क्षान्या  वियोगतः |
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भाल स्थालात्पपातैकः  स्वेदबिन्दु मर्हितले ||
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पूर्वकाल में दाक्षायणी (सती) देवी के वियोग से तपस्या करते हुवे शिव जी के भाल स्थल से स्वेदबिन्दु (पसीना) भूमितल पर गिर पड़ा । उसी के द्वारा एक लोहितांग कुमार (मंगलदेव) उतपन्न हुवे और धरती ने माता की तरह स्नेहपूर्वक उस कुमार का लालन पोषण किया ।
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बाद में मंगल देव ने  शिव पूरी में घोर तप किया , जहाँ पर जगत की हितकारिणी नदी असि और वरुणा नदी उत्तर वाहिनी गंगा में मिली हुई है , उसी काशी के पाँचमुद्र नामक महापीठ में कम्बल और अश्वतर इन दोनों नागों के उत्तर में अंगारक (मंगल) ने अपने नाम से विधि पूर्वक अंगारेश्वर लिंग की स्थापना कर तब तक तपस्या किया जब तक उनके शरीर से अंगारे के समान ज्वाला ना निकली तब भी वह तपस्या करते ही रहे ।
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इसी कारण से समग्र लोक में वह अंगारक नाम से प्रसिद्ध हुवे और महादेव ने प्रसन्न होकर उनको कई वरदान और महाग्रह की पदवी दी और युद्ध कला में पारंगत किया फिर युद्ध क्षेत्र का स्वामी नियुक्त किया
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मंगलवार की चतुर्थी को गंगा में स्नान कर अंगारेश्वर के दर्शन कर के जो भी जप , तप ,दान , हवन , ब्राह्मण भोज करवाते है वह सब अक्षय होजाता है और और साथ ही श्राद्ध करने से 12 वर्ष तक पितृ संतुष्ट रहते है ।
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पूर्वकाल में अंगारक चतुर्थी को ही गणेश जी का जन्म हुआ था इसीलिए यह तिथि पुण्य और समृद्धि देने वाली है , इस तिथि को गणेशजी की पूजा कर दान देने से विघ्नों के द्वारा कभी अभिभूत नही होता ।
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जो भी व्यक्ति अंगारेश्वर लिंग की पूजा करता है वह हमेशा पुरुषार्थी , युद्ध मे विजयी , सेना , प्रशासन और भूमि से लाभ लेने वाला , गूढ़ रहस्य का ज्ञाता , अधिक मित्रो वाला साथ ही उसके  कुंडली के सभी दोष शांत होकर आजीविका अच्छे से चलती है
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पता- चौक सिंधिया घाट पर आत्मविरेश्वर मंदिर प्रांगण में ।
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<nowiki>#</nowiki>चन्द्रेश्वर_महादेव      #काशी_खण्डोक्त_लिंग
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<nowiki>#</nowiki>सोमवती_अमावस्या_दर्शन
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<nowiki>#</nowiki>चंद्रेश्वर_लिंग_महिमा
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पूर्वकाल में प्रजा एवं सृष्टि के विधानेक्षु ब्रम्हा जी के मन से ही चन्द्र देव के पिता अत्रि ऋषि उतप्पन हुवे , अत्रि ऋषि ने पहले दिव्य परिमाण से तीन सहस्त्र वर्ष अनुत्तर नामक सर्वोत्कृष्ट तपस्चर्या की थी ।
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उसी समय अत्रि मुनि का उधर्वगत रेत सोमत्व को प्राप्त होकर दिकमण्डल को प्रकाशित हुआ और उनके नेत्रों से दस बार क्षरित हुआ ।
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तदन्तर ब्रम्हा के आज्ञानुसार दशो दिग्देवीओ ने मिलकर उसे धारण किया पर वे न रख सकी , जब वह दिशाएं उस गर्भ को धारण न रख सकी तब उनके साथ चंद्र भूतल पर निपतित हुवे।
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लोक पिता ब्रम्हा ने चंद्र को भूतल पर गिरा देख कर त्रैलोक्य की हिट साधना के इक्षा से उनको रथ पर चढ़ा लिया।
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स तेन रथ मुख्येन सागरान्तां वसुन्धरां |
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त्रिः सप्तकृत्वो द्रुहिनश्व कारामुं प्रदक्षिणम
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ब्रम्हा ने उसी चंद्र को रथ पर प्रधान बनाकर इक्कीस बार उसकोसमुद्रान्त पृथ्वी की प्रदक्षिणा करायी , उनका द्रवित जो तेज़ पृथ्वी में गिरा उसी से ये सारी औषधियां उपजी , जिनके द्वारा जगत का धारण होता है ।
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स लब्धतेजा भगवान  ब्रह्मणा वर्धितः स्वयं |
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तपस्तेपे  महाभाग  पद्मानां  दशतीदर्शं ||
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अविमुक्तं  समासाद्य  क्षेत्रं  परम्  पावनं |
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संस्थाप्यं लिङ्ग ममृतं चन्द्रेशाख्यं स्वनामतः ||
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हे महाभाग , स्वयं ब्रह्मा से वर्धित भगवान चंद्र तेज़ पाने पर परम् पावन अविमुक्त क्षेत्र को प्राप्त होकर और स्वनामनुसार चन्द्रेश्वर नामक अमृत लिंग की स्थापना कर एक सौ पद्म प्रमाण वर्ष पर्यंत तपस्या ही करते रहे और महादेव विश्वेश्वर के प्रसाद से बीज , औषधि , जल , और ब्राह्मणों के राजा हुवे ।
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चंद्र ने तपोनुष्ठान ही के समय वहाँ पर एक अमृतोद नामक कूप (चन्द्र कूप) प्रस्तुत किया था , जिसके पान और स्नान से मनुष्य अज्ञान से छुटकारा पा जाता है , स्वयं महादेव ने तपस्या से संतुष्ट होकर जगत संजीवनी नामक उस चंद्र की एक कला को लेकर अपने शिर पर धारण कर लिया ।
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चंद्र ने काशी में चन्द्रेश्वर के सन्मुख ही परम दुष्कर तपस्या और राजसूय यज्ञ पूर्ण किया , उसी स्थान पर ब्राह्मणों ने प्रसन्न होकर चन्द्र को यह कहा कि त्रैलोक्य की दक्षिणा के दाता श्री चन्द्र ही हमलोग के राजा है ।
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चन्द्र देव उसी स्थान पर ही महादेव के वाम नेत्र स्थान को प्राप्त हुवे । शिव जी ने चन्द्र से कहा कि तुम्हारे तप के फलस्वरूप तुम आज से मेरी दूसरी मूर्ति हो , संसार तुम्हारे उदय से सूखी होगा। तुम्हारी अमृतमय किरण के स्पर्श मात्र से सूर्य के ताप से व्याप्त यह चराचर जगत अपनी संताप की गर्मी को छोड़ देगा ।
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इस काशी में तुमने जो बड़ी कठिन तपस्या की है और यह यग्यो का फल पा कर तुमने जो मेरा चन्द्रेश्वर नामक लिंग की स्थापना किया है इसी लिंग में प्रतिमास की पूर्णमासी को त्रिभुवन के ऐश्वर्य सहित मैं दिन और रात्रि में निवास करूंगा , पूर्णिमा के दिन यहां जो भी जप तप हवन दान , ब्राह्मण भोजन  , जीर्णोद्धार , संपादन , नृत्य गीत वाद ध्वजारोपण इत्यादि थोड़े मात्रा में भी करेगा वह अनंत फलदायक होगा ।
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सोमवती अमावस्या के दिन चन्द्रकूप के जल स्नान करके विधिवत संध्या तर्पण समस्त उदक क्रियाओ को समाप्त कर के  श्राद्ध एवं पिंड दान करने से गया में श्राद्ध करने का फल प्राप्त होता है ।
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शिव जी कहते है कि जब भी कोई चन्द्रेश्वर के दर्शन को निकलता है तब सभी पित्रगण बहुत हर्ष से नृत्य करते है और कहते है कि वह चन्द्रकूप तीर्थ पर हमलोग का तर्पण करेगा , यदि दुर्भाग्य बस तर्पण न भी करे तोह क्या इस जल को स्पर्श करते ही हमलोग की तृप्ति होजावेगी , यदि वह जल को स्पर्श भी नही करता अगर सिर्फ देख ही ले तोह उसी से हमारा संतोष होजायेगा ।
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काशी में सोमवती अमावस्या पर व्रत करने से मेरे ही अनुग्रह के कारण देव ऋण ऋषि ऋण पित्र ऋण से मुक्त होजाता है और चन्द्रेश्वर लिंग की पूजा करने वाला अगर काशी के बाहर
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भी मरने पर पापो को छोड़ कर चन्द्रलोक में वास करता है ।
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पता - सिद्धेश्वरी गली , संकठा मंदिर मार्ग , चौक वाराणसी ।
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Siddheshwari devi n chandreshwer n chandrakoop(kashikhandokt)
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 · . #ईशानेश्वर
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<nowiki>#</nowiki>सोमवारी_चतुर्दशी_यात्रा  #काशी_खण्डोक्त_मंदिर
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<nowiki>#</nowiki>ईशानेश्वर_लिंग_महिमा
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अल्कयाः  पुरो भागे  पुरैशाणि महोदया |
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अस्यां वसन्ति सततं रुद्र भक्तास्त पोधानाः ||
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(काशी खण्ड)
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इस अलकापुरी के आगे के भाग में यह महोदया इशानपुरी है । इसमें शिवभक्त तपोधन लोग निवास करते है ।
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जो लोग शिव के स्मरण में लगे रहते है , जो लोग शिव व्रत में दीक्षित है , जिन्होंने अपने समस्त कर्मो को शिवार्पण कर दिया है और नित्य ही शिव पूजन में तत्पर रहते है , वे सब मनुष्य " हमको सर्वभोग यहाँ से प्राप्त होवे" इस कामना से तपस्या करने वाले रुद्ररूप धारी लोग इस रम्य रुद्रपुर में निवास करते है ।
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अजै कपादहिबुध्न्यमुख्या ऐकादशापि वै |
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रुद्राः परिवृढाश्वआत्र त्रिशुलोद्यत पाणय ||
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अज , एकपाद , अहिबुर्ध्न्य प्रभृति हाथ मे त्रिशूल धारण किये हुवे एकादश रुद्र इस स्थान के प्रभु है ।
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पुर्यष्टकं च दुष्टेभ्यो देव ध्रुग्भ्यो हय्वन्ति ते |
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प्रयक्छन्ति वरानित्यं शिव भक्त जने वराः ||
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ये श्रेष्ठजन रुद्रगण उक्त अष्टपुरियो की दुष्टों से और देव द्रोहियो से सदा रक्षा करते है और शिव जनों को वर प्रदान करते है ।
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यह रुद्र गण वाराणसी पूरी में प्राप्त होकर , शुभ प्रद ईशानेश्वर नामक महालिंग स्थापित कर तपस्या कर चुके है ।
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ये सब के सब भालनेत्र , नीलकंठ , गौर शरीर और वृषभध्वज है । पृथ्वी पर जो असंख्य रुद्रगण है , वे सब समस्त भोगों की समृद्धि को पाकर इसी इशानपुरी में निवास करते है। काशी में ईशानेश्वर का पूजन करने पर यदि देशांतर में भी जो लोग मृत्यु को प्राप्त होते है , तो वे उसी पुण्य के बल पर यहां काशी में पुरोहित होते है ।
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जो लोग अष्टमी और चतुर्दशी तिथि पर ईशानेश्वर की पूजा करते है , वे यहां और परलोक में अवश्य रुद्र होते है , ईशानेश्वर के समीप किसी भी चतुर्दशी को रात्रि जागरण और उपवास करने से मनुष्य फिर कभी गर्भ में निवास नही करता ।
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पता- शाहपुरी मॉल , बांसफाटक मार्ग , गोदौलिया , वाराणसी ।
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<nowiki>#</nowiki>गंगा_तिरस्त_श्री_महालक्ष्मी    #काशी_खण्डोक्त_मंदिर
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<nowiki>#</nowiki>भाद्र_कृष्ण_पक्ष_नवमी    #काशी_खण्ड_वार्षिक_यात्रा
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31/8/21 मंगलवार
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केदार घाट के गली में श्री गौरी केदारेश्वर के मंदिर के थोड़ा पहले ही यह मंदिर स्थापित है । स्कंद पुराण में (काशीखण्ड)  वर्णन होने के कारण इस बात का अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि यह मंदिर अति प्राचीन है, काशी में बहुत से लोग इस मंदिर से अनजान है यहां माँ लक्ष्मी श्री हरि विष्णु के साथ विराजित है और इनका विग्रह भी उतना ही प्राचीन है जितना इनका इतिहास है (शायद मुग़ल काल मे यह मंदिर तोड़ फोड़ से बच गया हो क्योंकि यह मंदिर घर के अंदर था , ऐसे ही कई मंदिर बच गए थे काशी में , वाराणसी वैभव पुस्तक के अनुसार 1100 ईसवी से ही बाहरी आक्रमणकारी काशी में मंदिर तोड़ते आये है , काशी में ज्यादातर मंदिर विग्रह के रक्षा के लिए अपने स्थान से हटाए गए है या टूटने के कारण नया विग्रह स्थापित किया गया है )
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प्राचीन होने के कारण यह विग्रह अत्यंत जागृत है , साथ ही जो नीलकंठ महादेव का लिंग है वह जमीन से थोड़ा नीचे जा कर भूगर्भ में स्थित है , आज 31/8/21 को पंचांग अनुसार माता की वार्षिक यात्रा है आज के दिन यहां दर्शन से अभी मनोरथ पूर्ण और सिद्धि प्राप्त होती है ।
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Gps address
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Ganga tirast mahalakshmi
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पता -केदारघाट पर  श्री गौरी केदारेश्वर  मंदिर के मेन गेट के थोड़ा पहले यह मंदिर है , लोहे के गेट के अंदर धर्मशाला में ।
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<nowiki>#</nowiki>कृष्णेश्वर_महादेव    #काशी_खण्डोक्त_मंदिर
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<nowiki>#</nowiki>भाद्र_कृष्ण_पक्ष_जन्माष्टमी_दर्शन 30/8/21
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जब श्री कृष्ण पांडवो के साथ शिव लिंग स्थापना के उद्देश्य से काशी में आये थे और कृष्णेश्वर नामक लिंग की स्थापना किया , इस लिंग के पूजन अर्चना करने से विष्णु लोक की प्राप्ति होती है और जीवन के सभी बाधाओं से मुक्ति मिलती है।
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पांडवो ने माँ संकटा देवी से महाभारत के युद्ध मे विजय का वरदान मांगा था और एक पैर पर खड़े होकर तप किया जिससे माता संकटा ने खुश होकर  उनको विजय का वरदान दिया था , कृष्णेश्वर लिंग संकटा मंदिर के पीछे वाली गली में स्थित है। साथ ही जाम्बतीश्वर लिंग भी स्थापित है जाम्बतीश्वर लिंग के बारे में ज्यादा तोह पता नही लग पाता पर स्थानीय लोगो के हिसाब से यह लिंग जाम्बवन्ती या जाम्बवन्त जी द्वारा स्थापित होगा(जाम्बवन्ती श्री कृष्ण की पत्नी और जाम्बवन्त जी की पुत्री थी) जाम्बवन्त जो अभी भी जीवित हैं और अष्ट चिरंजीवी में से एक है ।
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जन्माष्टमी के दिन पीले रंग के वस्त्रों ,मिठाई और मालाओं से श्री कृष्ण भगवान की पूजा करने से स्थिर लक्ष्मी और सौभाग्य की प्राप्ति होती है , और जन्माष्टमी के रात(मोहरात्रि) को रात्रि जागरण करके कृष्ण जी की पूजा अवश्य करनी चाहिए ।
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सभी मित्रों को श्री कृष्ण जन्माष्टमी (मोहरात्रि) की हार्दिक  एवं शुभकामनाये ।
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पता - संकटा घाट (सिंधिया घाट के पास) के पीछे वाली गली  में ck 7/159
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1. #बलराम_जयंती या  #हल_षष्टी  28/8/21
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2. #लक्ष्मणेश्वर_महादेव  #काशी_खण्डोक्त_वार्षिक_यात्रा
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हिन्दी पंचांग के अनुसार, भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष की षष्ठी तिथि को हल छठ, हल षष्ठी या बलराम जयंती मनाई जाती है। हल षष्ठी के अवसर पर भगवान ​श्रीकृष्ण के बड़े भ्राता बलराम जी की विधिपूर्वक पूजा की जाती है। बलराम जी का जन्मोत्सव श्रीकृष्ण जन्माष्टमी से दो दिन पूर्व होता है। इस वर्ष हल षष्ठी या बलराम जयंती 28 अगस्त दिन शनिवार को है, जबकि श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का पर्व 30 अगस्त दिन सोमवार को है।
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हल षष्ठी का महत्व
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पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, बलराम जयंती, हल छठ या हल षष्ठी का व्रत संतान की लंबी आयु और सुखमय जीवन के लिए रखा जाता है। यह निर्जला व्रत महिलाएं रखती हैं। हल षष्ठी के दिन व्रत रखते हुए बलराम जी और हल की पूजा की जाती है।
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गदा के साथ ही हल भी बलराम जी के अस्त्रों में शामिल है। हल पूजा के कारण ही इसे हल षष्ठी या हल छठ कहा जाता है। बलराम जी की कृपा से संतान की आयु दीर्घ होती है और उसका जीवन सुखमय तथा खुशहाल होता है।
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मान्यताओं के अनुसार बलराम जी को भगवान विष्णु के शेषनाग का अवतार माना जाता है। मान्यता है कि त्रेता युग में भगवान राम के छोटे भाई लक्ष्मण शेषनाग का अवतार ही थे। इसी प्रकार द्वापर में जब भगवान विष्णु धरती पर श्री कृष्ण अवतार में आए तो शेषनाग भी यहां उनके बड़े भाई के रूप में अवतरित हुए। शेषनाग कभी भी भगवान विष्णु के बिना नहीं रहते हैं। इसलिए वह प्रभु के हर अवतार के साथ स्वयं भी आते हैं।
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काशी में बलराम जयंती के दिन #लक्ष्मणेश्वर_शिव लिंग की वार्षिक यात्रा होती है , लक्ष्मण और बलराम दोनों ही शेषनाग के अवतार है , और काशी में लक्ष्मण के द्वारा स्थापित लिंग के दर्शन करने से लक्ष्मण , बलराम और शेषनाग तीनो की ही कृपा प्राप्त हो जाती है।
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यहां दर्शन करने से भातृ भक्ति और धैर्य धारण की शक्ति बढ़ती है और साथ में  सभी पापो से मुक्ति भी मिलती है।
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पता-बंगाली टोला के पास हनुमान घाट पर
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<nowiki>#</nowiki>संगमेश्वर_महादेव  #काशी_खण्डोक्त
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गङ्गा और  वरुणा नदी क सङ्गं मे स्थित यह लिङ्ग की पूजा अर्चना करने से सभी पाप कट जाते है और शास्त्रो में ऐसा वर्णीत है कि यहां रुद्राभिषेक करने से गौदान का फल प्राप्त होता है और इस तीर्थ पर अन्नदान का भी बहुत महात्म्य है ।
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~सङ्गमेश महालिङ्गं  प्रतिष्ठयादि  केशवः |
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दर्शनादघहन्णानं भुक्तिं मुक्तिं दिशेत्सदा ||
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(#काशी_खण्ड)
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आदिकेशव (भगवान विष्णु) द्वारा प्रतिष्ठापित ( स्थापित ) महाशिवलिंग के दर्शन करने से सभी पापों का नाश होता है और मुक्ति (मोक्ष) मिलती है ।
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पता- आदिकेशव मंदिर A 37/41 आदिकेशव घाट वरुणा संगम ।
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<nowiki>#</nowiki>सिद्धि_विनायक      #काशी_खण्डोक्त_मंदिर
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<nowiki>#</nowiki>सिद्धि_लक्ष्मी          #काशी_खण्डोक्त_मंदिर
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<nowiki>#</nowiki>संकष्टी_चतुर्थी  #बुधवार 25/8/21
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काशी के श्रेष्ठतम तीर्थ मणिकर्णिका पर स्थित सिद्धि विनायक और सिद्धि लक्ष्मी के मंदिर में भक्तों की फरियाद तुरन्त सुनी जाती है ।
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<nowiki>#</nowiki>बुधवार_को_होता_है_विशेष_दर्शन जिसमे स्थानीय लोग अपने सामर्थ अनुसार विविध प्रकार से पूजा करते है जिसके फल स्वरूप सिद्धि विनायक उनके समस्त विघ्न हर लेते है ।
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<nowiki>#</nowiki>शुक्रवार को विशेष दर्शन माता सिद्धि लक्ष्मी का होता है , शास्त्रो के अनुसार यहाँ दर्शन पूजन से सभी प्रकार की सिद्धि और ऐश्वर्य प्राप्त होता है
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सिद्दलक्ष्मी  जगत्धत्री  प्रतीच्याममृतेश्वरात |
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प्रपितामहलिङ्गष्य  पुरतः  सिद्धिदाःचिर्ताः ||
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प्रसादं सिद्धलक्ष्म्याश्च विलोक्य  कमला कृतं |
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लक्ष्मीविलाससंज्ञं च को न लक्ष्मीं समाप्युनात् ||
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(#काशी_खण्ड)
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पिता महेश्वर लिंग के आगे ही जगन्माता सिद्धि लक्ष्मी देवी विराजमान है , पूजन करने से वह सब सिद्धियों को देती है ।
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सिद्धि लक्ष्मी का कमल के आकार का लक्ष्मी विलास नामक है , उसे देखने ही से किसे लक्ष्मी नही मिलती (अर्थात इस मंदिर को देख लेने मात्र से ही माता लक्ष्मी का आशीर्वाद प्राप्त हो जाता है )
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पता- मणिकर्णिका घाट पर चकरपुष्कर्णी कुंड के बगल की सीढ़ी से ऊपर जा कर , गौमठ , गढ़वासी टोला चौक वाराणसी।
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यहां ऐसी मान्यता है कि #गणेश_अथर्वश्रीर्ष का पाठ करने से 1000 गुना ज्यादा फल मिलता है और सिद्धि लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए #कनक_धारा स्तोत्र पढ़ने का विधान चला आरहा है ।
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1. #जागेश्वर_महादेव  या  #अग्नि_ध्रुवेश्वर_लिंग
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2. #ईश्वर_गंगी_पोखरा या #अग्नि_कुंड (#आदि_गंगा)
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यह शिव लिंग और कुंड दोनों काशीखंड में वर्णीत है (अर्थात काशी खण्डोक्त है )
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भाद्र कृष्ण पक्ष प्रतिपदा आज के दिन  23/8/21 यहां की वार्षिक यात्रा होती है , वार्षिक यात्रा के अंतर्गत लिंग दर्शन , पूजन , एवं रुद्राभिषेक का बहुत महात्म्य है । यह जागेश्वर नामक लिंग जो कि स्वयम्भू लिंग हैं । यहां जो कोई भी स्त्री पुरुष अपनी मनोरथ ले कर जाते है सभी पूर्ण होती है ।
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इस प्रकार का बड़ा स्वयम्भू लिंग काशी में बहुत दुर्लभ और अन्यत्र कही भी नही है । कुछ लोगो का मानना है कि ऋषि जैगीषव्य द्वारा पूजित होने के कारण इनका नाम जागेश्वर पड़ा है , ऋषि जैगीषव्य वही है जिन्होंने शिव जी के काशी छोड़ के कर चले जाने पर अन्न जल त्याग दिया था और योग तपस्या में लीन होगये थे जिस गुफा में उन्होंने कठोर तप किया वह आज भी इस मंदिर के पीछे स्थित है और जैगीषव्य गुहा नाम से जाना जाता है । अब यह गुफा पाताल पूरी मठ में है ।
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Sidhapith Patalpuri Muth dav school ishwar gangi road near jageshwar mandir
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जागेश्वर लिंग काशी के प्रधान लिंगो में से एक और काशी  एकादश महारुद्र लिंग में सर्वप्रथम है , यहां पूजा अर्चना करने से रुद्र पद की प्राप्ति होती है और  यहां के भक्तों को मृत्यु पश्च्यात रुद्र के समान ही समझा जाता है ।
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ईश्वर गंगी पोखरा में स्नान कर यहां दर्शन करने से मोक्ष और सिद्धि दोनों प्राप्त होती है ।
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पता- आदर्श इंटर मीडिएट स्कूल के पास ईश्वर गंगी रोड वाराणसी ।
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<nowiki>#</nowiki>आदि_महादेव या #महादेव_लिंग      #काशी_खण्डोक्त
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<nowiki>#</nowiki>श्रावण_शुक्ल_चतुर्दशी_दर्शन  #वार्षिक_यात्रा
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21-8-21
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महादेव लिंग का महात्म्य
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वृन्दार्षि  वृन्दनां  स्तुवतां  प्रथमे  युगे  |
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उत्पन्नं यन्महालिङ्गं भूमिं भित्वा सुदुर्भिदाम ||
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महादेवेति  तैरुक्तं    यन्मनोरथ  पूर्णात्  |
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वाराणस्यां महादेवस्त दारम्भ्या भवच्च यत् ||
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(#काशी_खण्ड)
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सतयुग में देवता और मुनिवृन्दो की स्तुति करने पर बड़ी दुर्भेद्य भूमि को भेद कर जो महालिंग उत्पन्न हुआ और सभी मुनियों के मनोरथ पूर्ण करने के कारण जिनको महादेव कहा गया है , वह लिंग तब से वाराणसी में महादेव नाम से विख्यात है ।
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मुक्ति क्षेत्रं कृतं येन महालिङ्गेन काशिका |
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अविमुक्ते  महादेवं यो दक्ष्यत्यत्र  मानवः ||
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शंभु  लोके  गम्तस्य यत्र तत्र  मृतस्य  हि |
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अविमुक्ते  प्रयत्नेन तत्सन्सेवयं  मुमुक्षुभिः ||
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(#काशी_खण्ड् )
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उसी महालिङ्ग ने काशी को मुक्ति क्षेत्र बनाया । अतएव इस अविमुक्त क्षेत्र में जो मनुष्य महादेव का दर्शन करेगा , वह चाहे कही भी क्यों न मरे पर अंत को शिवलोक में चला जायेगा । इसीलिए मोक्षार्थी लोगो को अविमुक्त क्षेत्र में उसी महालिंग का सेवन बड़े प्रयत्न से करना चाहिए ।
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वाराणस्यां महादेवो दृष्टयो यैर्लिन्ग रूप धृक् |
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तेन  त्रैलोक्यलिङ्गानि  दृष्टानिहः  न संशय ||
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वाराणस्यां  महादेवं  समभ्यचर्य  सकृन्नर |
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आभूत  संप्लवं  याव्च्चिव्लोके  वसेन्मुदा ||
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जिस किसी ने वाराणसी क्षेत्र में लिंगरूपधारी महादेव का दर्शन किया है , निसंदेह वह त्रैलोक्य भर के समस्त लिंगो का दर्शन यही पर कर चुका है । वह महाप्रलय तक शिवलोक में बड़े हर्ष से वास करता है । जो मनुष्य काशी में एक बार भी महादेव का पूजन कर लिया , उसने विश्व के सभी लिंगो का दर्शन कर लिया है ।
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<nowiki>#</nowiki>सावन_में_जनेऊ_चढ़ाने_की_महिमा
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पवित्रपर्वनि  सदा  श्रावणे  मासि  यत्नतः |
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लिङ्गे  पवित्रमा  रोप्य  महादेवन  गर्भभाक ||
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जो कोई श्रावण मास के पवित्र पर्व में (अर्थात शुक्ल चतुर्दशी के दिन) प्रयत्नपूर्वक महादेवलिंग पर पवित्रारोपण करता है (जनेऊ चढ़ता है) वह गर्भ भागी नही होता (दुबारा जन्म नही होता) ।
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पता - त्रिलोचन घाट पर त्रिलोचन मंदिर के पीछे आदि महादेव का प्रसिद्ध मंदिर है ।
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आज 21 अगस्त 2021 के दिन यहां दर्शन कर जनेऊ चढ़ना चाहिये ।
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<nowiki>#</nowiki>श्री_वृषभध्वजेश्वर_महादेव  #काशीखण्डोक्त_मंदिर
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शिव जी का पुनः काशी में  आगमन का क्षेत्र
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जब काशी क्षेत्र से राजा दिवोदास को हटा दिया गया और शिव जी के आगमन की सूचना गरुण द्वारा विष्णु जी को पता चली तब उन्होंने गरुण को उचित इनाम दे कर दक्ष प्रजापति को अगुआ बना कर अगवानी की और  फिर सूर्य ,  गणपति , योगिनी के सहित यहां शिव जी के आने की प्रतीक्षा किया ।
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वृषभध्वज क्षेत्र का नाम
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यह वही क्षेत्र है जहां शिव जी अपने विमान से उतरे थे और विमान में बृषभ का ध्वज होने के कारण इस क्षेत्र का नाम वृषभ ध्वज पड़ा और जो शिव लिंग वहां पहले से स्थापित थे उनका नाम श्री वृषभध्वजेश्वर पड़ा ।
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शिव जी के विमान से उतरते ही श्री हरि विष्णु भी गरुण से उतर कर उनको प्रणाम किये साथ ही गणेश ने शिव जी के चरणों मे अपना माथा नवाया उसी के बाद शिव जी ने गणेश का मष्तक सूंघा और अपने साथ अपने आसान पर बैठाया ।
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योगिनियां ने भी क्षमा भरे के स्वर में मंगल गीत को गुनगुनाया और प्रणाम किया उसके बाद शिव ने अपने आसन के बगल में विष्णु को बैठाया फिर दूसरी तरफ ब्रह्मा को स्थान दिया तदन्तर सभी गण को बैठाया और सबसे काशी के सम्बंध में बात किया , सबने अपने कार्यो को सुनाया और अपना कार्य पूर्ण न कर पाने पर महादेव से क्षमा मांग जिसे शिव ने सहर्ष माफ किया और उनकी कोई भी गलती नही है यह मानकर काशी की महिमा और वृषभध्वज तीर्थ की महिमा को सुनाया ।
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उसी समय गोलोक से सुनंदा , सुमना , सुरति , सुशीला और कपिला नाम की पांच गायें वहां पहुँची जब महादेव की स्नेहमयी दृष्टि उन सर्वपापनाशिनी गायों के थन पर पड़ी जिससे निरंतर दूध की धारा बहने लगी और एक बड़ा भारी पोखरा ( हृद) बन गया , जिसका नाम महादेव ने कपिला हृद रखा और उन्ही के आदेश से समस्त स्वर्ग वासी देवताओं ने उसमे स्नान किया ।
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उसी समय उस तीर्थ के भीतर से दिव्य पितृ लोग प्रकट हुवे उनको देखते ही देवताओं ने बड़े हर्ष से जलांजलि दी , प्रसन्न होकर पित्रो ने शिव की स्तुति किया और अपने लिए और अपने जीवित पुत्रो के लिए वरदान मांगा ।
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<nowiki>#</nowiki>शिव_ने_कहां
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शृणु विष्णु महाबाहो शृणु त्वं च पितामह |
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ऐतस्मिन कापिले तीर्थे कपिलेय् पयोभृते  ||
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ये पिन्न्दाणि वर्पिष्यन्ति श्रध्या श्राध्नानतः |
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तेषां  पित्रणां  संतृप्ति  भर्विष्यते  ममाज्ञा ||
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(#काशी_खण्ड्)
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हे महाबाहो , विष्णु , है पितामह , ब्राह्मण सब लोग श्रवण करो जो लोग कपिलाओ के दूध से भरे हुवे इस कपिलातीर्थ मे श्रद्धा पूर्वक श्राद्ध और विधान से पिंडदान करेंगे , मेरी आज्ञा के अनुसार उनके पितृ लोगो की पूर्ण तृप्ति हो जावेगी ।
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सोमवार से युक्त अमावस्या तिथि में यहां पर श्राद्ध करने से अक्षय फल प्राप्त होता है ।
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कुरुक्षेत्रे  नैमिषे  च  गङ्गा  सागर  सङ्गमे |
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ग्रहणे श्रध्तो  यतस्यात्त तीर्थे वार्षभ्ध्वजे ||
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सूर्यग्रहण के समय कुरुक्षेत्र , नैमिशारण्य , और गंगा सागर के संगम में श्राद्ध करने से जो फल मिलता है वही फल इस वृषभध्वजतीर्थ मे भी वही पुण्य प्राप्त होता है।
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मधुस्रवेति  प्रथमेषा  पुष्कर्णि  स्मृता |
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कृतकृत्या  ततो  ज्ञेया ततोसोः  क्षीरनीरधिः ||
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वृषभध्वजतीर्थं  च तीर्थं पैतामहं  ततः |
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ततो गदाधराख्यं च पित्र तिर्थ् ततः परम् ||
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ततः कपिलधारं वै सुधाखनिरियं पुनः |
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तत् शिव गयाख्यं च ज्ञेयं तिर्थमिदं शुभं ||
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पहले यह पोखरा मधुश्रवा था , फिर कृतकृत्या हुआ , तब क्रम से क्षीरनिधि , वृषभध्वज तीर्थ , पैतामहतीर्थ , गदाधर तीर्थ , पित्र तीर्थ , कपिलधारा , सुधाखनी और शिव गया तीर्थ हुआ है , हे पितृ गण इस तीर्थ के इन दशो नामो को श्राद्ध और तर्पण के बिना भी उच्चारण करने से आप लोगो की पूरी तृप्ति हो जाएगी ।
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शिव जी के वाक्य अनुसार यह तीर्थ सतयुग में दुग्धमय , त्रेता में मधुमय द्वापर में घृतमय और कलयुग में जलमय होगा ,
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हे पितामह गण काशी के समस्त लोगो ने पहले यही पर वृषभ के चिन्ह से युक्त मेरी ध्वजा को देखा है , इसीलिए मैं इस स्थान पर वृषभध्वजेश्वर नाम से सदा निवास करूंगा ।।
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उस समय के मंगल गीतों की ध्वनि से चारो दिशाओं से समस्त धरती वासी लोग सम्मोहित होकर काशी के तरफ यात्रा करने लगे जिसमे .....
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तैतीस कोटि(प्रकार) देवतागण , बीस सहस्त्र कोटि गणलोग , नव करोड़ चामुंडा , एक करोड़ भैरवी , आठ करोड़ महाबली मयूरवाहनारूढ़ षणमुख , अनुचर वर्ग , साथी , कुमार गण थे ,
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सात करोड़ चमकीले कुठार वाले बड़े वेग से चलने वाले तोंद वाले विघ्नविदारक गजमुख गण , छियाशी सहस्त्र ब्रह्मवादी मुनिगण , उतने ही गृहस्थ ऋषिलोग , तीन करोड़ पातालवासी नागगण , दो करोड़ परम् शैव दैत्य और दानवगण  आठ लाख गंधर्वगण , पचास लाख यक्ष  और राक्षसगण दो लाख दश हजार विद्याधर , साठ हजार दिव्य अप्सराएं , आठ लाख गोमाताओ का गण और साठ सहस्त्र गरुण , सात समुद्र , अस्सी सहस्त्र नदिया , आठ सहस्त्र पर्वत गण तीन सौ वनस्पति और आठो दिक्पाल जहाँ पर भगवान शिव विराजमान थे कपिला हृद के पास आ पहुँचे , तदुपरांत त्रिलोचन शिव माता गिरिजा के साथ काशी पहुँच कर अपनी नजरो को वहां के नजारे से तृप्त करने लगे ।
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पता - सलारपुर में कपिलधारा नाम से प्रसिद्ध है ।
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1. #त्रिलोचन_महादेव  #काशीखण्डोक्त
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2.  #त्रिलोचन_महादेव  #विरजा_क्षेत्र_जाजपुर_ओडिशा
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विर्जाख्यं हि तत्त्पीठम तत्र लिङ्गं त्रिविष्ट्म |
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तत्पीठ  दर्शना देव विरजा जायते  नरः ||
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काशी में #त्रिलोचन_महादेव, विरजा पीठ के नाम से प्रसिद्ध है और वहा पर जो लिङ्ग है #त्रिविष्टप कहलाता है । उस पीठ के दर्शन ही से मनुष्य रजोगुण से रहित होजाता है ।
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<nowiki>#</nowiki>शिव जी के आह्वाहन पर विरजा क्षेत्र से त्रिलोचन महादेव #काशी में चल कर आये थे और यही स्वयम्भू रूप से स्थापित होगये ।
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<nowiki>#</nowiki>विरजा क्षेत्र जो जाजपुर ओडिशा में है वहां पर जौंनलीबांध के तट पर त्रिलोचन महादेव का मंदिर है जो कि विरजा माता मंदिर से कुछ ही दूर है , यहां का त्रिलोचन लिंग पूरे विश्व के प्राचीन लिंगो में से एक है और हंसारेखा नामक छोटी नदी इनके मंदिर के पीछे बहती है ।
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<nowiki>#</nowiki>काशी_में_त्रिलोचन_लिंग_का_महात्म्य
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तिस्रस्तु  संगतस्तत्र  स्रोतस्विन्यो  घटोद्भ्व |
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तिस्रः कल्मषहा रिण्यो दक्षिणे हि त्रिलोचनात ||
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स्रोतो मूर्तिधराः साक्षालिन्न्गः स्नपनहेतवे |
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सरस्वत्यथ  कालिन्दी  नर्मदा  चातिशर्मदा ||
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तिस्रोपि हि त्रिशन्ध्य्म ताः सरितः कुम्भ पाणयः |
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स्नपयन्ति  महाधाम  लिङ्गं त्रिविष्टपं  महत् ||
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हे घटोद्भव , त्रिलोचन के दक्षिण की ओर तीन नदिया मिली हुई है और वे तीनों पापहारिणी है । केवल उसी लिंग को स्नान कराने के लिए सरस्वती , यमुना , नर्मदा ये तीनो ही साक्षात स्रोत की नदी रूप (मूर्ति रूप) धारण किये है । ये तीनो ही नदियां हाथ मे घड़ा(कुम्भ) लेकर महातेजस्वी उस #त्रिविष्टप_महालिंग को त्रिकाल(दिन में तीन बार) स्नान करती है ।
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स्नात्वा पिल्पिला तीर्थे त्रिविष्टप समीपतः |
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दृष्ट्वा त्रिलोचन लिङ्गं किं भूयः परिशोचति ||
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त्रिविष्टपस्य  लिङ्गष्य  स्मरणादप  मानवः |
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त्रिवष्टप् पति  भुर्यान्त्र कार्या  विचारणा ||
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(काशीखण्ड)
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त्रिविष्टप के समीप ही पिलपिला तीर्थ में स्नान और त्रिलोचन लिंग का दर्शन करलेने पर फिर किस बात का शोच रह जाता है (कहा तक कहे) यदि मनुष्य त्रिविष्टप लिंग का स्मरण भी कर सके , तोह वह त्रिविष्टप (स्वर्ग) का अधिपति होजाता है- इसमें कुछ भी विचार की जरूरत नही है (यही सत्य है) त्रिविष्टप के दर्शन करने वाले निसंदेह ब्रह्मपद को प्राप्त हो जाते है ।
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<nowiki>#</nowiki>वासुकीश्वर_महादेव - #काशी_खण्डोक्त_नाग_पंचमी_यात्रा
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श्रावण_शुक्ल_पंचमी_तिथि  13/08/21
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तत्र वासुकिकुण्डे च स्नानदानादिकाः क्रियाः |
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वसुकिश्वरसंग्यन्च  लिङ्ग  मचर्य  समन्तत ||
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सर्पभीतिहराः  पुंसां |वासुकिशप्र |भावतः |
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यःस्नातो नाग्पञ्चम्यां कुण्डे वासुकी सङ्गयते ||
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न तस्य विषयंसर्गो भवेत् सर्प समुद्भव |
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कर्तव्या नाग्पन्च्म्या यात्रा वर्षासु तत्र वै ||
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नागाः प्रसन्ना जायते कुले तस्यापि सर्वदा ||
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(#काशी_खण्ड्)
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वासुकी कुंड में स्नान दानादि क्रिया करने के बाद में वासुकीश्वर की पूजा करे तोह मनुष्य को वासुकीश्वर के प्रभाव से सर्प के काटने का भय नही रहता। सर्प काटने के भय को यह नाश करते है । वासुकी कुंड में नागपंचमी के दिन स्नान करने से सर्प का विष का प्रभाव एक वर्ष तक नही होता(सर्प नही काटते ,सर्प से रक्षा होती है) वर्षा ऋतु में वहां की यात्रा करनी चाहिए । इससे समस्त नाग कुल उसके कुल पर प्रसन्न होजाते है ।
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सिंधिया घाट पर स्थित इस मंदिर में पहले वासुकी कुंड भी था, जो अब अस्तित्व में नही रह गया है , इसीलिए यहाँ सिंधिया घाट में स्नान कर यहां दर्शन करते है (सिंधिया घाट में स्नान से वासुकी कुंड स्नान का ही फल मिलता है )
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यह प्राचीन शिव लिंग  श्रेष्ठतम नाग वासुकी के द्वारा स्थापित है , यहां पूजा पाठ और दान का विशेष फल मिलता है और यहां ऐसी मान्यता है कि यहां के भक्तों को सर्प (नाग , साँप)  कोई हानि नही पहुचाते ।
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नाग पंचमी के दिन यहां वासुकी कुंड पर स्नान के पश्च्यात शिव रुद्राभिषेक करने से काल सर्प दोष से राहत मिलती है ।
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(समय के साथ अब वासुकी कुंड अस्तित्व में नही रह गया पर ऐसा मानना है कि वासुकी नदी गंगा में जा कर सिंधिया घाट पर मिलती है )
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स्कन्द पुराण के अनुसार वासुकी नदी , कठिन तप के दौरान वासुकी नाग के पसीने से निकली थी ।
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<nowiki>#</nowiki>वासुकी  नागराज जिसकी उत्पत्ति प्रजापति कश्यप के औरस और रुद्रु के गर्भ से हुई थी।
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इनकी पत्नी शतशीर्षा थी। नागधन्वातीर्थ में देवताओं ने इसे नागराज के पद पर अभिषिक्त किया था। शिव का परम भक्त होने के कारण यह उनके शरीर पर निवास था। जब उसे ज्ञात हुआ कि नागकुल का नाश होनेवाला है और उसकी रक्षा इसके भगिनीपुत्र द्वारा ही होगी तब इसने अपनी बहन जरत्कारु को ब्याह दी। जरत्कारु के पुत्र आस्तीक ने जनमेजय के नागयज्ञ के समय सर्पों की रक्षा की, नहीं तो सर्पवंश उसी समय नष्ट हो गया होता। समुद्रमंथन के समय वासुकी ने पर्वत का बाँधने के लिए रस्सी का काम किया था।
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त्रिपुरदाह के समय वासुकी नाग शिव जी  के धनुष की डोर बने थे ।
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पता- सिंधिया घाट पर आत्मविरेश्वर मंदिर के पास जहाँ से सीढ़ी नीचे घाट पर उतरी है ।
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<nowiki>#</nowiki>बुद्धेश्वर_महादेव        #काशी_खण्डोक्त
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काश्यां    बुद्धेश्वरसमर्चनलब्धबुद्धिः |
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संसारसिन्धु मधिगम्य नरो ह्य्गाधाम् ||
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मज्जेन्न सज्जनविलोलचनचन्द्र कान्ति |
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कान्ताननस्त्व धीवसेच्च बुधेत्र लोके ||
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(#काशी_खण्ड)
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बुधवार को बुद्धेश्वर के नाम से जो प्रसिद्ध है , उनका दर्शन करने वाला व्यक्ति अगाध क्षीर सागर में गिर कर गोता नही खाता बल्कि साधुजनों के नेत्रों में चंद्रमा के तुल्य कांतिमय सूंदर बदन होकर अंत मे बुद्धलोक में निवास करता है ।
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<nowiki>#</nowiki>ब्रह्मांड पुराण में ये कहा गया है कि बुद्धेश्वर के दर्शन पूजन से सभी कार्य सफल होते है और नवग्रह शांत होते है ।
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<nowiki>#</nowiki>बुद्धग्रह व्यापार और बुद्धि का प्रतीक है इनकी सेवा करते रहने से विद्यार्थी को विद्या और व्यापारी के रोजगार में वृद्धि होती है और कुंडली मे बुद्ध ग्रह शुभ फल देते है ।
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पता- सिंधिया घाट पर आत्मविरेश्वर मंदिर में ।
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1. #श्री_महाकालेश्वर_महादेव    #काशीखण्डोक्त
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2. #श्री_महाकालेश्वर_महादेव    #उज्जैन_अवंतिकाखण्ड
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<nowiki>#</nowiki>काशी में शिव जी के आह्वाहन पर महाकाल लिंग उज्जैन(अवंतिकाखण्ड) से चल कर काशी में स्वयम्भू रूप से स्थापित हुवे और उज्जैन स्थित महाकालेश्वर लिंग के प्रतिनिधि के रूप में यहां काशी में सबको दर्शन दे रहे है , शास्त्रो में ऐसी वर्णन है कि काशी में यहां महाकाल के दर्शन करने से उतना ही पुण्य मिलता है जितना उज्जैन के महाकाल के दर्शन से मिलता है , यह काशी स्थित द्वादस 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है ।
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पता-मैदागिन, दारा नगर पर मृत्युंजय मंदिर में ।
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<nowiki>#</nowiki>उज्जैन को उज्जयिनी और अवंतिका के नाम से भी जाना जाता है, जो क्षिप्रानदी के तट पर बसा हुआ है और साथ ही कुम्भ मेले का आयोजन करने वाले चार शहरो में से भी एक है।
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उज्जैन का पवित्र शहर महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग का घर और भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है।
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महाकाल महाकाल महाकालेति कीर्तनात ।
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शतधा मच्यते पापैनार्त्र कार्या विचारणा  ।।
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(#काशीखण्ड)
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<nowiki>#</nowiki>महाकालेश्वर का तीन बार नाम लेने से व्यक्ति सैकड़ो पापो से मुक्त हो जाता है , इस पर विचार करने का प्रश्न ही नही उठता।
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~दर्शनाद्देवदेवस्य  ब्रह्महत्या प्रणश्यति |
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प्राणानुत्सृज्य तत्रैव मोक्षं प्राप्नोति मानवः ||
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(#ब्रह्म_संहिता )
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देवों के देव महादेव श्री #काशी_विश्वनाथ जीके दर्शन करने से ब्रह्म हत्या आदि पापों का नाश होता है तथा काशी में प्राण त्याग कर मोक्ष प्राप्त होता है ।
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<nowiki>#</nowiki>चतुःषष्ठेश्वर_महादेव    #काशीखण्डोक्त_मंदिर
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चौसठ योगिनियो के द्वारा ये  स्थापित लिंग काशी के प्राचीन लिंगो में से एक है ।प्राचीन काल मे चौसठ योगिनी यात्रा में सर्वप्रथम यही से संकल्प ले कर यात्रा होती थी ।
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जब शिव जी सभी देवी देवताओं को  राजा दिवोदास के राज्य में कमी निकालने के लिए काशी में बारी बारी भेज रहे थे पर सभी इस कार्य में असक्षम होकर काशी में ही निवास करने लगे और स्वामी(शिव) के आज्ञा का पालन न कर पाने के प्रायश्चित में सभी जन शिव लिंग की स्थापना कर के यही रुक गए
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उसी अंतराल में चौसठ योगिनियां भी काशी में शिव जी के आज्ञा के अनुसार आई और दिवोदास के राज्य में खामी नही निकाल पाई (जिससे शिव जी फिर से काशी में अधिग्रहण कर पाते) और शिव जी के आज्ञा को पूरा न कर पाने के प्रायश्चित में शिव लिंग स्थापित किया और काशी में ही सभी विग्रह रूप में स्थापित होगयी ।
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यह लिंग जमीन से कुछ फ़ीट अंदर है इससे यह प्रमाणित होता है कि यह लिंग अति प्राचीन है और मंदिर के बगल में ही चौसठ योगिनी का मंदिर भी है जिसकी वार्षिक यात्रा हर साल होली की रात्रि में होती है ।
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पता- 21/9 चौसट्टी घाट , राणा महल , वाराणसी
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<nowiki>#</nowiki>नर्मदर्श्वर_महादेव      #काशी_खण्डोक्त
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<nowiki>#</nowiki>श्रावण_कृष्ण_पक्ष_दशमी_दर्शन
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काशी दिव्य दर्शन पुस्तक के अनुसार आज यहां के दर्शन करने से सभी पाप और कष्ट दूर होजाते है ।
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पता - d 21/9 राणा महल चौसट्टी देवी मंदिर के बगल वाली गली में ।
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<nowiki>#</nowiki>श्री_काल_भैरव    #काशी_खण्डोक्त_मंदिर
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<nowiki>#</nowiki>शनिवार_अष्टमी_दर्शन (कालाष्टमी)
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~अष्टम्यां च चतुर्दश्याम रवि भूमिजवासरे |
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यात्रां च भैरवी  कृत्वा कृते पापेः प्रमुच्यते ||
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कालराज न यः काश्या प्रतिभू ताष्टामी कुजं |
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~ काल भैरव जी का और सभी भैरवो का दर्शन करने का विशेष दिन मंगलवार रविवार अष्टमी चतुर्दशी है । श्रद्धा भक्ति से दर्शन करने से पाप ताप भूत प्रेत डाकनी सनी का भय नहीं होता और शारीरिक मानसिक चिंता दूर होती है । अनेक प्रकार के रोग शांत होते हैं और मनोकामना की पूर्ति होती है । वस्त्र भोजन रहने की व्यवस्था काल भैरव जी की कृपा से स्वतः प्राप्त होती है अंत में भैरव विश्वनाथ जी से प्रार्थना करके मुक्ति दिला देते हैं उन मनुष्यों का पुनर्जन्म नहीं होता है ।
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<nowiki>#</nowiki>शास्त्रो में ऐसी मान्यता है कि जो भी काल भैरव की आठ प्रदक्षिणा (फेरी) लगाएगा उसके सारे पाप कट जाएंगे और 6 महीने नित्य पूजा अर्चना करने से सभी प्रकार की सिद्धि प्राप्त होती है ।
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ऐसी मान्यता है कि जो काशी वासी अगर काशी से बाहर जाता है तोह काल भैरव के दर्शन (आज्ञा ले) कर के जाता है ।
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और आने पर भी हाजरी लगता है(जिससे काल भैरव उसकी रक्षा करते है)
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शिव जी द्वारा काशी के कोतवाल पद पर इनको नियुक्त किया गया है और प्राचीन काल से ही राजा , महाराज , नेता , मंत्री , नर्तक , बड़े साहूकार , मार्तंड और तत्काल समय मे नेता , विधायक , सांसद , प्रधान और मुख्य मंत्री , अधिकारी और प्रशासनिक अधिकारी यहां माथा टेकने जरूर आते है ।
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पता k 32 / 22 काल भैरव , भैरव नाथ ।
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यहां के महंत श्री सुमित उपाध्याय जी आरती करते हुवे ।
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दण्डपाणी_भैरव        #काशी_खण्डोक्त
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प्राचीन काल में पूर्णभद्र नामक एक धर्मात्मा यक्ष गंधमादन पर्वत पर रहते थे ,
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निसंतान होने के कारण वह अपने पुत्र प्राप्ति के लिए हमेशा चिंतित रहते थे उसके चिंतित रहने के कारण उसकी पत्नी कनककुंडला ने उनसे शिवजी की आराधना करने की बात कही और यह भी कहा जब  शिलाद मुनि ने जिन की कृपा से मरण हीन नंदेश्वर नामक पुत्र को प्राप्त किया उन शिव की आराधना क्यों नही करते ।
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अपने स्त्री का वचन सुनकर यक्षराज ने गीत वाद्य आदि से #ओम्कारेश्वर(कोयला बाजार स्थित,काशी)
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का पूजन कर पुत्र की अभिलाषा पूर्ण की और शिव जी के कृपा के कारण पूर्णभद्र ने हरिकेश नामक पुत्र को प्राप्त किया जो आगे चलकर काशी में दंडपाणी भैरव नाम से प्रसिद्ध हुआ।
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जब हरिकेश 8 वर्ष का था तभी से खेल खेल में बालू में शिवलिंग बनाकर दूर्वा से उनका पूजा करता था और अपने मित्रों को शिव नाम से ही पुकारता था और अपना सारा समय शिवपूजन में ही लगाया करता था।
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हरिकेश की यह दशा देखकर उसके पिता ने उसे गृह कार्य में लगाने की अनेक चेष्टा की पर उस पर कुछ भी असर नहीं हुआ , अंत में हरिकेश घर से निकल गया और कुछ दूर जाकर उसे भ्रम हो गया और वह मन ही मन कहने लगा हे शंकर कहां जाऊं कहां रहने से मेरा कल्याण होगा उसने अपने मन में विचारों की जिनका कहीं ठिकाना नहीं है उनका आधार काशीपुरी है जो दिन-रात विपत्तियों से दबे हैं उनका काशीपुरी ही आधार है इस प्रकार निश्चय करके वह काशीपुरी को गया ।
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आनंदवन में जाकर ओम नमः शिवाय का जप करने लगा
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काफी समय के बाद शंकर जी पार्वती जी को अपना आनंदवन दिखाने के लिए काशी लाए और बोला जैसे तुम मुझको बहुत प्रिय हो वैसे ही आनंदवन भी मुझे परम प्रिय है हे देवी मेरे अनुग्रह से इस आनंद वन में मरे हुए जनों को जन्म मरण का बंधन नहीं होता अर्थात वह फिर से संसार में जन्म नहीं लेता और पुण्य आत्माओं के पाप के कर्म बीज विश्वनाथ जी की प्रज्वलित अग्नि में जल जाते हैं और फिर गर्भाशय में नहीं आते हैं ऐसे ही बात करते करते भगवान शिव और माता पार्वती उस स्थान पर पहुंच गए जहां पर हरिकेश यक्ष ने समाधि लगाए बैठे थे ।
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उनको देखकर पार्वती जी ने कहा हे ईश्वर यह आपका तपस्वी भक्त है इसको उचित वर देखकर उसका मनोरथ पूर्ण कीजिए इसका चित्त केवल आप में ही लगा है और इसका जीवन भी आपके ही अधीन है इतना सुनकर महादेव जी उस हरिकेश के समक्ष गए और हरिकेश को हाथों से स्पर्श किया । (कठिन तप के कारण हरिकेश कमजोर और दुर्बल होगये थे)
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दया सिंधु का स्पर्श पाकर हरिकेश यक्ष ने आंखें खोल कर अपने सम्मुख प्रत्यक्ष अपने अभीष्ट देव को देखा और गदगद स्वर से यक्ष ने कहा कि हे शंभू हे पार्वती पते हे शंकर आपकी जय हो आपके कर कमलों का स्पर्श पाकर मेरा यह शरीर अमृत स्वरूप हो गया इस प्रकार प्रिय वचन सुनकर आशुतोष भगवान बोले हे यक्ष तुम इसी क्षण मेरे वरदान से मेरे क्षेत्र के दंडनायक हो जाओ आज से तुम दुष्टों के दंड नायक और पुण्य वालों के सहायक बनो और दंडपाणी नाम से विख्यात होकर सभी गणों का नियंत्रण करो ।
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मनुष्यो में सम्भ्रम और उदभ्रम ये दोनों गण तुम्हारे साथ रहेंगे।
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तुम काशीवासी जनों के अन्नदाता । प्राणदाता , ज्ञान दाता होओ और मेरे मुख से निकले तारक मंत्र के उपदेश से मोक्ष दाता होकर नियमित रूप से काशी में निवास करो भगवान की कृपा से वही हरिकेश यक्ष काशी में दण्डपाणि के रूप में स्थित हो गए और भक्तों के कल्याण में लग गए ।
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<nowiki>#</nowiki>ज्ञानवापी में स्नान कर दण्डपाणि के दर्शन से सभी मनोकामना पूर्ण होती है ।
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<nowiki>https://maps.app.goo.gl/U8Z22PBVDx9RfV1GA</nowiki>
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<nowiki>#</nowiki>dandpani #harikesh #yaksh #banaras #varanasi
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<nowiki>#</nowiki>मोक्षद्वारेश्वर_लिंग    #काशी_खण्डोक्त
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<nowiki>#</nowiki>ज्येष्ठ_मास_कृष्ण_पक्ष_पंचमी को 29/6/21 इनका दर्शन होता है , विश्वनाथ कॉरिडोर में यह मंदिर तोड़ फोड़ होने के कारण अब विलुप्त होगया है ।
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लाहौरी टोला स्थित इस मंदिर में आज दर्शन पूजन का विशेष महत्व है । दैनिक दर्शन करने वाले लोगों को मोक्ष प्राप्त करना बहुत मामूली बात है यहां , पर अब यह मंदिर विलुप्त होगया है ।
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<nowiki>#</nowiki>मोक्षद्वारेश्वर_लिंग    #काशी_खण्डोक्त
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<nowiki>#</nowiki>ज्येष्ठ_मास_कृष्ण_पक्ष_पंचमी को 29/6/21 इनका दर्शन होता है , विश्वनाथ कॉरिडोर में यह मंदिर तोड़ फोड़ होने के कारण अब विलुप्त होगया है ।
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लाहौरी टोला स्थित इस मंदिर में आज दर्शन पूजन का विशेष महत्व है । दैनिक दर्शन करने वाले लोगों को मोक्ष प्राप्त करना बहुत मामूली बात है यहां , पर अब यह मंदिर विलुप्त होगया है ।
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