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अर्थात्‌ सृष्टि के प्रारंभ में जो तत्त्व उत्पन्न हुआ यह घोर शब्द करता हुआ, सूर्य सदृश्य प्रकाशमान, बाज की बाहों की तरह विस्तीर्ण तथा हिरण के पैरों की तरह अत्यन्त वेग से ऊपर उठता हुआ चारों तरफ फैल गया तथा सर्वत्र फैल गया।
 
अर्थात्‌ सृष्टि के प्रारंभ में जो तत्त्व उत्पन्न हुआ यह घोर शब्द करता हुआ, सूर्य सदृश्य प्रकाशमान, बाज की बाहों की तरह विस्तीर्ण तथा हिरण के पैरों की तरह अत्यन्त वेग से ऊपर उठता हुआ चारों तरफ फैल गया तथा सर्वत्र फैल गया।
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==== निष्कर्षतः ====
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` स्वधा' नामक तरल पदार्थ जो गतिमान है, से सृष्टि रचना हुई है। “स्वधा' परमाणु का रुप ही है। अतिसूक्ष्म होने से परमाणु तरल जैसा व्यवहार करते हैं। “स्वधा' जल के रुप में हो जाती है-सलिलं सर्वमेदम्‌।
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ऋग्वेद में कहा गया हे कि परमं नियंत्रक शक्ति ने सत्त्व, रजस, तमस के संतुलन से मिल कर परमाणु को तेजयुक्त कर सक्रिय कर दिया।
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तात्पर्य है कि साम्यावस्था से प्रकृति के परमाणु तेजवान हो गये। प्रकृति की असाम्यवस्था में परमाणु को वसु कहते हैं। साम्यवस्था में वसु तेजवान होकर सक्रिय हो जाता है-<blockquote>'''“यमेन दत्रं त्रित एनभायुनगिन्द्र एणं प्रथमों अध्यमिण्त्‌'''
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  '''गन्धर्वो अस्य रशनाममृभणात्‌ सुरादश्वं वसवो निरतट।”'''
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                                                                   (ऋग्वेद 1.163.2)</blockquote>तात्पर्य यह है कि परमाणुओं की समान शक्ति आमने-सामने होने पर एक दूसरे को दूर धकेलने लगी तथा असमान शक्तियां एक दूसरे को आकर्षित करने लगी परिणामतः परमाणुओं में गति का संचार हो गया। इस गति को वेदों में वायु के नाम से इंगित किया गया है। परमाणु में गति से आपसी संयोग होने लगा जिससे निबंधन बनने लगे। ऋग्वेद में तीन प्रकार के निबंधनों का उल्लेख किया गया है-
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(1) सत्त्वगुण प्रधान निबंधन
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(2) रजोगुण प्रधान निबंधन
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(3) तमोगुण प्रधान निबंधन
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<blockquote>'''“ असि यमो अस्यादित्यो अर्वन्नति त्रितो गुह्येन व्रतेन।'''
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'''असि सोमेन समया निपृक्त आहुस्ते त्रीणि दिवि बन्धनानि।”'''</blockquote>                                                                                 (ऋग्वेद 1.163.3)
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<blockquote>'''त्रीणि त आहुर्दिवि बन्धनानि त्रीण्यप्सु त्रीण्यन्तः समुद्रं'''
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'''उतेव में वरुणश्छन्तस्यर्वन्‌ यत्रा त आहु: परमं जनित्रम्‌।।”'''</blockquote>                                                                                  (ऋग्वेद 1.163.4)
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सत्त्व, रजस्‌ और तमस्‌ क्रमशः धनात्मक, ऋणात्मक एवं शून्य आवेश से युक्त माने जाते है। इनका उल्लेख “आपः” नाम से किया गया है। आधुनिक विज्ञान ने ` आपः को ही “एटॉमिक पार्टिकल” नाम दिया है। वेदों में सत्व, रजस एवं तमस को क्रमशः मित्र, वरुण और अर्यमा नाम दिया है। आधुनिक विज्ञान मित्र को इलेक्ट्रॉन, वरुण को प्रोटोन तथा अर्यमा को न्यूट्रॉन नाम से संबोधित करती है।
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जिस तरह आधुनिक विज्ञान यह मानता है कि परमाणु पहले बने है और परमाणुओं से अन्य चीजों की रचना हुई है वैसे ही वैदिक साहित्य में भी माना गया हे कि मित्र, वरुण तथा अर्यमा से प्रकृति के परिमण्डलों की रचना हुई है -<blockquote>'''द्युक्षं मित्रस्य सादनमर्यम्णो वरुणस्य च।'''
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'''अया दधाते वृहदुक्टयं वय उपस्तुत्यं बृहदयः।'''</blockquote>                                                                      (ऋग्वेद 1.136.2)
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ब्रह्मण्ड की इस सर्जन शक्ति को ऋग्वेद में हिरण्यमय माना गया है, जिससे पञ्चमहाभूत आविर्भूत हुए-
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'''“रेतोधा आसन्महिमान आसन्त्स्वधा अवस्तात्प्रयति परस्तात्‌।”'''
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(ऋग्वेद 10.129.5)
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ऋग्वेद ऋषि माधुछन्द क॑ अनुसार पञ्चभूतों-आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी से सर्वशक्तिमान ने जल से पूर्ण अन्तरिक्ष उत्पन्न किया जो परमाणुओं से भरा हुआ था-<blockquote>'''“ततो राज्यजायत ततः समुद्रों अर्णनः।”'''</blockquote>                                                            (ऋग्वेद 10.190.1)
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परमाणु युक्त अन्तरिक्ष से समय, काल, गणना प्रकट हुई। सूर्य, दिन, रात तथा प्राणवान विश्व को परमशक्ति ने धारण किया-<blockquote>'''समुद्रदर्णवाद संवस्सरो भजायत।'''
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'''अहोरात्राणि विदधदिश्रवस्य मियतो वशी।'''</blockquote>                                                      (ऋग्वेद 10.190.2)
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इसके बाद शक्तिमान परमात्मा ने क्रमशः सूर्य, चन्द्र, द्युलोक, पृथ्वीलोक, अन्तरिक्ष तथा स्वर्ग को रचना को।<blockquote>'''सूर्याचन्द्रमसौ धाता सयापूर्वमकल्पमत्‌।'''
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'''दिवं च पृथिवीं चान्तरिक्षमयो स्वः।।'''</blockquote>                                                   (ऋग्वेद 10.190.3)
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अथर्ववेद के ऋषि कुत्स का मानना है कि सृष्टि निर्माण की यह प्रक्रिया नवीन तथा रूपान्तरित होती रहती है। अनवरत चलती रहती हे। इसका निर्माण करने वाली शक्ति अनन्त, स्थायी और सनातन हे।<blockquote>'''“ सनातनमेनमाहुरूताय स्यात्‌ पुनर्णनः।'''
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'''अहोरात्रे जायेते अन्यो अन्यान्य रुपयोः।।'''</blockquote>                                                 ( अथर्ववेद 10.8.23)
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