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| धार्मिक सामाजिक विचार इससे भिन्न है । केवल अपने स्वार्थ का विचार न कर ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ का विचार करने का है ।<ref>जीवन का धार्मिक प्रतिमान-खंड १, अध्याय ९, लेखक - दिलीप केलकर</ref> | | धार्मिक सामाजिक विचार इससे भिन्न है । केवल अपने स्वार्थ का विचार न कर ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ का विचार करने का है ।<ref>जीवन का धार्मिक प्रतिमान-खंड १, अध्याय ९, लेखक - दिलीप केलकर</ref> |
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− | == समाज से संबंधित महत्वपूर्ण धार्मिक (धार्मिक) बिन्दु == | + | == समाज से संबंधित महत्वपूर्ण धार्मिक बिन्दु == |
| समाज के लिये चार बातें महत्वपूर्ण होतीं हैं। सुरक्षित भूभाग, समाज सातत्य (संतान उत्पत्ति के द्वारा), समान जीवनदृष्टि (संस्कृति) और स्वतंत्रता। इन चार में स्वतंत्रता के बगैर कोई भी समाज ठीक नहीं रह सकता। जीवनदृष्टि समाज की वैचारिक पहचान होती है। | | समाज के लिये चार बातें महत्वपूर्ण होतीं हैं। सुरक्षित भूभाग, समाज सातत्य (संतान उत्पत्ति के द्वारा), समान जीवनदृष्टि (संस्कृति) और स्वतंत्रता। इन चार में स्वतंत्रता के बगैर कोई भी समाज ठीक नहीं रह सकता। जीवनदृष्टि समाज की वैचारिक पहचान होती है। |
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| # मानव अकेला अपने आप जन्म नहीं लेता। वह माँ के साथ बँधकर ही, नाल से जुडकर ही जन्म लेता है। उसे एक अलग मानव तो नाल काटकर ही बनाया जाता है। इस प्रकार से मानव का समष्टि से संबंध तो गर्भ से ही आरम्भ होता है। नाल काटी जाने तक तो वह माता का ही एक हिस्सा होता है। इसलिये मानव का समाज पर अवलंबन तो गर्भावस्था से ही आरम्भ होता है। जन्म से पशूवत् मानव को रक्षण, पोषण तथा संस्कार और शिक्षा देकर उसे समाज में रहने और अपना दायित्व निभाने योग्य बनाना समाज का काम होता है। आगे समर्थ और सक्षम बनकर समाज के ऋण को चुकाना व्यक्ति का दायित्व होता है। इस दायित्व को निभाना उस व्यक्ति को अपने आगामी जीवन के लिये और समाज के लिये भी सदैव हितकारी होता है। | | # मानव अकेला अपने आप जन्म नहीं लेता। वह माँ के साथ बँधकर ही, नाल से जुडकर ही जन्म लेता है। उसे एक अलग मानव तो नाल काटकर ही बनाया जाता है। इस प्रकार से मानव का समष्टि से संबंध तो गर्भ से ही आरम्भ होता है। नाल काटी जाने तक तो वह माता का ही एक हिस्सा होता है। इसलिये मानव का समाज पर अवलंबन तो गर्भावस्था से ही आरम्भ होता है। जन्म से पशूवत् मानव को रक्षण, पोषण तथा संस्कार और शिक्षा देकर उसे समाज में रहने और अपना दायित्व निभाने योग्य बनाना समाज का काम होता है। आगे समर्थ और सक्षम बनकर समाज के ऋण को चुकाना व्यक्ति का दायित्व होता है। इस दायित्व को निभाना उस व्यक्ति को अपने आगामी जीवन के लिये और समाज के लिये भी सदैव हितकारी होता है। |
| # मानव जन्म के समय तो इतना अक्षम होता है कि वह अन्य लोगोंं की सहायता के बगैर जी नहीं सकता। उसका पूरा विकास ही लोगोंं की यानी समाज की सहायता लेकर ही होता रहता है। समाज का यह ऋण होता है। देवऋण, पितरऋण, गुरूऋण, समाजऋण और भूतऋण ऐसे मोटे मोटे प्रमुख रूप से पाँच ऋण लेता हुआ ही जीवन में मानव आगे बढता है। इन ऋणों से उॠण होने के प्रयास यदि वह नहीं करता है तो इन ऋणों का बोझ, इन उपकारों का बोझ बढता ही जाता है। जिस प्रकार से ऋण नहीं चुकाने से गृहस्थ की साख घटती जाती है उसी तरह जो अपने ऋण उसी जन्म में नहीं चुका पाता वह अधम गति को प्राप्त होता है। यानी घटिया स्तर का मानव जन्म या ऋणों का बोझ जब अत्यधिक हो जाता है तब पशू योनियों में जन्म प्राप्त करता है। कृतज्ञता या ऋण का बोझ और अधम गति को जाना केवल मनुष्य को इसलिये लागू है कि उसे परमात्मा ने श्रेष्ठ स्मृति की शक्ति दी हुई है। ऋण सिध्दांत की अधिक जानकारी के लिये इस [[Elements of Hindu Jeevan Drishti and Life Style (धार्मिक/हिन्दू जीवनदृष्टि और जीवन शैली के सूत्र)|लेख]] और इस [[Personality (व्यक्तित्व)|लेख]] को देखें । | | # मानव जन्म के समय तो इतना अक्षम होता है कि वह अन्य लोगोंं की सहायता के बगैर जी नहीं सकता। उसका पूरा विकास ही लोगोंं की यानी समाज की सहायता लेकर ही होता रहता है। समाज का यह ऋण होता है। देवऋण, पितरऋण, गुरूऋण, समाजऋण और भूतऋण ऐसे मोटे मोटे प्रमुख रूप से पाँच ऋण लेता हुआ ही जीवन में मानव आगे बढता है। इन ऋणों से उॠण होने के प्रयास यदि वह नहीं करता है तो इन ऋणों का बोझ, इन उपकारों का बोझ बढता ही जाता है। जिस प्रकार से ऋण नहीं चुकाने से गृहस्थ की साख घटती जाती है उसी तरह जो अपने ऋण उसी जन्म में नहीं चुका पाता वह अधम गति को प्राप्त होता है। यानी घटिया स्तर का मानव जन्म या ऋणों का बोझ जब अत्यधिक हो जाता है तब पशू योनियों में जन्म प्राप्त करता है। कृतज्ञता या ऋण का बोझ और अधम गति को जाना केवल मनुष्य को इसलिये लागू है कि उसे परमात्मा ने श्रेष्ठ स्मृति की शक्ति दी हुई है। ऋण सिध्दांत की अधिक जानकारी के लिये इस [[Elements of Hindu Jeevan Drishti and Life Style (धार्मिक/हिन्दू जीवनदृष्टि और जीवन शैली के सूत्र)|लेख]] और इस [[Personality (व्यक्तित्व)|लेख]] को देखें । |
− | # यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे के न्याय से समाज भी एक जीवंत ईकाई है। यह भी सुखी होता है, समृध्द होता है, सुसंस्कृत होता है। समाज को भी मन होता है। पंचकोश होते हैं। अपने जीने का एक तरीका होता है। श्रेष्ठ जीवन जीने की जीवनदृष्टि होती है। धार्मिक (धार्मिक) जीवनदृष्टि और व्यवहार सूत्र या जीवनशैली के सूत्र जानने के लिये इस [[Elements of Hindu Jeevan Drishti and Life Style (धार्मिक/हिन्दू जीवनदृष्टि और जीवन शैली के सूत्र)|लेख]] और इस [[Personality (व्यक्तित्व)|लेख]] को देखें । | + | # यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे के न्याय से समाज भी एक जीवंत ईकाई है। यह भी सुखी होता है, समृध्द होता है, सुसंस्कृत होता है। समाज को भी मन होता है। पंचकोश होते हैं। अपने जीने का एक तरीका होता है। श्रेष्ठ जीवन जीने की जीवनदृष्टि होती है। धार्मिक जीवनदृष्टि और व्यवहार सूत्र या जीवनशैली के सूत्र जानने के लिये इस [[Elements of Hindu Jeevan Drishti and Life Style (धार्मिक/हिन्दू जीवनदृष्टि और जीवन शैली के सूत्र)|लेख]] और इस [[Personality (व्यक्तित्व)|लेख]] को देखें । |
− | # समाज जीवन का लक्ष्य ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ से भिन्न नहीं हो सकता। इसलिये व्यक्तियों में जो अच्छी बुरी वृत्तियाँ होतीं हैं उन्हें ध्यान में रखकर समाज में व्यवस्थाएँ निर्माण करनी होती हैं। व्यवस्थाओं का प्रवर्तन चार प्रकार से होता है। सज्जन लोगोंं के लिये तो शिक्षा का माध्यम पर्याप्त होता है। इसे हमारे पूर्वज विनयाधान कहते थे। जो नासमझ लोग होते हैं कुछ अल्पबुध्दि होते हैं और अपनी नासमझी या अल्पबुध्दि को जानते हैं, उन के लिये अधिकारी व्यक्ति के आदेश के माध्यम से काम चल जाता है। कुछ लोग क्षणिक आवेग में व्यवस्था भंग कर देते हैं या अपराध कर देते हैं। ऐसे लोगोंं के लिये पश्चात्ताप और प्रायश्चित्त की व्यवस्था होती है। लेकिन जो नासमझ होकर भी अपने को समझदार मानते हैं ऐसे मूर्ख लोग और जो मूलत: दुष्ट बुध्दि होते हैं ऐसे लोगोंं के लिये दण्डविधान की व्यवस्था होती है। | + | # समाज जीवन का लक्ष्य ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ से भिन्न नहीं हो सकता। इसलिये व्यक्तियों में जो अच्छी बुरी वृत्तियाँ होतीं हैं उन्हें ध्यान में रखकर समाज में व्यवस्थाएँ निर्माण करनी होती हैं। व्यवस्थाओं का प्रवर्तन चार प्रकार से होता है। सज्जन लोगोंं के लिये तो शिक्षा का माध्यम पर्याप्त होता है। इसे हमारे पूर्वज विनयाधान कहते थे। जो नासमझ लोग होते हैं कुछ अल्पबुद्धि होते हैं और अपनी नासमझी या अल्पबुद्धि को जानते हैं, उन के लिये अधिकारी व्यक्ति के आदेश के माध्यम से काम चल जाता है। कुछ लोग क्षणिक आवेग में व्यवस्था भंग कर देते हैं या अपराध कर देते हैं। ऐसे लोगोंं के लिये पश्चात्ताप और प्रायश्चित्त की व्यवस्था होती है। लेकिन जो नासमझ होकर भी अपने को समझदार मानते हैं ऐसे मूर्ख लोग और जो मूलत: दुष्ट बुद्धि होते हैं ऐसे लोगोंं के लिये दण्डविधान की व्यवस्था होती है। |
| # अपनी जीवनदृष्टि के अनुसार जीने के लिये तथा लोगोंं के योगक्षेम के लिये समाज अपनी कुछ व्यवस्थाएँ, संस्थाएँ और प्रक्रियाएँ विकसित करता है। यह व्यवस्थाएँ मोटे तौरपर तीन उद्देष्यों के लिये होती हैं। रक्षण, पोषण और शिक्षण। | | # अपनी जीवनदृष्टि के अनुसार जीने के लिये तथा लोगोंं के योगक्षेम के लिये समाज अपनी कुछ व्यवस्थाएँ, संस्थाएँ और प्रक्रियाएँ विकसित करता है। यह व्यवस्थाएँ मोटे तौरपर तीन उद्देष्यों के लिये होती हैं। रक्षण, पोषण और शिक्षण। |
| # मानव समाज में परमात्मा निर्मित चार वर्ण होते हैं । अब इन वर्णों का लाभ व्यक्ति और समाज दोनों को मिले इस लिये हमारे पूर्वजों ने जो व्यवस्था की थी उसका विचार करेंगे। वेद सत्य ज्ञान के ग्रंथ हैं। वेदों के अनुसार जो विभिन्न वर्णों की योग्यता है उसी के लिये व्यवस्था बनाना उचित होगा। इस के चरण निम्न हैं: | | # मानव समाज में परमात्मा निर्मित चार वर्ण होते हैं । अब इन वर्णों का लाभ व्यक्ति और समाज दोनों को मिले इस लिये हमारे पूर्वजों ने जो व्यवस्था की थी उसका विचार करेंगे। वेद सत्य ज्ञान के ग्रंथ हैं। वेदों के अनुसार जो विभिन्न वर्णों की योग्यता है उसी के लिये व्यवस्था बनाना उचित होगा। इस के चरण निम्न हैं: |
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| # समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति की दृष्टि से समाज में व्यावसायिक कौशलों का विकास करना होता है। समाज की बढती घटती जनसंख्या के साथ इन कौशलों का मेल बिठाने की आवश्यकता होती है। समाज के हर घटक को उसकी संभाव्य योग्यतातक विकास करने की और ऐसे विकसित समाज घटकों का उपयोग उन व्यक्तियों को और समाज को दोनोंको हो सके ऐसी व्यवस्था निर्माण करना समाज का काम है। | | # समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति की दृष्टि से समाज में व्यावसायिक कौशलों का विकास करना होता है। समाज की बढती घटती जनसंख्या के साथ इन कौशलों का मेल बिठाने की आवश्यकता होती है। समाज के हर घटक को उसकी संभाव्य योग्यतातक विकास करने की और ऐसे विकसित समाज घटकों का उपयोग उन व्यक्तियों को और समाज को दोनोंको हो सके ऐसी व्यवस्था निर्माण करना समाज का काम है। |
| # समाज में कुछ काम जैसे अन्न प्राप्ति, सामान्य जीने की शिक्षा, औषधि/औषधोपचार यह बातें अर्थ से ऊपर होनी चाहिये। यानि क्रय विक्रय की नहीं होनीं चाहिये। यह तो हर पात्र व्यक्ति को नि:शुल्क और बिना किसी शर्त के मिलनी चाहिये। | | # समाज में कुछ काम जैसे अन्न प्राप्ति, सामान्य जीने की शिक्षा, औषधि/औषधोपचार यह बातें अर्थ से ऊपर होनी चाहिये। यानि क्रय विक्रय की नहीं होनीं चाहिये। यह तो हर पात्र व्यक्ति को नि:शुल्क और बिना किसी शर्त के मिलनी चाहिये। |
− | # ज्ञान, विज्ञान और तंत्रज्ञान ये तीनों बातें पात्र को ही मिलनी चाहिये। सामान्य सामाजिक जीवन के लिये जितने ज्ञान, विज्ञान और तंत्रज्ञान की आवश्यकता होती है उससे कोई भी वंचित नहीं रहना चाहिये। किंतु विशेष ज्ञान, विज्ञान और तंत्रज्ञान तो पात्र को ही देना उचित है। और संहारक तथा सृष्टि या समाज विघातक ज्ञान, विज्ञान और तंत्रज्ञान तो अत्यंत बारीकी से पात्रता का चयन करने के बाद ही देना ठीक होगा। ऐसी स्थिति में सुपात्र का अर्थ है जो उस ज्ञान, विज्ञान और तत्रज्ञान का किसी भी परिस्थिति (मृत्यू के भय से भी) दुरुपयोग नहीं करेगा। | + | # ज्ञान, [[Dharmik Science and Technology (धार्मिक विज्ञान एवं तन्त्रज्ञान दृष्टि)|विज्ञान]] और तंत्रज्ञान ये तीनों बातें पात्र को ही मिलनी चाहिये। सामान्य सामाजिक जीवन के लिये जितने ज्ञान, विज्ञान और तंत्रज्ञान की आवश्यकता होती है उससे कोई भी वंचित नहीं रहना चाहिये। किंतु विशेष ज्ञान, विज्ञान और तंत्रज्ञान तो पात्र को ही देना उचित है। और संहारक तथा सृष्टि या समाज विघातक ज्ञान, विज्ञान और तंत्रज्ञान तो अत्यंत बारीकी से पात्रता का चयन करने के बाद ही देना ठीक होगा। ऐसी स्थिति में सुपात्र का अर्थ है जो उस ज्ञान, विज्ञान और तत्रज्ञान का किसी भी परिस्थिति (मृत्यू के भय से भी) दुरुपयोग नहीं करेगा। |
| # धार्मिक समाजशास्त्र में स्त्री और पुरूष एक दूसरे के प्रतिस्पर्धी नहीं होते हैं। वे एक दूसरे के पूरक होते हैं। पूरकता का अर्थ है दोनों समान रूप से महत्वपूर्ण लेकिन अधूरे हैं। दोनों मिलकर पूर्ण होते हैं। स्त्री पुरूष में जो स्वाभाविक आकर्षण होता है उसका कारण भी यही अपूर्णता की अनुभूति ही है, जिसे स्त्री पुरूष को पाकर और पुरूष स्त्री को पाकर पूर्ण करना चाहता है। | | # धार्मिक समाजशास्त्र में स्त्री और पुरूष एक दूसरे के प्रतिस्पर्धी नहीं होते हैं। वे एक दूसरे के पूरक होते हैं। पूरकता का अर्थ है दोनों समान रूप से महत्वपूर्ण लेकिन अधूरे हैं। दोनों मिलकर पूर्ण होते हैं। स्त्री पुरूष में जो स्वाभाविक आकर्षण होता है उसका कारण भी यही अपूर्णता की अनुभूति ही है, जिसे स्त्री पुरूष को पाकर और पुरूष स्त्री को पाकर पूर्ण करना चाहता है। |
− | # [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]] का प्रारंभ कब हुआ, किसने किया, कैसे किया इस विषय में कहीं कोई साहित्य उपलब्ध नहीं है। इसलिये बुध्दिके प्रयोग से तर्क और अनुमान के आधारपर ही इस विषय में प्रस्तुति की जा सकती है। एक बात लेकिन सर्वमान्य है कि [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]] भारत में हजारों वर्षों से चली आ रही है। धार्मिक (धार्मिक) समाज सदैव ज्ञानाधारित समाज रहा है। पिछली कुछ सदियों या एक सहस्रक को छोड दें तो यह समाज विश्व का अग्रणी रहा है। अंग्रेजों द्वारा संकलित जानकारी के अनुसार तो भारतवर्ष 18वीं सदी तक जीवन के लगभग हर क्षेत्र में विश्व में सबसे आगे रहा है। इससे यह स्पष्ट है कि [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]] के लाभों को धार्मिक (धार्मिक) समाज अच्छी तरह समझता था। इसीलिये इस व्यवस्था को समाज ने बनाए रखा था। [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]] के ढेर सारे लाभ हैं । काल के प्रवाह में [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]] में दोष भी निर्माण हुए हैं। अस्पृश्यता जैसे समाज का विघटन करनेवाले दोषों को दूर करना ही होगा। इस के ढेर सारे लाभ दुर्लक्षित नहीं किये जा सकते। धर्मपालजी ‘भारत का पुनर्बोंध’ में पृष्ठ क्र. १४ पर और लिखते हैं ‘आज के जातिप्रथा के विरूध्द आक्रोश के मूल में अंग्रेजी शासन ही है’। [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]] के विभिन्न और अपार लाभों के बारे में जानने के लिये कृपया [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]] लेख को देखें। | + | # [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]] का प्रारंभ कब हुआ, किसने किया, कैसे किया इस विषय में कहीं कोई साहित्य उपलब्ध नहीं है। इसलिये बुद्धि के प्रयोग से तर्क और अनुमान के आधारपर ही इस विषय में प्रस्तुति की जा सकती है। एक बात लेकिन सर्वमान्य है कि जाति व्यवस्था भारत में हजारों वर्षों से चली आ रही है। धार्मिक समाज सदैव ज्ञानाधारित समाज रहा है। पिछली कुछ सदियों या एक सहस्रक को छोड दें तो यह समाज विश्व का अग्रणी रहा है। अंग्रेजों द्वारा संकलित जानकारी के अनुसार तो भारतवर्ष 18वीं सदी तक जीवन के लगभग हर क्षेत्र में विश्व में सबसे आगे रहा है। इससे यह स्पष्ट है कि जाति व्यवस्था के लाभों को धार्मिक समाज अच्छी तरह समझता था। इसीलिये इस व्यवस्था को समाज ने बनाए रखा था। जाति व्यवस्था के ढेर सारे लाभ हैं । काल के प्रवाह में जाति व्यवस्था में दोष भी निर्माण हुए हैं। अस्पृश्यता जैसे समाज का विघटन करनेवाले दोषों को दूर करना ही होगा। इस के ढेर सारे लाभ दुर्लक्षित नहीं किये जा सकते। धर्मपालजी ‘भारत का पुनर्बोंध’ में पृष्ठ क्र. १४ पर और लिखते हैं ‘आज के जातिप्रथा के विरूध्द आक्रोश के मूल में अंग्रेजी शासन ही है’। जाति व्यवस्था के विभिन्न और अपार लाभों के बारे में जानने के लिये कृपया [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]] लेख को देखें। |
− | # भारत में आश्रम व्यवस्था धार्मिक (धार्मिक) समाज का एक महत्त्वपूर्ण आयाम रहा है। आयु की अवस्था के अनुसार चार आश्रम हैं: ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्यासाश्रम। जीवन यदि सुख, शांति, सौहार्द से जीना है तो परिश्रम की आवश्यकता होती है। फिर वह परिश्रम शारीरिक, मानसिक, बौध्दिक इन में से किसी भी प्रकार का या सभी प्रकार का हो सकता है। इसीलिये इस व्यवस्था को आश्रम, ‘जहाँ श्रम किया जाता है’ कहा गया है। समाज कहलाने के लिये लक्ष्य होना और उसकी पूर्ति के लिये प्रयास होना आवश्यक है। यह प्रयास ही वह परिश्रम हैं जो आश्रम में अपेक्षित हैं। वेदों के ज्ञाता डॉ दयानंद भार्गव बताते हैं कि जब अपने निजी स्वार्थ के लिये कष्ट किया जाता है तो उसे श्रम कहते हैं। जब किसी की आज्ञा का पालन करने के लिये कष्ट किये जाते हैं तो वे परिश्रम कहलाते हैं। लेकिन जहाँ सभी के हित के लिये कष्ट किये जाते हैं वह ‘आश्रम’ है। मानव जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये आश्रम व्यवस्था का गठन किया जाता है। मानव की बढती घटती शारीरिक, मानसिक और बौध्दिक क्षमताओं के समायोजन से इस व्यवस्था को बनाया गया है। मानव की आयु को चार हिस्सों में बाँटकर चार आश्रमों की रचना की गयी है। यह आश्रम हैं - ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्यासाश्रम। | + | # भारत में आश्रम व्यवस्था धार्मिक समाज का एक महत्त्वपूर्ण आयाम रहा है। आयु की अवस्था के अनुसार चार आश्रम हैं: ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्यासाश्रम। जीवन यदि सुख, शांति, सौहार्द से जीना है तो परिश्रम की आवश्यकता होती है। फिर वह परिश्रम शारीरिक, मानसिक, बौध्दिक इन में से किसी भी प्रकार का या सभी प्रकार का हो सकता है। इसीलिये इस व्यवस्था को आश्रम, ‘जहाँ श्रम किया जाता है’ कहा गया है। समाज कहलाने के लिये लक्ष्य होना और उसकी पूर्ति के लिये प्रयास होना आवश्यक है। यह प्रयास ही वह परिश्रम हैं जो आश्रम में अपेक्षित हैं। वेदों के ज्ञाता डॉ दयानंद भार्गव बताते हैं कि जब अपने निजी स्वार्थ के लिये कष्ट किया जाता है तो उसे श्रम कहते हैं। जब किसी की आज्ञा का पालन करने के लिये कष्ट किये जाते हैं तो वे परिश्रम कहलाते हैं। लेकिन जहाँ सभी के हित के लिये कष्ट किये जाते हैं वह ‘आश्रम’ है। मानव जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये आश्रम व्यवस्था का गठन किया जाता है। मानव की बढती घटती शारीरिक, मानसिक और बौध्दिक क्षमताओं के समायोजन से इस व्यवस्था को बनाया गया है। मानव की आयु को चार हिस्सों में बाँटकर चार आश्रमों की रचना की गयी है। यह आश्रम हैं - ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्यासाश्रम। |
| #* पहला है ब्रह्मचर्याश्रम। इस में बालक अध्ययन पर ध्यान देता है। इस हेतु से इंद्रिय संयम का अभ्यास करता है। वास्तव में ब्रह्मचर्य या इंद्रिय संयम के कारण ही वह अध्ययन के लिये आवश्यक एकाग्रता प्राप्त करता है। भावी व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन के लिये ज्ञान का, क्षमताओं का, कुशलताओं का और योग्यता का विकास करता है। | | #* पहला है ब्रह्मचर्याश्रम। इस में बालक अध्ययन पर ध्यान देता है। इस हेतु से इंद्रिय संयम का अभ्यास करता है। वास्तव में ब्रह्मचर्य या इंद्रिय संयम के कारण ही वह अध्ययन के लिये आवश्यक एकाग्रता प्राप्त करता है। भावी व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन के लिये ज्ञान का, क्षमताओं का, कुशलताओं का और योग्यता का विकास करता है। |
| #* गृहस्थाश्रम में मानव परिवार और समाज के लिये आवश्यक कोई काम जैसे अध्यापन, उत्पादन या सेवा करता है। अन्य तीनों आश्रमियों की आजीविका की जिम्मेदारी उठाता है। गृहस्थाश्रमी लोग ही वानप्रस्थियों के मार्गदर्शन में विभिन्न सामाजिक व्यवस्थाओं का संचालन करते हैं। गृहस्थों के पुरूषार्थ से ही समाज में लोग सुख से जी सकते हैं। गृहस्थ में गृहिणी भी आ जाती है। गृहस्थ एक ओर तो पारिवारिक वातावरण के माध्यम से श्रेष्ठ बच्चे समाज को देते हैं और दूसरी ओर समाज की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति की व्यवस्था भी करते हैं। | | #* गृहस्थाश्रम में मानव परिवार और समाज के लिये आवश्यक कोई काम जैसे अध्यापन, उत्पादन या सेवा करता है। अन्य तीनों आश्रमियों की आजीविका की जिम्मेदारी उठाता है। गृहस्थाश्रमी लोग ही वानप्रस्थियों के मार्गदर्शन में विभिन्न सामाजिक व्यवस्थाओं का संचालन करते हैं। गृहस्थों के पुरूषार्थ से ही समाज में लोग सुख से जी सकते हैं। गृहस्थ में गृहिणी भी आ जाती है। गृहस्थ एक ओर तो पारिवारिक वातावरण के माध्यम से श्रेष्ठ बच्चे समाज को देते हैं और दूसरी ओर समाज की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति की व्यवस्था भी करते हैं। |
| #* घटती शारीरिक क्षमताओं के अनुसार मनुष्य धीरे धीरे गृहस्थी से मुक्त होता है। किसी जमाने में घर छोडकर वन में चला जाता था। वानप्रस्थी बन जाता था। अब घर में ही रहते हुए वह नयी पीढी के हाथों में अधिकार का अंतरण करता है। बच्चा जब जन्म लेता है तब वह केवल अपने अधिकारों की सोचता है। और जब वह घर का मुखिया बनता है तब वह अपने को छोड सारे परिवार के सदस्यों के अधिकारों की सोचता है। इस दृष्टि से परिवार यह सामाजिकता की सीख देनेवाली पाठशाला ही होती है। | | #* घटती शारीरिक क्षमताओं के अनुसार मनुष्य धीरे धीरे गृहस्थी से मुक्त होता है। किसी जमाने में घर छोडकर वन में चला जाता था। वानप्रस्थी बन जाता था। अब घर में ही रहते हुए वह नयी पीढी के हाथों में अधिकार का अंतरण करता है। बच्चा जब जन्म लेता है तब वह केवल अपने अधिकारों की सोचता है। और जब वह घर का मुखिया बनता है तब वह अपने को छोड सारे परिवार के सदस्यों के अधिकारों की सोचता है। इस दृष्टि से परिवार यह सामाजिकता की सीख देनेवाली पाठशाला ही होती है। |
| #* सामान्य लोगोंं के लिये संन्यास आश्रम नहीं होता। अपवादस्वरूप लोग ही सर्वसंग परित्याग कर संन्यासी बनते हैं। संन्यासियों की मोक्ष साधना भी ठीक से चल सके यह देखना गृहस्थाश्रमी लोगोंं का ही दायित्व है। | | #* सामान्य लोगोंं के लिये संन्यास आश्रम नहीं होता। अपवादस्वरूप लोग ही सर्वसंग परित्याग कर संन्यासी बनते हैं। संन्यासियों की मोक्ष साधना भी ठीक से चल सके यह देखना गृहस्थाश्रमी लोगोंं का ही दायित्व है। |
− | # आश्रम व्यवस्था में [[Family Structure (कुटुंब व्यवस्था)|कुटुंब व्यवस्था]] एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण रचना है। अधार्मिक (अधार्मिक) समाजों में सामाजिक और पर्यावरणीय संबंधों का आधार 'स्वार्थ' होता है। यह उनके ‘व्यक्तिवादिता’ की जीवनदृष्टि के कारण ही है। इसीलिये अधार्मिक (अधार्मिक) समाजों में विवाह नहीं होते मॅरेज या निकाह होते हैं। विवाह तो दो भिन्न व्यक्तित्वों का एक व्यक्तित्व बनकर जीने का संस्कार होता है। मॅरेज या निकाह ये करार, या काँट्रॅक्ट या समझौता होते हैं, जो दो व्यक्ति अपने अपने स्वार्थ की आश्वस्ति के लिये करते हैं। कुटुंब व्यवस्था यह धार्मिक (धार्मिक) समाज रचना और व्यवस्थाओं का आधार है। कुटुंब व्यवस्था का उद्देश्य ही परिवार के लोगोंं में कौटुम्बिक भावना यानी परस्पर आत्मीयता की, एकत्व की भावना जगाना यही है। सभी सामाजिक और सृष्टिगत संबंधों का आधार कुटुंब भावना ही है। धार्मिक (धार्मिक) समाजशास्त्र का आधार सार्वत्रिक कुटुंब भावना का विकास है। कुटुंब भावना का अर्थ है अपनापन, प्रेम। इस के विकास से पूरा समाज कम परिश्रम में अधिक व्यवस्थित काम करने लग जाता है। कुटुंब के विषय में अधिक जानने के लिये यह [[Family Structure (कुटुंब व्यवस्था)|लेख]] देखें। | + | # आश्रम व्यवस्था में [[Family Structure (कुटुंब व्यवस्था)|कुटुंब व्यवस्था]] एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण रचना है। अधार्मिक (अधार्मिक) समाजों में सामाजिक और पर्यावरणीय संबंधों का आधार 'स्वार्थ' होता है। यह उनके ‘व्यक्तिवादिता’ की जीवनदृष्टि के कारण ही है। इसीलिये अधार्मिक (अधार्मिक) समाजों में विवाह नहीं होते मॅरेज या निकाह होते हैं। विवाह तो दो भिन्न व्यक्तित्वों का एक व्यक्तित्व बनकर जीने का संस्कार होता है। मॅरेज या निकाह ये करार, या काँट्रॅक्ट या समझौता होते हैं, जो दो व्यक्ति अपने अपने स्वार्थ की आश्वस्ति के लिये करते हैं। कुटुंब व्यवस्था यह धार्मिक समाज रचना और व्यवस्थाओं का आधार है। कुटुंब व्यवस्था का उद्देश्य ही परिवार के लोगोंं में कौटुम्बिक भावना यानी परस्पर आत्मीयता की, एकत्व की भावना जगाना यही है। सभी सामाजिक और सृष्टिगत संबंधों का आधार कुटुंब भावना ही है। धार्मिक समाजशास्त्र का आधार सार्वत्रिक कुटुंब भावना का विकास है। कुटुंब भावना का अर्थ है अपनापन, प्रेम। इस के विकास से पूरा समाज कम परिश्रम में अधिक व्यवस्थित काम करने लग जाता है। कुटुंब के विषय में अधिक जानने के लिये यह [[Family Structure (कुटुंब व्यवस्था)|लेख]] देखें। |
− | # कुटुंब भावना का सार्वत्रिकीकरण यह धार्मिक (धार्मिक) समाज का अनिवार्य पहलू है। वर्तमान में कुटुंब भी बाजार भावना से चलते हैं। सौदेबाजी से चलते हैं। धार्मिक (धार्मिक) समाज में तो बाजार भी परिवार भावना से चलने चाहिये। हमारे कुटुंब के दायरे में चराचर का समावेश होता है। शिष्य गुरूका मानसपुत्र माना जाता है। प्रजा शब्द का अर्थ ही संतान होता है। राजा को प्रजा का पिता माना जाता है। एक ही व्यवसाय में काम करनेवाले एक दूसरे के प्रतिस्पर्धी न होकर व्यवसाय बन्धु होते हैं। परिवार भावना का सार्वत्रिकीकरण तब ही हो सकता है जब परिवारों में वह अत्यंत तीव्र होगी, तथा उसके सार्वत्रिकीकरण की सोच और वातावरण भी होगा। इस दृष्टि से परिवार में दो प्रकार की शिक्षा होती है। एक होती है परिवार में शिक्षा। इसमें विभिन्न प्रकार की आदतें, सामाजिकता, व्यावसायिक कौशल, आदि का समावेश होता है। दूसरी होती है परिवार की शिक्षा। इस शिक्षा से मुख्यत: परिवार में कैसे रहा जाता है, पारिवारिक विशेषताएँ क्या हैं आदि का और व्यवहार का अगली पीढी को अंतरण होता है। इसमें बच्चा पारिवारिक रिश्ते, पारिवारिक दैनंदिन काम, कुलधर्म, कुलाचार, परंपराएँ आदि सीखता है। | + | # कुटुंब भावना का सार्वत्रिकीकरण यह धार्मिक समाज का अनिवार्य पहलू है। वर्तमान में कुटुंब भी बाजार भावना से चलते हैं। सौदेबाजी से चलते हैं। धार्मिक समाज में तो बाजार भी परिवार भावना से चलने चाहिये। हमारे कुटुंब के दायरे में चराचर का समावेश होता है। शिष्य गुरूका मानसपुत्र माना जाता है। प्रजा शब्द का अर्थ ही संतान होता है। राजा को प्रजा का पिता माना जाता है। एक ही व्यवसाय में काम करनेवाले एक दूसरे के प्रतिस्पर्धी न होकर व्यवसाय बन्धु होते हैं। परिवार भावना का सार्वत्रिकीकरण तब ही हो सकता है जब परिवारों में वह अत्यंत तीव्र होगी, तथा उसके सार्वत्रिकीकरण की सोच और वातावरण भी होगा। इस दृष्टि से परिवार में दो प्रकार की शिक्षा होती है। एक होती है परिवार में शिक्षा। इसमें विभिन्न प्रकार की आदतें, सामाजिकता, व्यावसायिक कौशल, आदि का समावेश होता है। दूसरी होती है परिवार की शिक्षा। इस शिक्षा से मुख्यत: परिवार में कैसे रहा जाता है, पारिवारिक विशेषताएँ क्या हैं आदि का और व्यवहार का अगली पीढी को अंतरण होता है। इसमें बच्चा पारिवारिक रिश्ते, पारिवारिक दैनंदिन काम, कुलधर्म, कुलाचार, परंपराएँ आदि सीखता है। |
| # सृष्टि में कोई भी दो अस्तित्व पूर्णत: एक जैसे नहीं होते हैं। इसी तरह समाज में कोई भी दो व्यक्ति पूर्णत: समान नहीं हो सकते। इसलिये श्रेष्ठता कनिष्ठता तो किसी भी समाज में स्वाभाविक है। एक मानव के नाते, एक ही समाज के घटक होने के नाते समाज के सभी लोग, समान हैं। समान का अर्थ यह नहीं की हर मनुष्य को खाने के लिये चार रोटी दी जाए। जिस की आवश्यकता २ रोटी है उसे २ रोटी और जिस की आवश्यकता ६ रोटी की है उसे ६ रोटी मिलनी चाहिये। समाज के सभी घटक समान हैं का अर्थ है हर व्यक्ति की आवश्यकता की पूर्ति हो यह देखना। परिवार में बडे छोटे, बलवान, दुर्बल, स्त्री, पुरूष, मोटे, दुबले ऐसे लोग होते ही हैं। जिस प्रकार से परिवार में ऐसे किसी की भी आवश्यकताओं की पूर्ति की ओर ध्यान दिया जाता है उसी प्रकार समाज भी एक विशाल परिवार है ऐसा समझकर प्रत्येक की आवश्यकता और उचित अपेक्षाओं की पूर्ति करना हर व्यक्ति का और समाज का सामाजिक कर्तव्य है। इसी के साथ हर व्यक्ति की क्षमताओं और योग्यताओं का उस व्यक्ति के हित के साथ साथ ही समाज के हित में उपयोग होना चाहिये। इसलिये प्रत्येक व्यक्ति के विकास की उच्चतम संभावनाओं के विकास के अवसर उसे समाज में प्राप्त होने चाहिये। ऐसा जब होता है तो समाज एक परिवार बनता है। साथ ही में सामाजिक न्याय की भी प्रतिष्ठापना हो जाती है। | | # सृष्टि में कोई भी दो अस्तित्व पूर्णत: एक जैसे नहीं होते हैं। इसी तरह समाज में कोई भी दो व्यक्ति पूर्णत: समान नहीं हो सकते। इसलिये श्रेष्ठता कनिष्ठता तो किसी भी समाज में स्वाभाविक है। एक मानव के नाते, एक ही समाज के घटक होने के नाते समाज के सभी लोग, समान हैं। समान का अर्थ यह नहीं की हर मनुष्य को खाने के लिये चार रोटी दी जाए। जिस की आवश्यकता २ रोटी है उसे २ रोटी और जिस की आवश्यकता ६ रोटी की है उसे ६ रोटी मिलनी चाहिये। समाज के सभी घटक समान हैं का अर्थ है हर व्यक्ति की आवश्यकता की पूर्ति हो यह देखना। परिवार में बडे छोटे, बलवान, दुर्बल, स्त्री, पुरूष, मोटे, दुबले ऐसे लोग होते ही हैं। जिस प्रकार से परिवार में ऐसे किसी की भी आवश्यकताओं की पूर्ति की ओर ध्यान दिया जाता है उसी प्रकार समाज भी एक विशाल परिवार है ऐसा समझकर प्रत्येक की आवश्यकता और उचित अपेक्षाओं की पूर्ति करना हर व्यक्ति का और समाज का सामाजिक कर्तव्य है। इसी के साथ हर व्यक्ति की क्षमताओं और योग्यताओं का उस व्यक्ति के हित के साथ साथ ही समाज के हित में उपयोग होना चाहिये। इसलिये प्रत्येक व्यक्ति के विकास की उच्चतम संभावनाओं के विकास के अवसर उसे समाज में प्राप्त होने चाहिये। ऐसा जब होता है तो समाज एक परिवार बनता है। साथ ही में सामाजिक न्याय की भी प्रतिष्ठापना हो जाती है। |
| # सृष्टि में सभी विषय और व्यवस्थाएँ एक दूसरे से अंगांगी भाव से जुडी हुई हैं। अंग विषय में कोई भी बात अंगी के विरोधी या विपरीत नहीं होगी। परामात्मा ने सृष्टि का निर्माण किया इस कारण प्रकृति के नियमों को खोजकर प्राकृतिक शास्त्रों की प्रस्तुति की गई है। जैसे प्राणिशास्त्र, वनस्पति शास्त्र, भौतिक शास्त्र आदि। मानव ने भी अपनी प्रतिभा से अपने हित की दृष्टि से कुछ शास्त्रों का निर्माण किया है। इन्हें सांस्कृतिक शास्त्र कहा जाता है। जैसे समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, न्यायशास्त्र, राज्यशास्त्र आदि। इन सभी शास्त्रों के उपयोग के लिये जो व्यवस्थाएँ बनतीं हैं उन्हें अगांगी संबंध समझकर बनाने से व्यक्तिगत समष्टिगत और सृष्टि जीवन अच्छा चलता है। इन की एक मोटी मोटी रूपरेखा इस [[Interrelationship in Srishti (सृष्टि में परस्पर सम्बद्धता)|लेख]] में दी है। | | # सृष्टि में सभी विषय और व्यवस्थाएँ एक दूसरे से अंगांगी भाव से जुडी हुई हैं। अंग विषय में कोई भी बात अंगी के विरोधी या विपरीत नहीं होगी। परामात्मा ने सृष्टि का निर्माण किया इस कारण प्रकृति के नियमों को खोजकर प्राकृतिक शास्त्रों की प्रस्तुति की गई है। जैसे प्राणिशास्त्र, वनस्पति शास्त्र, भौतिक शास्त्र आदि। मानव ने भी अपनी प्रतिभा से अपने हित की दृष्टि से कुछ शास्त्रों का निर्माण किया है। इन्हें सांस्कृतिक शास्त्र कहा जाता है। जैसे समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, न्यायशास्त्र, राज्यशास्त्र आदि। इन सभी शास्त्रों के उपयोग के लिये जो व्यवस्थाएँ बनतीं हैं उन्हें अगांगी संबंध समझकर बनाने से व्यक्तिगत समष्टिगत और सृष्टि जीवन अच्छा चलता है। इन की एक मोटी मोटी रूपरेखा इस [[Interrelationship in Srishti (सृष्टि में परस्पर सम्बद्धता)|लेख]] में दी है। |
| # समाज में उत्पादन की प्रभूता हो। इस प्रभूता का संदर्भ समाज की आवश्यकताओं से रहे। इच्छाओं से नहीं। उत्पादन भी 'सर्वे भवन्तु सुखिन: के विपरीत नहीं हो। यानी जिस वस्तू के उत्पादन और उपयोग से किसी का भी अहित होता हो ऐसा उत्पादन नहीं करना चाहिये। जब शंका हो तब सर्वे भवन्तु सुखिन: के लिये जीनेवाले ज्ञानी लोगोंं से मार्गदर्शन लेना । | | # समाज में उत्पादन की प्रभूता हो। इस प्रभूता का संदर्भ समाज की आवश्यकताओं से रहे। इच्छाओं से नहीं। उत्पादन भी 'सर्वे भवन्तु सुखिन: के विपरीत नहीं हो। यानी जिस वस्तू के उत्पादन और उपयोग से किसी का भी अहित होता हो ऐसा उत्पादन नहीं करना चाहिये। जब शंका हो तब सर्वे भवन्तु सुखिन: के लिये जीनेवाले ज्ञानी लोगोंं से मार्गदर्शन लेना । |
− | # नई पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी का अंतर भी एक चिरंतन विषय है । इस के लिए मार्गदर्शक तत्त्व है – चिरंतन तत्त्वों की युगानुकूल प्रस्तुति करना । जैसे – वस्त्र पहनने के दो कारण हैं । पहला है विषम वातावरण से शरीर की रक्षा करना । दूसरा है लज्जा रक्षण । यहाँ लज्जा रक्षण का अर्थ ठीक से समझना होगा । जिन वस्त्रों के पहनने से देखनेवाला कामुक या उद्दीपित नहीं हो जाए ऐसे वस्त्र पहनना । जबतक इन दोनों बातों की आश्वस्ति होती है तबतक वस्त्रों के सभी नवाचार स्वीकार्य हैं । धार्मिक (धार्मिक) सोच के अनुसार धर्म के कुछ तत्त्व जैसे रक्षण, पोषण, शिक्षण, सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अक्रोध आदि चिरंतन हैं। युगानुकूल सोच और व्यवहार का अर्थ है काल के साथ जो मानवीय क्षमताओं का क्षरण हुआ है, प्रकृति में जो परिवर्तन होते रहते हैं आदि जैसी बातों के साथ अनुकूलन । यही तत्व विदेशी सोच, व्यवहार और वस्तुओं के संबंध में उचित होती है। केवल किसी सोच, व्यवहार या वस्तु के उपयोग का प्रारंभ कहीं विदेश में हुआ है इसलिये उसको त्यागना ठीक नहीं है। वह यदि ‘सर्वे भवन्तु’ से सुसंगत है तो उसे देशानुकूल बनाकर उसका उपयोग करना चाहिये। जैसे भारत का बहुत बडा हिस्सा उष्ण जलवायू का है। यूरोप के देशों का वातावरण ठण्डा होने से वे टाय पहनते हैं। कमीज को टाय कॉलर भी होती है। भारत के ऊष्ण प्रदेशों में टाय लगाने की आवश्यकता नहीं होती। इसलिये बिना टाय कॉलर की कमीज इन प्रदेशों में योग्य है। इससे कुछ कपड़े का दुरूपयोग और दर्जी के परिश्रम बचेंगे। खडी कॉलर यह विदेशी टाय कॉलर का देशानुकूल स्वरूप है। | + | # नई पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी का अंतर भी एक चिरंतन विषय है । इस के लिए मार्गदर्शक तत्त्व है – चिरंतन तत्त्वों की युगानुकूल प्रस्तुति करना । जैसे – वस्त्र पहनने के दो कारण हैं । पहला है विषम वातावरण से शरीर की रक्षा करना । दूसरा है लज्जा रक्षण । यहाँ लज्जा रक्षण का अर्थ ठीक से समझना होगा । जिन वस्त्रों के पहनने से देखनेवाला कामुक या उद्दीपित नहीं हो जाए ऐसे वस्त्र पहनना । जबतक इन दोनों बातों की आश्वस्ति होती है तबतक वस्त्रों के सभी नवाचार स्वीकार्य हैं । धार्मिक सोच के अनुसार धर्म के कुछ तत्त्व जैसे रक्षण, पोषण, शिक्षण, सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अक्रोध आदि चिरंतन हैं। युगानुकूल सोच और व्यवहार का अर्थ है काल के साथ जो मानवीय क्षमताओं का क्षरण हुआ है, प्रकृति में जो परिवर्तन होते रहते हैं आदि जैसी बातों के साथ अनुकूलन । यही तत्व विदेशी सोच, व्यवहार और वस्तुओं के संबंध में उचित होती है। केवल किसी सोच, व्यवहार या वस्तु के उपयोग का प्रारंभ कहीं विदेश में हुआ है इसलिये उसको त्यागना ठीक नहीं है। वह यदि ‘सर्वे भवन्तु’ से सुसंगत है तो उसे देशानुकूल बनाकर उसका उपयोग करना चाहिये। जैसे भारत का बहुत बडा हिस्सा उष्ण जलवायू का है। यूरोप के देशों का वातावरण ठण्डा होने से वे टाय पहनते हैं। कमीज को टाय कॉलर भी होती है। भारत के ऊष्ण प्रदेशों में टाय लगाने की आवश्यकता नहीं होती। इसलिये बिना टाय कॉलर की कमीज इन प्रदेशों में योग्य है। इससे कुछ कपड़े का दुरूपयोग और दर्जी के परिश्रम बचेंगे। खडी कॉलर यह विदेशी टाय कॉलर का देशानुकूल स्वरूप है। |
| # हर समाज की अपनी कोई भाषा होती है। इस भाषा का विकास उस समाज के विकास के साथ ही होता है। इसलिये यह भाषा समाज की विचार, परंपराओं, मान्यताओं आदि को सही सही अभिव्यक्त करने की क्षमता रखती है। अन्य समाज की भाषा में सरल और सहज अभिव्यक्ति संभव नहीं होती। समाज की भाषा बिगडने से या नष्ट होने से विचार, परंपराओं, मान्यताओं आदि में परिवर्तन हो जाते हैं। फिर वह समाज पूर्व का समाज नहीं रह जाता। | | # हर समाज की अपनी कोई भाषा होती है। इस भाषा का विकास उस समाज के विकास के साथ ही होता है। इसलिये यह भाषा समाज की विचार, परंपराओं, मान्यताओं आदि को सही सही अभिव्यक्त करने की क्षमता रखती है। अन्य समाज की भाषा में सरल और सहज अभिव्यक्ति संभव नहीं होती। समाज की भाषा बिगडने से या नष्ट होने से विचार, परंपराओं, मान्यताओं आदि में परिवर्तन हो जाते हैं। फिर वह समाज पूर्व का समाज नहीं रह जाता। |
| # गुरुकुल की शिक्षा पूर्ण कर जब युवक संसार में प्रवेश के लिये गुरु से अनुमति लेता था उस समय जो प्रक्रिया होती थी उसे समावर्तन कहते थे। तैत्तिरीय उपनिषद की शीक्षा वल्ली में एकादश अनुवाक में प्रस्तुत, समावर्तन के समय दिया जानेवाला उपदेश और आदेश व्यक्तिगत और गृहस्थ या समाज जीवन के लिये अत्यंत मार्गदर्शक है। समावर्तन संदेश की अधिक जानकारी के लिये कृपया यह [[Indian Education Paradigm (धार्मिक शिक्षा दृष्टि)|लेख]] देखें। | | # गुरुकुल की शिक्षा पूर्ण कर जब युवक संसार में प्रवेश के लिये गुरु से अनुमति लेता था उस समय जो प्रक्रिया होती थी उसे समावर्तन कहते थे। तैत्तिरीय उपनिषद की शीक्षा वल्ली में एकादश अनुवाक में प्रस्तुत, समावर्तन के समय दिया जानेवाला उपदेश और आदेश व्यक्तिगत और गृहस्थ या समाज जीवन के लिये अत्यंत मार्गदर्शक है। समावर्तन संदेश की अधिक जानकारी के लिये कृपया यह [[Indian Education Paradigm (धार्मिक शिक्षा दृष्टि)|लेख]] देखें। |
| # जब सामाजिक संबंधों का आधार ‘अपने अधिकार’' होता है तब समाज में संघर्ष, अशांति, तनाव अनिवार्य हो जाते हैं। किंतु जब समाज में परस्पर संबंध ‘अपने कर्तव्यों की पूर्ति’ पर आधारित होते हैं तब समाज का जीवन सुखी और शांततामय होता है। | | # जब सामाजिक संबंधों का आधार ‘अपने अधिकार’' होता है तब समाज में संघर्ष, अशांति, तनाव अनिवार्य हो जाते हैं। किंतु जब समाज में परस्पर संबंध ‘अपने कर्तव्यों की पूर्ति’ पर आधारित होते हैं तब समाज का जीवन सुखी और शांततामय होता है। |
− | # वर्तमान कानून के अनुसार किसी व्यक्ति का यदि ७ वर्ष तक पता ठिकाना नहीं होता है तो उसे मरा हुआ माना जाता है। धार्मिक (धार्मिक) मान्यता के अनुसार त्रेता युग में यह मान्यता १४ वर्ष की थी। इसीलिये कैकेयी ने राम को १४ वर्ष के वनवास में भेजा था। द्वापर में यही काल १३ वर्ष का था। इसीलिये पांडवों को १२ वर्ष के वनवास और १ वर्ष के अज्ञातवास में भेजा गया था। कलि युग में यह अवधि १२ वर्ष की होती है। इसके पीछे विचार यह है कि इतने वर्षों में लोग उसे भूल जाएँगे। वह व्यक्ति भी इस अवधि में पूर्णत: भिन्न जीवन जीने के कारण बदल जाएगा। इसीलिये जाति परिवर्तन के लिये १२ वर्ष तक दूसरी जाति का जीवन जीने के उपरांत ही किसी व्यक्ति को दूसरी जाति में शामिल किया जाता था। | + | # वर्तमान कानून के अनुसार किसी व्यक्ति का यदि ७ वर्ष तक पता ठिकाना नहीं होता है तो उसे मरा हुआ माना जाता है। धार्मिक मान्यता के अनुसार त्रेता युग में यह मान्यता १४ वर्ष की थी। इसीलिये कैकेयी ने राम को १४ वर्ष के वनवास में भेजा था। द्वापर में यही काल १३ वर्ष का था। इसीलिये पांडवों को १२ वर्ष के वनवास और १ वर्ष के अज्ञातवास में भेजा गया था। कलि युग में यह अवधि १२ वर्ष की होती है। इसके पीछे विचार यह है कि इतने वर्षों में लोग उसे भूल जाएँगे। वह व्यक्ति भी इस अवधि में पूर्णत: भिन्न जीवन जीने के कारण बदल जाएगा। इसीलिये जाति परिवर्तन के लिये १२ वर्ष तक दूसरी जाति का जीवन जीने के उपरांत ही किसी व्यक्ति को दूसरी जाति में शामिल किया जाता था। |
| # हर जीव का अपना स्वभाव होता है । इस स्वभाव के अनुसार व्यवहार करना उसका धर्म होता है । श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है –स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह: । (३-३५) धर्म का तात्पर्य ही प्रकृति के नियमों से है। प्रकृति के नियमों का पालन करने से अपना जीवन सुखमय होता है । किन्तु कभी कभी अपना सुख अन्यों के सुख का विरोधी बन सकता है । इसे ध्यान में रखकर जब स्वभाव के अनुसार ही लेकिन अधिक अच्छे तरीके से व्यवहार होता है तो संस्कृति का उदय होता है । संस्कृति का अर्थ है सम्यक कृति । सम्यक का अर्थ है अपने स्वभाव के अनुसार ‘सर्वे भवन्तु सुखिन: के लिए की हुई कृति । | | # हर जीव का अपना स्वभाव होता है । इस स्वभाव के अनुसार व्यवहार करना उसका धर्म होता है । श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है –स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह: । (३-३५) धर्म का तात्पर्य ही प्रकृति के नियमों से है। प्रकृति के नियमों का पालन करने से अपना जीवन सुखमय होता है । किन्तु कभी कभी अपना सुख अन्यों के सुख का विरोधी बन सकता है । इसे ध्यान में रखकर जब स्वभाव के अनुसार ही लेकिन अधिक अच्छे तरीके से व्यवहार होता है तो संस्कृति का उदय होता है । संस्कृति का अर्थ है सम्यक कृति । सम्यक का अर्थ है अपने स्वभाव के अनुसार ‘सर्वे भवन्तु सुखिन: के लिए की हुई कृति । |
| # समाज में चिरकाल से सुर और असुर वृत्तियों का विभाजन रहा है । सुर उन्हें कहते हैं जिनके सभी प्रकार के परस्पर संबंधों का आधार आत्मीयता होता है । प्रेम, सहानुभूति, श्रद्धा आदि होता है । असुर प्रवृत्ति उसे कहते हैं जिनके परस्पर संबंधों का आधार स्वार्थ होता है । इसका अधिक विस्तार से वर्णन श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय १६ में किया गया है । आत्मीयता के परस्पर संबंधों को ही व्यवहार की भाषा में ‘कुटुंब भावना’ कहते हैं । | | # समाज में चिरकाल से सुर और असुर वृत्तियों का विभाजन रहा है । सुर उन्हें कहते हैं जिनके सभी प्रकार के परस्पर संबंधों का आधार आत्मीयता होता है । प्रेम, सहानुभूति, श्रद्धा आदि होता है । असुर प्रवृत्ति उसे कहते हैं जिनके परस्पर संबंधों का आधार स्वार्थ होता है । इसका अधिक विस्तार से वर्णन श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय १६ में किया गया है । आत्मीयता के परस्पर संबंधों को ही व्यवहार की भाषा में ‘कुटुंब भावना’ कहते हैं । |
− | # मनुष्य एक बुद्धिशील जीव है । जीवन की अनिश्चितताओं को दूर करने के लिए तथा सुख को निरंतर बनाए रखने के लिए समाज अपने लिए कुछ संगठन निर्माण करता है । इन संगठनों और व्यवस्थाओं की श्रेष्ठता के कारण धार्मिक (धार्मिक) समाज चिरंजीवी बना है । श्रेष्ठ जीवन जीने के लिए समाज अपने को संगठित करता है । संगठन का अर्थ है समाज के प्रत्येक घटक की शक्तियां, मर्यादाएं, स्वभाव आदि को ध्यानमें रखकर समाज में कुछ रचना निर्माण करना । संगठन बनाने के साथ ही अपनी रक्षण, पोषण और शिक्षण की कुछ व्यवस्थाएं भी बनाता है । | + | # मनुष्य एक बुद्धिशील जीव है । जीवन की अनिश्चितताओं को दूर करने के लिए तथा सुख को निरंतर बनाए रखने के लिए समाज अपने लिए कुछ संगठन निर्माण करता है । इन संगठनों और व्यवस्थाओं की श्रेष्ठता के कारण धार्मिक समाज चिरंजीवी बना है । श्रेष्ठ जीवन जीने के लिए समाज अपने को संगठित करता है । संगठन का अर्थ है समाज के प्रत्येक घटक की शक्तियां, मर्यादाएं, स्वभाव आदि को ध्यानमें रखकर समाज में कुछ रचना निर्माण करना । संगठन बनाने के साथ ही अपनी रक्षण, पोषण और शिक्षण की कुछ व्यवस्थाएं भी बनाता है । |
| # हर बच्चा जन्म लेते समय अपने विकास की सम्भावनाओं के साथ ही जन्म लेता है । इन सम्भावनाओं के उच्चतम स्तरतक विकास होने से वह बच्चा (मनुष्य) लाभान्वित होता है और साथ ही में समाज को भी लाभ होता है । अतः प्रत्येक बालक के विकास की जिम्मेदारी समाज की है । इस विकास के साथ ही समाज की व्यवस्थाओं और संगठनों को ठीक से चलाने के लिए भी प्रत्येक बालक को श्रेष्ठ शिक्षण, संस्कार और प्रशिक्षण मिलना आवश्यक है । समाज के लिए हितकारी स्वतंत्रता, सदाचार, सादगी, स्वावलंबन, सत्यनिष्ठा, सहजता, स्वदेशी आदि गुणों का विकास सामाजिक हित की ही बातें हैं । | | # हर बच्चा जन्म लेते समय अपने विकास की सम्भावनाओं के साथ ही जन्म लेता है । इन सम्भावनाओं के उच्चतम स्तरतक विकास होने से वह बच्चा (मनुष्य) लाभान्वित होता है और साथ ही में समाज को भी लाभ होता है । अतः प्रत्येक बालक के विकास की जिम्मेदारी समाज की है । इस विकास के साथ ही समाज की व्यवस्थाओं और संगठनों को ठीक से चलाने के लिए भी प्रत्येक बालक को श्रेष्ठ शिक्षण, संस्कार और प्रशिक्षण मिलना आवश्यक है । समाज के लिए हितकारी स्वतंत्रता, सदाचार, सादगी, स्वावलंबन, सत्यनिष्ठा, सहजता, स्वदेशी आदि गुणों का विकास सामाजिक हित की ही बातें हैं । |
| == सामाजिक स्तर पर लक्ष्य == | | == सामाजिक स्तर पर लक्ष्य == |
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| जड़ जगत यानी पृथ्वी, वायू, वरूण, अग्नि आदि देवताओं के विषय में मानव के और मानव समाज के संबंधों का विवरण ऊपर सृष्टि निर्माण की मान्यता में दिया है। पशू पक्षी, प्राणि वनस्पति आदि सजीवों के साथ संबंधों के बारे में भी बताया गया है कि सारी चराचर सृष्टि ही परमतत्व से बनीं है इसलिये इस में पूज्य भाव रखना चाहिये। इसीलिये साँप की पूजा, वटवृक्ष की पूजा, बेल, दूब आदि प्रकृति के घटकों के प्रति पवित्रता की भावना रखना आवश्यक है। आयुर्वेद में तो कहा गया है कि ऐसा कोई भी पेड, पौधा, जड़ी, बूटी नहीं है जिसका औषधी उपयोग नहीं है। और ऐसा किसी भी वनस्पति का उपयोग करने से पहले उस से प्रार्थना कर उस से क्षमा माँगने के उपरांत ही उस से छाल, पत्ते, फूल, मूल, फल या लकडी लेनी चाहिये। | | जड़ जगत यानी पृथ्वी, वायू, वरूण, अग्नि आदि देवताओं के विषय में मानव के और मानव समाज के संबंधों का विवरण ऊपर सृष्टि निर्माण की मान्यता में दिया है। पशू पक्षी, प्राणि वनस्पति आदि सजीवों के साथ संबंधों के बारे में भी बताया गया है कि सारी चराचर सृष्टि ही परमतत्व से बनीं है इसलिये इस में पूज्य भाव रखना चाहिये। इसीलिये साँप की पूजा, वटवृक्ष की पूजा, बेल, दूब आदि प्रकृति के घटकों के प्रति पवित्रता की भावना रखना आवश्यक है। आयुर्वेद में तो कहा गया है कि ऐसा कोई भी पेड, पौधा, जड़ी, बूटी नहीं है जिसका औषधी उपयोग नहीं है। और ऐसा किसी भी वनस्पति का उपयोग करने से पहले उस से प्रार्थना कर उस से क्षमा माँगने के उपरांत ही उस से छाल, पत्ते, फूल, मूल, फल या लकडी लेनी चाहिये। |
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− | सृष्टि के अन्य सब जीव भोग योनि के होते हैं। वे नहीं तो सृष्टि को बिगाडने की और न ही बिगडी हुई प्रकृति को सुधारने की क्षमता रखते हैं। केवल मानव योनि ही कर्म योनि है। इसे वह क्षमताएँ प्राप्त हैं की यह अपनी इच्छानुरूप प्रकृति के साथ व्यवहार कर सके। इसलिये हर मानव का यह व्यक्तिगत, सामाजिक और सृष्टिगत कर्तव्य बनता है कि अपने चिरंजीवी जीवन के लिये सृष्टि के व्यवहार में वह यथासंभव कोई बाधा निर्माण नहीं करे। वह सृष्टि के नियमों का पालन करे। इसी को धर्माचरण कहते हैं। यह आवश्यक बन जाता है कि समाज का हर व्यक्ति धर्माचरणी हो। प्रकृति के नियमों का पालन करनेवाला हो। समाज धर्म का भी पालन करनेवाला हो। | + | सृष्टि के अन्य सब जीव भोग योनि के होते हैं। वे नहीं तो सृष्टि को बिगाड़ने की और न ही बिगडी हुई प्रकृति को सुधारने की क्षमता रखते हैं। केवल मानव योनि ही कर्म योनि है। इसे वह क्षमताएँ प्राप्त हैं की यह अपनी इच्छानुरूप प्रकृति के साथ व्यवहार कर सके। इसलिये हर मानव का यह व्यक्तिगत, सामाजिक और सृष्टिगत कर्तव्य बनता है कि अपने चिरंजीवी जीवन के लिये सृष्टि के व्यवहार में वह यथासंभव कोई बाधा निर्माण नहीं करे। वह सृष्टि के नियमों का पालन करे। इसी को धर्माचरण कहते हैं। यह आवश्यक बन जाता है कि समाज का हर व्यक्ति धर्माचरणी हो। प्रकृति के नियमों का पालन करनेवाला हो। समाज धर्म का भी पालन करनेवाला हो। |
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| आहार के लिये मनुष्य को वनस्पति का उपयोग आवश्यक है। लेकिन ऐसा करते समय वनस्पति का दुरूपयोग या बिना कारण के नाश नहीं हो यह देखना आवश्यक है। अन्य प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करते समय भी इस बात को ध्यान में रखना होगा। मानव का शरीर मांसाहार के लिये नहीं बना है। वनस्पति आहार की अनुपस्थिति में जब मांसाहार अनिवार्य होगा तब ही करना। आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करना। लेकिन इच्छाओं की पूर्ति के समय संयम रखना। यथासंभव प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग इच्छा पूर्ति के लिये नहीं करना। अनिवार्य हो तो न्यूनतम उपयोग करना। यही सृष्टिगत धर्म है। महात्मा गांधी ने कहा था ' प्रकृति में मानव की आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिये कुछ कमी नहीं है। लेकिन मानव की अमर्याद इच्छाओं (लोभ) कि पूर्ति के लिये पर्याप्त नहीं है। | | आहार के लिये मनुष्य को वनस्पति का उपयोग आवश्यक है। लेकिन ऐसा करते समय वनस्पति का दुरूपयोग या बिना कारण के नाश नहीं हो यह देखना आवश्यक है। अन्य प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करते समय भी इस बात को ध्यान में रखना होगा। मानव का शरीर मांसाहार के लिये नहीं बना है। वनस्पति आहार की अनुपस्थिति में जब मांसाहार अनिवार्य होगा तब ही करना। आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करना। लेकिन इच्छाओं की पूर्ति के समय संयम रखना। यथासंभव प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग इच्छा पूर्ति के लिये नहीं करना। अनिवार्य हो तो न्यूनतम उपयोग करना। यही सृष्टिगत धर्म है। महात्मा गांधी ने कहा था ' प्रकृति में मानव की आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिये कुछ कमी नहीं है। लेकिन मानव की अमर्याद इच्छाओं (लोभ) कि पूर्ति के लिये पर्याप्त नहीं है। |
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| [[Category:Dharmik Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान - भाग १)]] | | [[Category:Dharmik Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान - भाग १)]] |
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