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#* घटती शारीरिक क्षमताओं के अनुसार मनुष्य धीरे धीरे गृहस्थी से मुक्त होता है। किसी जमाने में घर छोडकर वन में चला जाता था। वानप्रस्थी बन जाता था। अब घर में ही रहते हुए वह नयी पीढी के हाथों में अधिकार का अंतरण करता है। बच्चा जब जन्म लेता है तब वह केवल अपने अधिकारों की सोचता है। और जब वह घर का मुखिया बनता है तब वह अपने को छोड सारे परिवार के सदस्यों के अधिकारों की सोचता है। इस दृष्टि से परिवार यह सामाजिकता की सीख देनेवाली पाठशाला ही होती है।  
 
#* घटती शारीरिक क्षमताओं के अनुसार मनुष्य धीरे धीरे गृहस्थी से मुक्त होता है। किसी जमाने में घर छोडकर वन में चला जाता था। वानप्रस्थी बन जाता था। अब घर में ही रहते हुए वह नयी पीढी के हाथों में अधिकार का अंतरण करता है। बच्चा जब जन्म लेता है तब वह केवल अपने अधिकारों की सोचता है। और जब वह घर का मुखिया बनता है तब वह अपने को छोड सारे परिवार के सदस्यों के अधिकारों की सोचता है। इस दृष्टि से परिवार यह सामाजिकता की सीख देनेवाली पाठशाला ही होती है।  
 
#* सामान्य लोगोंं के लिये संन्यास आश्रम नहीं होता। अपवादस्वरूप लोग ही सर्वसंग परित्याग कर संन्यासी बनते हैं। संन्यासियों की मोक्ष साधना भी ठीक से चल सके यह देखना गृहस्थाश्रमी लोगोंं का ही दायित्व है।
 
#* सामान्य लोगोंं के लिये संन्यास आश्रम नहीं होता। अपवादस्वरूप लोग ही सर्वसंग परित्याग कर संन्यासी बनते हैं। संन्यासियों की मोक्ष साधना भी ठीक से चल सके यह देखना गृहस्थाश्रमी लोगोंं का ही दायित्व है।
# आश्रम व्यवस्था में कुटुंब व्यवस्था एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण रचना है। अधार्मिक (अधार्मिक) समाजों में सामाजिक और पर्यावरणीय संबंधों का आधार 'स्वार्थ' होता है। यह उनके ‘व्यक्तिवादिता’ की जीवनदृष्टि के कारण ही है। इसीलिये अधार्मिक (अधार्मिक) समाजों में विवाह नहीं होते मॅरेज या निकाह होते हैं। विवाह तो दो भिन्न व्यक्तित्वों का एक व्यक्तित्व बनकर जीने का संस्कार होता है। मॅरेज या निकाह ये करार, या काँट्रॅक्ट या समझौता होते हैं, जो दो व्यक्ति अपने अपने स्वार्थ की आश्वस्ति के लिये करते हैं। कुटुंब व्यवस्था यह धार्मिक (धार्मिक) समाज रचना और व्यवस्थाओं का आधार है। कुटुंब व्यवस्था का उद्देश्य ही परिवार के लोगोंं में कौटुम्बिक भावना यानी परस्पर आत्मीयता की, एकत्व की भावना जगाना यही है। सभी सामाजिक और सृष्टिगत संबंधों का आधार कुटुंब भावना ही है। धार्मिक (धार्मिक) समाजशास्त्र का आधार सार्वत्रिक कुटुंब भावना का विकास है। कुटुंब भावना का अर्थ है अपनापन, प्रेम। इस के विकास से पूरा समाज कम परिश्रम में अधिक व्यवस्थित काम करने लग जाता है। कुटुंब के विषय में अधिक जानने के लिये यह [[Family Structure (कुटुंब व्यवस्था)|लेख]] देखें।
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# आश्रम व्यवस्था में [[Family Structure (कुटुंब व्यवस्था)|कुटुंब व्यवस्था]] एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण रचना है। अधार्मिक (अधार्मिक) समाजों में सामाजिक और पर्यावरणीय संबंधों का आधार 'स्वार्थ' होता है। यह उनके ‘व्यक्तिवादिता’ की जीवनदृष्टि के कारण ही है। इसीलिये अधार्मिक (अधार्मिक) समाजों में विवाह नहीं होते मॅरेज या निकाह होते हैं। विवाह तो दो भिन्न व्यक्तित्वों का एक व्यक्तित्व बनकर जीने का संस्कार होता है। मॅरेज या निकाह ये करार, या काँट्रॅक्ट या समझौता होते हैं, जो दो व्यक्ति अपने अपने स्वार्थ की आश्वस्ति के लिये करते हैं। कुटुंब व्यवस्था यह धार्मिक (धार्मिक) समाज रचना और व्यवस्थाओं का आधार है। कुटुंब व्यवस्था का उद्देश्य ही परिवार के लोगोंं में कौटुम्बिक भावना यानी परस्पर आत्मीयता की, एकत्व की भावना जगाना यही है। सभी सामाजिक और सृष्टिगत संबंधों का आधार कुटुंब भावना ही है। धार्मिक (धार्मिक) समाजशास्त्र का आधार सार्वत्रिक कुटुंब भावना का विकास है। कुटुंब भावना का अर्थ है अपनापन, प्रेम। इस के विकास से पूरा समाज कम परिश्रम में अधिक व्यवस्थित काम करने लग जाता है। कुटुंब के विषय में अधिक जानने के लिये यह [[Family Structure (कुटुंब व्यवस्था)|लेख]] देखें।
 
# कुटुंब भावना का सार्वत्रिकीकरण यह धार्मिक (धार्मिक) समाज का अनिवार्य पहलू है। वर्तमान में कुटुंब भी बाजार भावना से चलते हैं। सौदेबाजी से चलते हैं। धार्मिक (धार्मिक) समाज में तो बाजार भी परिवार भावना से चलने चाहिये। हमारे कुटुंब के दायरे में चराचर का समावेश होता है। शिष्य गुरूका मानसपुत्र माना जाता है। प्रजा शब्द का अर्थ ही संतान होता है। राजा को प्रजा का पिता माना जाता है। एक ही व्यवसाय में काम करनेवाले एक दूसरे के प्रतिस्पर्धी न होकर व्यवसाय बन्धु होते हैं। परिवार भावना का सार्वत्रिकीकरण तब ही हो सकता है जब परिवारों में वह अत्यंत तीव्र होगी, तथा उसके सार्वत्रिकीकरण की सोच और वातावरण भी होगा। इस दृष्टि से परिवार में दो प्रकार की शिक्षा होती है। एक होती है परिवार में शिक्षा। इसमें विभिन्न प्रकार की आदतें, सामाजिकता, व्यावसायिक कौशल, आदि का समावेश होता है। दूसरी होती है परिवार की शिक्षा। इस शिक्षा से मुख्यत: परिवार में कैसे रहा जाता है, पारिवारिक विशेषताएँ क्या हैं आदि का और व्यवहार का अगली पीढी को अंतरण होता है। इसमें बच्चा पारिवारिक रिश्ते, पारिवारिक दैनंदिन काम, कुलधर्म, कुलाचार, परंपराएँ आदि सीखता है।  
 
# कुटुंब भावना का सार्वत्रिकीकरण यह धार्मिक (धार्मिक) समाज का अनिवार्य पहलू है। वर्तमान में कुटुंब भी बाजार भावना से चलते हैं। सौदेबाजी से चलते हैं। धार्मिक (धार्मिक) समाज में तो बाजार भी परिवार भावना से चलने चाहिये। हमारे कुटुंब के दायरे में चराचर का समावेश होता है। शिष्य गुरूका मानसपुत्र माना जाता है। प्रजा शब्द का अर्थ ही संतान होता है। राजा को प्रजा का पिता माना जाता है। एक ही व्यवसाय में काम करनेवाले एक दूसरे के प्रतिस्पर्धी न होकर व्यवसाय बन्धु होते हैं। परिवार भावना का सार्वत्रिकीकरण तब ही हो सकता है जब परिवारों में वह अत्यंत तीव्र होगी, तथा उसके सार्वत्रिकीकरण की सोच और वातावरण भी होगा। इस दृष्टि से परिवार में दो प्रकार की शिक्षा होती है। एक होती है परिवार में शिक्षा। इसमें विभिन्न प्रकार की आदतें, सामाजिकता, व्यावसायिक कौशल, आदि का समावेश होता है। दूसरी होती है परिवार की शिक्षा। इस शिक्षा से मुख्यत: परिवार में कैसे रहा जाता है, पारिवारिक विशेषताएँ क्या हैं आदि का और व्यवहार का अगली पीढी को अंतरण होता है। इसमें बच्चा पारिवारिक रिश्ते, पारिवारिक दैनंदिन काम, कुलधर्म, कुलाचार, परंपराएँ आदि सीखता है।  
 
# सृष्टि में कोई भी दो अस्तित्व पूर्णत: एक जैसे नहीं होते हैं। इसी तरह समाज में कोई भी दो व्यक्ति पूर्णत: समान नहीं हो सकते। इसलिये श्रेष्ठता कनिष्ठता तो किसी भी समाज में स्वाभाविक है। एक मानव के नाते, एक ही समाज के घटक होने के नाते समाज के सभी लोग, समान हैं। समान का अर्थ यह नहीं की हर मनुष्य को खाने के लिये चार रोटी दी जाए। जिस की आवश्यकता २ रोटी है उसे २ रोटी और जिस की आवश्यकता ६ रोटी की है उसे ६ रोटी मिलनी चाहिये। समाज के सभी घटक समान हैं का अर्थ है हर व्यक्ति की आवश्यकता की पूर्ति हो यह देखना। परिवार में बडे छोटे, बलवान, दुर्बल, स्त्री, पुरूष, मोटे, दुबले ऐसे लोग होते ही हैं। जिस प्रकार से परिवार में ऐसे किसी की भी आवश्यकताओं की पूर्ति की ओर ध्यान दिया जाता है उसी प्रकार समाज भी एक विशाल परिवार है ऐसा समझकर प्रत्येक की आवश्यकता और उचित अपेक्षाओं की पूर्ति करना हर व्यक्ति का और समाज का सामाजिक कर्तव्य है।  इसी के साथ हर व्यक्ति की क्षमताओं और योग्यताओं का उस व्यक्ति के हित के साथ साथ ही समाज के हित में उपयोग होना चाहिये। इसलिये प्रत्येक व्यक्ति के विकास की उच्चतम संभावनाओं के विकास के अवसर उसे समाज में प्राप्त होने चाहिये। ऐसा जब होता है तो समाज एक परिवार बनता है। साथ ही में सामाजिक न्याय की भी प्रतिष्ठापना हो जाती है।  
 
# सृष्टि में कोई भी दो अस्तित्व पूर्णत: एक जैसे नहीं होते हैं। इसी तरह समाज में कोई भी दो व्यक्ति पूर्णत: समान नहीं हो सकते। इसलिये श्रेष्ठता कनिष्ठता तो किसी भी समाज में स्वाभाविक है। एक मानव के नाते, एक ही समाज के घटक होने के नाते समाज के सभी लोग, समान हैं। समान का अर्थ यह नहीं की हर मनुष्य को खाने के लिये चार रोटी दी जाए। जिस की आवश्यकता २ रोटी है उसे २ रोटी और जिस की आवश्यकता ६ रोटी की है उसे ६ रोटी मिलनी चाहिये। समाज के सभी घटक समान हैं का अर्थ है हर व्यक्ति की आवश्यकता की पूर्ति हो यह देखना। परिवार में बडे छोटे, बलवान, दुर्बल, स्त्री, पुरूष, मोटे, दुबले ऐसे लोग होते ही हैं। जिस प्रकार से परिवार में ऐसे किसी की भी आवश्यकताओं की पूर्ति की ओर ध्यान दिया जाता है उसी प्रकार समाज भी एक विशाल परिवार है ऐसा समझकर प्रत्येक की आवश्यकता और उचित अपेक्षाओं की पूर्ति करना हर व्यक्ति का और समाज का सामाजिक कर्तव्य है।  इसी के साथ हर व्यक्ति की क्षमताओं और योग्यताओं का उस व्यक्ति के हित के साथ साथ ही समाज के हित में उपयोग होना चाहिये। इसलिये प्रत्येक व्यक्ति के विकास की उच्चतम संभावनाओं के विकास के अवसर उसे समाज में प्राप्त होने चाहिये। ऐसा जब होता है तो समाज एक परिवार बनता है। साथ ही में सामाजिक न्याय की भी प्रतिष्ठापना हो जाती है।  

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