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सन्ध्योपासन शब्द सन्ध्या और उपासन इन दो शब्दोंके मेलसे बना है ।यह एक द्विज मात्र के लिये अत्यावश्यक कर्म निर्धारित किया गया है और आधुनिक काल में इसके आचरण का लोप हो रहा है ।प्राचीन काल से वेद स्वाध्याय आदि वैदिक कर्मों को करने की योग्यता सन्ध्या वन्दन कर्म करने के उपरान्त होती है सन्ध्या वन्दन से हमारा प्रबल आरोग्य सूत्र भी सम्बद्ध है।
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सन्ध्योपासन शब्द सन्ध्या और उपासन इन दो शब्दोंके मेलसे बना है ।यह एक द्विज मात्र के लिये अत्यावश्यक कर्म निर्धारित किया गया है। आधुनिक काल में इसके आचरण का लोप हो रहा है।प्राचीन काल से वेद स्वाध्याय आदि वैदिक कर्मों को करने की योग्यता सन्ध्या वन्दन कर्म करने के उपरान्त होती है। सन्ध्या वन्दन से हमारा प्रबल आरोग्य सूत्र भी सम्बद्ध है।सन्ध्या शब्दकी व्युत्पत्ति है-<blockquote>सम्यग् ध्यायन्ति सम्यग् ध्यायते वा परब्रह्म यया यस्यां वा सा सन्ध्या।(कर्मठ गुरु)<ref>मुकुन्दवल्लभज्यौतिषाचार्यः,कर्मठगुरुः,मोतीलाल बनारसीदास(पृ० १४)।</ref></blockquote>वह क्रिया जिसमें परमात्माका भलीभाँति ध्यान या चिन्तन किया जाए वह सन्ध्या कहलाती है। सन्ध्या शब्द सन्धि+यत्+टाप् प्रत्यय लगकर बनता है या सम् उपसर्गपूर्वक ध्यै धातुसे अङ् प्रत्यय और फिर स्त्रीलिंगका टाप् प्रत्यय लगकर बनता है। सन्ध्या शब्दका अर्थ मिलाप, जोड़, प्रभाग आदि होता है। सन्ध्याका एक अर्थ और है- <blockquote>अहोरात्रस्य या सन्धिः सूर्यनक्षत्रवर्जिताः।सा तु सन्ध्या समाख्याता मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभिः॥(आचर भूषण पृ० ८९)<ref>आपटे,हरिनारायण (१९०८) [https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.312143/page/n111/mode/2up?view=theater आचारभूषणम्,]हिरण्यकेशीआह्निकम् ,पूना:आनन्दाश्रममुद्रणालय (पृ०८९)।</ref></blockquote>सूर्य और नक्षत्रोंसे रहित दिन और रात्रिका जो सन्धिकाल है उसे ही तत्त्वदर्शी मुनियोंने सन्ध्या कहा है। इस प्रकार दिन और रात्रिकी दोनों सन्धियाँ (प्रातः सन्धिकाल और सायं सन्धिकाल)-में किया जानेवाला परमात्माका चिन्तन सन्ध्या और उसका अनुष्ठान या उपासन सन्ध्योपासन कहलाता है। इस प्रकार एक ओर सन्ध्या शब्द सन्धिकाल परक है। वहीं दूसरी ओर आराधनापरक भी है।   
 
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सन्ध्या शब्दकी व्युत्पत्ति है- <blockquote>सम्यग् ध्यायन्ति सम्यग् ध्यायते वा परब्रह्म यया यस्यां वा सा सन्ध्या।(कर्मठ गुरु)<ref>मुकुन्दवल्लभज्यौतिषाचार्यः,कर्मठगुरुः,मोतीलाल बनारसीदास(पृ० १४)।</ref></blockquote>वह क्रिया जिसमें परमात्माका भलीभाँति ध्यान या चिन्तन किया जाय सन्ध्या कहलाती है। सन्ध्या शब्द सन्धि+यत्+टाप् प्रत्यय लगकर बनता है या सम् उपसर्गपूर्वक ध्यै धातुसे अङ् प्रत्यय और फिर स्त्रीलिंगका टाप् प्रत्यय लगकर बनता है। सन्ध्या शब्दका अर्थ मिलाप, जोड़, प्रभाग आदि होता है। सन्ध्याका एक अर्थ और है- <blockquote>अहोरात्रस्य या सन्धिः सूर्यनक्षत्रवर्जिताः।सा तु सन्ध्या समाख्याता मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभिः॥(द०स्मृ०)</blockquote>सूर्य और नक्षत्रोंसे रहित दिन और रात्रिका जो सन्धिकाल है उसे ही तत्त्वदर्शी मुनियोंने सन्ध्या कहा है। इस प्रकार दिन और रात्रिकी दोनों सन्धियाँ (प्रातः सन्धिकाल और सायं सन्धिकाल)-में किया जानेवाला परमात्माका चिन्तन सन्ध्या और उसका अनुष्ठान या उपासन सन्ध्योपासन कहलाता है। इस प्रकार एक ओर सन्ध्या शब्द सन्धिकालपरक है वहीं दूसरी ओर आराधनापरक भी है।  <blockquote>सन्धौ सन्ध्यामुपासीत् नोदितेनास्तगे रवौ।।</blockquote>इस वृद्ध याज्ञवल्क्यके वचनसे प्रातः रात्रि और दिनकी सन्धिवेलामें और सायंकाल दिन और रात्रिकी सन्धिवेलामें सन्ध्योपासन करना चाहिये। प्रात:काल सूर्योदयसे पूर्व जबकि आकाशमें तारे हों उस समयकी सन्ध्या उत्तम कही गयी है।
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==परिचय==
 
==परिचय==
सन्ध्या हमारी अहोरात्रचर्या का मुख्य अंग है ।<blockquote>विप्रो वृक्षस्तस्य मूलञ्च सन्ध्या । </blockquote>कहते हुये शास्त्रकारों ने उसे द्विजाति के लिए जीवन का मूल स्वीकार किया है। उसमें लौकिक और पारमार्थिक श्रेय की ऐसी प्रक्रियाओं का सम्मिश्रण है कि यदि उसे स्वास्थ्य, शक्ति, मेधा और दीर्घ जीवन की कुञ्जी कह दें तो अनुपयुक्त न होगा। इससे भी अधिक सन्ध्या का प्रमुख उद्देश्य हमारी उस श्वास प्रक्रिया का नियमन है जो हमारे जीवन का वास्तविक मूल है।
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सन्ध्या हमारी अहोरात्रचर्या का मुख्य अंग है। शास्त्रकारों ने उसे द्विजाति के लिए जीवन का मूल स्वीकार किया है। उसमें लौकिक और पारमार्थिक श्रेय की ऐसी प्रक्रियाओं का सम्मिश्रण है कि यदि उसे स्वास्थ्य, शक्ति, मेधा और दीर्घ जीवन की कुञ्जी कह दें तो अनुपयुक्त न होगा। इससे भी अधिक सन्ध्या का प्रमुख उद्देश्य हमारी उस श्वास प्रक्रिया का नियमन है जो हमारे जीवन का वास्तविक मूल है। सन्ध्या से जहाँ अनेक रोगों की निवृत्ति पूर्ण स्वास्थ्य की प्राप्ति और दीर्घायु का लाभ होता है वहां विधिवत् प्राण त्याग कर सकने की योग्यता प्राप्त हो जाने के कारण पुण्य लोकों की प्राप्ति अक्षय्य मोक्ष पद तक की भी प्राप्ति हो सकती है।<blockquote>ॐकारप्रौढमूलः क्रमपदसहितश्छन्दविस्तीर्णशाख । ऋक्पत्रः सामपुष्पो यजुरधिकफलोऽथर्वगन्धं दधानः।</blockquote><blockquote>यज्ञच्छायासमेतो द्विजमधुपगणैः सेव्यमानः प्रभाते । मध्ये सायं त्रिकालं सुचरितचरितः पातु वो वेदवृक्षः॥</blockquote>परमात्माको प्राप्त किये अथवा जाने बिना जीवनकी भवबन्धनसे मुक्ति नहीं हो सकती। यह सभी ऋषि-महर्षियोंका निश्चित मत है। उनके ज्ञानका सबसे सहज, उत्तम और प्रारम्भिक साधन है— संध्योपासना। संध्योपासना द्विजमात्रके लिये परम आवश्यक कर्म है। इसकी अवहेलनासे पाप होता है और पालनसे अन्तःकरण शुद्ध होकर परमात्मसाक्षात्कारका अधिकारी बन जाता है। तन-मनसे संध्योपासनाका आश्रय लेनेवाले द्विजको स्वल्पकालमें ही परमेश्वरकी प्राप्ति हो जाती है। अतः द्विजातिमात्रको संध्योपासनामें कभी प्रमाद नहीं करना चाहिये।संध्योपासनाका अर्थ -
 
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सन्ध्या से जहाँ अनेक रोगों की निवृत्ति पूर्ण स्वास्थ्य की प्राप्ति और दीर्घायु का लाभ होता है वहां विधिवत् प्राण त्याग कर सकने की योग्यता प्राप्त हो जाने के कारण पुण्य लोकों की प्राप्ति अक्षय्य मोक्ष पद तक की भी प्राप्ति हो सकती है।<blockquote>ॐकारप्रौढमूलः क्रमपदसहितश्छन्दविस्तीर्णशाख । ऋक्पत्रः सामपुष्पो यजुरधिकफलोऽथर्वगन्धं दधानः।</blockquote><blockquote>यज्ञच्छायासमेतो द्विजमधुपगणैः सेव्यमानः प्रभाते । मध्ये सायं त्रिकालं सुचरितचरितः पातु वो वेदवृक्षः॥</blockquote>परमात्माको प्राप्त किये अथवा जाने बिना जीवनकी भवबन्धनसे मुक्ति नहीं हो सकती। यह सभी ऋषि-महर्षियोंका निश्चित मत है। उनके ज्ञानका सबसे सहज, उत्तम और प्रारम्भिक साधन है— संध्योपासना। संध्योपासना द्विजमात्रके लिये परम आवश्यक कर्म है। इसकी अवहेलनासे पाप होता है और पालनसे अन्तःकरण शुद्ध होकर परमात्मसाक्षात्कारका अधिकारी बन जाता है। तन-मनसे संध्योपासनाका आश्रय लेनेवाले द्विजको स्वल्पकालमें ही परमेश्वरकी प्राप्ति हो जाती है। अतः द्विजातिमात्रको संध्योपासनामें कभी प्रमाद नहीं करना चाहिये।संध्योपासनाका अर्थ -
      
संध्योपासनामें दो शब्द हैं—संध्या और उपासना।संध्याका प्रायः तीन अर्थोंमें व्यवहार होता है-
 
संध्योपासनामें दो शब्द हैं—संध्या और उपासना।संध्याका प्रायः तीन अर्थोंमें व्यवहार होता है-
* संध्याकाल  (दक्षस्मृति)
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* संध्याकाल  (दक्षस्मृति)-
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* संध्याकर्म(तैत्तिरीय०)
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* संध्याकर्म(तैत्तिरीय०)
 
* सूर्यस्वरूप ब्रह्म (परमात्मा)(व्यासस्मृति)।
 
* सूर्यस्वरूप ब्रह्म (परमात्मा)(व्यासस्मृति)।
तीनों ही अर्थोके समर्थक शास्त्रीय वचन उपलब्ध होते हैं-<blockquote>अहोरात्रस्य यः संधिः सूर्यनक्षत्रवर्जितः। सा तु संध्या समाख्याता मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभिः॥ (दक्षस्मृति)</blockquote>सूर्य और नक्षत्रोंसे रहित जो दिन-रातकी संधिका समय है, उसे तत्त्वदर्शी मुनियोंने संध्या कहा है। इस वचनमें संध्या शब्दका काल अर्थमें व्यवहार हुआ है।<blockquote>संधौ संध्यामुपासीत नोदिते नास्तगे रवौ। (वृद्ध याज्ञवल्क्य)</blockquote>सूर्योदय और सूर्यास्तके कुछ पहले संधिवेलामें संध्योपासना करनी चाहिये।<blockquote>अहरहः संध्यामुपासीत।(तैत्तिरीय०)</blockquote>प्रतिदिन संध्या करे।<blockquote>तस्माद् ब्राह्मणोऽहोरात्रस्य संयोगे संध्यामुपासते॥(छब्बीसवाँ ब्राह्मण, प्रण० ४, खं० ५)</blockquote>इसलिये ब्राह्मणोंको दिन-रातकी संधिके समय संध्योपासना करनी चाहिये।
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तीनों ही अर्थोके समर्थक शास्त्रीय वचन उपलब्ध होते हैं-<blockquote>अहोरात्रस्य यः संधिः सूर्यनक्षत्रवर्जितः। सा तु संध्या समाख्याता मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभिः॥(दक्षस्मृति)</blockquote>सूर्य और नक्षत्रोंसे रहित जो दिन-रातकी संधिका समय है, उसे तत्त्वदर्शी मुनियोंने संध्या कहा है। इस वचनमें संध्या शब्दका काल अर्थमें व्यवहार हुआ है।                                                 <blockquote>संधौ संध्यामुपासीत नोदिते नास्तगे रवौ।(वृद्ध याज्ञवल्क्य)</blockquote>सूर्योदय और सूर्यास्तके कुछ पहले संधिवेलामें संध्योपासना करनी चाहिये।<blockquote>अहरहः संध्यामुपासीत।(तैत्तिरीय०)</blockquote>प्रतिदिन संध्या करे।<blockquote>तस्माद् ब्राह्मणोऽहोरात्रस्य संयोगे संध्यामुपासते॥(छब्बीसवाँ ब्राह्मण, प्रण० ४, खं० ५)</blockquote>इसलिये ब्राह्मणोंको दिन-रातकी संधिके समय संध्योपासना करनी चाहिये। इत्यादि वचनोंमें संध्याके समय किये जानेवाले परमेश्वरके ध्यानरूप प्राणायामादि कर्मोंको ही संध्या बताया गया है। काल- वाचक अर्थमें संध्योपासना शब्दका अभिप्राय है— संध्याकालमें की जानेवाली उपासना। दूसरे (कर्मवाचक) अर्थमें प्राणायामादि कर्मोंका अनुष्ठान ही संध्योपासना है।<blockquote>संध्येति सूर्यगं ब्रह्म। (व्यासस्मृति)</blockquote>इत्यादि वचनोंके अनुसार आदित्यमण्डलगत ब्रह्म ही संध्या शब्दसे कहा गया है। इस तृतीय अर्थमें सूर्यस्वरूप ब्रह्म (परमात्मा)-की उपासना ही संध्योपासना है। यद्यपि आचमनसे लेकर गायत्रीजप पर्यन्त सभी कर्म संध्योपासना ही हैं तथापि ध्यानपूर्वक गायत्रीजप संध्योपासनामें एक विशेष स्थान रखता है। क्योंकि-<blockquote>पूर्वां संध्यां सनक्षत्रामुपक्रम्य यथाविधि। गायत्रीमभ्यसेत्तावद् यावदादित्यदर्शनम्॥</blockquote>सबेरे जब कि तारे दिखायी देते हों विधिपूर्वक प्रातःसंध्या आरम्भ करके सूर्यके दर्शन होनेतक गायत्रीजप करता रहे। इस नरसिंहपुराणके वचनमें गायत्रीजपको ही प्रधानता दी गयी है।<blockquote>ऋषयो दीर्घसंध्यत्वाद्दीर्घमायुरवाप्नुयुः।</blockquote>ऋषिलोगोंने दीर्घकालतक संध्या करनेके कारण ही दीर्घ आयु प्राप्त की थी। इत्यादि मनुवाक्यमें भी 'दीर्घसंध्य' शब्दसे दीर्घकालतक ध्यानसहित गायत्रीजप करनेकी ओर ही संकेत किया गया है, क्योंकि गायत्रीजप हजारोंकी संख्यामें होनेसे उसमें दीर्घकालतक प्रवृत्त रहना सम्भव है।
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इत्यादि वचनोंमें संध्याके समय किये जानेवाले परमेश्वरके ध्यानरूप प्राणायामादि कर्मोंको ही संध्या बताया गया है। काल- वाचक अर्थमें संध्योपासना शब्दका अभिप्राय है— संध्याकालमें की जानेवाली उपासना। दूसरे (कर्मवाचक) अर्थमें प्राणायामादि कर्मोंका अनुष्ठान ही संध्योपासना है।<blockquote>संध्येति सूर्यगं ब्रह्म। (व्यासस्मृति)</blockquote>इत्यादि वचनोंके अनुसार आदित्यमण्डलगत ब्रह्म ही संध्या शब्दसे कहा गया है। इस तृतीय अर्थमें सूर्यस्वरूप ब्रह्म (परमात्मा)-की उपासना ही संध्योपासना है।
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संध्योपासना नित्य और प्रायश्चित्त कर्म भी है ।
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यद्यपि आचमनसे लेकर गायत्रीजपपर्यन्त सभी कर्म संध्योपासना ही हैं तथापि ध्यानपूर्वक गायत्रीजप संध्योपासनामें एक विशेष स्थान रखता है। क्योंकि-<blockquote>पूर्वां संध्यां सनक्षत्रामुपक्रम्य यथाविधि। गायत्रीमभ्यसेत्तावद् यावदादित्यदर्शनम्॥</blockquote>सबेरे जब कि तारे दिखायी देते हों विधिपूर्वक प्रातःसंध्या आरम्भ करके सूर्यके दर्शन होनेतक गायत्रीजप करता रहे। इस नरसिंहपुराणके वचनमें गायत्रीजपको ही प्रधानता दी गयी है।<blockquote>ऋषयो दीर्घसंध्यत्वाद्दीर्घमायुरवाप्नुयुः।</blockquote>ऋषिलोगोंने दीर्घकालतक संध्या करनेके कारण ही दीर्घ आयु प्राप्त की थी। इत्यादि मनुवाक्यमें भी 'दीर्घसंध्य' शब्दसे दीर्घकालतक ध्यानसहित गायत्रीजप करनेकी ओर ही संकेत किया गया है, क्योंकि गायत्रीजप हजारोंकी संख्यामें होनेसे उसमें दीर्घकालतक प्रवृत्त रहना सम्भव है।
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अहरहः संध्यामुपासीत (प्रतिदिन संध्योपासना करें) इस प्रकार प्रतिदिन संध्या करनेकी विधि होनेसे तथा-<blockquote>एतत् संध्यात्रयं प्रोक्तं ब्राह्मण्यं यदधिष्ठितम्। यस्य नास्त्यादरस्तत्र न स ब्राह्मण उच्यते॥ .(छान्दोग्यपरिशिष्ट)</blockquote>यह त्रिकालसंध्याकर्मका वर्णन किया गया जिसके आधारपर ब्राह्मणत्व सुप्रतिष्ठित होता है। इसमें जिसका आदर नहीं है जो प्रतिदिन संध्या नहीं करता, वह जन्मसे ब्राह्मण होनेपर भी कर्मभ्रष्ट होनेके कारण ब्राह्मण नहीं कहा जा सकता। -इस वचनके अनुसार संध्या न करनेसे दोषका श्रवण होनेके कारण संध्या नित्यकर्म है।
 
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संध्योपासना नित्य और प्रायश्चित्त कर्म भी है ।
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अहरहः संध्यामुपासीत (प्रतिदिन संध्योपासना करें) इस प्रकार प्रतिदिन संध्या करनेकी विधि होनेसे तथा-<blockquote>एतत् संध्यात्रयं प्रोक्तं ब्राह्मण्यं यदधिष्ठितम्। यस्य नास्त्यादरस्तत्र न स ब्राह्मण उच्यते॥ .(छान्दोग्यपरिशिष्ट)</blockquote>यह त्रिकालसंध्याकर्मका वर्णन किया गया जिसके आधारपर ब्राह्मणत्व सुप्रतिष्ठित होता है। इसमें जिसका आदर नहीं है जो प्रतिदिन संध्या नहीं करता, वह जन्मसे ब्राह्मण होनेपर भी कर्मभ्रष्ट होनेके कारण ब्राह्मण नहीं कहा जा सकता। -इस वचनके अनुसार संध्या न करनेसे दोषका श्रवण होनेके कारण संध्या नित्यकर्म है। तथा-<blockquote>दिवा वा यदि वा रात्रौ यदज्ञानकृतं भवेत्। त्रिकालसंध्याकरणात् तत्सर्वं च प्रणश्यति॥ (याज्ञवल्क्यस्मृति)</blockquote>अर्थात् दिन या रातमें अनजानसे जो पाप बन जाता है, वह सब-का-सब तीनों कालोंकी संध्या करनेसे नष्ट हो जाता है।इस वचनके अनुसार पापध्वंसकी साधिका होनेसे संध्याप्रायश्चित्त कर्म भी है। द्विजमात्रको यथासम्भव प्रातः, सायं और मध्याह्न तीनों कालोंकी संध्याका पालन करना चाहिये। कुछ लोगोंका विचार है कि-<blockquote>नानुतिष्ठति यः पूर्वां नोपास्ते यश्च पश्चिमाम्। स शूद्रवद् बहिष्कार्यः सर्वस्माद् द्विजकर्मणः॥ (मनु०)</blockquote>जो प्रातः और सायं-संध्याका अनुष्ठान नहीं करता वह सभी द्विजोचित कर्मोंसे बहिष्कृत कर देनेयोग्य है।
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== त्रिकाल सन्ध्या ==
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<blockquote>दिवा वा यदि वा रात्रौ यदज्ञानकृतं भवेत्। त्रिकालसंध्याकरणात् तत्सर्वं च प्रणश्यति॥ (याज्ञवल्क्यस्मृति)</blockquote>अर्थात् दिन या रातमें अनजानसे जो पाप बन जाता है, वह सब-का-सब तीनों कालोंकी संध्या करनेसे नष्ट हो जाता है।इस वचनके अनुसार पापध्वंसकी साधिका होनेसे संध्याप्रायश्चित्त कर्म भी है। द्विजमात्रको यथासम्भव प्रातः, सायं और मध्याह्न तीनों कालोंकी संध्याका पालन करना चाहिये। कुछ लोगोंका विचार है कि-<blockquote>नानुतिष्ठति यः पूर्वां नोपास्ते यश्च पश्चिमाम्। स शूद्रवद् बहिष्कार्यः सर्वस्माद् द्विजकर्मणः॥ (मनु०)</blockquote>जो प्रातः और सायं-संध्याका अनुष्ठान नहीं करता वह सभी द्विजोचित कर्मोंसे बहिष्कृत कर देनेयोग्य है।
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इस वचनमें प्रातः और सायं—इन्हीं दो संध्याओंके न करनेसे दोष बताया गया है, अतः प्रातः तथा सायंकालकी संध्या ही आवश्यक है, मध्याह्नकी नहीं। किंतु ऐसा मानना उचित नहीं है, कारण कि इस वचनद्वारा मनुजीने जो उक्त दो कालोंकी संध्या न करनेसे दोष बताया है, उससे उक्त समयकी संध्याकी अवश्यकर्तव्यतामात्र सिद्ध हुई। इससे यह नहीं व्यक्त होता कि मध्याह्म-संध्या अनावश्यक है, क्योंकि-<blockquote>संध्यात्रयं तु कर्तव्यं द्विजेनात्मविदा सदा। (अत्रिस्मृति)</blockquote>आत्मवेत्ता द्विजको सदा त्रिकाल-संध्या करनी चाहिये। —इत्यादि वचनके अनुसार मध्याह्न-संध्या भी आवश्यक ही है। शुक्लयजुर्वेदियोंके लिये तो मध्याह्न-संध्या विशेष आवश्यक है।  
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इस वचनमें प्रातः और सायं—इन्हीं दो संध्याओंके न करनेसे दोष बताया गया है, अतः प्रातः तथा सायंकालकी संध्या ही आवश्यक है, मध्याह्नकी नहीं। किंतु ऐसा मानना उचित नहीं है, कारण कि इस वचनद्वारा मनुजीने जो उक्त दो कालोंकी संध्या न करनेसे दोष बताया है, उससे उक्त समयकी संध्याकी अवश्यकर्तव्यतामात्र सिद्ध हुई। इससे यह नहीं व्यक्त होता कि मध्याह्म-संध्या अनावश्यक है, क्योंकि-<blockquote>संध्यात्रयं तु कर्तव्यं द्विजेनात्मविदा सदा। (अत्रिस्मृति)</blockquote>आत्मवेत्ता द्विजको सदा त्रिकाल-संध्या करनी चाहिये। —इत्यादि वचनके अनुसार मध्याह्न-संध्या भी आवश्यक ही है। शुक्लयजुर्वेदियोंके लिये तो मध्याह्न-संध्या विशेष आवश्यक है। <blockquote>सन्धौ सन्ध्यामुपासीत् नोदितेनास्तगे रवौ।।</blockquote>इस वृद्ध याज्ञवल्क्यके वचनसे प्रातः रात्रि और दिनकी सन्धिवेलामें और सायंकाल दिन और रात्रिकी सन्धिवेलामें सन्ध्योपासन करना चाहिये। प्रात:काल सूर्योदयसे पूर्व जबकि आकाशमें तारे हों उस समयकी सन्ध्या उत्तम कही गयी है।
    
== संध्योपासन के मुख्य अंग ==
 
== संध्योपासन के मुख्य अंग ==
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* Aasan shodhana (आसन शोधन) -   
 
* Aasan shodhana (आसन शोधन) -   
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*Achamana (आचमन) - आचमन की क्रिया सामान्यतः सभी धार्मिक क्रियायों में देखी जाती है। मुख्यतः आचमन विष्णु जी के तीन नामों (केशव,नारायण और माधव) के साथ जल को अधरों से स्पर्श करना चाहिये।कहीं कहीं आचमन में विष्णु जी के २४ नाम लिये जाते हैं।आचमन के द्वारा अन्तःकरण की शुद्धि होती है।
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*Achamana (आचमन) - आचमन की क्रिया सामान्यतः सभी धार्मिक क्रियायों में देखी जाती है। मुख्यतः आचमन में विष्णु जी के तीन नामों (केशव,नारायण और माधव) के साथ जल को अधरों से स्पर्श करना चाहिये।कहीं कहीं आचमन में विष्णु जी के २४ नाम लिये जाते हैं।आचमन के द्वारा अन्तःकरण की शुद्धि होती है।
 
*[[Pranayama (प्राणायाम)]] - प्राणायाम में श्वास एवं प्रश्वास का गति विच्छेद कहा गया है ।गौतम ऋषि जी के अनुसार प्राणायाम के मुख्य तीन अंग हैं- पूरक (बाहरी वायु भीतर लेना),कुम्भक(लिये हुये श्वास को रोके रखना अर्थात न तो श्वास छोडना न ग्रहण करना) और रेचक(फेफडों से वायु बाहर निकलना) ।
 
*[[Pranayama (प्राणायाम)]] - प्राणायाम में श्वास एवं प्रश्वास का गति विच्छेद कहा गया है ।गौतम ऋषि जी के अनुसार प्राणायाम के मुख्य तीन अंग हैं- पूरक (बाहरी वायु भीतर लेना),कुम्भक(लिये हुये श्वास को रोके रखना अर्थात न तो श्वास छोडना न ग्रहण करना) और रेचक(फेफडों से वायु बाहर निकलना) ।
 
*Marjana (मार्जन) - मार्जन में शरीर की पवित्रता हेतु आपो हि ष्ठा ० आदि तीन मन्त्रों के द्वारा जल से छिडकाव किया जाता है ।
 
*Marjana (मार्जन) - मार्जन में शरीर की पवित्रता हेतु आपो हि ष्ठा ० आदि तीन मन्त्रों के द्वारा जल से छिडकाव किया जाता है ।
 
*Aghamarshana (अघमर्षण) - अघमर्षण(पाप को भगाना) में गौ के कान के भॉंति दाहिने हाथ का रूप बनाकर,उसमें जल लेकर,नाक के पास रखकर,उस पर ऋतं च० आदि तीन मन्त्रों के साथ श्वास धीरे धीरे छोडें(इस भावना से कि अपना पाप भाग जाय) एवं पृथिवी पर बायीं ओर जल फेक दिया जाता है।
 
*Aghamarshana (अघमर्षण) - अघमर्षण(पाप को भगाना) में गौ के कान के भॉंति दाहिने हाथ का रूप बनाकर,उसमें जल लेकर,नाक के पास रखकर,उस पर ऋतं च० आदि तीन मन्त्रों के साथ श्वास धीरे धीरे छोडें(इस भावना से कि अपना पाप भाग जाय) एवं पृथिवी पर बायीं ओर जल फेक दिया जाता है।
 
*Arghya (अर्घ्य) - अर्घ्य(सम्मान के साथ सूर्य को जलार्पण) में दोनों जुडे हुए हाथों में जल लेकर,गायत्री मन्त्र बोलते हुए,सूर्य की ओर उन्मुख होकर तीन बार जल गिराया(प्रदान किया)जाता है।
 
*Arghya (अर्घ्य) - अर्घ्य(सम्मान के साथ सूर्य को जलार्पण) में दोनों जुडे हुए हाथों में जल लेकर,गायत्री मन्त्र बोलते हुए,सूर्य की ओर उन्मुख होकर तीन बार जल गिराया(प्रदान किया)जाता है।
*Gayatri Japa (गायत्री जप) -
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*Gayatri Japa (गायत्री जप) - वेदमाता गायत्री जिनकी महिमा चारों वेदों में विस्तृत वर्णित है।वेद माता गायत्री को छान्दोग्योपनिषद् में सर्व वेदों का सार ,परब्रह्मस्वरूपा,कामदा,मोक्षदा एवं त्रिपाद कहा गया है।गायत्री साधना सर्वपापों का शमन कर साधक का चित्त विशुद्धकर उसे आत्मसाक्षात्कार के प्रति ले जाती हैं। गायत्री जप सन्ध्या का महत्वपूर्ण अंग है।यह बुद्धि को प्रेरणा देने वाली,तेज स्वरूप ज्ञान प्रदायिनी हैं।
 
*Upasthana (उपस्थान) - उपस्थान में बौधायन के मतानुसार उद्वयम् ० आदि मन्त्रों के द्वारा प्रातः काल सूर्य से प्रार्थना करनी चाहिये किन्तु सायन्ह सन्ध्या में वरुण मन्त्रों के द्वारा वरुण देव का उपस्थान किया जाता है।
 
*Upasthana (उपस्थान) - उपस्थान में बौधायन के मतानुसार उद्वयम् ० आदि मन्त्रों के द्वारा प्रातः काल सूर्य से प्रार्थना करनी चाहिये किन्तु सायन्ह सन्ध्या में वरुण मन्त्रों के द्वारा वरुण देव का उपस्थान किया जाता है।
 
*[[Abhivadana (अभिवादन)]] - अभिवादन सन्ध्योपासन के अनन्तर गुरुजी के सन्निकट जाकर नमन करना अथवा गृह,तीर्थ, विदेश आदि ऐसे स्थान पर जहां गुरुजी उपस्थित न हों उन्हैं अपना स्व नाम गोत्र शाखा वेद आदि का उच्चाकरण करके मन से प्रणाम निवेदित करना चाहिये ।
 
*[[Abhivadana (अभिवादन)]] - अभिवादन सन्ध्योपासन के अनन्तर गुरुजी के सन्निकट जाकर नमन करना अथवा गृह,तीर्थ, विदेश आदि ऐसे स्थान पर जहां गुरुजी उपस्थित न हों उन्हैं अपना स्व नाम गोत्र शाखा वेद आदि का उच्चाकरण करके मन से प्रणाम निवेदित करना चाहिये ।
 
==== सन्ध्या करने के अधिकारी - ====
 
==== सन्ध्या करने के अधिकारी - ====
आजकल बाजारोंमें क्षत्रिय-संध्या और वैश्य- संध्या के नामसे भी पुस्तकें बिकने लगी हैं इससे लोगोंमें बड़ा भ्रम फैल रहा है। वैश्य और क्षत्रियोंके लिये कोई अलग संध्या नहीं है। एक ही प्रकारकी संध्या द्विजमात्रके उपयोगके लिये होती है।
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आजकल बाजारोंमें क्षत्रिय-संध्या और वैश्य- संध्या के नामसे भी पुस्तकें बिकने लगी हैं। इससे लोगोंमें बहुत भ्रम फैल रहा है। वैश्य और क्षत्रियोंके लिये कोई अलग संध्या नहीं है। एक ही प्रकारकी संध्या द्विजमात्रके उपयोगके लिये होती है।
    
== सन्ध्या करें या न करें ॽ ==
 
== सन्ध्या करें या न करें ॽ ==
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==== सन्ध्या के लिये आवश्यक दिशा ====
 
==== सन्ध्या के लिये आवश्यक दिशा ====
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प्रातःकालीन सन्ध्या पूर्वदिशा की ओर  तथा सायंकालीन सन्ध्या उत्तर-पश्चिम दिशा की ओर करनी चाहिये।
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==== सन्ध्याका काल ====
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== सन्ध्या का काल ==
 
स्थानके ही समान कालकी  उत्तमताका भी ध्यान रखना चाहिये। प्रातःकाल सूर्योदयसे पूर्व और सायंकाल सूर्यास्तसे पहले संध्याके लिये उत्तम समय है। श्रुति भी यही कहती है-<blockquote>अहोरात्रस्य संयोगे संध्यामुपास्ते सज्योतिषि आज्योतिषो दर्शनात्।</blockquote>अर्थात् 'दिन-रातकी संधिके समय संध्योपासना करे। सायंकालमें सूर्यके रहते-रहते संध्या आरम्भ करे और प्रातःकाल सूर्योदयके पहलेसे आरम्भ करके सूर्यके दर्शन होनेतक संध्योपासना करे।'  
 
स्थानके ही समान कालकी  उत्तमताका भी ध्यान रखना चाहिये। प्रातःकाल सूर्योदयसे पूर्व और सायंकाल सूर्यास्तसे पहले संध्याके लिये उत्तम समय है। श्रुति भी यही कहती है-<blockquote>अहोरात्रस्य संयोगे संध्यामुपास्ते सज्योतिषि आज्योतिषो दर्शनात्।</blockquote>अर्थात् 'दिन-रातकी संधिके समय संध्योपासना करे। सायंकालमें सूर्यके रहते-रहते संध्या आरम्भ करे और प्रातःकाल सूर्योदयके पहलेसे आरम्भ करके सूर्यके दर्शन होनेतक संध्योपासना करे।'  
    
उपर्युक्त कालसे देर हो जानेपर गौण काल होता है, मुख्य नहीं रहता। मनुस्मृतिके अनुसार प्रातःसंध्यामें काल-विभाग यों समझना चाहिये—सूर्योदयसे पूर्व जबतक तारे दिखायी देते रहें, उत्तम काल है। ताराओंके छिपनेसे लेकर सूर्योदयकालतक मध्यम है, सूर्योदयके पश्चात् अधम काल है। इसी प्रकार जब सूर्य दिखायी देते रहें, उस समय की हुई सायं-संध्या उत्तम होती है। सूर्यास्तके बाद ताराओंके उदयसे पहले की हुई संध्या मध्यम श्रेणीकी है और ताराओंके उदयके पश्चात् की हुई संध्या निम्न श्रेणीकी समझी जाती है। यह सायं-संध्याका काल- विभाग है।<blockquote>उत्तमा तारकोपेता मध्यमा लुप्ततारका। अधमा सूर्यसहिता प्रातःसंध्या त्रिधा स्मृता॥ (मनु०)</blockquote><blockquote>उत्तमा सूर्यसहिता मध्यमा लुप्तभास्करा। अधमा तारकोपेता सायंसंध्या त्रिधा स्मृता॥ (मनु०)</blockquote>प्रातःसंध्यामें सूर्योदयके पश्चात् दो घड़ीतक गौणोत्तम काल माना गया है और सायं-संध्यामें सूर्यास्तसे तीन घड़ी बादतक गौणोत्तम काल है। इसी तरह प्रातःकाल सूर्योदयके बाद और सायंकाल सूर्यास्तके बाद चार घड़ीतक गौण मध्यम काल माना गया है।<blockquote>सायंकाले त्रिघटिका अस्तादुपरि भास्वतः। प्रातःकाले द्विघटिके तत्र संध्या समाचरेत्।(स्मृति-संग्रह)</blockquote><blockquote>चतस्रो घटिकाः सायं गौणकालोऽस्ति मध्यमः। प्रातःकालेऽप्येवमेव संध्याकालो मुनीरितः॥ (स्मृति-संग्रह)</blockquote>गौण मध्यम कालतक यदि संध्या हो जाय तो काल-लोपके लिये प्रायश्चित्त नहीं करना पड़ता। इससे अधिक देर होनेपर कालातिक्रमणका प्रायश्चित्त करना चाहिये। प्रायश्चित्त इस प्रकार है-<blockquote>ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्। ओम् आपो ज्योती रसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरोम् ॥</blockquote>यह मन्त्र पढ़कर सूर्यको चौथा अर्घ्य देना चाहिये (तीन अर्घ्य तो नित्य दिये ही जाते हैं)। दिनका पाँच भाग करनेपर तीसरा और चौथा भाग मध्याह्नकालकी संध्याके लिये मुख्य है।<blockquote>गायत्रीं शिरसा सार्धमुक्त्वा व्याहृतिभिः सह। कालातीतविशुद्धयर्थं चतुर्थाय॑ प्रदापयेत्॥(मदनपारिजात)</blockquote>मध्याह्ने तु– <blockquote>अध्यर्घयामादासायं संध्या माध्याह्निकीष्यते' इति दक्षवचनेन विभक्तदिवस्य तृतीयभागादारभ्य पञ्चमभागारम्भपर्यन्तं तत्कालो मुख्यः । (कातीयनित्यकर्मपद्धति)</blockquote>साधारणतया सूर्योदयके बाद अपराह्न काल तक मध्याह्न - संध्याका समय है। मध्याह्न-संध्या करनेवालेको प्रातःसंध्याके पश्चात् तुरंत भोजन नहीं करना चाहिये। ठीक समयपर मध्याह्म-संध्याका नियम पूरा करके ही करना उचित है। स्मृतिका वचन है-<blockquote>स्नानसंध्यातर्पणादि जपहोमसुरार्चनम्। उपवासवता कार्यं सायंसंध्याहुतीविना॥</blockquote>केवल सायं-संध्या और सायंकालिक अग्निहोत्रके सिवा जो भी स्नान, संध्या, तर्पण आदि तथा जप, होम और देवार्चन आदि कार्य हैं, उनका भोजनके पहले ही अनुष्ठान करना चाहिये।' -इस वचनके अनुसार मध्याह्न-संध्या भोजनके पहले ही की जानी चाहिये। यदि कभी एकादशीव्रत का पारण द्वादशीमें करना हो और द्वादशी सूर्योदयके बाद बहुत ही कम रह गयी हो तो प्रातः और मध्याह्म-संध्या उषःकालमें ही कर लेनी चाहिये।<blockquote>यदा भवति चाल्पाति द्वादशी पारणादिने। उषःकाले द्वयं कुर्यात् प्रातर्मध्याह्निकं तदा॥ (मत्स्यपुराण)</blockquote>
 
उपर्युक्त कालसे देर हो जानेपर गौण काल होता है, मुख्य नहीं रहता। मनुस्मृतिके अनुसार प्रातःसंध्यामें काल-विभाग यों समझना चाहिये—सूर्योदयसे पूर्व जबतक तारे दिखायी देते रहें, उत्तम काल है। ताराओंके छिपनेसे लेकर सूर्योदयकालतक मध्यम है, सूर्योदयके पश्चात् अधम काल है। इसी प्रकार जब सूर्य दिखायी देते रहें, उस समय की हुई सायं-संध्या उत्तम होती है। सूर्यास्तके बाद ताराओंके उदयसे पहले की हुई संध्या मध्यम श्रेणीकी है और ताराओंके उदयके पश्चात् की हुई संध्या निम्न श्रेणीकी समझी जाती है। यह सायं-संध्याका काल- विभाग है।<blockquote>उत्तमा तारकोपेता मध्यमा लुप्ततारका। अधमा सूर्यसहिता प्रातःसंध्या त्रिधा स्मृता॥ (मनु०)</blockquote><blockquote>उत्तमा सूर्यसहिता मध्यमा लुप्तभास्करा। अधमा तारकोपेता सायंसंध्या त्रिधा स्मृता॥ (मनु०)</blockquote>प्रातःसंध्यामें सूर्योदयके पश्चात् दो घड़ीतक गौणोत्तम काल माना गया है और सायं-संध्यामें सूर्यास्तसे तीन घड़ी बादतक गौणोत्तम काल है। इसी तरह प्रातःकाल सूर्योदयके बाद और सायंकाल सूर्यास्तके बाद चार घड़ीतक गौण मध्यम काल माना गया है।<blockquote>सायंकाले त्रिघटिका अस्तादुपरि भास्वतः। प्रातःकाले द्विघटिके तत्र संध्या समाचरेत्।(स्मृति-संग्रह)</blockquote><blockquote>चतस्रो घटिकाः सायं गौणकालोऽस्ति मध्यमः। प्रातःकालेऽप्येवमेव संध्याकालो मुनीरितः॥ (स्मृति-संग्रह)</blockquote>गौण मध्यम कालतक यदि संध्या हो जाय तो काल-लोपके लिये प्रायश्चित्त नहीं करना पड़ता। इससे अधिक देर होनेपर कालातिक्रमणका प्रायश्चित्त करना चाहिये। प्रायश्चित्त इस प्रकार है-<blockquote>ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्। ओम् आपो ज्योती रसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरोम् ॥</blockquote>यह मन्त्र पढ़कर सूर्यको चौथा अर्घ्य देना चाहिये (तीन अर्घ्य तो नित्य दिये ही जाते हैं)। दिनका पाँच भाग करनेपर तीसरा और चौथा भाग मध्याह्नकालकी संध्याके लिये मुख्य है।<blockquote>गायत्रीं शिरसा सार्धमुक्त्वा व्याहृतिभिः सह। कालातीतविशुद्धयर्थं चतुर्थाय॑ प्रदापयेत्॥(मदनपारिजात)</blockquote>मध्याह्ने तु– <blockquote>अध्यर्घयामादासायं संध्या माध्याह्निकीष्यते' इति दक्षवचनेन विभक्तदिवस्य तृतीयभागादारभ्य पञ्चमभागारम्भपर्यन्तं तत्कालो मुख्यः । (कातीयनित्यकर्मपद्धति)</blockquote>साधारणतया सूर्योदयके बाद अपराह्न काल तक मध्याह्न - संध्याका समय है। मध्याह्न-संध्या करनेवालेको प्रातःसंध्याके पश्चात् तुरंत भोजन नहीं करना चाहिये। ठीक समयपर मध्याह्म-संध्याका नियम पूरा करके ही करना उचित है। स्मृतिका वचन है-<blockquote>स्नानसंध्यातर्पणादि जपहोमसुरार्चनम्। उपवासवता कार्यं सायंसंध्याहुतीविना॥</blockquote>केवल सायं-संध्या और सायंकालिक अग्निहोत्रके सिवा जो भी स्नान, संध्या, तर्पण आदि तथा जप, होम और देवार्चन आदि कार्य हैं, उनका भोजनके पहले ही अनुष्ठान करना चाहिये।' -इस वचनके अनुसार मध्याह्न-संध्या भोजनके पहले ही की जानी चाहिये। यदि कभी एकादशीव्रत का पारण द्वादशीमें करना हो और द्वादशी सूर्योदयके बाद बहुत ही कम रह गयी हो तो प्रातः और मध्याह्म-संध्या उषःकालमें ही कर लेनी चाहिये।<blockquote>यदा भवति चाल्पाति द्वादशी पारणादिने। उषःकाले द्वयं कुर्यात् प्रातर्मध्याह्निकं तदा॥ (मत्स्यपुराण)</blockquote>
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== सन्ध्या काल का महत्व ==
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दितिर्दाक्षायणी क्षत्तर्मारीचं कश्यपं पतिम् । अपत्यकामा चकमे सन्ध्यायां हृच्छयार्दिता ॥(भाग०महा०) <ref>श्रीमद्भागवत महापुराण/स्कंध ०३/अध्यायः १४/श्लोक०७। [https://sa.wikisource.org/s/one]</ref>
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भागवत पुराण के अनुसार एक बार दक्ष पुत्र दिति ने कामातुर होकर अपने पति मरीचिनंदन कश्यपजी से प्रार्थना की। उस समय कश्यपजी खीर की आहुतियों द्वारा अग्निजिह्व भगवान यज्ञपति की आराधना कर सूर्यास्त के समय अग्निशाला में ध्यानस्थ बैठे थे, लेकिन दिति कामदेव के वेग से अत्यंत बैचेन हो बेबस हो रही थी। यह वक्त संध्यावंदन का था, लेकिन लाख समझाने पर भी वह नहीं मानी।
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कश्यपजी ने के कहा- तुम एक मुहूर्त ठहरो यह अत्यंत घोर समय चल रहा है जबकि राक्षसादि प्रेत योनि की आत्माएं सक्रिय हैं, ऐसे में यह वक्त ईश्वर भक्ति का वक्त है। इस वक्त महादेवजी अपने तीसरे नेत्र से सभी को देखते रहते हैं। यह वक्त उन्हीं का है। यह समय तो संध्यावंदन और भगवत् पूजन आदि के लिए ही है। इस समय जो पिशाचों जैसा आचरण करते हैं, वे नरकगामी होते हैं।
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पति के इस प्रकार समझाने पर भी दिति नहीं मानी और उन्होंने कश्यपजी का वस्त्र पकड़ लिया। तब विवश होकर उन्होंने इस शिव समय में देवों को नमस्कार किया और एकांत में दिति के साथ समागम किया।
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समागम के बाद कश्यपजी ने निर्मल जल से स्नान किया और फिर से ब्रह्म का ध्यान करने लगे लेकिन दिति को बाद में इसका पश्चात्ताप हुआ और लज्जा आई। तब वह ब्रह्मर्षि के समक्ष सिर नीचा करके कहने लगी-भूतों के स्वामी भगवान रुद्र का मैंने अपराध किया है, किंतु वह भूतश्रेष्ठ मेरे इस गर्भ को नष्ट न करें। मैं उनसे क्षमा मांगती हूं।
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बाद में कश्यपजी जब ध्यान से उठे तो उन्होंने देखा की दिति भय से थर-थर कांपते हुए प्रार्थना कर रही है। कश्यपजी बोले, तुमने देवताओं की अवहेलना करते हुए अमंगल समय में काम की कामना की इसलिए तुम्हारी कोख से दो बड़े ही अमंगल और अधम पुत्र जन्म लेंगे और वे धरती पर बार-बार अपने अत्याचारों से लोगों को रुलाएंगे। तब उनका वध करने के लिए स्वयं जगदीश्वर को अवतार लेना होगा।
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सृष्टि में भयानक उत्पात और अंधकार के बाद दिति के गर्भ से सर्वप्रथम दो जुड़वां पुत्र जन्मे हिरण्यकशिपु तथा हिरण्याक्ष। जन्म लेते ही दोनों पर्वत के समान दृढ़ तथा विशाल हो गए। ये दोनों ही आदि दैत्य कहलाए।अतःशास्त्र के अनुसार सन्ध्या काल में भगवद् ध्यान जप आदि धार्मिक कार्य ही करना चाहिये।आहार निद्रा मैथुन स्वाध्याय आदि कार्यों को नहीं करना चाहिये।जैसा कि कहा गया है-<blockquote>संध्या काले तु संप्राप्ते कर्म चत्वारि वर्जयेत। आहारं मैथुनं निद्रा स्वाध्यातु विशेषतः।।</blockquote><blockquote>आहारं जायते ब्याधिः मैथुनं दुष्ट संतति। निद्रा ह्रयते लक्ष्मी स्वाध्यातु विष्मरणं भवेत।।</blockquote>
 
== अशौचमें संध्योपासन का विचार ==
 
== अशौचमें संध्योपासन का विचार ==
 
==== अशौचकाल निर्णय ====
 
==== अशौचकाल निर्णय ====
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==== अशौचमें संध्योपासन ====
 
==== अशौचमें संध्योपासन ====
जननाशौच अथवा मरणाशौचमें मन्त्रका उच्चारण किये बिना ही प्राणायाम करना चाहिये तथा मार्जन-मन्त्रोंका मन-ही-मन उच्चारण करते हुए मार्जन कर लेना चाहिये। गायत्रीका स्पष्ट उच्चारण करके सूर्यको अर्घ्य दे। मार्जन करे या न करे, परंतु उपस्थान तो नहीं ही करना चाहिये। मानसिक संध्याका भी।स्वरूप यही है। यह आरम्भसे अर्घ्यके पहलेतक ही की जाती है, इसमें कुश और जलका उपयोग नहीं होता। गायत्री-।मन्त्रका उच्चारण करके जो अर्घ्य देनेकी बात कही गयी है, उसमें जलका उपयोग आवश्यक है अर्थात् अशौचावस्थामें भी सूर्यको जलसे अर्घ्य देना ही चाहिये।<blockquote>सूतके मृतके वापि प्राणायामममन्त्रकम्। तथा मार्जनमन्त्रांस्तु मनसोच्चार्य मार्जयेत्॥</blockquote><blockquote>गायत्रीं सम्यगुच्चार्य सूर्यायायं निवेदयेत्।</blockquote><blockquote>मार्जनं तु न वा कार्यमुपस्थानं न चैव हि। (आह्निकसूत्रावली)</blockquote><blockquote>अर्ध्यान्ता मानसी संध्या कुशवारिविवर्जिता।(निर्णयसिन्धु)</blockquote><blockquote>सूतके तु सावित्र्याञ्जलंप्रक्षिप्य प्रदक्षिणं कृत्वा सूर्य ध्यायन्नमस्कुर्यात्। (मिताक्षरामें पैठीनसिका मत)</blockquote>जलके अभावमें धूलिसे अर्घ्य करना चाहिये। जलके अभावमें या बहुत लम्बी यात्राके समय अथवा कैदमें पड़ जानेपर या अशौच-अवस्थामें दोनों कालोंकी संध्याके समय धूलिसे भी अर्घ्य देना बताया गया है। संध्याकालमें आपत्तिग्रस्त या अशौचयुक्त पुरुषको भी कम-से-कम दस-दस बार गायत्री-मन्त्रका जप करना चाहिये।
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जननाशौच अथवा मरणाशौचमें मन्त्रका उच्चारण किये बिना ही प्राणायाम करना चाहिये तथा मार्जन-मन्त्रोंका मन-ही-मन उच्चारण करते हुए मार्जन कर लेना चाहिये। गायत्रीका स्पष्ट उच्चारण करके सूर्यको अर्घ्य दे। मार्जन करे या न करे, परंतु उपस्थान तो नहीं ही करना चाहिये। मानसिक संध्याका भी।स्वरूप यही है। यह आरम्भसे अर्घ्यके पहलेतक ही की जाती है, इसमें कुश और जलका उपयोग नहीं होता। गायत्री-।मन्त्रका उच्चारण करके जो अर्घ्य देनेकी बात कही गयी है, उसमें जलका उपयोग आवश्यक है अर्थात् अशौचावस्थामें भी सूर्यको जलसे अर्घ्य देना ही चाहिये।<blockquote>सूतके मृतके वापि प्राणायामममन्त्रकम्। तथा मार्जनमन्त्रांस्तु मनसोच्चार्य मार्जयेत्॥</blockquote><blockquote>गायत्रीं सम्यगुच्चार्य सूर्यायायं निवेदयेत्।</blockquote><blockquote>मार्जनं तु न वा कार्यमुपस्थानं न चैव हि। (आह्निकसूत्रावली)</blockquote><blockquote>अर्ध्यान्ता मानसी संध्या कुशवारिविवर्जिता।(निर्णयसिन्धु)</blockquote><blockquote>सूतके तु सावित्र्याञ्जलंप्रक्षिप्य प्रदक्षिणं कृत्वा सूर्य ध्यायन्नमस्कुर्यात्। (मिताक्षरामें पैठीनसिका मत)</blockquote>जलके अभावमें धूलिसे अर्घ्य करना चाहिये। जलके अभावमें या बहुत लम्बी यात्राके समय अथवा कैदमें पड़ जानेपर या अशौच-अवस्थामें दोनों कालों की संध्याके समय धूलिसे भी अर्घ्य देना बताया गया है। संध्याकालमें आपत्तिग्रस्त या अशौचयुक्त पुरुषको भी कम-से-कम दस-दस बार गायत्री-मन्त्रका जप करना चाहिये।
    
== उल्लेख ==
 
== उल्लेख ==
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