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| *Aghamarshana (अघमर्षण) - अघमर्षण(पाप को भगाना) में गौ के कान के भॉंति दाहिने हाथ का रूप बनाकर,उसमें जल लेकर,नाक के पास रखकर,उस पर ऋतं च० आदि तीन मन्त्रों के साथ श्वास धीरे धीरे छोडें(इस भावना से कि अपना पाप भाग जाय) एवं पृथिवी पर बायीं ओर जल फेक दिया जाता है। | | *Aghamarshana (अघमर्षण) - अघमर्षण(पाप को भगाना) में गौ के कान के भॉंति दाहिने हाथ का रूप बनाकर,उसमें जल लेकर,नाक के पास रखकर,उस पर ऋतं च० आदि तीन मन्त्रों के साथ श्वास धीरे धीरे छोडें(इस भावना से कि अपना पाप भाग जाय) एवं पृथिवी पर बायीं ओर जल फेक दिया जाता है। |
| *Arghya (अर्घ्य) - अर्घ्य(सम्मान के साथ सूर्य को जलार्पण) में दोनों जुडे हुए हाथों में जल लेकर,गायत्री मन्त्र बोलते हुए,सूर्य की ओर उन्मुख होकर तीन बार जल गिराया(प्रदान किया)जाता है। | | *Arghya (अर्घ्य) - अर्घ्य(सम्मान के साथ सूर्य को जलार्पण) में दोनों जुडे हुए हाथों में जल लेकर,गायत्री मन्त्र बोलते हुए,सूर्य की ओर उन्मुख होकर तीन बार जल गिराया(प्रदान किया)जाता है। |
− | *Gayatri Japa (गायत्री जप) - वेदमाता गायत्री जिनकी महिमा चारों वेदों में विस्तृत वर्णित है।वेद माता गायत्री को छान्दोग्योपनिषद् में सर्व वेदों का सार ,परब्रह्मस्वरूपा,कामदा,मोक्षदा एवं त्रिपाद कहा गया है।गायत्री साधना सर्वपापों का शमन कर साधक का चित्त विशुद्धकर उसे आत्मसाक्षात्कार के प्रति ले जाती है। गायत्री जप सन्ध्या का महत्वपूर्ण अंग है। | + | *Gayatri Japa (गायत्री जप) - वेदमाता गायत्री जिनकी महिमा चारों वेदों में विस्तृत वर्णित है।वेद माता गायत्री को छान्दोग्योपनिषद् में सर्व वेदों का सार ,परब्रह्मस्वरूपा,कामदा,मोक्षदा एवं त्रिपाद कहा गया है।गायत्री साधना सर्वपापों का शमन कर साधक का चित्त विशुद्धकर उसे आत्मसाक्षात्कार के प्रति ले जाती हैं। गायत्री जप सन्ध्या का महत्वपूर्ण अंग है।यह बुद्धि को प्रेरणा देने वाली,तेज स्वरूप ज्ञान प्रदायिनी हैं। |
| *Upasthana (उपस्थान) - उपस्थान में बौधायन के मतानुसार उद्वयम् ० आदि मन्त्रों के द्वारा प्रातः काल सूर्य से प्रार्थना करनी चाहिये किन्तु सायन्ह सन्ध्या में वरुण मन्त्रों के द्वारा वरुण देव का उपस्थान किया जाता है। | | *Upasthana (उपस्थान) - उपस्थान में बौधायन के मतानुसार उद्वयम् ० आदि मन्त्रों के द्वारा प्रातः काल सूर्य से प्रार्थना करनी चाहिये किन्तु सायन्ह सन्ध्या में वरुण मन्त्रों के द्वारा वरुण देव का उपस्थान किया जाता है। |
| *[[Abhivadana (अभिवादन)]] - अभिवादन सन्ध्योपासन के अनन्तर गुरुजी के सन्निकट जाकर नमन करना अथवा गृह,तीर्थ, विदेश आदि ऐसे स्थान पर जहां गुरुजी उपस्थित न हों उन्हैं अपना स्व नाम गोत्र शाखा वेद आदि का उच्चाकरण करके मन से प्रणाम निवेदित करना चाहिये । | | *[[Abhivadana (अभिवादन)]] - अभिवादन सन्ध्योपासन के अनन्तर गुरुजी के सन्निकट जाकर नमन करना अथवा गृह,तीर्थ, विदेश आदि ऐसे स्थान पर जहां गुरुजी उपस्थित न हों उन्हैं अपना स्व नाम गोत्र शाखा वेद आदि का उच्चाकरण करके मन से प्रणाम निवेदित करना चाहिये । |
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| ==== सन्ध्या के लिये आवश्यक दिशा ==== | | ==== सन्ध्या के लिये आवश्यक दिशा ==== |
− | प्रातःकालीन सन्ध्या पूर्वदिशा की ओर तथा सायंकालीन उत्तर-पश्चिम दिशा की ओर करनी चाहिये। | + | प्रातःकालीन सन्ध्या पूर्वदिशा की ओर तथा सायंकालीन सन्ध्या उत्तर-पश्चिम दिशा की ओर करनी चाहिये। |
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| == सन्ध्या का काल == | | == सन्ध्या का काल == |