Difference between revisions of "Puja And Yoga (पूजा एवं योग)"

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भारतीय मान्यता के अनुसार वेद सृष्टिक्रम की प्रथम वाणी है। फलतः भारतीय संस्कृति का मूल ग्रन्थ वेद सिद्ध होता है। पाश्चात्य विचारकों ने ऐतिहासिक दृष्टि अपनाते हुये वेद को विश्व का आदि ग्रन्थ सिद्ध किया।
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सनातन धर्म का एक प्रमुख अंग पूजा है। सृष्टि का प्रत्येक मानव अपने-अपने ढंग से परमात्मा या दैवी सत्ता की आराधना, प्रार्थना और ध्यान आदि करता है, यह सब पूजा का ही रूप है। ब्रह्मलोक की प्राप्ति के लिये चित्त को एकाग्र करने का नाम पूजा है। चिन्तन, मनन, उपासना आदि पूजा के पर्यायवाची शब्द हैं। जिन साधनों से जीवात्मा और परमात्मा का सम्बन्ध स्थापित हो जाये, वही पूजा है। पूजा का वास्तविक स्वरूप है पूज्य के आदर्श को अनुकरण करके उसके सद्गुणों का स्वयं भी ग्रहण करना चाहिये।
  
 
==परिचय==
 
==परिचय==
अपने पूज्य आराध्य के गुणों में अनुराग करना, उन जैसे गुणों की प्राप्ति की उपासना करना, उनके स्तोत्र का पाठ करना, पदार्थ समर्पण करना, नृत्य, गायन, मंत्रोच्चारण आदि से उनकी भक्ति करना ही पूजा है। भजन और यजन के सम्मिलित रूपको पूजा कह सकते हैं क्योंकि भक्ति भाव रूप होती है और यज्ञ क्रियात्मक होता है। यही भाव और क्रिया का सम्मिलित रूप ही पूजा है। अथवा जहां पर आत्मिक गुणों को उन्नत और आत्मा को पवित्र करने की क्रियाऐं की जायें वह पूजा है।<ref>धन्य कुमार जैन, प्राकृतिक अपभ्रंश एवं सांस्कृतिक वांग्मय में जैन पूजा विधि विधान का तुलनात्मक अध्ययन, सन् २०१५, बिहारः बडासाहेब भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय (पृ० २५)</ref>
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अपने पूज्य आराध्य के गुणों में अनुराग करना, उन जैसे गुणों की प्राप्ति की उपासना करना, उनके स्तोत्र का पाठ करना, पदार्थ समर्पण करना, नृत्य, गायन, मंत्रोच्चारण आदि से उनकी भक्ति करना ही पूजा है। भजन और यजन के सम्मिलित रूपको पूजा कह सकते हैं क्योंकि भक्ति भाव रूप होती है और यज्ञ क्रियात्मक होता है। यही भाव और क्रिया का सम्मिलित रूप ही पूजा है। अथवा जहां पर आत्मिक गुणों को उन्नत और आत्मा को पवित्र करने की क्रियाऐं की जायें वह पूजा है।<ref>धन्य कुमार जैन, प्राकृतिक अपभ्रंश एवं सांस्कृतिक वांग्मय में जैन पूजा विधि विधान का तुलनात्मक अध्ययन, सन् २०१५, बिहारः बडासाहेब भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय (पृ० २५)। http://hdl.handle.net/10603/429325</ref>
  
 
भाव पूजा एवं द्रव्य पूजा के भेद से पूजा के दो प्रकार होते हैं-
 
भाव पूजा एवं द्रव्य पूजा के भेद से पूजा के दो प्रकार होते हैं-
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==परिभाषा==
 
==परिभाषा==
पूजा शब्द की व्युत्पत्ति निम्न प्रकार से की जा सकती है। पूजा शब्द पुञ् धातु से पवित्र करने अर्थ में प्रयोग किया जाता है-<blockquote>पूतं जायते एतया इति पूजा।</blockquote>'''भावार्थ-''' जिससे पवित्र हुआ जाये, जो आत्मा को पवित्र करे, दुर्विचारों को दूर करे तथा पापकर्मों से बचाकर जो पुण्य कर्मों या शुभ क्रियाओं में लगाये वह पूजा है।
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पूजा शब्द की व्युत्पत्ति निम्न प्रकार से की जा सकती है। पूजा शब्द पुञ् धातु से पवित्र करने अर्थ में प्रयोग किया जाता है-<blockquote>पूतं जायते एतया इति पूजा।</blockquote>'''भावार्थ-''' जिससे पवित्र हुआ जाये, जो आत्मा को पवित्र करे, दुर्विचारों को दूर करे तथा पापकर्मों से बचाकर जो पुण्य कर्मों या शुभ क्रियाओं में लगाये वह पूजा है।<blockquote>पूजा नमस्यापचितिः सपर्यार्चार्हणाः समाः। वरिवस्या तु शुश्रूषा परिचर्यायुपासना॥(अम०को० २,७,३४-३५)</blockquote>'''भाषार्थ-''' अमरकोशकार ने उपसाना, नमस्या, अपचिति, सपर्या, अर्हणा, वरिवस्या, ध्यान तथा अनुष्ठान आदि पूजा के पर्यायवाची शब्द वर्णित किये हैं।
==पूजा के प्रकार==
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पूजा आध्यात्मिक विकास में मदद करती है। पूजा भक्त द्वारा भगवान के प्रति प्रेम और भक्ति की अभिव्यक्ति है, उनके प्रति अत्यधिक श्रद्धा, सचेतन संवाद, आदि।
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==पूजा के भेद==
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संसार में मानव की प्रकृति और रुचि में भिन्नता रहती है अर्थात् समस्त मानवों के स्वभावाउर रुचि एक जैसी नहीं होती। इस प्रकार मानवीय भेद को जानकर शास्त्रकारों ने पूजा के विविध प्रकार प्रस्तुत किये हैं। जिससे प्रत्येक मानव अपनी प्रकृति और रुचि अनुसार भगवद् प्राप्ति के लिये अपने इष्ट की पूजा में संलग्न हो सकता है। यही कारण है कि शास्त्रों में एक ही ब्रह्म को कई रूपों में वर्णित किया है-<blockquote>एकं सदविप्रा बहुधा वदन्ति।</blockquote>इस तरह अनेक रूपों में वर्णित पूजा में साधक(पूजक) अपनी मनःस्थिति के अनुसार अपने इष्ट (उपास्य) का निश्चय कर पूजा में संलग्न होकर सिद्धि प्राप्त कर सकता है। पूजा में निर्गुण-निराकार, सगुण-साकार कोई भी भगवत्स्वरूप लक्ष्य बनाया जा सकता है।
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पूजा आध्यात्मिक विकास में मदद करती है। पूजा भक्त द्वारा भगवान के प्रति प्रेम और भक्ति की अभिव्यक्ति है, उनके प्रति अत्यधिक श्रद्धा, सचेतन संवाद, आदि। पूजा प्रार्थना, स्तुतिपाठ, कीर्तन, जप, ध्यान आदि के रूपमें हो सकती है।<ref>मञ्जीत कुमार, देवीभागवतपुराण में उपासना एक परिशीलन, सन् २०१२, पंजाब विश्वविद्यालय अध्याय-०३, (पृ० २२)।http://hdl.handle.net/10603/134316</ref>
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पूजा के कई भेद हैं- देवपूजा, पितृपूजा, प्रकृति पूजा, वीर पूजा, महान व्यक्तियों की पूजा आदि।
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== पूजा की आवश्यकता ==
  
पूजा प्रार्थना, स्तुतिपाठ, कीर्तन, जप, ध्यान आदि के रूपमें हो सकती है।
 
  
 
पूजा व्यक्ति की वृद्धि और विकास के अनुसार विभिन्न रूपों में होती है।
 
पूजा व्यक्ति की वृद्धि और विकास के अनुसार विभिन्न रूपों में होती है।
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कोई भी भक्त जिस किसी रूपकी श्रद्धा से पूजा करना चाहता है- उसी विश्वास को में दृढ और अचल बना देता हूँ।(गीता ८/२१)
 
कोई भी भक्त जिस किसी रूपकी श्रद्धा से पूजा करना चाहता है- उसी विश्वास को में दृढ और अचल बना देता हूँ।(गीता ८/२१)
===पूजा विधान का महत्व===
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==पूजा विधान का महत्व==
 
सनातन धर्म में पूजाविधान को प्रवृत्ति और निवृत्ति मूलक एक-लक्ष्य केन्द्रित धर्म माना है। वहां प्रवृत्ति मूलक और निवृत्ति मूलक दोनों मार्गों का एक ही लक्ष्य है - मुक्ति। संसार से मुक्त होकर [https://dharmawiki.org/index.php/Moksha_(%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A4%83) मोक्ष] प्राप्त करना।
 
सनातन धर्म में पूजाविधान को प्रवृत्ति और निवृत्ति मूलक एक-लक्ष्य केन्द्रित धर्म माना है। वहां प्रवृत्ति मूलक और निवृत्ति मूलक दोनों मार्गों का एक ही लक्ष्य है - मुक्ति। संसार से मुक्त होकर [https://dharmawiki.org/index.php/Moksha_(%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A4%83) मोक्ष] प्राप्त करना।
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पूजा के विविध साधनों- स्तुति, प्रार्थना, मन्त्रजप, तप, स्वाध्याय, कथा, कीर्तन, यज्ञ, मनन, चिन्तन आदि से मानव में जो भी अभाव अनुभव करता है, उसको प्राप्त कर लेता है।
  
 
'''पूजा'''
 
'''पूजा'''
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मन का अन्तर्मुखी भाव होते-होते ध्यान की प्रगाढ अवस्था आ जाती है। और अन्त में ध्याता ध्यान तथा ध्येय एक हो जाते हैं, त्रिपुटी समाप्त हो जाती है, और साधक साध्य को प्राप्त कर लेता है। योग साधना के अनुसार ध्यान के बाद समाधि अवस्था का प्रादुर्भाव हो जाता है। समाधि में भी पहले सविकल्प समाधि फिर धीरे-धीरे निर्विकल्प समाधि आ जाती है।
 
मन का अन्तर्मुखी भाव होते-होते ध्यान की प्रगाढ अवस्था आ जाती है। और अन्त में ध्याता ध्यान तथा ध्येय एक हो जाते हैं, त्रिपुटी समाप्त हो जाती है, और साधक साध्य को प्राप्त कर लेता है। योग साधना के अनुसार ध्यान के बाद समाधि अवस्था का प्रादुर्भाव हो जाता है। समाधि में भी पहले सविकल्प समाधि फिर धीरे-धीरे निर्विकल्प समाधि आ जाती है।
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#'''एकशताधिकद्वात्रिंशोपचार-'''
 
#'''एकशताधिकद्वात्रिंशोपचार-'''
 
मानस पूजा को शास्त्रों में सबसे शक्तिशाली पूजा माना गया है।
 
मानस पूजा को शास्त्रों में सबसे शक्तिशाली पूजा माना गया है।
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नैगमिक पूजा को कर्मानुसार तीन भागों में विभाजित किया गया है जो कि इस प्रकार है-
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|विष्णुयाग
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|चातुर्मास्य
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|मित्रविन्देष्टि
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|इत्यादि
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|रुद्रयाग
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|सोमयाग
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|कारिरीष्टी
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'''नित्य पूजा-''' जिन कर्मों के करने से किसी फल की प्राप्ति न होती हो ओर न करने से पाप लगे उन्हें नित्य पूजा कहते हैं। प्रतिदिन करने योग्य कर्म नित्य-कर्म है।
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'''नैमित्तिक पूजा-''' किसी उद्देश्य से किये जाने वाले कर्म नैमित्तिक कर्म हैं। निमित्त का अर्थ है- उद्देश्य, कारण। जैसे- जन्मोत्सव , संस्कार आदि।
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'''काम्य पूजा-''' किसी विशेष इच्छा को रखकर उनकी सफलता के लिये शास्त्रानुसार जब कोई कर्म किया जाता है, तब वह काम्य पूजा कहलाता है। जैसे- पुत्र प्राप्ति के लिये पुत्रेष्टि यज्ञ तथा अभीष्ट कार्य के लिये शतचण्डी आदि।
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==उद्धरण॥ References==
 
==उद्धरण॥ References==

Revision as of 15:52, 4 April 2023

सनातन धर्म का एक प्रमुख अंग पूजा है। सृष्टि का प्रत्येक मानव अपने-अपने ढंग से परमात्मा या दैवी सत्ता की आराधना, प्रार्थना और ध्यान आदि करता है, यह सब पूजा का ही रूप है। ब्रह्मलोक की प्राप्ति के लिये चित्त को एकाग्र करने का नाम पूजा है। चिन्तन, मनन, उपासना आदि पूजा के पर्यायवाची शब्द हैं। जिन साधनों से जीवात्मा और परमात्मा का सम्बन्ध स्थापित हो जाये, वही पूजा है। पूजा का वास्तविक स्वरूप है पूज्य के आदर्श को अनुकरण करके उसके सद्गुणों का स्वयं भी ग्रहण करना चाहिये।

परिचय

अपने पूज्य आराध्य के गुणों में अनुराग करना, उन जैसे गुणों की प्राप्ति की उपासना करना, उनके स्तोत्र का पाठ करना, पदार्थ समर्पण करना, नृत्य, गायन, मंत्रोच्चारण आदि से उनकी भक्ति करना ही पूजा है। भजन और यजन के सम्मिलित रूपको पूजा कह सकते हैं क्योंकि भक्ति भाव रूप होती है और यज्ञ क्रियात्मक होता है। यही भाव और क्रिया का सम्मिलित रूप ही पूजा है। अथवा जहां पर आत्मिक गुणों को उन्नत और आत्मा को पवित्र करने की क्रियाऐं की जायें वह पूजा है।[1]

भाव पूजा एवं द्रव्य पूजा के भेद से पूजा के दो प्रकार होते हैं-

  1. भाव पूजा- आराध्यदेव का स्मरण, स्तुतिपाठ, स्तोत्रपाठ या उनके गुणों की प्रशंसा आदि करना भावपूजा कहलाती है।
  2. द्रव्य पूजा- देव-विग्रह, इष्टदेव आदि को गन्धपुष्पादि रूप द्रव्यों को समर्पित करना, प्रणाम, नमस्कार, प्रदक्षिणाऐं करना आदिरूप शरीर और वाणी की जो क्रियायें की जाती हैं वे सब द्रव्यपूजा के अन्तर्गत आती है।

परिभाषा

पूजा शब्द की व्युत्पत्ति निम्न प्रकार से की जा सकती है। पूजा शब्द पुञ् धातु से पवित्र करने अर्थ में प्रयोग किया जाता है-

पूतं जायते एतया इति पूजा।

भावार्थ- जिससे पवित्र हुआ जाये, जो आत्मा को पवित्र करे, दुर्विचारों को दूर करे तथा पापकर्मों से बचाकर जो पुण्य कर्मों या शुभ क्रियाओं में लगाये वह पूजा है।

पूजा नमस्यापचितिः सपर्यार्चार्हणाः समाः। वरिवस्या तु शुश्रूषा परिचर्यायुपासना॥(अम०को० २,७,३४-३५)

भाषार्थ- अमरकोशकार ने उपसाना, नमस्या, अपचिति, सपर्या, अर्हणा, वरिवस्या, ध्यान तथा अनुष्ठान आदि पूजा के पर्यायवाची शब्द वर्णित किये हैं।

पूजा के भेद

संसार में मानव की प्रकृति और रुचि में भिन्नता रहती है अर्थात् समस्त मानवों के स्वभावाउर रुचि एक जैसी नहीं होती। इस प्रकार मानवीय भेद को जानकर शास्त्रकारों ने पूजा के विविध प्रकार प्रस्तुत किये हैं। जिससे प्रत्येक मानव अपनी प्रकृति और रुचि अनुसार भगवद् प्राप्ति के लिये अपने इष्ट की पूजा में संलग्न हो सकता है। यही कारण है कि शास्त्रों में एक ही ब्रह्म को कई रूपों में वर्णित किया है-

एकं सदविप्रा बहुधा वदन्ति।

इस तरह अनेक रूपों में वर्णित पूजा में साधक(पूजक) अपनी मनःस्थिति के अनुसार अपने इष्ट (उपास्य) का निश्चय कर पूजा में संलग्न होकर सिद्धि प्राप्त कर सकता है। पूजा में निर्गुण-निराकार, सगुण-साकार कोई भी भगवत्स्वरूप लक्ष्य बनाया जा सकता है।

पूजा आध्यात्मिक विकास में मदद करती है। पूजा भक्त द्वारा भगवान के प्रति प्रेम और भक्ति की अभिव्यक्ति है, उनके प्रति अत्यधिक श्रद्धा, सचेतन संवाद, आदि। पूजा प्रार्थना, स्तुतिपाठ, कीर्तन, जप, ध्यान आदि के रूपमें हो सकती है।[2]

पूजा के कई भेद हैं- देवपूजा, पितृपूजा, प्रकृति पूजा, वीर पूजा, महान व्यक्तियों की पूजा आदि।

पूजा की आवश्यकता

पूजा व्यक्ति की वृद्धि और विकास के अनुसार विभिन्न रूपों में होती है।

प्रकृति पूजा-

वीर पूजा-

नायक पूजा-

महान व्यक्तियों की पूजा-

पितृ पूजा-

जैसे-जैसे मनुष्य विकसित होता है वह एक अवस्था से दूसरी अवस्था में जाता है। निचली अवस्थायें अपने आप वहीं छूट जाती हैं एवं उच्च स्तर पर पहुंचते-पहुंचते लय अर्थात् समाधि की स्थिति को प्राप्त होता है। जैसा की श्री गीता जी में कहा गया है-

कोई भी भक्त जिस किसी रूपकी श्रद्धा से पूजा करना चाहता है- उसी विश्वास को में दृढ और अचल बना देता हूँ।(गीता ८/२१)

पूजा विधान का महत्व

सनातन धर्म में पूजाविधान को प्रवृत्ति और निवृत्ति मूलक एक-लक्ष्य केन्द्रित धर्म माना है। वहां प्रवृत्ति मूलक और निवृत्ति मूलक दोनों मार्गों का एक ही लक्ष्य है - मुक्ति। संसार से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त करना।

पूजा के विविध साधनों- स्तुति, प्रार्थना, मन्त्रजप, तप, स्वाध्याय, कथा, कीर्तन, यज्ञ, मनन, चिन्तन आदि से मानव में जो भी अभाव अनुभव करता है, उसको प्राप्त कर लेता है।

पूजा

स्तोत्र

जप

किसी भी देवी या देवता का गुणगान और महिमा का वर्णन किया जाता है। स्त्रोत का जाप करने से अलौकिक ऊर्जा का संचार होता है और दिव्य शब्दों के चयन से हम उस देवता को प्राप्त कर लेते हैं और इसे किसी भी राग में गाया जा सकता है। स्त्रोत के शब्दों का चयन ही महत्वपूर्ण होता है और ये गीतात्मक होता है।

मन का अन्तर्मुखी भाव होते-होते ध्यान की प्रगाढ अवस्था आ जाती है। और अन्त में ध्याता ध्यान तथा ध्येय एक हो जाते हैं, त्रिपुटी समाप्त हो जाती है, और साधक साध्य को प्राप्त कर लेता है। योग साधना के अनुसार ध्यान के बाद समाधि अवस्था का प्रादुर्भाव हो जाता है। समाधि में भी पहले सविकल्प समाधि फिर धीरे-धीरे निर्विकल्प समाधि आ जाती है।


ध्यान

मन्त्र को केवल शब्दों का समूह समझना उनके प्रभाव को कम करके आंकना है। मन्त्र तो शक्तिशाली लयबद्ध शब्दों की तरंगे हैं जो बहुत ही चमत्कारिक रूप से कार्य करती हैं। ये तरंगे भटकते हुए मन को केंद्र बिंदु में रखती हैं। शब्दों का संयोजन भी साधारण नहीं होता है, इन्हे ऋषि मुनियों के द्वारा वर्षों की साधना के बाद लिखा गया है। मन्त्रों के जाप से आस पास का वातावरण शांत और भक्तिमय हो जाता है जो सकारात्मक ऊर्जा को एकत्रिक करके मन को शांत करता है। मन के शांत होते ही आधी से ज्यादा समस्याएं स्वतः ही शांत हो जाती हैं। मंत्र किसी देवी और देवता का ख़ास मन्त्र होता है जिसे एक छंद में रखा जाता है।

लय

मन्त्र के जाप से एक तरंग का निर्माण होता है जो की सम्पूर्ण वायुमंडल में व्याप्त हो जाता है और छिपी हुयी शक्तियों को जाग्रत कर लाभ प्रदान करता है।

पूजा के विविध प्रकार

पूजा के मुख्य रूप से दो प्रकार का बताया गया है।

  1. पंचोपचार पूजन- गन्ध, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य।
  2. दस उपचार- पाद्य, अर्घ्य, आचमन, स्नान, वस्त्र, गन्ध, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य।
  3. षोडश उपचार पूजन- पाद्य, अर्घ्य, आचमन, स्नान, वस्त्र, आभूषण, गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, आचमन, ताम्बूल, स्तवपाठ, तर्पण और नमस्कार।
  4. द्वात्रिंशोपचार-
  5. चतुष्षष्ट्युपचार-
  6. एकशताधिकद्वात्रिंशोपचार-

मानस पूजा को शास्त्रों में सबसे शक्तिशाली पूजा माना गया है। नैगमिक पूजा को कर्मानुसार तीन भागों में विभाजित किया गया है जो कि इस प्रकार है-

(नैगमिक पूजा विधान)
निगम
श्रौत स्मार्त्त
नित्य पूजा नैमित्तिक पूजा काम्य पूजा नित्य पूजा नैमित्तिक पूजा काम्य पूजा
अग्निहोत्र यशस्कामेष्टि संध्या षोडशसंस्कार शतचण्डी
दर्शपूर्णमास भूतिकामेष्टि पञ्चमाहायज्ञ इत्यादि विष्णुयाग
चातुर्मास्य मित्रविन्देष्टि इत्यादि रुद्रयाग
सोमयाग कारिरीष्टी इत्यादि

नित्य पूजा- जिन कर्मों के करने से किसी फल की प्राप्ति न होती हो ओर न करने से पाप लगे उन्हें नित्य पूजा कहते हैं। प्रतिदिन करने योग्य कर्म नित्य-कर्म है।

नैमित्तिक पूजा- किसी उद्देश्य से किये जाने वाले कर्म नैमित्तिक कर्म हैं। निमित्त का अर्थ है- उद्देश्य, कारण। जैसे- जन्मोत्सव , संस्कार आदि।

काम्य पूजा- किसी विशेष इच्छा को रखकर उनकी सफलता के लिये शास्त्रानुसार जब कोई कर्म किया जाता है, तब वह काम्य पूजा कहलाता है। जैसे- पुत्र प्राप्ति के लिये पुत्रेष्टि यज्ञ तथा अभीष्ट कार्य के लिये शतचण्डी आदि।

उद्धरण॥ References

  1. धन्य कुमार जैन, प्राकृतिक अपभ्रंश एवं सांस्कृतिक वांग्मय में जैन पूजा विधि विधान का तुलनात्मक अध्ययन, सन् २०१५, बिहारः बडासाहेब भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय (पृ० २५)। http://hdl.handle.net/10603/429325
  2. मञ्जीत कुमार, देवीभागवतपुराण में उपासना एक परिशीलन, सन् २०१२, पंजाब विश्वविद्यालय अध्याय-०३, (पृ० २२)।http://hdl.handle.net/10603/134316