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== समस्या के मूल ==
 
== समस्या के मूल ==
 
सर्व प्रथम यह समस्या जिन कारणों से निर्माण हुई है उनका हम उनकी व्यापकता के स्तर के अनुसार विचार करेंगे:
 
सर्व प्रथम यह समस्या जिन कारणों से निर्माण हुई है उनका हम उनकी व्यापकता के स्तर के अनुसार विचार करेंगे:
# पारिवारिक भावना पर आधारित जीवन के प्रतिमान के स्थान पर व्यक्तिवादिता, इहवादिता और जडवादिता की जीवन दृष्टिपर पर आधारित जीवन के प्रतिमान का स्वीकार : जीवन के प्रतिमान से परे समाज जीवन और व्यक्ति के जीवन का कोई पहलू नहीं होता।  
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# पारिवारिक भावना पर आधारित जीवन के प्रतिमान के स्थान पर व्यक्तिवादिता, इहवादिता और जड़वादिता की जीवन दृष्टिपर पर आधारित जीवन के प्रतिमान का स्वीकार : जीवन के प्रतिमान से परे समाज जीवन और व्यक्ति के जीवन का कोई पहलू नहीं होता।  
 
## व्यक्तिवादिता का अर्थ है स्वार्थ भाव। सारी सृष्टि मेरे उपभोग के लिए बनीं है ऐसी भावना लोगोंं में निर्माण होती है। स्वार्थ भावना वाले समाज में बलवानों की ही चलती है। शारीरिक दृष्टि से स्त्री दुर्बल होने से उसका शोषण, उस पर अत्याचार होना स्वाभाविक ही है।
 
## व्यक्तिवादिता का अर्थ है स्वार्थ भाव। सारी सृष्टि मेरे उपभोग के लिए बनीं है ऐसी भावना लोगोंं में निर्माण होती है। स्वार्थ भावना वाले समाज में बलवानों की ही चलती है। शारीरिक दृष्टि से स्त्री दुर्बल होने से उसका शोषण, उस पर अत्याचार होना स्वाभाविक ही है।
 
## इहवादिता की भावना के कारण कर्मसिद्धांत के ऊपर विश्वास नहीं होता। इस जन्म में नहीं तो अगले किसी जन्म में इस अत्याचार के परिणाम मुझे भोगने ही होंगे, ऐसी मान्यता नहीं होती। फलस्वरूप जहाँ कहीं अत्याचार कर छूट जाने की संभावनाएं होंगी वहाँ पुरुष अत्याचार कर गुजरता है।  
 
## इहवादिता की भावना के कारण कर्मसिद्धांत के ऊपर विश्वास नहीं होता। इस जन्म में नहीं तो अगले किसी जन्म में इस अत्याचार के परिणाम मुझे भोगने ही होंगे, ऐसी मान्यता नहीं होती। फलस्वरूप जहाँ कहीं अत्याचार कर छूट जाने की संभावनाएं होंगी वहाँ पुरुष अत्याचार कर गुजरता है।  
## जडवादिता में मनुष्य को मात्र एक रासायनिक प्रक्रिया मान लेने से अत्याचार के कारण पीड़ित को होनेवाले क्लेश, दुख:, पीड़ा आदि की सह-अनुभूति होती ही नहीं है। लगभग पूरा समाज ही इस घटिया प्रतिमान में जी रहा होने के कारण समाज के अन्य घटकों की संवेदनशीलता भी कम ही होती है। महिलाएँ भी एक मोमबत्ती मोर्चा निकालकर अपनी जिम्मेदारी को पूरा हुआ मान लेतीं हैं।
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## जड़वादिता में मनुष्य को मात्र एक रासायनिक प्रक्रिया मान लेने से अत्याचार के कारण पीड़ित को होनेवाले क्लेश, दुख:, पीड़ा आदि की सह-अनुभूति होती ही नहीं है। लगभग पूरा समाज ही इस घटिया प्रतिमान में जी रहा होने के कारण समाज के अन्य घटकों की संवेदनशीलता भी कम ही होती है। महिलाएँ भी एक मोमबत्ती मोर्चा निकालकर अपनी जिम्मेदारी को पूरा हुआ मान लेतीं हैं।
 
# वर्तमान लोकतंत्र : वर्तमान लोकतंत्र भी सामाजिकता को विघटित कर हर व्यक्ति को एक अलग इन्डिव्हीज्युअल पर्सन (समाज का अन्यों से कटा हुआ घटक) बना देता है। इससे एक ओर तो स्त्री अपने को शारीरिक दृष्टि से बराबर की नहीं होने पर भी पुरुषों के बराबरी की समझने लग जाती है और अपने को खतरनाक स्थिति में झोंक देती है। तो दूसरी ओर अत्याचारी पुरुष को भी अत्याचार का अवसर मिल जाता है। जब अत्याचार का प्रसंग आता है तब कहीं स्त्री को यह भान होता है की वह पुरुष नहीं है, वह एक स्त्री है। वर्तमान लोकतंत्र के कारण और जीवन के अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान के कारण भी समाज में अमर्याद स्वतंत्रता का पुरस्कार होता है। अपने अधिकारों की गुहार लगाई जाती है। अपने लिए तो सभी प्रकार की स्वतंत्रता का अधिकार माना जाता है लेकिन औरों के कर्तव्यों तथा औरों की सुसंस्कृतता के ऊपर प्रश्नचिन्ह खड़े किये जाते हैं। एक बार चुनाव में व्होट डाल दिया कि फिर अपनी अब कोई जिम्मेदारी नहीं है ऐसा सब मानते हैं। परिवारों को, माता पिताओं को, शिक्षकों को अब कुछ करने की आवश्यकता नहीं है। सरकार ही सब कुछ करेगी ऐसी भावना समाज में व्याप्त हो जाती है। सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक समस्या का हल शासकीय दंड व्यवस्था में ढूंढा जाता है।
 
# वर्तमान लोकतंत्र : वर्तमान लोकतंत्र भी सामाजिकता को विघटित कर हर व्यक्ति को एक अलग इन्डिव्हीज्युअल पर्सन (समाज का अन्यों से कटा हुआ घटक) बना देता है। इससे एक ओर तो स्त्री अपने को शारीरिक दृष्टि से बराबर की नहीं होने पर भी पुरुषों के बराबरी की समझने लग जाती है और अपने को खतरनाक स्थिति में झोंक देती है। तो दूसरी ओर अत्याचारी पुरुष को भी अत्याचार का अवसर मिल जाता है। जब अत्याचार का प्रसंग आता है तब कहीं स्त्री को यह भान होता है की वह पुरुष नहीं है, वह एक स्त्री है। वर्तमान लोकतंत्र के कारण और जीवन के अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान के कारण भी समाज में अमर्याद स्वतंत्रता का पुरस्कार होता है। अपने अधिकारों की गुहार लगाई जाती है। अपने लिए तो सभी प्रकार की स्वतंत्रता का अधिकार माना जाता है लेकिन औरों के कर्तव्यों तथा औरों की सुसंस्कृतता के ऊपर प्रश्नचिन्ह खड़े किये जाते हैं। एक बार चुनाव में व्होट डाल दिया कि फिर अपनी अब कोई जिम्मेदारी नहीं है ऐसा सब मानते हैं। परिवारों को, माता पिताओं को, शिक्षकों को अब कुछ करने की आवश्यकता नहीं है। सरकार ही सब कुछ करेगी ऐसी भावना समाज में व्याप्त हो जाती है। सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक समस्या का हल शासकीय दंड व्यवस्था में ढूंढा जाता है।
 
# विपरीत शिक्षा : विपरीत शिक्षा भी उपर्युक्त अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान और घटिया लोकतंत्र का पृष्ठपोषण ही करती है। यह शिक्षा मनुष्य को अधिकारों के प्रति एकदम सचेत कर देती है। यह बड़ा सरल होता है। स्वार्थ का व्यवहार सिखाने के लिए शिक्षा की आवश्यकता नहीं होती। यह तो जन्मजात भावना होती है। बच्चा तो जन्म से ही अपने अधिकारों को ही समझता है। अधिकारों के लिए लड़ना, रोना, चिल्लाना उसे सिखाना नहीं पड़ता। लेकिन कर्तव्यों के प्रति सचेत बनने के लिए बहुत श्रेष्ठ शिक्षा की आवश्यकता होती है। वर्तमान शिक्षा इस दृष्टि से केवल अक्षम ही नहीं विपरीत दिशा में ले जानेवाली है।
 
# विपरीत शिक्षा : विपरीत शिक्षा भी उपर्युक्त अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान और घटिया लोकतंत्र का पृष्ठपोषण ही करती है। यह शिक्षा मनुष्य को अधिकारों के प्रति एकदम सचेत कर देती है। यह बड़ा सरल होता है। स्वार्थ का व्यवहार सिखाने के लिए शिक्षा की आवश्यकता नहीं होती। यह तो जन्मजात भावना होती है। बच्चा तो जन्म से ही अपने अधिकारों को ही समझता है। अधिकारों के लिए लड़ना, रोना, चिल्लाना उसे सिखाना नहीं पड़ता। लेकिन कर्तव्यों के प्रति सचेत बनने के लिए बहुत श्रेष्ठ शिक्षा की आवश्यकता होती है। वर्तमान शिक्षा इस दृष्टि से केवल अक्षम ही नहीं विपरीत दिशा में ले जानेवाली है।

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