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=== सुफला एकादशी व्रत ===
 
=== सुफला एकादशी व्रत ===
यह व्रत पौष कृष्ण पक्ष एकादशी को रखा जाता है। इस दिन भगवान अच्युत को पूजा का विशेष विधान है। इस व्रत को धारण करने वाले को चाहिये कि प्रातः स्नान करके भगवान की आरटी करें और भोग लगायें। ब्राह्मणों और गरीबों को भोजन अथवा दान देना चाहिये। रात्रि में जागरण करते हुए कीर्तन पाठ करना अत्यन्त फलदायी होता है, इस व्रत को करने से सम्पूर्ण कार्यों में अवश्य ही सफलता मिलती है, अतएव इसका नाम सुफला एकादशी है ।
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यह व्रत पौष कृष्ण पक्ष एकादशी को रखा जाता है। इस दिन भगवान अच्युत को पूजा का विशेष विधान है। इस व्रत को धारण करने वाले को चाहिये कि प्रातः स्नान करके भगवान की आरटी करें और भोग लगायें। ब्राह्मणों और गरीबों को भोजन अथवा दान देना चाहिये। रात्रि में जागरण करते हुए कीर्तन पाठ करना अत्यन्त फलदायी होता है, इस व्रत को करने से सम्पूर्ण कार्यों में अवश्य ही सफलता मिलती है, अतएव इसका नाम सुफला एकादशी है ।  
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व्रत कथा-
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चम्पावती नगरी में महिष्मति नामक राजा राज्य करता था। उस महिष्मति राजा के चार पुत्र थे। उनमें सबसे बड़ा पुत्र महापापी था। पराई स्त्रियों से रमण करता, सदैव वैश्याओं के संग रहता था। इस प्रकार उस दुष्ट ने पिता का सब धन नष्ट कर दिया। वह नित्य ही बुरे कर्मों में लगा रहता तथा ब्राह्मण, वैष्णव और देवताओं की निंदा किया करता था। तब राजा महिष्मति ने अपने लुम्पक नामक पुत्र को ऐसा कुकुर्मी देखकर राज्य से निकाल दिया। राजा के भय से उसका सभी भाई-बन्धुओं ने परित्याग कर दिया। तब वह लुम्पक अपने मन में विचार करने लगा-भाई-बन्धुओं ने तो मुझको त्याग दिया अब मेरा क्या कर्त्तव्य है। इस प्रकार उसने सोचकर उस नगरी को त्याग देने का निश्चय किया। इस प्रकार दिन में वन में रहकर रात्रि में नगर में आकर चोरी करूंगा। ऐसा विचार कर वह लुम्पक सदैव के लिये नगरी को त्यागकर वन में चला गया। वह पापात्मा नित्य ही वनचरों की हत्या करता और रात में चोरी करता। नगर के लोग कभी उसको पकड़ भी लेते तो राजा का पुत्र होने के कारण उसको छोड़ देते।
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इस प्रकार वह पथभ्रष्ट होकर नित्य ही मांसभक्षण कर केवल फलों को खाया करता, परन्तु उस दुष्ट का आश्रम भगवान को अत्यन्त प्रिय था क्योंकि वहां पर एक बहुत पुराना पीपल का वृक्ष था, उस महावन में यह वृक्ष देवता के समान हो गया था। उसी स्थान में वह पापबुद्धि लुम्पक कुछ काल तक रहता रहा और पाप के कर्म करता रहा। एक समय इस प्रकार उसको वहां पर पौष कृष्ण एकादशी का दिन आ गया। वह वस्त्र न होने के कारण पीपल के समीप आकर इतना दु:खी हुआ कि वह मूर्छित हो गया और सारी रात शीत के मारे वह ठिठुर गया और मृतक के समान हो गया, सूर्य के उदय होने तक उसमें कुछ भी चैतन्यता नहीं आई। तब एकादशी के दिन दोपहर के समय कुछ चेतना आने पर वह उठकर धीरे-धीरे चलता हुआ कुछ चलने पर शक्ति न होने के कारण गिर गया विलाप करता हुआ कहने लगा-"ना जाने कब क्या होगा?" शक्ति ना रहने के कारण वह अब जीव हत्या भी नहीं कर सकता था। सारी रात भूख और प्यास से व्याकुल हो जागता रहा इस प्रकार अकस्मात् ही उससे एकादशी का व्रत हो गया और पीड़ा के मारे ना सोने से सारी रात जागरण भी हो गया और उसके पुण्य का अंकुर उदयहो गया।
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सूर्य के उदय होने पर एक दिव्य अश्व लुम्पक के आगे आकर खड़ा हो गया और उसी समय आकाशवाणी हुई-“हे राजपुत्र! भगवान वासुदेव की कृपा तथा सुफला एकादशी के व्रत के प्रभाव से तुम्हारा राज्य निष्कंटक हो गया, अब तुम अपने माता-पिता के पास जाओ। निष्कंटक राज्य भोगो।" ऐसी आकाशवाणी सुनकर उसने तथास्तु कहा तो वह दिव्य देहधारी हो गया। तब उसने आभूषणों से युक्त होकर घर जाकर पिता को नमस्कार किया। तब उसके पिता ने उसका राज्याभिषेक किया और उसने बहुत वर्षों तक
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