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| इस प्रकार वह पथभ्रष्ट होकर नित्य ही मांसभक्षण कर केवल फलों को खाया करता, परन्तु उस दुष्ट का आश्रम भगवान को अत्यन्त प्रिय था क्योंकि वहां पर एक बहुत पुराना पीपल का वृक्ष था, उस महावन में यह वृक्ष देवता के समान हो गया था। उसी स्थान में वह पापबुद्धि लुम्पक कुछ काल तक रहता रहा और पाप के कर्म करता रहा। एक समय इस प्रकार उसको वहां पर पौष कृष्ण एकादशी का दिन आ गया। वह वस्त्र न होने के कारण पीपल के समीप आकर इतना दु:खी हुआ कि वह मूर्छित हो गया और सारी रात शीत के मारे वह ठिठुर गया और मृतक के समान हो गया, सूर्य के उदय होने तक उसमें कुछ भी चैतन्यता नहीं आई। तब एकादशी के दिन दोपहर के समय कुछ चेतना आने पर वह उठकर धीरे-धीरे चलता हुआ कुछ चलने पर शक्ति न होने के कारण गिर गया विलाप करता हुआ कहने लगा-"ना जाने कब क्या होगा?" शक्ति ना रहने के कारण वह अब जीव हत्या भी नहीं कर सकता था। सारी रात भूख और प्यास से व्याकुल हो जागता रहा इस प्रकार अकस्मात् ही उससे एकादशी का व्रत हो गया और पीड़ा के मारे ना सोने से सारी रात जागरण भी हो गया और उसके पुण्य का अंकुर उदयहो गया। | | इस प्रकार वह पथभ्रष्ट होकर नित्य ही मांसभक्षण कर केवल फलों को खाया करता, परन्तु उस दुष्ट का आश्रम भगवान को अत्यन्त प्रिय था क्योंकि वहां पर एक बहुत पुराना पीपल का वृक्ष था, उस महावन में यह वृक्ष देवता के समान हो गया था। उसी स्थान में वह पापबुद्धि लुम्पक कुछ काल तक रहता रहा और पाप के कर्म करता रहा। एक समय इस प्रकार उसको वहां पर पौष कृष्ण एकादशी का दिन आ गया। वह वस्त्र न होने के कारण पीपल के समीप आकर इतना दु:खी हुआ कि वह मूर्छित हो गया और सारी रात शीत के मारे वह ठिठुर गया और मृतक के समान हो गया, सूर्य के उदय होने तक उसमें कुछ भी चैतन्यता नहीं आई। तब एकादशी के दिन दोपहर के समय कुछ चेतना आने पर वह उठकर धीरे-धीरे चलता हुआ कुछ चलने पर शक्ति न होने के कारण गिर गया विलाप करता हुआ कहने लगा-"ना जाने कब क्या होगा?" शक्ति ना रहने के कारण वह अब जीव हत्या भी नहीं कर सकता था। सारी रात भूख और प्यास से व्याकुल हो जागता रहा इस प्रकार अकस्मात् ही उससे एकादशी का व्रत हो गया और पीड़ा के मारे ना सोने से सारी रात जागरण भी हो गया और उसके पुण्य का अंकुर उदयहो गया। |
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− | सूर्य के उदय होने पर एक दिव्य अश्व लुम्पक के आगे आकर खड़ा हो गया और उसी समय आकाशवाणी हुई-“हे राजपुत्र! भगवान वासुदेव की कृपा तथा सुफला एकादशी के व्रत के प्रभाव से तुम्हारा राज्य निष्कंटक हो गया, अब तुम अपने माता-पिता के पास जाओ। निष्कंटक राज्य भोगो।" ऐसी आकाशवाणी सुनकर उसने तथास्तु कहा तो वह दिव्य देहधारी हो गया। तब उसने आभूषणों से युक्त होकर घर जाकर पिता को नमस्कार किया। तब उसके पिता ने उसका राज्याभिषेक किया और उसने बहुत वर्षों तक | + | सूर्य के उदय होने पर एक दिव्य अश्व लुम्पक के आगे आकर खड़ा हो गया और उसी समय आकाशवाणी हुई-“हे राजपुत्र! भगवान वासुदेव की कृपा तथा सुफला एकादशी के व्रत के प्रभाव से तुम्हारा राज्य निष्कंटक हो गया, अब तुम अपने माता-पिता के पास जाओ। निष्कंटक राज्य भोगो।" ऐसी आकाशवाणी सुनकर उसने तथास्तु कहा तो वह दिव्य देहधारी हो गया। तब उसने आभूषणों से युक्त होकर घर जाकर पिता को नमस्कार किया। तब उसके पिता ने उसका राज्याभिषेक किया और उसने बहुत वर्षों तक निष्कंटक राज्य किया। इसके पश्चात् वृद्धावस्था होने पर भगवान विष्णु की भक्ति में परायण होकर अपनी स्त्री सहित वन को चला गया और अपनी आत्मा को पवित्र करके भगवान के बैकुण्ठ लोक को चला गया। सुफला एकादशी का माहात्म्य अश्वमेघ यज्ञ से भी बहुत बढ़कर है। |
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| + | === पुत्रदा एकादशी === |
| + | यह व्रत पौष शुक्ल पक्ष की एकादशी को किया जाता है। इस दिन भगवान विष्णु की पूजा का विधान है। इस व्रत को करने से सन्तान की प्राप्ति होती है। |
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| + | ==== व्रत कथा- ==== |
| + | पूर्व काल की बात है भगवती नाम वाली एक नगरी थी और उसमें सुकेतु नाम वाला राजा राज्य करता था। उस राजा को सब प्रकार के सुख प्राप्त थे परन्तु वह राजा सन्तानहीन था। उसने सन्तान हेतु बहुत से यज्ञ, दान और तप किए, परन्तु उसके सन्तान नहीं हुई। इस प्रकार राजा बहुत चिन्तित रहा करता था। वह अपनी स्त्री के सहित बहुत ही दुःखी रहता था। एक समय राजा घोड़े पर चढ़कर शिकार खेलने के लिये गया। राजा के पुरोहित तथा दूसरे लोगों को इसका कुछ पता नहीं था। तब राजा ने घूमते-घूमते एक बड़े भारी वन में प्रवेश किया। इसमें राजा को दोपहर हो गई और वह भूख और प्यास से अति दुःखित हो गया। इधर-उधर भटकते राजा ने एक सुन्दर सरोवर देखा। सरोवर के पास राजा को बहुत से कांतिमान महात्माओं के दर्शन हुए, राजा ने उनकी पृथक्व न्दना की। उसी समय मना की दाहिनी भुजा और दूसरे अंग फड़कने लगे और राजा ने भी इनको शुभ सूचना समझा। राजा ने तपस्वियों को हाथ जोड़कर प्रणाम किया। ऋषि कहने लगे-“हे राजन! तुम्हारी क्या इच्छा है, सो कहिये।" राजा बोला-“हे तपस्वियों, आप कौन हैं तथा आपके क्या नाम हैं? कृपा कर मुझे |
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| + | बताइये।" |
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| + | ऋषि बोले-"हे राजन! हम विश्वदेवा हैं, और यहां पर स्नान करते हैं। राजन, आज से पांचवें दिन माघ लग जायेगा और आज पौष शुक्ल पक्ष की एकादशी है, जिसका नाम पुत्रदा एकादशी है। यह पुत्र की इच्छा रखने वाले मनुष्यों को पुत्र देने वाली है। राजा कहने लगे-"महाराज, मुझको पुत्र के उत्पन्न होने में बड़ा सन्देह है। यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे पुत्र दीजिये।" मुनि बोले-"राजन! आज के ही दिन अतिविख्यात पुत्रदा एकादशी है, तुम की प्राप्ति होगी।" इसका व्रत करो। हमारे आशीर्वाद तथा भगवान के प्रसाद से तुमको अवश्य ही पुत्र इस प्रकार मुनिश्वर के वचनों को सुनकर राजा बोला-"हे भगवन! मैं धन्य हूं जो आपके दर्शन हुए। मैं आपको आज्ञानुसार पुत्रदा एकादशी का व्रत अवश्य करूँगा | |
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| + | राजा ने मुनियों के कहे अनुसार व्रत किया और व्रत का पालन करके राजा ने बारम्बार मुनिश्वर को प्रणाम किया और फिर राजा अपने घर वापिस आ गया। उसी दिन रानी को गर्भ की स्थिति हो गई और समय पर बड़ा तेजस्वी और पुण्य कर्म करने वाला पुत्र उत्पन्न हुआ। वह पिता को सन्तुष्ट और प्रजा के पालन में सदैव तैयार रहता था। जो मनुष्य पुत्रदा एकादशी का व्रत करते हैं, वे पुत्र का सुख भोगकर मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं। |
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| + | === प्रदोष व्रत === |
| + | पौष मास की कृष्ण पक्ष अथवा शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी को प्रदोष व्रत करना चाहिये। विधि दोनों की एक ही है। व्रती मनुष्य प्रात:काल ब्रह्ममुहूर्त में उठकर शौच स्नानादि से निवृत होकर अपना नित्य नियम करने के पश्चात् भगवान शिव का षोडशोपचार विधि से पूजन करें और फिर तीसरे पहर भोजन करें। भोजन में सात्विक पदार्थ हो या तामसी हो, रात्रि को जागरण-कीर्तन करें, दूसरे दिन अर्थात् चतुर्दर्शी को व्रत का पालन कर प्रदोष के दिन जो कोई इस व्रत को करत है तथा भगवान शिव की पूजा करता है। उसके सब मनवांछित कार्य सिद्ध हो जाते हैं और अन्त में शिवलोक को प्राप्त हो जाता है। |