Papa and Punya (पाप एवं पुण्य)

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भारतीय सनातन धर्म में नैतिक चिन्तन्त के अंतर्गत वेद, ब्राह्मणग्रन्थ, उपनिषद् ,धर्मसूत्र, स्मृतिग्रन्थ, रामायण, महाभारत गीता आदि ग्रन्थों में नैतिक सद्गुणों तथा कर्त्तव्यों का वर्णन किया गया है। उन कर्त्तव्यों के अनुरूप आचरण करने को पुण्य कहा गया है। एवं शास्त्रविहित कर्म को न करना तथा शास्त्र विरुद्ध कर्म का आचरण करना पाप है। भारतीय चिन्तन में पुण्य-पाप के विचार के सन्दर्भमें सामाजिक दृष्टि प्रमुख है। शास्त्रमें पाप और पुण्य की परिभाषा के लिये कहा है-

श्लोकार्थेन प्रवक्ष्यामि यदुक्तं ग्रन्थकोटिभिः। परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् ॥(सुभाषितानि)[1]

अर्थात् परोपकार से बढकर कोई पुण्य नहीं है एवं दूसरों को पीडा देने से बढकर कोई पाप नहीं है।

परिचय

वह कर्म जिसका फल इस लोक और परलोक में सुख देने वाला हो उसको पुण्य कहा गया है एवं वह आचरण जो कर्ता को अशुभ अदृष्ट कष्ट उत्पन्न करे कर्ता का अधः पतन होने लगे जिसके करने से उसको पाप कहा गया है। जिस प्रकार न करने योग्य कर्म को करना पाप कहा गया है उसी प्रकार अवश्य करने योग्य कर्म को न करना भी पाप ही कहा जाता है। जो व्यक्ति पाप(अशुभ कर्म) को कर्ता है उसके साथ संबंध रखने वाला व्यक्ति भी पाप का भागीदार कहलाता है। अशुभ कर्म से बचना चाहिये। यदि कदाचित् पाप हो भी जायें तो शास्त्र के अनुसार उनका प्रायश्चित्त करना चाहिये। पाप का प्रायश्चित्त(पश्चात्ताप) एवं पाप का भोग ये दो ही पाप से छुटकारा पाने के कारण कहे गये हैं पाप से।

मानव आचरण का मूल्यांकन नैतिक गुणों के आधार पर किया जाता है। नैतिक गुणों में उचित-अनुचित, शुभ-अशुभ, धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य का विवेचन किया जाता है। मनुष्य के कौन-से कर्म शुभ या अशुभ, पाप कर्म या पुण्य कर्म हैं आदि का विवेचन शास्त्रों में किया गया है।

परिभाषा

पुनाति वा पवित्रीकरोति आत्मानमिति पुण्यम्।

जिसके द्वारा आत्मिक बलमें उत्थान हो, आत्मा पवित्र हो उसे पुण्य कहते हैं।

पुण्य का भावात्मक रूप- सरलता, विनम्रता, करुणा आदि पुण्य के भावात्मक रूप कहे गये हैं।

पुण्य का क्रियात्मक रूप- दान, दया, सेवा और स्वाध्याय आदि पुण्यके क्रियात्मक रूप हैं।


आचार्य यास्क निरुक्तमें पाप का निर्वचन इस प्रकार करते हैं-

पापः पाताऽपेयानाम् पापत्यमानोऽवाङेव पततीति वा, पापत्यतेर्वा स्यात्।(निरुक्त)[2]

वह अपेय अर्थात् न पीने योग्य पदार्थों का पान करने वाला होता है, अथवा (पापत्यमान) उसी पाप कर्म से वह पुनः पुनःगिराया जाता हुआ (अवाङेव पततीति वा) वह नीचे ही नीचे नरक में गिरता जाता है। अथवा जिससे बार-बार गिरता है उसे पाप कहते हैं।

पातयति आत्मानं इति पापम्।

जिस प्रवृत्ति के द्वारा आत्मा का पतन हो, अहित हो वह पाप कहलाता है। स्वामी दयानन्द जी पाप की परिभाषा करते हुये लिखते हैं कि-

पान्ति रक्षन्ति आत्मानमस्मादिति पापम् अधर्मो वा।

जिससे दूर रहकर आत्मा की रक्षा की जाती है, आत्मा को जिससे बचाकर रखा जाता है, वह पाप है, अधर्म है। इस प्रकार शास्त्रों में आचार्यों ने पाप एवं पुण्य की अनेकों परिभाषायें दी हैं।

पुण्यके पर्यायवाची शब्द- पवित्र, पावन, शुभकर्म, मंगलदायक कर्म, उत्तम कर्म आदि।

पापके पर्यायवाची शब्द- वैदिक वांगमयमें पाप एवं पुण्य के लिये अनेक शब्दों का प्रयोग प्राप्त होता है। जैसे- पापी, पाप्मा, पापम् , पङ्क, किल्विषम् , कल्मषम् , कलुषम् , वृजिनम् , एनः, अघः, अंह, दुरितम् , दुष्कृतम् , क्रूरम् , अनृतम् , आगः, अपह्नवः, कुटिलम् आदि।

शास्त्रों में पाप और पुण्य की अवधारणा

सामान्यतः पाप एक ऐसा कार्य जो ईश्वर

वेदों में प्राणी जिस कर्म के फल को अनुकूल मानता है वह पुण्य और जिनके फल को प्रतिकूल समझता है वह पाप हैं। इस प्रकार हम निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि पाप-पुण्य की अवधारणा का वर्तमान नैतिक मूल्यों में महत्त्वपूर्ण योगदान है। मनुष्य यदि पुण्य को अपने जीवनमें अपनाता है तो उसे उसका अच्छा परिणाम होता है एवं पुण्य उसके सामने आकर उसे उसका परिणाम प्राप्त कराता है। यदि मनुष्य पापपूर्ण जीवन व्यतीत करता है तो उसे उसका गलत परिणाम प्राप्त होता है एवं गलत कर्म का गलत परिणाम भुगतना पडता है। इसलिये महाभारता के शान्तिपर्वमें कहा गया है-

पापकर्म कृतं किञ्चिद्यदि तस्मिन्न दृश्यते। नृपते तस्य पुत्रेषु पौत्रेष्वपि च नप्तृषु॥

शान्तिपर्व में भीष्म युधिष्ठिर से कहते हैं कि- किसी आदमी को उसके पाप कर्मों का फल उस समय मिलता हुआ नहीं दिखता है तो वह उसे ही नहीं बल्कि उसके पौत्रों एवं प्रपौत्रों तक को भोगना पडता है।

पुण्य व पाप का

पाप की प्रवृत्ति सकाम होती है क्योंकि पाप के साथ भोगों की कामना बनी रहती है।

पुण्य की प्रवृत्ति दो प्रकार की होती है-

  1. सकाम पुण्य- जिस शुभ प्रवृत्ति से सांसारिक फल की प्राप्ति होती है, वह सकाम पुण्य है।
  2. निष्काम पुण्य- जिस शुभ प्रवृत्ति में फल प्राप्ति की कामना नहीं होती है, वह निष्काम पुण्य कहलाता है।

शास्त्रों में वर्णित पापकर्म एवं पुण्यकर्म

गर्भपात- ब्रह्महत्या का पाप बहुत बडा पाप माना गया है किन्तु गर्भपात करवाना इससे भी बडा पाप है। महर्षि का कहना है जो पाप ब्रह्महत्या से लगता है उससे दोगुना पाप गर्भपात से लगता है। ब्रह्महत्या से लगने वाले पाप का तो निराकरण है किन्तु गर्भपात रूपी महापाप का कोई प्रायश्चित्त प्रायश्चित्त नहीं है।

पुण्य

पुण्य का स्वरूप एवं तत्त्व

आत्मा जिसके द्वारा पवित्र होती है वह पुण्य है।

पुण्यकर्म

कर्म दो प्रकार के हैं- शुभ एवं अशुभ।

  • शुभ कर्म- शुभ कर्म वे हैं जो जीव के लिये हितकर, कल्याणकारी आत्मा को पवित्र करने वाले हों। इन्हें ही पुण्यकर्म कहा गया है।
  • अशुभ कर्म- अशुभ कर्म वे हैं जो आत्मा का पतन करने वाले हैं। इन्हें पाप कर्म कहा जाता है।

पुण्य से लाभ

  • पुण्य से आत्मा पवित्र होती है। पुण्य मुक्ति में सहायक है।
  • सबसे बडा पुण्य बुराई से बचना माना गया है। अर्थात् अपने राग, द्वेष आदि ऐसे दोषों का अथवा बुराईयों का त्याग करना, दूसरों का बुरा न चाहना, बुरा न कहना, बुराई न करना सबसे बडा पुण्य है।
  • पुण्य की वृद्धि पाप नहीं करने से होती है जैसे किसी का बुरा न चाहना, बुरा न सोचना, बुरा न करना, बुरा न मानना,

पुण्य के विभिन्न रूप

पुण्य का स्वरूप एवं तत्त्व

  1. भावात्मक पुण्यतत्त्व
  2. क्रियात्मक पुण्यतत्त्व

पाप

पाप का स्वरूप एवं तत्त्व

  1. मानस पाप- १ छल-कपट से दूसरे के धन को हडप लेने की लालसा रखना, २ दूसरे का अमंगल हो ऐसी इच्छा रखना, ३ असत्य विचारों को मानना- ये तीनों मानस पाप कहे गये हैं।
  2. वाचिक पाप- १ कठोर या परुष वचन, २ असत्य बोलना, ३ चुगलखोरी करना, ४ असंगत वाचालता- ये चारों वाचिक पाप हैं।
  3. शारीरिक पाप- १ बिना सहमति के किसी की संपत्ति को हथियाना, २ चेतन प्राणियों की हिंसा,३ परस्त्री गमन ये तीनों शारीरिक पाप कहे गये हैं।

पाप कर्म

पाप से हानि

पापों के शमन के लिये प्रायश्चित्त

दुष्कर्म करने वाले मनुष्य को प्रकृति के भय के कारण अपने गलत कृत्य के प्रति पश्चाताप का अनुभव हुआ। यही पश्चाताप प्रायश्चित्त के रूपमें विकसित हुआ। प्रायश्चित्त भारतीय संस्कृति का महत्त्वपूर्ण विशेषता है। वैदिककाल से ही प्रायश्चित्त की अवधारणा देखी गयी है। वेद, धर्मशास्त्र, पुराण आदि शास्त्रों में प्रायश्चित्त सम्बन्धी बातें विद्यमान है। समाज तथा मनुष्य को पूर्ण विकसित करने के लिये दण्ड तथा प्रायश्चित्त विधियों का विकास हुआ। प्रायश्चित्त के अनुसार मनुष्य अपने द्वारा किये गये गलत कार्य के प्रति मनमें पश्चाताप का अनुभव करता है। अंगिरा के अनुसार प्रायश्चित्त का शाब्दिक अर्थ-

प्रायो नाम तपः प्रोक्तं चितं निश्चय उच्यते। तपोनिश्चयसंयोगात् प्रायश्चित्तमितिस्मृतम् ॥

अर्थ- प्राय को तप तथा चित् को निश्चय कहा गया है। तप और निश्चय का संयोग ही प्रायश्चित्त कहा जाता है।

  • प्रायश्चित मन को निर्मल कर देता है। प्रायश्चित मानसिक स्तर की व्यवस्था है।

नित्य, नैमित्तिक आदि विहित कर्मों को न करने से तथा सुरापान आदु निषिद्ध कर्म करनेसे और इन्द्रियों का निग्रह न करने से मनुष्य पतित हो जाता है। इसलिये मनुष्य को शुद्धि के लिये प्रायश्चित्त करना चाहिये।

पापों की निवृत्ति के लिये प्रायश्चित्त रूप में जप, तप, हवन, दान, उपवास, तीर्थयात्रा, आदि करने का विधान है।

प्राचीन साहित्यमें कर्म के नैतिक सन्दर्भ का स्पष्ट अंकन हमें बृहदारण्यक उपनिषद् में मिलता है-

यथाचारी यथाचारी तथा भवति, साधुकारी साधुर्भवति। पापकारी पापो भवति, पुण्यं पुण्येन भवति पापः पापेन। अथो खल्वाहु काममय एवायं पुरुष इति स यथाकामो भवति तत्कृतर्भवति यत्कुतुर्भवति तत् कर्म कुरुते, यत्कर्म कुरुते तदभि सम्पद्यते॥(बृह०उप०)[3]

इसका तात्पर्य यह है कि जो जैसा करने वाला है, जैसा आचरण करने वाला है, वह वैसा आचरण वाला होता है। वह वैसा ही हो जाता है। शुभ कर्म करने वाला शुभ होता है। पाप कर्म करने वाला पापी होता है। पुरुष पुण्य कर्म से पुण्यात्मा होता है और पाप कर्म से पापी होता है।

निष्कर्ष

उद्धरण

  1. सुभाषितानि, संस्कृत, श्लोक- ७७।
  2. निरुक्तम् , अध्याय-५, खण्ड-२।
  3. बृहदारण्यक उपनिषद् , अध्याय-४, ब्राह्मण-४, कण्डिका-४।