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==पंचतंत्र में सामाजिक व्यवस्था==
 
==पंचतंत्र में सामाजिक व्यवस्था==
भारतीय समाज को योजनाबद्ध व्यवस्थित और सुसंगठित सामाजिक संस्थाओं (वर्णव्यवस्था, वर्णाश्रम-व्यवस्था, संस्कार) के द्वारा संतुलित किया गया है। इन सामाजिक संस्थाओं का विकास उस समय भारतीय समाज को सुनियोजित कर रहा था।<ref>https://shodhganga.inflibnet.ac.in/bitstream/10603/431831/7/07_chapter3.pdf</ref>
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पञ्चतन्त्र की कथाओं में भारतीय समाज का पूरा प्रतिबिम्ब झलकता है। इन कथाओं के माध्यम से भारतीय जनसामान्य जीवन की ऐसी अनेक झांकियाँ मिलती हैं। पञ्चतन्त्र की कथा यद्यपि आकार में लघुकाय है, फिर भी उनमें व्यापक परिवेश समाहित है। भारतीय समाज को योजनाबद्ध व्यवस्थित और सुसंगठित सामाजिक संस्थाओं (वर्णव्यवस्था, वर्णाश्रम-व्यवस्था, संस्कार) के द्वारा संतुलित किया गया है। इन सामाजिक संस्थाओं का विकास उस समय भारतीय समाज को सुनियोजित कर रहा था।<ref>https://shodhganga.inflibnet.ac.in/bitstream/10603/431831/7/07_chapter3.pdf</ref> वर्णव्यवस्था, आश्रम व्यवस्था, जन-जीवन, ग्रामीण-नगरीय व्यवस्था, कृषि व्यापार एवं यातायात आदि विषयों का विशद वर्णन किया गया है।
    
== पंचतंत्र में राजनीतिक व्यवस्था==
 
== पंचतंत्र में राजनीतिक व्यवस्था==
 
किसी भी देश समाज की राजनीति वहाँ के लोगों के सम्पूर्ण जीवन को प्रभावित करती है। यथा राजा तथा प्रजा जैसी अनेक उक्तियाँ प्रख्यात है। प्रजा को राजा का अनुगमन करना पडता है। अतीत का सम्पूर्ण इतिहास तथा प्रत्येक व्यक्ति का जीवन क्रम में इस बात को प्रमाणित करता है कि जिस प्रकार के विचार धर्म, नीति से सम्बद्ध शासक होता है। प्रजा को उसके अनुकूल ढलना ही पडता है। उसके विपरीत आचरण करने वालों को उसके शासन में संकुचित होकर रहना पडता है। पञ्चतन्त्र का काल पूर्णरूप से राजतन्त्र का काल था। अतः पञ्चतन्त्र में राजा के महत्व पर विशेष बल दिया गया है। यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि बिना शासक के प्रजा की स्थिति बिना नाविक के सागर में फँसी नाव की तरह होती है -<ref>शोधगंगा-विनोद कुमार सिंह, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/bitstream/10603/431831/8/08_chapter4.pdf पञ्चतन्त्र में निहित सांस्कृतिक एवं आयुर्वेदीय तत्वों का अध्ययन], सन् २०२१, शोधकेन्द्र-काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी (पृ० १५५)।</ref> <blockquote>यदि न स्यान्नरपतिः सम्यङ्नेता ततः प्रजा। अकर्णधारा जलधौ विप्लवेतेह नौरिव॥ (पञ्चतन्त्र, काकोलूकीय, १/७२)</blockquote>इस प्रकार पञ्चतन्त्र के सर्वांगीण समीक्षण से यह स्पष्ट होता है कि इसमें राजनीतिक तत्त्वों का समावेश पूर्णरूपेण हुआ है, जो एक सुव्यवस्थित राज्य, कुशल प्रशासक तथा योग्य प्रजा के लिए अत्यन्त उपयुक्त है।<ref>शोध गंगा-विनोद कुमार सिंह, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/431831 पञ्चतन्त्र में निहित सांस्कृतिक एवं आयुर्वेदीय तत्वो का अध्ययन], सन् २०२१, शोध केन्द्र - काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, (पृ० १३६)।</ref>  
 
किसी भी देश समाज की राजनीति वहाँ के लोगों के सम्पूर्ण जीवन को प्रभावित करती है। यथा राजा तथा प्रजा जैसी अनेक उक्तियाँ प्रख्यात है। प्रजा को राजा का अनुगमन करना पडता है। अतीत का सम्पूर्ण इतिहास तथा प्रत्येक व्यक्ति का जीवन क्रम में इस बात को प्रमाणित करता है कि जिस प्रकार के विचार धर्म, नीति से सम्बद्ध शासक होता है। प्रजा को उसके अनुकूल ढलना ही पडता है। उसके विपरीत आचरण करने वालों को उसके शासन में संकुचित होकर रहना पडता है। पञ्चतन्त्र का काल पूर्णरूप से राजतन्त्र का काल था। अतः पञ्चतन्त्र में राजा के महत्व पर विशेष बल दिया गया है। यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि बिना शासक के प्रजा की स्थिति बिना नाविक के सागर में फँसी नाव की तरह होती है -<ref>शोधगंगा-विनोद कुमार सिंह, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/bitstream/10603/431831/8/08_chapter4.pdf पञ्चतन्त्र में निहित सांस्कृतिक एवं आयुर्वेदीय तत्वों का अध्ययन], सन् २०२१, शोधकेन्द्र-काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी (पृ० १५५)।</ref> <blockquote>यदि न स्यान्नरपतिः सम्यङ्नेता ततः प्रजा। अकर्णधारा जलधौ विप्लवेतेह नौरिव॥ (पञ्चतन्त्र, काकोलूकीय, १/७२)</blockquote>इस प्रकार पञ्चतन्त्र के सर्वांगीण समीक्षण से यह स्पष्ट होता है कि इसमें राजनीतिक तत्त्वों का समावेश पूर्णरूपेण हुआ है, जो एक सुव्यवस्थित राज्य, कुशल प्रशासक तथा योग्य प्रजा के लिए अत्यन्त उपयुक्त है।<ref>शोध गंगा-विनोद कुमार सिंह, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/431831 पञ्चतन्त्र में निहित सांस्कृतिक एवं आयुर्वेदीय तत्वो का अध्ययन], सन् २०२१, शोध केन्द्र - काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, (पृ० १३६)।</ref>  
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*'''राजधर्म -''' राजा-प्रजा ,  
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*'''राजधर्म -''' पञ्चतन्त्र में एक सार्वभौमिक सम्राट की कल्पना की गयी है। एक ही राजा समस्त पृथ्वी पर हित करने में समर्थ होता है। अनेक राजाओं के होने से परस्पर द्वेष होने के कारण प्रजा का उच्छेद हो जाता है। राज्य की स्थिरता, सम्पन्नता तथा प्रजा की रक्षा करने के लिए, जिन उपायों या नियमों का विधान किया है उसे ही राजधर्म संज्ञा से कहा गया है। जिसका पालन करके प्रत्येक राजा राज्य की उन्नति, प्रगति कर सकता है।
*'''कूटनीति या उपाय का महत्व -'''  
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*'''कूटनीति या उपाय का महत्व -''' आचार्य विष्णु शर्मा उपायों के महत्व को स्वीकार करते हुए उसका वर्णन करते हुए कहते हैं कि शक्ति का विकास, समृद्धि, शत्रु पर विजय प्राप्त करने के लिए उपायों का होना आवश्यक है अर्थात जिनके पास कूटनीति है वह स्वल्प शरीर वाला होते हुए भी वीरों द्वारा पराजित नहीं किया जा सकता है। राष्ट्रीय और अनतर्राष्ट्रीय शक्ति के विकास के लिए राजा के पास तीन माध्यम होना आवश्यक है - शक्ति, बल, उपाय या नीति।
*'''राष्ट्रीय और अनतर्राष्ट्रीय शक्ति के विकास के लिए राजा के पास तीन माध्यम होना आवश्यक है -'''
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#शक्ति
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*'''राज्य संरक्षण के उपाय -''' राज्य की एकता, अखण्डता एवं संप्रभुता की रक्षा के लिए निम्नलिखित नीतियाँ अपनायी जा सकती हैं - साम नीति, दाम नीति, भेद नीति, दण्ड नीति। अर्थात् विजिगीषु राजा को जहाँ तक सम्भव हो शत्रुओं को साम आदि चारों उपायों से अपने अधीन कर लेना चाहिए।
#बल
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#उपाय या नीति
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*'''राज्य संरक्षण के उपाय -''' साम नीति, दाम नीति, भेद नीति, दण्ड नीति
   
*'''षाड्गुण्य -''' संधि, विग्रह, आसन, यान, संश्रय, द्वैधी भाव इस प्रकार षाड्गुण्य के ये छः अंग बताये गये हैं। राजनीतिक स्थिति में षाड्गुण्य की नीति महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। दूसरे देश या दूसरे राज्यों के बीच आपसी सम्बन्धों को बनाये रखने के लिए षाड्गुण नीति अपनानी चाहिए।
 
*'''षाड्गुण्य -''' संधि, विग्रह, आसन, यान, संश्रय, द्वैधी भाव इस प्रकार षाड्गुण्य के ये छः अंग बताये गये हैं। राजनीतिक स्थिति में षाड्गुण्य की नीति महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। दूसरे देश या दूसरे राज्यों के बीच आपसी सम्बन्धों को बनाये रखने के लिए षाड्गुण नीति अपनानी चाहिए।
 
*'''अमात्य -''' पञ्चतन्त्र में राज्य हेतु योग्य अमात्यों को अत्यन्त आवश्यक बताया गया है। अमात्य वर्ग को अत्यन्त उच्च स्थान प्राप्त था एवं अमात्य को राज्य रूपी रथ की धुरी माना है।
 
*'''अमात्य -''' पञ्चतन्त्र में राज्य हेतु योग्य अमात्यों को अत्यन्त आवश्यक बताया गया है। अमात्य वर्ग को अत्यन्त उच्च स्थान प्राप्त था एवं अमात्य को राज्य रूपी रथ की धुरी माना है।
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इस प्रकार पञ्चतन्त्र के सर्वांगीण समीक्षण से यह स्पष्ट होता है कि इसमें राजनीतिक तत्वों का समावेश पूर्णरूपेण हुआ है, जो एक सुव्यवस्थित राज्य, कुशल प्रशासक तथा योग्य प्रजा के लिए अत्यन्त उपयुक्त है।
 
इस प्रकार पञ्चतन्त्र के सर्वांगीण समीक्षण से यह स्पष्ट होता है कि इसमें राजनीतिक तत्वों का समावेश पूर्णरूपेण हुआ है, जो एक सुव्यवस्थित राज्य, कुशल प्रशासक तथा योग्य प्रजा के लिए अत्यन्त उपयुक्त है।
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==पंचतंत्र में निहित सांस्कृतिक तत्व ==
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==पंचतंत्र में निहित सांस्कृतिक तत्व==
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संस्कार वैयक्तिक और जातीय होते हैं। इन्हीं जातीय संस्कारों की समाप्ति का नाम ही संस्कृति है। संस्कृति जीवन जीने की एक शैली है, जो किसी देश, प्रान्त और परिच्छेद का विशेष परिचायक है।
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'''पञ्चतन्त्र में पुरुषार्थ -'''
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'''संगीत -''' पञ्चतंत्रकार प्राचीन संगीत शास्त्र की सम्पूर्ण विद्याओं से परिचित थे। पंचतंत्र के काल के समय में लोगों की संगीत के प्रति विशेष अभिरुचि थी। संगीत शास्त्र का निदर्शन प्रथम तन्त्र से आरम्भ होकर पंचम तन्त्र तक दृष्टिगत होता है।
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'''खान-पान -''' वैदिक काल से ही पाकशास्त्र प्रसिद्ध है। भोजन निर्माणमें जो प्रक्रिया विधिपूर्वक अपनायी जाती है, उसे ही पाकशास्त्र के नाम से जाना जाता है। पञ्चतंत्र में खान-पान के अनेक विवरण प्राप्त होते हैं - मन्दविसर्पिणी मत्कुल कथा में राजा अनेक प्रकार के सुन्दर व्यंजनों का उपभोग करते थे। आचार्य विष्णुशर्मा षड्रस-युक्त होने की परिचर्या में लिखते हैं कि तत्कालीन व्यक्ति के भोजन में षड्रस विद्यमान था।
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'''अतिथि-सत्कार -''' अतिथि-सत्कार समाज का अभिन्न अंग है। वैदिक काल से ही यह परम्परा निर्बाध रूप से प्रवाहमान है। भारतीय संस्कृति में अतिथि सत्कार का बहुत महत्त्व है।  अतिथि धर्म का सम्यक् रूप से विवेचन पञ्चतन्त्र में मिलता है - मित्रभेद के 'उष्ट्र-काक-सिंह-द्वीपि-शृगालकथा' में क्रथनक नामक उष्ट्र, मदोत्कट नामक सिंह के पास आता है, यद्यपि क्रथनक उसका भोजन भी है, लेकिन मदोत्कट ने कहा तुम मेरे अतिथि हो और मेरे घर आये अतिथि को मैं मारता नहीं हूँ। क्योंकि घर आये अतिथि स्वरूप शत्रु को भी मारना नहीं चाहिए। यदि गृह आये हुए अतिथि पर किसी प्रकार का विपत्ति हो तो उसकी रक्षा प्राण देकर भी करना चाहिए।
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'''वृक्षपूजन -''' भारतीय संस्कृति में वृक्ष भी पूजनीय माने गये हैं। वृक्षों का पूजन अनादिकाल से चला आ रहा है। आचार्य विष्णुशर्मा कहते हैं कि वृक्ष हमें आश्रय देते हैं। धूप से निवृत्ति के लिए हम वृक्षों का आश्रय लेते हैं। वृक्ष के पत्ते तथा उनके फूलों का भी धार्मिक प्रयोग होता है। मित्रसम्प्राप्ति में व्याध वर्षा और शीत से बचने के लिए वृक्ष का ही आश्रय ग्रहण करता है।
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'''वस्त्राभूषण -''' पञ्चतन्त्र में विभिन्न वस्त्रों के उपयोग का वर्णन प्राप्त होता है। यदि कथा में गरीब पात्र है तो जीर्ण वस्त्रों का चित्रण किया गया है। कथा के प्रसंगों में अनुकूल वस्त्र भी दृष्टिगोचर होते हैं।
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इस प्रकार पञ्चतंत्र तत्कालीन भारतीय सामाजिक एवं सांस्कृतिक व्यवस्था का भली-भाँति विवेचन करता है। इन वर्णनों के माध्यम से कहा जा सकता है कि उस समय समाज एवं संस्कृति में गीत-संगीत, खान-पान, अतिथि-सत्कार, वृक्षपूजन, वस्त्राभूषण आदि का व्यवहार अपनी उन्नतदशा में था। पञ्चतंत्र की धार्मिक सहिष्णुता तो आज के समाज के लिए सर्वथा अनुकरणीय है।
    
==पञ्चतंत्रकार-आचार्य विष्णुशर्मा==
 
==पञ्चतंत्रकार-आचार्य विष्णुशर्मा==
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