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== संस्कार ==
 
== संस्कार ==
सनातन धर्म में संस्कारों की अत्यन्त आवश्यकता एवं परम उपयोगिता है।संस्कार सम्पन्न मानव सुसंस्कृत और चरित्रवान् होता है।सम् उपसर्ग पूर्वक कृ धातु से घञ् प्रत्यय होनेसे संस्कार शब्द निष्पन्न होता है। जिसका सामान्य अर्थ है- शारीरिक और मानसिक मलोंका अपाकरण । मानवजीवनके पवित्रकर और चमत्कार- विधायक विशिष्टकर्मको संस्कार कहते हैं। हमारे ऋषियोंने मानवजीवनमें गुणाधानके लिये संस्कारोंका विधान किया। संस्कारसे दो कर्म सम्पन्न होते हैं-मलापनयन और गुणाधान। प्रत्येक संस्कारों का उद्देश्य मानव की अशुभ शक्तियों से रक्षा करना एवं अभीष्ट इच्छाओं की प्राप्ति कराना है।अत: मानवजीवनमें संस्कारोंका अत्यन्त महत्त्व है।गौतम ऋषि के मत में चालीस प्रकार के संस्कार हैं।डॉ० राजबली पाण्डेय जी ने हिन्दू संस्कार नामक स्वकीय ग्रन्थ में चालीस संस्कारों का उल्लेख इस प्रकार से किया है-<blockquote>चत्वारिंशत् संस्काराः अष्टौ आत्मगुणाः।(हिन्दू संस्का० पृ०२२/२३)<ref>डॉ० राजबली पाण्डेय, '''[https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.403230/page/n1/mode/2up हिन्दू संस्कार - समाजिक तथा धार्मिक अध्ययन]''', वाराणसी: चौखम्बा विद्याभवन  २०१४ (पृ०२२/२३)</ref></blockquote>
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सनातन धर्म में संस्कारों की अत्यन्त आवश्यकता एवं परम उपयोगिता है।संस्कार सम्पन्न मानव सुसंस्कृत और चरित्रवान् होता है।सम् उपसर्ग पूर्वक कृ धातु से घञ् प्रत्यय होनेसे संस्कार शब्द निष्पन्न होता है। जिसका सामान्य अर्थ है- शारीरिक और मानसिक मलोंका अपाकरण । मानवजीवनके पवित्रकर और चमत्कार- विधायक विशिष्टकर्मको संस्कार कहते हैं। हमारे ऋषियोंने मानवजीवनमें गुणाधानके लिये संस्कारोंका विधान किया। संस्कारसे दो कर्म सम्पन्न होते हैं-मलापनयन और गुणाधान। प्रत्येक संस्कारों का उद्देश्य मानव की अशुभ शक्तियों से रक्षा करना एवं अभीष्ट इच्छाओं की प्राप्ति कराना है।अत: मानवजीवनमें संस्कारोंका अत्यन्त महत्त्व है। हमारे धर्मशास्त्रों में मुख्य रूप से सोलह संस्कारों की व्याख्या की गई है। गौतम ऋषि के मत में चालीस प्रकार के संस्कार हैं।डॉ० राजबली पाण्डेय जी ने हिन्दू संस्कार नामक स्वकीय ग्रन्थ में चालीस संस्कारों का उल्लेख इस प्रकार से किया है-<blockquote>चत्वारिंशत् संस्काराः अष्टौ आत्मगुणाः।(हिन्दू संस्का० पृ०२२/२३)<ref>डॉ० राजबली पाण्डेय, '''[https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.403230/page/n1/mode/2up हिन्दू संस्कार - समाजिक तथा धार्मिक अध्ययन]''', वाराणसी: चौखम्बा विद्याभवन  २०१४ (पृ०२२/२३)</ref></blockquote>
 
* संस्कार (गौतम ऋषि के मत में १६ प्रमुख संस्कारों में से १० संस्कारों का समावेश किया गया है- गर्भाधान,पुंसवन,सीमन्तोन्नयन,जातकर्म,नामकरण,अन्नप्राशन,चौल,उपनयन, स्नान(समावर्तन)और सहधर्मिणी संयोग।
 
* संस्कार (गौतम ऋषि के मत में १६ प्रमुख संस्कारों में से १० संस्कारों का समावेश किया गया है- गर्भाधान,पुंसवन,सीमन्तोन्नयन,जातकर्म,नामकरण,अन्नप्राशन,चौल,उपनयन, स्नान(समावर्तन)और सहधर्मिणी संयोग।
 
* वेदव्रत (चार वेदों का व्रत)।
 
* वेदव्रत (चार वेदों का व्रत)।
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* हविर्यज्ञ (सात हवियज्ञ)अग्न्याधेय,अग्निहोत्र,दर्शपौर्णमास्य,चातुर्मास्य,आग्रयाणेष्टि,निरूढ-पशुबन्ध,सौत्रामणि-इति सप्त हविर्यज्ञाः।
 
* हविर्यज्ञ (सात हवियज्ञ)अग्न्याधेय,अग्निहोत्र,दर्शपौर्णमास्य,चातुर्मास्य,आग्रयाणेष्टि,निरूढ-पशुबन्ध,सौत्रामणि-इति सप्त हविर्यज्ञाः।
 
* सोमयज्ञ ( सात सोम यज्ञ)अग्निष्टोम,अत्यग्निष्टोम,उक्थ्य,षोडशी,वाजपेय,अतिरात्र,आप्तोर्याम-इति सप्त सोमयज्ञ संस्थाः।   
 
* सोमयज्ञ ( सात सोम यज्ञ)अग्निष्टोम,अत्यग्निष्टोम,उक्थ्य,षोडशी,वाजपेय,अतिरात्र,आप्तोर्याम-इति सप्त सोमयज्ञ संस्थाः।   
पंचमहायज्ञ गृहस्थ आश्रम में प्रत्येक व्यक्ति द्वारा किये जाते हैं। एक छात्र के रूप में वह महान ऋषियों द्वारा दिए गए पवित्र शास्त्रों का अध्ययन करके ज्ञान प्राप्त करता है। ब्रह्मचर्य आश्रम में छात्रों का मुख्य लक्ष्य ज्ञान को आत्मसात करना है। उनके आध्यात्मिक विकास में योगदान के लिए देव ऋषि और पितृ (पूर्वजों) को कृतज्ञता के साथ याद किया जाता है।[2]
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पंचमहायज्ञ गृहस्थ आश्रम में प्रत्येक व्यक्ति द्वारा किये जाते हैं। एक छात्र के रूप में वह महान ऋषियों द्वारा दिए गए पवित्र शास्त्रों का अध्ययन करके ज्ञान प्राप्त करता है। ब्रह्मचर्य आश्रम में छात्रों का मुख्य लक्ष्य ज्ञान को आत्मसात करना है। उनके आध्यात्मिक विकास में योगदान के लिए देव ऋषि और पितृ (पूर्वजों) को कृतज्ञता के साथ याद किया जाता है।
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जब ब्रह्मचारी इस आश्रम को पार कर जाते हैं तो उनके गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करते ही कर्तव्य कई गुना हो जाते हैं। भौतिक शरीर पंचभूतों का गठन करता है और अपने माता-पिता से प्राप्त होता है। गायों के दूध, अनाज, सब्जियों और फलों से पोषित होता है। देव और पितृ उसे उसके दैनिक जीवन के नित्य नैमित्तिक पञ्चमहायज्ञादि अनुष्ठानों में आशीर्वाद प्रदान करते हैं।पांचों इंद्रियां जिनकी सहायता से वह अपना जीवन संचालित करता है। जिन्होंने उन्हें क्षमता और बुद्धि दी  वह इस प्रकार उन देवताओं के प्रति आभारी होना सीखता है।
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जब ब्रह्मचारी इस आश्रम को पार कर जाते हैं तो उनके गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करते ही कर्तव्य कई गुना हो जाते हैं। भौतिक शरीर पंचभूतों का गठन करता है और अपने माता-पिता से प्राप्त होता है। गायों के दूध, अनाज, सब्जियों और फलों से पोषित होता है। देव और पितृ उसे उसके दैनिक जीवन के नित्य नैमित्तिक पञ्चमहायज्ञादि अनुष्ठानों में आशीर्वाद प्रदान करते हैं।पांचों इंद्रियां जिनकी सहायता से वह अपना जीवन संचालित करता है। जिन्होंने उन्हें क्षमता और बुद्धि दी  वह इस प्रकार उन देवताओं के प्रति आभारी होना सीखता है।<ref>A Short History of Religious and Philosophic Thought In India By Swami Krishnananda. Divine Life Society</ref>
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मनुष्यों जैसे पशु, पक्षियों कीट-पतंगों, औषधीय पौधों और पेड़ों की रक्षा करना सनातन धर्म की एक अभिन्न प्रणाली रही है। जिस गृहस्थ के कंधों पर सभी चेतन और निर्जीवों की जिम्मेदारी और कल्याण का भार होता है। उन्हें इस प्रकार इन अवाक प्राणियों की उनके प्रति उचित सम्मान के साथ देखभाल करने की जिम्मेदारी सौंपी जाती है। अन्न, दूध और सब इसी प्रकार प्रकृति से प्रचूर मात्रा में प्राप्त होते हैं और मनुष्य श्रद्धापूर्वक पेड़-पौधों का कृतज्ञ होता है। इस प्रकार मनुष्य उनकी रक्षा करके विनम्रता और करुणा सीखता है। गरुड़ पुराण न केवल इस दुनिया में जीविका के लिए आवश्यक भौतिक चीजें प्रदान करने के लिए गाय के महत्व का विवरण देता है, बल्कि एक गाय की पूर्ण आवश्यकता पर जोर देता है, जो वैतरिणी नदी (एक नदी जिसे यमलोक के रास्ते में पार करना बहुत मुश्किल है) को पार करने में मदद करता है। जब आत्मा भौतिक दुनिया से आध्यात्मिक दुनिया में स्थानांतरित हो रही है [३]।इसलिए वह प्रकृति का पांच गुना कर्जदार है -
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मनुष्यों जैसे पशु, पक्षियों कीट-पतंगों, औषधीय पौधों और पेड़ों की रक्षा करना सनातन धर्म की एक अभिन्न प्रणाली रही है। जिस गृहस्थ के कंधों पर सभी चेतन और निर्जीवों की जिम्मेदारी और कल्याण का भार होता है। उन्हें इस प्रकार इन अवाक प्राणियों की उनके प्रति उचित सम्मान के साथ देखभाल करने की जिम्मेदारी सौंपी जाती है। अन्न, दूध और बाकी सब इसी प्रकार प्रकृति से प्रचूर मात्रा में प्राप्त होते हैं मनुष्य श्रद्धापूर्वक पेड़-पौधों आदि का कृतज्ञ होता है। इस प्रकार मनुष्य उनकी रक्षा करके विनम्रता और करुणा सीखता है। इसलिए वह प्रकृति का पांच गुना कर्जदार है -
 
* अपने माता-पिता और पूर्वजों का ऋणी (भौतिक शरीर और वंश के लिए)।
 
* अपने माता-पिता और पूर्वजों का ऋणी (भौतिक शरीर और वंश के लिए)।
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* साथी मनुष्य (समाज में उनके समर्थन के लिए)।
 
* साथी मनुष्य (समाज में उनके समर्थन के लिए)।
उसे प्रतिदिन इन पांच यज्ञों को करके अपना कर्ज चुकाना होगा। इसके अलावा, चलने, झाडू लगाने, पीसने, खाना पकाने आदि के दौरान अनजाने में उसके द्वारा कई कीड़े मारे जाते हैं। इन पांच यज्ञों के प्रदर्शन से इस पापा को हटा दिया जाता है। [4]
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उसे प्रतिदिन इन पांच यज्ञों को करके अपना कर्ज चुकाना। इसके अलावा अनजाने में उसके द्वारा कई पाप हो जाते हैं। इन पांच यज्ञों के प्रदर्शन से उन पापों को हटा दिया जाता है।<ref>Mani, Vettam. (1975). ''Puranic encyclopaedia : A comprehensive dictionary with special reference to the epic and Puranic literature.'' Delhi:Motilal Banasidass.</ref>
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इन दैनिक संस्कारों के अलावा गृहस्थ को कुछ मासिक अनुष्ठान भी करने पड़ते हैं जैसे कि अमावस्या के दिन पूर्वजों को हवन करना और श्राद्ध करना।
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इन दैनिक संस्कारों के अलावा गृहस्थ को कुछ मासिक अनुष्ठान भी करने पड़ते हैं जैसे कि-अमावस्या के दिन पूर्वजों को श्राद्ध करना और एकादशी के व्रत का पालन (प्रत्येक चान्द्रमास के शुक्ल एवं कृष्ण दोनों पक्षों की एकादशी तिथि को)करना चाहिये ऐसा धर्मशास्त्रों का आदेश है।
    
== पञ्चमहायज्ञों का महत्व ==
 
== पञ्चमहायज्ञों का महत्व ==
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पितृयज्ञ का लक्षण करते हुए तैत्तिरीय आरण्यक में कहा गया है-<blockquote>पितृयज्ञस्य लक्षणमाह - यत्पितृभ्यः स्वधा करोत्यप्यपस्तत्पितृयज्ञः संतिष्ठते-इति ।</blockquote><blockquote>तत्र पिण्डदानासंभवे जलमात्रमपि पितृभ्यः स्वधाऽस्त्विति स्वधाशब्देन यद्ददाति सोऽयं पितृयज्ञः ---॥(साय०भा०)<ref>तैत्तिरीय [http://www.vedamu.org/PageViewerImage.aspx?DivId=998 आरण्यक]सायणभाष्य समेतम् (पृ०१४४/१४६)।</ref></blockquote>पितृयज्ञ में अर्यमादि नित्यपितर तथा परलोकगामी पितरों का तर्पण करना होता है जिससे उनके आत्मा की तृप्ति होती है।पद्मपुराण का उद्धरण देकर नित्यकर्म पूजाप्रकाश में कहा गया है कि-<blockquote>आब्रह्मभुवनाल्लोका देवर्षिपितृमानवः । तृप्यन्तु पितरः सर्वे मातृमाता महादयः ॥</blockquote><blockquote>नरकेषु समस्तेषु यातनासु च ये स्थिताः । तेषामाप्यायनायैतद्दीयते सलिलं मया ॥(नित्यक०पूजा०पृ०९८/९९)<ref>पं० लालबिहारी मिश्र , '''नित्यकर्म पूजाप्रकाश''', गीताप्रेस गोरखपुर।</ref></blockquote>अर्थात् ब्रह्मलोक से लेकर देवता, ऋषि, पितर, मनुष्य तथा पिता, माता और मातामहादि पितरों की समस्त नरकों में जितने भी यातनाभोगी जीव हैं उनके उद्धार के लिए मैं यह जल प्रदान करता हूं। इससे पितृ जगत् से सम्बन्ध होता है ।अर्यमादि नित्य पितरों की तथा परलोकगामी नैमित्तिक पितरों की पिण्डप्रदानादि से किये जानेवाले सेवारूप यज्ञको पितृयज्ञ कहते हैं।<blockquote>देवेभ्यश्च हुतादनाच्छेषाद् भूतबलि हरेत् । अन्नं भूमौ श्वचाण्डालवायसेभ्यश्च निःक्षिपेत् ॥(याज्ञ०स्मृ०१-१०३)<ref>याज्ञवल्क्य स्मृति [https://sa.wikisource.org/s/56f अध्याय- १] श्लोक-१०३।</ref> </blockquote>देवयज्ञसे बचे हुए अन्नको जीवों के लिये भूमि पर डाल देना चाहिये और वह अन्न पशु, पक्षी एवं गौ आदिको देना चाहिये  
 
पितृयज्ञ का लक्षण करते हुए तैत्तिरीय आरण्यक में कहा गया है-<blockquote>पितृयज्ञस्य लक्षणमाह - यत्पितृभ्यः स्वधा करोत्यप्यपस्तत्पितृयज्ञः संतिष्ठते-इति ।</blockquote><blockquote>तत्र पिण्डदानासंभवे जलमात्रमपि पितृभ्यः स्वधाऽस्त्विति स्वधाशब्देन यद्ददाति सोऽयं पितृयज्ञः ---॥(साय०भा०)<ref>तैत्तिरीय [http://www.vedamu.org/PageViewerImage.aspx?DivId=998 आरण्यक]सायणभाष्य समेतम् (पृ०१४४/१४६)।</ref></blockquote>पितृयज्ञ में अर्यमादि नित्यपितर तथा परलोकगामी पितरों का तर्पण करना होता है जिससे उनके आत्मा की तृप्ति होती है।पद्मपुराण का उद्धरण देकर नित्यकर्म पूजाप्रकाश में कहा गया है कि-<blockquote>आब्रह्मभुवनाल्लोका देवर्षिपितृमानवः । तृप्यन्तु पितरः सर्वे मातृमाता महादयः ॥</blockquote><blockquote>नरकेषु समस्तेषु यातनासु च ये स्थिताः । तेषामाप्यायनायैतद्दीयते सलिलं मया ॥(नित्यक०पूजा०पृ०९८/९९)<ref>पं० लालबिहारी मिश्र , '''नित्यकर्म पूजाप्रकाश''', गीताप्रेस गोरखपुर।</ref></blockquote>अर्थात् ब्रह्मलोक से लेकर देवता, ऋषि, पितर, मनुष्य तथा पिता, माता और मातामहादि पितरों की समस्त नरकों में जितने भी यातनाभोगी जीव हैं उनके उद्धार के लिए मैं यह जल प्रदान करता हूं। इससे पितृ जगत् से सम्बन्ध होता है ।अर्यमादि नित्य पितरों की तथा परलोकगामी नैमित्तिक पितरों की पिण्डप्रदानादि से किये जानेवाले सेवारूप यज्ञको पितृयज्ञ कहते हैं।<blockquote>देवेभ्यश्च हुतादनाच्छेषाद् भूतबलि हरेत् । अन्नं भूमौ श्वचाण्डालवायसेभ्यश्च निःक्षिपेत् ॥(याज्ञ०स्मृ०१-१०३)<ref>याज्ञवल्क्य स्मृति [https://sa.wikisource.org/s/56f अध्याय- १] श्लोक-१०३।</ref> </blockquote>देवयज्ञसे बचे हुए अन्नको जीवों के लिये भूमि पर डाल देना चाहिये और वह अन्न पशु, पक्षी एवं गौ आदिको देना चाहिये  
 
====नृयज्ञ====
 
====नृयज्ञ====
मनुष्य(नृ) यज्ञ का लक्षण करते हुए तैत्तिरीय आरण्यक में कहा गया है-<blockquote>मनुष्ययज्ञस्य लक्षणमाह - यद्ब्राह्मणेभ्योऽन्नं ददाति तन्मनुष्ययज्ञ: संतिष्ठते -इति।(साय०भा०)<ref>तैत्तिरीय [http://www.vedamu.org/PageViewerImage.aspx?DivId=998 आरण्यक] सायणभाष्य समेतम् (पृ०१४४/१४६)।</ref></blockquote>मनुष्ययज्ञ अतिथि सेवा रूप है। अतिथि सेवा करने का बड़ा ही महत्त्व कहा गया है। जिसके आने की कोई तिथि निश्चित न हो वह अतिथि कहा जाता है।यदि कोई अतिथि किसी के घर से असन्तुष्ट होकर जाता है तो उसका सब संचित पुण्य नष्ट हो जाता है।<blockquote>आशाप्रतीक्षे संगतं सूनृतां चेष्टापूर्ते पुत्रपशूश्च सर्वान् । एतद् वृडते पुरुषस्याल्पमेधसो यस्यानश्नन् वसति ब्राह्मणो गृहे ॥(कठो०१।१८)<ref>कठोपनिषद् [https://sa.wikisource.org/s/a8a अध्याय-१] प्रथमवल्ली-१ श्लोक-८।</ref></blockquote>जिसके घर में ब्राह्मण अतिथि बिना भोजन किये रहता है, उस पुरुष की आशा, प्रतीक्षा, संगत एवं प्रिय वाणी से प्राप्त होने वाले समस्त इष्टापूर्तफल तथा पुत्र, पशु आदि नष्ट हो जाते हैं।सभी प्राणियोंके पोषक होने के कारण पुरुष शब्दकी सार्थकता कही गयी है-पूरयति सर्वमिति पुरुषः।
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मनुष्य(नृ) यज्ञ का लक्षण करते हुए तैत्तिरीय आरण्यक में कहा गया है-<blockquote>मनुष्ययज्ञस्य लक्षणमाह - यद्ब्राह्मणेभ्योऽन्नं ददाति तन्मनुष्ययज्ञ: संतिष्ठते -इति।(साय०भा०)<ref>तैत्तिरीय [http://www.vedamu.org/PageViewerImage.aspx?DivId=998 आरण्यक] सायणभाष्य समेतम् (पृ०१४४/१४६)।</ref></blockquote>मनुष्ययज्ञ अतिथि सेवा रूप है। अतिथि सेवा करने का बड़ा ही महत्त्व कहा गया है। जिसके आने की कोई तिथि निश्चित न हो वह अतिथि कहा जाता है।यदि कोई अतिथि किसी के घर से असन्तुष्ट होकर जाता है तो उसका सब संचित पुण्य नष्ट हो जाता है।पूरयति सर्वमिति पुरुषः-सभी प्राणियोंके पोषक होने के कारण पुरुष शब्दकी सार्थकता कही गयी है।<blockquote>आशाप्रतीक्षे संगतं सूनृतां चेष्टापूर्ते पुत्रपशूश्च सर्वान् । एतद् वृडते पुरुषस्याल्पमेधसो यस्यानश्नन् वसति ब्राह्मणो गृहे ॥(कठो०१।१८)<ref>कठोपनिषद् [https://sa.wikisource.org/s/a8a अध्याय-१] प्रथमवल्ली-१ श्लोक-८।</ref></blockquote>जिसके घर में ब्राह्मण या अतिथि विना भोजन किये रहता है, उस पुरुष की आशा, प्रतीक्षा, संगत एवं प्रिय वाणी से प्राप्त होने वाले समस्त चेष्टापूर्तफल तथा पुत्र, पशु आदि नष्ट हो जाते हैं।
 
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अथर्ववेद के अतिथिसूक्त में  कहा गया है कि-<blockquote>एते वै प्रियाश्चाप्रियाश्च स्वर्गलोकं गमयन्ति यदतिथयः।सर्वो वा एष जग्धपाप्मा यस्यान्नमश्नन्ति ॥(अथर्ववेद ५८)</blockquote>अतिथि प्रिय होना चाहिए। भोजन कराने पर वह यजमान को स्वर्ग पहुंचा देता है और उसका पाप नष्ट कर देता है।
      
== उद्धरण ==
 
== उद्धरण ==
 
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<references />
 
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