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====ब्रह्मयज्ञ====
 
====ब्रह्मयज्ञ====
पॉंचों महायज्ञों में ब्रह्मयज्ञ प्रथम और सर्वश्रेष्ठ है। इसके करनेसे स्वर्गकी प्राप्ति तो होती ही है साथ ही विविध प्रकारके अभ्युदयकी सिद्धि भी कही गयी है। सर्वप्रथम उल्लेख शतपथब्राह्मणमें और सबसे विस्तृत वर्णन तैत्तिरीय आरण्यकमें देखा जाता है।(शत०ब्राह्म०)<ref>शतपथब्राह्मण [https://sa.wikisource.org/s/elq काण्ड-११] अध्याय-५ ब्राह्मण-६ खण्ड-३/८।</ref><blockquote>ब्रह्मयज्ञस्य लक्षणमाह - यत्स्वाध्यायमधीयीतैकामप्यृचं यजु: सामं वा तद्ब्रह्मयज्ञ: संतिष्ठते - इति।</blockquote><blockquote>स्वस्यासाधारणत्वेन पितृपितामहादिपरम्परया प्राप्ता वेदशाखा स्वाध्यायः | तत्र विद्यमानमृगादीनामन्यतममेकमपि वाक्यमधीयीतेति यत्सोऽयं ब्रह्मयज्ञः---॥(साय०भा०)<ref>तैत्तिरीय [http://www.vedamu.org/PageViewerImage.aspx?DivId=998 आरण्यक]सायणभाष्य समेतम् (पृ०१४४/१४६)।</ref></blockquote>शतपथ के अनुसार प्रतिदिन किया जानेवाला स्वाध्याय ही ब्रह्मयज्ञ कहलाता है। इस यज्ञके माध्यमसे देवताओंको दूध-घी-सोम आदि अर्पित किये जाते हैं। प्रतिफलमें देवता प्रसन्न होकर उन्हें सुरक्षा, सम्पत्ति, दीर्घ आयु, दीप्ति- तेज, यश, बीज, सत्त्व, आध्यात्मिक उच्चता तथा सभी प्रकारके मंगलमय पदार्थ प्रदान करते हैं। साथ ही इनके पितरोंको घी एवं मधुकी धारासे सन्तुष्ट करते हैं। यहाँतक कि स्वाध्याय करनेवालेको लोकमें त्रिगुण फल प्राप्त होते हैं।
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पॉंचों महायज्ञों में ब्रह्मयज्ञ प्रथम और सर्वश्रेष्ठ है। इसके करनेसे स्वर्गकी प्राप्ति तो होती ही है साथ ही विविध प्रकारके अभ्युदयकी सिद्धि भी कही गयी है। सर्वप्रथम उल्लेख शतपथब्राह्मणमें और सबसे विस्तृत वर्णन तैत्तिरीय आरण्यकमें देखा जाता है।(शत०ब्राह्म०)<ref>शतपथब्राह्मण [https://sa.wikisource.org/s/elq काण्ड-११] अध्याय-५ ब्राह्मण-६ खण्ड-३/८।</ref><blockquote>ब्रह्मयज्ञस्य लक्षणमाह - यत्स्वाध्यायमधीयीतैकामप्यृचं यजु: सामं वा तद्ब्रह्मयज्ञ: संतिष्ठते - इति।
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स्वस्यासाधारणत्वेन पितृपितामहादिपरम्परया प्राप्ता वेदशाखा स्वाध्यायः | तत्र विद्यमानमृगादीनामन्यतममेकमपि वाक्यमधीयीतेति यत्सोऽयं ब्रह्मयज्ञः---॥(साय०भा०)<ref>तैत्तिरीय [http://www.vedamu.org/PageViewerImage.aspx?DivId=998 आरण्यक]सायणभाष्य समेतम् (पृ०१४४/१४६)।</ref></blockquote>शतपथ के अनुसार प्रतिदिन किया जानेवाला स्वाध्याय ही ब्रह्मयज्ञ कहलाता है। इस यज्ञके माध्यमसे देवताओंको दूध-घी-सोम आदि अर्पित किये जाते हैं। प्रतिफलमें देवता प्रसन्न होकर उन्हें सुरक्षा, सम्पत्ति, दीर्घ आयु, दीप्ति- तेज, यश, बीज, सत्त्व, आध्यात्मिक उच्चता तथा सभी प्रकारके मंगलमय पदार्थ प्रदान करते हैं। साथ ही इनके पितरोंको घी एवं मधुकी धारासे सन्तुष्ट करते हैं। यहाँतक कि स्वाध्याय करनेवालेको लोकमें त्रिगुण फल प्राप्त होते हैं।
    
शतपथब्राह्मणमें यह स्पष्ट कहा गया है कि जो व्यक्ति प्रतिदिन स्वाध्याय (वेदाध्ययन तथा आर्ष ग्रन्थोंका अध्ययन) करता है। उसे उस व्यक्तिसे तिगुना फल प्राप्त होता है जो दान देने या पुरोहितोंको धन-धान्यसे पूर्ण सारा संसार देनेसे प्राप्त होता है।ब्रह्मचर्यपूर्वक आचरण करते हुए पिता-माता गुरु आदि श्रेष्ठजनोंकी सेवा शुश्रूषा, उनकी आज्ञाओंका पालन गुरुजनोंके श्रीचरणोंमें बैठकर निष्ठापूर्वक वेदाध्ययन तथा स्वाध्याय करना ब्रह्मयज्ञका अंग माना गया है।
 
शतपथब्राह्मणमें यह स्पष्ट कहा गया है कि जो व्यक्ति प्रतिदिन स्वाध्याय (वेदाध्ययन तथा आर्ष ग्रन्थोंका अध्ययन) करता है। उसे उस व्यक्तिसे तिगुना फल प्राप्त होता है जो दान देने या पुरोहितोंको धन-धान्यसे पूर्ण सारा संसार देनेसे प्राप्त होता है।ब्रह्मचर्यपूर्वक आचरण करते हुए पिता-माता गुरु आदि श्रेष्ठजनोंकी सेवा शुश्रूषा, उनकी आज्ञाओंका पालन गुरुजनोंके श्रीचरणोंमें बैठकर निष्ठापूर्वक वेदाध्ययन तथा स्वाध्याय करना ब्रह्मयज्ञका अंग माना गया है।
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स्वाध्याय-ग्रन्थोंमें यद्यपि चारों वेद-ब्राह्मण-कल्प-पुराण आदि लिये जाते हैं  परंतु यह भी कहा गया है कि मनोयोगपूर्वक जितना ही स्वाध्याय किया जा सके  करना चाहिये।ब्रह्मयज्ञ में वेदादि सच्छास्त्रों का स्वाध्याय होने से विद्या तथा ज्ञान प्राप्त होता है परमात्मा से आध्यात्मिक संबंध दृढ़ होता है और ऋषि ऋण से छुटकारा मिल जाता है। कर्तव्याकर्त्तव्य सम्बन्धी निर्णय के साथ साथ इहलोक और परलोक के लिए कल्याणमय निष्कण्टक पथ का अनुसन्धान हो जाता है और सदाचार की वृद्धि होती है । ज्ञानवृद्धि के कारण तेज तथा ओज की भी वृद्धि होती है।
 
स्वाध्याय-ग्रन्थोंमें यद्यपि चारों वेद-ब्राह्मण-कल्प-पुराण आदि लिये जाते हैं  परंतु यह भी कहा गया है कि मनोयोगपूर्वक जितना ही स्वाध्याय किया जा सके  करना चाहिये।ब्रह्मयज्ञ में वेदादि सच्छास्त्रों का स्वाध्याय होने से विद्या तथा ज्ञान प्राप्त होता है परमात्मा से आध्यात्मिक संबंध दृढ़ होता है और ऋषि ऋण से छुटकारा मिल जाता है। कर्तव्याकर्त्तव्य सम्बन्धी निर्णय के साथ साथ इहलोक और परलोक के लिए कल्याणमय निष्कण्टक पथ का अनुसन्धान हो जाता है और सदाचार की वृद्धि होती है । ज्ञानवृद्धि के कारण तेज तथा ओज की भी वृद्धि होती है।
 
====देवयज्ञ====
 
====देवयज्ञ====
तैत्तिरीय आरण्यक में देवयज्ञ का लक्षण इस प्रकार किया गया है-<blockquote>तत्र देवयज्ञस्य लक्षणमाह - यदग्नौ जुहोत्यपि समिधं तद्देवयज्ञ: संतिष्ठते - इति ॥</blockquote><blockquote>पुरोडाशादिहविर्मुख्यं तदलाभे समिधमप्यग्नौ देवानुद्दिशञ्जुहोतीति यत्सोऽयं देवयज्ञः॥(साय०भा०)<ref name=":0">तैत्तिरीय [http://www.vedamu.org/PageViewerImage.aspx?DivId=998 आरण्यक] सायणभाष्य समेतम् (पृ०१४४/१४६)।</ref></blockquote>गृह्यसूत्र एवं धर्मसूत्रोंके अनुसार विभिन्न देवताओंके लिये यह यज्ञ किया जाता है। जिन देवताओंके निमित्त यह यज्ञ सम्पादित होता है उन देवताओं के ग्रन्थों में अलग-अलग नाम दिये गये हैं। परंतु जो नाम मुख्य हैं वह इस प्रकार हैं-
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तैत्तिरीय आरण्यक में देवयज्ञ का लक्षण इस प्रकार किया गया है-<blockquote>तत्र देवयज्ञस्य लक्षणमाह - यदग्नौ जुहोत्यपि समिधं तद्देवयज्ञ: संतिष्ठते - इति ॥
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पुरोडाशादिहविर्मुख्यं तदलाभे समिधमप्यग्नौ देवानुद्दिशञ्जुहोतीति यत्सोऽयं देवयज्ञः॥(साय०भा०)<ref name=":0">तैत्तिरीय [http://www.vedamu.org/PageViewerImage.aspx?DivId=998 आरण्यक] सायणभाष्य समेतम् (पृ०१४४/१४६)।</ref></blockquote>गृह्यसूत्र एवं धर्मसूत्रोंके अनुसार विभिन्न देवताओंके लिये यह यज्ञ किया जाता है। जिन देवताओंके निमित्त यह यज्ञ सम्पादित होता है उन देवताओं के ग्रन्थों में अलग-अलग नाम दिये गये हैं। परंतु जो नाम मुख्य हैं वह इस प्रकार हैं-
    
सूर्य, अग्नि, प्रजापति, सोम, इन्द्र, वनस्पति, द्यौ, पृथिवी, धन्वन्तरि, विश्वेदेव, ब्रह्मा आदि । यहाँ यह स्मरणीय है कि मदनपारिजात और स्मृतिचन्द्रिकाके अनुसार वैश्वदेवके देवता दो प्रकारके कहे गये हैं। प्रथम वे जो सबके लिये एक जैसे हैं और जिनके नाम मनुस्मृतिमें पाये जाते हैं। जबकि दूसरे देवता वह हैं, जिनके नाम अपने-अपने गृह्यसूत्रमें पाये जाते हैं। देवता-विशेषका नाम लेकर स्वाहा शब्दके उच्चारणके साथ अग्निमें जब हवि या न्यूनातिन्यून एक भी समिधा डाली जाती है तो वह देवयज्ञ होता है। मनु और याज्ञवल्क्य के अनुसार देवयजन देव पूजा के पश्चात् किया जाता है।<blockquote>नित्यं स्नात्वा शुचिः कुर्याद्देवर्षिपितृतर्पणम् । देवताभ्यर्चनं चैव समिदाधानं एव च ॥(मनु स्मृ० २-१७६)<ref>मनु स्मृति [https://sa.wikisource.org/s/3mo अध्याय-२] श्लोक-१७६।</ref></blockquote><blockquote>उपेयादीश्वरं चैव योगक्षेमार्थसिद्धये ।स्नात्वा देवान्पितॄंश्चैव तर्पयेदर्चयेत्तथा ॥(याज्ञ०स्मृ० १-१००)<ref>याज्ञवल्क्य स्मृति [https://sa.wikisource.org/s/56f अध्याय-१] श्लोक१००।</ref></blockquote>इसके माध्यमसे देवताओंको प्रसन्न किया जाता है और उनके प्रसन्न होनेसे आत्माभ्युदय तथा सभी मंगलमय अभीष्ट पदार्थोंकी सिद्धि होती है। यज्ञमुखसे गृहस्थ देवताओंका सान्निध्य अनुभव करते हैं। जिससे उनके व्यक्तित्वका विकास होता है। वैदिक धारणाके अनुसार देवता सत्यपरायण, उदार, पराक्रमी और सहायशील होते हैं और उनके सान्निध्यानुभवसे मनुष्य भी अपनी आत्मा और शरीरमें इन गुणोंको प्रतिष्ठित करते हैं।
 
सूर्य, अग्नि, प्रजापति, सोम, इन्द्र, वनस्पति, द्यौ, पृथिवी, धन्वन्तरि, विश्वेदेव, ब्रह्मा आदि । यहाँ यह स्मरणीय है कि मदनपारिजात और स्मृतिचन्द्रिकाके अनुसार वैश्वदेवके देवता दो प्रकारके कहे गये हैं। प्रथम वे जो सबके लिये एक जैसे हैं और जिनके नाम मनुस्मृतिमें पाये जाते हैं। जबकि दूसरे देवता वह हैं, जिनके नाम अपने-अपने गृह्यसूत्रमें पाये जाते हैं। देवता-विशेषका नाम लेकर स्वाहा शब्दके उच्चारणके साथ अग्निमें जब हवि या न्यूनातिन्यून एक भी समिधा डाली जाती है तो वह देवयज्ञ होता है। मनु और याज्ञवल्क्य के अनुसार देवयजन देव पूजा के पश्चात् किया जाता है।<blockquote>नित्यं स्नात्वा शुचिः कुर्याद्देवर्षिपितृतर्पणम् । देवताभ्यर्चनं चैव समिदाधानं एव च ॥(मनु स्मृ० २-१७६)<ref>मनु स्मृति [https://sa.wikisource.org/s/3mo अध्याय-२] श्लोक-१७६।</ref></blockquote><blockquote>उपेयादीश्वरं चैव योगक्षेमार्थसिद्धये ।स्नात्वा देवान्पितॄंश्चैव तर्पयेदर्चयेत्तथा ॥(याज्ञ०स्मृ० १-१००)<ref>याज्ञवल्क्य स्मृति [https://sa.wikisource.org/s/56f अध्याय-१] श्लोक१००।</ref></blockquote>इसके माध्यमसे देवताओंको प्रसन्न किया जाता है और उनके प्रसन्न होनेसे आत्माभ्युदय तथा सभी मंगलमय अभीष्ट पदार्थोंकी सिद्धि होती है। यज्ञमुखसे गृहस्थ देवताओंका सान्निध्य अनुभव करते हैं। जिससे उनके व्यक्तित्वका विकास होता है। वैदिक धारणाके अनुसार देवता सत्यपरायण, उदार, पराक्रमी और सहायशील होते हैं और उनके सान्निध्यानुभवसे मनुष्य भी अपनी आत्मा और शरीरमें इन गुणोंको प्रतिष्ठित करते हैं।
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====भूतयज्ञ====
 
====भूतयज्ञ====
<blockquote>भूतयज्ञस्य लक्षणमाह - यद्भूतेभ्यो बलिँ्हरति तद्भूतयज्ञ: संतिष्ठते -इति॥</blockquote><blockquote>वैश्वदेवानुष्ठानादूर्ध्वं बहिर्देशे वायसादिभ्यो भूतेभ्यो यद्बलिप्रदानं सोऽयं भूतयज्ञ:॥(साय०भा०)<ref name=":0" /></blockquote>भूतयज्ञ में बलिवैश्वदेव का विधान किया गया है। जिससे पशु,पक्षी,कीट,आदि की तृप्ति एवं सेवा होती है।भूतयज्ञ एक ऐसा व्रत है, जिसमें सभी प्रकराके जीवों का पोषण हो जाता है।मनुष्य,चाण्डाल, गाय, बैल, कुत्ता, कीट-पतंग आदि जितने भी भूत (प्राणी) हैं, उन सभीको अन्न, जल, आदि भोज्य देना इस यज्ञका उद्देश्य है। भूतयज्ञका यह उद्देश्य उपनिषद्के सर्वे भवन्तु सुखिन: वाक्यमें ही सन्निहित है।  
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<blockquote>भूतयज्ञस्य लक्षणमाह - यद्भूतेभ्यो बलिँ्हरति तद्भूतयज्ञ: संतिष्ठते -इति
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वैश्वदेवानुष्ठानादूर्ध्वं बहिर्देशे वायसादिभ्यो भूतेभ्यो यद्बलिप्रदानं सोऽयं भूतयज्ञ:॥(साय०भा०)<ref name=":0" /></blockquote>भूतयज्ञ में बलिवैश्वदेव का विधान किया गया है। जिससे पशु,पक्षी,कीट,आदि की तृप्ति एवं सेवा होती है।भूतयज्ञ एक ऐसा व्रत है, जिसमें सभी प्रकराके जीवों का पोषण हो जाता है।मनुष्य,चाण्डाल, गाय, बैल, कुत्ता, कीट-पतंग आदि जितने भी भूत (प्राणी) हैं, उन सभीको अन्न, जल, आदि भोज्य देना इस यज्ञका उद्देश्य है। भूतयज्ञका यह उद्देश्य उपनिषद्के सर्वे भवन्तु सुखिन: वाक्यमें ही सन्निहित है।  
    
कृमि, कीट, पतङ्ग, पशु और पक्षी आदि की सेवाको भूतयज्ञ कहते हैं।ईश्वररचित सृष्टि के किसी भी अङ्ग की उपेक्षा कभी नहीं की जा सकती, क्योंकि सृष्टि के सिर्फ एक ही अङ्ग की सहायता से समस्त अङ्गों की सहायता समझी जाती है, अतः भूतयज्ञ भी परम धर्म है।प्रत्येक प्राणी अपने सुख के लिये अनेक भूतों ( जीवों) को प्रतिदिन क्लेश देता है, क्योंकि ऐसा हुए बिना क्षणमात्र भी शरीरयात्रा नहीं चल सकती।प्रत्येक मनुष्यके श्वास-प्रश्वास, भोजन-प्राशन, विहार-सञ्चार आदि में अगणित जीवों की हिंसा होती है। निरामिष भोजन करनेवाले लोगों के भोजन के समय भी अगणित जीवों का प्राण-वियोग होता है, आमिषभोजियों की तो कथा ही क्या है ? अतः भूतों (जीवों) से उऋण होने के लिये भूतयज्ञ करना आवश्यक है। भूतयज्ञसे कृमि, कीट, पशु, पक्षी आदिकी तृप्ति होती है।  
 
कृमि, कीट, पतङ्ग, पशु और पक्षी आदि की सेवाको भूतयज्ञ कहते हैं।ईश्वररचित सृष्टि के किसी भी अङ्ग की उपेक्षा कभी नहीं की जा सकती, क्योंकि सृष्टि के सिर्फ एक ही अङ्ग की सहायता से समस्त अङ्गों की सहायता समझी जाती है, अतः भूतयज्ञ भी परम धर्म है।प्रत्येक प्राणी अपने सुख के लिये अनेक भूतों ( जीवों) को प्रतिदिन क्लेश देता है, क्योंकि ऐसा हुए बिना क्षणमात्र भी शरीरयात्रा नहीं चल सकती।प्रत्येक मनुष्यके श्वास-प्रश्वास, भोजन-प्राशन, विहार-सञ्चार आदि में अगणित जीवों की हिंसा होती है। निरामिष भोजन करनेवाले लोगों के भोजन के समय भी अगणित जीवों का प्राण-वियोग होता है, आमिषभोजियों की तो कथा ही क्या है ? अतः भूतों (जीवों) से उऋण होने के लिये भूतयज्ञ करना आवश्यक है। भूतयज्ञसे कृमि, कीट, पशु, पक्षी आदिकी तृप्ति होती है।  
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