Changes

Jump to navigation Jump to search
m
no edit summary
Line 7: Line 7:  
विश्व में ऐसे बहुत कम संगठन निर्माण हुए हैं जो दीर्घ काल जीवित रहे हैं। ऑक्स्फोर्ड युनिव्हर्सिटी की आयु लगभग ३०० वर्षों से ऊपर है। भारत में तो १२००-१४०० वर्षतक प्रभावी रहे ऐसे कई विद्यापीठ इतिहास ने देखें हैं। भारत में तो कई राजवंश भी सैंकड़ों वर्ष तक राज करते रहे हैं। इन राजवंशों की विशेषता उनके अपने से अधिक श्रेष्ठ उत्तराधिकारी के निर्माण में थी।  
 
विश्व में ऐसे बहुत कम संगठन निर्माण हुए हैं जो दीर्घ काल जीवित रहे हैं। ऑक्स्फोर्ड युनिव्हर्सिटी की आयु लगभग ३०० वर्षों से ऊपर है। भारत में तो १२००-१४०० वर्षतक प्रभावी रहे ऐसे कई विद्यापीठ इतिहास ने देखें हैं। भारत में तो कई राजवंश भी सैंकड़ों वर्ष तक राज करते रहे हैं। इन राजवंशों की विशेषता उनके अपने से अधिक श्रेष्ठ उत्तराधिकारी के निर्माण में थी।  
   −
धर्म शक्ति का जागरण और उसके मार्गदर्शन में धर्मनिष्ठ शासन द्वारा समाज के संगठन को अमल में लाना यही समाज के संगठन की धार्मिक (धार्मिक) प्रक्रिया रही है। इस हेतु सर्व प्रथम धर्म के आधार से समाज का संगठन कैसे होता है उसके स्वरूप को समझना होगा। फिर ऐसे संगठन के निर्माण के लिये चहुँ दिशाओं से समाज में पहल खडी करनी होगी।
+
धर्म शक्ति का जागरण और उसके मार्गदर्शन में धर्मनिष्ठ शासन द्वारा समाज के संगठन को अमल में लाना यही समाज के संगठन की धार्मिक प्रक्रिया रही है। इस हेतु सर्व प्रथम धर्म के आधार से समाज का संगठन कैसे होता है उसके स्वरूप को समझना होगा। फिर ऐसे संगठन के निर्माण के लिये चहुँ दिशाओं से समाज में पहल खडी करनी होगी।
   −
लेकिन विद्यापीठ या शासन व्यवस्था जैसे समाज जीवन के एक छोटे पहलू या हिस्से को लेकर संगठन निर्माण करना और समूचे समाज के लिये संगठन की रचना करना इन दोनों में निर्माता की प्रतिभा का अंतर बहुत बडा होता है। यह सामान्य मानव का या सामान्य मानव समूह का काम नहीं है। विश्व के अन्य किसी भी समाज से हमारे समाज के निर्माता पूर्वजों की श्रेष्ठता और विशेषता इस में है कि उन्होंने धार्मिक (धार्मिक) समाज को इस तरह संगठन में बाँधा कि यह संगठन हजारों लाखों वर्षों तक समाज को लाभान्वित करता रहा। धार्मिक (धार्मिक) समाज को इस संगठन ने ही तो चिरंजीवी बना दिया था। ऐसे संगठन की शायद विश्व के अन्य किसी भी समाज के पुरोधाओं ने कल्पना भी नहीं की होगी। हमारे पूर्वजों ने धर्म पर आधारित ऐसे संगठन की न केवल कल्पना की, साथ ही में ऐसे संगठन को समाज में व्यापकता से स्थापित भी कर दिखाया।
+
लेकिन विद्यापीठ या शासन व्यवस्था जैसे समाज जीवन के एक छोटे पहलू या हिस्से को लेकर संगठन निर्माण करना और समूचे समाज के लिये संगठन की रचना करना इन दोनों में निर्माता की प्रतिभा का अंतर बहुत बडा होता है। यह सामान्य मानव का या सामान्य मानव समूह का काम नहीं है। विश्व के अन्य किसी भी समाज से हमारे समाज के निर्माता पूर्वजों की श्रेष्ठता और विशेषता इस में है कि उन्होंने धार्मिक समाज को इस तरह संगठन में बाँधा कि यह संगठन हजारों लाखों वर्षों तक समाज को लाभान्वित करता रहा। धार्मिक समाज को इस संगठन ने ही तो चिरंजीवी बना दिया था। ऐसे संगठन की शायद विश्व के अन्य किसी भी समाज के पुरोधाओं ने कल्पना भी नहीं की होगी। हमारे पूर्वजों ने धर्म पर आधारित ऐसे संगठन की न केवल कल्पना की, साथ ही में ऐसे संगठन को समाज में व्यापकता से स्थापित भी कर दिखाया।
   −
लगभग ५०० वर्षों का इस्लामी शासन और लगभग 190 वर्ष का ईसाई शासन भारत में रहा। इस के उपरांत भी भारत में यदि आज भी हिंदू बडी संख्या में हैं तो इस का श्रेय हमारे पूर्वजों द्वारा वर्ण/जाति/आश्रम के माध्यम से निर्माण किये समाज के संगठन को है। धर्मपाल जी बताते हैं कि जाति व्यवस्था के कारण अंग्रेजों को हिंदू समाज का ईसाईकरण अत्यंत कठिन हो रहा था। इसलिये उन्होंने धार्मिक (धार्मिक) जाति व्यवस्था को बदनाम किया। इस संगठन को समझने का प्रयास हम आगे करेंगे। हमें यदि पुन: अपने समाज को संगठित करना है तो हमें संगठन का अर्थ, संगठन की जीवनी शक्ति, संगठन के कारक तत्व, संगठन को चिरंजीवी बनानेवाले पहलू आदि सभी का विचार करना होगा।<ref>जीवन का धार्मिक प्रतिमान-खंड १, अध्याय ११, लेखक - दिलीप केलकर</ref>
+
लगभग ५०० वर्षों का इस्लामी शासन और लगभग 190 वर्ष का ईसाई शासन भारत में रहा। इस के उपरांत भी भारत में यदि आज भी हिंदू बडी संख्या में हैं तो इस का श्रेय हमारे पूर्वजों द्वारा वर्ण/जाति/आश्रम के माध्यम से निर्माण किये समाज के संगठन को है। धर्मपाल जी बताते हैं कि [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|[[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]]]] के कारण अंग्रेजों को हिंदू समाज का ईसाईकरण अत्यंत कठिन हो रहा था। इसलिये उन्होंने धार्मिक [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|[[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]]]] को बदनाम किया। इस संगठन को समझने का प्रयास हम आगे करेंगे। हमें यदि पुन: अपने समाज को संगठित करना है तो हमें संगठन का अर्थ, संगठन की जीवनी शक्ति, संगठन के कारक तत्व, संगठन को चिरंजीवी बनानेवाले पहलू आदि सभी का विचार करना होगा।<ref>जीवन का धार्मिक प्रतिमान-खंड १, अध्याय ११, लेखक - दिलीप केलकर</ref>
    
== संगठन ==
 
== संगठन ==
Line 57: Line 57:  
# नेतृत्व क्षमतावान हो।
 
# नेतृत्व क्षमतावान हो।
   −
== धार्मिक (धार्मिक) राष्ट्र/समाज संगठन ==
+
== धार्मिक राष्ट्र/समाज संगठन ==
 
उपर्युक्त संगठन के सूत्रों के आधारपर ही हमारे पूर्वजों ने समाज को संगठित किया था। समाज घटकों की स्वाभाविक आवश्यकताओं पर आधारित रचनाओं के कारण ही ये संगठन दीर्घकाल तक बने रहे।
 
उपर्युक्त संगठन के सूत्रों के आधारपर ही हमारे पूर्वजों ने समाज को संगठित किया था। समाज घटकों की स्वाभाविक आवश्यकताओं पर आधारित रचनाओं के कारण ही ये संगठन दीर्घकाल तक बने रहे।
   −
सामाजिक संगठन की सबसे महत्वपूर्ण इकाई राष्ट्र है। समान जीवन दृष्टि वाले लोगोंं के सुरक्षित सहजीवन को ही राष्ट्र कहते हैं। हमने पूर्व में जाना है कि राष्ट्र की चार मुख्य प्रणालियाँ होतीं हैं। इन चार प्रणालियों के संगठन को ही वर्णाश्रम धर्म के नाम से जाना जाता था। इनमें से पहली दो प्रणालियाँ वर्ण धर्म में आतीं हैं। और दूसरी दो प्रणालियाँ आश्रम धर्म में आती हैं। इन चारों प्रणालियों का मिलकर वर्णाश्रम धर्म का ताना बाना बनता है। इनका संगठन ही हिन्दू/भारत राष्ट्र का संगठन है।
+
सामाजिक संगठन की सबसे महत्वपूर्ण इकाई राष्ट्र है। समान जीवन दृष्टि वाले लोगोंं के सुरक्षित सहजीवन को ही राष्ट्र कहते हैं। हमने पूर्व में जाना है कि राष्ट्र की चार मुख्य प्रणालियाँ होतीं हैं। इन चार प्रणालियों के संगठन को ही वर्णाश्रम धर्म के नाम से जाना जाता था। इनमें से पहली दो प्रणालियाँ वर्ण धर्म में आतीं हैं। और दूसरी दो प्रणालियाँ [[Ashram System (आश्रम व्यवस्था)|आश्रम धर्म]] में आती हैं। इन चारों प्रणालियों का मिलकर वर्णाश्रम धर्म का ताना बाना बनता है। इनका संगठन ही हिन्दू/भारत राष्ट्र का संगठन है।
    
समान जीवनदृष्टिवाले समाज के घटकों की जीवनशैली समान होती है। आकांक्षाएँ और इच्छाएँ भी समान होतीं हैं। इस कारण समाज में संघर्ष की संभावनाएं बहुत कम होतीं हैं। लेकिन भिन्न जीवनदृष्टि वाले समाज के साथ सहजीवन सहज और सरल नहीं होता। अतः समान जीवनदृष्टि वाले समाज के सहजीवन के लिए भौगोलिक दृष्टि से सुरक्षित भूमि की आवश्यकता होती है।  
 
समान जीवनदृष्टिवाले समाज के घटकों की जीवनशैली समान होती है। आकांक्षाएँ और इच्छाएँ भी समान होतीं हैं। इस कारण समाज में संघर्ष की संभावनाएं बहुत कम होतीं हैं। लेकिन भिन्न जीवनदृष्टि वाले समाज के साथ सहजीवन सहज और सरल नहीं होता। अतः समान जीवनदृष्टि वाले समाज के सहजीवन के लिए भौगोलिक दृष्टि से सुरक्षित भूमि की आवश्यकता होती है।  
Line 119: Line 119:     
== आश्रम प्रणाली ==
 
== आश्रम प्रणाली ==
आश्रम प्रणाली के तीन मोटे मोटे हिस्से बनते हैं:
+
[[Ashram System (आश्रम व्यवस्था)|आश्रम प्रणाली]] के तीन मोटे मोटे हिस्से बनते हैं:
    
=== आश्रम प्रणाली-1 (कुटुंब: स्त्री-पुरुष सहजीवन) ===
 
=== आश्रम प्रणाली-1 (कुटुंब: स्त्री-पुरुष सहजीवन) ===
 
स्त्री और पुरूष की बनावट में कुछ समानताएं होतीं हैं और भिन्नताएं भी होतीं हैं। समानता के कारण कुछ विषयों में स्त्री और पुरूष समान होते हैं। और भिन्नताओं के कारण कुछ विषयों में समान नहीं होते। इन भिन्नताओं का कारण उनके अस्तित्व के प्रयोजन से है। इसा विषय में हमने [[Personality (व्यक्तित्व)|इस]] अध्याय में जानकारी ली है। सृष्टि के प्रत्येक अस्तित्व में भिन्नता है। उस अस्तित्व की भिन्नता ही उसका प्रयोजन क्या है यह तय करती है। इसी कारण से स्त्री और पुरूष में भिन्नता होने से उनके प्रयोजन में कुछ भिन्नता होना स्वाभाविक है।  
 
स्त्री और पुरूष की बनावट में कुछ समानताएं होतीं हैं और भिन्नताएं भी होतीं हैं। समानता के कारण कुछ विषयों में स्त्री और पुरूष समान होते हैं। और भिन्नताओं के कारण कुछ विषयों में समान नहीं होते। इन भिन्नताओं का कारण उनके अस्तित्व के प्रयोजन से है। इसा विषय में हमने [[Personality (व्यक्तित्व)|इस]] अध्याय में जानकारी ली है। सृष्टि के प्रत्येक अस्तित्व में भिन्नता है। उस अस्तित्व की भिन्नता ही उसका प्रयोजन क्या है यह तय करती है। इसी कारण से स्त्री और पुरूष में भिन्नता होने से उनके प्रयोजन में कुछ भिन्नता होना स्वाभाविक है।  
   −
स्त्री और पुरूष में एक स्वाभाविक आकर्षण होता है। यह आकर्षण उनकी परस्पर पूरकता के कारण होता है। परस्पर की किन्हीं आवश्यकताओं की पूर्ति की संभावना के कारण होता है। कोई भी भूख लगा हुआ जीव अन्न की ओर आकर्षित होता है। उसके शरीर में वह, कुछ कमी का अनुभव करता है। इस कमी की पूर्ति अन्न से होनेवाली होती है। इसीलिये वह अन्न की ओर आकर्षित होता है। इसी तरह से पुरूष अपनी किन्हीं आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए और स्त्री अपनी उसी प्रकार की कुछ आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए एक दूसरे के प्रति आकर्षित होते हैं। सहजीवन की दोनों को आवश्यकता होती है। धार्मिक (धार्मिक) मान्यता है कि स्त्री और पुरुष मिलकर पूर्ण बनते हैं। अतः दोनों परस्पर पूरक होते हैं। भारत में अर्ध-नारी-नटेश्वर की संकल्पना इसी के कारण है। उसके माध्यम से स्त्री और पुरूष दोनों के महत्व और परस्पर पूरकता को अभिव्यक्त किया गया है। ऐसी अर्ध-नारी-नटेश्वर की संकल्पना यह हमारी विशेषता है। धार्मिकता की एक पहचान है।
+
स्त्री और पुरूष में एक स्वाभाविक आकर्षण होता है। यह आकर्षण उनकी परस्पर पूरकता के कारण होता है। परस्पर की किन्हीं आवश्यकताओं की पूर्ति की संभावना के कारण होता है। कोई भी भूख लगा हुआ जीव अन्न की ओर आकर्षित होता है। उसके शरीर में वह, कुछ कमी का अनुभव करता है। इस कमी की पूर्ति अन्न से होनेवाली होती है। इसीलिये वह अन्न की ओर आकर्षित होता है। इसी तरह से पुरूष अपनी किन्हीं आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए और स्त्री अपनी उसी प्रकार की कुछ आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए एक दूसरे के प्रति आकर्षित होते हैं। सहजीवन की दोनों को आवश्यकता होती है। धार्मिक मान्यता है कि स्त्री और पुरुष मिलकर पूर्ण बनते हैं। अतः दोनों परस्पर पूरक होते हैं। भारत में अर्ध-नारी-नटेश्वर की संकल्पना इसी के कारण है। उसके माध्यम से स्त्री और पुरूष दोनों के महत्व और परस्पर पूरकता को अभिव्यक्त किया गया है। ऐसी अर्ध-नारी-नटेश्वर की संकल्पना यह हमारी विशेषता है। धार्मिकता की एक पहचान है।
   −
स्त्री और पुरूष में यह आकर्षण उनकी यौवनावस्था से निर्माण होता है। यौवनसुलभ वासना के कारण होता है। लेकिन वासना पूर्ति यह तो परस्पर की भिन्न भिन्न आवश्यकताओं में से एक आवश्यकता है। यौवन से लेकर मृत्यू तक की अन्य भी कई आवश्यकताएँ होतीं हैं। समाज बना रहे, वृद्धावस्था भी सुख से गुजरे आदि बातों के कारण नए जीव के निर्माण करना होता है। इस के लिए दोनों का सहभाग अनिवार्य होता है। बच्चे को जन्म देने के बाद उसके संगोपन की आवश्यकता होती है। यह स्त्री अधिक अच्छा कर सकती है। स्त्री शारीरिक दृष्टि से दुर्बल होने के कारण उसे वासनांध पुरूषों से बचाने की आवश्यकता होती है। बच्चों का संगोपन, जीवन के विभिन्न कार्यों का विभाजन, वृद्धावस्था के सुख की आश्वस्ति आदि कारणोंसे यह स्त्री पुरूष परस्पर सहयोग आजीवन आवश्यक होता है। इसे अनुशासन में बांधने के लिए विवाह का संस्कार होता है। इसे ध्यान में रखकर ही विवाह को संस्कार कहा गया है। दो भिन्न अस्तित्वों का अति घनिष्ठ बनकर याने एक बनकर जीना ही विवाह संस्कार का प्रयोजन है। इस घनिष्ठता के कारण पति पत्नि में एकात्मता होती है। यह एकात्मता रक्त सम्बन्धों तक और आगे चराचर तक विकसित हो इस दृष्टि से कुटुंब की प्रणाली बनती है।
+
स्त्री और पुरूष में यह आकर्षण उनकी यौवनावस्था से निर्माण होता है। यौवनसुलभ वासना के कारण होता है। लेकिन वासना पूर्ति यह तो परस्पर की भिन्न भिन्न आवश्यकताओं में से एक आवश्यकता है। यौवन से लेकर मृत्यू तक की अन्य भी कई आवश्यकताएँ होतीं हैं। समाज बना रहे, वृद्धावस्था भी सुख से गुजरे आदि बातों के कारण नए जीव के निर्माण करना होता है। इस के लिए दोनों का सहभाग अनिवार्य होता है। बच्चे को जन्म देने के बाद उसके संगोपन की आवश्यकता होती है। यह स्त्री अधिक अच्छा कर सकती है। स्त्री शारीरिक दृष्टि से दुर्बल होने के कारण उसे वासनांध पुरूषों से बचाने की आवश्यकता होती है। बच्चोंं का संगोपन, जीवन के विभिन्न कार्यों का विभाजन, वृद्धावस्था के सुख की आश्वस्ति आदि कारणोंसे यह स्त्री पुरूष परस्पर सहयोग आजीवन आवश्यक होता है। इसे अनुशासन में बांधने के लिए विवाह का संस्कार होता है। इसे ध्यान में रखकर ही विवाह को संस्कार कहा गया है। दो भिन्न अस्तित्वों का अति घनिष्ठ बनकर याने एक बनकर जीना ही विवाह संस्कार का प्रयोजन है। इस घनिष्ठता के कारण पति पत्नि में एकात्मता होती है। यह एकात्मता रक्त सम्बन्धों तक और आगे चराचर तक विकसित हो इस दृष्टि से कुटुंब की प्रणाली बनती है।
    
अन्य किसी भी सामाजिक सम्बन्ध से स्त्री पुरुष जो एक दूसरे के पति पत्नि हैं उनमें अत्यंत निकटता होती है। इस से अधिक निकटता का सम्बन्ध अन्य कोई नहीं है। रक्त सम्बन्ध गाढे होते हैं। विवाह के कारण पति पत्नि में रज और वीर्य के सम्बन्ध स्थापित होते हैं। अन्न से अन्नरस, रक्त, मेद, मांस, मज्जा, अस्थि और रज/वीर्य यह सप्तधातु बनते हैं। आयुर्वेद के अनुसार इनमें ४०:१ का गुणोत्तर होता है। ४० ग्राम अन्नरस से १ ग्राम रक्त बनता है। ४० ग्राम रक्त से १ ग्राम मेद बनता है। इस प्रकार से रज वीर्य का संबंध रक्त संबंधों से १०,२४,००,०००  याने दस करोड़ चौबीस लाख गुना गाढे होते हैं। इसीलिए चराचर में व्याप्त एकात्मता की सबसे तीव्र अनुभूति पति-पत्नि के संबंधों में ही होती है। पति-पत्नि द्वारा अनुभूत एकात्मता को, प्रारंभ बिंदु बनाकर उनके साझे प्रयासों से पैदा की गई संतानों में एकात्मता की भावना स्थापित करने के प्रयास किये जाने चाहिये। इस दृष्टि से पति-पत्नि के सहजीवन के साथ ही संतानों पर एकात्मता के संस्कार किये जाने चाहिए। सामाजिकता की भावना चराचर में निहित एकात्मता का ही छोटा स्तर है। पति-पत्नि और संतानों से मिलकर बने संगठन को जब चराचर की एकात्मता या सर्वे भवन्तु सुखिन: की प्राप्ति के लिए विकसित किया जाता है तब उसे ‘कुटुंब’ कहते हैं। फिर उस कुटुंब में रक्तसम्बन्धी रिश्तेदार तो आते ही हैं, अतिथि, याचक, द्वार-विक्रेता, मित्र-मण्डली, मधुकरी, पशु, पक्षी, चींटियों जैसे प्राणी, धरतीमाता, गंगामाता, गोमाता, बिल्ली मौसी, चुहेदादा, चंदामामा, तुलसीमाता, पेडपौधे, नाग, बरगद, पीपल जैसे वृक्ष आदि चराचर के सभी घटकों का समावेश हो जाता है। इन से पारिवारिक सम्बन्ध बनाने के संस्कार और शिक्षा दी जा सकती है। पृथ्वी, सूर्य, चन्द्र, वरुण, वायू आदि सृष्टि के देवताओं के प्रति यानि पर्यावरण के प्रति पवित्रता की भावना निर्माण की जा सकती है। हमारा आदर्श भगवान शंकर का कुटुंब है। बच्चा जन्म लेता है तब उसे केवल अधिकार होते हैं। कोई कर्तव्य नहीं होते। किन्तु समाज को यदि सुख शांतिमय जीवन चाहिए हो तो अपने कर्तव्यों और अन्यों के अधिकारों पर बल देना पड़ता है। केवल अधिकार लेकर जिस बच्चे ने जन्म लिया है उसे केवल कर्तव्य हैं और कोई अधिकार नहीं हैं ऐसा मनुष्य बनाना यह भी कुटुंब का ही काम होता है। परिवार के घटक निम्न होते हैं:
 
अन्य किसी भी सामाजिक सम्बन्ध से स्त्री पुरुष जो एक दूसरे के पति पत्नि हैं उनमें अत्यंत निकटता होती है। इस से अधिक निकटता का सम्बन्ध अन्य कोई नहीं है। रक्त सम्बन्ध गाढे होते हैं। विवाह के कारण पति पत्नि में रज और वीर्य के सम्बन्ध स्थापित होते हैं। अन्न से अन्नरस, रक्त, मेद, मांस, मज्जा, अस्थि और रज/वीर्य यह सप्तधातु बनते हैं। आयुर्वेद के अनुसार इनमें ४०:१ का गुणोत्तर होता है। ४० ग्राम अन्नरस से १ ग्राम रक्त बनता है। ४० ग्राम रक्त से १ ग्राम मेद बनता है। इस प्रकार से रज वीर्य का संबंध रक्त संबंधों से १०,२४,००,०००  याने दस करोड़ चौबीस लाख गुना गाढे होते हैं। इसीलिए चराचर में व्याप्त एकात्मता की सबसे तीव्र अनुभूति पति-पत्नि के संबंधों में ही होती है। पति-पत्नि द्वारा अनुभूत एकात्मता को, प्रारंभ बिंदु बनाकर उनके साझे प्रयासों से पैदा की गई संतानों में एकात्मता की भावना स्थापित करने के प्रयास किये जाने चाहिये। इस दृष्टि से पति-पत्नि के सहजीवन के साथ ही संतानों पर एकात्मता के संस्कार किये जाने चाहिए। सामाजिकता की भावना चराचर में निहित एकात्मता का ही छोटा स्तर है। पति-पत्नि और संतानों से मिलकर बने संगठन को जब चराचर की एकात्मता या सर्वे भवन्तु सुखिन: की प्राप्ति के लिए विकसित किया जाता है तब उसे ‘कुटुंब’ कहते हैं। फिर उस कुटुंब में रक्तसम्बन्धी रिश्तेदार तो आते ही हैं, अतिथि, याचक, द्वार-विक्रेता, मित्र-मण्डली, मधुकरी, पशु, पक्षी, चींटियों जैसे प्राणी, धरतीमाता, गंगामाता, गोमाता, बिल्ली मौसी, चुहेदादा, चंदामामा, तुलसीमाता, पेडपौधे, नाग, बरगद, पीपल जैसे वृक्ष आदि चराचर के सभी घटकों का समावेश हो जाता है। इन से पारिवारिक सम्बन्ध बनाने के संस्कार और शिक्षा दी जा सकती है। पृथ्वी, सूर्य, चन्द्र, वरुण, वायू आदि सृष्टि के देवताओं के प्रति यानि पर्यावरण के प्रति पवित्रता की भावना निर्माण की जा सकती है। हमारा आदर्श भगवान शंकर का कुटुंब है। बच्चा जन्म लेता है तब उसे केवल अधिकार होते हैं। कोई कर्तव्य नहीं होते। किन्तु समाज को यदि सुख शांतिमय जीवन चाहिए हो तो अपने कर्तव्यों और अन्यों के अधिकारों पर बल देना पड़ता है। केवल अधिकार लेकर जिस बच्चे ने जन्म लिया है उसे केवल कर्तव्य हैं और कोई अधिकार नहीं हैं ऐसा मनुष्य बनाना यह भी कुटुंब का ही काम होता है। परिवार के घटक निम्न होते हैं:
Line 139: Line 139:     
=== आश्रम प्रणाली-2: (चार / तीन आश्रम) ===
 
=== आश्रम प्रणाली-2: (चार / तीन आश्रम) ===
आश्रम में ‘श्रम’ शब्द है। इसका अर्थ है आजीवन श्रम। आयु की हर अवस्था में परिश्रम तो करना ही है। जन्म, बाल्य, यौवन, वृद्धावस्था और मृत्यू का चक्र अविरत चलता रहता है। मानव बालक जब जन्म लेता है तो वह पूर्णतया परावलंबी होता है। जब वह यौवनावस्था में होता है तब सामर्थ्यवान होता है। फिर जब वृद्धावस्था की ओर बढ़ता है तब उसकी कई क्षमताओं में कमी आती है। वह क्रमश: परावलंबी बनता जाता है। अतः मानव जीवन को मोटे मोटे चार हिस्सों में बांटना उचित होता है। युवावस्था तक का, यौवन का, प्रौढ़ता का और वृद्धावस्था का ऐसे चार विभाग बनते हैं। यौवनावस्थातक के काल में क्षमताएं बढ़ने और बढाने का काल होता है। इस काल में क्षमताएं बढाने से यौवनावस्था में ,वह यौवनावस्था के पूर्वतक के तथा यौवनावस्था के बाद के काल में जो लोग हैं उनका तथा अपना भी जीवन सुख से बीते इस की आश्वस्ति कर सकता है। इसे अनुशासन में बिठाने से आश्रम रचना बनती है। प्रौढ़ता की आयु में मनुष्य की शारीरिक क्षमताएं घटना आरम्भ हो जाता है लेकिन वह ज्ञान और जीवन के अनुभवों से यौवनावस्था समाप्ति तक की आयु के लोगोंं से समृद्ध होता है। इसे वानप्रस्थी कहते हैं। इस आयु में वह प्रौढावस्था से कम आयु के लोगोंं के लिए मार्गदर्शन की भूमिका में होने से जीवन का उन्नयन होता जाता है। इस प्रकार से आश्रम चार बनाते हैं। ये निम्न हैं:
+
आश्रम में ‘श्रम’ शब्द है। इसका अर्थ है आजीवन श्रम। आयु की हर अवस्था में परिश्रम तो करना ही है। जन्म, बाल्य, यौवन, वृद्धावस्था और मृत्यू का चक्र अविरत चलता रहता है। मानव बालक जब जन्म लेता है तो वह पूर्णतया परावलंबी होता है। जब वह यौवनावस्था में होता है तब सामर्थ्यवान होता है। फिर जब वृद्धावस्था की ओर बढ़ता है तब उसकी कई क्षमताओं में कमी आती है। वह क्रमश: परावलंबी बनता जाता है। अतः मानव जीवन को मोटे मोटे चार हिस्सों में बांटना उचित होता है। युवावस्था तक का, यौवन का, प्रौढ़ता का और वृद्धावस्था का ऐसे चार विभाग बनते हैं। यौवनावस्थातक के काल में क्षमताएं बढ़ने और बढाने का काल होता है। इस काल में क्षमताएं बढाने से यौवनावस्था में ,वह यौवनावस्था के पूर्वतक के तथा यौवनावस्था के बाद के काल में जो लोग हैं उनका तथा अपना भी जीवन सुख से बीते इस की आश्वस्ति कर सकता है। इसे अनुशासन में बिठाने से आश्रम रचना बनती है। प्रौढ़ता की आयु में मनुष्य की शारीरिक क्षमताएं घटना आरम्भ हो जाता है लेकिन वह ज्ञान और जीवन के अनुभवों से यौवनावस्था समाप्ति तक की आयु के लोगोंं से समृद्ध होता है। इसे वानप्रस्थी कहते हैं। इस आयु में वह प्रौढावस्था से कम आयु के लोगोंं के लिए मार्गदर्शन की भूमिका में होने से जीवन का उन्नयन होता जाता है। इस प्रकार से आश्रम चार बनाते हैं। ये निम्न हैं: ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ/ उत्तर गृहस्थ, संन्यास
 
  −
ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ/ उत्तर गृहस्थ, संन्यास
      
वर्तमान के अनुसार संन्यास अवस्था तो लगभग लुप्तप्राय हो गई है। अतः अब आयु की अवस्था के अनुसार केवल तीन ही आश्रमों का विचार उचित होगा:
 
वर्तमान के अनुसार संन्यास अवस्था तो लगभग लुप्तप्राय हो गई है। अतः अब आयु की अवस्था के अनुसार केवल तीन ही आश्रमों का विचार उचित होगा:
Line 157: Line 155:     
== उपसंहार ==
 
== उपसंहार ==
संयुक्त परिवार, वर्ण, जाति, ग्रामकुल, राष्ट्र ऐसी प्राकृतिक आवश्यकताओं का आधार लेकर प्रकृति सुसंगत बातों को पुष्ट और धर्मानुकूल बनाने से ही ये प्रणालियाँ ठीक चला रही थीं और राष्ट्र संगठन अब तक टिका हुआ था। लेकिन हमारे दुर्लक्ष के कारण हिंदू समाज का संगठन पूरी तरह से चरमरा रहा है। जिस गति से वर्तमान जीवन का अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान हमें भ्रष्ट और नष्ट कर रहा है उस गति से अधिक गति हमें जीवन के धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान की प्रतिष्ठापना के कार्य को देनी होगी। यह कठिन बहुत है। लेकिन असंभव तो कतई नहीं है।
+
संयुक्त परिवार, वर्ण, जाति, ग्रामकुल, राष्ट्र ऐसी प्राकृतिक आवश्यकताओं का आधार लेकर प्रकृति सुसंगत बातों को पुष्ट और धर्मानुकूल बनाने से ही ये प्रणालियाँ ठीक चला रही थीं और राष्ट्र संगठन अब तक टिका हुआ था। लेकिन हमारे दुर्लक्ष के कारण हिंदू समाज का संगठन पूरी तरह से चरमरा रहा है। जिस गति से वर्तमान जीवन का अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान हमें भ्रष्ट और नष्ट कर रहा है उस गति से अधिक गति हमें जीवन के धार्मिक प्रतिमान की प्रतिष्ठापना के कार्य को देनी होगी। यह कठिन बहुत है। लेकिन असंभव तो कतई नहीं है।
    
==References==
 
==References==
Line 165: Line 163:  
[[Category:Dharmik Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान - भाग १)]]
 
[[Category:Dharmik Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान - भाग १)]]
 
[[Category:Dharmik Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान)]]
 
[[Category:Dharmik Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान)]]
 +
[[Category:Dharmik Jeevan Pratimaan Paathykram]]

Navigation menu