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| यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः । भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ॥३- १३॥ | | यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः । भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ॥३- १३॥ |
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| + | yajña-śiṣṭāśinaḥ santo mucyante sarva-kilbiṣaiḥ bhuñjate te tv aghaṁ pāpā ye pacanty ātma-kāraṇāt ॥ 3-13 ॥ |
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| अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः । यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ॥३- १४॥ | | अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः । यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ॥३- १४॥ |
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| + | annād bhavanti bhūtāni parjanyād anna-sambhavaḥ yajñād bhavati parjanyo yajñaḥ karma-samudbhavaḥ ॥ 3-14 ॥ |
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| कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम् । तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ॥३- १५॥ | | कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम् । तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ॥३- १५॥ |
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| + | karma brahmodbhavaṁ viddhi brahmākṣara-samudbhavam tasmāt sarva-gataṁ brahmanityaṁ yajñe pratiṣṭhitam ॥ 3-15 ॥ |
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| एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः । अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥३- १६॥ | | एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः । अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥३- १६॥ |
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| + | evaṁ pravartitaṁ cakraṁ nānuvartayatīha yaḥ aghāyur indriyārāmo moghaṁ pārtha sa jīvati ॥ 3-16 ॥ |
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| यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः । आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ॥३- १७॥ | | यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः । आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ॥३- १७॥ |
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| + | yas tv ātma-ratir eva syād ātma-tṛptaś ca mānavaḥ ātmany eva ca santuṣṭas tasya kāryaṁ na vidyate ॥ 3-17 ॥ |
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| नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन । न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ॥३- १८॥ | | नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन । न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ॥३- १८॥ |
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| + | naiva tasya kṛtenārtho nākṛteneha kaścana na cāsya sarva-bhūteṣu kaścid artha-vyapāśrayaḥ ॥ 3-18 ॥ |
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| तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर । असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः ॥३- १९॥ | | तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर । असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः ॥३- १९॥ |
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| + | tasmād asaktaḥ satataṁ kāryaṁ karma samācara asakto hy ācaran karma param āpnoti pūruṣaḥ ॥ 3-19 ॥ |
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| कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः । लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि ॥३- २०॥ | | कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः । लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि ॥३- २०॥ |
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| + | karmaṇaiva hi saṁsiddhim āsthitā janakādayaḥ loka-saṅgraham evāpi sampaśyan kartum arhasi ॥ 3-20 ॥ |
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| यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः । स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥३- २१॥ | | यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः । स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥३- २१॥ |
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| + | yad yad ācarati śreṣṭhas tat tad evetaro janaḥ sa yat pramāṇaṁ kurute lokas tad anuvartate ॥ 3-21 ॥ |
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| न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन । नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ॥३- २२॥ | | न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन । नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ॥३- २२॥ |
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| + | na me pārthāsti kartavyaṁ triṣu lokeṣu kiñcana nānavāptam avāptavyaṁ varta eva ca karmaṇi ॥ 3-22 ॥ |
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| यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः । मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥३- २३॥ | | यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः । मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥३- २३॥ |
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| + | yadi hy ahaṁ na varteyaṁ jātu karmaṇy atandritaḥ mama vartmānuvartante manuṣyāḥ pārtha sarvaśaḥ ॥ 3-23 ॥ |
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| उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम् । संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः ॥३- २४॥ | | उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम् । संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः ॥३- २४॥ |
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| + | utsīdeyur ime lokā na kuryāṁ karma ced aham saṅkarasya ca kartā syām saṅkarasya ca kartā syām upahanyām imāḥ prajāḥ ॥ 3-24 ॥ |
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| सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत । कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम् ॥३- २५॥ | | सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत । कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम् ॥३- २५॥ |
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| + | saktāḥ karmaṇy avidvāṁso yathā kurvanti bhārata kuryād vidvāṁs tathāsaktaś cikīrṣur loka-saṅgraham ॥ 3-25 ॥ |
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| न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम् । जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन् ॥३- २६॥ | | न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम् । जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन् ॥३- २६॥ |
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| + | na buddhi-bhedaṁ janayed ajñānāṁ karma-saṅginām joṣayet sarva-karmāṇi vidvān yuktaḥ samācaran ॥ 3-26 ॥ |
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| प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः । अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥३- २७॥ | | प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः । अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥३- २७॥ |
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| + | prakṛteḥ kriyamāṇāni guṇaiḥ karmāṇi sarvaśaḥ ahaṅkāra-vimūḍhātmā kartāham iti manyate ॥ 3-27 ॥ |
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| तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः । गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ॥३- २८॥ | | तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः । गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ॥३- २८॥ |
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| + | tattva-vit tu mahā-bāho guṇa-karma-vibhāgayoḥ guṇā guṇeṣu vartanta iti matvā na sajjate ॥ 3-28 ॥ |
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| प्रकृतेर्गुणसंमूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु । तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत् ॥३- २९॥ | | प्रकृतेर्गुणसंमूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु । तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत् ॥३- २९॥ |
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| + | prakṛter guṇa-sammūḍhāḥ sajjante guṇa-karmasu tān akṛtsna-vido mandān kṛtsna-vin na vicālayet ॥ 3-29 ॥ |
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| मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा । निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ॥३- ३०॥ | | मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा । निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ॥३- ३०॥ |
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| + | mayi sarvāṇi karmāṇi sannyasyādhyātma-cetasā nirāśīr nirmamo bhūtvā yudhyasva vigata-jvaraḥ ॥ 3-30 ॥ |
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| ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः । श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः ॥३- ३१॥ | | ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः । श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः ॥३- ३१॥ |
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| + | ye me matam idaṁ nityam anutiṣṭhanti mānavāḥ śraddhāvanto ’nasūyanto mucyante te ’pi karmabhiḥ ॥ 3-31 ॥ |
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| ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम् । सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः ॥३- ३२॥ | | ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम् । सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः ॥३- ३२॥ |
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| + | ye tv etad abhyasūyanto nānutiṣṭhanti me matam sarva-jñāna-vimūḍhāṁs tān viddhi naṣṭān acetasaḥ ॥ 3-32 ॥ |
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| सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि । प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ॥३- ३३॥ | | सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि । प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ॥३- ३३॥ |
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| + | sadṛśaṁ ceṣṭate svasyāḥ prakṛter jñānavān api prakṛtiṁ yānti bhūtāni nigrahaḥ kiṁ kariṣyati ॥ 3-33 ॥ |
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| इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ । तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ॥३- ३४॥ | | इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ । तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ॥३- ३४॥ |
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| + | indriyasyendriyasyārthe rāga-dveṣau vyavasthitau tayor na vaśam āgacchet tau hy asya paripanthinau ॥ 3-34 ॥ |
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| श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् । स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥३- ३५॥ | | श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् । स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥३- ३५॥ |
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− | '''अर्जुन उवाच''' | + | śreyān sva-dharmo viguṇaḥ para-dharmāt sv-anuṣṭhitāt sva-dharme nidhanaṁ śreyaḥ para-dharmo bhayāvahaḥ ॥ 3-35 ॥ |
− | अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः । अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ॥३- ३६॥ | + | |
| + | '''अर्जुन उवाच''' अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः । अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ॥३- ३६॥ |
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− | '''श्रीभगवानुवाच''' | + | arjuna uvāca atha kena prayukto ’yaṁ pāpaṁ carati pūruṣaḥ anicchann api vārṣṇeya balād iva niyojitaḥ ॥ 3-36 ॥ |
− | काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः । महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम् ॥३- ३७॥ | + | |
| + | '''श्रीभगवानुवाच''' काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः । महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम् ॥३- ३७॥ |
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| + | śrī-bhagavān uvāca kāma eṣa krodha eṣa rajo-guṇa-samudbhavaḥ mahāśano mahā-pāpmā viddhy enam iha vairiṇam ॥ 3-37 ॥ |
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| धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च । यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम् ॥३- ३८॥ | | धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च । यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम् ॥३- ३८॥ |
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| + | dhūmenāvriyate vahnir yathādarśo malena ca yatholbenāvṛto garbhas tathā tenedam āvṛtam ॥ 3-38 ॥ |
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| आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा । कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ॥३- ३९॥ | | आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा । कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ॥३- ३९॥ |
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| + | āvṛtaṁ jñānam etena jñānino nitya-vairiṇā kāma-rūpeṇa kaunteya duṣpūreṇānalena ca ॥ 3-39 ॥ |
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| इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते । एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम् ॥३- ४०॥ | | इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते । एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम् ॥३- ४०॥ |
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| + | indriyāṇi mano buddhir asyādhiṣṭhānam ucyate etair vimohayaty eṣa jñānam āvṛtya dehinam ॥ 3-40 ॥ |
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| तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ । पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम् ॥३- ४१॥ | | तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ । पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम् ॥३- ४१॥ |
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| + | tasmāt tvam indriyāṇy ādau niyamya bharatarṣabha pāpmānaṁ prajahi hy enaṁ jñāna-vijñāna-nāśanam ॥ 3-41 ॥ |
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| इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः । मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ॥३- ४२॥ | | इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः । मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ॥३- ४२॥ |
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| + | indriyāṇi parāṇy āhur indriyebhyaḥ paraṁ manaḥ manasas tu parā buddhir yo buddheḥ paratas tu saḥ ॥ 3-42 ॥ |
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| एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना । जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् ॥३- ४३॥ | | एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना । जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् ॥३- ४३॥ |
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| + | evaṁ buddheḥ paraṁ buddhvā saṁstabhyātmānam ātmanā jahi śatruṁ mahā-bāho kāma-rūpaṁ durāsadam ॥ 3-43 ॥ |
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| ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मयोगो नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥ | | ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मयोगो नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥ |