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संध्योपासन,नित्य पूजन,गणेश गौरी कलश विष्णु आदि देव पूजन में अग्र और मूल सहित दो कुशाओं की पवित्री  दोनों  हाथों की अनामिका उंगली में धारण करनी चाहिये एवं संकल्प आदि विविध पूजन संबन्धी कार्यों में कुश की आवश्यकता पड़ती है।<blockquote>जपहोमतराह्ये ते श्रसुरा दैत्यरूपिणः ।पवित्रकृतहस्तस्य विद्रवन्ति दिशो दश ।।</blockquote><blockquote>यथा वज्रं सुरेन्द्रस्य यथा चक्रं हरेस्तथा।त्रिशूलं च त्रिनेत्रस्य ब्राह्मणस्य पवित्रकम् ।।<ref>पं० श्रीवेणीराम शर्मा गौड़,यज्ञमीमांसा,चौखम्बा विद्याभवन वाराणसी (पृ०३७३)।</ref></blockquote>'''अनु''' '''-''' जप और होमके फलको हरण करनेवाले दैत्यरूपी असुर हाथमें पवित्र धारण किये हुए ब्राह्मण को देखकर दशों दिशाओं  में भाग जाते हैं। जैसे इन्द्रका वज्र, विष्णुका चक्र और शिवका त्रिशूल शस्त्र कहा गया है, वैसे ही ब्राह्मण का रक्षक शस्त्र पवित्र कहा गया है।<blockquote>कुशेन रहिता पूजा विफला कथिता मया ॥<ref>पं० श्रीवेणीराम शर्मा गौड़,यज्ञमीमांसा,चौखम्बा विद्याभवन वाराणसी (पृ०३७१)।</ref></blockquote>'''अनु-''' कुशके बिना जो पूजा होती है, वह निष्फल कही गई है ।<blockquote>जपे होमे तथा दाने स्वाध्याये पितृकर्मणि । अशून्यं तु करं कुर्यात् सुवर्णरजतैः कुशैः॥<ref>अन्त्यकर्म श्राद्धप्रकाश,गीताप्रेस गोरखपुर (पृ०४६)।</ref></blockquote>अर्थात् जप, होम, दान, स्वाध्याय तथा पितृकार्यमें कुशकी पवित्री अथवा सुवर्ण, रजत आदि धारण करना चाहिये किन्तु हाथ शून्य न रहे ।<blockquote>उदकेन विना पूजा विना दर्भेण या क्रिया । श्राज्येन च विना होमः फलं दास्यन्ति नैव ते।।<ref>पं० श्रीवेणीराम शर्मा गौड़,यज्ञमीमांसा,चौखम्बा विद्याभवन वाराणसी (पृ०३७१)।</ref></blockquote>'''अनु'''- जलके बिना जो पूजा है, कुशके बिना जो यज्ञादि क्रिया है और घृतके बिना जो होम है, वह कदापि फलप्रद नहीं होता।
 
संध्योपासन,नित्य पूजन,गणेश गौरी कलश विष्णु आदि देव पूजन में अग्र और मूल सहित दो कुशाओं की पवित्री  दोनों  हाथों की अनामिका उंगली में धारण करनी चाहिये एवं संकल्प आदि विविध पूजन संबन्धी कार्यों में कुश की आवश्यकता पड़ती है।<blockquote>जपहोमतराह्ये ते श्रसुरा दैत्यरूपिणः ।पवित्रकृतहस्तस्य विद्रवन्ति दिशो दश ।।</blockquote><blockquote>यथा वज्रं सुरेन्द्रस्य यथा चक्रं हरेस्तथा।त्रिशूलं च त्रिनेत्रस्य ब्राह्मणस्य पवित्रकम् ।।<ref>पं० श्रीवेणीराम शर्मा गौड़,यज्ञमीमांसा,चौखम्बा विद्याभवन वाराणसी (पृ०३७३)।</ref></blockquote>'''अनु''' '''-''' जप और होमके फलको हरण करनेवाले दैत्यरूपी असुर हाथमें पवित्र धारण किये हुए ब्राह्मण को देखकर दशों दिशाओं  में भाग जाते हैं। जैसे इन्द्रका वज्र, विष्णुका चक्र और शिवका त्रिशूल शस्त्र कहा गया है, वैसे ही ब्राह्मण का रक्षक शस्त्र पवित्र कहा गया है।<blockquote>कुशेन रहिता पूजा विफला कथिता मया ॥<ref>पं० श्रीवेणीराम शर्मा गौड़,यज्ञमीमांसा,चौखम्बा विद्याभवन वाराणसी (पृ०३७१)।</ref></blockquote>'''अनु-''' कुशके बिना जो पूजा होती है, वह निष्फल कही गई है ।<blockquote>जपे होमे तथा दाने स्वाध्याये पितृकर्मणि । अशून्यं तु करं कुर्यात् सुवर्णरजतैः कुशैः॥<ref>अन्त्यकर्म श्राद्धप्रकाश,गीताप्रेस गोरखपुर (पृ०४६)।</ref></blockquote>अर्थात् जप, होम, दान, स्वाध्याय तथा पितृकार्यमें कुशकी पवित्री अथवा सुवर्ण, रजत आदि धारण करना चाहिये किन्तु हाथ शून्य न रहे ।<blockquote>उदकेन विना पूजा विना दर्भेण या क्रिया । श्राज्येन च विना होमः फलं दास्यन्ति नैव ते।।<ref>पं० श्रीवेणीराम शर्मा गौड़,यज्ञमीमांसा,चौखम्बा विद्याभवन वाराणसी (पृ०३७१)।</ref></blockquote>'''अनु'''- जलके बिना जो पूजा है, कुशके बिना जो यज्ञादि क्रिया है और घृतके बिना जो होम है, वह कदापि फलप्रद नहीं होता।
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'''कुशोपयोग शास्त्रीय ही है -'''
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=== कुशोपयोग शास्त्रीय ही है ===
 
   
महाभाष्यकार श्रीपतञ्जलि जी ने श्रीपाणिनिमुनिकी अष्टाध्यायी-निर्माणके समय में भी उनका, हाथों में कुश से निर्मित पवित्री पहिनना दिखलाया है। <blockquote>प्रमाणभूत आचार्यो दर्भपवित्रपाणिः शुचौ अवकाशे, प्राङ्मुख उपविश्य, महता प्रयत्नेन सूत्राणि प्रणयति स्म । तत्राशक्यं वर्णेनापि अनर्थकेन भवितुम्; किं पुनरियता सूत्रेण ॥<ref>पतञ्जलि महाभाष्य,तृतीय आह्निक,प्रथम सूत्र,(१।१।१।)।[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%A5%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%BD%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83/%E0%A4%AA%E0%A5]</ref></blockquote>यहां श्रीपाणिनिका पूर्वमुख होने तथा दर्भसे पवित्र हाथवाला होनेसे उनके सूत्र-प्रणयनकर्मकी सफलता तथा निरर्थकताका अभाव दिखलाया है।
 
महाभाष्यकार श्रीपतञ्जलि जी ने श्रीपाणिनिमुनिकी अष्टाध्यायी-निर्माणके समय में भी उनका, हाथों में कुश से निर्मित पवित्री पहिनना दिखलाया है। <blockquote>प्रमाणभूत आचार्यो दर्भपवित्रपाणिः शुचौ अवकाशे, प्राङ्मुख उपविश्य, महता प्रयत्नेन सूत्राणि प्रणयति स्म । तत्राशक्यं वर्णेनापि अनर्थकेन भवितुम्; किं पुनरियता सूत्रेण ॥<ref>पतञ्जलि महाभाष्य,तृतीय आह्निक,प्रथम सूत्र,(१।१।१।)।[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%A5%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%BD%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83/%E0%A4%AA%E0%A5]</ref></blockquote>यहां श्रीपाणिनिका पूर्वमुख होने तथा दर्भसे पवित्र हाथवाला होनेसे उनके सूत्र-प्रणयनकर्मकी सफलता तथा निरर्थकताका अभाव दिखलाया है।
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'''कुश का वैज्ञानिक महत्व'''
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=== कुश का वैज्ञानिक महत्व ===
 
   
कुश की अंगूठी बनाकर अनामिका उंगली में पहनने का विधान है, ताकि हाथ द्वारा संचित आध्यात्मिक शक्ति पुंज दूसरी उंगलियों में न जाए, क्योंकि अनामिका के मूल में सूर्य का स्थान होने के कारण यह सूर्य की उंगली है।<ref>हस्त रेखाएँ बोलती हैं ,डाॅ० गौरी शंकर कपूर,रंजन पब्लिकेशन्स(पृ०७७)।</ref>
 
कुश की अंगूठी बनाकर अनामिका उंगली में पहनने का विधान है, ताकि हाथ द्वारा संचित आध्यात्मिक शक्ति पुंज दूसरी उंगलियों में न जाए, क्योंकि अनामिका के मूल में सूर्य का स्थान होने के कारण यह सूर्य की उंगली है।<ref>हस्त रेखाएँ बोलती हैं ,डाॅ० गौरी शंकर कपूर,रंजन पब्लिकेशन्स(पृ०७७)।</ref>
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'''श्राद्ध में निषिद्ध कुश-''' <blockquote>ये तु पिण्डास्तृता दर्भा यैः कृतं पितृतर्पणम्।अमेध्याशुचिलिप्ता ये तेषां त्यागो विधीयते ।।<ref>नित्योपासना एवं देवपूजा पद्धति, (पृ० ७०)।</ref></blockquote>'''अनु -'''पिण्ड के नीचे तथा ऊपर की, तर्पण की तथा अपवित्र जगह में पड़ी हुई कुशाओं को त्याग देना चाहिये।<blockquote>चितौ दर्भाः पथिदर्भा ये दर्भा यज्ञभूमिषु।स्तरणासनपिण्डेषु षट् कुशान् परिवर्जयेत् ॥</blockquote><blockquote>ब्रह्मयज्ञे च ये दर्भा ये दर्भाः पितृतर्पणे। हता मूत्रपुरीषाभ्यां तेषां त्यागो विधीयते॥ <ref>धर्माधिकारि श्रीनन्दपण्डित,श्राद्धकल्पलता,चौखम्बा संस्कृत सीरिज आफिस,(पृ०६५)।</ref></blockquote>'''अनु''' -चितामें बिछाये हुए, रास्तेमें पड़े हुए, पितृतर्पण एवं ब्रह्मयज्ञमें उपयोगमें लिये हुए, बिछौने, गन्दगीसे और आसनमेंसे निकाले हुए, पिण्डोंके नीचे रखे हुए तथा अपवित्र कुश -श्राद्धमें निषिद्ध समझे जाते हैं।   
 
'''श्राद्ध में निषिद्ध कुश-''' <blockquote>ये तु पिण्डास्तृता दर्भा यैः कृतं पितृतर्पणम्।अमेध्याशुचिलिप्ता ये तेषां त्यागो विधीयते ।।<ref>नित्योपासना एवं देवपूजा पद्धति, (पृ० ७०)।</ref></blockquote>'''अनु -'''पिण्ड के नीचे तथा ऊपर की, तर्पण की तथा अपवित्र जगह में पड़ी हुई कुशाओं को त्याग देना चाहिये।<blockquote>चितौ दर्भाः पथिदर्भा ये दर्भा यज्ञभूमिषु।स्तरणासनपिण्डेषु षट् कुशान् परिवर्जयेत् ॥</blockquote><blockquote>ब्रह्मयज्ञे च ये दर्भा ये दर्भाः पितृतर्पणे। हता मूत्रपुरीषाभ्यां तेषां त्यागो विधीयते॥ <ref>धर्माधिकारि श्रीनन्दपण्डित,श्राद्धकल्पलता,चौखम्बा संस्कृत सीरिज आफिस,(पृ०६५)।</ref></blockquote>'''अनु''' -चितामें बिछाये हुए, रास्तेमें पड़े हुए, पितृतर्पण एवं ब्रह्मयज्ञमें उपयोगमें लिये हुए, बिछौने, गन्दगीसे और आसनमेंसे निकाले हुए, पिण्डोंके नीचे रखे हुए तथा अपवित्र कुश -श्राद्धमें निषिद्ध समझे जाते हैं।   
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=== '''यज्ञ या हवन'''       ===
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=== यज्ञ या हवन      ===
 
<blockquote>स्नाने होमे जपे दाने स्वाध्याये पितृकर्मणि । करौ सदर्भौ कुर्वीत तथा सन्ध्याभिवादने ॥<ref>पं लालबिहारी मिश्र ,नित्यकर्म पूजाप्रकाश, गीताप्रेस गोरखपुर (पृ० ४१)।</ref></blockquote>'स्नानमें, हवन, जपमें, दान, स्वाध्यायमें, पितृकर्ममें, सन्ध्योपासनमें और अभिवादनमें दोनों हाथों में कुश धारण करने चाहिये। कुशादिके बिना कोई भी कर्म पूर्ण नहीं होता है। <blockquote>विना दर्भेण यत्कर्म विना सूत्रेण वा पुनः । राक्षसं तद्भवेत्सर्वन्नामुत्रेह फलप्रदम्||<ref>कूर्मपुराण,उत्तरार्ध,(अ० १८ श्० ५०)।[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D-%E0%A4%89%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B0%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A4%83/%E0%A4%85%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4] </ref></blockquote>कुश और यज्ञोपवीतके बिना किया हुआ समस्त कर्म राक्षस कहलाता है और वह इहलोकमें फलप्रद नहीं होता है।कुशकी लोकोत्तर-शक्ति, पवित्र करनेकी योग्यता और पापको दूर कर देनेकी क्षमता बताई है। और उसका यज्ञकी वेदीमें उपयोग भी बताया है<blockquote>एष एव विधिर्यत्र क्वचिद्धोमः ।<ref>पारस्कर गृह्यसूत्र(१।१।५)।[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%95%E0%A4%B0%E0%A4%97%E0%A5%83%E0%A4%B9%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%AE%E0%A5%8D]</ref></blockquote>तब यज्ञोंमें गृह्यसूत्रप्रोक्त कुशकण्डिकाकी वैदिकता भी सिद्ध हुई,और हवनात्मक यज्ञादि ( अग्निमुख गार्ह्य, स्मार्त्त, तान्त्रिक और लौकिक हवन ) सभी शान्तिक, पौष्टिक तथा प्रायश्चित्तादि कर्मोमें कुशकण्डिका करनी ही चाहिये हवनात्मक कार्यों में कुशकण्डिका आवश्यक है यह भी सिद्ध हुआ।<blockquote>अर्कः पलाशः खदिरो ह्यपामार्गश्च पिप्पलः।औदुम्बरं शमी दूर्वा कुशाश्च समिधो नव॥<ref>मुकुन्दवल्लभज्यौतिषाचार्यः,कर्मठगुरुः,मोतीलाल बनारसीदास(पृ ०१७५)।</ref></blockquote>नवग्रहों की समिधा में कुश को केतु की समिधा बताया गया है केतु को अध्यात्म और मोक्ष का कारक माना गया है।  केतु शांति विधानों में कुशा की मुद्रिका और कुशा की आहूतियां विशेष रूप से दी जाती हैं ।<blockquote>सर्वाण्यभिविधायैवं कुशकूर्चसमन्वितम् । <ref>श्रीमद्देवीभागवत,उत्तरखण्ड,गीताप्रेस गोरखपुर,(एकादश स्कन्ध अ०२४ श्० १७,पृ० ७५०)।</ref></blockquote>रात्रि में जल में भिगो कर रखी कुशा के जल का प्रयोग कलश स्थापन में सभी पूजा में देवताओं के अभिषेक, प्राण प्रतिष्ठा, प्रायश्चित कर्म आदि में किया जाता है।देव पूजा में प्रयुक्त कुशा का पुन: उपयोग किया जा सकता है, परन्तु पितृ एवं प्रेत कर्म में प्रयुक्त कुशा अपवित्र हो जाती है।यज्ञ, हवन, यज्ञोपवीत, ग्रहशांति पूजन कार्यो में रुद्र कलश एवं वरुण कलश में जल भर कर सर्वप्रथम कुशा डालते हैं।कलश में कुशा डालने का वैज्ञानिक पक्ष यह है कि कलश में भरा हुआ जल लंबे समय तक जीवाणु से मुक्त रहता है।
 
<blockquote>स्नाने होमे जपे दाने स्वाध्याये पितृकर्मणि । करौ सदर्भौ कुर्वीत तथा सन्ध्याभिवादने ॥<ref>पं लालबिहारी मिश्र ,नित्यकर्म पूजाप्रकाश, गीताप्रेस गोरखपुर (पृ० ४१)।</ref></blockquote>'स्नानमें, हवन, जपमें, दान, स्वाध्यायमें, पितृकर्ममें, सन्ध्योपासनमें और अभिवादनमें दोनों हाथों में कुश धारण करने चाहिये। कुशादिके बिना कोई भी कर्म पूर्ण नहीं होता है। <blockquote>विना दर्भेण यत्कर्म विना सूत्रेण वा पुनः । राक्षसं तद्भवेत्सर्वन्नामुत्रेह फलप्रदम्||<ref>कूर्मपुराण,उत्तरार्ध,(अ० १८ श्० ५०)।[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D-%E0%A4%89%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B0%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A4%83/%E0%A4%85%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4] </ref></blockquote>कुश और यज्ञोपवीतके बिना किया हुआ समस्त कर्म राक्षस कहलाता है और वह इहलोकमें फलप्रद नहीं होता है।कुशकी लोकोत्तर-शक्ति, पवित्र करनेकी योग्यता और पापको दूर कर देनेकी क्षमता बताई है। और उसका यज्ञकी वेदीमें उपयोग भी बताया है<blockquote>एष एव विधिर्यत्र क्वचिद्धोमः ।<ref>पारस्कर गृह्यसूत्र(१।१।५)।[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%95%E0%A4%B0%E0%A4%97%E0%A5%83%E0%A4%B9%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%AE%E0%A5%8D]</ref></blockquote>तब यज्ञोंमें गृह्यसूत्रप्रोक्त कुशकण्डिकाकी वैदिकता भी सिद्ध हुई,और हवनात्मक यज्ञादि ( अग्निमुख गार्ह्य, स्मार्त्त, तान्त्रिक और लौकिक हवन ) सभी शान्तिक, पौष्टिक तथा प्रायश्चित्तादि कर्मोमें कुशकण्डिका करनी ही चाहिये हवनात्मक कार्यों में कुशकण्डिका आवश्यक है यह भी सिद्ध हुआ।<blockquote>अर्कः पलाशः खदिरो ह्यपामार्गश्च पिप्पलः।औदुम्बरं शमी दूर्वा कुशाश्च समिधो नव॥<ref>मुकुन्दवल्लभज्यौतिषाचार्यः,कर्मठगुरुः,मोतीलाल बनारसीदास(पृ ०१७५)।</ref></blockquote>नवग्रहों की समिधा में कुश को केतु की समिधा बताया गया है केतु को अध्यात्म और मोक्ष का कारक माना गया है।  केतु शांति विधानों में कुशा की मुद्रिका और कुशा की आहूतियां विशेष रूप से दी जाती हैं ।<blockquote>सर्वाण्यभिविधायैवं कुशकूर्चसमन्वितम् । <ref>श्रीमद्देवीभागवत,उत्तरखण्ड,गीताप्रेस गोरखपुर,(एकादश स्कन्ध अ०२४ श्० १७,पृ० ७५०)।</ref></blockquote>रात्रि में जल में भिगो कर रखी कुशा के जल का प्रयोग कलश स्थापन में सभी पूजा में देवताओं के अभिषेक, प्राण प्रतिष्ठा, प्रायश्चित कर्म आदि में किया जाता है।देव पूजा में प्रयुक्त कुशा का पुन: उपयोग किया जा सकता है, परन्तु पितृ एवं प्रेत कर्म में प्रयुक्त कुशा अपवित्र हो जाती है।यज्ञ, हवन, यज्ञोपवीत, ग्रहशांति पूजन कार्यो में रुद्र कलश एवं वरुण कलश में जल भर कर सर्वप्रथम कुशा डालते हैं।कलश में कुशा डालने का वैज्ञानिक पक्ष यह है कि कलश में भरा हुआ जल लंबे समय तक जीवाणु से मुक्त रहता है।
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* कौन सा कुश उखाड़ेंं
 
* कौन सा कुश उखाड़ेंं
 
* कुशाग्रहणी अमावस्या का पौराणिक महत्व
 
* कुशाग्रहणी अमावस्या का पौराणिक महत्व
'''कुशोत्पाटिनी अमावस्या'''<blockquote>मासि मास्वाहता दस्तित्तन्यास्येव चादृताः । <ref>पं लालबिहारीमिश्र,नित्यकर्म पूजाप्रकाश,गीताप्रेस गोरखपुर(पृ० ४१/४२)।</ref></blockquote>कुश प्रत्येक दिन नई उखाडनी पडती है लेकिन अमावाश्या की तोडी कुशा पूरे महीने काम दे सकती है और भादों(भाद्रपद मास) की अमावश्या के दिन की तोडी कुशा पूरे साल काम आती है। इसलिए लोग इसे तोड के रख लते हैं।भाद्रपद कृष्ण पक्ष की अमावस्या को शास्त्रों में कुशाग्रहणी या कुशोत्पाटिनी अमावस्या कहा जाता है <ref>व्रत -परिचय, पं०हनूमान शर्मा,गीताप्रेस गोरखपुर( पृ० १२१)।</ref>खास बात ये है कि कुश उखाडऩे से एक दिन पहले बड़े ही आदर के साथ उसे अपने घर लाने का निमंत्रण दिया जाता है। हाथ जोड़कर प्रार्थना की जाती है।मंत्र का जाप करते हुए कुश को उखाडऩा है उसे अपने साथ घर लाना है और एक साल तक घर पर रखने से आपको शुभ फल प्राप्त होंगे।कुश का प्रयोग पूजा करते समय जल छिड़कने, उन्गलि में पवित्री पहनने, विवाह में मंडप छाने , ग्रहण के दौरान खाने-पीने की चीज़ों में रखने के लिए  तथा अन्य मांगलिक कार्यों में किया जाता है। इस घास के प्रयोग का तात्पर्य मांगलिक कार्य एवं सुख-समृद्धिकारी है।
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=== कुशोत्पाटिनी अमावस्या ===
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<blockquote>मासि मास्वाहता दस्तित्तन्यास्येव चादृताः । <ref>पं लालबिहारीमिश्र,नित्यकर्म पूजाप्रकाश,गीताप्रेस गोरखपुर(पृ० ४१/४२)।</ref></blockquote>कुश प्रत्येक दिन नई उखाडनी पडती है लेकिन अमावाश्या की तोडी कुशा पूरे महीने काम दे सकती है और भादों(भाद्रपद मास) की अमावश्या के दिन की तोडी कुशा पूरे साल काम आती है। इसलिए लोग इसे तोड के रख लते हैं।भाद्रपद कृष्ण पक्ष की अमावस्या को शास्त्रों में कुशाग्रहणी या कुशोत्पाटिनी अमावस्या कहा जाता है <ref>व्रत -परिचय, पं०हनूमान शर्मा,गीताप्रेस गोरखपुर( पृ० १२१)।</ref>खास बात ये है कि कुश उखाडऩे से एक दिन पहले बड़े ही आदर के साथ उसे अपने घर लाने का निमंत्रण दिया जाता है। हाथ जोड़कर प्रार्थना की जाती है।मंत्र का जाप करते हुए कुश को उखाडऩा है उसे अपने साथ घर लाना है और एक साल तक घर पर रखने से आपको शुभ फल प्राप्त होंगे।कुश का प्रयोग पूजा करते समय जल छिड़कने, उन्गलि में पवित्री पहनने, विवाह में मंडप छाने , ग्रहण के दौरान खाने-पीने की चीज़ों में रखने के लिए  तथा अन्य मांगलिक कार्यों में किया जाता है। इस घास के प्रयोग का तात्पर्य मांगलिक कार्य एवं सुख-समृद्धिकारी है।
    
पूजाकाले सर्वदैव कुशहस्तो भवेच्छुचि।
 
पूजाकाले सर्वदैव कुशहस्तो भवेच्छुचि।
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यानि कुश, काश , दूर्वा, जौ पत्र इत्यादि कोई भी कुश आज उखाड़ी जा सकती है और उसका घर में संचय किया जा सकता है। लेकिन इस बात का ध्यान रखना बेहद जरूरी है कि हरी पत्तेदार कुश जो कहीं से भी कटी हुई ना हो , एक विशेष बात और जान लीजिए कुश का स्वामी केतु है लिहाज़ा कुश को अगर आप अपने घर में रखेंगे तो केतु के बुरे फलों से बच सकते हैं।ज्योतिष शास्त्र के नज़रिए से कुश को विशेष वनस्पति का दर्जा दिया गया है।
 
यानि कुश, काश , दूर्वा, जौ पत्र इत्यादि कोई भी कुश आज उखाड़ी जा सकती है और उसका घर में संचय किया जा सकता है। लेकिन इस बात का ध्यान रखना बेहद जरूरी है कि हरी पत्तेदार कुश जो कहीं से भी कटी हुई ना हो , एक विशेष बात और जान लीजिए कुश का स्वामी केतु है लिहाज़ा कुश को अगर आप अपने घर में रखेंगे तो केतु के बुरे फलों से बच सकते हैं।ज्योतिष शास्त्र के नज़रिए से कुश को विशेष वनस्पति का दर्जा दिया गया है।
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'''कौन सा कुश उखाड़ेंं'''
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=== '''कौन सा कुश उखाड़ेंं''' ===
 
   
कुश उखाडऩे से पूर्व यह ध्यान रखें कि जो कुश आप उखाड़ रहे हैं वह उपयोग करने योग्य हो। ऐसा कुश ना उखाड़ें जो गन्दे स्थान पर हो, जो जला हुआ हो, जो मार्ग में हो या जिसका अग्रभाग कटा हो, इस प्रकार का कुश ग्रहण करने योग्य नहीं होता है।
 
कुश उखाडऩे से पूर्व यह ध्यान रखें कि जो कुश आप उखाड़ रहे हैं वह उपयोग करने योग्य हो। ऐसा कुश ना उखाड़ें जो गन्दे स्थान पर हो, जो जला हुआ हो, जो मार्ग में हो या जिसका अग्रभाग कटा हो, इस प्रकार का कुश ग्रहण करने योग्य नहीं होता है।
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'''कुशाग्रहणी अमावस्या का पौराणिक महत्व'''
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=== कुशाग्रहणी अमावस्या का पौराणिक महत्व ===
 
   
कुशाग्रहणी अमावस्या के दिन तीर्थ, स्नान, जप, तप और व्रत के पुण्य से ऋण और पापों से  छुटकारा मिलता है. इसलिए यह संयम, साधना और तप के लिए श्रेष्ठ दिन माना जाता है. पुराणों में अमावस्या को कुछ विशेष व्रतों के विधान है।भगवान विष्णु की आराधना की जाती है यह व्रत एक वर्ष तक किया जाता है. जिससे तन, मन और धन के कष्टों से मुक्ति मिलती है।
 
कुशाग्रहणी अमावस्या के दिन तीर्थ, स्नान, जप, तप और व्रत के पुण्य से ऋण और पापों से  छुटकारा मिलता है. इसलिए यह संयम, साधना और तप के लिए श्रेष्ठ दिन माना जाता है. पुराणों में अमावस्या को कुछ विशेष व्रतों के विधान है।भगवान विष्णु की आराधना की जाती है यह व्रत एक वर्ष तक किया जाता है. जिससे तन, मन और धन के कष्टों से मुक्ति मिलती है।
  
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