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→‎४.६ स्वर्ग - नरक कल्पना: लेख सम्पादित किया
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==== ४.६ स्वर्ग - नरक कल्पना ====
 
==== ४.६ स्वर्ग - नरक कल्पना ====
अन्य समाज और भारतीय समाज की स्वर्ग - नरक कल्पनाएं भिन्न भिन्न है । अन्य समाजों में  गॉड या अल्लापर और उन के प्रेषितोंपर श्रध्दा रखना इतना हमेशा के लिये स्वर्ग प्राप्ति के लिये पर्याप्त है । स्वर्ग-नरक की भारतीय मान्यता यह बुध्दियुक्त है । भारतीय विचार के अनुसार जिसने जितने प्रमाण में अच्छे कर्म किये होंगे उसे उतने प्रमाण में स्वर्गसुख का लाभ होगा । और उसने जितने बुरे कर्म किये होंगे उसी प्रमाण में उसे नरक-यातनाएं भोगनी पडेंगी । स्वर्ग और नरक की भारतीय कल्पना स्पष्ट होने से सामान्यत: कोई बुरा कर्म करने को प्रवृत्त नहीं होता । व्यक्ति और समाज को सदाचारी रखने में भारतीय स्वर्ग-नरक कल्पना का भी महत्वपूर्ण योगदान है ।  
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अन्य समाज और भारतीय समाज की स्वर्ग - नरक कल्पनाएं भिन्न भिन्न है । अन्य समाजों में  गॉड या अल्ला पर और उन के प्रेषितों पर श्रध्दा रखना इतना हमेशा के लिये स्वर्ग प्राप्ति के लिये पर्याप्त है । स्वर्ग-नरक की भारतीय मान्यता बुध्दियुक्त है । भारतीय विचार के अनुसार जिसने जितने प्रमाण में अच्छे कर्म किये होंगे उसे उतने प्रमाण में स्वर्गसुख का लाभ होगा । और उसने जितने बुरे कर्म किये होंगे उसी प्रमाण में उसे नरक-यातनाएं भोगनी पडेंगी । स्वर्ग और नरक की भारतीय कल्पना स्पष्ट होने से सामान्यत: कोई बुरा कर्म करने को प्रवृत्त नहीं होता । व्यक्ति और समाज को सदाचारी रखने में भारतीय स्वर्ग-नरक कल्पना का भी महत्वपूर्ण योगदान है ।  
४.७ आत्मनो मोक्षार्थं जगत् हिताय च
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जिसने अपने सभी सांसारिक कर्तव्यों को अच्छी तरह पूरा किया है ऐसे ही व्यक्ति को मोक्षगामी बनने का अधिकार था । सन्यास की अनुमति थी । स्वामी विवेकानंद तो कहते थे जबतक एक भी भारतीय दुखी है मुझे मोक्ष नही चाहिये । यही हमरे समाज के श्रेष्ठजनो का विचार और व्यवहार रहा है । अपना काम ठीक करना चाहिये । लेकिन केवल इतना पर्याप्त नही है । इस के साथ ही जबतक मै अन्यों के हित के लिये विशेष कुछ या बहुत कुछ नही करता मै मोक्षगामी नही बन सकता । अन्यों के हित के लिये मेरे बढते प्रयास ही मुझे मोक्ष की ओर ले जाने का मार्ग प्रशस्त करते है । और यह मार्ग मै मेरे प्रत्येक जन्म में किये बढते लोकहित के कर्मों के कारण अधिक प्रशस्त होता जाता है । यह है भारतीय मान्यता ।  
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==== ४.७ आत्मनो मोक्षार्थं जगत् हिताय च ====
५. तेन त्यक्तेन भुञ्जिथा अर्थात् संयमित उपभोग :
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जिसने अपने सभी सांसारिक कर्तव्यों को अच्छी तरह पूरा किया है ऐसे ही व्यक्ति को मोक्षगामी बनने का अधिकार था । सन्यास की अनुमति थी । स्वामी विवेकानंद तो कहते थे जब तक एक भी भारतीय दुखी है मुझे मोक्ष नही चाहिये । यही हमरे समाज के श्रेष्ठजनो का विचार और व्यवहार रहा है । अपना काम ठीक करना चाहिये । लेकिन केवल इतना पर्याप्त नही है । इस के साथ ही जब तक मै अन्यों के हित के लिये विशेष कुछ या बहुत कुछ नही करता मै मोक्षगामी नही बन सकता । अन्यों के हित के लिये मेरे बढते प्रयास ही मुझे मोक्ष की ओर ले जाने का मार्ग प्रशस्त करते है । और यह मार्ग मै मेरे प्रत्येक जन्म में किये बढते लोकहित के कर्मों के कारण अधिक प्रशस्त होता जाता है । यह है भारतीय मान्यता ।  
अष्टांग योग में पांच यमों का वर्णन है । सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य । ये वे पाँच यम है । यम सामाजिक स्तरपर पालन करने के लिये होते है । इन में अपरिग्रह का अर्थ है अपने उपभोग के लिये उपयोगी वस्तुओं का अपनी आवश्यकताओं से अधिक संचय नहीं करना । कोई यदि उस की आवश्यकता से अधिक संचय और उपभोग करता है तो वह चोरी करता है ऐसी भारतीय मान्यता है । यह भारतीय मान्यता थोडी कठोर लगती है । किन्तु इस तत्व में संसार की एक बहुत बडी समस्या का समाधान छुपा हुआ है ।  
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वर्तमान अर्थशास्त्रीयों के समक्ष सब से बडी अनुत्तरित समस्या यह है की प्रकृति मर्यादित है और मनुष्य की (इच्छाएं) अमर्याद हैं। मर्यादित प्रकृति से अमर्याद इच्छाओं की पूर्ति संभव नहीं है । और यह गणित यदि नहीं बिठाया गया तो पूरा विश्व संसाधनों की लडाई में नष्ट हो जाएगा । तेलपर अधिकार प्राप्त करने के लिये अमरीका के इराकपर हुए हमले से यही सिध्द हुआ है । लेकिन पाश्चात्य विकास की कल्पना में आज किये वस्तू और सेवाओं के उपभोग से अगले दिन अधिक उपभोग को ही विकास माना जाता है । इस विकास कल्पना ने प्राकृतिक संसाधनों की मर्यादितता का संकट खडा कर दिया है । और दुर्भाग्य से भारत जैसे ही अन्य विश्व के लगभग सभी देशों के अर्थशास्त्रीयों ने भी इसी विकास कल्पना को और इस आत्मघाती अर्थशास्त्र को अपना लिया है । इस कारण यह संकट अब गंभीरतम बन गया है ।  
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=== ५. तेन त्यक्तेन भुञ्जिथा अर्थात् संयमित उपभोग : ===
इस समस्या का बुध्दियुक्त उत्तर ईशावास्योपनिषद में मार्गदर्शित ' तेन त्यक्तेन भुञ्जिथा ' अर्थात् ' संयमित उपभोग ' से ही मिल सकता है । जबतक उपभोग को नियंत्रण में नहीं रखा जाएगा, न्यूनतम नहीं रखा जाएगा और आज है उसे भी न्यून करने के प्रयास नहीं किये जाएंगे, इस समस्या का समाधान नही मिल सकता ।  
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अष्टांग योग में पांच यमों का वर्णन है । सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य । ये वे पाँच यम है । यम सामाजिक स्तरपर पालन करने के लिये होते है । इन में अपरिग्रह का अर्थ है अपने उपभोग के लिये उपयोगी वस्तुओं का अपनी आवश्यकताओं से अधिक संचय नहीं करना । कोई यदि उस की आवश्यकता से अधिक संचय और उपभोग करता है तो वह चोरी करता है ऐसी भारतीय मान्यता है । यह भारतीय मान्यता थोडी कठोर लगती है । किन्तु इस तत्व में संसार की एक बहुत बडी समस्या का समाधान छुपा हुआ है । वर्तमान अर्थशास्त्रीयों के समक्ष सब से बडी अनुत्तरित समस्या यह है की प्रकृति मर्यादित है और मनुष्य की (इच्छाएं) अमर्याद हैं। मर्यादित प्रकृति से अमर्याद इच्छाओं की पूर्ति संभव नहीं है । और यह गणित यदि नहीं बिठाया गया तो पूरा विश्व संसाधनों की लडाई में नष्ट हो जाएगा । तेल पर अधिकार प्राप्त करने के लिये अमरीका के इराक पर हुए हमले से यही सिध्द हुआ है । लेकिन पाश्चात्य विकास की कल्पना में आज किये गए वस्तु और सेवाओं के उपभोग से अगले दिन अधिक उपभोग को ही विकास माना जाता है । इस विकास कल्पना ने प्राकृतिक संसाधनों की मर्यादितता का संकट खडा कर दिया है । और दुर्भाग्य से भारत जैसे ही अन्य विश्व के लगभग सभी देशों के अर्थशास्त्रीयों ने भी इसी विकास कल्पना को और इस आत्मघाती अर्थशास्त्र को अपना लिया है । इस कारण यह संकट अब गंभीरतम बन गया है ।  
६  यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे  
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जैसी रचना अणू की है वैसी ही रचना सौरमंडल की है । जिस प्रकार से अणू में एक केंद्र्वर्ती पदार्थ होता है उसी तरह सौरमंडल में सूर्य होता है । अणू में ॠणाणू केंद्रक के इर्दगिर्द एक निश्चित कक्षा में घूमते है । सौरमंडल में भी विभिन्न ग्रह सूर्य के इर्दगिर्द अपनी अपनी विशिष्ट कक्षा में घूमते है ।  
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इस समस्या का बुध्दियुक्त उत्तर ईशावास्योपनिषद में मार्गदर्शित ' तेन त्यक्तेन भुञ्जिथा ' अर्थात् ' संयमित उपभोग ' से ही मिल सकता है । जब तक उपभोग को नियंत्रण में नहीं रखा जाएगा, न्यूनतम नहीं रखा जाएगा और आज है उसे भी न्यून करने के प्रयास नहीं किये जाएंगे, इस समस्या का समाधान नही मिल सकता ।  
चाँवल से भात बन गया है या कच्चा है यह पकाए गए भात के एक कण को जाँचने से पता चल जाता है । एक चाँवल जितना पका होगा उतने ही अन्य चाँवल भी पके होते है । एक जीव में जो विभिन्न प्रणालियाँ काम करती है वैसी ही सभी जीवों में काम करती है । एक मनुष्य की आवश्यकताओं से अन्य मनुष्यों की आवश्यकता का अनुमान लगाया जा सकता है । ऐसी लम्बी सूचि बनाई जा सकती है ।  
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किन्तु इस तत्व को महत्व मिलने का कारण है । वह है समाजशास्त्रीय प्रयोग अत्यंत धीमी गति से होते है । एकसाथ बडे प्रमाण में उन्हें करना संभव भी नहीं होता । इसलिये नमूने के तौरपर  एक छोटी ईकाई लेकर प्रयोग किये जाते है । अन्य ईकाईयों में जो संभाव्य अंतर है उसे ध्यान में लिया जाता है । अंत में प्रयोग को बडे स्तरपर किया जाता है । छोटी ईकाई का प्रयोग जितनी गहराई और व्यापकता के साथ किया होगा उसी के प्रमाण में बडे स्तरपर परिणाम मिलेंगे ।  
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=== ६  यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे ===
जैसे कुटुंब चलता है कौटुंबिक भावना के आधारपर । अब यदि यही कौटुंबिक भावना ग्राम स्तरपर विकसित करना हो तो क्या करना होगा । इस प्रश्न का उत्तर यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे के सुयोग्य उपयोजन से मिल सकेगा । इसी के आधारपर ही तो हमारे पूर्वजों ने वसुधैव कुटुंबकम् के लिये प्रयास किये थे ।  
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जैसी रचना अणू की है वैसी ही रचना सौरमंडल की है । जिस प्रकार से अणू में एक केंद्र्वर्ती पदार्थ होता है उसी तरह सौरमंडल में सूर्य होता है । अणू में ॠणाणू केंद्रक के इर्दगिर्द एक निश्चित कक्षा में घूमते है । सौरमंडल में भी विभिन्न ग्रह सूर्य के इर्दगिर्द अपनी अपनी विशिष्ट कक्षा में घूमते है । चावल से भात बन गया है या कच्चा है यह पकाए गए भात के एक कण को जाँचने से पता चल जाता है । एक चावल जितना पका होगा उतने ही अन्य चावल भी पके होते है । एक जीव में जो विभिन्न प्रणालियाँ काम करती है वैसी ही सभी जीवों में काम करती है । एक मनुष्य की आवश्यकताओं से अन्य मनुष्यों की आवश्यकता का अनुमान लगाया जा सकता है । ऐसी लम्बी सूची बनाई जा सकती है ।
७. अपने कर्तव्य और औरों के अधिकारों के लिये प्रयास
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कर्तव्य और अधिकार यह दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू है । सिक्के का एक पक्ष है मेरे कर्तव्य लेकिन दूसरा पक्ष मेरे अधिकार नहीं है। वह है अन्यों के अधिकार। इसीलिये भारतीय विचारों में बल कर्तव्यों की पूर्ति के प्रयासोंपर है जब की अभारतीय यूरो अमरीकी विचार में अधिकारों के लिये प्रयास या संघर्षपर बल दिया गया है । केवल इतने मात्र से प्रत्यक्ष परिणामों में आकाश-पाताल का अंतर आ जाता है । एक कहानि के माध्यम से दोनों में अंतर देखेंगे ।
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किन्तु इस तत्व को महत्व मिलने का कारण है । वह है समाजशास्त्रीय प्रयोग अत्यंत धीमी गति से होते है । एक साथ बडे प्रमाण में उन्हें करना संभव भी नहीं होता । इसलिये नमूने के तौर पर एक छोटी ईकाई लेकर प्रयोग किये जाते है । अन्य ईकाईयों में जो संभाव्य अंतर है उसे ध्यान में लिया जाता है । अंत में प्रयोग को बडे स्तर पर किया जाता है । छोटी ईकाई का प्रयोग जितनी गहराई और व्यापकता के साथ किया होगा उसी के प्रमाण में बडे स्तर पर परिणाम मिलेंगे ।  
दो सगे भाई थे । पिता ने मरने से पूर्व बँटवारा कर दिया था । घर के दो समान हिस्से कर दिये थे । एक में छोटा भाई और दूसरे में बडा भाई रहता था । ऑंगन में भी लकीर खींच दी थी । किन्तु खेती की जमीन छोटी होने से जमीन का बँटवारा नही किया गया था । दीपावली से पूर्व फसल आई । खेत के मजदूरों का, गाँव का ऐसे सब हिस्से निकालने के बाद जो बचा उस के दो हिस्से किये । प्रत्येक भई के हिस्से में १०० बोरी धान आया । दोनों ने धान लाकर अपने ऑंगन में जमाकर रख दिया । रात्री में बडे भाई की नींद खुली । वह सोचने लगा मेरे घर में तो अब मेरा बेटा भी महनत के लिये उपलब्ध है । मेरा आधा संसार हो चुका है । मेरे भाई का तो अभी विवाह भी नहीं हुआ । विवाह में बहुत सारा खर्चा होगा । फिर बच्चे भी होंगे । छोटे भाई का परिवार बढनेवाला है । खर्चे बढनेवाले हैं। ऐसी स्थिति में यह ठीक नहीं है की मै पूरी फसल का आधा हिस्सा ले लूं । वह रात ही में उठा । अपने हिस्से में से धान की दस बोरियाँ उठाकर उसने ऑंगन के दूसरे हिस्से में अपने छोटे भाई की धान की बोरियों के साथ, भाई को ध्यान में ना आए इस पध्दति से जमाकर रख दी ।  
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योगायोग से उसी रात थोडी देर बाद छोटे भाई की भी नींद खुली । उस ने सोचा । मै कितना स्वार्थी हूं । मै अकेला और बडे भैया के घर में चार लोग खानेवाले । फिर भी मैने धान का आधा हिस्सा ले लिया । यह ठीक नहीं है । वह रात में उठा । अपने हिस्से में से दस बोरियाँ धान उठाकर , ऑंगन के दूसरे हिस्से में बडे भाई के हिस्से के साथ, ध्यान में ना आए इस ढंग से जमाकर रखीं और सो गया । दूसरे दिन दोनों भाई उठे । दातौन करते ऑंगन में आए । धान की बोरियाँ देखने लगे । दोनों ही हिस्से समान देखकर दोनों चौंक उठे । दोनों के ध्यान में आया की जैसे मैंने अपने हिस्से की दस बोरियाँ दूसरे के हिस्से में रखीं थीं वैसे ही दूसरे भाई ने भी किया है । दोनों एक दूसरे की ओर देखने लगे । प्यार उमड आया । दोनों गले मिले । ऑंगन की रेखा मिटा दी गई । दोनों एक हो गए । अपने भाई के प्रति के कर्तव्यबोध के कारण ही यह हुआ था ।  
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जैसे कुटुंब चलता है कौटुंबिक भावना के आधारपर । अब यदि यही कौटुंबिक भावना ग्राम स्तर पर विकसित करना हो तो क्या करना होगा । इस प्रश्न का उत्तर यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे के सुयोग्य उपयोजन से मिल सकेगा । इसी के आधारपर ही तो हमारे पूर्वजों ने वसुधैव कुटुंबकम् के लिये प्रयास किये थे ।  
अब इसी कहानि में ‘मेरे अधिकार’ का पहलू आने से क्या होगा इस की थोडी कल्पना करें । बडा भाई न्यायालय की सीढीयाँ चढता है । परिवार के घटक अधिक होने से, कानून के अनुसार घर के बडे हिस्सेपर अधिकार मांगता है । खेती में भी बडा हिस्सा माँगता है । छोटा भाई नहीं देता । दोनों के मन में एक दूसरे के प्रति घृणा का शत्रुता का भाव निर्माण होता है । दोनों अच्छे से अच्छे वकील की सेवा लेते है । मुकदमा चलता है । दोनों धीरेधीरे कंगाल हो जाते है । घर, खेत गिरवी रखते है । दोनों का सर्वनाश होता है ।
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वास्तव में मानव का समाज में शोषण हो रहा हो तो मानव के कर्तव्योंपर बल देना चाहिये था । स्त्री को समाज में उचित स्थान नहीं मिलता हो तो पुरुषों के स्त्री के प्रति कर्तव्योंपर बल देने की आवश्यकता थी । और बच्चों को यथोचित शिक्षा और सम्हाल नहीं मिलती हो ऐसा हो तो माता-पिता का प्रशिक्षण, आर्थिक दृष्टि से सबलीकरण, समाज में सामाजिक कर्तव्यबोध को जगाने के प्रयास होने चाहिये ।  जब कोई व्यक्ति अपने हर प्रकार के कर्तव्यों को पूरा करता है तो अन्य लोगों के अधिकारों की रक्षा तो अपने आप ही होती है । माता-पिता अपने बच्चों के प्रति अपने कर्तव्यों को पूरा कर दें तो बच्चों के अधिकारों के लिये हो-हल्ला करने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती ।  
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=== ७. अपने कर्तव्य और औरों के अधिकारों के लिये प्रयास ===
किन्तु वर्तमान में हमारी शिक्षा व्यवस्था समेत सभी व्यवस्थाओं में अधिकारोंपर ही बल दिया जा रहा है । सर्वप्रथम तो मानव के अधिकार शिक्षा का हिस्सा बनें । फिर आए महिलाओं के अधिकार । अब आ गए हैं बच्चों के अधिकार । पाश्चात्यों के अंधानुकरण की हमें बहुत बुरी आदत पड गई है । इन्ही अधिकारों के विषय में विकृति के कारण पाश्चात्य जगत में तलाक का प्रमाण, वृध्दाश्रम, अनाथालय, अपंगाश्रम आदि की संख्या तेजी से बढ रही है । पश्चिम के इस अंधानुकरण को हमें शीघ्रातिशीघ्र छोडना होगा ।  
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कर्तव्य और अधिकार यह दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू है । सिक्के का एक पक्ष है मेरे कर्तव्य लेकिन दूसरा पक्ष मेरे अधिकार नहीं है। वह है अन्यों के अधिकार। इसीलिये भारतीय विचारों में बल कर्तव्यों की पूर्ति के प्रयासों पर है जबकि अभारतीय यूरो अमरीकी विचार में अधिकारों के लिये प्रयास या संघर्ष पर बल दिया गया है । केवल इतने मात्र से प्रत्यक्ष परिणामों में आकाश-पाताल का अंतर आ जाता है ।
८. वसुधैव कुटुंबकम्  
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८.१ कुटुंब  
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एक कहानी के माध्यम से दोनों में अंतर देखेंगे ।  
भारतीय एकत्रित परिवार यह आज भी विदेशी लोगों के लिये आकर्षण का विषय है । बडी संख्या में वर्तमान जीवनशैली और वर्तमान शिक्षा के कारण टूट रहे यह परिवार अब तो भारतीयों के भी चिंता और अध्ययन का विषय बन गये है ।  
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दो सगे भाई थे । पिता ने मरने से पूर्व बँटवारा कर दिया था । घर के दो समान हिस्से कर दिये थे । एक में छोटा भाई और दूसरे में बडा भाई रहता था । ऑंगन में भी लकीर खींच दी थी । किन्तु खेती की जमीन छोटी होने से जमीन का बँटवारा नही किया गया था । दीपावली से पूर्व फसल आई । खेत के मजदूरों का, गाँव का ऐसे सब हिस्से निकालने के बाद जो बचा उस के दो हिस्से किये । प्रत्येक भई के हिस्से में १०० बोरी धान आया । दोनों ने धान लाकर अपने ऑंगन में जमाकर रख दिया । रात्रि में बडे भाई की नींद खुली । वह सोचने लगा मेरे घर में तो अब मेरा बेटा भी महनत के लिये उपलब्ध है । मेरा आधा संसार हो चुका है । मेरे भाई का तो अभी विवाह भी नहीं हुआ । विवाह में बहुत सारा खर्चा होगा । फिर बच्चे भी होंगे । छोटे भाई का परिवार बढनेवाला है । खर्चे बढनेवाले हैं। ऐसी स्थिति में यह ठीक नहीं है की मै पूरी फसल का आधा हिस्सा ले लूं । वह रात ही में उठा । अपने हिस्से में से धान की दस बोरियाँ उठाकर उसने ऑंगन के दूसरे हिस्से में अपने छोटे भाई की धान की बोरियों के साथ, भाई को ध्यान में ना आए इस पध्दति से जमाकर रख दी ।
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योगायोग से उसी रात थोडी देर बाद छोटे भाई की भी नींद खुली । उस ने सोचा । मै कितना स्वार्थी हूं । मै अकेला और बडे भैया के घर में चार लोग खानेवाले । फिर भी मैने धान का आधा हिस्सा ले लिया । यह ठीक नहीं है । वह रात में उठा । अपने हिस्से में से दस बोरियाँ धान उठाकर, ऑंगन के दूसरे हिस्से में बडे भाई के हिस्से के साथ, ध्यान में ना आए इस ढंग से जमाकर रखीं और सो गया । दूसरे दिन दोनों भाई उठे । दातौन करते ऑंगन में आए । धान की बोरियाँ देखने लगे । दोनों ही हिस्से समान देखकर दोनों चौंक उठे । दोनों के ध्यान में आया की जैसे मैंने अपने हिस्से की दस बोरियाँ दूसरे के हिस्से में रखीं थीं वैसे ही दूसरे भाई ने भी किया है । दोनों एक दूसरे की ओर देखने लगे । प्यार उमड आया । दोनों गले मिले । ऑंगन की रेखा मिटा दी गई । दोनों एक हो गए । अपने भाई के प्रति के कर्तव्यबोध के कारण ही यह हुआ था ।  
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अब इसी कहानी में ‘मेरे अधिकार’ का पहलू आने से क्या होगा इस की थोडी कल्पना करें । बडा भाई न्यायालय की सीढीयाँ चढता है । परिवार के घटक अधिक होने से, कानून के अनुसार घर के बडे हिस्से पर अधिकार मांगता है । खेती में भी बडा हिस्सा माँगता है । छोटा भाई नहीं देता । दोनों के मन में एक दूसरे के प्रति घृणा का, शत्रुता का भाव निर्माण होता है । दोनों अच्छे से अच्छे वकील की सेवा लेते है । मुकदमा चलता है । दोनों धीरे धीरे कंगाल हो जाते है । घर, खेत गिरवी रखते है । दोनों का सर्वनाश होता है ।  
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वास्तव में मानव का समाज में शोषण हो रहा हो तो मानव के कर्तव्यों पर बल देना चाहिये था । स्त्री को समाज में उचित स्थान नहीं मिलता हो तो पुरुषों के स्त्री के प्रति कर्तव्योंपर बल देने की आवश्यकता थी । और बच्चों को यथोचित शिक्षा और सम्हाल नहीं मिलती हो ऐसा हो तो माता-पिता का प्रशिक्षण, आर्थिक दृष्टि से सबलीकरण, समाज में सामाजिक कर्तव्यबोध को जगाने के प्रयास होने चाहिये ।  जब कोई व्यक्ति अपने हर प्रकार के कर्तव्यों को पूरा करता है तो अन्य लोगों के अधिकारों की रक्षा तो अपने आप ही होती है । माता-पिता अपने बच्चों के प्रति अपने कर्तव्यों को पूरा कर दें तो बच्चों के अधिकारों के लिये हो-हल्ला करने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती ।  
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किन्तु वर्तमान में हमारी शिक्षा व्यवस्था समेत सभी व्यवस्थाओं में अधिकारों पर ही बल दिया जा रहा है । सर्वप्रथम तो मानव के अधिकार शिक्षा का हिस्सा बनें । फिर आए महिलाओं के अधिकार । अब आ गए हैं बच्चों के अधिकार । पाश्चात्यों के अंधानुकरण की हमें बहुत बुरी आदत पड गई है । इन्ही अधिकारों के विषय में विकृति के कारण पाश्चात्य जगत में तलाक का प्रमाण, वृध्दाश्रम, अनाथालय, अपंगाश्रम आदि की संख्या तेजी से बढ रही है । पश्चिम के इस अंधानुकरण को हमें शीघ्रातिशीघ्र छोडना होगा ।  
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=== ८. वसुधैव कुटुंबकम् ===
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==== ८.१ कुटुंब ====
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भारतीय एकत्रित परिवार यह आज भी विदेशी लोगों के लिये आकर्षण का विषय है । बडी संख्या में वर्तमान जीवनशैली और वर्तमान शिक्षा के कारण टूट रहे यह परिवार अब तो भारतीयों के भी चिंता और अध्ययन का विषय बन गये है ।  
 
अंग्रेजी में एक काहावत है ' क्राईंग चाईल्ड ओन्ली गेट्स् मिल्क् ' अर्थात् यदि बच्चा भूख से रोएगा नही तो उसे दूध नहीं मिलेगा । इस कहावत का जन्म उन के अधिकारों के लिये संघर्ष के वर्तनसूत्र में है । अन्यथा ऐसी कोई माँ (अंग्रेज भी) नहीं हो सकती जो बच्चा रोएगा नहीं तो उसे भूखा रखेगी ।   
 
अंग्रेजी में एक काहावत है ' क्राईंग चाईल्ड ओन्ली गेट्स् मिल्क् ' अर्थात् यदि बच्चा भूख से रोएगा नही तो उसे दूध नहीं मिलेगा । इस कहावत का जन्म उन के अधिकारों के लिये संघर्ष के वर्तनसूत्र में है । अन्यथा ऐसी कोई माँ (अंग्रेज भी) नहीं हो सकती जो बच्चा रोएगा नहीं तो उसे भूखा रखेगी ।   
 
स्त्री यह परिवार व्यवस्था का आधारस्तंभ है । घर के मुख्य स्त्री की भूमिका घर में अत्यंत महत्वपूर्ण है । वह ठीक रहेगी तो वह घर कुटुंब बनता है । स्त्री को सम्मान से देखना और उस के अनुसार व्यवहार करना हर कुटुंब के लिये अनिवार्य ऐसी बात है । वेसे तो घर में स्त्री की भिन्न भिन्न भूमिकाएं होतीं है । किन्तु इन सब में माता की भूमिका ही स्त्री की प्रमुख भूमिका मानी गई है । उसे विषयवासणा का साधन नहीं माना गया है । वह क्षण काल की पत्नी और अनंत काल की माता मानी जाती है । इसीलिये स्त्री को  जिस घर में आदर, सम्मान मिलता है और जिस घर की स्त्री ऐसे आदर सम्मान के पात्र होती है वह घर कुटुंब बन जाता है ।  
 
स्त्री यह परिवार व्यवस्था का आधारस्तंभ है । घर के मुख्य स्त्री की भूमिका घर में अत्यंत महत्वपूर्ण है । वह ठीक रहेगी तो वह घर कुटुंब बनता है । स्त्री को सम्मान से देखना और उस के अनुसार व्यवहार करना हर कुटुंब के लिये अनिवार्य ऐसी बात है । वेसे तो घर में स्त्री की भिन्न भिन्न भूमिकाएं होतीं है । किन्तु इन सब में माता की भूमिका ही स्त्री की प्रमुख भूमिका मानी गई है । उसे विषयवासणा का साधन नहीं माना गया है । वह क्षण काल की पत्नी और अनंत काल की माता मानी जाती है । इसीलिये स्त्री को  जिस घर में आदर, सम्मान मिलता है और जिस घर की स्त्री ऐसे आदर सम्मान के पात्र होती है वह घर कुटुंब बन जाता है ।  
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- वर्तमान भारत की तुलना यदि ५० वर्ष पूर्व के भारत से करें तो यह समझ में आता है कि ५० वर्षपूर्व परिवार बडे और संपन्न थे । उद्योग छोटे थे । उद्योगपति अमीर नहीं थे । किन्तु आज चन्द उद्योग बहुत विशाल और उद्योजक अमीर बन बैठे हैं। परिवार छोटे और उद्योगपतियों की तुलना में कंगाल या गरीब बन गये है । चंद उद्योगपति और राजनेता अमीर बन गये है । सामान्य आदमी ( देश की आधी से अधिक जनसंख्या ) गरीबी की रेखा के नीचे धकेला गया है ।  
 
- वर्तमान भारत की तुलना यदि ५० वर्ष पूर्व के भारत से करें तो यह समझ में आता है कि ५० वर्षपूर्व परिवार बडे और संपन्न थे । उद्योग छोटे थे । उद्योगपति अमीर नहीं थे । किन्तु आज चन्द उद्योग बहुत विशाल और उद्योजक अमीर बन बैठे हैं। परिवार छोटे और उद्योगपतियों की तुलना में कंगाल या गरीब बन गये है । चंद उद्योगपति और राजनेता अमीर बन गये है । सामान्य आदमी ( देश की आधी से अधिक जनसंख्या ) गरीबी की रेखा के नीचे धकेला गया है ।  
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८.२ ग्रामकुल
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==== ८.२ ग्रामकुल ====
 
   
अपने पूर्वजों ने समाज व्यवस्था की दृष्टि से केवल परिवार व्यवस्था का ही निर्माण किया था ऐसा नहीं। श्रेष्ठ ऐसे ग्रामकुल की रचना भी की थी । महात्मा गांधीजी के अनुयायी धर्मपालजी ने लिखे १८ वीं सदी के भारत के गाँवों की जानकारी से यह पता चलता है की भारतीय गाँव भी पारिवारिक भावना से बंधे हुए थे । परिवार की ही तरह गाँवों की भी व्यवस्थाएं बनीं हुई थीं । जप्रसे परिवार के लोग एक दूसरे से आत्मीयता के धागे से बंधे होते है उसी प्रकार से गाँव के लोग भी आत्मीयता के धागे से बंधे हुए थे । इस गाँव में हमारे गाँव की बिटिया ब्याही है । मै यहाँ पानी नहीं पी सकता ऐसा कहनेवाले कुछ लोग तो आज भी हिंदीभाषी गाँवों मे मिल जाते है । परिवार में जप्रसे पप्रसे के लेनदेन से व्यवहार नहीं होते उसी प्रकार गाँव में भी नहीं होते थे । गाँव के प्रत्येक मानव, जीव, जन्तु के निर्वाह की व्यवस्था बिठाई हुई थी। और निर्वाह भी सम्मान के साथ । परिवार का कोई घटक परिवार को छोड अन्यत्र जाता है तो जप्रसे परिवार के सभी लोफगों को दुख होता है । उसी तरह कोई गाँव छोडकर जाता था तो गाँव दुखी होता था । मिन्नतें करता था । उस के कष्ट दूर करने की व्य्वस्थाएं करता था । लेकिन ये बातें अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त लोगों की समझ से परे है । जब उन के आका अंग्रेज इस व्यवस्था को नहीं समझ सके तो उन के चेले क्या समझेंगे ।  
 
अपने पूर्वजों ने समाज व्यवस्था की दृष्टि से केवल परिवार व्यवस्था का ही निर्माण किया था ऐसा नहीं। श्रेष्ठ ऐसे ग्रामकुल की रचना भी की थी । महात्मा गांधीजी के अनुयायी धर्मपालजी ने लिखे १८ वीं सदी के भारत के गाँवों की जानकारी से यह पता चलता है की भारतीय गाँव भी पारिवारिक भावना से बंधे हुए थे । परिवार की ही तरह गाँवों की भी व्यवस्थाएं बनीं हुई थीं । जप्रसे परिवार के लोग एक दूसरे से आत्मीयता के धागे से बंधे होते है उसी प्रकार से गाँव के लोग भी आत्मीयता के धागे से बंधे हुए थे । इस गाँव में हमारे गाँव की बिटिया ब्याही है । मै यहाँ पानी नहीं पी सकता ऐसा कहनेवाले कुछ लोग तो आज भी हिंदीभाषी गाँवों मे मिल जाते है । परिवार में जप्रसे पप्रसे के लेनदेन से व्यवहार नहीं होते उसी प्रकार गाँव में भी नहीं होते थे । गाँव के प्रत्येक मानव, जीव, जन्तु के निर्वाह की व्यवस्था बिठाई हुई थी। और निर्वाह भी सम्मान के साथ । परिवार का कोई घटक परिवार को छोड अन्यत्र जाता है तो जप्रसे परिवार के सभी लोफगों को दुख होता है । उसी तरह कोई गाँव छोडकर जाता था तो गाँव दुखी होता था । मिन्नतें करता था । उस के कष्ट दूर करने की व्य्वस्थाएं करता था । लेकिन ये बातें अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त लोगों की समझ से परे है । जब उन के आका अंग्रेज इस व्यवस्था को नहीं समझ सके तो उन के चेले क्या समझेंगे ।  
 
८.३ वसुधैव कुटुंबकम् :
 
८.३ वसुधैव कुटुंबकम् :
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