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संत तुकाराम महाराज कहते है ' उरलो उपकारापुरता '। इस का अर्थ यह है कि अब मेरा जीना मेरे लिये है ही नही। जो कुछ जीना हे बस लोगोंं के लिये। यही है नरोत्तम  होने की अवस्था।   
 
संत तुकाराम महाराज कहते है ' उरलो उपकारापुरता '। इस का अर्थ यह है कि अब मेरा जीना मेरे लिये है ही नही। जो कुछ जीना हे बस लोगोंं के लिये। यही है नरोत्तम  होने की अवस्था।   
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प्रयास करने से मनुष्य नर से और नरराक्षस से भी नरोत्तम बन सकता है। जैसे वाल्या मछुआरा जो नरराक्षस ही था, महर्षि वाल्मिकी बन गया था। कई बार ऐसा कहा जाता है की हमें नरोत्तम की चाह नहीं है, हम मनुष्य बने रहें इतना ही पर्याप्त है। किन्तु वास्तविकता यह होती है कि जब हम नरोत्तम बनने के प्रयास करते है तब ही हम शायद नर बने रह सकते है। अन्यथा नर से नरपशु और आगे नरराक्षस बनने की प्रक्रिया तो स्वाभाविक ही है। नीचे की ओर जाना यह प्रकृति का नियम है। पानी नीचे की ओर ही बहता है। दुष्ट निर्माण करने के लिये विद्यालय नही खोले जाते। शिक्षा नही दी जाती। सज्जन बनाने के लिये इन सब प्रयासों की आवश्यकता होती है। इसलिये निरंतर नरोत्तम बनने के प्रयास करते रहना अनिवार्य है। वैसे तो हर मनुष्य में नरराक्षस से लेकर नरोत्तम तक के सभी विकल्प विद्यमान होते है। किंतु जो अभ्यासपूर्वक नरोत्तम की परिसीमा तक जाता है उस में सदैव नरोत्तम के ही दर्शन होते है।   
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प्रयास करने से मनुष्य नर से और नरराक्षस से भी नरोत्तम बन सकता है। जैसे वाल्या मछुआरा जो नरराक्षस ही था, महर्षि वाल्मिकी बन गया था। कई बार ऐसा कहा जाता है की हमें नरोत्तम की चाह नहीं है, हम मनुष्य बने रहें इतना ही पर्याप्त है। किन्तु वास्तविकता यह होती है कि जब हम नरोत्तम बनने के प्रयास करते है तब ही हम संभवतः नर बने रह सकते है। अन्यथा नर से नरपशु और आगे नरराक्षस बनने की प्रक्रिया तो स्वाभाविक ही है। नीचे की ओर जाना यह प्रकृति का नियम है। पानी नीचे की ओर ही बहता है। दुष्ट निर्माण करने के लिये विद्यालय नही खोले जाते। शिक्षा नही दी जाती। सज्जन बनाने के लिये इन सब प्रयासों की आवश्यकता होती है। इसलिये निरंतर नरोत्तम बनने के प्रयास करते रहना अनिवार्य है। वैसे तो हर मनुष्य में नरराक्षस से लेकर नरोत्तम तक के सभी विकल्प विद्यमान होते है। किंतु जो अभ्यासपूर्वक नरोत्तम की परिसीमा तक जाता है उस में सदैव नरोत्तम के ही दर्शन होते है।   
 
=== २. सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे संतु निरामया:। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुख: माप्नुयात्{{Citation needed}} ===
 
=== २. सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे संतु निरामया:। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुख: माप्नुयात्{{Citation needed}} ===
 
भावार्थ - सब सुखी हों। किसी को कोई भी भय ना रहे। सब ओर मंगल हो। किसी को अभद्र का दर्शन ही ना हो। अर्थात् कहीं कोई अभद्र बातें ना हों।
 
भावार्थ - सब सुखी हों। किसी को कोई भी भय ना रहे। सब ओर मंगल हो। किसी को अभद्र का दर्शन ही ना हो। अर्थात् कहीं कोई अभद्र बातें ना हों।
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धार्मिक (भारतीय) मनीषियों की यही विशेषता रही है कि जो स्वाभाविक है, प्रकृति से सुसंगत है उसी को उन्होंने तत्व के रूप में सब के सामने रखा है। और एक उदाहरण देखें। न्यूटन के काल में यदि किसी ने आइंस्टीन के सिद्धांत प्रस्तुत किये होते तो क्या होता ? गणित और उपकरणों का विकास उन दिनों कम हुआ था। इसलिये आइंस्टीन के सिध्दांतों को अमान्य करदिया जाता। किन्तु आइंस्टीन के सिद्धांत न्यूटन के काल में भी उतने ही सत्य थे जितने आइंस्टीन के काल में।
 
धार्मिक (भारतीय) मनीषियों की यही विशेषता रही है कि जो स्वाभाविक है, प्रकृति से सुसंगत है उसी को उन्होंने तत्व के रूप में सब के सामने रखा है। और एक उदाहरण देखें। न्यूटन के काल में यदि किसी ने आइंस्टीन के सिद्धांत प्रस्तुत किये होते तो क्या होता ? गणित और उपकरणों का विकास उन दिनों कम हुआ था। इसलिये आइंस्टीन के सिध्दांतों को अमान्य करदिया जाता। किन्तु आइंस्टीन के सिद्धांत न्यूटन के काल में भी उतने ही सत्य थे जितने आइंस्टीन के काल में।
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इसलिये मै जो कह रहा हूं केवल वही सत्य है ऐसा समझना ठीक नही है। अन्य लोगोंं को जो अनुभव हो रहा है वह भी सत्य ही है। प्रत्येक मनुष्य की स्वतंत्र बुद्धि का इतना आदर शायद ही विश्व के अन्य किसी समाज ने नही किया होगा। भारत मे कभी भी अपने से अलग मत का प्रतिपादन करनेवालों के साथ हिंसा नहीं हुई। किसी वैज्ञानिक को प्रताडित नही किया गया किसी को जीना दुस्सह नहीं किया गया। प्रचलित सर्वमान्य विचारों के विपरीत विचार रखनेवाले चार्वाक को भी महर्षि चार्वाक कहा गया। यह तो अधार्मिक (अधार्मिक) चलन है जिस के चलते लोग असहमति के कारण हिंसा पर उतारू हो जाते है।
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इसलिये मै जो कह रहा हूं केवल वही सत्य है ऐसा समझना ठीक नही है। अन्य लोगोंं को जो अनुभव हो रहा है वह भी सत्य ही है। प्रत्येक मनुष्य की स्वतंत्र बुद्धि का इतना आदर संभवतः ही विश्व के अन्य किसी समाज ने नही किया होगा। भारत मे कभी भी अपने से अलग मत का प्रतिपादन करनेवालों के साथ हिंसा नहीं हुई। किसी वैज्ञानिक को प्रताडित नही किया गया किसी को जीना दुस्सह नहीं किया गया। प्रचलित सर्वमान्य विचारों के विपरीत विचार रखनेवाले चार्वाक को भी महर्षि चार्वाक कहा गया। यह तो अधार्मिक (अधार्मिक) चलन है जिस के चलते लोग असहमति के कारण हिंसा पर उतारू हो जाते है।
    
इस पार्श्वभूमि पर एकं सत् विप्रा: बहुधा वदन्ति यह मान्यता स्वाभाविक तो है ही हम भारतीयों के लिये गर्व करने की भी बात है।
 
इस पार्श्वभूमि पर एकं सत् विप्रा: बहुधा वदन्ति यह मान्यता स्वाभाविक तो है ही हम भारतीयों के लिये गर्व करने की भी बात है।
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हिंदुत्ववादी लोगोंं की घोर विरोधक सुश्री ईरावती कर्वे ने भी अपनी ‘धर्म’ नामक पुस्तक में पृष्ठ क्र. ३१ पर यह मान्य किया है। एकात्मता की भावना और उस के आधारपर उसे बुद्धि का उपयोग करने के स्वातंत्र्य का आदर धार्मिक (भारतीय) समाज ने मान्य किया है।
 
हिंदुत्ववादी लोगोंं की घोर विरोधक सुश्री ईरावती कर्वे ने भी अपनी ‘धर्म’ नामक पुस्तक में पृष्ठ क्र. ३१ पर यह मान्य किया है। एकात्मता की भावना और उस के आधारपर उसे बुद्धि का उपयोग करने के स्वातंत्र्य का आदर धार्मिक (भारतीय) समाज ने मान्य किया है।
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स्वामी विवेकानंदजी के शिकागो सर्वधर्मपरिषद में हुए संक्षिप्त और फिर भी विश्वविजयी भाषण में यही कहा गया है। उन्हों ने बचपन से जो श्लोक वह कहते आये थे वही उध्दृत किया था। वह था<ref>शिवमहिम्न: स्तोत्र</ref>: <blockquote>रुचीनां वैचित्र्याद् ऋजुकुटिलनाबापथजुषां। </blockquote><blockquote>नृणामेको गम्य: त्वमसि पयसामर्णव इव।।</blockquote>भावार्थ : समाज में प्रत्येक व्यक्ति को परमात्मा ने बुद्धि का वरदान दिया हुआ है। प्रत्येक की बुद्धि भिन्न होती ही है। किसी की बुद्धि में ॠजुता होगी किसी की बुद्धि में कुटिलता होगी। ऐसी विविधता से सत्य की ओर देखने से हर व्यक्ति की सत्य की समझ अलग अलग होगी। हर व्यक्ति का सत्य की ओर आगे बढने का मार्ग भी भिन्न होगा। कोई सीधे मार्ग से तो कोई टेढेमेढे मार्ग से लेकिन सत्य की ओर ही बढ रहा है।  
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स्वामी विवेकानंदजी के शिकागो सर्वधर्मपरिषद में हुए संक्षिप्त और तथापि विश्वविजयी भाषण में यही कहा गया है। उन्हों ने बचपन से जो श्लोक वह कहते आये थे वही उध्दृत किया था। वह था<ref>शिवमहिम्न: स्तोत्र</ref>: <blockquote>रुचीनां वैचित्र्याद् ऋजुकुटिलनाबापथजुषां। </blockquote><blockquote>नृणामेको गम्य: त्वमसि पयसामर्णव इव।।</blockquote>भावार्थ : समाज में प्रत्येक व्यक्ति को परमात्मा ने बुद्धि का वरदान दिया हुआ है। प्रत्येक की बुद्धि भिन्न होती ही है। किसी की बुद्धि में ॠजुता होगी किसी की बुद्धि में कुटिलता होगी। ऐसी विविधता से सत्य की ओर देखने से हर व्यक्ति की सत्य की समझ अलग अलग होगी। हर व्यक्ति का सत्य की ओर आगे बढने का मार्ग भी भिन्न होगा। कोई सीधे मार्ग से तो कोई टेढेमेढे मार्ग से लेकिन सत्य की ओर ही बढ रहा है।  
 
ऐसी हमारी केवल मान्यता नही है वरन् ऐसी हमारी श्रद्धा है {{Citation needed}}। <blockquote>आकाशात् पतितंतोयं यथा गच्छति सागरं।</blockquote><blockquote>सर्वदेव नमस्कारं केशवं प्रतिगच्छति।</blockquote>जिस प्रकार बारिश का पानी धरतीपर गिरता है। लेकिन भिन्न भिन्न मार्गों से वह समुद्र की ओर ही जाता है उसी प्रकार से शुद्ध भावना से आप किसी भी दैवी शक्ति को नमस्कार करें वह परमात्मा को प्राप्त होगा।
 
ऐसी हमारी केवल मान्यता नही है वरन् ऐसी हमारी श्रद्धा है {{Citation needed}}। <blockquote>आकाशात् पतितंतोयं यथा गच्छति सागरं।</blockquote><blockquote>सर्वदेव नमस्कारं केशवं प्रतिगच्छति।</blockquote>जिस प्रकार बारिश का पानी धरतीपर गिरता है। लेकिन भिन्न भिन्न मार्गों से वह समुद्र की ओर ही जाता है उसी प्रकार से शुद्ध भावना से आप किसी भी दैवी शक्ति को नमस्कार करें वह परमात्मा को प्राप्त होगा।
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परमात्मा सर्वव्यापी और इसलिये सर्वज्ञानी और सर्वशक्तिमान है। यह पूरी सृष्टि परमात्मा ने अपनी इच्छा और शक्ति से अपने में से ही निर्माण किया है। यह है परमात्मा की संकल्पना। अल्ला या गॉड ऐसे नहीं है। आदम और ईव्ह ने ज्ञान का फल खाया इस लिये उन्हें दंड देनेवाला गॉड और ॠषियों को सत्यज्ञान का वेदों के रूप में स्वत: कथन करनेवाला परमात्मा एक कैसे हो सकता है ? सेमेटिक धर्मों में अल्ला और गॉड दोनों ही ईर्षालू है। इन्हे स्पर्धा सहन नहीं होती। ये दोनों ही असहिष्णू माने जाते है। परमात्मा वैसा नहीं है।  आत्मा रुह और सोल इन संकल्पनाओं में भी ऐसा ही मूलभूत अंतर है। वर्तमान मानवी जीवन ही सबकुछ है। इस से पहले कुछ नही था और आगे भी कुछ नही है ऐसी इस्लाम और ईसाईयत की मान्यता है। इसलिये रूह या सोल को स्थायी हेवन या जन्नत और स्थायी हेल या दोजख की इन दो मजहबों में मान्यता है।   
 
परमात्मा सर्वव्यापी और इसलिये सर्वज्ञानी और सर्वशक्तिमान है। यह पूरी सृष्टि परमात्मा ने अपनी इच्छा और शक्ति से अपने में से ही निर्माण किया है। यह है परमात्मा की संकल्पना। अल्ला या गॉड ऐसे नहीं है। आदम और ईव्ह ने ज्ञान का फल खाया इस लिये उन्हें दंड देनेवाला गॉड और ॠषियों को सत्यज्ञान का वेदों के रूप में स्वत: कथन करनेवाला परमात्मा एक कैसे हो सकता है ? सेमेटिक धर्मों में अल्ला और गॉड दोनों ही ईर्षालू है। इन्हे स्पर्धा सहन नहीं होती। ये दोनों ही असहिष्णू माने जाते है। परमात्मा वैसा नहीं है।  आत्मा रुह और सोल इन संकल्पनाओं में भी ऐसा ही मूलभूत अंतर है। वर्तमान मानवी जीवन ही सबकुछ है। इस से पहले कुछ नही था और आगे भी कुछ नही है ऐसी इस्लाम और ईसाईयत की मान्यता है। इसलिये रूह या सोल को स्थायी हेवन या जन्नत और स्थायी हेल या दोजख की इन दो मजहबों में मान्यता है।   
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धार्मिक (भारतीय) संकल्पना की आत्मा यह परमात्मा का ही अंश है। जो परमात्मा की इच्छा से ही निर्माण हुआ है। अंत में इसे परमात्मा में ही विलीन होना है। वह अनादि और अनंत ऐसे परमात्मा का ही अंश होने से वह भी अनादि और अनंत ही है। कुछ कच्चे वैज्ञानिक कहते है कि परमात्मा को जबतक प्रयोगशाला में सिध्द नही किया जाता हम विश्वास नही कर सकते। ऐसे अडियल वैज्ञानिकों को स्वामी विवेकानंद उलटी चुनौती देते है कि वे उन की प्रयोगशाला में सिध्द कर के दिखाएं कि परमात्मा नहीं है। एक और भी दृष्टि से इसे देखने की बात स्वामी विवेकानंद करते है। परमात्मा के मानने से यदि लोग सदाचारी बनते है तो परमात्मा में विश्वास रखने में क्या बुराई है ?  वास्तविक बात तो यह है कि मानव शरीर पंचमहाभूतों का बना होता है। वैज्ञानिक उपकरण उन्ही पंचमहाभूतों के बने होते है। शरीर से सूक्ष्म इंद्रियाँ होती है। इंद्रियों से सूक्ष्म मन, मन से सूक्ष्म बुद्धि, बुद्धि से सूक्ष्म चित्त और चित्त से भी अधिक सूक्ष्म आत्मतत्व होता है। यह तो मीटर की मापन पट्टी लेकर नॅनो कण का आकार मापने जैसी गलत बात है। परमात्वतत्व को जानने के साधन वर्तमान प्रयोगशाला में उपलब्ध भौतिक उपकरण नही हो सकते। हमारे पूर्वजों ने आत्मा और परमात्मा इन संकल्पनाओं से जुडे कई वर्तनसूत्रों और मान्यताओं का विकास किया है। उन का अब संक्षिप्त परिचय हम करेंगे।   
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धार्मिक (भारतीय) संकल्पना की आत्मा यह परमात्मा का ही अंश है। जो परमात्मा की इच्छा से ही निर्माण हुआ है। अंत में इसे परमात्मा में ही विलीन होना है। वह अनादि और अनंत ऐसे परमात्मा का ही अंश होने से वह भी अनादि और अनंत ही है। कुछ कच्चे वैज्ञानिक कहते है कि परमात्मा को जबतक प्रयोगशाला में सिध्द नही किया जाता हम विश्वास नही कर सकते। ऐसे अडियल वैज्ञानिकों को स्वामी विवेकानंद उलटी चुनौती देते है कि वे उन की प्रयोगशाला में सिध्द कर के दिखाएं कि परमात्मा नहीं है। एक और भी दृष्टि से इसे देखने की बात स्वामी विवेकानंद करते है। परमात्मा के मानने से यदि लोग सदाचारी बनते है तो परमात्मा में विश्वास रखने में क्या बुराई है ?  वास्तविक बात तो यह है कि मानव शरीर पंचमहाभूतों का बना होता है। वैज्ञानिक उपकरण उन्ही पंचमहाभूतों के बने होते है। शरीर से सूक्ष्म इंद्रियाँ होती है। इंद्रियों से सूक्ष्म मन, मन से सूक्ष्म बुद्धि, बुद्धि से सूक्ष्म चित्त और चित्त से भी अधिक सूक्ष्म आत्मतत्व होता है। यह तो मीटर की मापन पट्टी लेकर नॅनो कण का आकार मापने जैसी गलत बात है। परमात्वतत्व को जानने के साधन वर्तमान प्रयोगशाला में उपलब्ध भौतिक उपकरण नही हो सकते। हमारे पूर्वजों ने आत्मा और परमात्मा इन संकल्पनाओं से जुड़े कई वर्तनसूत्रों और मान्यताओं का विकास किया है। उन का अब संक्षिप्त परिचय हम करेंगे।   
    
==== ४.१ अमृतस्य पुत्रा: वयं ====
 
==== ४.१ अमृतस्य पुत्रा: वयं ====
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धर्म के विषय में यह [[Dharma: Bhartiya Jeevan Drishti (धर्म:भारतीय जीवन दृष्टि)|लेख]] देखें। आगे काम, अर्थ और मोक्ष पुरुषार्थों को जानने का प्रयास अब करेंगे।
 
धर्म के विषय में यह [[Dharma: Bhartiya Jeevan Drishti (धर्म:भारतीय जीवन दृष्टि)|लेख]] देखें। आगे काम, अर्थ और मोक्ष पुरुषार्थों को जानने का प्रयास अब करेंगे।
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काम पुरुषार्थ अर्थात् धर्मानुकूल कामनाएं। धर्मसुसंगत इच्छाएं और आकांक्षाएं। सभी इच्छाओं को पुरुषार्थ नही कहा जाता। सामान्यत: पुत्रेषणा अर्थात् मै श्रेष्ठ बच्चों को जन्म दूं। वित्तेषणा अर्थात् मै अकूत धन कमाऊं। और लोकेषणा अर्थात् लोग मेरी सराहना करें। मेरा आदर सम्मान करें। ऐसी तीन प्रमुख इच्छाएं तो हर व्यक्ति के मन में होती ही है। किंतु केवल ऐसी इच्छा पुरुषार्थ नहीं कहलातीं। श्रेष्ठ पुत्र/पुत्री की प्राप्ति के लिये मेरा विवाह श्रेष्ठ सुशील कन्या से हो ऐसी इच्छा करना तो ठीक है। काम पुरुषार्थ ही है। किन्तु ऐसी किसी श्रेष्ठ पराई स्त्री के या जो मेरे साथ विवाह के लिये तैयार नही है ऐसी कन्या के साथ मै बलपूर्वक विवाह करने की इच्छा करूं तो यह धर्म का विरोध करनेवाली इच्छा है  और यह काम पुरुषार्थ नही काम पुरुषार्थ के विरोधी इच्छा मानी जाएगी। ऐसी इच्छा को अकरणीय माना गया है।
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काम पुरुषार्थ अर्थात् धर्मानुकूल कामनाएं। धर्मसुसंगत इच्छाएं और आकांक्षाएं। सभी इच्छाओं को पुरुषार्थ नही कहा जाता। सामान्यत: पुत्रेषणा अर्थात् मै श्रेष्ठ बच्चोंं को जन्म दूं। वित्तेषणा अर्थात् मै अकूत धन कमाऊं। और लोकेषणा अर्थात् लोग मेरी सराहना करें। मेरा आदर सम्मान करें। ऐसी तीन प्रमुख इच्छाएं तो हर व्यक्ति के मन में होती ही है। किंतु केवल ऐसी इच्छा पुरुषार्थ नहीं कहलातीं। श्रेष्ठ पुत्र/पुत्री की प्राप्ति के लिये मेरा विवाह श्रेष्ठ सुशील कन्या से हो ऐसी इच्छा करना तो ठीक है। काम पुरुषार्थ ही है। किन्तु ऐसी किसी श्रेष्ठ पराई स्त्री के या जो मेरे साथ विवाह के लिये तैयार नही है ऐसी कन्या के साथ मै बलपूर्वक विवाह करने की इच्छा करूं तो यह धर्म का विरोध करनेवाली इच्छा है  और यह काम पुरुषार्थ नही काम पुरुषार्थ के विरोधी इच्छा मानी जाएगी। ऐसी इच्छा को अकरणीय माना गया है।
    
अर्थ पुरुषार्थ अर्थात् धर्मानुकूल कामनाओं की पूर्ति के लिये किये गये धर्मानुकूल प्रयास। अर्थ पुरुषार्थ के लिये केवल प्रयासों का धर्मानुकूल होना पर्याप्त नहीं है। इच्छाएं भी धर्मानुकूल होना अनिवार्य है। तब ही वह प्रयास पुरुषार्थ कहलाया जा सकेगा। ऊपर हमने देखा कि श्रेष्ठ सुशील स्त्री से विवाह की कामना तो धर्मानुकूल ही है। इस इच्छा की पूर्ति के लिये जब मै अपने ओज, तेज, बल, विक्रम, शील, विनय आदि गुणों से ऐसी कन्या को प्रभावित कर मेरे साथ विवाह के लिये उद्यत करता हूं तब वह धर्मानुकूल अर्थ पुरुषार्थ कहता है।
 
अर्थ पुरुषार्थ अर्थात् धर्मानुकूल कामनाओं की पूर्ति के लिये किये गये धर्मानुकूल प्रयास। अर्थ पुरुषार्थ के लिये केवल प्रयासों का धर्मानुकूल होना पर्याप्त नहीं है। इच्छाएं भी धर्मानुकूल होना अनिवार्य है। तब ही वह प्रयास पुरुषार्थ कहलाया जा सकेगा। ऊपर हमने देखा कि श्रेष्ठ सुशील स्त्री से विवाह की कामना तो धर्मानुकूल ही है। इस इच्छा की पूर्ति के लिये जब मै अपने ओज, तेज, बल, विक्रम, शील, विनय आदि गुणों से ऐसी कन्या को प्रभावित कर मेरे साथ विवाह के लिये उद्यत करता हूं तब वह धर्मानुकूल अर्थ पुरुषार्थ कहता है।
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==== ४.४ परोपकाराय पुण्याय पापाय परपीडनम् {{Citation needed}} ====
 
==== ४.४ परोपकाराय पुण्याय पापाय परपीडनम् {{Citation needed}} ====
सत्कर्म और दुष्कर्म की इतनी सरल और सटीक व्याख्या शायद ही किसी ने की होगी।  
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सत्कर्म और दुष्कर्म की इतनी सरल और सटीक व्याख्या संभवतः ही किसी ने की होगी।  
    
संत तुलसीदासजी कहते है - परहित सरिस पुण्य नही भाई परपीडा सम नही अधमाई। तो संत तुकाराम कहते है पुण्य पर उपकार पाप ते परपीडा। मैने यदि अत्याचार किये तो आज नहीं कल, इस जन्म में नही तो अगले जन्मों में मुझे भी दण्ड मिलेगा ऐसी धार्मिक (भारतीय) समाज की श्रद्धा है। इस श्रद्धा के कारण ही किसी भी (सम्राट अशोक का अपवाद छोडकर) धार्मिक (भारतीय) राजा या सम्राट ने विजित राज्य की जनता पर कभी अत्याचार नहीं किये। किन्तु इहवादी धार्मिक (भारतीय) अर्थात् जो पुनर्जन्म या कर्मसिध्दांतपर विश्वास नहीं करते और अधार्मिकों की बात भिन्न है।  
 
संत तुलसीदासजी कहते है - परहित सरिस पुण्य नही भाई परपीडा सम नही अधमाई। तो संत तुकाराम कहते है पुण्य पर उपकार पाप ते परपीडा। मैने यदि अत्याचार किये तो आज नहीं कल, इस जन्म में नही तो अगले जन्मों में मुझे भी दण्ड मिलेगा ऐसी धार्मिक (भारतीय) समाज की श्रद्धा है। इस श्रद्धा के कारण ही किसी भी (सम्राट अशोक का अपवाद छोडकर) धार्मिक (भारतीय) राजा या सम्राट ने विजित राज्य की जनता पर कभी अत्याचार नहीं किये। किन्तु इहवादी धार्मिक (भारतीय) अर्थात् जो पुनर्जन्म या कर्मसिध्दांतपर विश्वास नहीं करते और अधार्मिकों की बात भिन्न है।  
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मेरे इस जन्म से पहले मै नहीं था और ना ही मेरी मृत्यू के बाद मै रहूंगा, ऐसा ये लोग समझते है। इन्हें इहवादी कहा जाता है। ऐसे लोग दुर्बल लोगोंं को, जो पलटकर उन के द्वारा दी गई पीडा का उत्तर नहीं दे सकते, ऐसे लोगोंं को पीडा देने में हिचकिचाते नहीं है। योरप के कई समाजों ने जैसे स्पेन, पुर्तगाल, इटली, फ्रांस, इंग्लंड आदि ने विश्वभर में उपनिवेश निर्माण किये थे। योरप के इन समाजों में से एक भी समाज ऐसा नही है जिसने अपने उपनिवेशों में बर्बर अत्याचार नही किये, नृशंस हत्याकांड नहीं किये, स्थानिक लोगोंं को चूसचूसकर, लूटलूटकर उन उपनिवेशों को कंगाल नहीं किया। यह सब ये समाज इसलिये कर पाए और किया क्योंकि इन की मान्यता इहवादी थी। ऐसा करने में इन्हें कोई पापबोध नहीं हुआ। इन्ही को भौतिकतावादी भी कहते है। जो यह मानते हैं की जड़़ के विकास में किसी स्तर पर अपने आप जीव का और आगे मनुष्य का निर्माण हो गया। ऐसे लोग पाप-पुण्य को नहीं मानते।<blockquote>परोपकाराय फलन्ति वृक्ष:। परोपकारार्थ वहन्ति नद्य:।। {{Citation needed}}</blockquote><blockquote>परोपकाराय दुहन्ति गाव:। परोपकारार्थमिदं शरीरम्।।</blockquote>प्रकृति के सभी अंश निरंतर परोपकार करते रहते है। पेड फल देते हैं। नदियाँ जल देतीं हैं। गाय दूध देती है। मैं तो इन सब से अधिक चेतनावान हूं, बुद्धिमान हूं, क्षमतावान हूं। इसलिये मुझे भी अपनी शक्तियों का उपयोग लोगोंं के उपकार के लिये ही करना चाहिये। यह है धार्मिक (भारतीय) विचार।
 
मेरे इस जन्म से पहले मै नहीं था और ना ही मेरी मृत्यू के बाद मै रहूंगा, ऐसा ये लोग समझते है। इन्हें इहवादी कहा जाता है। ऐसे लोग दुर्बल लोगोंं को, जो पलटकर उन के द्वारा दी गई पीडा का उत्तर नहीं दे सकते, ऐसे लोगोंं को पीडा देने में हिचकिचाते नहीं है। योरप के कई समाजों ने जैसे स्पेन, पुर्तगाल, इटली, फ्रांस, इंग्लंड आदि ने विश्वभर में उपनिवेश निर्माण किये थे। योरप के इन समाजों में से एक भी समाज ऐसा नही है जिसने अपने उपनिवेशों में बर्बर अत्याचार नही किये, नृशंस हत्याकांड नहीं किये, स्थानिक लोगोंं को चूसचूसकर, लूटलूटकर उन उपनिवेशों को कंगाल नहीं किया। यह सब ये समाज इसलिये कर पाए और किया क्योंकि इन की मान्यता इहवादी थी। ऐसा करने में इन्हें कोई पापबोध नहीं हुआ। इन्ही को भौतिकतावादी भी कहते है। जो यह मानते हैं की जड़़ के विकास में किसी स्तर पर अपने आप जीव का और आगे मनुष्य का निर्माण हो गया। ऐसे लोग पाप-पुण्य को नहीं मानते।<blockquote>परोपकाराय फलन्ति वृक्ष:। परोपकारार्थ वहन्ति नद्य:।। {{Citation needed}}</blockquote><blockquote>परोपकाराय दुहन्ति गाव:। परोपकारार्थमिदं शरीरम्।।</blockquote>प्रकृति के सभी अंश निरंतर परोपकार करते रहते है। पेड फल देते हैं। नदियाँ जल देतीं हैं। गाय दूध देती है। मैं तो इन सब से अधिक चेतनावान हूं, बुद्धिमान हूं, क्षमतावान हूं। इसलिये मुझे भी अपनी शक्तियों का उपयोग लोगोंं के उपकार के लिये ही करना चाहिये। यह है धार्मिक (भारतीय) विचार।
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इस्लाम और ईसाईयत में पुण्य नाम की कोई संकल्पना नहीं है। केवल ईसा मसीह पर श्रद्धा या पैगंबर मुहम्मद पर श्रद्धा उन्हें सदा के लिये स्वर्गप्राप्ति करा सकती है। इस के लिये सदाचार की कोई शर्त नहीं है। अंग्रेजी भाषा में शायद इसी कारण से ‘पुण्य’ शब्द ही नहीं है।   
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इस्लाम और ईसाईयत में पुण्य नाम की कोई संकल्पना नहीं है। केवल ईसा मसीह पर श्रद्धा या पैगंबर मुहम्मद पर श्रद्धा उन्हें सदा के लिये स्वर्गप्राप्ति करा सकती है। इस के लिये सदाचार की कोई शर्त नहीं है। अंग्रेजी भाषा में संभवतः इसी कारण से ‘पुण्य’ शब्द ही नहीं है।   
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धार्मिक (भारतीय) मान्यता के अनुसार तो पाप और पुण्य दोनों ही मन, वचन ( वाणी ) और कर्म ( कृति ) इन तीनों से होते है। और इन तीनों के पाप के बुरे और पुण्य के अच्छे फल मिलते हैं। मन में भी किसी के विषय में बुरे विचार आने से पाप हो जाता है। और उस का मानसिक क्लेष के रूप में फल भुगतना पडता है। हमारे बोलने से भी यदि किसी को दुख होता है तो ऐसे ही दुख देनेवाले वचन सुनने के रूप में हमें इस पाप का फल भोगना ही पडता है। कृति तो प्रत्यक्ष शारीरिक पीडा देनेवाला कार्य है। उस का फल शारीरिक दृष्टि से भोगना ही पडेगा। आगे कर्मसिध्दांत में हम इस की अधिक विवेचना करेंगे।   
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धार्मिक (भारतीय) मान्यता के अनुसार तो पाप और पुण्य दोनों ही मन, वचन ( वाणी ) और कर्म ( कृति ) इन तीनों से होते है। और इन तीनों के पाप के बुरे और पुण्य के अच्छे फल मिलते हैं। मन में भी किसी के विषय में बुरे विचार आने से पाप हो जाता है। और उस का मानसिक क्लेष के रूप में फल भुगतना पडता है। हमारे बोलने से भी यदि किसी को दुख होता है तो ऐसे ही दुख देनेवाले वचन सुनने के रूप में हमें इस पाप का फल भोगना ही पडता है। कृति तो प्रत्यक्ष शारीरिक पीडा देनेवाला कार्य है। उस का फल शारीरिक दृष्टि से भोगना ही पड़ेगा। आगे कर्मसिध्दांत में हम इस की अधिक विवेचना करेंगे।   
    
यहाँ अपराध और पाप इन में अंतर भी समझना आवश्यक है। वर्तमान कानून के विरोधी व्यवहार को अपराध कहते है। ऐसी कृति से किसी को हानि होती हो या ना होती हो वह अपराध है। और प्रचलित कानून की दृष्टि से दंडनीय है। किंतु हमारी कृति से जब तक किसी को दुख नहीं होता, किसी की हानि नहीं होती तब तक वह पाप नहीं है। धार्मिक (भारतीय) सोच में कानून को महत्व तो है किन्तु उस से भी अधिक महत्व पाप-पुण्य विचार को है। दो उदाहरणों से इसे हम स्पष्ट करेंगे। रेलवे कानून के अनुसार रेलवे की पटरियां लाँघकर इधर-उधर जाना अपराध है। किंतु जब तक मेरे ऐसा करने से किसी को हानि नहीं होती है किसी को कष्ट नहीं होता, वह पाप नहीं है। कुछ वर्ष पूर्व मेल गाडियों में धूम्रपान की अनुमति हुआ करती थी। और पियक्कड लोग रेलों में धूम्रपान किया करते थे। उन का धूम्रपान कानून के अनुसार अपराध नहीं था। दंडनीय नहीं था। किन्तु उन के धूम्रपान से लोगोंं को तकलीफ होती ही थी। इसलिये वह पाप अवश्य था। वर्तमान में तो सार्वजनिक स्थानपर धूम्रपान कानून से अपराध माना जाता है। इसलिये रेल के डिब्बे जैसे सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान अब अपराध भी है और पाप भी है। अपराध का दण्ड मिलने की सभावनाएं तो इस जन्म के साथ समाप्त हो जातीं है। किन्तु पाप के फल को भोगने का बोझ तो जन्म-जन्मांतर तक पीछा नहीं छोडता।   
 
यहाँ अपराध और पाप इन में अंतर भी समझना आवश्यक है। वर्तमान कानून के विरोधी व्यवहार को अपराध कहते है। ऐसी कृति से किसी को हानि होती हो या ना होती हो वह अपराध है। और प्रचलित कानून की दृष्टि से दंडनीय है। किंतु हमारी कृति से जब तक किसी को दुख नहीं होता, किसी की हानि नहीं होती तब तक वह पाप नहीं है। धार्मिक (भारतीय) सोच में कानून को महत्व तो है किन्तु उस से भी अधिक महत्व पाप-पुण्य विचार को है। दो उदाहरणों से इसे हम स्पष्ट करेंगे। रेलवे कानून के अनुसार रेलवे की पटरियां लाँघकर इधर-उधर जाना अपराध है। किंतु जब तक मेरे ऐसा करने से किसी को हानि नहीं होती है किसी को कष्ट नहीं होता, वह पाप नहीं है। कुछ वर्ष पूर्व मेल गाडियों में धूम्रपान की अनुमति हुआ करती थी। और पियक्कड लोग रेलों में धूम्रपान किया करते थे। उन का धूम्रपान कानून के अनुसार अपराध नहीं था। दंडनीय नहीं था। किन्तु उन के धूम्रपान से लोगोंं को तकलीफ होती ही थी। इसलिये वह पाप अवश्य था। वर्तमान में तो सार्वजनिक स्थानपर धूम्रपान कानून से अपराध माना जाता है। इसलिये रेल के डिब्बे जैसे सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान अब अपराध भी है और पाप भी है। अपराध का दण्ड मिलने की सभावनाएं तो इस जन्म के साथ समाप्त हो जातीं है। किन्तु पाप के फल को भोगने का बोझ तो जन्म-जन्मांतर तक पीछा नहीं छोडता।   
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वास्तव में देखें तो कर्मसिध्दांत, पाश्चात्य ‘कॉज ऍंड इफेक्ट’ संकल्पना से अत्यंत श्रेष्ठ सिद्धांत है। धार्मिक (भारतीय) विचार में इस ‘कॉज ऍंड इफेक्ट’ संकल्पना को कार्य-कारण सिद्धांत कहा गया है। जगत में कोई भी काम अपने आप नही होता। यदि कोई काम होता है तो उस का कारण होता ही है। इसी प्रकार यदि कारण होगा तो कार्य भी निश्चित रूप से होगा ही। यह है कार्य-कारण सिद्धांत। कार्य कारण संकल्पना में पुनर्जन्म और आत्मतत्व के अविनाशित्व का विचार जुडने से वह मात्र ‘कॉज एण्ड इफेक्ट’ या कार्य-कारण सिद्धांत नहीं रहता। वह अंत तक सिध्द हो सकता है ऐसा, सिद्धांत बन जाता है। अब कर्मसिध्दांत के महत्वपूर्ण सूत्रों को हम समझेंगे:  
 
वास्तव में देखें तो कर्मसिध्दांत, पाश्चात्य ‘कॉज ऍंड इफेक्ट’ संकल्पना से अत्यंत श्रेष्ठ सिद्धांत है। धार्मिक (भारतीय) विचार में इस ‘कॉज ऍंड इफेक्ट’ संकल्पना को कार्य-कारण सिद्धांत कहा गया है। जगत में कोई भी काम अपने आप नही होता। यदि कोई काम होता है तो उस का कारण होता ही है। इसी प्रकार यदि कारण होगा तो कार्य भी निश्चित रूप से होगा ही। यह है कार्य-कारण सिद्धांत। कार्य कारण संकल्पना में पुनर्जन्म और आत्मतत्व के अविनाशित्व का विचार जुडने से वह मात्र ‘कॉज एण्ड इफेक्ट’ या कार्य-कारण सिद्धांत नहीं रहता। वह अंत तक सिध्द हो सकता है ऐसा, सिद्धांत बन जाता है। अब कर्मसिध्दांत के महत्वपूर्ण सूत्रों को हम समझेंगे:  
# किये हुए अच्छे कर्म का ( कर्म के प्रमाण में ) अच्छा या बुरे कर्म का  ( कर्म के प्रमाण में ) बुरा फल भोगना ही पडता है। अच्छा और बुरा काम या सत्कर्म और दुष्कर्म का विवेचन हमने पूर्व में देखा है। मान लीजिये आपने किसी व्यक्ति को सहायता करने के लिये रू. ५०००/- दिये। यह आप के हाथ से पुण्य का या अच्छा काम हो गया। इस काम के फलस्वरूप आप को रू ५०००/- कभी ना कभी, आपको आवश्यकता होगी तब अवश्य मिलेंगे। इसी तरह आपने किसी के मन को दुखाया। तो जितना क्लेष उस व्यक्ति को आप की करनी से हुआ है, उतना क्लेष कभी ना कभी आप को भी भोगना पडेगा। मान लो आप ने मन में किसी एक या अनेक मनुष्यों के लिये कुछ बुरा सोचा है। तो इस के प्रतिकार में आप के बारे में बुरा सोचनेवाले भी एक या अनेक लोग बन जाएंगे। जैसे वैज्ञानिक सिद्धांत कहता है की हर क्रिया की उस क्रिया के बराबर प्रतिक्रिया होती ही है। उसी प्रकार से कर्मसिध्दांत में भी फल की मात्रा भी कर्म के प्रमाण में ही रहती है। थोडी कम नहीं या थोडी अधिक नहीं।  
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# किये हुए अच्छे कर्म का ( कर्म के प्रमाण में ) अच्छा या बुरे कर्म का  ( कर्म के प्रमाण में ) बुरा फल भोगना ही पडता है। अच्छा और बुरा काम या सत्कर्म और दुष्कर्म का विवेचन हमने पूर्व में देखा है। मान लीजिये आपने किसी व्यक्ति को सहायता करने के लिये रू. ५०००/- दिये। यह आप के हाथ से पुण्य का या अच्छा काम हो गया। इस काम के फलस्वरूप आप को रू ५०००/- कभी ना कभी, आपको आवश्यकता होगी तब अवश्य मिलेंगे। इसी तरह आपने किसी के मन को दुखाया। तो जितना क्लेष उस व्यक्ति को आप की करनी से हुआ है, उतना क्लेष कभी ना कभी आप को भी भोगना पड़ेगा। मान लो आप ने मन में किसी एक या अनेक मनुष्यों के लिये कुछ बुरा सोचा है। तो इस के प्रतिकार में आप के बारे में बुरा सोचनेवाले भी एक या अनेक लोग बन जाएंगे। जैसे वैज्ञानिक सिद्धांत कहता है की हर क्रिया की उस क्रिया के बराबर प्रतिक्रिया होती ही है। उसी प्रकार से कर्मसिध्दांत में भी फल की मात्रा भी कर्म के प्रमाण में ही रहती है। थोडी कम नहीं या थोडी अधिक नहीं।  
# किये हुए कर्म का फल मुझे कब मिले यह मै सदा तय नहीं कर सकता।  अर्थात् कभी कभी फल क्या मिलेगा हम तय कर सकते है। जैसे हम बाजार जाते है। यह विचार कर के जाते है कि पालक की सब्जी लाएंगे। और पैसे  देकर बाजार से पालक ले आते है। इस में पैसे, हमारा संचित कर्म है। और पालक की सब्जी उस का फल या परिणाम है। किन्तु कभी ऐसा हो जाता है की हम सोचकर निकलते है कि पालक की सब्जी लाएंगे लेकिन पालक की सब्जी हमारे बाजार जाने से पूर्व ही समाप्त हो गई है। यह बात हमारे हाथ में नहीं है। किन्तु हमारे हाथ में जो पैसे हैं  उन से अन्य कोई सब्जी हम अवश्य ला सकते हैं।विज्ञान से संबंधित एक उदाहरण अब हम देखेंगे। बोह्म का सिद्धांत कहता है की पूरी सृष्टि के कण-कण एक दूसरे से अत्यंत निकटता से जुडे हुए है। अर्थात् धूलि का एक कण हिलाने से पूरी सृष्टि हिलती है। यह तो हुआ वैज्ञानिक  सिद्धांत। अब कल्पना कीजिये आपने भारत में हॉकी का बल्ला चलाया। पूरी सृष्टि जुडी होने से स्पेन में हॉकी की गेंद हिली। अत्यंत संवेदनाक्षम यंत्र से आपने गेंद को हिलते देखा। आप त्रिकालज्ञानी तो है नहीं। इसलिये आप इस गेंद के हिलने को भारत में हिलाए गये बल्ले से तो जोड नहीं सकते। तो आप कहेंगे की जब गेंद हिली है तो कुछ कारण अवश्य हुआ है। उस गेंद के हिलने का और बल्ले के हिलाए जाने का संबंध जोडना संभव नहीं है। फिर भी प्रत्यक्ष में तो यही हुआ है। इसे समझना महत्वपूर्ण है। यहाँ कर्म की धार्मिक (भारतीय) संकल्पना को भी समझ लेना उपयुक्त होगा। कर्म सामान्यत: तीन प्रकार के होते है:  
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# किये हुए कर्म का फल मुझे कब मिले यह मै सदा तय नहीं कर सकता।  अर्थात् कभी कभी फल क्या मिलेगा हम तय कर सकते है। जैसे हम बाजार जाते है। यह विचार कर के जाते है कि पालक की सब्जी लाएंगे। और पैसे  देकर बाजार से पालक ले आते है। इस में पैसे, हमारा संचित कर्म है। और पालक की सब्जी उस का फल या परिणाम है। किन्तु कभी ऐसा हो जाता है की हम सोचकर निकलते है कि पालक की सब्जी लाएंगे लेकिन पालक की सब्जी हमारे बाजार जाने से पूर्व ही समाप्त हो गई है। यह बात हमारे हाथ में नहीं है। किन्तु हमारे हाथ में जो पैसे हैं  उन से अन्य कोई सब्जी हम अवश्य ला सकते हैं।विज्ञान से संबंधित एक उदाहरण अब हम देखेंगे। बोह्म का सिद्धांत कहता है की पूरी सृष्टि के कण-कण एक दूसरे से अत्यंत निकटता से जुड़े हुए है। अर्थात् धूलि का एक कण हिलाने से पूरी सृष्टि हिलती है। यह तो हुआ वैज्ञानिक  सिद्धांत। अब कल्पना कीजिये आपने भारत में हॉकी का बल्ला चलाया। पूरी सृष्टि जुडी होने से स्पेन में हॉकी की गेंद हिली। अत्यंत संवेदनाक्षम यंत्र से आपने गेंद को हिलते देखा। आप त्रिकालज्ञानी तो है नहीं। इसलिये आप इस गेंद के हिलने को भारत में हिलाए गये बल्ले से तो जोड नहीं सकते। तो आप कहेंगे की जब गेंद हिली है तो कुछ कारण अवश्य हुआ है। उस गेंद के हिलने का और बल्ले के हिलाए जाने का संबंध जोडना संभव नहीं है। तथापि प्रत्यक्ष में तो यही हुआ है। इसे समझना महत्वपूर्ण है। यहाँ कर्म की धार्मिक (भारतीय) संकल्पना को भी समझ लेना उपयुक्त होगा। कर्म सामान्यत: तीन प्रकार के होते है:  
 
## एक है संचित कर्म। हमारे अच्छे और बुरे कर्मों का फल हमारे भविष्य के खाते में जमा होता जाता है। यह खाता जन्म-जन्मांतर चलता रहता है।  
 
## एक है संचित कर्म। हमारे अच्छे और बुरे कर्मों का फल हमारे भविष्य के खाते में जमा होता जाता है। यह खाता जन्म-जन्मांतर चलता रहता है।  
 
## दूसरा है प्रारब्ध कर्म। हमारे पिछले जन्म में मृत्यू के समय हमारे जो कर्म के फल इस जन्म में भोगने के लिये पक गए हैं उन कर्मों को प्रारब्ध कर्म कहते है।  
 
## दूसरा है प्रारब्ध कर्म। हमारे पिछले जन्म में मृत्यू के समय हमारे जो कर्म के फल इस जन्म में भोगने के लिये पक गए हैं उन कर्मों को प्रारब्ध कर्म कहते है।  
 
## तीसरा होता है क्रियमाण कर्म। वर्तमान क्षण से आगे हम जो कर्म करनेवाले है, उसे क्रियमाण कर्म कहा जाता है।   
 
## तीसरा होता है क्रियमाण कर्म। वर्तमान क्षण से आगे हम जो कर्म करनेवाले है, उसे क्रियमाण कर्म कहा जाता है।   
 
##* संचित और प्रारब्ध कर्म के फल बदलना किसी को संभव नहीं है। केवल अष्टांग योग के माध्यम से संचित और प्रारब्ध कर्म को दग्धबीज या नष्ट किया जा सकता है। किंतु क्रियमाण कर्म अर्थात् आगे इस जन्म में हम क्या करेंगे यह हम तय करते हैं। इस की हर मनुष्य को स्वतंत्रता होती है। इस स्वतंत्रता के कारण ही मनुष्य योनि को कर्मयोनि कहा जाता है। अन्य सब जीव कर्म करने को स्वतंत्र नही होते। उन्हें भोगयोनियाँ कहा जाता है।  
 
##* संचित और प्रारब्ध कर्म के फल बदलना किसी को संभव नहीं है। केवल अष्टांग योग के माध्यम से संचित और प्रारब्ध कर्म को दग्धबीज या नष्ट किया जा सकता है। किंतु क्रियमाण कर्म अर्थात् आगे इस जन्म में हम क्या करेंगे यह हम तय करते हैं। इस की हर मनुष्य को स्वतंत्रता होती है। इस स्वतंत्रता के कारण ही मनुष्य योनि को कर्मयोनि कहा जाता है। अन्य सब जीव कर्म करने को स्वतंत्र नही होते। उन्हें भोगयोनियाँ कहा जाता है।  
# जिस की बुद्धि अधिक विकसित होती है वह कर्म करने को अधिक स्वतंत्र होता है। अभी हमने देखा की अन्य सब जीवयोनियाँ भोगयोनियाँ हैं। इस का कारण उन की में बुद्धि का स्तर मनुष्य की तुलना में अत्यंत कम होता है। और यह सामान्य व्यवहार की भी तो बात है। जिस की बुद्धि तेज होती है उसे हम अधिक सूचनाएं नहीं देते। वह अपनी बुद्धि के हिसाब से काम कर ही लेता है। अल्पबुद्धिवाले को या छोटे बच्चों को हम अधिक सूचनाएं करते हैं। स्वतंत्रता का संबंध इस तरह बुद्धि से होता ही है।  
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# जिस की बुद्धि अधिक विकसित होती है वह कर्म करने को अधिक स्वतंत्र होता है। अभी हमने देखा की अन्य सब जीवयोनियाँ भोगयोनियाँ हैं। इस का कारण उन की में बुद्धि का स्तर मनुष्य की तुलना में अत्यंत कम होता है। और यह सामान्य व्यवहार की भी तो बात है। जिस की बुद्धि तेज होती है उसे हम अधिक सूचनाएं नहीं देते। वह अपनी बुद्धि के हिसाब से काम कर ही लेता है। अल्पबुद्धिवाले को या छोटे बच्चोंं को हम अधिक सूचनाएं करते हैं। स्वतंत्रता का संबंध इस तरह बुद्धि से होता ही है।  
 
# कर्मफलों का जोड या घटाव नहीं होता। अर्थात् अच्छे कर्म का और बुरे कर्म का फल अलग अलग भोगना पडता है। अच्छे कर्म में से बुरे कर्म को घटाकर शेष का भोग करने की व्यवस्था नहीं है। दैनंदिन व्यवहार में भी हम देखते हैं कि प्रत्येक मनुष्य सुख भी भोगता है और दुख भी भोगता है। अर्थात् सुखकारक कर्मों में से दुखकारक कर्म घटाए नहीं जा सकते। दोनों को स्वतंत्र भोगना पडता है।  
 
# कर्मफलों का जोड या घटाव नहीं होता। अर्थात् अच्छे कर्म का और बुरे कर्म का फल अलग अलग भोगना पडता है। अच्छे कर्म में से बुरे कर्म को घटाकर शेष का भोग करने की व्यवस्था नहीं है। दैनंदिन व्यवहार में भी हम देखते हैं कि प्रत्येक मनुष्य सुख भी भोगता है और दुख भी भोगता है। अर्थात् सुखकारक कर्मों में से दुखकारक कर्म घटाए नहीं जा सकते। दोनों को स्वतंत्र भोगना पडता है।  
 
# परमात्मा सर्वशक्तिमान है। किन्तु वह अपने किये कर्मों के फल देने के लिये बंधा हुआ है।  परब्रह्म परमात्मा तो सर्वशक्तिमान है। उसी की इच्छा और शक्ति के कारण सृष्टि बनी है। किन्तु वह परमात्मा भी सब कुछ नियमों से ही चलता है। फिर वे सृष्टि के चक्र हों या जीव के शरीर में काम करनेवाली रक्ताभिसरण या चेतातंत्र जैसी विभिन्न प्रक्रियाएं हों। हमारे कई संत कहते है कि परमात्मा दयालू है। किन्तु इस के साथ ही वे कहते हैं कि परमात्मा भक्त की परीक्षा लेता है। परीक्षा लेने से उन का अर्थ वास्तव में होता है कि बुरे कर्मों को भुगतवाकर समाप्त कर देता है। परमात्मा की भक्ति के कारण आप कष्ट देनेवाली परमात्मा की परीक्षाओं के लिये तैयार हो जाते हैं। सहनशील बन जाते हैं। बुरे फल भोगने से भी दुखी नहीं होते।   
 
# परमात्मा सर्वशक्तिमान है। किन्तु वह अपने किये कर्मों के फल देने के लिये बंधा हुआ है।  परब्रह्म परमात्मा तो सर्वशक्तिमान है। उसी की इच्छा और शक्ति के कारण सृष्टि बनी है। किन्तु वह परमात्मा भी सब कुछ नियमों से ही चलता है। फिर वे सृष्टि के चक्र हों या जीव के शरीर में काम करनेवाली रक्ताभिसरण या चेतातंत्र जैसी विभिन्न प्रक्रियाएं हों। हमारे कई संत कहते है कि परमात्मा दयालू है। किन्तु इस के साथ ही वे कहते हैं कि परमात्मा भक्त की परीक्षा लेता है। परीक्षा लेने से उन का अर्थ वास्तव में होता है कि बुरे कर्मों को भुगतवाकर समाप्त कर देता है। परमात्मा की भक्ति के कारण आप कष्ट देनेवाली परमात्मा की परीक्षाओं के लिये तैयार हो जाते हैं। सहनशील बन जाते हैं। बुरे फल भोगने से भी दुखी नहीं होते।   
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==== ४.६ स्वर्ग - नरक कल्पना ====
 
==== ४.६ स्वर्ग - नरक कल्पना ====
अन्य समाज और धार्मिक (भारतीय) समाज की स्वर्ग - नरक कल्पनाएं भिन्न भिन्न है। अन्य समाजों में  गॉड या अल्ला पर और उन के प्रेषितों पर श्रद्धा रखना इतना सदा के लिये स्वर्ग प्राप्ति के लिये पर्याप्त है। स्वर्ग-नरक की धार्मिक (भारतीय) मान्यता बुद्धियुक्त है। धार्मिक (भारतीय) विचार के अनुसार जिसने जितने प्रमाण में अच्छे कर्म किये होंगे उसे उतने प्रमाण में स्वर्गसुख का लाभ होगा। और उसने जितने बुरे कर्म किये होंगे उसी प्रमाण में उसे नरक-यातनाएं भोगनी पडेंगी। स्वर्ग और नरक की धार्मिक (भारतीय) कल्पना स्पष्ट होने से सामान्यत: कोई बुरा कर्म करने को प्रवृत्त नहीं होता। व्यक्ति और समाज को सदाचारी रखने में धार्मिक (भारतीय) स्वर्ग-नरक कल्पना का भी महत्वपूर्ण योगदान है।  
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अन्य समाज और धार्मिक (भारतीय) समाज की स्वर्ग - नरक कल्पनाएं भिन्न भिन्न है। अन्य समाजों में  गॉड या अल्ला पर और उन के प्रेषितों पर श्रद्धा रखना इतना सदा के लिये स्वर्ग प्राप्ति के लिये पर्याप्त है। स्वर्ग-नरक की धार्मिक (भारतीय) मान्यता बुद्धियुक्त है। धार्मिक (भारतीय) विचार के अनुसार जिसने जितने प्रमाण में अच्छे कर्म किये होंगे उसे उतने प्रमाण में स्वर्गसुख का लाभ होगा। और उसने जितने बुरे कर्म किये होंगे उसी प्रमाण में उसे नरक-यातनाएं भोगनी पड़ेंगी। स्वर्ग और नरक की धार्मिक (भारतीय) कल्पना स्पष्ट होने से सामान्यत: कोई बुरा कर्म करने को प्रवृत्त नहीं होता। व्यक्ति और समाज को सदाचारी रखने में धार्मिक (भारतीय) स्वर्ग-नरक कल्पना का भी महत्वपूर्ण योगदान है।  
    
==== ४.७ आत्मनो मोक्षार्थं जगत् हिताय च<ref>Swami Vivekananda Volume 6 page 473.</ref> ====
 
==== ४.७ आत्मनो मोक्षार्थं जगत् हिताय च<ref>Swami Vivekananda Volume 6 page 473.</ref> ====
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दो सगे भाई थे। पिता ने मरने से पूर्व बँटवारा कर दिया था। घर के दो समान हिस्से कर दिये थे। एक में छोटा भाई और दूसरे में बडा भाई रहता था। ऑंगन में भी लकीर खींच दी थी। किन्तु खेती की जमीन छोटी होने से जमीन का बँटवारा नही किया गया था। दीपावली से पूर्व फसल आई। खेत के मजदूरों का, गाँव का ऐसे सब हिस्से निकालने के बाद जो बचा उस के दो हिस्से किये। प्रत्येक भई के हिस्से में १०० बोरी धान आया। दोनों ने धान लाकर अपने ऑंगन में जमाकर रख दिया। रात्रि में बडे भाई की नींद खुली। वह सोचने लगा मेरे घर में तो अब मेरा बेटा भी महनत के लिये उपलब्ध है। मेरा आधा संसार हो चुका है। मेरे भाई का तो अभी विवाह भी नहीं हुआ। विवाह में बहुत सारा खर्चा होगा। फिर बच्चे भी होंगे। छोटे भाई का परिवार बढनेवाला है। खर्चे बढनेवाले हैं। ऐसी स्थिति में यह ठीक नहीं है की मै पूरी फसल का आधा हिस्सा ले लूं। वह रात ही में उठा। अपने हिस्से में से धान की दस बोरियाँ उठाकर उसने ऑंगन के दूसरे हिस्से में अपने छोटे भाई की धान की बोरियों के साथ, भाई को ध्यान में ना आए इस पध्दति से जमाकर रख दी।   
 
दो सगे भाई थे। पिता ने मरने से पूर्व बँटवारा कर दिया था। घर के दो समान हिस्से कर दिये थे। एक में छोटा भाई और दूसरे में बडा भाई रहता था। ऑंगन में भी लकीर खींच दी थी। किन्तु खेती की जमीन छोटी होने से जमीन का बँटवारा नही किया गया था। दीपावली से पूर्व फसल आई। खेत के मजदूरों का, गाँव का ऐसे सब हिस्से निकालने के बाद जो बचा उस के दो हिस्से किये। प्रत्येक भई के हिस्से में १०० बोरी धान आया। दोनों ने धान लाकर अपने ऑंगन में जमाकर रख दिया। रात्रि में बडे भाई की नींद खुली। वह सोचने लगा मेरे घर में तो अब मेरा बेटा भी महनत के लिये उपलब्ध है। मेरा आधा संसार हो चुका है। मेरे भाई का तो अभी विवाह भी नहीं हुआ। विवाह में बहुत सारा खर्चा होगा। फिर बच्चे भी होंगे। छोटे भाई का परिवार बढनेवाला है। खर्चे बढनेवाले हैं। ऐसी स्थिति में यह ठीक नहीं है की मै पूरी फसल का आधा हिस्सा ले लूं। वह रात ही में उठा। अपने हिस्से में से धान की दस बोरियाँ उठाकर उसने ऑंगन के दूसरे हिस्से में अपने छोटे भाई की धान की बोरियों के साथ, भाई को ध्यान में ना आए इस पध्दति से जमाकर रख दी।   
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योगायोग से उसी रात थोडी देर बाद छोटे भाई की भी नींद खुली। उस ने सोचा। मै कितना स्वार्थी हूं। मै अकेला और बडे भैया के घर में चार लोग खानेवाले। फिर भी मैने धान का आधा हिस्सा ले लिया। यह ठीक नहीं है। वह रात में उठा। अपने हिस्से में से दस बोरियाँ धान उठाकर, ऑंगन के दूसरे हिस्से में बडे भाई के हिस्से के साथ, ध्यान में ना आए इस ढंग से जमाकर रखीं और सो गया। दूसरे दिन दोनों भाई उठे। दातौन करते ऑंगन में आए। धान की बोरियाँ देखने लगे। दोनों ही हिस्से समान देखकर दोनों चौंक उठे। दोनों के ध्यान में आया की जैसे मैंने अपने हिस्से की दस बोरियाँ दूसरे के हिस्से में रखीं थीं वैसे ही दूसरे भाई ने भी किया है। दोनों एक दूसरे की ओर देखने लगे। प्यार उमड आया। दोनों गले मिले। ऑंगन की रेखा मिटा दी गई। दोनों एक हो गए। अपने भाई के प्रति के कर्तव्यबोध के कारण ही यह हुआ था।  
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योगायोग से उसी रात थोडी देर बाद छोटे भाई की भी नींद खुली। उस ने सोचा। मै कितना स्वार्थी हूं। मै अकेला और बडे भैया के घर में चार लोग खानेवाले। तथापि मैने धान का आधा हिस्सा ले लिया। यह ठीक नहीं है। वह रात में उठा। अपने हिस्से में से दस बोरियाँ धान उठाकर, ऑंगन के दूसरे हिस्से में बडे भाई के हिस्से के साथ, ध्यान में ना आए इस ढंग से जमाकर रखीं और सो गया। दूसरे दिन दोनों भाई उठे। दातौन करते ऑंगन में आए। धान की बोरियाँ देखने लगे। दोनों ही हिस्से समान देखकर दोनों चौंक उठे। दोनों के ध्यान में आया की जैसे मैंने अपने हिस्से की दस बोरियाँ दूसरे के हिस्से में रखीं थीं वैसे ही दूसरे भाई ने भी किया है। दोनों एक दूसरे की ओर देखने लगे। प्यार उमड आया। दोनों गले मिले। ऑंगन की रेखा मिटा दी गई। दोनों एक हो गए। अपने भाई के प्रति के कर्तव्यबोध के कारण ही यह हुआ था।  
    
अब इसी कहानी में ‘मेरे अधिकार’ का पहलू आने से क्या होगा इस की थोडी कल्पना करें। बडा भाई न्यायालय की सीढीयाँ चढता है। परिवार के घटक अधिक होने से, कानून के अनुसार घर के बडे हिस्से पर अधिकार मांगता है। खेती में भी बडा हिस्सा माँगता है। छोटा भाई नहीं देता। दोनों के मन में एक दूसरे के प्रति घृणा का, शत्रुता का भाव निर्माण होता है। दोनों अच्छे से अच्छे वकील की सेवा लेते है। मुकदमा चलता है। दोनों धीरे धीरे कंगाल हो जाते है। घर, खेत गिरवी रखते है। दोनों का सर्वनाश होता है।  
 
अब इसी कहानी में ‘मेरे अधिकार’ का पहलू आने से क्या होगा इस की थोडी कल्पना करें। बडा भाई न्यायालय की सीढीयाँ चढता है। परिवार के घटक अधिक होने से, कानून के अनुसार घर के बडे हिस्से पर अधिकार मांगता है। खेती में भी बडा हिस्सा माँगता है। छोटा भाई नहीं देता। दोनों के मन में एक दूसरे के प्रति घृणा का, शत्रुता का भाव निर्माण होता है। दोनों अच्छे से अच्छे वकील की सेवा लेते है। मुकदमा चलता है। दोनों धीरे धीरे कंगाल हो जाते है। घर, खेत गिरवी रखते है। दोनों का सर्वनाश होता है।  
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वास्तव में मानव का समाज में शोषण हो रहा हो तो मानव के कर्तव्यों पर बल देना चाहिये था। स्त्री को समाज में उचित स्थान नहीं मिलता हो तो पुरुषों के स्त्री के प्रति कर्तव्योंपर बल देने की आवश्यकता थी। और बच्चों को यथोचित शिक्षा और सम्हाल नहीं मिलती हो ऐसा हो तो माता-पिता का प्रशिक्षण, आर्थिक दृष्टि से सबलीकरण, समाज में सामाजिक कर्तव्यबोध को जगाने के प्रयास होने चाहिये।  जब कोई व्यक्ति अपने हर प्रकार के कर्तव्यों को पूरा करता है तो अन्य लोगोंं के अधिकारों की रक्षा तो अपने आप ही होती है। माता-पिता अपने बच्चों के प्रति अपने कर्तव्यों को पूरा कर दें तो बच्चों के अधिकारों के लिये हो-हल्ला करने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती।  
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वास्तव में मानव का समाज में शोषण हो रहा हो तो मानव के कर्तव्यों पर बल देना चाहिये था। स्त्री को समाज में उचित स्थान नहीं मिलता हो तो पुरुषों के स्त्री के प्रति कर्तव्योंपर बल देने की आवश्यकता थी। और बच्चोंं को यथोचित शिक्षा और सम्हाल नहीं मिलती हो ऐसा हो तो माता-पिता का प्रशिक्षण, आर्थिक दृष्टि से सबलीकरण, समाज में सामाजिक कर्तव्यबोध को जगाने के प्रयास होने चाहिये।  जब कोई व्यक्ति अपने हर प्रकार के कर्तव्यों को पूरा करता है तो अन्य लोगोंं के अधिकारों की रक्षा तो अपने आप ही होती है। माता-पिता अपने बच्चोंं के प्रति अपने कर्तव्यों को पूरा कर दें तो बच्चोंं के अधिकारों के लिये हो-हल्ला करने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती।  
   −
किन्तु वर्तमान में हमारी शिक्षा व्यवस्था समेत सभी व्यवस्थाओं में अधिकारों पर ही बल दिया जा रहा है। सर्वप्रथम तो मानव के अधिकार शिक्षा का हिस्सा बनें। फिर आए महिलाओं के अधिकार। अब आ गए हैं बच्चों के अधिकार। पाश्चात्यों के अंधानुकरण की हमें बहुत बुरी आदत पड गई है। इन्ही अधिकारों के विषय में विकृति के कारण पाश्चात्य जगत में तलाक का प्रमाण, वृध्दाश्रम, अनाथालय, अपंगाश्रम आदि की संख्या तेजी से बढ रही है। पश्चिम के इस अंधानुकरण को हमें शीघ्रातिशीघ्र छोडना होगा।  
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किन्तु वर्तमान में हमारी शिक्षा व्यवस्था समेत सभी व्यवस्थाओं में अधिकारों पर ही बल दिया जा रहा है। सर्वप्रथम तो मानव के अधिकार शिक्षा का हिस्सा बनें। फिर आए महिलाओं के अधिकार। अब आ गए हैं बच्चोंं के अधिकार। पाश्चात्यों के अंधानुकरण की हमें बहुत बुरी आदत पड गई है। इन्ही अधिकारों के विषय में विकृति के कारण पाश्चात्य जगत में तलाक का प्रमाण, वृध्दाश्रम, अनाथालय, अपंगाश्रम आदि की संख्या तेजी से बढ रही है। पश्चिम के इस अंधानुकरण को हमें शीघ्रातिशीघ्र छोडना होगा।  
    
=== ८. वसुधैव कुटुंबकम् ===
 
=== ८. वसुधैव कुटुंबकम् ===
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अमरिका एक बडे प्रमाण में टूटे परिवारों का देश है। परिवारों को फिर से व्यवस्थित कैसे किया जाए इस की चिंता अमरिका के हितचिंतक विद्वान करने लगे है। किन्तु प्रेम, आत्मीयता, कर्तव्य भावना, औरों के हित को प्राधान्य देना, औरों के लिये त्याग करने की मानसिकता, इन सब को पुन: लोगोंं के मन में जगाना सरल बात नहीं है। हमारे यहाँ परिवार व्यवस्था अब भी कुछ प्रमाण में टिकी हुई है, उस की हमें कीमत नहीं है।  
 
अमरिका एक बडे प्रमाण में टूटे परिवारों का देश है। परिवारों को फिर से व्यवस्थित कैसे किया जाए इस की चिंता अमरिका के हितचिंतक विद्वान करने लगे है। किन्तु प्रेम, आत्मीयता, कर्तव्य भावना, औरों के हित को प्राधान्य देना, औरों के लिये त्याग करने की मानसिकता, इन सब को पुन: लोगोंं के मन में जगाना सरल बात नहीं है। हमारे यहाँ परिवार व्यवस्था अब भी कुछ प्रमाण में टिकी हुई है, उस की हमें कीमत नहीं है।  
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हमारे पूर्वजों ने बहुत सोच समझकर, परिश्रमपूर्वक परिवार व्यवस्था का निर्माण किया था। केवल व्यवस्था ही निर्माण नहीं की तो उसे पूर्णत्व की स्थितितक ले गये। उस व्यवस्था में ही ऐसे घटक विकसित किये जो उस व्यवस्था को बनाए भी रखते थे और बलवान भी बनाते थे। इसीलिये धार्मिक (भारतीय) परिवार व्यवस्था कालजयी बनी है। इस कुटुंब व्यवस्था के कुछ महत्वपूर्ण विशेष निम्न हैं:  
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हमारे पूर्वजों ने बहुत सोच समझकर, परिश्रमपूर्वक परिवार व्यवस्था का निर्माण किया था। केवल व्यवस्था ही निर्माण नहीं की तो उसे पूर्णत्व की स्थितितक ले गये। उस व्यवस्था में ही ऐसे घटक विकसित किये जो उस व्यवस्था को बनाए भी रखते थे और बलवान भी बनाते थे। इसीलिये धार्मिक (भारतीय) परिवार व्यवस्था कालजयी बनी है। इस [[Family Structure (कुटुंब व्यवस्था)|कुटुंब व्यवस्था]] के कुछ महत्वपूर्ण विशेष निम्न हैं:  
 
* सुसंस्कृत, सुखी, समाधानी और सामाजिक सहनिवास के संस्कारों की व्यवस्था  
 
* सुसंस्कृत, सुखी, समाधानी और सामाजिक सहनिवास के संस्कारों की व्यवस्था  
 
* सामान्य ज्ञान एका पीढी से अगली पीढी तक संक्रमित करने की व्यवस्था  
 
* सामान्य ज्ञान एका पीढी से अगली पीढी तक संक्रमित करने की व्यवस्था  
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* कुटुंब प्रमुख परिवार के सब के हित में जिये ऐसी मानसिकता। और केवल जिये इतना ही नहीं अपितु परिवार के सभी घटकों को मनपूर्वक लगे भी यह महत्वपूर्ण बात है।  
 
* कुटुंब प्रमुख परिवार के सब के हित में जिये ऐसी मानसिकता। और केवल जिये इतना ही नहीं अपितु परिवार के सभी घटकों को मनपूर्वक लगे भी यह महत्वपूर्ण बात है।  
 
* जो कमाएगा वह खिलाएगा और जो जन्मा है वह खाएगा।  
 
* जो कमाएगा वह खिलाएगा और जो जन्मा है वह खाएगा।  
* अपनी क्षमता के अनुसार पारिवारिक जिम्मेदारी उठाना परिवार की समृध्दि बढाने में योगदान देना और परिवार के साझे संचय में से न्यूनतम का उपयोग करना। इसी व्यवहार के कारण देश समृध्द था।  
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* अपनी क्षमता के अनुसार पारिवारिक जिम्मेदारी उठाना परिवार की समृद्धि बढाने में योगदान देना और परिवार के साझे संचय में से न्यूनतम का उपयोग करना। इसी व्यवहार के कारण देश समृध्द था।  
 
* बडों का आदर करना, छोटों को प्यार देना, अतिथि का सत्कार करना, स्त्री का सम्मान करना, परिवार के हित में ही अपना हित देखना, अपनों के लिये किये त्याग के आनंद की अनूभूति, घर के नौकर-चाकर, भिखारी, मधुकरी माँगनेवाले, पशु, पक्षी, पौधे आदि परिवार के घटक ही हैं, इस प्रकार उन सब से व्यवहार करना आदि बातें बच्चे परिवार में बढते बढते अपने आप सीख जाते थे।   
 
* बडों का आदर करना, छोटों को प्यार देना, अतिथि का सत्कार करना, स्त्री का सम्मान करना, परिवार के हित में ही अपना हित देखना, अपनों के लिये किये त्याग के आनंद की अनूभूति, घर के नौकर-चाकर, भिखारी, मधुकरी माँगनेवाले, पशु, पक्षी, पौधे आदि परिवार के घटक ही हैं, इस प्रकार उन सब से व्यवहार करना आदि बातें बच्चे परिवार में बढते बढते अपने आप सीख जाते थे।   
 
* मृत्यू का डर बताकर बीमे के दलाल कहते है की ‘आयुर्बीमा का कोई विकल्प नही है’। किन्तु बडे परिवार के किसी भी घटक को आयुर्विमा की कोई आवश्यकता नहीं होती। आपात स्थिति में पूरा परिवार उस घटक का केवल आर्थिक ही नहीं, भावनात्मक और शारिरिक बोझ भी सहज ही उठा लेता है। इस भावनात्मक सुरक्षा के लिये आयुर्बीमा में कोई विकल्प नहीं है।  
 
* मृत्यू का डर बताकर बीमे के दलाल कहते है की ‘आयुर्बीमा का कोई विकल्प नही है’। किन्तु बडे परिवार के किसी भी घटक को आयुर्विमा की कोई आवश्यकता नहीं होती। आपात स्थिति में पूरा परिवार उस घटक का केवल आर्थिक ही नहीं, भावनात्मक और शारिरिक बोझ भी सहज ही उठा लेता है। इस भावनात्मक सुरक्षा के लिये आयुर्बीमा में कोई विकल्प नहीं है।  
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धार्मिक (भारतीय) मान्यताओं में इस से बहुत अधिक गंभीरता से इस बात का विचार किया गया है। केवल एक दो शब्दों से किये उपकार का प्रतिकार नही हो सकता। या दिये दुख को नि:शेष नहीं किया जा सकता। यह तो प्रत्यक्ष कृति से ही दिया जाना चाहिये। इसलिये जरा जरा सी बातपर थँक यू या सॉरी कहने की प्रथा धार्मिक (भारतीय) समाज में नही है। पश्चिमी शिक्षा के प्रभाव में पश्चिमी तौर तरीकों का अंधानुकरण हो ही रहा है। इस के फलस्वरूप 'आप को मेरे कारण तकलीफ हुई। मान लिया ना ! और सॉरी कह दिया ना। अब क्या ‘मेरी जान लोगे’ ऐसा कहनेवाले धार्मिक (भारतीय) भी दिखाई देने लगे है। इसलिये कृतज्ञता के संबंध में धार्मिक (भारतीय) सोच का अधिक अध्ययन कर उसे व्यवहार में लाने की आवश्यकता है।  
 
धार्मिक (भारतीय) मान्यताओं में इस से बहुत अधिक गंभीरता से इस बात का विचार किया गया है। केवल एक दो शब्दों से किये उपकार का प्रतिकार नही हो सकता। या दिये दुख को नि:शेष नहीं किया जा सकता। यह तो प्रत्यक्ष कृति से ही दिया जाना चाहिये। इसलिये जरा जरा सी बातपर थँक यू या सॉरी कहने की प्रथा धार्मिक (भारतीय) समाज में नही है। पश्चिमी शिक्षा के प्रभाव में पश्चिमी तौर तरीकों का अंधानुकरण हो ही रहा है। इस के फलस्वरूप 'आप को मेरे कारण तकलीफ हुई। मान लिया ना ! और सॉरी कह दिया ना। अब क्या ‘मेरी जान लोगे’ ऐसा कहनेवाले धार्मिक (भारतीय) भी दिखाई देने लगे है। इसलिये कृतज्ञता के संबंध में धार्मिक (भारतीय) सोच का अधिक अध्ययन कर उसे व्यवहार में लाने की आवश्यकता है।  
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कृतज्ञता यह मनुष्य का लक्षण है। कृतज्ञता का अर्थ है किसी ने मेरे उपर किये उपकार का स्मरण रखना और उस के उपकार के प्रतिकार में उसे जब आवश्यकता है ऐसे समय उसपर उपकार करना। पशुओं में कृतज्ञता का अभाव ही होता है। शेर और उसे जाल में से छुडाने वाले चूहे की कथा बचपन में बच्चों को बताना ठीक ही है। किन्तु कृतज्ञता की भावना मन में गहराई तक बिठाने के लिये, बडे बच्चों को भी इस विषय की सुधारित कथा बताने की आवश्यकता है।   
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कृतज्ञता यह मनुष्य का लक्षण है। कृतज्ञता का अर्थ है किसी ने मेरे उपर किये उपकार का स्मरण रखना और उस के उपकार के प्रतिकार में उसे जब आवश्यकता है ऐसे समय उसपर उपकार करना। पशुओं में कृतज्ञता का अभाव ही होता है। शेर और उसे जाल में से छुडाने वाले चूहे की कथा बचपन में बच्चोंं को बताना ठीक ही है। किन्तु कृतज्ञता की भावना मन में गहराई तक बिठाने के लिये, बडे बच्चोंं को भी इस विषय की सुधारित कथा बताने की आवश्यकता है।   
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यह सुधारित कथा ऐसी है। शेर के उपकारों को स्मरण कर चूहे ने शेर जिस जाल में फँसा था उसे काटा। इस से वह शेर ने चूहे को दिये जीवनदान के उपकार से मुक्त हो गया। यहाँ तक छोटे बच्चों के लिये ठीक है। बडे बच्चों की सुधारित कहानी में शेर चुहे का बहुत बडा गौरव करता है। चूहा विनम्रता से कहता है ‘शेर द्वारा मेरे उपर किये उपकार के कारण मैने यह कृतज्ञता के भाव से किया है। इस में मेरा कोई बडप्पन नहीं है ‘। इस पर शेर कहता है देखो यह कहानी मानव जगत की है। पशु जगत की नहीं है। मानव समाज में तो कृतज्ञता का भाव एक सहज स्वाभाविक बात मानी जाती है। किन्तु पशु जगत में तो ऐसी कोई परंपरा या नियम नहीं है। इस लिये मैने तुम्हें विशेष सम्मानित किया है। तात्पर्य यह है कि जो मनुष्य अपने पर किये उपकारों को भूल जाता है, या स्मरण होकर भी उन उपकारों से उॠण होने के लिये प्रयास नहीं करता वह मनुष्य नहीं पशु ही है।  
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यह सुधारित कथा ऐसी है। शेर के उपकारों को स्मरण कर चूहे ने शेर जिस जाल में फँसा था उसे काटा। इस से वह शेर ने चूहे को दिये जीवनदान के उपकार से मुक्त हो गया। यहाँ तक छोटे बच्चोंं के लिये ठीक है। बडे बच्चोंं की सुधारित कहानी में शेर चुहे का बहुत बडा गौरव करता है। चूहा विनम्रता से कहता है ‘शेर द्वारा मेरे उपर किये उपकार के कारण मैने यह कृतज्ञता के भाव से किया है। इस में मेरा कोई बडप्पन नहीं है ‘। इस पर शेर कहता है देखो यह कहानी मानव जगत की है। पशु जगत की नहीं है। मानव समाज में तो कृतज्ञता का भाव एक सहज स्वाभाविक बात मानी जाती है। किन्तु पशु जगत में तो ऐसी कोई परंपरा या नियम नहीं है। इस लिये मैने तुम्हें विशेष सम्मानित किया है। तात्पर्य यह है कि जो मनुष्य अपने पर किये उपकारों को भूल जाता है, या स्मरण होकर भी उन उपकारों से उॠण होने के लिये प्रयास नहीं करता वह मनुष्य नहीं पशु ही है।  
    
==== ९.१ पंच ॠण ====
 
==== ९.१ पंच ॠण ====
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===== ९.१.१ पितर ॠण =====
 
===== ९.१.१ पितर ॠण =====
अभी उपर बताए अनुसार कितनी ही पीढियों से हमारे पितरजनों ने संतति निर्माण की इसलिये मेरा जन्म हुआ है। उन के संसति-नियमन करने से मेरा जन्म नहीं हो पाता। इसलिये मैं उन पितरों का ॠणी हूं। श्रेष्ठ संतति माँ-बाप का नाम ऊंचा करती है। मेरे पितरों के ॠण से उॠण होने का अर्थ है उन का नाम चिरंजीवी बनाए ऐसी ओजवान, तेजवान, प्रतिभावान, मेधावान, क्षमतावान, विनयवान, चारित्र्यवान और बलवान संतति को मै जन्म दूं। ऐसा ना करने से मुझे पशु, पक्षी आदि जैसी हीन योनि में या हीन मानव के स्तर पर जन्म लेना पडेगा।
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अभी उपर बताए अनुसार कितनी ही पीढियों से हमारे पितरजनों ने संतति निर्माण की इसलिये मेरा जन्म हुआ है। उन के संसति-नियमन करने से मेरा जन्म नहीं हो पाता। इसलिये मैं उन पितरों का ॠणी हूं। श्रेष्ठ संतति माँ-बाप का नाम ऊंचा करती है। मेरे पितरों के ॠण से उॠण होने का अर्थ है उन का नाम चिरंजीवी बनाए ऐसी ओजवान, तेजवान, प्रतिभावान, मेधावान, क्षमतावान, विनयवान, चारित्र्यवान और बलवान संतति को मै जन्म दूं। ऐसा ना करने से मुझे पशु, पक्षी आदि जैसी हीन योनि में या हीन मानव के स्तर पर जन्म लेना पड़ेगा।
    
===== ९.१.२ भूतॠण =====
 
===== ९.१.२ भूतॠण =====
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=== १५ कृण्वंतो विश्वमार्यंम् ===
 
=== १५ कृण्वंतो विश्वमार्यंम् ===
कृण्वंतो विश्वमार्यंम् का अर्थ है हम समूचे विश्व को आर्य बनाएंगे। हमें पढाए जा रहे विकृत इतिहास के अनुसार आर्य यह जाति है। ऐसा सिखाना ना केवल गलत है अपितु देश के अहित का भी है। वास्तव में आर्य का अर्थ है श्रेष्ठ। प्राचीन और मध्यकालीन पूरे धार्मिक (भारतीय) साहित्य में आर्य शब्द का प्रयोग ' विचार और व्यवहार से श्रेष्ठ ' इसी अर्थ से किया गया मिलेगा। किन्तु भारत में भिन्न भिन्न कारणों से फूट डालने के अंग्रेजी षडयंत्र के अनुसार आर्य को जाति बनाकर प्रस्तुत किया गया। इसे हिन्दुस्तान पर आक्रमण करनेवाली जाति बताया गया। आर्य अनार्य, आर्य-द्रविड ऐसा हिन्दू समाज को तोडने का काफी सफल प्रयास अंग्रेजों ने किया। इसी कारण आज भी, जब यह निर्विवाद रूप से सिध्द हो गया है की आर्य ऐसी कोई जाति नहीं थी, फिर भी यही पढ़ाया जा रहा है।  
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कृण्वंतो विश्वमार्यंम् का अर्थ है हम समूचे विश्व को आर्य बनाएंगे। हमें पढाए जा रहे विकृत इतिहास के अनुसार आर्य यह जाति है। ऐसा सिखाना ना केवल गलत है अपितु देश के अहित का भी है। वास्तव में आर्य का अर्थ है श्रेष्ठ। प्राचीन और मध्यकालीन पूरे धार्मिक (भारतीय) साहित्य में आर्य शब्द का प्रयोग ' विचार और व्यवहार से श्रेष्ठ ' इसी अर्थ से किया गया मिलेगा। किन्तु भारत में भिन्न भिन्न कारणों से फूट डालने के अंग्रेजी षडयंत्र के अनुसार आर्य को जाति बनाकर प्रस्तुत किया गया। इसे हिन्दुस्तान पर आक्रमण करनेवाली जाति बताया गया। आर्य अनार्य, आर्य-द्रविड ऐसा हिन्दू समाज को तोडने का काफी सफल प्रयास अंग्रेजों ने किया। इसी कारण आज भी, जब यह निर्विवाद रूप से सिध्द हो गया है की आर्य ऐसी कोई जाति नहीं थी, तथापि यही पढ़ाया जा रहा है।  
    
यहाँ एक बात की ओर ध्यान देना महत्वपूर्ण है। आर्य जाति के लोग उत्तर ध्रुव से आये। ये लोग लंबे तगडे, मजबूत और गेहुं रंग के थे। उन्होंने यहाँ के निवासी द्रविडों को दक्षिण में खदेड दिया। ऐसा लिखा इतिहास आज भी अधिकृत माना जाता है। इस प्रमाणहीन सफेद झूठ को सत्य मान लिया गया है। तर्क के लिये मान लीजिये कि आर्य यह जाति थी। तो कृण्वंतो विश्वमार्यम् का अर्थ होगा ठिगने लोगोंं को उंचा बनाना, काले या पीले रंग के लोगोंं को गेहुं रंग के बनाना। इतनी मूर्खतापूर्ण बात और कोई नहीं हो सकती। किन्तु अंग्रेजों की मानसिक गुलामी करनेवाले लोगोंं को आर्य-अनार्य, आर्य-द्रविड, आदिवासी-अन्य ऐसे शब्दों को रूढ कर धार्मिक (भारतीय) समाज में फूट डालने की अंग्रेजों की चाल अब भी समझ में नहीं आ रही। चमडी का रंग, उंचाई यह बातें आनुवंशिक और भाप्रगोलिक कारणों से होतीं है। यह सामान्य ज्ञान की बात है। किन्तु इसे प्रमाणों के आधार पर भी गलत सिध्द करने के उपरांत भी 'साहेब वाक्यं प्रमाणम्' माननेवाले तथाकथित इतिहास विशेषज्ञों की फौज विरोध में खडी हो जाती है।   
 
यहाँ एक बात की ओर ध्यान देना महत्वपूर्ण है। आर्य जाति के लोग उत्तर ध्रुव से आये। ये लोग लंबे तगडे, मजबूत और गेहुं रंग के थे। उन्होंने यहाँ के निवासी द्रविडों को दक्षिण में खदेड दिया। ऐसा लिखा इतिहास आज भी अधिकृत माना जाता है। इस प्रमाणहीन सफेद झूठ को सत्य मान लिया गया है। तर्क के लिये मान लीजिये कि आर्य यह जाति थी। तो कृण्वंतो विश्वमार्यम् का अर्थ होगा ठिगने लोगोंं को उंचा बनाना, काले या पीले रंग के लोगोंं को गेहुं रंग के बनाना। इतनी मूर्खतापूर्ण बात और कोई नहीं हो सकती। किन्तु अंग्रेजों की मानसिक गुलामी करनेवाले लोगोंं को आर्य-अनार्य, आर्य-द्रविड, आदिवासी-अन्य ऐसे शब्दों को रूढ कर धार्मिक (भारतीय) समाज में फूट डालने की अंग्रेजों की चाल अब भी समझ में नहीं आ रही। चमडी का रंग, उंचाई यह बातें आनुवंशिक और भाप्रगोलिक कारणों से होतीं है। यह सामान्य ज्ञान की बात है। किन्तु इसे प्रमाणों के आधार पर भी गलत सिध्द करने के उपरांत भी 'साहेब वाक्यं प्रमाणम्' माननेवाले तथाकथित इतिहास विशेषज्ञों की फौज विरोध में खडी हो जाती है।   
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सरस्वती शोध संस्थान ने आर्यों का मूल भारत ही है यह सप्रमाण सिध्द कर दिया है। फिर भी हमने इतिहास में 'आर्यों का आक्रमण ' सिखाना नहीं छोडा है। मेकॉले शिक्षा का परिणाम कितना गहरा है यही इस से स्थापित होता है।   
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सरस्वती शोध संस्थान ने आर्यों का मूल भारत ही है यह सप्रमाण सिध्द कर दिया है। तथापि हमने इतिहास में 'आर्यों का आक्रमण ' सिखाना नहीं छोडा है। मेकॉले शिक्षा का परिणाम कितना गहरा है यही इस से स्थापित होता है।   
    
केवल तत्वज्ञान श्रेष्ठ होना या सर्वहितकारी होना पर्याप्त नहीं होता। उस तत्वज्ञान के पीछे व्यवहार के आधार पर जब तक शक्ति खडी नहीं की जाती विश्व उस तत्वज्ञान को स्वीकार नहीं करती। सत्यमेव जयते यह अर्धसत्य है। सत्य के पक्ष में जब शक्ति होती है तब ही सत्य की विजय होती है। इतिहास के अनुसार यही पूर्ण सत्य है। अर्थात् केवल कृण्वंतो विश्वमार्यम् कहना पर्याप्त नहीं है। सर्वप्रथम हमें ही विचार और व्यवहार से आर्य बनना होगा। ऐसे सज्जन आर्यों को संगठित करना होगा। दुर्जनों के मन में डर पैदा करनेवाली और सज्जनों को आश्वस्त करनेवाली शक्ति के रूप में खडा होना होगा। तब ही विश्व भी आर्य बनने का प्रयास करेगी।     
 
केवल तत्वज्ञान श्रेष्ठ होना या सर्वहितकारी होना पर्याप्त नहीं होता। उस तत्वज्ञान के पीछे व्यवहार के आधार पर जब तक शक्ति खडी नहीं की जाती विश्व उस तत्वज्ञान को स्वीकार नहीं करती। सत्यमेव जयते यह अर्धसत्य है। सत्य के पक्ष में जब शक्ति होती है तब ही सत्य की विजय होती है। इतिहास के अनुसार यही पूर्ण सत्य है। अर्थात् केवल कृण्वंतो विश्वमार्यम् कहना पर्याप्त नहीं है। सर्वप्रथम हमें ही विचार और व्यवहार से आर्य बनना होगा। ऐसे सज्जन आर्यों को संगठित करना होगा। दुर्जनों के मन में डर पैदा करनेवाली और सज्जनों को आश्वस्त करनेवाली शक्ति के रूप में खडा होना होगा। तब ही विश्व भी आर्य बनने का प्रयास करेगी।     
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वास्तव में मोक्ष या परमात्मपद प्राप्ति या पूर्णत्व की प्राप्ति ही तो मानव जीवन का लक्ष्य है। कारण यह है की केवल परमात्मा ही पूर्ण है। उसी तरह हर जीव भी अपने आप में पूर्ण है। पूर्ण है का अर्थ है पूर्णत्व के लिए आवश्यक सभी बातें उसमें हैं। मनुष्य जीवन का लक्ष्य ही इस तरह से सबसे पहले अपने आप को विकसित कर पूर्णत्व(लघु) प्राप्त करना और आगे इस लघु पूर्ण को विकसित कर उसको एक पूर्ण (परमात्मा) में विलीन कर देना है।  
 
वास्तव में मोक्ष या परमात्मपद प्राप्ति या पूर्णत्व की प्राप्ति ही तो मानव जीवन का लक्ष्य है। कारण यह है की केवल परमात्मा ही पूर्ण है। उसी तरह हर जीव भी अपने आप में पूर्ण है। पूर्ण है का अर्थ है पूर्णत्व के लिए आवश्यक सभी बातें उसमें हैं। मनुष्य जीवन का लक्ष्य ही इस तरह से सबसे पहले अपने आप को विकसित कर पूर्णत्व(लघु) प्राप्त करना और आगे इस लघु पूर्ण को विकसित कर उसको एक पूर्ण (परमात्मा) में विलीन कर देना है।  
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अब पूर्णत्व के कुछ उदाहरण देखेंगे: कुटुंब व्यवस्था, गो आधारित खेती, अंकगणित की आठ मूल क्रियाएं, ० से ९ तक के ऑंकडे,  देवनागरी लिपी।
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अब पूर्णत्व के कुछ उदाहरण देखेंगे: [[Family Structure (कुटुंब व्यवस्था)|कुटुंब व्यवस्था]], गो आधारित खेती, अंकगणित की आठ मूल क्रियाएं, ० से ९ तक के ऑंकडे,  देवनागरी लिपी।
    
==References==
 
==References==
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[[Category:Bhartiya Jeevan Pratiman (भारतीय जीवन प्रतिमान - भाग १)]]
 
[[Category:Bhartiya Jeevan Pratiman (भारतीय जीवन प्रतिमान - भाग १)]]
 
[[Category:Bhartiya Jeevan Pratiman (भारतीय जीवन प्रतिमान)]]
 
[[Category:Bhartiya Jeevan Pratiman (भारतीय जीवन प्रतिमान)]]
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[[Category:Dharmik Jeevan Pratimaan Paathykram]]

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