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# ग्राम के प्रत्येक व्यक्ति की सम्मानपूर्ण आजीविका की व्यवस्था ग्राम में ही होनी चाहिए।  
 
# ग्राम के प्रत्येक व्यक्ति की सम्मानपूर्ण आजीविका की व्यवस्था ग्राम में ही होनी चाहिए।  
 
# ग्राम परस्परावलंबी परिवारों का मर्यादित भूक्षेत्र पर बसा हुआ स्वावलंबी समूह है।  
 
# ग्राम परस्परावलंबी परिवारों का मर्यादित भूक्षेत्र पर बसा हुआ स्वावलंबी समूह है।  
# ग्राम के सभी लोगों की जीवनदृष्टि, जीवनशैली, संगठन और व्यवस्थाओं की मान्यताएँ समान होनी चाहिए।  
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# ग्राम के सभी लोगोंं की जीवनदृष्टि, जीवनशैली, संगठन और व्यवस्थाओं की मान्यताएँ समान होनी चाहिए।  
 
# जहां तक हो सके ग्राम के सभी परस्पर व्यवहार कुटुम्ब के व्यवहारों जैसे ही होने चाहिए। याने –  
 
# जहां तक हो सके ग्राम के सभी परस्पर व्यवहार कुटुम्ब के व्यवहारों जैसे ही होने चाहिए। याने –  
 
#* धन का या पैसे का हस्तांतरण नहीं हो  
 
#* धन का या पैसे का हस्तांतरण नहीं हो  
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== व्यवस्था ==
 
== व्यवस्था ==
# कुटुंब व्यवस्था : पति-पत्नि विवाह कर एकात्म होते हैं। अपने आत्मीयता के व्यवहार से पूरे परिवार को एकात्म बनाते हैं। परिवार में परस्पर व्यवहार के माध्यम से सामाजिकता की नींव बनाते हैं। गृहस्थ बनकर शैशव से लेकर वृध्दावस्थातक के सभी आयु के लोगों को आधार देते हैं। मनुष्य एक जीवन्त इकाई है। मनुष्य के भिन्न भिन्न अवयव होते हैं। हर अवयव की अपनी विशेषता और काम करने की सामर्थ्य होती है। हर अवयव जब अपनी अपनी क्षमता के और उपयुक्तता के अनुसार काम करता है तब ऐसा कहा जाता है की उस मनुष्य का स्वास्थ्य अच्छा है। जब कोई अवयव अपना काम कर नही पाता तब उस मनुष्य को लकवा मार गया है ऐसा कहा जाता है। ऐसा करने में कोई अवयव ऐसा होता है, जिसे उस की क्षमता और उपयुक्तता अधिक होने से बहुत काम करना पडता है। निरंतर करना पडता है। किन्तु इसलिये वह अवयव झगडा नही करता। मनुष्य शरीर की तरह ही परिवार भी एक जीवन्त इकाई होती है। परिवार का भी हर सदस्य अपनी क्षमता के और उपयुक्तता के अनुसार काम करता है। किसी को अधिक काम करना पडता है और किसी को कम। किन्तु इसलिये परिवार के सदस्यों में झगडे नही होते। पाण्डवों को जब वनवास हुवा था तब भीम की आवश्यकता के अनुसार उसे आधा अन्न खिलाया जाता था। आधे में बाकी चार पांडव और माता कुन्ती खाना खाते थे। इस के लिये कोई अन्य सदस्य झगडा नही करता था। इसी प्रकार जब कुन्ती माता या नकुल, सहदेव इन में से कोई चलते चलते थक जाता था तो भीम उसे अपने कंधे पर उठाकर चलता था।     
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# कुटुंब व्यवस्था : पति-पत्नि विवाह कर एकात्म होते हैं। अपने आत्मीयता के व्यवहार से पूरे परिवार को एकात्म बनाते हैं। परिवार में परस्पर व्यवहार के माध्यम से सामाजिकता की नींव बनाते हैं। गृहस्थ बनकर शैशव से लेकर वृध्दावस्थातक के सभी आयु के लोगोंं को आधार देते हैं। मनुष्य एक जीवन्त इकाई है। मनुष्य के भिन्न भिन्न अवयव होते हैं। हर अवयव की अपनी विशेषता और काम करने की सामर्थ्य होती है। हर अवयव जब अपनी अपनी क्षमता के और उपयुक्तता के अनुसार काम करता है तब ऐसा कहा जाता है की उस मनुष्य का स्वास्थ्य अच्छा है। जब कोई अवयव अपना काम कर नही पाता तब उस मनुष्य को लकवा मार गया है ऐसा कहा जाता है। ऐसा करने में कोई अवयव ऐसा होता है, जिसे उस की क्षमता और उपयुक्तता अधिक होने से बहुत काम करना पडता है। निरंतर करना पडता है। किन्तु इसलिये वह अवयव झगडा नही करता। मनुष्य शरीर की तरह ही परिवार भी एक जीवन्त इकाई होती है। परिवार का भी हर सदस्य अपनी क्षमता के और उपयुक्तता के अनुसार काम करता है। किसी को अधिक काम करना पडता है और किसी को कम। किन्तु इसलिये परिवार के सदस्यों में झगडे नही होते। पाण्डवों को जब वनवास हुवा था तब भीम की आवश्यकता के अनुसार उसे आधा अन्न खिलाया जाता था। आधे में बाकी चार पांडव और माता कुन्ती खाना खाते थे। इस के लिये कोई अन्य सदस्य झगडा नही करता था। इसी प्रकार जब कुन्ती माता या नकुल, सहदेव इन में से कोई चलते चलते थक जाता था तो भीम उसे अपने कंधे पर उठाकर चलता था।     
# ग्रामकुल व्यवस्था : गाँव भी एक परिवार ही होता था। व्यक्तियों के एकत्रित रहने से परिवार बनता है। कई परिवारों का मिलाकर एक बडा ग्राम परिवार बनता था। परिवार में परस्पर व्यवहार जिस प्रकार से चलते हैं उसी तरह ग्रामकुल में भी चलते थे। ऐसे ग्राम का स्वरूप ग्रामकुल का सा बनता था। ग्राम, गृह ये शब्द ' गृ ' धातु से बने हैं। ग्राम का भी अर्थ घर से ही है। गृह से ही है। जैसे परिवार यह एक जीवंत लोगों की जीवत ईकाई होती है। उसी प्रकार से ग्राम भी जीवंत परिवारों की जीवंत इकाई होती है। इसीलिये हिन्दुस्तान में ग्राम के लिये देहात (मानव के देहजैसा) या रावलपिंडी (मनुष्य का जैसे पिण्ड होता है उसी तरह) जैसे शब्दों का उपयोग होता है। इसलिये परिवार में जैसे जीवंत परिवार सदस्यों के परस्पर संबंध होते हैं, उसी प्रकार से ग्राम के परिवारों के परस्पर संबंधों का भी स्वरूप पारिवारिक संबंधों जैसा ही होता है।     
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# ग्रामकुल व्यवस्था : गाँव भी एक परिवार ही होता था। व्यक्तियों के एकत्रित रहने से परिवार बनता है। कई परिवारों का मिलाकर एक बडा ग्राम परिवार बनता था। परिवार में परस्पर व्यवहार जिस प्रकार से चलते हैं उसी तरह ग्रामकुल में भी चलते थे। ऐसे ग्राम का स्वरूप ग्रामकुल का सा बनता था। ग्राम, गृह ये शब्द ' गृ ' धातु से बने हैं। ग्राम का भी अर्थ घर से ही है। गृह से ही है। जैसे परिवार यह एक जीवंत लोगोंं की जीवत ईकाई होती है। उसी प्रकार से ग्राम भी जीवंत परिवारों की जीवंत इकाई होती है। इसीलिये हिन्दुस्तान में ग्राम के लिये देहात (मानव के देहजैसा) या रावलपिंडी (मनुष्य का जैसे पिण्ड होता है उसी तरह) जैसे शब्दों का उपयोग होता है। इसलिये परिवार में जैसे जीवंत परिवार सदस्यों के परस्पर संबंध होते हैं, उसी प्रकार से ग्राम के परिवारों के परस्पर संबंधों का भी स्वरूप पारिवारिक संबंधों जैसा ही होता है।     
    
=== परिवार में परस्पर (आर्थिक) संबंधों का और व्यवहारों का स्वरूप अर्थात् पारिवारिक अर्थव्यवस्था का स्वरूप ===
 
=== परिवार में परस्पर (आर्थिक) संबंधों का और व्यवहारों का स्वरूप अर्थात् पारिवारिक अर्थव्यवस्था का स्वरूप ===
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# जिस प्रकार परिवार में परस्पर व्यवहार बिना पैसे के लेनेदेन के चलते हैं, उसी प्रकार ग्राम में भी यथासंभव परस्पर व्यवहार बिना पैसे की लेनेदेन के ही होते थे। किन्तु हर मनुष्य फिर वह बलवान हो चाहे दुर्बल, वह कारीगर हो, कलाकार हो, शिक्षक हो या तत्वज्ञानी उस की आवश्यकताओं की और सम्मान की यथोचित व्यवस्था की जाती थी। जिन बालकों, वृध्दों, विधवाओं और विकलांगों के अपने परिवार नही होते थे उन की आजीविका और सम्मान को भी गाँव की जिम्मेदारी माना जाता था। इस प्रकार से सभी की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये 49 प्रकार के पारिवारिक संस्कार और 2000 प्रकार के व्रत, उत्सव और त्यौहारों की योजना होती थी। हर गाँव में इन की संख्या गाँव की आवश्यकताओं के अनुसार कम-अधिक हुवा करती थी। हर ऐसे कार्यक्रम में सभी कारीगरों, कलाकारों की वस्तुओं के उपयोग को रीति रिवाज में बिठाया गया था। सम्मानपूर्वक यह वस्तुएं उन से ली जाती थीं। बदले में उन्हें पर्याप्त मात्रा में जीवनोपयोगी वस्तुएं दी जाती थीं। इस से उन की आजीविका भी चलती थी और उन्हें सम्मान भी मिलता था। जैसे कर्णवेध का संस्कार करना है तो वह स्वर्णकार के हाथों ही होता था। ब्राह्मण या विद्वान या गाँव का मुखिया भी उसे सम्मान के साथ न्यौता देता था।  
 
# जिस प्रकार परिवार में परस्पर व्यवहार बिना पैसे के लेनेदेन के चलते हैं, उसी प्रकार ग्राम में भी यथासंभव परस्पर व्यवहार बिना पैसे की लेनेदेन के ही होते थे। किन्तु हर मनुष्य फिर वह बलवान हो चाहे दुर्बल, वह कारीगर हो, कलाकार हो, शिक्षक हो या तत्वज्ञानी उस की आवश्यकताओं की और सम्मान की यथोचित व्यवस्था की जाती थी। जिन बालकों, वृध्दों, विधवाओं और विकलांगों के अपने परिवार नही होते थे उन की आजीविका और सम्मान को भी गाँव की जिम्मेदारी माना जाता था। इस प्रकार से सभी की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये 49 प्रकार के पारिवारिक संस्कार और 2000 प्रकार के व्रत, उत्सव और त्यौहारों की योजना होती थी। हर गाँव में इन की संख्या गाँव की आवश्यकताओं के अनुसार कम-अधिक हुवा करती थी। हर ऐसे कार्यक्रम में सभी कारीगरों, कलाकारों की वस्तुओं के उपयोग को रीति रिवाज में बिठाया गया था। सम्मानपूर्वक यह वस्तुएं उन से ली जाती थीं। बदले में उन्हें पर्याप्त मात्रा में जीवनोपयोगी वस्तुएं दी जाती थीं। इस से उन की आजीविका भी चलती थी और उन्हें सम्मान भी मिलता था। जैसे कर्णवेध का संस्कार करना है तो वह स्वर्णकार के हाथों ही होता था। ब्राह्मण या विद्वान या गाँव का मुखिया भी उसे सम्मान के साथ न्यौता देता था।  
 
# गाँव के सभी परिवारों और मनुष्यों की आवश्यकताओं की पूर्ति गाँव में ही हो ऐसा विचार होता था। फिर दुनियाँभर में जो भी कुछ श्रेष्ठ बनता है वह अपने गाँव में बने ऐसा देखा जाता था। हर प्रकार के  तंत्रज्ञानी, कलाकार, और ज्ञानी लोग अपने गाँव में हों इस के लिये हर संभव प्रयास गाँव के लोग करते थे। इस हेतु ऐसे हर मनुष्य को सम्मानपूर्ण आजीविका की निश्ंचितता की आश्वस्ति प्रत्यक्ष व्यवहार से दी जाती थी।     
 
# गाँव के सभी परिवारों और मनुष्यों की आवश्यकताओं की पूर्ति गाँव में ही हो ऐसा विचार होता था। फिर दुनियाँभर में जो भी कुछ श्रेष्ठ बनता है वह अपने गाँव में बने ऐसा देखा जाता था। हर प्रकार के  तंत्रज्ञानी, कलाकार, और ज्ञानी लोग अपने गाँव में हों इस के लिये हर संभव प्रयास गाँव के लोग करते थे। इस हेतु ऐसे हर मनुष्य को सम्मानपूर्ण आजीविका की निश्ंचितता की आश्वस्ति प्रत्यक्ष व्यवहार से दी जाती थी।     
# परिवार की तरह ही गाँव का भी एक मुखिया होता है। वह भी परिवार की तरह ही गाँव के सभी लोगों को सर्वमान्य होता है। सभी के हित की चिन्ता करनेवाला होता है। गाँव के हर परिवार और हर मनुष्य के सम्मान की और आवश्यकताओं की पूर्ति की जिम्मेदारी वह लेता है। गाँव के समझदार लोगों की सहायता से संस्कारों, व्रतों , त्यौहारों और उत्सवों की योजना बनाता है। ऐसी योजना के क्रियान्वयन से गाँव का हर व्यक्ति सुख, समाधान और सुरक्षा अनुभव करता है।  
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# परिवार की तरह ही गाँव का भी एक मुखिया होता है। वह भी परिवार की तरह ही गाँव के सभी लोगोंं को सर्वमान्य होता है। सभी के हित की चिन्ता करनेवाला होता है। गाँव के हर परिवार और हर मनुष्य के सम्मान की और आवश्यकताओं की पूर्ति की जिम्मेदारी वह लेता है। गाँव के समझदार लोगोंं की सहायता से संस्कारों, व्रतों , त्यौहारों और उत्सवों की योजना बनाता है। ऐसी योजना के क्रियान्वयन से गाँव का हर व्यक्ति सुख, समाधान और सुरक्षा अनुभव करता है।  
 
# गाँव में जिन घरों में कोई काम करनेवाला नही रह जाता ऐसे परिवारों के बालक, वृध्द, विधवाएं, रोगी और  विकलांगों जैसे दुर्बल घटकों की जिम्मेदारी गाँव लेता था। जब नयी फसल आती थी, इन दुर्बल घटकों के लिये पहले उस में से अलग हिस्सा निकाला जाता था। बाद में गाँव का हिस्सा, मंदिर का हिस्सा आदि अलग निकाले जाते थे। जुलाहे द्वारा बनाए कपडे में भी इन दुर्बल घटकों का हिस्सा हुवा करता था।  यह गाँव के सभी परिवारों की सहमति से होता था।  
 
# गाँव में जिन घरों में कोई काम करनेवाला नही रह जाता ऐसे परिवारों के बालक, वृध्द, विधवाएं, रोगी और  विकलांगों जैसे दुर्बल घटकों की जिम्मेदारी गाँव लेता था। जब नयी फसल आती थी, इन दुर्बल घटकों के लिये पहले उस में से अलग हिस्सा निकाला जाता था। बाद में गाँव का हिस्सा, मंदिर का हिस्सा आदि अलग निकाले जाते थे। जुलाहे द्वारा बनाए कपडे में भी इन दुर्बल घटकों का हिस्सा हुवा करता था।  यह गाँव के सभी परिवारों की सहमति से होता था।  
# यथासंभव हर आवश्यकता की पूर्ति गाँव में ही हो जाए ऐसा प्रयास होता था। इस कारण बडे बडे तंत्रज्ञान की जानकारी अपने गाँव के किसी ना किसी सदस्य को हो ऐसा देखा जाता था। ऐसे होनहार लोगों को प्रोत्साहन दिया जाता था। गांधीजीके अनुयायी धर्मपालजी द्वारा वर्णित 18वीं सदी के भारत के वर्णन से यह स्पष्ट होता है कि तंत्रज्ञान के मामले में हमारे छोटे छोटे गाँव भी बहुत प्रगत थे। जिस की जैसी क्षमता वैसी उस की जिम्मेदारी तय होती है। कई प्रकार से नमक बनानेवाले लोग आज भी कई गाँवों में पाए जाते हैं। इस तरह गाँव को स्वावलंबी बनाने की तीव्र इच्छा सब रखते थे और वैसा प्रयास भी करते थे।  
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# यथासंभव हर आवश्यकता की पूर्ति गाँव में ही हो जाए ऐसा प्रयास होता था। इस कारण बडे बडे तंत्रज्ञान की जानकारी अपने गाँव के किसी ना किसी सदस्य को हो ऐसा देखा जाता था। ऐसे होनहार लोगोंं को प्रोत्साहन दिया जाता था। गांधीजीके अनुयायी धर्मपालजी द्वारा वर्णित 18वीं सदी के भारत के वर्णन से यह स्पष्ट होता है कि तंत्रज्ञान के मामले में हमारे छोटे छोटे गाँव भी बहुत प्रगत थे। जिस की जैसी क्षमता वैसी उस की जिम्मेदारी तय होती है। कई प्रकार से नमक बनानेवाले लोग आज भी कई गाँवों में पाए जाते हैं। इस तरह गाँव को स्वावलंबी बनाने की तीव्र इच्छा सब रखते थे और वैसा प्रयास भी करते थे।  
 
# गाँव में स्पर्धाएं नही होती थीं। शक्ति के, कला के, कारीगरी के प्रदर्शन होते थे। दुनियाभर के सभी प्रकार के श्रेष्ठ काम, कारीगरी, कला आदि अपने गाँव में हों इस के लिये सब भरसक प्रयास करते थे।  
 
# गाँव में स्पर्धाएं नही होती थीं। शक्ति के, कला के, कारीगरी के प्रदर्शन होते थे। दुनियाभर के सभी प्रकार के श्रेष्ठ काम, कारीगरी, कला आदि अपने गाँव में हों इस के लिये सब भरसक प्रयास करते थे।  
 
# गाँव छोडकर कोई जाता नही था। कोई भी गाँव छोडकर नही जाए ऐसी सब की इच्छा होती थी। वैसा प्रयास भी सब करते थे। फिर भी कोई जाने लगता तो लोग उस की मिन्नतें करते, उसे अपनी ओर से जाने या अनजाने में कुछ तकलीफ हुई होगी उस के लिये क्षमा माँगी जाती। वह गाँव ना छोडकर जाए इसलिये हर संभव प्रयास सब के द्वारा होते थे।   
 
# गाँव छोडकर कोई जाता नही था। कोई भी गाँव छोडकर नही जाए ऐसी सब की इच्छा होती थी। वैसा प्रयास भी सब करते थे। फिर भी कोई जाने लगता तो लोग उस की मिन्नतें करते, उसे अपनी ओर से जाने या अनजाने में कुछ तकलीफ हुई होगी उस के लिये क्षमा माँगी जाती। वह गाँव ना छोडकर जाए इसलिये हर संभव प्रयास सब के द्वारा होते थे।   
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# हर गाँव में विभिन्न जातियों में व्यवसाय बँटे हुए थे। उन को उस व्यवसाय में पीढियों से काम करने के कारण महारत प्राप्त थी। गाँव की हर आवश्यकता की पूर्ति हो ऐसी व्यवस्था की जाती थी। गाँव में किसी विशेष परिस्थिति का सामना करने के लिये किसी व्यक्तिपर, परिवार पर या जाति पर, उस की योग्यता समझकर कोई जिम्मेदारी दी जाती थी तो वह अपनी पूरी क्षमता के साथ उसे पूरा करते थे। ऐसी जिम्मेदारी स्वीकार कर वे गौरव अनुभव करते थे।  
 
# हर गाँव में विभिन्न जातियों में व्यवसाय बँटे हुए थे। उन को उस व्यवसाय में पीढियों से काम करने के कारण महारत प्राप्त थी। गाँव की हर आवश्यकता की पूर्ति हो ऐसी व्यवस्था की जाती थी। गाँव में किसी विशेष परिस्थिति का सामना करने के लिये किसी व्यक्तिपर, परिवार पर या जाति पर, उस की योग्यता समझकर कोई जिम्मेदारी दी जाती थी तो वह अपनी पूरी क्षमता के साथ उसे पूरा करते थे। ऐसी जिम्मेदारी स्वीकार कर वे गौरव अनुभव करते थे।  
 
# पूरे गाँव के हित में ही गाँव के सभी परिवारों का हित होता है। उसी प्रकार गाँव के परिवारों के हित में ही गाँव का हित होता है। किन्तु हमेशा परिवार के हित से प्राथमिकता गाँव के हित को दी जाती थी। इस हेतु परिवार भी अपने अहित की बात स्वीकार कर गाँव के हित के लिये त्याग करने को तैयार रहता था। इस से अन्य परिवारों के सामने भी उदाहरण बनते थे और गाँव के हित में त्याग करने की परंपरा बन जाती थी।  
 
# पूरे गाँव के हित में ही गाँव के सभी परिवारों का हित होता है। उसी प्रकार गाँव के परिवारों के हित में ही गाँव का हित होता है। किन्तु हमेशा परिवार के हित से प्राथमिकता गाँव के हित को दी जाती थी। इस हेतु परिवार भी अपने अहित की बात स्वीकार कर गाँव के हित के लिये त्याग करने को तैयार रहता था। इस से अन्य परिवारों के सामने भी उदाहरण बनते थे और गाँव के हित में त्याग करने की परंपरा बन जाती थी।  
# गाँव के सभी परिवारों का परस्पर व्यवहार आत्मीयता का रहता था। पूरा गाँव जैसे एक परिवार हो ऐसा सभी का व्यवहार होता था। लोगों के घर में मंगलकार्य होते थे। बाहर के गाँवों से अतिथि आते थे। जात, बिरादरी के लोग आते थे। इतने सारे अतिथिों की व्यवस्था उस अकेले घर में संभव नही होती थी। किन्तु चिंता की कोई बात नही थी। पडोसी (गाँववाले) अतिथिों को बाँट लेते थे। अपने घर ले जाते थे। खातिरदारी करते थे। और इसे उपकार के तौरपर नही तो परस्पर प्यार के कारण करते थे। आज भी हिन्दीभाषी प्रदेशों में लोगों को यह कहते सुना जा सकता है की,' इस गाँव में हमारे गाँव की बेटी ब्याही है। मै इस गाँव का पानी नही पी सकता। अब लडकी की ससुराल का पानी पीना ठीक है या गलत यह भिन्न विषय है, किन्तु उस की भावना तो यही होती है की उस के गाँव की बेटी याने उस की अपनी बेटी ही है। अंग्रेजी शिक्षा का प्रभाव जिन गाँवों में अभी कम हुआ है, ऐसे गाँवोें में आज भी यह ग्रामकुल की भावना अनुभव की जा सकती है।  
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# गाँव के सभी परिवारों का परस्पर व्यवहार आत्मीयता का रहता था। पूरा गाँव जैसे एक परिवार हो ऐसा सभी का व्यवहार होता था। लोगोंं के घर में मंगलकार्य होते थे। बाहर के गाँवों से अतिथि आते थे। जात, बिरादरी के लोग आते थे। इतने सारे अतिथिों की व्यवस्था उस अकेले घर में संभव नही होती थी। किन्तु चिंता की कोई बात नही थी। पडोसी (गाँववाले) अतिथिों को बाँट लेते थे। अपने घर ले जाते थे। खातिरदारी करते थे। और इसे उपकार के तौरपर नही तो परस्पर प्यार के कारण करते थे। आज भी हिन्दीभाषी प्रदेशों में लोगोंं को यह कहते सुना जा सकता है की,' इस गाँव में हमारे गाँव की बेटी ब्याही है। मै इस गाँव का पानी नही पी सकता। अब लडकी की ससुराल का पानी पीना ठीक है या गलत यह भिन्न विषय है, किन्तु उस की भावना तो यही होती है की उस के गाँव की बेटी याने उस की अपनी बेटी ही है। अंग्रेजी शिक्षा का प्रभाव जिन गाँवों में अभी कम हुआ है, ऐसे गाँवोें में आज भी यह ग्रामकुल की भावना अनुभव की जा सकती है।  
 
# गाँव में बाजार नहीं होते थे। बाजार तो ग्राम संकुलों में या शहरों में हाट के रूप में होते थे। हाट में से खरीदी हुई वस्तू गाँव में बेचने खरीदने से गाँव की अर्थव्यवस्था में दोष निर्माण हो जाता था। इसलिये हाट में से खरीदी वस्तु गाँव में बाँटने के लिये होती थी बेचने के लिये नहीं। गाँव में जिन वस्तुओं की बहुलता हो उनका व्यापार अन्य गाँवों के साथ या शहरों में या विदेशों में जाकर होता था। दशहरे को लोग व्यापार के लिये बाहर जाते थे। व्यापार में अपने ग्राम के उत्पादन के बदले में  सामान्यत: सोना और चाँदी लिया जाता था। यह सोना और चाँदी भी ग्राम में वापस लौटकर बेचने के लिये नहीं होती थी। इसे बाँटा जाता था। लुटाया जाता था। आज भी यह प्रथा तो शेष है। लेकिन सोने के स्थान पर आपटे के या शमी के पत्ते 'सोना' मानकर बाँटे जाते हैं।  
 
# गाँव में बाजार नहीं होते थे। बाजार तो ग्राम संकुलों में या शहरों में हाट के रूप में होते थे। हाट में से खरीदी हुई वस्तू गाँव में बेचने खरीदने से गाँव की अर्थव्यवस्था में दोष निर्माण हो जाता था। इसलिये हाट में से खरीदी वस्तु गाँव में बाँटने के लिये होती थी बेचने के लिये नहीं। गाँव में जिन वस्तुओं की बहुलता हो उनका व्यापार अन्य गाँवों के साथ या शहरों में या विदेशों में जाकर होता था। दशहरे को लोग व्यापार के लिये बाहर जाते थे। व्यापार में अपने ग्राम के उत्पादन के बदले में  सामान्यत: सोना और चाँदी लिया जाता था। यह सोना और चाँदी भी ग्राम में वापस लौटकर बेचने के लिये नहीं होती थी। इसे बाँटा जाता था। लुटाया जाता था। आज भी यह प्रथा तो शेष है। लेकिन सोने के स्थान पर आपटे के या शमी के पत्ते 'सोना' मानकर बाँटे जाते हैं।  
    
== स्वावलंबी ग्राम योजना ==
 
== स्वावलंबी ग्राम योजना ==
 
कौटुम्बिक उद्योग के प्रयोग स्वावलंबी ग्राम के साथ ही करने होंगे। ऐसा करने से सफलता की संभावनाएं बढेंगी।   
 
कौटुम्बिक उद्योग के प्रयोग स्वावलंबी ग्राम के साथ ही करने होंगे। ऐसा करने से सफलता की संभावनाएं बढेंगी।   
# ग्राम से प्रारम्भ / ग्राम में निवास की मानसिकता : ग्राम को आधार बनाकर प्रयोग करना होगा। शहर में इसका प्रयोग वर्तमान में संभव नहीं है। ग्राम का चयन ग्राम के लोगों की मानसिकता के आधार पर करना होगा। ग्राम के लोगों की पहल, समझ और सहयोग इसमें बहुत ही महत्वपूर्ण बातें हैं।   
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# ग्राम से प्रारम्भ / ग्राम में निवास की मानसिकता : ग्राम को आधार बनाकर प्रयोग करना होगा। शहर में इसका प्रयोग वर्तमान में संभव नहीं है। ग्राम का चयन ग्राम के लोगोंं की मानसिकता के आधार पर करना होगा। ग्राम के लोगोंं की पहल, समझ और सहयोग इसमें बहुत ही महत्वपूर्ण बातें हैं।   
# ग्राम के लोगों की मानसिकता / निश्चय, कुटुंब भावना, सर्वसहमति से नेतृत्व निश्चिती : ग्राम के लोगों में सहज कुटुंब भावना होना आवश्यक है। इस दृष्टि से एक ही जाति के लोगों के ग्राम का चयन शायद उपयुक्त साबित हो सकता है। एक ही जाति के होने से उनमें भाईचारे की भावना अधिक होने की संभावनाएं हो सकती हैं।  
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# ग्राम के लोगोंं की मानसिकता / निश्चय, कुटुंब भावना, सर्वसहमति से नेतृत्व निश्चिती : ग्राम के लोगोंं में सहज कुटुंब भावना होना आवश्यक है। इस दृष्टि से एक ही जाति के लोगोंं के ग्राम का चयन शायद उपयुक्त साबित हो सकता है। एक ही जाति के होने से उनमें भाईचारे की भावना अधिक होने की संभावनाएं हो सकती हैं।  
# स्वावलंबी ग्राम के निर्माण का संकल्प। ग्राम के लोग यह संकल्प करें कि ग्राम को स्वावलंबी बनाना है। इसके लिए ग्राम से युवक, धन और पानी ग्राम से बाहर न जाने की व्यवस्था करनी होगी। यह जोर जबरदस्ती से नहीं किया जा सकता। सहभागियों को प्रेम, सम्मान और सुखपूर्ण आजीविका की आश्वस्ति मिलनी चाहिए। ग्राम का विद्यालय इसमें बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। अगली पीढी के लोगों में संकल्प और श्रेष्ठ परम्परा का संक्रमण विद्यालय के माध्यम से किया जा सकेगा। इसी प्रकार से नए जन्म लेनेवाले बच्चों के जन्म से पूर्व से ही श्रेष्ठ जीवात्मा को आवाहन करना होगा। प्रयोग को सफल बनाने की क्षमतावाले ऐसे जीवात्माको गर्भ में धारण करने की मानसिकता युवा दम्पत्ती में रहे।  
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# स्वावलंबी ग्राम के निर्माण का संकल्प। ग्राम के लोग यह संकल्प करें कि ग्राम को स्वावलंबी बनाना है। इसके लिए ग्राम से युवक, धन और पानी ग्राम से बाहर न जाने की व्यवस्था करनी होगी। यह जोर जबरदस्ती से नहीं किया जा सकता। सहभागियों को प्रेम, सम्मान और सुखपूर्ण आजीविका की आश्वस्ति मिलनी चाहिए। ग्राम का विद्यालय इसमें बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। अगली पीढी के लोगोंं में संकल्प और श्रेष्ठ परम्परा का संक्रमण विद्यालय के माध्यम से किया जा सकेगा। इसी प्रकार से नए जन्म लेनेवाले बच्चों के जन्म से पूर्व से ही श्रेष्ठ जीवात्मा को आवाहन करना होगा। प्रयोग को सफल बनाने की क्षमतावाले ऐसे जीवात्माको गर्भ में धारण करने की मानसिकता युवा दम्पत्ती में रहे।  
 
# संसाधनों की उपलब्धता के आधारपर ग्राम की आवश्यकताओं की सूची और उत्पादनों की आपूर्ति की योजना करना। ग्राम को स्वावलंबी बनाने में स्थानिक संसाधनों की अच्छी जानकारी आवश्यक है। उपलब्ध संसाधनों में से ही भिन्न प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आवश्यक कल्पनाशीलता भी लगेगी। जिन आवश्यक उत्पादनों के लिए सस्न्साधन उपलब्ध नहीं हैं ऐसे सभी आवश्यक उत्पादनों के निर्माण के लिए वैकल्पिक संसाधनों के माध्यम से वस्तुओं के निर्माण की योजना बनानी होगी। पस्परावलंबन की दृष्टि से आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उत्पादनों का चयन और वितरण, विभाजन करना। आवश्यकताओं की पूर्ति और उपलब्ध कुशलताओं का तालमेल बिठाना होगा। ग्राम के लिए किसी आवश्यक वस्तू की कमी न रहे इस लिए उत्पादन की जिम्मेदारी का वितरण भी ठीक से करना होगा। एकबार यह संतुलन ठीक से बैठ जाने से आनुवांशिकता से उस की पूर्ति नित्य होने की व्यवस्था बन जाएगी।     
 
# संसाधनों की उपलब्धता के आधारपर ग्राम की आवश्यकताओं की सूची और उत्पादनों की आपूर्ति की योजना करना। ग्राम को स्वावलंबी बनाने में स्थानिक संसाधनों की अच्छी जानकारी आवश्यक है। उपलब्ध संसाधनों में से ही भिन्न प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आवश्यक कल्पनाशीलता भी लगेगी। जिन आवश्यक उत्पादनों के लिए सस्न्साधन उपलब्ध नहीं हैं ऐसे सभी आवश्यक उत्पादनों के निर्माण के लिए वैकल्पिक संसाधनों के माध्यम से वस्तुओं के निर्माण की योजना बनानी होगी। पस्परावलंबन की दृष्टि से आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उत्पादनों का चयन और वितरण, विभाजन करना। आवश्यकताओं की पूर्ति और उपलब्ध कुशलताओं का तालमेल बिठाना होगा। ग्राम के लिए किसी आवश्यक वस्तू की कमी न रहे इस लिए उत्पादन की जिम्मेदारी का वितरण भी ठीक से करना होगा। एकबार यह संतुलन ठीक से बैठ जाने से आनुवांशिकता से उस की पूर्ति नित्य होने की व्यवस्था बन जाएगी।     
 
# ग्राम की वितरण व्यवस्था : ग्राम की वितरण व्यवस्था बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। यह वितरण विवेकपूर्ण होना चाहिए। ग्राम के प्रत्येक व्यक्ति की सम्मानपूर्ण आजीविका की व्यवस्था होनी चाहिए।  
 
# ग्राम की वितरण व्यवस्था : ग्राम की वितरण व्यवस्था बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। यह वितरण विवेकपूर्ण होना चाहिए। ग्राम के प्रत्येक व्यक्ति की सम्मानपूर्ण आजीविका की व्यवस्था होनी चाहिए।  

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