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इसके अतिरिक्त अपनी सामर्थ्य के अनुसार भोज्य, भज्य पेय, घोल, चारों प्रकार के व्यंजन एवं पुष्प फलादि भी लक्ष्मीजी को भेंट करने चाहियें। तदनन्तर दीपदान का विधान है। दीपदान के समय कुछ दीपकों को अपने प्रियजनों के अनिष्ट की निवृत्ति के लिए मस्तष्क के चारों ओर से घुमाकर किसी चौराहे या श्मशान भूमि में रखवा देना चाहिये। नदी, तालाब, कुएं, चौराहे आदि सार्वजनिक स्थानों पर दीपदान करना चाहिये तथा ब्राह्मणों को दक्षिणा एवं भोजन वस्त्रादि से सत्कृत करना चाहिये।
 
इसके अतिरिक्त अपनी सामर्थ्य के अनुसार भोज्य, भज्य पेय, घोल, चारों प्रकार के व्यंजन एवं पुष्प फलादि भी लक्ष्मीजी को भेंट करने चाहियें। तदनन्तर दीपदान का विधान है। दीपदान के समय कुछ दीपकों को अपने प्रियजनों के अनिष्ट की निवृत्ति के लिए मस्तष्क के चारों ओर से घुमाकर किसी चौराहे या श्मशान भूमि में रखवा देना चाहिये। नदी, तालाब, कुएं, चौराहे आदि सार्वजनिक स्थानों पर दीपदान करना चाहिये तथा ब्राह्मणों को दक्षिणा एवं भोजन वस्त्रादि से सत्कृत करना चाहिये।
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=== गोवर्धन पूजा (अन्न कूटोत्सव) ===
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कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को अन्नकूट उत्सव मनाया जाता है। इसी दिन बालि पूजा, गोवर्धन पूजा इत्यादि होते हैं। इस दिन गोबर का अन्नकूट  बनाकर या उसके निकट विराजमान श्री कृष्ण के समान गाय और बगवाल बालों की पूजा होती है। इस दिन मन्दिरों में अनेक प्रकार की खादा सामग्रियों का भगवान को भोग लगाया जाता है |
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==== गोवर्धन व अन्नकूट की कथा-. ====
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एक दिन भगवान श्रीकृष्ण ने नन्द बाबा  से कहा, हमारे गांव में ये तरह तरह के पकवान क्यों बनाये जा रहे हैं। इनका क्या महत्त्व है? नन्द बाबा बोले- हे कृष्णा काल इन्द्र की पूजा होगी। इन्द्र रोप वर्षा कर हमें अन्न देते है। गायों के लिए चारा देते हैं। तब भगवान कृष्ण कहने लो, बाबा हमारे गांव में गोवर्धन पर्वत साक्षात देवता हैं उनकी पूजा करो। ये हमारी पूजा स्वीकार करेंगे और प्रकट होकर स्वयं भोजन करेंगे। इन्द्र कुछ भी नहीं है उसकी आप व्यर्थ में ही पूजा करते हैं। कृष्ण की बात मानकर सभी गोप गोपिकायें गोवर्धन को पूजने के लिए गये। तब भगवान श्रीकृष्ण अपना चतुर्भुज रूप धरकर स्वयं गोवरधन पर्वत पर बैठ गये। गोपने गोपियों के भोग को खाने लगे। तभी से गोबरधन पर्वत का महत्व बढ़ गया। इन्द्र के स्थान पर सभी गोवरधन की ही पूजा करने लगे।
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=== भैया दूज टीका ===
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भैया दूज टीका को कार्तिक शुक्ल पक्ष द्वितीया को मनाया जाता है। यह भाई-बहन के प्रेम का प्रतीक है। इस दिन भाई बहन को साथ साथ यमुना स्नान करना, तिलक लगवाना, भाई को बहिन के घर भोजन करना अति फलदायी होता इस दिन बहन भाई की पूजा करके उसको दीर्घायु और अपने सुहाग की हाथ जोड़कर यमराज से प्रार्थना करती है। इस दिन सूर्य तनया जमुनाजी ने अपने भाई यमराज को भोजन कराया था। इसलिए इसे यम द्वितीया भी कहते हैं। इस दिन श्रद्धा अनुसार भाई स्वर्ण वस्त्र, मुद्रा आदि बहन को दे। भैया दूज की कहानी-सूर्य देव की पत्नी का नाम संज्ञा देवी था। उसके एक पुत्र तथा एक पुत्री थी। लड़के का नाम यमराज और लड़की का नाम यमुना था। अपने पति सूर्य नारायण की तेज गर्मी के कारण संज्ञा उत्तरी ध्रुव में छाया बनकर रहने लगी। उस लाया से ताप्ती नदी और शनिश्चर का जन्म हुआ। उसके पश्चात संज्ञा से ही अश्विनी कुमार हुए जो आगे चलकर देवताओं के वैद्य बने। जी संज्ञा छाया बनकर उत्तरी धूप में रहती थी वह यमराज च यमुना के साथ सौतेली माँ सा व्यवहार करने लगी | अपनी मां के व्यवहार को देखकर यमराज ने संयमनीपुरी छोड़कर यमलोक बसाया और पापियों को देने का कार्य शुरू कर दिया। यमुना अपने भाई यमराज के जाते ही गौलोक मे चली गयी, और कृष्ण अवतार से पहले मथुरा में विश्राम घाट पर आकर रहने लगी |
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जब बहुत दिन बीत गये, तब यमराज को अपनी बहन यमुना की याद आयी। यमराज  ने अपनी बहन को ढूँढने के लिए अपने दूत भेजे। यमदूत ढूँढते ढूँढते  मथुरा आ पहुंचे परन्तु उन्हें यमुना नहीं मिली। तब यमदूत डरते डरते यमपुरी पहुंचे और यमुना का ना मिलने का समाचार कह सुनाया। फिर यमराज अपनी यमपुरी से स्वयं गोलोक आये और यमुनाजी को ढूँढते ढूँढते  यमुनाजी के विश्राम घाट पर पहुंचे। वहां जब यमुना ने सुना कि मेरे भाई आये हैं तो वह बाहर आई और भाई को सत्कार सहित अपने महल में ले गयी और उन्हें भोजन आदि कराया। इससे प्रसन्न होकर यमराज ने यमुना से कहा-बहन। जो चाहो वर मांग लो। तब यमुना बोली, मुझे कुछ नहीं चाहिए। तब यमराज ने कहा, नहीं बहन आज तो तुम्हें कुछ ना कुछ मांगना हो होगा।
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तब यमुना बोली-भैया! जो नर-नारी मेरे जल में स्नान करें वे यमपुरी ना जायें। यह सुनकर यमराज सोचने लगे, यदि ऐसा हो गया तो यमपुरी उजड़ जायेगी। भाई को विचार मग्न देखकर यमुना जोली, अगर तुम ऐसा नहीं कर सकते तो सुनो जो भाई आज के दिन बहन के यहा भोजन करे और बहन के साथ इसी घाट पर विश्राम कर मेरे जल में स्नान करे वह यमलोक को नहीं जायेगा। इस दिन पर यमराज यमुना से बोले-यह बात मुझे स्वीकार है। इस दिन जो भाई बहन के घर भोजन कर तुम्हारे घाट पर विश्राम कर तुम्हारे जल में स्नान नहीं करेंगे उन्हें मैं बांधकर यमपुरी ले जाऊंगा और जो भाई-बहन तुम्हारे पवित्र जल में स्नान करेंगे उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति होगी।
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=== सूर्य छठ ===
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यह छठ कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी को आती है। इस दिन व्रत रखकर सूर्य नारायण की पूजा करनी चाहिए। सर्वप्रथम सूर्यदेव को अर्घ्य दें, फूल चढ़ायें, फिर आरती उतारकर साष्टांग प्रणाम करें। सूर्य भगवान की पूजा करने से धन और सन्तान को प्राप्ति होती है और संतान के कष्ट दूर हो जाते हैं। आंखों की बीमारी दूर हो जाती है। अर्घ्य देते समय सूर्य की किरणों को जल में अवश्य देखें। सूर्य छठ की कथा-बहुत समय पहले की बात है कि बिन्दुसार तीर्थ में एक महीपाल नाम का वैश्य रहता था। वह धर्म का कट्टर विरोधी था। देवताओं की पूजा कभी नहीं करता था। एक दिन उसने सूर्य भगवान को गाली देते हुए उनकी प्रतिमा के समक्ष मल-मूत्र त्याग दिया। इसको देखकर सूर्यदेव क्रोधित हो बोले-"हे दुष्ट! तू अभी अन्धा हो जा।" इतने कहते ही वह महीपाल नामक वैश्य अन्धा हो गया। अन्धा होने के कारण वह वैश्य दुःखी रहने लगा।
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एक दिन उसने सोचा, इससे तो अच्छा है भगवान मेरे प्राण ही ले लें। इतना सोचकर वह गंगाजी में प्राण त्यागने के लिए चल पड़ा। जब वह रास्ते में जा रहा तभी उसे नारदजी मिले और कहने लगे-लालाजी, इतनी जल्दी कहां जा रहे है? तब वह वैश्य बोला-महाराज! मैं अन्धा हूं अत: इस कष्ट से दुःखी होकर गंगा में गिरकर प्राण त्यागने जा रहा हूं। तब नारदजी बोले, अरे मूर्ख! तुझे यह कष्ट सूर्य भगवान के क्रोध के फलस्वरूप प्राप्त हुआ है, इसलिए तू कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्टमी को व्रत रखकर सूर्य भगवान की पूजा करना। तब सूर्य भगवान तुझे क्षमा करके तेरे नेत्रों को पुन: ठीक कर देंगे। महीपाल ने ऐसा ही किया और उसकी आंखें उसे पुनः प्राप्त हो गयौं।
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=== आंवला नवमी या युगादि नवमी ===
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यह कार्तिक शुक्ल पक्ष की नवमी को आती है। कहते हैं इस दिन से सतयुग प्रारम्भ हुआ था। इसलिए यह एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण तिथि है। इस दिन आंवले के वृक्ष की पूजा होती है। हजारों नर-नारियां आंवलों की पूजा करते हैं और ब्राह्मणों को आंवले के वृक्ष के नीचे भोजन कराकर उन्हें दान-दक्षिणा देते हैं। उन्हें इस दिन आंवला भी दान देना चाहिए।
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==== आंवला या युगादि नवमी की कथा- ====
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काशी नगरी में एक वैश्य रहता था। वह बात धमात्मा और दानी था, परन्तु उसके कोई सन्तान न थी। एक दिन उस वैश्य की स्त्री से एक औरत ने कहा-"तू किसी बच्चे की बलि भैरव पर चढ़ा दे तो तेरे सन्तान हो जायेगी। यह बात उस स्त्री ने अपने पति से कही। पति बोला, यह ठीक नहीं है, यदि किसी के बच्चे को मारकर मुझे भगवान भी मिलें तब भी मुझे स्वीकार नहीं है-बच्चे को प्राप्त करने की बात तो बहुत दूर है। पति की बात सुनकर वह चुप रही, परन्तु वह अपनी सहेली की बात नहीं भूली।
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बात को सोचते-सोचते एक दिन उस वैश्य की स्त्री ने एक लड़की को भैरो बाबा के नाम पर कुएं में डाल दिया। लड़की की मृत्यु हो गयी, परन्तु उसके सन्तान नहीं हुई। सन्तान के बदले उसके शरीर से पाप फूट-फूट कर निकलने लगा। उसको कोढ़ हो गया। लड़की की मृत्यु उसकी आंखों के सामने नाचने लगी। वैश्य ने जब अपनी स्त्री से उसकी हालत का कारण पूछा तो उसने उस लड़की के विषय में बता दिया। तब वैश्य बोला, यह तुमने अच्छा नहीं किया क्योंकि ब्राह्मणवघ, गौवध और बालवध के अपराध से कोई मुक्त नहीं होता। अत: तुम गंगा के किनारे रहो और नित्यप्रति गंगा स्नान करो। इस बात को सुनकर वैश्य की पत्नी ने ऐसा ही किया एक दिन गंगाजी उस वैश्य पत्नी के पास एक बूढ़ी स्त्री का रूप धारण करके आई और कहने लगी, हे, बेटी! तू मथुरा में जाकर कार्तिक शुक्ल पक्ष की नवमी को व्रत रखना और आंवला की पूजा करकमथुरा की परिक्रमा करना। यह व्रत तीन वर्ष में तीन बार करना इससे तेरा मंगल होगा। इतना कहकर गंगाजी अन्तर्ध्यान हो गई। इस वैश्य की पत्नी ने यह बात अपने पति से कही, पति की आज्ञा ले उसने ऐसा ही किया, मथुरा में जाकर व्रत रखा आंवले की पूजा और मथुराजी की पांच कोस की परिक्रमा की। उसने यह व्रत तीन वर्ष तक लगातार किया। इस व्रत के प्रभाव से उस वैश्य-पत्नी का कोढ़ ठीक हो गया और एक पुत्र भी उत्पन्न हुआ, जो अत्यधिक सुन्दर सुशील एवं गुणवान था।
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=== ग्रीष्म पंचक ===
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यह व्रत कार्तिक शुक्ल एकादशी से प्रारम्भ होकर पूर्णिमा को समाप्त होता है। इसे पंचभीका भी कहते हैं। कार्तिक स्नान करने वाले स्त्री-पुरुष पांच दिन का निराहार (निर्जल) व्रत करते हैं। धर्म, काम और मोक्ष की प्राप्ति के लिए यह व्रत किया जाता है। कहानी सुनकर गीत गाये जाते हैं।
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=== बैकुण्ठ चतुर्दशी व्रत ===
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यह व्रत कार्तिक शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को होता है। इस दिन व्रत रखकर बैकुण्ठ विधरी की पूजा करनी चाहिए | चतुर्दशी के दिन व्रत रखने वाले पहले स्वयं स्नान करके फिर भगवान को स्नान कराकर भोग लगायें। भोग के उपरान्त आचमन लगाकर फूल, दीप, चन्दन आदि से आरती उतारकर भोग को बांट दें। इसके बाद ब्राह्मणों को भोजन करायें तथा उन्हें दक्षिणा देकर विदा करें। रात्रि में मूर्ति के सम्मुख हो सोयें। दिन भर कीर्तन करें। इस व्रत को करने से बैकुण्ठ धाम की प्राप्ति होती है। मनुष्य सभी बन्धनों से मुक्त हो जाता है। बैकुण्ठ चतुर्दशी की कथा-एक समय की बात है भगवान बैकुण्ठ में बैठे हुए थे। तभी उनके पास नारद मुनि आये। नारदजी को देखकर भगवान ने उनके आने का कारण पूछा। नारदजी बोले-आपने अपना नाम कृपानिधान रखा है, परन्तुआपके लोक में तो आपके भक्तजन ही आ पाते हैं। फिर आपकी उनके ऊपर कृपा क्या हुई? वे तो अपने जप-तप के प्रभाव से आपके धाम में आ ही जाते हैं। भगवान बोले, नारदजी मैं आपकी बात समझ नहीं पाया।
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नारदजी बोले-क्या आपने ऐसा सुलभ मार्ग बनाया है जिससे कम सेवा करने वाला भी आपकी शरण में आ सके? तब भगवान बोले-“हे नारदजी! यदि आप ऐसा कहते हैं तो सुनो, कार्तिक शुक्ल पक्ष की चौदस के दिन जो भी मनुष्य मेरी सच्चे मन से पूजा करेगा और स्वर्ग द्वार जो देव मन्दिरों में बने हुए हैं, उनमें मेरी सवारी के साथ प्रवेश करेगा। वह बैकुण्ठ को प्राप्त होगा। तभी भगवान ने जया और विजय को बुलाकर कहा-देखो, कार्तिक शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को स्वर्ग का दरवाजा खुला रहना चाहिये। इस दिन जो व्यक्ति नाम मात्र को भी मेरी पूजा करे, उसे स्वर्ग में स्थान दे। इस बात को सुनकर नारदजी कहने लगे-हे कृपानिधान! अब आप दीनानाथ कहलाने के अधिकारी हैं। यह कहकर नारदजी हरि गुण गाते वीणा बजाते चले गये।
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=== कार्तिक पूर्णिमा ===
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कार्तिक स्नान का बड़ा महत्त्व है। इस महीने में ब्रह्म मुहूर्त में स्नान किया जाता है। कार्तिक स्नान शरद पूर्णिमा से ही आरम्भ हो जाते हैं और कार्तिक पूर्णिमा तक महीने भर स्नान होते हैं। बड़ी सुबल स्त्रियां तथा लड़कियां नहरों, तालाबों, कुओं तथा नदियों जहां जैसी सुविधा है स्नान करने जाती हैं। स्नान के उपरान्त पूजा-पाठ करती हैं और कहानी सुनती हैं। हर रविवार को व्रत रखा जाता है और राई-दामोदर की पूजा की जाती है। कार्तिक के इस अन्तिम दिन स्नान के उपरान्त ब्राह्मणों को भोजन कराते हैं। हवन कर भगवान की पूजा कर दीपक जलायें। यदि श्रद्धा हो तो भगवान का छप्पन प्रकार का भोग लगायें। यह कार्तिक मास समस्त मनोरथ को पूर्ण करने वाला बहुत फलदायक है।
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=== देवोत्थानी (हरि प्रबोधिनी) एकादशी ===
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आषाढ़ शुक्ल पक्ष एकादशी को जो देव सोते हैं वे इस कार्तिक शुक्ल एकादशी को उठ जाया करते हैं। इस व्रत के दिन स्त्रियां स्नानादि से निवृत होकर आंगन में चौक पूरकर विष्णु भगवान के चरणों को कलात्मक रूप से आंगन में अंकित करती हैं। दिन की तेज धूप में विष्णु के चरणों को ढांप दिया जाता है। प्रात: उन्हें जगाने से पूर्व रात्रि को विधिवत् पूजन किया जाता है। इस दिन गीत , भजनों द्वारा देवों को उठाया जाता है। कई राज्यों में इस दिन नगर, गांव के लड़के साखी गाते हुए अन्न, रुपया-पैसा इकट्ठा करते हैं और जयकारा लगाते हुए मिठाइयां खाते हैं। पूजन के बाद व्रत की कथा सुनी जाती है।
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=== तारा भोजन ===
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कार्तिक लगते ही पूर्णिमा से लेकर एक माह तक नित्य प्रति व्रत करें। प्रतिदिन रात्रि में तारों को अर्घ्य देकर फिर स्वयं भोजन करें। व्रत के आखिरी दिन उजमन करें। उजमन में पांच सीदे और पांच सुराई ब्राह्मणों को दें। साड़ी, ब्लाउज और रुपये रखकर अपनी सासु मां को पैर छू कर दें।
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=== छोटी सांकली ===
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छोटो सांकलौ कार्तिक लगते ही पूर्णिमा से करें। उस दिन बिल्कुल न खायें। फिर दो दिन भोजन करें। इसके पश्चात् फिर एक दिन भोजन न करें। इसके बीच में रविवार या एकादशी पड़ जाये तो दो दिन तक बिल्कुल भोजन न करें। इस प्रकार एक माह तक यह क्रम चलता रहे। व्रत पूरे होने पर हवन तथा उजमन करें। तैंतीस ब्राह्मणों को भोजन करायें-और एक ब्राह्मण जोड़े को (पति-पत्नी) को भोजन करायें। फिर साड़ी और रुपये अपनी सासु मां को पैर छूकर दें।
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=== बड़ी सांकली ===
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बड़ी सांकली पूर्णभासी से करें। इसमें एक दिन भोजन बिल्कुल न करें। फिर दूसरे दिन भोजन करें। फिर तीसरे दिन भोजन न करें। एकोदशी या रविवार बीच में पड़ जाने पर दो दिन तक भोजन न करें। इस प्रकार एक माह तक क्रम चलता रहे। उजमन आदि छोटी सांकली की तरह ही करें।
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=== चन्द्रायण व्रत ===
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यह व्रत कार्तिक लगते ही पूर्णमासी से लेकर कार्तिक उतरते पूर्णमासी तक करें। प्रतिदिन गंगा या यमुना में स्नान कर भगवान विष्णु और तुलसीजी की पूजा करें। अपने घर में किसी स्थान पर एक घी का अखण्ड दीपक पूरे माह तक जलायें। दीपक के पास ही नदी की मिट्टी में जौ या गेहूं उगा दें। एक तुलसीनी तथा भगवान की मूर्ति रखकर नित्य उन सबकी पूजा करें और व्रत रखें। व्रत के पहले दिन शाम को एक गिलास दूध या रस या एक छटांक पिसे हुए बादाम खा लें। दूसरे दिन इसको दुगनी मात्रा, तीसरे दिन तिगुनी, चौथे दिन चौगुनी मात्रा लें। इस प्रकार पन्द्रहवें दिन पन्द्रहगुनी मात्रा भोजन में लें। सोलहवें दिन फिर एक-एक मात्रा घटाते जायें, सोलहवें दिन चौदहगुनी, सत्रहवें दिन तेरहगुनी इस प्रकार महीने के आखिरी दिन फिर वही मात्रा रह जायेगी, जो मात्रा व्रत के पहले दिन थी। व्रत के आखिरी दिन पूजा करने के बाद 36 ब्राह्मणियों को भोजन कराकर सुहाग पिटारी देकर विदा करें और साड़ी पर रुपये रखकर अपनी सासु मां को पैर छूकर दें।
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=== तीरायत व्रत ===
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कार्तिक उतरते ही नवमी-दशमी, एकादशी-इन तीनों दिन व्रत रखें। द्वादशी के दिन 3 ब्राह्मण और तीन ब्राह्मणियों को भोजन कराकर स्वयं भोजन करें।
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