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==== व्रत की कथा- ====
 
==== व्रत की कथा- ====
भद्र देश के राजा अश्वपति के यहां पुत्री के रूप में सर्वगुण सम्पन्न सावित्री का जन्म हुआ। राजकन्या ने धुमत्सेन के पुत्र सत्यवान की सुनकर उसे अपने पति रूप में वरण कर लिया। इधर जब यह बात देवऋषि नारदजी को पता चली तो वे अश्वपति से जाकर कहने लगे-आपकी कन्या ने वर खोजने में निःसन्देह भूल की है। नि:संदेह सत्यावान गुणवान और धर्मात्मा है किन्तु वह अल्पायु है। एक वर्ष के पश्चात् ही उसकी मृत्यु हो जायेगी। नारदजी की यह बात सुनकर राजा अश्वपति का चेहरा विर्वज हो गया।
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भद्र देश के राजा अश्वपति के यहां पुत्री के रूप में सर्वगुण सम्पन्न सावित्री का जन्म हुआ। राजकन्या ने धुमत्सेन के पुत्र सत्यवान की सुनकर उसे अपने पति रूप में वरण कर लिया। इधर जब यह बात देवऋषि नारदजी को पता चली तो वे अश्वपति से जाकर कहने लगे-आपकी कन्या ने वर खोजने में निःसन्देह भूल की है। नि:संदेह सत्यावान गुणवान और धर्मात्मा है किन्तु वह अल्पायु है। एक वर्ष के पश्चात् ही उसकी मृत्यु हो जायेगी। नारदजी की यह बात सुनकर राजा अश्वपति का चेहरा विर्वज हो गया।  
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"वृक्षा न होहि देव ऋषि बानी " ऐसा विचार करके उन्होने अपनी पुत्री को समझाया कि ऐसे अल्पायु व्यक्ति के साथ विवाह करना उचित नहीं है। इसलिए कोई अन्य वर चुन लो। इस पर सावित्री बोली "पिताजी। आर्य कन्याये अपना वर ही वरण करती है। राजा एक बार आता देता है, पडित एक बार ही प्रतिज्ञा करते हैं। कन्यादान भी एक ही बार किया जाता है। अन चाहे जो हो सत्यवान को ही अपने पति के रूप में स्वीकार करूगी।" सावित्री ने सत्यवान के मृत्यु का समय मालूम कर लिया था। अन्ततः उन दोनों का विवाह हो गया। वह ससुराल पहुंचते ही सास ससुर की सेवा में दिन रात रहने लगी। समय बदला साविता के ससुर का जल क्षीण होता देखकर शत्रुओं ने राज्य छीन लिया। नारद का वचन साविती को दिन प्रतिदिन अधौर करता रहा। जब उसो जाना कि पति की मृत्यु का समय नजदीक आ गया है तो उसने तीन दिन पूर्व ही उपवास करना शुरू कर दिया। नारद द्वारा कथित तिथि पर पितरों का पूजन किया। नित्य ही सत्यवान लकड़ी काटने जंगल जाया करता था। उस दिन भी सत्यवान लकड़ी काटने जंगल जा रहा था तो सावित्री भी सास ससुर की माला से सत्यवान के साथ चलने को तैयार हो गयी। सत्यवान वन में पहुंचकर लकड़ी काटने वृया पर चढ़ गया। वृक्ष पर चढ़ते ही सत्यवान के सिर में असहनीय पीड़ा होने लगी। वह व्याकुल हो गया और से नीचे उतर गया।
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सावित्री अपना भविष्य समझ गयी और अपनी जांघ पर सत्यवान को लिटा लिया। उसी समय उसने दक्षिण दिशा से अत्यन्त प्रभावशाली महिषारूढ़ यमराज को आते देखा। धर्मराज सत्यवान के जीवन को लेकर जन चल दिये तो सावित्री भी उनके पीछे चल दी। पहले तो यमराज ने उसे दैवी विधान सुनाया, किन्तु उसको अपने पति में निष्ठा देखकर वर मांगने को कहा। सावित्री बोली-"मेरे सास-ससुर बनवासी और अन्य है। उन्हें आप दिव्य ज्योति प्रदान करें।" यमराज ने कहा-"ऐसा ही होगा। अब लौट जाओ।" यमराज की बात सुनकर उसने कहा-"भगवान मुझे अपने पतिदेव के पीछे - पीछे चलने में कोई परेशानी नहीं |  पति अनुगमन मेरा कर्तव्य है।" यह सुनकर यमराज ने फिर वर मांगने को कहा। सावित्री बोली-"मारे ससुर का राज्य शत्रुओं ने छीन लिया है। उन्हें वह पुनः प्राप्त हो और ये धर्मपरायण हो।" यमराज ने ये घर भी दे दिया और लौट जाने को कहा किन्तु उसने उनका पीछा न छोड़ा। यमराज बोले-"एक घर और मांग लो।" सावित्री बोली-"मुन्ने वर दी कि मेरे सौ पुत्र हो।" यमराज ने 'तथास्तु' कहा और आगे चल दिया सावित्री बोली- देव, आप मेरे पति को तो लिए जा रहे हैं मेरे पुत्र कैसे होगा यमराज को उसके पति के प्राण छोड़ने पड़े। सावित्री को अभय-मुहाग का वरदान देकर अन्तर्ध्यान हो गये। इस तरह सावित्री उस वटवृक्ष के नीचे आई जहां पति का शरीर पड़ा था।
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ईश्वर की अनुकम्पा से उसमें जीवन का संचार हुआ और सत्यवान उठकर बैठ गया। दोनों हर्ष से प्रेमालिंगन करके राजधानी की तरफ लौट चले। सत्यवान के माता-पिता को भी दिव्य ज्योति प्राप्त हुई। इस प्रकार सत्यवान और सावित्री चिरकाल तक राज्य-सुख भोगते रहे। यह व्रत सुहागिन स्त्रियों को अवश्य करना चाहिए। ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या को रखे जाने वाला यह व्रत सुहागिन स्त्रियों के लिए विशेष प्रभावी है। इस व्रत को सच्चे मन व श्रद्धा से रखने वाली स्त्रियों का सुहाग सदैव अचलं रहता है।
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=== रम्भा तृतीय व्रत ===
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यह तृतीय ज्येष्ठ मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया को आती है। इस दिन भगवान व ब्राह्मण की पूजा करनी चाहिए। इस दिन व्रत रखकर पहले भगवान की मूर्ति को स्नान करायें फिर वस्त्राभूषण पहनाकर उनकी धूप-दीप से पूजा करें। यह व्रत धर्म में आस्था बढ़ाता है। इस दिन गौमाता का दान बताया है। इसकी पूजा करने वाली नारी धन-धान्य व सन्तान से मुक्त हो पति को सुख देती हुई स्वर्ग को जाती है। प्रात:काल होने पर नदी पर स्नान करें। पांच ब्राह्मणों का वरण करें? वेदों में स्थापित करके पुरुष सूक्त के मंत्रों से शर्करा, घृत, तिल, पायस आदि से हवन करें। पश्चात् पूर्णाहुति दें और हवन को समाप्त करके ब्राह्मणी को दक्षिणा देः गो का दान करें। अपनी शक्ति के अनुसार ब्राह्मणों को भोजन करायें। छाता, जूता आदि का दान करें। अपने आचार्य को प्रतिमा का दान करें। किसी प्रकार की दास कंजूसी न करें। इस प्रकार व्रत करने से सफल हो जाता है।
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==== व्रत कथा- ====
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प्राचीन काल में हिमवान नाम वाला एक पर्वतों का राजा था, यद्यपि उसके पास सब सिद्धियां थीं परन्तु उसके कोई सन्तान नहीं थी इसलिए बहुत दु:खी रहता था और उसकी स्त्री मैना भी बहुत दु:खी रहती थी। उस राजा ने सन्तान के लिए कई व्रत और दान किये परन्तु सब ही निष्फल चले गये। मैना ने सोचा कि सन्तानरहित स्त्री का जीवन धिक्कार है। इस प्रकार वह दुःखी होकर भगवान विष्णु की शरण में गई। तब नारदजी वहां विष्णु भगवान की सेवा में उपस्थित थे, मैना को पूर्णासन द्रत करने को कहा। नारदजी ने कहा-"मैना! ज्येष्ठ की तृतीया के दिन तुम इस व्रत को विधिपूर्वक करो।" इस उपदेश को सुनकर मैना सब कर्मों को त्यागकर भगवान विष्णु का स्मरण करके इस व्रत को करने लगी। भगवान विष्णु की कृपा से इस व्रत के समाप्त होने पर जगतमयी माया उत्पन्न हुई और मैना को वर मांगने के लिए कहा। तब मैना ने कहा-“हे देवी! यदि आप  प्रसन है तो मो आंगन में आकर ली।" दब जगदम्बा ने कहा-पिसा ही दर और मैं क्या होकर तुम्हारे घर में जन्म लूगी।" यह समाचार सुलकर हिमवान की बड़ी प्रानता ही कुछ समय व्यतीत हो जाने पर मीना गार्थवती होगी जिस प्रकारकी अभिलाषा पूर्ण दुई, से हर किसी की हो।
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=== गंगा दशहरा ===
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ज्येष्ठ सुदी दरामी को गंगा दशहरा कहा जाता है। इसी दिन नदियों में श्रेष्ठ गंगाजी भगीरथ द्वारा स्वर्गलोक से पृथ्वी पर अवतरित हुई थीं। ज्येष्ठ शुक्ल दशमी सोमवार और हस्त नक्षत्र होने पर यह तिथि घोर पापों को नष्ट करने वाली मानी गयी है। हस्त नक्षत्र में बुधवार के दिन गंगावतरण हुआ था। यह तिथि अधिक महत्त्वपूर्ण है। इस तिथि में स्नान, दान, तर्पण से सब पापों का विनाश होता है।  इसलिए इसका नाम दशहरा पड़ा है। व्रत की कथा-प्राचीन काल में अयोध्या नगरी में एक सगर नाम के राजा राज्य करते थे। उनके केशिनी और सुमति नामकी दो रानियां थीं। पहली रानी के अंशुमान नामक पुत्र का उल्लेख मिलता है, किन्तु दूसरी रानी सुमति के साठ हजार पुत्र थे। उसी समय यज्ञ की पूर्ति के लिए एक घोड़ा छोड़ा। इन्द्र यज्ञ को भंग करने के लिए उस घोड़े को चुराकर कपिल मुनि के आश्रम में बांध आये। राजा ने उसे खोजने के लिए साठ हजार पुत्रों को भेजा। खोजते-खोजते वे कपिल मुनि के आश्रम में पहुंचे तथा समाधिस्थ मुनि की क्रोधाग्नि में जलकर भस्म हो गये।
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अपने-अपने पितृत्व चरणों को खोजता हुआ अंशुमान जब मुनि-आश्रम में पहुंचा तो महात्मा गरुड़ से भस्म होने का सम्पूर्ण वृतान्त जाना। गरुड़जी ने यह भी बताया कि यदि तुम इन सबकी मुक्ति चाहते हो तो स्वर्ग से गंगाजी को पृथ्वी पर लाना पड़ेगा। इस समय अश्व को ले जाकर अपने पितामह के यज्ञ को पूर्ण कराओ, उसके बाद यह कार्य करना। अंशुमान ने घोड़े सहित यज्ञ मण्डप पर पहुंचकर सगर को सम्पूर्ण वृतान्त कह सुनाया। महाराज सगर की मृत्यु के उपरान्त अंशुमान और उनके पुत्र दिलीप जीवन- पर्यन्त तपस्या करके भी गंगाजी को पृथ्वी पर ना ला सके। अन्त में राजा दिलीप के पुत्र भागीरथ ने गंगाजी को इस लोक में लाने के लिए गोकर्ण तीर्थ में जाकर कठोर तपस्या की, इस तरह तपस्या करते-करते कई वर्ष बीत गये, तब ब्रह्माजी प्रसन्न हुए और गंगाजी को पृथ्वीलोक में ले जाने का वरदान दिया। ब्रह्माजी के कमण्डल से छूटने के पश्चात् समस्या यह थी कि गंगाजी को सम्भालेगा कौन? विधाता ने बताया कि भूलोक में भगवान शंकर के सिवाय किसीमें यह शक्ति नहीं जो गंगाजी के वेग को सम्भाल सके। इस आदेश के अनुसार
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