Changes

Jump to navigation Jump to search
m
no edit summary
Line 10: Line 10:  
भारतीय समाज में कुटुंब यह सब से छोटी सामाजिक इकाई मानी जाती है। इस इकाई में सामाजिकता के पाठ पढकर मनुष्य समाज को भी कुटुंब की तरह बनाए ऐसी यह व्यवस्था है। यही व्यवस्था विस्तार पाती है तो ‘ग्रामकुल’ बनती है। और आगे विस्तार पाकर ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ भी बनती है। अब इन तीनों की संक्षेप में जानकारी लेंगे।   
 
भारतीय समाज में कुटुंब यह सब से छोटी सामाजिक इकाई मानी जाती है। इस इकाई में सामाजिकता के पाठ पढकर मनुष्य समाज को भी कुटुंब की तरह बनाए ऐसी यह व्यवस्था है। यही व्यवस्था विस्तार पाती है तो ‘ग्रामकुल’ बनती है। और आगे विस्तार पाकर ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ भी बनती है। अब इन तीनों की संक्षेप में जानकारी लेंगे।   
   −
== १. कुटुंब / परिवार ==
+
== कुटुंब / परिवार ==
 
संस्कृत शब्द कुटुंब का ही प्रतिशब्द परिवार है। भारतीय एकत्रित कुटुंब यह आज भी विदेशी लोगों के लिये आकर्षण का विषय है । बडी संख्या में वर्तमान शिक्षा और जीवनशैली के कारण टूट रहे यह कुटुंब अब तो हम जैसे भारतीयों के भी कुतुहल और अध्ययन का विषय बन गए हैं।   
 
संस्कृत शब्द कुटुंब का ही प्रतिशब्द परिवार है। भारतीय एकत्रित कुटुंब यह आज भी विदेशी लोगों के लिये आकर्षण का विषय है । बडी संख्या में वर्तमान शिक्षा और जीवनशैली के कारण टूट रहे यह कुटुंब अब तो हम जैसे भारतीयों के भी कुतुहल और अध्ययन का विषय बन गए हैं।   
   Line 17: Line 17:  
बच्चा जब पैदा होता है तो उसे केवल अपनी भूख और अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति होनी चाहिये, इतनी ही समझ होती है। वह केवल ‘अपने लिये जीनेवाला जीव’ होता है। कुटुंब उसे सामाजिक बनाता है। संस्कारित कर ऐसे केवल अपने हित की सोचनेवाले अर्भक को, केवल अपने लिये जीनेवाले उस जीव को ‘अपनों के लिये जीनेवाला घर का मुखिया’ बनाता है।   
 
बच्चा जब पैदा होता है तो उसे केवल अपनी भूख और अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति होनी चाहिये, इतनी ही समझ होती है। वह केवल ‘अपने लिये जीनेवाला जीव’ होता है। कुटुंब उसे सामाजिक बनाता है। संस्कारित कर ऐसे केवल अपने हित की सोचनेवाले अर्भक को, केवल अपने लिये जीनेवाले उस जीव को ‘अपनों के लिये जीनेवाला घर का मुखिया’ बनाता है।   
   −
हमारे पूर्वजों ने बहुत सोच समझकर, परिश्रमपूर्वक परिवार व्यवस्था का निर्माण किया था । केवल व्यवस्था ही निर्माण नहीं की अपितु उसे पूर्णत्व की स्थिति तक ले गये । उस व्यवस्था में ही ऐसे घटक विकसित किये जो उस व्यवस्था को बनाए भी रखते थे और सुदृढ भी बनाते थे । इसीलिये भारतीय कुटुंब व्यवस्था कालजयी बनीं। इस कुटुंब व्यवस्था की और उसमें भी संयुक्त कुटुंब की कुछ महत्वपूर्ण विशेषताएँ निम्न हैं:   
+
हमारे पूर्वजों ने बहुत सोच समझकर, परिश्रमपूर्वक परिवार व्यवस्था का निर्माण किया था । केवल व्यवस्था ही निर्माण नहीं की अपितु उसे पूर्णत्व की स्थिति तक ले गये। उस व्यवस्था में ही ऐसे घटक विकसित किये जो उस व्यवस्था को बनाए भी रखते थे और सुदृढ भी बनाते थे । इसीलिये भारतीय कुटुंब व्यवस्था कालजयी बनीं। इस कुटुंब व्यवस्था की और उसमें भी संयुक्त कुटुंब की कुछ महत्वपूर्ण विशेषताएँ निम्न हैं:   
 
# सुसंस्कृत, सुखी, समाधानी, स्वावलंबी, आत्मविश्वासयुक्त, सदाचारी और सामाजिक सहनिवास के संस्कारों की व्यवस्था।   
 
# सुसंस्कृत, सुखी, समाधानी, स्वावलंबी, आत्मविश्वासयुक्त, सदाचारी और सामाजिक सहनिवास के संस्कारों की व्यवस्था।   
 
# परिवार में जब बच्चा जन्म लेता है तब उसे अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के सिवाय अन्य कोई समझ नहीं होती। एक ढँग से कहें की वह निपट स्वार्थी होता है तो गलत नहीं है। जो पैदा होते समय केवल अपने लिये ही सोचता है ऐसे निपट स्वार्थी जीव को अपनों के लिये जीनेवाला कुटुंब का मुखिया बनाने की कुटुंब यह प्रक्रिया है। वास्तव में यह मनुष्य को मोक्षगामी यानि अपने लक्ष्य की दिशा में ले जाने की ही व्यवस्था है। ‘अपनों के लिये जीना’ इससे अधिक श्रेष्ठ सामाजिक भावना अन्य नहीं है। नि:स्वार्थ भाव से अन्यों के लिये जीना मानव को मोक्षगामी बनाता है।   
 
# परिवार में जब बच्चा जन्म लेता है तब उसे अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के सिवाय अन्य कोई समझ नहीं होती। एक ढँग से कहें की वह निपट स्वार्थी होता है तो गलत नहीं है। जो पैदा होते समय केवल अपने लिये ही सोचता है ऐसे निपट स्वार्थी जीव को अपनों के लिये जीनेवाला कुटुंब का मुखिया बनाने की कुटुंब यह प्रक्रिया है। वास्तव में यह मनुष्य को मोक्षगामी यानि अपने लक्ष्य की दिशा में ले जाने की ही व्यवस्था है। ‘अपनों के लिये जीना’ इससे अधिक श्रेष्ठ सामाजिक भावना अन्य नहीं है। नि:स्वार्थ भाव से अन्यों के लिये जीना मानव को मोक्षगामी बनाता है।   
Line 69: Line 69:  
संक्षेप में एक अच्छा संयुक्त कुटुंब यह समाज का श्रेष्ठ लघुरूप ही होता है। संयुक्त परिवारों के कारण समाज सुखी और समृद्ध भी बनता है। जैसा वातावरण और जैसी व्यवस्थाएँ एकात्म परिवार के लिये आवश्यक होती हैं वैसा वातावरण और वैसी ही व्यवस्थाएँ समाज के लिये भी आवश्यक होतीं हैं।  
 
संक्षेप में एक अच्छा संयुक्त कुटुंब यह समाज का श्रेष्ठ लघुरूप ही होता है। संयुक्त परिवारों के कारण समाज सुखी और समृद्ध भी बनता है। जैसा वातावरण और जैसी व्यवस्थाएँ एकात्म परिवार के लिये आवश्यक होती हैं वैसा वातावरण और वैसी ही व्यवस्थाएँ समाज के लिये भी आवश्यक होतीं हैं।  
   −
== २. ग्रामकुल ==
+
== ग्रामकुल ==
 
ऐसा नहीं  है कि अपने पूर्वजों ने समाज व्यवस्था की दृष्टि से केवल परिवार व्यवस्था का ही निर्माण किया था । श्रेष्ठ गुरुकुलों एवम् ग्रामकुलों की रचना भी की थी। गांधीजी के अनुयायी धर्मपालजी ने लिखे १८वीं सदी के भारत के गाँवों की जानकारी से यह पता चलता है कि भारतीय गाँव भी कौटुंबिक भावना से बंधे हुवे थे। परिवार की ही तरह गाँवों की भी व्यवस्थाएँ बनीं हुई थीं। जैसे परिवार के लोग एक दूसरे से आत्मीयता के धागे से बंधे होते हैं उसी प्रकार से गाँव के लोग भी आत्मीयता के धागे से बंधे हुवे थे। ‘इस गाँव में हमारे गाँव की बिटिया ब्याही है, मैं यहाँ पानी नहीं पी सकता’  ऐसा कहनेवाले कुछ लोग तो आज भी हिंदी भाषी गाँवों मे मिल जाते हैं। परिवार में जैसे पैसे के लेनदेन से व्यवहार नहीं होते उसी प्रकार गाँव में भी नहीं होते थे। गाँव के प्रत्येक मानव, जीव, जन्तु के निर्वाह की व्यवस्था बिठाई हुई थी। और निर्वाह भी सम्मान के साथ होता था। परिवार का कोई घटक परिवार को छोड अन्यत्र जाता है तो जैसे कुटुंब के सभी लोगों को दुख होता है। उसी तरह कोई गाँव छोडकर जाता था तो गाँव दुखी होता था। वह गाँव छोडकर नहीं जाए इसलिये मिन्नतें करता था। उस के कष्ट दूर करने की व्यवस्था करता था। लेकिन ये बातें अंग्रेजी शिक्षा के कारण हमारे भी समझ से परे हो गयीं हैं।
 
ऐसा नहीं  है कि अपने पूर्वजों ने समाज व्यवस्था की दृष्टि से केवल परिवार व्यवस्था का ही निर्माण किया था । श्रेष्ठ गुरुकुलों एवम् ग्रामकुलों की रचना भी की थी। गांधीजी के अनुयायी धर्मपालजी ने लिखे १८वीं सदी के भारत के गाँवों की जानकारी से यह पता चलता है कि भारतीय गाँव भी कौटुंबिक भावना से बंधे हुवे थे। परिवार की ही तरह गाँवों की भी व्यवस्थाएँ बनीं हुई थीं। जैसे परिवार के लोग एक दूसरे से आत्मीयता के धागे से बंधे होते हैं उसी प्रकार से गाँव के लोग भी आत्मीयता के धागे से बंधे हुवे थे। ‘इस गाँव में हमारे गाँव की बिटिया ब्याही है, मैं यहाँ पानी नहीं पी सकता’  ऐसा कहनेवाले कुछ लोग तो आज भी हिंदी भाषी गाँवों मे मिल जाते हैं। परिवार में जैसे पैसे के लेनदेन से व्यवहार नहीं होते उसी प्रकार गाँव में भी नहीं होते थे। गाँव के प्रत्येक मानव, जीव, जन्तु के निर्वाह की व्यवस्था बिठाई हुई थी। और निर्वाह भी सम्मान के साथ होता था। परिवार का कोई घटक परिवार को छोड अन्यत्र जाता है तो जैसे कुटुंब के सभी लोगों को दुख होता है। उसी तरह कोई गाँव छोडकर जाता था तो गाँव दुखी होता था। वह गाँव छोडकर नहीं जाए इसलिये मिन्नतें करता था। उस के कष्ट दूर करने की व्यवस्था करता था। लेकिन ये बातें अंग्रेजी शिक्षा के कारण हमारे भी समझ से परे हो गयीं हैं।
    
गाँव के तालाब होते थे। इन तालाबों का रखरखाव गाँव के लोग ही करते थे। अध्ययन के लिये पूरा विश्व ही गाँव माना जाता था। लेकिन रहने के लिये तो गाँव ही विश्व माना जाता था। काम के लिये सुबह निकलकर शाम तक घर आ सके इतनी गाँव  की सीमा होती थी। इसीलिये गोचर भूमि, जंगल, तालाब ये गाँव के हिस्से होते थे। दुनिया भर की श्रेष्ठतम आवश्यक बातें गाँव में ही बनाने के प्रयास होते थे। इन प्रयासों से गाँव स्वावलंबी बनते थे। गाँव के लोग रक्षण, पोषण और शिक्षण की अपनी व्यवस्थाएँ निर्माण करते थे और चलाते भी थे। यही बातें तो किसी भी श्रेष्ठ समाज से अपेक्षित हैं। सब से महत्वपूर्ण बात तो यह हुआ करती थी कि गाँव के हित अहित के सभी निर्णय गाँव के लोग सर्व सहमति से करते थे। यह तो ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ की प्रत्यक्ष व्यवस्था ही थी। ग्रामकुल के विषय में हम इस [[Grama Kul (ग्रामकुल)|लेख]] को पढ़ सकते हैं  ।
 
गाँव के तालाब होते थे। इन तालाबों का रखरखाव गाँव के लोग ही करते थे। अध्ययन के लिये पूरा विश्व ही गाँव माना जाता था। लेकिन रहने के लिये तो गाँव ही विश्व माना जाता था। काम के लिये सुबह निकलकर शाम तक घर आ सके इतनी गाँव  की सीमा होती थी। इसीलिये गोचर भूमि, जंगल, तालाब ये गाँव के हिस्से होते थे। दुनिया भर की श्रेष्ठतम आवश्यक बातें गाँव में ही बनाने के प्रयास होते थे। इन प्रयासों से गाँव स्वावलंबी बनते थे। गाँव के लोग रक्षण, पोषण और शिक्षण की अपनी व्यवस्थाएँ निर्माण करते थे और चलाते भी थे। यही बातें तो किसी भी श्रेष्ठ समाज से अपेक्षित हैं। सब से महत्वपूर्ण बात तो यह हुआ करती थी कि गाँव के हित अहित के सभी निर्णय गाँव के लोग सर्व सहमति से करते थे। यह तो ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ की प्रत्यक्ष व्यवस्था ही थी। ग्रामकुल के विषय में हम इस [[Grama Kul (ग्रामकुल)|लेख]] को पढ़ सकते हैं  ।
   −
== 3 वसुधैव कुटुंबकम् ==
+
== वसुधैव कुटुंबकम् ==
 
<blockquote>अयं निज: परोवेत्ति गणनां लघुचेतसाम्</blockquote><blockquote>उदार चरितानां तु वसुधैव कुटु्म्बकम्</blockquote> भावार्थ : यह मेरा यह पराया यह तो संकुचित मन और भावना के लक्षण हैं । जिन के हृदय बडे होते हैं, मन विशाल होते हैं उन के लिये तो सारा विश्व ही एक कुटुंब होता है। ऐसा विशाल मन और हृदय रखनेवाला मानव समाज बनाने की आकांक्षा और प्रयास हमारे पूर्वजों ने किये । वास्तव में एकत्रित कुटुंब जिस भावना और व्यवस्थाओं के आधारपर सुव्यवस्थित ढँग से चलता है उसी प्रकार पूरा विश्व भी चल सकता है। यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे। इस दृष्टि से दस दस हजार से अधिक संख्या की आबादी वाले गुरुकुल विस्तारित कुटुंब ही हुआ करते थे। इसीलिये वे कुल कहलाए जाते थे। इसी तरह ग्राम भी ग्रामकुल हुआ करते थे। गुरुकुल, ग्रामकुल की तरह ही राष्ट्र(कुल) में भी यही परिवार भावना ही परस्पर संबंधों का आधार हुआ करती थी।
 
<blockquote>अयं निज: परोवेत्ति गणनां लघुचेतसाम्</blockquote><blockquote>उदार चरितानां तु वसुधैव कुटु्म्बकम्</blockquote> भावार्थ : यह मेरा यह पराया यह तो संकुचित मन और भावना के लक्षण हैं । जिन के हृदय बडे होते हैं, मन विशाल होते हैं उन के लिये तो सारा विश्व ही एक कुटुंब होता है। ऐसा विशाल मन और हृदय रखनेवाला मानव समाज बनाने की आकांक्षा और प्रयास हमारे पूर्वजों ने किये । वास्तव में एकत्रित कुटुंब जिस भावना और व्यवस्थाओं के आधारपर सुव्यवस्थित ढँग से चलता है उसी प्रकार पूरा विश्व भी चल सकता है। यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे। इस दृष्टि से दस दस हजार से अधिक संख्या की आबादी वाले गुरुकुल विस्तारित कुटुंब ही हुआ करते थे। इसीलिये वे कुल कहलाए जाते थे। इसी तरह ग्राम भी ग्रामकुल हुआ करते थे। गुरुकुल, ग्रामकुल की तरह ही राष्ट्र(कुल) में भी यही परिवार भावना ही परस्पर संबंधों का आधार हुआ करती थी।
 
यह विश्वास और ऐसा करने की सामर्थ्य हमारे पूर्वजों में थी। यह बात आज भी असंभव नहीं है। वैसी दुर्दमनीय आकांक्षा और तप-सामर्थ्य हमें जगाना होगा। वैश्वीकरण की पाश्चात्य घोषणाएँ तो बस दिखावा और छलावा मात्र हैं। जिन समाजों में पति-पत्नि एक छत के नीचे उम्र गुजार नहीं सकते उन्हे हम भारतीयों को वैश्वीकरण सिखाने का कोई अधिकार नहीं है। वसुधैव कुटुंबकम् कैसे होगा यह हमें भी अपने पूर्वजों से फिर से सीखना चाहिये और अभारतीयों को भी सिखाना चाहिये।
 
यह विश्वास और ऐसा करने की सामर्थ्य हमारे पूर्वजों में थी। यह बात आज भी असंभव नहीं है। वैसी दुर्दमनीय आकांक्षा और तप-सामर्थ्य हमें जगाना होगा। वैश्वीकरण की पाश्चात्य घोषणाएँ तो बस दिखावा और छलावा मात्र हैं। जिन समाजों में पति-पत्नि एक छत के नीचे उम्र गुजार नहीं सकते उन्हे हम भारतीयों को वैश्वीकरण सिखाने का कोई अधिकार नहीं है। वसुधैव कुटुंबकम् कैसे होगा यह हमें भी अपने पूर्वजों से फिर से सीखना चाहिये और अभारतीयों को भी सिखाना चाहिये।
890

edits

Navigation menu