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== प्राक्कथन ==
 
== प्राक्कथन ==
भारतीय समाज यदि चिरंजीवी बना है तो वह भारत की कुटुंब व्यवस्था के कारण। बहुत दीर्घ कालतक विदेशी शासकों के प्रभाव के उपरांत भी आज यदि भारतीय समाज में कुछ भारतीयता शेष है तो वह परिवार व्यवस्था के कारण ही है । लगभग २००-२२५ वर्षों की विपरीत शिक्षा के उपरांत भी यदि भारतीय समाज में भारतीयता बची है तो वह हमारी कुटुंब व्यवस्था के कारण ही है। लेकिन विपरीत शिक्षा के साथ चल रही इस लडाई में कुटुंब व्यवस्था भी क्षीण हो गई है।  
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भारतीय समाज यदि चिरंजीवी बना है तो वह भारत की कुटुंब व्यवस्था के कारण। बहुत दीर्घ काल तक विदेशी शासकों के प्रभाव के उपरांत भी आज यदि भारतीय समाज में कुछ भारतीयता शेष है तो वह परिवार व्यवस्था के कारण ही है । लगभग २००-२२५ वर्षों की विपरीत शिक्षा के उपरांत भी यदि भारतीय समाज में भारतीयता बची है तो वह हमारी कुटुंब व्यवस्था के कारण ही है। लेकिन विपरीत शिक्षा के साथ चल रही इस लडाई में कुटुंब व्यवस्था भी क्षीण हो गई है।  
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आज विश्व जिसका अनुकरण करता है वह अमरिका एक बडे प्रमाण में टूटते कुटुंबों का देश है। कुटुंबों को फिर से व्यवस्थित कैसे किया जाए इस की चिंता अमरिका के ही नहीं सभी तथाकथित प्रगत देशों के हितचिंतक विद्वान करने लगे हैं। किन्तु प्रेम, आत्मीयता, कर्तव्य भावना, नि:स्वार्थ भाव से औरों के हित को प्राधान्य देना, औरों के लिये त्याग करने की मानसिकता, इन सब को पुन: लोगों के मन में जगाना सरल बात नहीं है। हमारे यहाँ कुटुंब व्यवस्था अब भी कुछ प्रमाण में टिकी हुई है तो हम उस का मूल्य समझते नहीं हैं।
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आज विश्व जिसका अनुकरण करता है वह अमरिका एक बडे प्रमाण में टूटते कुटुंबों का देश है। कुटुंबों को फिर से व्यवस्थित कैसे किया जाए इस की चिंता अमरिका के ही नहीं सभी तथाकथित प्रगत देशों के हितचिंतक विद्वान करने लगे हैं। किन्तु प्रेम, आत्मीयता, कर्तव्य भावना, नि:स्वार्थ भाव से औरों के हित को प्राधान्य देना, औरों के लिये त्याग करने की मानसिकता, इन सब को पुन: लोगों के मन में जगाना सरल बात नहीं है। हमारे यहाँ कुटुंब व्यवस्था अब भी कुछ प्रमाण में टिकी हुई है तो हम उस का मूल्य समझते नहीं हैं।   
वास्तव में सुखी समाधानी भारतीय समाज जीवन का रहस्य ही ‘परिवार भावना’ में है। हमारे सभी सामाजिक संबंधों का आधार कुटुंब भावना ही है। यह कुटुंब भावना केवल रक्त-संबंधोंतक सीमित नहीं हुवा करती थी। इसका विस्तार रक्त-संबंधों से आगे सृष्टि के चराचर तक ले जाना यह कुटुंब व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण पहलू होता है। प्रत्यक्ष में सभी सामाजिक संबंधों में भी यह कुटुंब भावना या आत्मीयता व्यवहार में दिखाई दे ऐसे शिक्षा और संस्कार कुटुंबों में भी और विद्यालयों में भी दिये जाते थे। शिष्य गुरू का मानसपुत्र होता है। राजा प्रजा का पिता होता है। प्रजा का अर्थ ही संतान होता है। एक ही व्यवसाय में काम करनेवाले लोग स्पर्धक नहीं होते। व्यवसाय बंधू होते हैं। धरती माता होती है। गाय, तुलसी, गंगा ये माताएँ होतीं हैं। सभा भवन में व्याख्यान सुनने आये हुए लोग 'मेरे प्रिय बहनों और भाईयों' होते हैं। हमारे तो बाजार भी कुटुंब भावना से चलते हैं।
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भारतीय परिवार का आदर्श भगवान शंकर का कुटुंब है। इस परिवार में एक दूसरे के शत्रू भी अपना बैर भूलकर आत्मीयता से रहते हैं। शंकरजीका वाहन बैल यह पार्वती के वाहन शेर का खाद्य है। गणेशजी का वाहन मूषक यह शंकरजी के गले में जो साँप है उसका खाद्य है। और यह साँप कार्तिकेय के वाहन मोर का खाद्य है। इसके अलावा शंकरजी के भालपर चंद्रमा है और उनकी जटाओं से गंगावतरण हो रहा है। अर्थात् इस परिवार में केवल मनुष्य ही नहीं, साथ में पशू और पक्षी ही नहीं तो प्रकृति के जड तत्त्व भी विद्यमान हैं। इस प्रकार भारतीय दृष्टि से कुटुंब का दायरा रक्त संबंध, मित्र परिवार, पडोसी, दुकानदार, भिखारी, गली के निवासी, व्यावसायिक संबंधी, सामाजिक संबंधी, अतिथी, पेड-पौधे, पशू-पक्षी, नदी या गाँव के तालाब या झरनों जैसे जल के स्रोत, मातृभूमि, धरती माता ऐसे पूरे विश्व तक होता है। स्वदेशो भुवनत्रयम् तक कुटुंब का विस्तार होना चाहिये ऐसा माना जाता है।
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किसी भी समाज की अर्थव्यवस्था उस समाज की रीढ होती है। अच्छी अर्थव्यवस्था के बिना कोई समाज सुखी और समृध्द नहीं हो सकता। समाज के सुखी और समृध्द होने का अर्थ है समाज का सुसंस्कृत होना और समाज की सभी इच्छाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति करने की शक्ति उस समाज में होना। अर्थ का प्रभाव और अभाव दोनों ही समाज में अव्यवस्था और अशांति निर्माण करते हैं। समाज की सुख और समृध्दि इन दोनों आवश्यकताओं की पूर्ति जिस प्रकार से संयुक्त कुटुंब व्यवस्था से हो सकती है अन्य किसी भी कुटुंब व्यवस्था से नहीं हो सकती।
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भारतीय समाज में कुटुंब यह सब से छोटी सामाजिक ईकाई मानी जाती है। इस ईकाई में सामाजिकता के पाठ पढकर मनुष्य समाज को भी कुटुंब की तरह बनाए ऐसी यह व्यवस्था है। यही व्यवस्था विस्तार पाती है तो ‘ग्रामकुल’ बनती है। और आगे विस्तार पाकर ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ भी बनती है। अब इन तीनों की संक्षेप में जानकारी लेंगे।
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१. कुटुंब / परिवार
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संस्कृत शब्द कुटुंब का ही प्रतिशब्द परिवार है। भारतीय एकत्रित कुटुंब यह आज भी विदेशी लोगों के लिये आकर्षण का विषय है । बडी संख्या में वर्तमान शिक्षा और जीवनशैली के कारण टूट रहे यह कुटुंब अब तो हम जैसे भारतीयों के भी कुतुहल और अध्ययन का विषय बन गए हैं।       गृहिणी यह कुटुंब व्यवस्था का आधारस्तंभ है । स्त्री की भूमिका घर में अत्यंत महत्वपूर्ण है । वह ठीक रहेगी तो वह घर कुटुंब बनता है । स्त्री को सम्मान से देखना और उस के अनुसार व्यवहार करना हर कुटुंब के लिये अनिवार्य ऐसी बात है। यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता:। यानी जिस घर और समाज में नारी या स्त्री का सम्मान होता है उस घर या समाज के निवासी देवता स्वरूप ही होते हैं। वैसे तो घर में स्त्री की भिन्न भिन्न भूमिकाएँ होतीं हैं । किन्तु इन सब में माता की भूमिका ही स्त्री की प्रमुख भूमिका मानी गई है । उसे विषयवासना का साधन नही माना गया है । वह क्षण काल की पत्नि और अनंत काल की माता मानी जाती है । इसीलिये स्त्री को जिस घर में आदर, सम्मान मिलता है और जिस घर की स्त्री ऐसे आदर सम्मान के पात्र होती है वह घर कुटुंब बन जाता है ।
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बच्चा जब पैदा होता है तो उसे केवल अपनी भूख और अपनी आवश्यकताओं की पूर्ती होनी चाहिये, इतनी ही समझ होती है। वह केवल ‘अपने लिये जीनेवाला जीव’ होता है। कुटुंब उसे सामाजिक बनाता है। संस्कारित कर ऐसे केवल अपने हित की सोचनेवाले अर्भक को, केवल अपने लिये जीनेवाले उस जीव को ‘अपनों के लिये जीनेवाला घर का मुखिया’ बनाता है।
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हमारे पूर्वजों ने बहुत सोच समझकर, परिश्रमपूर्वक परिवार व्यवस्था का निर्माण किया था । केवल व्यवस्था ही निर्माण नहीं की तो उसे पूर्णत्व की स्थिति तक ले गये । उस व्यवस्था में ही एप्रसे घटक विकसित किये जो उस व्यवस्था को बनाए भी रखते थे और सुदृढ भी बनाते थे । इसीलिये भारतीय कुटुंब व्यवस्था कालजयी बनीं। इस कुटुंब व्यवस्था की और उसमें भी संयुक्त कुटुंब की कुछ महत्वपूर्ण विशेषताएँ निम्न हैं।
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१.१  सुसंस्कृत, सुखी, समाधानी, स्वावलंबी, आत्मविश्वासयुक्त, सदाचारी और सामाजिक सहनिवास के संस्कारों की व्यवस्था।
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१.२  परिवार में जब बच्चा जन्म लेता है तब उसे अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के सिवाय अन्य कोई समझ नहीं होती। एक ढँग से कहें की वह निपट स्वार्थी होता है तो गलत नहीं है। जो पैदा होते समय केवल अपने लिये ही सोचता है ऐसे निपट स्वार्थी जीव को अपनों के लिये जीनेवाला कुटुंब का मुखिया बनाने की कुटुंब यह प्रक्रिया है। वास्तव में यह मनुष्य को मोक्षगामी यानि अपने लक्ष्य की दिशा में ले जाने की ही व्यवस्था है। ‘अपनों के लिये जीना’ इससे अधिक श्रेष्ठ सामाजिक भावना अन्य नहीं है। नि:स्वार्थ भाव से अन्यों के लिये जीना मानव को मोक्षगामी बनाता है।
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१.३  हम सब जानते हैं कि रक्त संबंध गाढे होते हैं। पति-पत्नि का संबंध रक्त संबंध से भी अधिक गाढा होता है। रज-वीर्य का होता है। यह रक्तसंबंध से हजारों गुना अधिक गाढा होता है। पति-पत्नि का संबंध यह केवल वासना पूर्ति का विषय नहीं है। वासनापूर्ति तो इसमें आनुषंगिक लाभ के रूप में होती है। इस का मुख्य उद्देष्य तो परिवार को और समाज को श्रेष्ठ सदस्य उपलब्ध कराने का होता है। श्रेष्ठ मानव निर्माण करने का होता है। श्रेष्ठ सामाजिक परंपराओं का निर्वहन करते हुए उन्हें अधिक तेजस्वी बनाने का होता है। श्रेष्ठ मानव निर्माण करने का काम दुनियाँ में सर्वश्रेष्ठ काम है।
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१.४  एकात्मता या आत्मीयता की भावना और व्यवहार कुटुंब में ही सीखा जाता है। कुटुंब में पति-पत्नि के गाढे संबंधों से
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एकात्मता की अनुभूति का प्रारंभ होता है। आगे यह एकात्मता की या आत्मीयता की भावना पूरे कुटुंब के सदस्योंतक
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विस्तार पाती है। यही भावना आगे वसुधैव कुटुंबकम् तक ले जाती है। एकता, समता, समरसता, एकरसता आदि शब्दों में द्वैत भावना झलकती है। ये शब्द ‘आत्मीयता’ शब्द जितने सटीक नहीं हैं। और आत्मीयता की अभिव्यक्ति को ही परिवार भावना कहते हैं। इसलिये कुटुंब भावना इस शब्द का प्रयोग ही हम आगे करेंगे।
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१.५  सामान्य ज्ञान एक पीढी से अगली पीढी तक संक्रमित करने की व्यवस्था।
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१.६  अपने परिवार की विशेषताएं जैसे ज्ञान, अनुभव और व्यावसायिक एवं अन्य कुशलताएँ एक पीढी से दुसरी पीढी को
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विरासत के रूप में संक्रमित करने की व्यवस्था।
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१.७  कुटुंब प्रमुख कुटुंब के सब के हित में जिये ऐसी मानसिकता । और केवल जिये इतना ही नही तो ऐसा कुटुंब के
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सभी घटकों को भी लगे यह महत्वपूर्ण बात है। तब सब उस का कहा मानाते हैं। इससे आज्ञाकारिता के संस्कार होते हैं।
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१.८  जो कमाएगा वह खिलाएगा और जो जन्मा है वह खाएगा। इस तरह से चराचर के भरण पोषण की जिम्मेदारी जब गृहस्थ और गृहिणी उठाने का संकल्प करते हैं तब समाज जीवन सुचारू रूप से चलता है।
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१.९  अपनी क्षमता के अनुसार पारिवारिक जिम्मेदारी उठाकर कुटुंब की समृध्दि बढाने में अधिकतम  योगदान देना और परिवार के साझे संचय में से न्यूनतम (बचत की आदत) का उपयोग करना। इसी व्यवहार के कारण देश समृध्द था।
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१.१० बडों का आदर करना, छोटों को प्यार देना, अतिथी का सत्कार करना, बराबरी के लोगों के साथ मित्रता, स्त्री का सम्मान करना, कुटुंब के हित में ही अपना हित देखना, अपनों के लिये किये त्याग के आनंद की अनूभूति, घर के
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नौकर-चाकर, भिखारी, मधुकरी, अतिथि, याचक, भिक्षा माँगनेवाले, पशू, पक्षी, पौधे आदि कुटुंब के घटक ही हैं एप्रसा उन सब से व्यवहार करना आदि बातें बच्चे कुटुंब में बढते बढते अपने आप सीख जाते थे ।       
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१.११ मृत्यू का डर बताकर बीमे के दलाल कहते हैं की ‘बीमा(इंश्युअरन्स्) का कोई विकल्प नहीं है’। किन्तु बडे कुटुंब के
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किसी भी घटक को आयुर्बीमा की कोई आवश्यकता नहीं होती। आपात स्थिति में पूरा परिवार उस घटक का केवल आर्थिक ही नही तो भावनिक बोझ और आजीवन रक्षण का बोझ भी सहज ही उठा लेता है । सीमित आर्थिक रक्षण को छोडकर भावनिक, शारिरिक, सामाजिक आदि हर प्रकार की सुरक्षा के लिये आयुर्बीमा में कोई विकल्प नहीं है ।
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१.१२ अनाथालय, विधवाश्रम, वृध्दाश्रम, अपंगाश्रम, बडे अस्पताल आदि की आवश्यकता वास्तव में समाज जीवन में आई विकृतियों के कारण है। इन सब समस्याओं की जड तो अभारतीय जीवनशैली में है । टूटते संयुक्त कुटुंबों में है ।
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१.१३ आर्थिक दृष्टि से देखें तो विभक्त कुटुंब को उत्पादक अधिक आसानी से लूट सकते हैं। विज्ञापनबाजी का प्रभाव जितना
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विभक्त कुटुंबपर होता है संयुक्त कुटुंबपर नहीं होता है ।
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१.१४ एकत्रित कुटुंब एक शक्ति केंद्र होता है । अपने हर सदस्य को शक्ति और आत्मविश्वास देता है । विभक्त परिवार से
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एकत्रित परिवार के सदस्य का आत्मविश्वास बहुत अधिक होता है । पूरे परिवार की शक्ति मेरे पीछे खडी है एप्रसी भावना के कारण एकत्रित परिवार के सदस्य को यह आत्मविश्वास प्राप्त होता है । इस संदर्भ में मजेदार और मार्मिक एप्रसी दो पंक्तियाँ हिंदीभाषी प्रदेश में सुनने में आती हैं ।
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जाके घर में चार लाठी वो चौधरी जा के घर में पाँच वो पंच ।
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और जाके घर में छ: वो ना चौधरी गणे ना पंच ॥
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अर्थात् जिस के एकत्रित परिवार में चार लाठी यानी चार मर्द हों वह चौधरी याने लोगों का मुखिया बन जाता है। जिस के घर में पाँच मर्द हों वह गाँव का पंच बन सकता है। और जिस के घर में छ: मर्द हों तो गाँव का चौधरी और गाँव का पंच भी उस से सलाह लेने आता है।
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१.१५ एकत्रित परिवार का प्रतिव्यक्ति खर्च भी विभक्त परिवार से बहुत कम होता है। सामान्यत: ४ सदस्य संख्यावाले दो विभक्त परिवारों का मिलाकर खर्च ८ सदस्यों के एकत्रित परिवार के खर्चे से देढ गुना अधिक होता है । प्राकृतिक संसाधनों का अनावश्यक उपयोग नहीं होता।
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१.१६ वर्तमान भारत की तुलना यदि ५० वर्ष पूर्व के भारत से करें तो यह समझ में आता है कि ५० वर्षपूर्व कुटुंब बडे और संपन्न थे। उद्योग छोटे थे। उद्योगपति अमीर नहीं थे। किन्तु आज चन्द उद्योग बहुत विशाल और चन्द उद्योजक अमीर बन बैठे हैं। लगभग सभी कुटुंब छोटे और उद्योगपतियों की तुलना में कंगाल या गरीब बन गये हैं । देश की आधी से अधिक जनसंख्या गरीबी की रेखा के नीचे धकेली गई है।
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१.१७ गो-आधारित जीवन के लिये संयुक्त परिवार होना आवश्यक होता है। गोशालाएँ तो गाय को बचाने का एक बहुत ही दुर्बल विकल्प है। संयुक्त कुटुंब ही वास्तव में गाय को बचाने का एक प्रबल माध्यम है।
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१.१८ वर्तमान शिक्षा और जीवनशैलीने समाज को पगढीला बना दिया है। पगढीलेपन के कारण समाज खानाबदोष या घुमंतु हो जाता है। ऐसे समाज में दैनंदिन आवश्यकताओं की पूर्ति में ही सारा समय व्यतीत हो जाने से श्रेष्ठ संस्कृति टिक नहीं पाती। प्रत्येक परिस्थिति में संयुक्त कुटुंब का आग्रह पगढीलेपन की और संस्कृति के पतन की समस्या का उत्तर है।
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१.१९ प्राकृतिक संसाधनों का अनावश्यक उपयोग नहीं होता यह संयुक्त कुटुंब का एक और लाभ है।
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१.२० अपराधीकरण, युवावस्था में आनेवाली स्वाभाविक उच्छ्रुंखलताओं को संयुक्त परिवार नियंत्रित करता है।
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१.२१ मकान, वाहन जैसे संसाधनों के उत्तमतम उपयोग की संभावनाएँ।
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१.२२ अन्न, पहनने के वस्त्र, पढाई की किताबें आदि का अधिकतम उपयोग
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१.२३ हानिकारक तंत्रज्ञानपर रोक की संभावनाएँ बढ जातीं हैं।
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१.२४ जनसंख्या, उत्पादन, संपत्ति, प्रदूषण आदि का विकेंद्रीकरण
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१.२५ परिवार की स्त्रियों को बाहर नौकर बनकर अपना सम्मान और शील खतरे में डालने की आवश्यकता नहीं रहती। घर में या कौटुंबिक व्यवसाय में वे अपना पूरा योगदान दे सकतीं हैं।
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१.२६ अपराधीकरण में कमी के कारण सुरक्षा, न्याय, शिक्षा व्यवस्थाओं का दबाव कम होता है।
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१.२७ एकात्म कुटुम्बों के एकत्र आने से एकात्म ग्राम बनता है। ऐसे ग्राम ही वसुधैव कुटुंबकम् की नींव होते हैं।
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१.२८ शारिरिक दृष्टि से दुर्बल होने के कारण समाज में बढते अपराधीकरण की सब से अधिक हानी स्त्री को ही होती है। इस दृष्टि से स्त्रियों की सुरक्षा की अधिक आश्वस्ति संयुक्त कुटुंब व्यवस्था में मिलती है।  
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१.२९ समाज में कुछ काम ऐसे होते हैं जिन का कोई मूल्य नहीं ऑंका जा सकता। ऐसे काम करनेवाले लोगों की भी समाज में नितांत आवश्यकता होती है। जैसे ज्ञानी, शोधकर्ता, शिक्षक, वैज्ञानिक, कलाकार, समाजसेवक/पंच/सरपंच, सुरक्षा रक्षक, पहलवान, वैद्य आदि। आवश्यकतानुसार इन लोगों के चरितार्थ की जिम्मेदारी भी संयुक्त कुटुंब सहज ही निभा सकते हैं।     
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वास्तव में सुखी समाधानी भारतीय समाज जीवन का रहस्य ही ‘परिवार भावना’ में है। हमारे सभी सामाजिक संबंधों का आधार कुटुंब भावना ही है। यह कुटुंब भावना केवल रक्त-संबंधों तक सीमित नहीं हुआ करती थी। इसका विस्तार रक्त-संबंधों से आगे सृष्टि के चराचर तक ले जाना यह कुटुंब व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण पहलू होता है। प्रत्यक्ष में सभी सामाजिक संबंधों में भी यह कुटुंब भावना या आत्मीयता व्यवहार में दिखाई दे ऐसे शिक्षा और संस्कार कुटुंबों में भी और विद्यालयों में भी दिये जाते थे। शिष्य गुरू का मानसपुत्र होता है। राजा प्रजा का पिता होता है। प्रजा का अर्थ ही संतान होता है। एक ही व्यवसाय में काम करनेवाले लोग स्पर्धक नहीं होते। व्यवसाय बंधू होते हैं। धरती माता होती है। गाय, तुलसी, गंगा ये माताएँ होतीं हैं। सभा भवन में व्याख्यान सुनने आये हुए लोग 'मेरे प्रिय बहनों और भाईयों' होते हैं। हमारे तो बाजार भी कुटुंब भावना से चलते हैं।भारतीय परिवार का आदर्श भगवान शंकर का कुटुंब है। इस परिवार में एक दूसरे के शत्रू भी अपना बैर भूलकर आत्मीयता से रहते हैं। शंकरजी का वाहन बैल, पार्वती के वाहन शेर का खाद्य है। गणेशजी का वाहन मूषक, शंकरजी के गले में जो साँप है उसका खाद्य है। और यह साँप कार्तिकेय के वाहन मोर का खाद्य है। इसके अलावा शंकरजी के भाल पर चंद्रमा है और उनकी जटाओं से गंगावतरण हो रहा है। अर्थात् इस परिवार में केवल मनुष्य ही नहीं, साथ में पशु और पक्षी ही नहीं तो प्रकृति के जड तत्व भी विद्यमान हैं। इस प्रकार भारतीय दृष्टि से कुटुंब का दायरा रक्त संबंध, मित्र परिवार, पडोसी, दुकानदार, भिखारी, गली के निवासी, व्यावसायिक संबंधी, सामाजिक संबंधी, अतिथी, पेड-पौधे, पशु-पक्षी, नदी या गाँव के तालाब या झरनों जैसे जल के स्रोत, मातृभूमि, धरती माता ऐसे पूरे विश्व तक होता है। स्वदेशो भुवनत्रयम् तक कुटुंब का विस्तार होना चाहिये ऐसा माना जाता है। 
१.३० छोटे छोटे कुटुम्बों के कारण बाजार से हर वस्तू प्लॅस्टिक की थैली में लाई जाती है। इससे विशाल मात्रा में प्लॅस्टिक का कचरा निर्माण होता है। संयुक्त कुटुंब में ऐसा नहीं होता।
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१.३१ संयुक्त कुटुंबों में ही कौटुंबिक उद्योग फलते फूलते हैं। कौटुंबिक उद्योगों से निम्न लाभ होते हैं।
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किसी भी समाज की अर्थव्यवस्था उस समाज की रीढ होती है। अच्छी अर्थव्यवस्था के बिना कोई समाज सुखी और समृद्ध नहीं हो सकता। समाज के सुखी और समृद्ध होने का अर्थ है समाज का सुसंस्कृत होना और समाज की सभी इच्छाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति करने की शक्ति उस समाज में होना। अर्थ का प्रभाव और अभाव दोनों ही समाज में अव्यवस्था और अशांति निर्माण करते हैं। समाज की सुख और समृद्धि इन दोनों आवश्यकताओं की पूर्ति जिस प्रकार से संयुक्त कुटुंब व्यवस्था से हो सकती है अन्य किसी भी कुटुंब व्यवस्था से नहीं हो सकती। 
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१.३१.१ प्रत्येक व्यक्ति के लिये रोजगार की आश्वस्ति
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भारतीय समाज में कुटुंब यह सब से छोटी सामाजिक इकाई मानी जाती है। इस इकाई में सामाजिकता के पाठ पढकर मनुष्य समाज को भी कुटुंब की तरह बनाए ऐसी यह व्यवस्था है। यही व्यवस्था विस्तार पाती है तो ‘ग्रामकुल’ बनती है। और आगे विस्तार पाकर ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ भी बनती है। अब इन तीनों की संक्षेप में जानकारी लेंगे। 
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१.३१.२ स्थानिक प्राकृतिक संसाधनों का अधिकतम उपयोग
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== १. कुटुंब / परिवार ==
१.३१.३ पारिवारिक उद्योग में सभी मालिक होते हैं। इसलिये समाज भी मालिकों की मानसिकता का बनता है।
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संस्कृत शब्द कुटुंब का ही प्रतिशब्द परिवार है। भारतीय एकत्रित कुटुंब यह आज भी विदेशी लोगों के लिये आकर्षण का विषय है । बडी संख्या में वर्तमान शिक्षा और जीवनशैली के कारण टूट रहे यह कुटुंब अब तो हम जैसे भारतीयों के भी कुतुहल और अध्ययन का विषय बन गए हैं।
१.३१.४ पीढी दर पीढी कुशलताओं का विकास होता है।
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१.३१.५ पीढी दर पीढी कच्चे माल की बचत होती है।
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१.३१.६ पीढी दर पीढी समय की बचत होती है।
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१.३१.७ उत्पादित वस्तू के साथ परिवार का गौरव (ब्रँड) जुडता है। जो उत्पादन की गुणवत्ता की आश्वस्ति होता है।
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१.३१.८ ग्राहक की विशेष माँग के या पसंद के अनुसार उत्पादन होता है।
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१.३१.९ परिवार के सदस्यों के कौशल, उपलब्ध समय आदि के अनुसार उत्पादन का समायोजन होता है।
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१.३१.१० सातों दिन २४ घंटे उत्पादन संभव होता है। अप्राकृतिक साप्ताहिक छुट्टि की आवश्यकता नहीं रहती।
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१.३१.११ आवश्यकतानुसार परिवार के स्त्री-पुरूष, आबालवृध्द ऐसे प्रत्येक सदस्य का उद्योग में योगदान संभव होता है।
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१.३१.१२ मँहंगे तकनीकी या व्यवस्थापन की शिक्षा के विद्यालयों महाविद्यालयों की आवश्यकता न्यूनतम होती है।
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१.३१.१३ तंत्रज्ञान, उत्पादन, व्यवस्थापन आदि सीखने के लिये जवानी के वर्षों का अलग समय निकालने की आवश्यकता    नहीं होती है। यह बचा हुआ समय वह ‘कुटुंब की शिक्षा’ और ‘कुटुंब में शिक्षा’ में लगा सकता है।
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१.३१.१४ पारिवारिक उद्योगों को समाज अपने हित में समायोजित और नियंत्रित करता है। जब कि वर्तमान विशालकाय
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उद्योग समाज के सामान्य जन की पसंद को, आवश्यकताओं को अपने हित के लिये प्रभावित करते हैं। झूठे अनैतिक, आक्रमक विज्ञापनों के माध्यम से वर्तमान के बडे उद्योग विभक्त कुटुंबों का शोषण करते हैं।
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१.३२ बच्चा जब पैदा होता है उसे केवल अधिकार होते हैं। कोई कर्तव्य नहीं होते। लेकिन जब वह परिवार का मुखिया हो जाता है तो उसके केवल कर्तव्य रह जाते हैं। कोई अधिकार नहीं रहते। सामान्यत: मनुष्य स्वार्थी होता है। उसे अधिकारों की रक्षा की समझ तो जन्म से ही होती है। इस केवल अपने अधिकारों की समझ के स्थानपर अपने कर्तव्य और अन्यों के अधिकार की समझ निर्माण करने से समाज सुसंस्कृत और सुखी बनता है।
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१.३३ संयुक्त कुटुंबवाले समाज में न्ययिक मामले बहुत कम हो जाते हैं। लगभग सभी कौटुंबिक समस्याओं का हल संयुक्त  
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गृहिणी, कुटुंब व्यवस्था का आधारस्तंभ है। स्त्री की भूमिका घर में अत्यंत महत्वपूर्ण है । वह ठीक रहेगी तो वह घर कुटुंब बनता है । स्त्री को सम्मान से देखना और उस के अनुसार व्यवहार करना हर कुटुंब के लिये अनिवार्य बात है। यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता:। यानी जिस घर और समाज में नारी या स्त्री का सम्मान होता है उस घर या समाज के निवासी देवता स्वरूप ही होते हैं। वैसे तो घर में स्त्री की भिन्न भिन्न भूमिकाएँ होतीं हैं । किन्तु इन सब में माता की भूमिका ही स्त्री की प्रमुख भूमिका मानी गई है । उसे विषयवासना का साधन नही माना गया है । वह क्षण काल की पत्नि और अनंत काल की माता मानी जाती है । इसीलिये स्त्री को जिस घर में आदर, सम्मान मिलता है और जिस घर की स्त्री ऐसे आदर सम्मान के पात्र होती है वह घर कुटुंब बन जाता है । 
    कुटुंब अपनी परिवार पंचायत में निकाल लेते हैं। फॅमिली व्यवस्था में तो सीधे न्यायालय के ही द्वार खटखटाने पडते  हैं।
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१.३४ कौटुंबिक उद्योगोंवाले समाज में विविधता के साथ आर्थिक समानता होती है। अर्थ का अभाव या प्रभाव नहीं होता।
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बच्चा जब पैदा होता है तो उसे केवल अपनी भूख और अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति होनी चाहिये, इतनी ही समझ होती है। वह केवल ‘अपने लिये जीनेवाला जीव’ होता है। कुटुंब उसे सामाजिक बनाता है। संस्कारित कर ऐसे केवल अपने हित की सोचनेवाले अर्भक को, केवल अपने लिये जीनेवाले उस जीव को ‘अपनों के लिये जीनेवाला घर का मुखिया’ बनाता है। 
     संक्षेप में एक अच्छा संयुक्त कुटुंब यह समाज का श्रेष्ठ लघुरूप ही होता है। संयुक्त परिवारों के कारण समाज सुखी और      समृध्द भी बनता है। जैसा वातावरण और जैसी व्यवस्थाएँ एकात्म परिवार के लिये आवश्यक होती हैं वैसा वातावरण और वैसी ही व्यवस्थाएँ समाज के लिये भी आवश्यक होतीं हैं।  
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हमारे पूर्वजों ने बहुत सोच समझकर, परिश्रमपूर्वक परिवार व्यवस्था का निर्माण किया था । केवल व्यवस्था ही निर्माण नहीं की अपितु उसे पूर्णत्व की स्थिति तक ले गये । उस व्यवस्था में ही ऐसे घटक विकसित किये जो उस व्यवस्था को बनाए भी रखते थे और सुदृढ भी बनाते थे । इसीलिये भारतीय कुटुंब व्यवस्था कालजयी बनीं। इस कुटुंब व्यवस्था की और उसमें भी संयुक्त कुटुंब की कुछ महत्वपूर्ण विशेषताएँ निम्न हैं: 
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# सुसंस्कृत, सुखी, समाधानी, स्वावलंबी, आत्मविश्वासयुक्त, सदाचारी और सामाजिक सहनिवास के संस्कारों की व्यवस्था। 
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# परिवार में जब बच्चा जन्म लेता है तब उसे अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के सिवाय अन्य कोई समझ नहीं होती। एक ढँग से कहें की वह निपट स्वार्थी होता है तो गलत नहीं है। जो पैदा होते समय केवल अपने लिये ही सोचता है ऐसे निपट स्वार्थी जीव को अपनों के लिये जीनेवाला कुटुंब का मुखिया बनाने की कुटुंब यह प्रक्रिया है। वास्तव में यह मनुष्य को मोक्षगामी यानि अपने लक्ष्य की दिशा में ले जाने की ही व्यवस्था है। ‘अपनों के लिये जीना’ इससे अधिक श्रेष्ठ सामाजिक भावना अन्य नहीं है। नि:स्वार्थ भाव से अन्यों के लिये जीना मानव को मोक्षगामी बनाता है। 
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# हम सब जानते हैं कि रक्त संबंध गाढे होते हैं। पति-पत्नि का संबंध रक्त संबंध से भी अधिक गाढा होता है। रज-वीर्य का होता है। यह रक्तसंबंध से हजारों गुना अधिक गाढा होता है। पति-पत्नि का संबंध यह केवल वासना पूर्ति का विषय नहीं है। वासनापूर्ति तो इसमें आनुषंगिक लाभ के रूप में होती है। इस का मुख्य उद्देष्य तो परिवार को और समाज को श्रेष्ठ सदस्य उपलब्ध कराने का होता है। श्रेष्ठ मानव निर्माण करने का होता है। श्रेष्ठ सामाजिक परंपराओं का निर्वहन करते हुए उन्हें अधिक तेजस्वी बनाने का होता है। श्रेष्ठ मानव निर्माण करने का काम दुनियाँ में सर्वश्रेष्ठ काम है। 
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# एकात्मता या आत्मीयता की भावना और व्यवहार कुटुंब में ही सीखा जाता है। कुटुंब में पति-पत्नि के गाढे संबंधों से एकात्मता की अनुभूति का प्रारंभ होता है। आगे यह एकात्मता की या आत्मीयता की भावना पूरे कुटुंब के सदस्यों तक विस्तार पाती है। यही भावना आगे वसुधैव कुटुंबकम् तक ले जाती है। एकता, समता, समरसता, एकरसता आदि शब्दों में द्वैत भावना झलकती है। ये शब्द ‘आत्मीयता’ शब्द जितने सटीक नहीं हैं। और आत्मीयता की अभिव्यक्ति को ही परिवार भावना कहते हैं। इसलिये कुटुंब भावना इस शब्द का प्रयोग ही हम आगे करेंगे। 
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# सामान्य ज्ञान एक पीढी से अगली पीढी तक संक्रमित करने की व्यवस्था। 
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# अपने परिवार की विशेषताएं जैसे ज्ञान, अनुभव और व्यावसायिक एवं अन्य कुशलताएँ एक पीढी से दुसरी पीढी को विरासत के रूप में संक्रमित करने की व्यवस्था। 
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# कुटुंब प्रमुख कुटुंब के सब के हित में जिये ऐसी मानसिकता । और केवल जिये इतना ही नही तो ऐसा कुटुंब के सभी घटकों को भी लगे यह महत्वपूर्ण बात है। तब सब उस का कहा मानते हैं। इससे आज्ञाकारिता के संस्कार होते हैं। 
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# जो कमाएगा वह खिलाएगा और जो जन्मा है वह खाएगा। इस तरह से चराचर के भरण पोषण की जिम्मेदारी जब गृहस्थ और गृहिणी उठाने का संकल्प करते हैं तब समाज जीवन सुचारू रूप से चलता है। 
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# अपनी क्षमता के अनुसार पारिवारिक जिम्मेदारी उठाकर कुटुंब की समृद्धि बढाने में अधिकतम  योगदान देना और परिवार के साझे संचय में से न्यूनतम (बचत की आदत) का उपयोग करना। इसी व्यवहार के कारण देश समृद्ध था। 
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# बडों का आदर करना, छोटों को प्यार देना, अतिथि का सत्कार करना, बराबरी के लोगों के साथ मित्रता, स्त्री का सम्मान करना, कुटुंब के हित में ही अपना हित देखना, अपनों के लिये किये त्याग के आनंद की अनूभूति, घर के नौकर-चाकर, भिखारी, मधुकरी, अतिथि, याचक, भिक्षा माँगनेवाले, पशु, पक्षी, पौधे आदि कुटुंब के घटक ही हैं ऐसा उन सब से व्यवहार करना आदि बातें बच्चे कुटुंब में बढते बढते अपने आप सीख जाते थे । 
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# मृत्यू का डर बताकर बीमे के दलाल कहते हैं की ‘बीमा(इंश्युअरन्स्) का कोई विकल्प नहीं है’। किन्तु बडे कुटुंब के किसी भी घटक को आयुर्बीमा की कोई आवश्यकता नहीं होती। आपात स्थिति में पूरा परिवार उस घटक का केवल आर्थिक ही नही तो भावनात्मक बोझ और आजीवन रक्षण का बोझ भी सहज ही उठा लेता है । सीमित आर्थिक रक्षण को छोडकर भावनात्मक, शारीरिक, सामाजिक आदि हर प्रकार की सुरक्षा के लिये आयुर्बीमा में कोई विकल्प नहीं है । 
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# अनाथालय, विधवाश्रम, वृध्दाश्रम, अपंगाश्रम, बडे अस्पताल आदि की आवश्यकता वास्तव में समाज जीवन में आई विकृतियों के कारण है। इन सब समस्याओं की जड तो अभारतीय जीवनशैली में है । टूटते संयुक्त कुटुंबों में है । 
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# आर्थिक दृष्टि से देखें तो विभक्त कुटुंब को उत्पादक अधिक आसानी से लूट सकते हैं। विज्ञापनबाजी का प्रभाव जितना विभक्त कुटुंबपर होता है संयुक्त कुटुंब पर नहीं होता है । 
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# एकत्रित कुटुंब एक शक्ति केंद्र होता है । अपने हर सदस्य को शक्ति और आत्मविश्वास देता है । विभक्त परिवार से एकत्रित परिवार के सदस्य का आत्मविश्वास बहुत अधिक होता है । पूरे परिवार की शक्ति मेरे पीछे खडी है ऐसी भावना के कारण एकत्रित परिवार के सदस्य को यह आत्मविश्वास प्राप्त होता है । इस संदर्भ में मजेदार और मार्मिक ऐसी दो पंक्तियाँ हिंदीभाषी प्रदेश में सुनने में आती हैं । 
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## जाके घर में चार लाठी वो चौधरी जा के घर में पाँच वो पंच । और जाके घर में छ: वो ना चौधरी गणे ना पंच ॥ अर्थात् जिस के एकत्रित परिवार में चार लाठी यानी चार मर्द हों वह चौधरी याने लोगों का मुखिया बन जाता है। जिस के घर में पाँच मर्द हों वह गाँव का पंच बन सकता है। और जिस के घर में छ: मर्द हों तो गाँव का चौधरी और गाँव का पंच भी उस से सलाह लेने आता है। 
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# एकत्रित परिवार का प्रतिव्यक्ति खर्च भी विभक्त परिवार से बहुत कम होता है। सामान्यत: ४ सदस्य संख्या वाले दो विभक्त परिवारों का मिलाकर खर्च ८ सदस्यों के एकत्रित परिवार के खर्चे से डेढ़ गुना अधिक होता है । प्राकृतिक संसाधनों का अनावश्यक उपयोग नहीं होता। 
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# वर्तमान भारत की तुलना यदि ५० वर्ष पूर्व के भारत से करें तो यह समझ में आता है कि ५० वर्ष पूर्व कुटुंब बडे और संपन्न थे। उद्योग छोटे थे। उद्योगपति अमीर नहीं थे। किन्तु आज चन्द उद्योग बहुत विशाल और चन्द उद्योग अमीर बन बैठे हैं। लगभग सभी कुटुंब छोटे और उद्योगपतियों की तुलना में कंगाल या गरीब बन गये हैं । देश की आधी से अधिक जनसंख्या गरीबी की रेखा के नीचे धकेली गई है। 
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# गो-आधारित जीवन के लिये संयुक्त परिवार होना आवश्यक होता है। गोशालाएँ तो गाय को बचाने का एक बहुत ही दुर्बल विकल्प है। संयुक्त कुटुंब ही वास्तव में गाय को बचाने का एक प्रबल माध्यम है। 
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# वर्तमान शिक्षा और जीवनशैलीने समाज को पगढीला बना दिया है। पगढीलेपन के कारण समाज खानाबदोष या घुमंतु हो जाता है। ऐसे समाज में दैनंदिन आवश्यकताओं की पूर्ति में ही सारा समय व्यतीत हो जाने से श्रेष्ठ संस्कृति टिक नहीं पाती। प्रत्येक परिस्थिति में संयुक्त कुटुंब का आग्रह पगढीलेपन की और संस्कृति के पतन की समस्या का उत्तर है। 
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# प्राकृतिक संसाधनों का अनावश्यक उपयोग नहीं होता यह संयुक्त कुटुंब का एक और लाभ है। 
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# अपराधीकरण, युवावस्था में आनेवाली स्वाभाविक उच्छ्रुंखलताओं को संयुक्त परिवार नियंत्रित करता है। 
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# मकान, वाहन जैसे संसाधनों के उत्तमतम उपयोग की संभावनाएँ। 
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# अन्न, पहनने के वस्त्र, पढाई की किताबें आदि का अधिकतम उपयोग 
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# हानिकारक तंत्रज्ञान पर रोक की संभावनाएँ बढ जातीं हैं। 
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# जनसंख्या, उत्पादन, संपत्ति, प्रदूषण आदि का विकेंद्रीकरण 
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# परिवार की स्त्रियों को बाहर नौकर बनकर अपना सम्मान और शील खतरे में डालने की आवश्यकता नहीं रहती। घर में या कौटुंबिक व्यवसाय में वे अपना पूरा योगदान दे सकतीं हैं। 
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# अपराधीकरण में कमी के कारण सुरक्षा, न्याय, शिक्षा व्यवस्थाओं का दबाव कम होता है। 
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# एकात्म कुटुम्बों के एकत्र आने से एकात्म ग्राम बनता है। ऐसे ग्राम ही वसुधैव कुटुंबकम् की नींव होते हैं। 
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# शारिरिक दृष्टि से दुर्बल होने के कारण समाज में बढते अपराधीकरण की सब से अधिक हानि स्त्री को ही होती है। इस दृष्टि से स्त्रियों की सुरक्षा की अधिक आश्वस्ति संयुक्त कुटुंब व्यवस्था में मिलती है। 
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# समाज में कुछ काम ऐसे होते हैं जिन का कोई मूल्य नहीं ऑंका जा सकता। ऐसे काम करनेवाले लोगों की भी समाज में नितांत आवश्यकता होती है। जैसे ज्ञानी, शोधकर्ता, शिक्षक, वैज्ञानिक, कलाकार, समाजसेवक/पंच/सरपंच, सुरक्षा रक्षक, पहलवान, वैद्य आदि। आवश्यकतानुसार इन लोगों के चरितार्थ की जिम्मेदारी भी संयुक्त कुटुंब सहज ही निभा सकते हैं। 
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# छोटे छोटे कुटुम्बों के कारण बाजार से हर वस्तू प्लॅस्टिक की थैली में लाई जाती है। इससे विशाल मात्रा में प्लॅस्टिक का कचरा निर्माण होता है। संयुक्त कुटुंब में ऐसा नहीं होता। 
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# संयुक्त कुटुंबों में ही कौटुंबिक उद्योग फलते फूलते हैं। कौटुंबिक उद्योगों से निम्न लाभ होते हैं: 
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## प्रत्येक व्यक्ति के लिये रोजगार की आश्वस्ति 
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## स्थानिक प्राकृतिक संसाधनों का अधिकतम उपयोग 
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## पारिवारिक उद्योग में सभी मालिक होते हैं। इसलिये समाज भी मालिकों की मानसिकता का बनता है। 
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## पीढी दर पीढी कुशलताओं का विकास होता है। 
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## पीढी दर पीढी कच्चे माल की बचत होती है। 
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## पीढी दर पीढी समय की बचत होती है। 
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## उत्पादित वस्तू के साथ परिवार का गौरव (ब्रँड) जुडता है। जो उत्पादन की गुणवत्ता की आश्वस्ति होता है। 
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## ग्राहक की विशेष माँग के या पसंद के अनुसार उत्पादन होता है। 
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## परिवार के सदस्यों के कौशल, उपलब्ध समय आदि के अनुसार उत्पादन का समायोजन होता है। 
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## सातों दिन २४ घंटे उत्पादन संभव होता है। अप्राकृतिक साप्ताहिक छुट्टि की आवश्यकता नहीं रहती। 
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## आवश्यकतानुसार परिवार के स्त्री-पुरूष, आबालवृध्द ऐसे प्रत्येक सदस्य का उद्योग में योगदान संभव होता है। 
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## महंगे तकनीकी या व्यवस्थापन की शिक्षा के विद्यालयों महाविद्यालयों की आवश्यकता न्यूनतम होती है। 
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## तंत्रज्ञान, उत्पादन, व्यवस्थापन आदि सीखने के लिये जवानी के वर्षों का अलग समय निकालने की आवश्यकता नहीं होती है। यह बचा हुआ समय वह ‘कुटुंब की शिक्षा’ और ‘कुटुंब में शिक्षा’ में लगा सकता है। 
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## पारिवारिक उद्योगों को समाज अपने हित में समायोजित और नियंत्रित करता है। जब कि वर्तमान विशालकाय उद्योग समाज के सामान्य जन की पसंद को, आवश्यकताओं को अपने हित के लिये प्रभावित करते हैं। झूठे अनैतिक, आक्रमक विज्ञापनों के माध्यम से वर्तमान के बडे उद्योग विभक्त कुटुंबों का शोषण करते हैं। 
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# बच्चा जब पैदा होता है उसे केवल अधिकार होते हैं। कोई कर्तव्य नहीं होते। लेकिन जब वह परिवार का मुखिया हो जाता है तो उसके केवल कर्तव्य रह जाते हैं। कोई अधिकार नहीं रहते। सामान्यत: मनुष्य स्वार्थी होता है। उसे अधिकारों की रक्षा की समझ तो जन्म से ही होती है। इस केवल अपने अधिकारों की समझ के स्थानपर अपने कर्तव्य और अन्यों के अधिकार की समझ निर्माण करने से समाज सुसंस्कृत और सुखी बनता है। 
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# संयुक्त कुटुंबवाले समाज में न्ययिक मामले बहुत कम हो जाते हैं। लगभग सभी कौटुंबिक समस्याओं का हल संयुक्त कुटुंब अपनी परिवार पंचायत में निकाल लेते हैं। फॅमिली व्यवस्था में तो सीधे न्यायालय के ही द्वार खटखटाने पडते हैं।    
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# कौटुंबिक उद्योगोंवाले समाज में विविधता के साथ आर्थिक समानता होती है। अर्थ का अभाव या प्रभाव नहीं होता।
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     संक्षेप में एक अच्छा संयुक्त कुटुंब यह समाज का श्रेष्ठ लघुरूप ही होता है। संयुक्त परिवारों के कारण समाज सुखी और      समृद्ध भी बनता है। जैसा वातावरण और जैसी व्यवस्थाएँ एकात्म परिवार के लिये आवश्यक होती हैं वैसा वातावरण और वैसी ही व्यवस्थाएँ समाज के लिये भी आवश्यक होतीं हैं।  
 
२. ग्रामकुल
 
२. ग्रामकुल
 
अपने पूर्वजों ने समाज व्यवस्था की दृष्टि से केवल परिवार व्यवस्था का ही निर्माण किया था एप्रसा नहीं । श्रेष्ठ एप्रसे गुरुकुलों एवम् ग्रामकुलों की रचना भी की थी। गांधीजी के अनुयायी धर्मपालजी ने लिखे १८वीं सदी के भारत के गाँवों की जानकारी से यह पता चलता है की भारतीय गाँव भी कौटुंबिक भावना से बंधे हुवे थे। परिवार की ही तरह गाँवों की भी व्यवस्थाएँ बनीं हुई थीं। जैसे परिवार के लोग एक दूसरे से आत्मीयता के धागे से बंधे होते हैं उसी प्रकार से गाँव के लोग भी आत्मीयता के धागे से बंधे हुवे थे। ‘इस गाँव में हमारे गाँव की बिटिया ब्याही है, मैं यहाँ पानी नहीं पी सकता’  ऐसा कहनेवाले कुछ लोग तो आज भी हिंदी भाषी गाँवों मे मिल जाते हैं। परिवार में जैसे पैसे के लेनदेन से व्यवहार नहीं होते उसी प्रकार गाँव में भी नहीं होते थे। गाँव के प्रत्येक मानव, जीव, जन्तु के निर्वाह की व्यवस्था बिठाई हुई थी। और निर्वाह भी सम्मान के साथ होता था। परिवार का कोई घटक परिवार को छोड अन्यत्र जाता है तो जैसे कुटुंब के सभी लोगों को दुख होता है। उसी तरह कोई गाँव छोडकर जाता था तो गाँव दुखी होता था। वह गाँव छोडकर नहीं जाए इसलिये मिन्नतें करता था। उस के कष्ट दूर करने की व्यवस्था करता था। लेकिन ये बातें अंग्रेजी शिक्षा के कारण हमारे भी समझ से परे हो गयीं हैं।  
 
अपने पूर्वजों ने समाज व्यवस्था की दृष्टि से केवल परिवार व्यवस्था का ही निर्माण किया था एप्रसा नहीं । श्रेष्ठ एप्रसे गुरुकुलों एवम् ग्रामकुलों की रचना भी की थी। गांधीजी के अनुयायी धर्मपालजी ने लिखे १८वीं सदी के भारत के गाँवों की जानकारी से यह पता चलता है की भारतीय गाँव भी कौटुंबिक भावना से बंधे हुवे थे। परिवार की ही तरह गाँवों की भी व्यवस्थाएँ बनीं हुई थीं। जैसे परिवार के लोग एक दूसरे से आत्मीयता के धागे से बंधे होते हैं उसी प्रकार से गाँव के लोग भी आत्मीयता के धागे से बंधे हुवे थे। ‘इस गाँव में हमारे गाँव की बिटिया ब्याही है, मैं यहाँ पानी नहीं पी सकता’  ऐसा कहनेवाले कुछ लोग तो आज भी हिंदी भाषी गाँवों मे मिल जाते हैं। परिवार में जैसे पैसे के लेनदेन से व्यवहार नहीं होते उसी प्रकार गाँव में भी नहीं होते थे। गाँव के प्रत्येक मानव, जीव, जन्तु के निर्वाह की व्यवस्था बिठाई हुई थी। और निर्वाह भी सम्मान के साथ होता था। परिवार का कोई घटक परिवार को छोड अन्यत्र जाता है तो जैसे कुटुंब के सभी लोगों को दुख होता है। उसी तरह कोई गाँव छोडकर जाता था तो गाँव दुखी होता था। वह गाँव छोडकर नहीं जाए इसलिये मिन्नतें करता था। उस के कष्ट दूर करने की व्यवस्था करता था। लेकिन ये बातें अंग्रेजी शिक्षा के कारण हमारे भी समझ से परे हो गयीं हैं।  
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गाँव के तालाब होते थे। इन तालाबों का रखरखाव गाँव के लोग ही करते थे। अध्ययन के लिये पूरा विश्व ही गाँव माना जाता था। लेकिन रहने के लिये तो गाँव ही विश्व माना जाता था। काम के लिये सुबह निकलकर शामतक घर आ सके इतनी गाँव  की सीमा होती थी। इसीलिये गोचर भूमि, जंगल, तालाब ये गाँव के हिस्से होते थे। दुनियाँभर की श्रेष्ठतम आवश्यक बातें गाँव में ही बनाने के प्रयास होते थे। इन प्रयासों से गाँव स्वावलंबी बनते थे। गाँव के लोग रक्षण, पोषण और शिक्षण की अपनी  व्यवस्थाएँ निर्माण करते थे और चलाते भी थे। यही बातें तो किसी भी श्रेष्ठ समाज से अपेक्षित हैं। सब से महत्वपूर्ण बात तो यह हुवा करती थी की गाँव के हित अहित के सभी निर्णय गाँव के लोग सर्व सहमति से करते थे। यह तो ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ की प्रत्यक्ष व्यवस्था ही थी। ग्रामकुल के विषय में अलग अध्याय में हम अधिक जानने का प्रयास करेंगे|
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गाँव के तालाब होते थे। इन तालाबों का रखरखाव गाँव के लोग ही करते थे। अध्ययन के लिये पूरा विश्व ही गाँव माना जाता था। लेकिन रहने के लिये तो गाँव ही विश्व माना जाता था। काम के लिये सुबह निकलकर शामतक घर आ सके इतनी गाँव  की सीमा होती थी। इसीलिये गोचर भूमि, जंगल, तालाब ये गाँव के हिस्से होते थे। दुनियाँभर की श्रेष्ठतम आवश्यक बातें गाँव में ही बनाने के प्रयास होते थे। इन प्रयासों से गाँव स्वावलंबी बनते थे। गाँव के लोग रक्षण, पोषण और शिक्षण की अपनी  व्यवस्थाएँ निर्माण करते थे और चलाते भी थे। यही बातें तो किसी भी श्रेष्ठ समाज से अपेक्षित हैं। सब से महत्वपूर्ण बात तो यह हुआ करती थी की गाँव के हित अहित के सभी निर्णय गाँव के लोग सर्व सहमति से करते थे। यह तो ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ की प्रत्यक्ष व्यवस्था ही थी। ग्रामकुल के विषय में अलग अध्याय में हम अधिक जानने का प्रयास करेंगे|
 
3 वसुधैव कुटुंबकम् : अयं निज: परोवेत्ति गणनां लघुचेतसाम्
 
3 वसुधैव कुटुंबकम् : अयं निज: परोवेत्ति गणनां लघुचेतसाम्
 
उदार चरितानां तु वसुधैव कुटु्म्बकम्        
 
उदार चरितानां तु वसुधैव कुटु्म्बकम्        
भावार्थ : यह मेरा यह पराया यह तो संकुचित मन और भावना के लक्षण हैं । जिन के हृदय बडे होते हैं, मन विशाल होते हैं उन के लिये तो सारा विश्व ही एक कुटुंब होता है। ऐसा विशाल मन और हृदय रखनेवाला मानव समाज बनाने की आकांक्षा और प्रयास हमारे पूर्वजों ने किये । वास्तव में एकत्रित कुटुंब जिस भावना और व्यवस्थाओं के आधारपर सुव्यवस्थित ढँग से चलता है उसी प्रकार पूरा विश्व भी चल सकता है। यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे। इस दृष्टि से दस दस हजार से अधिक संख्या की आबादी वाले गुरुकुल विस्तारित कुटुंब ही हुवा करते थे। इसीलिये वे कुल कहलाए जाते थे। इसी तरह ग्राम भी ग्रामकुल हुवा करते थे। गुरुकुल, ग्रामकुल की तरह ही राष्ट्र(कुल) में भी यही परिवार भावना ही परस्पर संबंधों का आधार हुआ करती थी।
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भावार्थ : यह मेरा यह पराया यह तो संकुचित मन और भावना के लक्षण हैं । जिन के हृदय बडे होते हैं, मन विशाल होते हैं उन के लिये तो सारा विश्व ही एक कुटुंब होता है। ऐसा विशाल मन और हृदय रखनेवाला मानव समाज बनाने की आकांक्षा और प्रयास हमारे पूर्वजों ने किये । वास्तव में एकत्रित कुटुंब जिस भावना और व्यवस्थाओं के आधारपर सुव्यवस्थित ढँग से चलता है उसी प्रकार पूरा विश्व भी चल सकता है। यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे। इस दृष्टि से दस दस हजार से अधिक संख्या की आबादी वाले गुरुकुल विस्तारित कुटुंब ही हुआ करते थे। इसीलिये वे कुल कहलाए जाते थे। इसी तरह ग्राम भी ग्रामकुल हुआ करते थे। गुरुकुल, ग्रामकुल की तरह ही राष्ट्र(कुल) में भी यही परिवार भावना ही परस्पर संबंधों का आधार हुआ करती थी।
 
यह विश्वास और एप्रसा करने की सामर्थ्य हमारे पूर्वजों में थी । यह बात आज भी असंभव नहीं है । वैसी दुर्दमनीय आकांक्षा और तप-सामर्थ्य हमें जगाना होगा ।
 
यह विश्वास और एप्रसा करने की सामर्थ्य हमारे पूर्वजों में थी । यह बात आज भी असंभव नहीं है । वैसी दुर्दमनीय आकांक्षा और तप-सामर्थ्य हमें जगाना होगा ।
 
वैश्वीकरण की पाश्चात्य घोषणाएँ तो बस दिखावा और छलावा मात्र हैं। जिन समाजों में पति-पत्नि एक छत के नीचे उम्र गुजार नहीं सकते उन्हे हम भारतीयों को वैश्वीकरण सिखाने का कोई अधिकार नहीं है । वसुधैव कुटुंबकम् कैसे होगा यह हमें भी अपने पूर्वजों से फिर से सीखना चाहिये और अभारतीयों को भी सिखाना चाहिये ।
 
वैश्वीकरण की पाश्चात्य घोषणाएँ तो बस दिखावा और छलावा मात्र हैं। जिन समाजों में पति-पत्नि एक छत के नीचे उम्र गुजार नहीं सकते उन्हे हम भारतीयों को वैश्वीकरण सिखाने का कोई अधिकार नहीं है । वसुधैव कुटुंबकम् कैसे होगा यह हमें भी अपने पूर्वजों से फिर से सीखना चाहिये और अभारतीयों को भी सिखाना चाहिये ।
Line 98: Line 88:  
- कुटुंब की विरासत (परंपराएँ, कौशल, व्यावसायिक कौशल, कुलधर्म, कुलाचार आदि) को अधिक श्रेष्ठ बनाकर अगली पीढि को सौंपना।
 
- कुटुंब की विरासत (परंपराएँ, कौशल, व्यावसायिक कौशल, कुलधर्म, कुलाचार आदि) को अधिक श्रेष्ठ बनाकर अगली पीढि को सौंपना।
 
- अपने व्यवहार से समाज में कुटुंब की प्रतिष्ठा बढाना।
 
- अपने व्यवहार से समाज में कुटुंब की प्रतिष्ठा बढाना।
- कुटुंब भावना का दायरा परिवार के संबंध में आनेवाले अतिथी, विक्रेता, याचक, पशू, पक्षी, पौधे, धरतीमाता, नदीमाता आदि सभी घटकोंतक बढाना।
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- कुटुंब भावना का दायरा परिवार के संबंध में आनेवाले अतिथी, विक्रेता, याचक, पशु, पक्षी, पौधे, धरतीमाता, नदीमाता आदि सभी घटकोंतक बढाना।
 
- विवाह, अधिक वेतन की या अच्छी नौकरी या व्यवसाय, आपसी झगडे आदि किसी भी हालत में कुटुंब से अलग नहीं होना।
 
- विवाह, अधिक वेतन की या अच्छी नौकरी या व्यवसाय, आपसी झगडे आदि किसी भी हालत में कुटुंब से अलग नहीं होना।
 
- कुटुंब के सभी सदस्यों के लिये अपनेपन की भावना रखना। अच्छा है या बुरा है, जैसा भी है मेरा है। अच्छा है तो उसे और अच्छा मैं बनाऊँगा। और बुरा है तो उसे सुधारने की जिम्मेदारी मेरी है ऐसा मानना।        
 
- कुटुंब के सभी सदस्यों के लिये अपनेपन की भावना रखना। अच्छा है या बुरा है, जैसा भी है मेरा है। अच्छा है तो उसे और अच्छा मैं बनाऊँगा। और बुरा है तो उसे सुधारने की जिम्मेदारी मेरी है ऐसा मानना।        
Line 104: Line 94:  
नीचे दी गई ९४ सामाजिक समस्याओं की सूचि में से लगभग ६६ समस्याओं का हल संयुक्त परिवारों की प्रतिष्ठापना में है। वैसे तो संयुक्त परिवार के साथ में अन्य भी बातें आवश्यक होंगी। लेकिन समस्या के हल में संयुक्त परिवार की प्रधानता होगी।  
 
नीचे दी गई ९४ सामाजिक समस्याओं की सूचि में से लगभग ६६ समस्याओं का हल संयुक्त परिवारों की प्रतिष्ठापना में है। वैसे तो संयुक्त परिवार के साथ में अन्य भी बातें आवश्यक होंगी। लेकिन समस्या के हल में संयुक्त परिवार की प्रधानता होगी।  
 
समस्याओं की सूचि
 
समस्याओं की सूचि
१ रासायनिक प्रदूषण  २ पगढ़ीलापन  ३ टूटते परिवार  ४ गोवंश नाश  ५ टूटते कौटुंबिक उद्योग  ६ गलाकाट स्पर्धा          ७ अधिकार रक्षा के लिये संगठन  ८ जातिव्यवस्था नाश की हानियाँ  ९ अयुक्तिसंगत शासन व्यवस्था  १० संपर्क भाषा      ११ लंबित न्याय  १२ अक्षम न्याय व्यवस्था  १३ नौकरों का समाज  १४ जन, धन, उत्पादन और सत्ता का केंद्रीकरण      १५ मँहंगाई  १६ परिवार भी बाजार भावना से चलना  १७ अर्थ का अभाव और प्रभाव  १८ किसानों की आत्महत्याएँ        १९ हरित गृह परिणाम (बढता वैश्विक तापमान)  २० आरक्षण की चौमुखी बढती माँग  २१ विपरीत शिक्षा २२ असहिष्णू मजहबोंद्वारा आरक्षण की माँग  २३ संस्कारहीनता  २४ स्वैराचार  २५ व्यक्तिकेंद्रिता(स्वार्थ)  २६ जातिभेद    २७ शिशू-संगोपन गृह  २८ अनाथाश्रम  २९ विधवाश्रम  ३० अपंगाश्रम      ३१ बाल सुधार गृह  ३२ वृध्दाश्रम  ३३ श्रध्दाहीनता    ३४  अपराधीकरण  ३५ व्यसनाधीनता  ३६ असामाजिकीकरण  ३७ आत्मसंभ्रम    ३८ विदेशियों का अंधानुकरण        ३९  आतंकवाद  ४० संपर्क भाषा  ४१ प्रज्ञा पलायन  ४२ प्रादेशिक अस्मिताएँ  ४३ नदी-जल विवाद    ४४ विदेशियों की घूसखोरी  ४५ विदेशी शक्तियों का व्यापक समर्थन  ४६ राष्ट्रीय हीनताबोध ४७ विदेशी शक्तियों के भौगोलिक प्रभाव क्षेत्र निर्माण  ४८ वैश्विक शक्तियों के दबाव (वैश्विकरण)  ४९ अस्वच्छता  ५० स्त्रियोंपर अत्याचार  ५१ अयोग्यों को अधिकार        ५२ सांस्कृतिक प्रदूषण  ५४ भ्रष्टाचार (धर्म, शिक्षा, शासन ऐसे सभी क्षेत्रों में)  ५५ लव्ह जिहाद ५६ असहिष्णू मजहबों को विशेष अधिकार  ५७ सामाजिक विद्वेष ५८ जातियों में वैमनस्य ५९ सृष्टि का शोषण  ६० वैचारिक प्रदूषण  ६१ दूरदर्शन का दुरूपयोग  ६२ आंतरजाल का दुरूपयोग  ६३ मजहबी मूलतत्त्ववाद ६४ तालाबीकरण के स्थानपर बडे बांध/खेत तालाब  ६५ हानिकारक तंत्रज्ञानों की मुक्त उपलब्धता  ६६ बेरोजगारी  ६७ उपभोक्तावाद  ६८ बालमृत्यू  ६९ कुपोषण  ७० स्त्रियों का पुरूषीकरण / बढती नपुंसकता    ७१ भुखमरी  ७२ भ्रूणहत्या  ७३ स्त्री-भ्रूणहत्या  ७४ तनाव    ७५ जिद्दी बच्चे        ७६ घटता पौरूष - घटता स्त्रीत्व    ७७ बढती घरेलू हिंसा  ७८ झूठे विज्ञापन ७९ घटता संवाद  ८० देशी भाषाओं का नाश  ८१ बालक-युवाओं की आत्महत्याएँ  ८२ बढते दुर्धर रोग  ८३ असंगठित सज्जन  ८४ उपभोक्तावाद  ८५ बढती अश्लीलता  ८६ अणू, प्लॅस्टिक जैसे बढते लाजबाब कचरे   ८७ बढती शहरी आबादी-उजडते गाँव  ८८ तंत्रज्ञानों का दुरूपयोग  ८९ बदले आदर्श - अभिनेता, क्रिकेट खिलाडी           ९० लोकशिक्षा का अभाव  ९१ बूढा समाज  ९२ राष्ट्र की घटती भौगोलिक सीमाएँ  ९३ भ्रूणहत्या को कानूनी समर्थन  ९४ जीवन की असहनीय गति
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१ रासायनिक प्रदूषण  २ पगढ़ीलापन  ३ टूटते परिवार  ४ गोवंश नाश  ५ टूटते कौटुंबिक उद्योग  ६ गलाकाट स्पर्धा          ७ अधिकार रक्षा के लिये संगठन  ८ जातिव्यवस्था नाश की हानियाँ  ९ अयुक्तिसंगत शासन व्यवस्था  १० संपर्क भाषा      ११ लंबित न्याय  १२ अक्षम न्याय व्यवस्था  १३ नौकरों का समाज  १४ जन, धन, उत्पादन और सत्ता का केंद्रीकरण      १५ मँहंगाई  १६ परिवार भी बाजार भावना से चलना  १७ अर्थ का अभाव और प्रभाव  १८ किसानों की आत्महत्याएँ        १९ हरित गृह परिणाम (बढता वैश्विक तापमान)  २० आरक्षण की चौमुखी बढती माँग  २१ विपरीत शिक्षा २२ असहिष्णू मजहबोंद्वारा आरक्षण की माँग  २३ संस्कारहीनता  २४ स्वैराचार  २५ व्यक्तिकेंद्रिता(स्वार्थ)  २६ जातिभेद    २७ शिशू-संगोपन गृह  २८ अनाथाश्रम  २९ विधवाश्रम  ३० अपंगाश्रम      ३१ बाल सुधार गृह  ३२ वृध्दाश्रम  ३३ श्रध्दाहीनता    ३४  अपराधीकरण  ३५ व्यसनाधीनता  ३६ असामाजिकीकरण  ३७ आत्मसंभ्रम    ३८ विदेशियों का अंधानुकरण        ३९  आतंकवाद  ४० संपर्क भाषा  ४१ प्रज्ञा पलायन  ४२ प्रादेशिक अस्मिताएँ  ४३ नदी-जल विवाद    ४४ विदेशियों की घूसखोरी  ४५ विदेशी शक्तियों का व्यापक समर्थन  ४६ राष्ट्रीय हीनताबोध ४७ विदेशी शक्तियों के भौगोलिक प्रभाव क्षेत्र निर्माण  ४८ वैश्विक शक्तियों के दबाव (वैश्विकरण)  ४९ अस्वच्छता  ५० स्त्रियोंपर अत्याचार  ५१ अयोग्यों को अधिकार        ५२ सांस्कृतिक प्रदूषण  ५४ भ्रष्टाचार (धर्म, शिक्षा, शासन ऐसे सभी क्षेत्रों में)  ५५ लव्ह जिहाद ५६ असहिष्णू मजहबों को विशेष अधिकार  ५७ सामाजिक विद्वेष ५८ जातियों में वैमनस्य ५९ सृष्टि का शोषण  ६० वैचारिक प्रदूषण  ६१ दूरदर्शन का दुरूपयोग  ६२ आंतरजाल का दुरूपयोग  ६३ मजहबी मूलतत्ववाद ६४ तालाबीकरण के स्थानपर बडे बांध/खेत तालाब  ६५ हानिकारक तंत्रज्ञानों की मुक्त उपलब्धता  ६६ बेरोजगारी  ६७ उपभोक्तावाद  ६८ बालमृत्यू  ६९ कुपोषण  ७० स्त्रियों का पुरूषीकरण / बढती नपुंसकता    ७१ भुखमरी  ७२ भ्रूणहत्या  ७३ स्त्री-भ्रूणहत्या  ७४ तनाव    ७५ जिद्दी बच्चे        ७६ घटता पौरूष - घटता स्त्रीत्व    ७७ बढती घरेलू हिंसा  ७८ झूठे विज्ञापन ७९ घटता संवाद  ८० देशी भाषाओं का नाश  ८१ बालक-युवाओं की आत्महत्याएँ  ८२ बढते दुर्धर रोग  ८३ असंगठित सज्जन  ८४ उपभोक्तावाद  ८५ बढती अश्लीलता  ८६ अणू, प्लॅस्टिक जैसे बढते लाजबाब कचरे   ८७ बढती शहरी आबादी-उजडते गाँव  ८८ तंत्रज्ञानों का दुरूपयोग  ८९ बदले आदर्श - अभिनेता, क्रिकेट खिलाडी           ९० लोकशिक्षा का अभाव  ९१ बूढा समाज  ९२ राष्ट्र की घटती भौगोलिक सीमाएँ  ९३ भ्रूणहत्या को कानूनी समर्थन  ९४ जीवन की असहनीय गति
 
संयुक्त कुटुंबों से हल होनेवाली समस्याओं की सूचि  
 
संयुक्त कुटुंबों से हल होनेवाली समस्याओं की सूचि  
 
१ पगढ़ीलापन  २ उपभोक्तावाद  ३ गोवंश नाश  ४ टूटते पारिवारिक उद्योग  ५ गलाकाट स्पर्धा  ६ अधिकार रक्षा के लिये संगठन  ७ जातिव्यवस्था नाश की हानियाँ  ८ संपर्क भाषा  ९ नौकरों का समाज  १० जन, धन, उत्पादन और सत्ता का केंद्रीकरण  ११ मँहंगाई  १२ परिवार भी बाजार भावना से चलना  १३ किसानों की आत्महत्याएँ  १४ आरक्षण की चौमुखी बढती माँग  १५ संस्कारहीनता  १६ स्वैराचार  १७ व्यक्तिकेंद्रिता(स्वार्थ)  १८ जातिभेद  १९ शिशू-संगोपन गृह  २० अनाथाश्रम    २१ विधवाश्रम  २२ अपंगाश्रम  २३ बाल सुधार गृह  २४ वृध्दाश्रम  २५ श्रध्दाहीनता  २६ अपराधीकरण  २७ व्यसनाधीनता    २९ असामाजिकीकरण  ३० प्रज्ञा पलायन  ३१ प्रादेशिक अस्मिताएँ  ३२ नदी-जल विवाद  ३३ अस्वच्छता ३४ स्त्रियोंपर अत्याचार  ३५ सांस्कृतिक प्रदूषण  ३६ लव्ह जिहाद  ३७ सामाजिक विद्वेष  ३८ जातियों में वैमनस्य  ३९ जिद्दी बच्चे      ४०  वैचारिक प्रदूषण  ४१ दूरदर्शन का दुरूपयोग  ४२ आंतरजाल का दुरूपयोग  ४३ बालमृत्यू  ४४ कुपोषण  ४५ भुखमरी  ४६ सृष्टि का शोषण  ४४ हानिकारक तंत्रज्ञानों की मुक्त उपलब्धता  ४५ बेरोजगारी  ४९ भ्रूणहत्या ५० स्त्री-भ्रूणहत्या  ५१  तनाव  ५२ उपभोक्तावाद  ५३ घटता पौरूष - घटता स्त्रीत्व  ५४ घटता संवाद  ५५ बढती घरेलू हिंसा  ५६ बालक-युवाओं की आत्महत्याएँ  ५७ बढते दुर्धर रोग  ५८ ग्राम के तालाबीकरण के स्थानपर बडे बांध/खेत तालाब  ५९ बढती अश्लीलता    ६० अणू, प्लॅस्टिक जैसे बढते लाजबाब कचरे  ६१ बढती शहरी आबादी-उजडते गाँव  ६२ तंत्रज्ञानों का दुरूपयोग  ६३ बदले आदर्श - अभिनेता, क्रिकेट खिलाडी  ६४ लोकशिक्षा का अभाव  ६५ बूढा समाज  ६६ जीवन की असहनीय गति
 
१ पगढ़ीलापन  २ उपभोक्तावाद  ३ गोवंश नाश  ४ टूटते पारिवारिक उद्योग  ५ गलाकाट स्पर्धा  ६ अधिकार रक्षा के लिये संगठन  ७ जातिव्यवस्था नाश की हानियाँ  ८ संपर्क भाषा  ९ नौकरों का समाज  १० जन, धन, उत्पादन और सत्ता का केंद्रीकरण  ११ मँहंगाई  १२ परिवार भी बाजार भावना से चलना  १३ किसानों की आत्महत्याएँ  १४ आरक्षण की चौमुखी बढती माँग  १५ संस्कारहीनता  १६ स्वैराचार  १७ व्यक्तिकेंद्रिता(स्वार्थ)  १८ जातिभेद  १९ शिशू-संगोपन गृह  २० अनाथाश्रम    २१ विधवाश्रम  २२ अपंगाश्रम  २३ बाल सुधार गृह  २४ वृध्दाश्रम  २५ श्रध्दाहीनता  २६ अपराधीकरण  २७ व्यसनाधीनता    २९ असामाजिकीकरण  ३० प्रज्ञा पलायन  ३१ प्रादेशिक अस्मिताएँ  ३२ नदी-जल विवाद  ३३ अस्वच्छता ३४ स्त्रियोंपर अत्याचार  ३५ सांस्कृतिक प्रदूषण  ३६ लव्ह जिहाद  ३७ सामाजिक विद्वेष  ३८ जातियों में वैमनस्य  ३९ जिद्दी बच्चे      ४०  वैचारिक प्रदूषण  ४१ दूरदर्शन का दुरूपयोग  ४२ आंतरजाल का दुरूपयोग  ४३ बालमृत्यू  ४४ कुपोषण  ४५ भुखमरी  ४६ सृष्टि का शोषण  ४४ हानिकारक तंत्रज्ञानों की मुक्त उपलब्धता  ४५ बेरोजगारी  ४९ भ्रूणहत्या ५० स्त्री-भ्रूणहत्या  ५१  तनाव  ५२ उपभोक्तावाद  ५३ घटता पौरूष - घटता स्त्रीत्व  ५४ घटता संवाद  ५५ बढती घरेलू हिंसा  ५६ बालक-युवाओं की आत्महत्याएँ  ५७ बढते दुर्धर रोग  ५८ ग्राम के तालाबीकरण के स्थानपर बडे बांध/खेत तालाब  ५९ बढती अश्लीलता    ६० अणू, प्लॅस्टिक जैसे बढते लाजबाब कचरे  ६१ बढती शहरी आबादी-उजडते गाँव  ६२ तंत्रज्ञानों का दुरूपयोग  ६३ बदले आदर्श - अभिनेता, क्रिकेट खिलाडी  ६४ लोकशिक्षा का अभाव  ६५ बूढा समाज  ६६ जीवन की असहनीय गति
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४.  अपने बच्चोंपर हर हालत में कुटुंब के साथ ही निवास के और आज्ञाधारकता के संस्कार करना। सामान्यत: नौकरी और  
 
४.  अपने बच्चोंपर हर हालत में कुटुंब के साथ ही निवास के और आज्ञाधारकता के संस्कार करना। सामान्यत: नौकरी और  
 
     विवाह ये दो ऐसी बातें हैं जो कुटुंब को विभक्त करतीं हैं। व्यक्तिवादिता के कारण आज्ञाधारकता नहीं रहती। घर में नई  
 
     विवाह ये दो ऐसी बातें हैं जो कुटुंब को विभक्त करतीं हैं। व्यक्तिवादिता के कारण आज्ञाधारकता नहीं रहती। घर में नई  
     दुल्हन लाते समय संयुक्त कुटुंब विरोधी कोई खोटा सिक्का तत्त्व घर में नहीं आए इस का भी ध्यान रखना होगा।
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     दुल्हन लाते समय संयुक्त कुटुंब विरोधी कोई खोटा सिक्का तत्व घर में नहीं आए इस का भी ध्यान रखना होगा।
 
५.  यथासंभव बच्चों को प्राथमिक शिक्षा घर में या जहाँ सही अर्थों में गुरूगृहवास हो, श्रेष्ठ गुरू हो ऐसे गुरुकुल में हो।
 
५.  यथासंभव बच्चों को प्राथमिक शिक्षा घर में या जहाँ सही अर्थों में गुरूगृहवास हो, श्रेष्ठ गुरू हो ऐसे गुरुकुल में हो।
 
६.  तीसरी पीढी में परिवार की बढी हुई सदस्य संख्या का सदुपयोग हो सके ऐसा व्यवसाय अभी से चुनना।  
 
६.  तीसरी पीढी में परिवार की बढी हुई सदस्य संख्या का सदुपयोग हो सके ऐसा व्यवसाय अभी से चुनना।  
Line 152: Line 142:  
संयुक्त कुटुंब व्यवस्था का पुनरूत्थान वर्तमान में अत्यंत कठिन बात हो गई है। लोगों की ‘यह अब असंभव है’ ऐसी प्रतिक्रिया आना अत्यंत स्वाभाविक है। संयुक्त परिवारोंद्वारा चलाए जा रहे कौटुम्बिक उद्योगोंपर आधारित अर्थव्यवस्था, ऐसे परिवारों के परस्परावलंबनपर आधारित ग्राम को स्वावलंबी बनानेवाली, एक कुटुंब जैसा बनानेवाली ग्रामकुल की मालिकों की मानसिकता वाले समाज की अर्थव्यवस्था आदि जीवन के भारतीय प्रतिमान के अनिवार्य अंग हैं।  
 
संयुक्त कुटुंब व्यवस्था का पुनरूत्थान वर्तमान में अत्यंत कठिन बात हो गई है। लोगों की ‘यह अब असंभव है’ ऐसी प्रतिक्रिया आना अत्यंत स्वाभाविक है। संयुक्त परिवारोंद्वारा चलाए जा रहे कौटुम्बिक उद्योगोंपर आधारित अर्थव्यवस्था, ऐसे परिवारों के परस्परावलंबनपर आधारित ग्राम को स्वावलंबी बनानेवाली, एक कुटुंब जैसा बनानेवाली ग्रामकुल की मालिकों की मानसिकता वाले समाज की अर्थव्यवस्था आदि जीवन के भारतीय प्रतिमान के अनिवार्य अंग हैं।  
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वर्तमान में संयुक्त कुटुंब निर्माण और विस्तार यह विषय केवल कुछ लोगों के दिमाग में आए प्रबल विचार तक ही सीमित है। कुछ लोगों और कुटुंबों तक यह सीमित नहीं रहे। यह विषय सभी हिंदू समाज का बनना चाहिये। इस दृष्टि से हिंदू समाज के हित में काम करनेवाले सभी संगठन, संस्थाएँ और कुटुंब इस विषय को गंभीरता से लें तो तीन पीढियों में हमारे देश का चित्र फिर से जैसा हमें अपेक्षित है वैसा सुखी, सुसंस्कृत और समृध्द दिखाई देने लगेगा।
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वर्तमान में संयुक्त कुटुंब निर्माण और विस्तार यह विषय केवल कुछ लोगों के दिमाग में आए प्रबल विचार तक ही सीमित है। कुछ लोगों और कुटुंबों तक यह सीमित नहीं रहे। यह विषय सभी हिंदू समाज का बनना चाहिये। इस दृष्टि से हिंदू समाज के हित में काम करनेवाले सभी संगठन, संस्थाएँ और कुटुंब इस विषय को गंभीरता से लें तो तीन पीढियों में हमारे देश का चित्र फिर से जैसा हमें अपेक्षित है वैसा सुखी, सुसंस्कृत और समृद्ध दिखाई देने लगेगा।
     
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