Line 67: |
Line 67: |
| # संयुक्त कुटुंबवाले समाज में न्ययिक मामले बहुत कम हो जाते हैं। लगभग सभी कौटुंबिक समस्याओं का हल संयुक्त कुटुंब अपनी परिवार पंचायत में निकाल लेते हैं। फॅमिली व्यवस्था में तो सीधे न्यायालय के ही द्वार खटखटाने पडते हैं। | | # संयुक्त कुटुंबवाले समाज में न्ययिक मामले बहुत कम हो जाते हैं। लगभग सभी कौटुंबिक समस्याओं का हल संयुक्त कुटुंब अपनी परिवार पंचायत में निकाल लेते हैं। फॅमिली व्यवस्था में तो सीधे न्यायालय के ही द्वार खटखटाने पडते हैं। |
| # कौटुंबिक उद्योगोंवाले समाज में विविधता के साथ आर्थिक समानता होती है। अर्थ का अभाव या प्रभाव नहीं होता। | | # कौटुंबिक उद्योगोंवाले समाज में विविधता के साथ आर्थिक समानता होती है। अर्थ का अभाव या प्रभाव नहीं होता। |
− | संक्षेप में एक अच्छा संयुक्त कुटुंब यह समाज का श्रेष्ठ लघुरूप ही होता है। संयुक्त परिवारों के कारण समाज सुखी और समृद्ध भी बनता है। जैसा वातावरण और जैसी व्यवस्थाएँ एकात्म परिवार के लिये आवश्यक होती हैं वैसा वातावरण और वैसी ही व्यवस्थाएँ समाज के लिये भी आवश्यक होतीं हैं।
| + | संक्षेप में एक अच्छा संयुक्त कुटुंब यह समाज का श्रेष्ठ लघुरूप ही होता है। संयुक्त परिवारों के कारण समाज सुखी और समृद्ध भी बनता है। जैसा वातावरण और जैसी व्यवस्थाएँ एकात्म परिवार के लिये आवश्यक होती हैं वैसा वातावरण और वैसी ही व्यवस्थाएँ समाज के लिये भी आवश्यक होतीं हैं। |
− | २. ग्रामकुल
| |
− | अपने पूर्वजों ने समाज व्यवस्था की दृष्टि से केवल परिवार व्यवस्था का ही निर्माण किया था एप्रसा नहीं । श्रेष्ठ एप्रसे गुरुकुलों एवम् ग्रामकुलों की रचना भी की थी। गांधीजी के अनुयायी धर्मपालजी ने लिखे १८वीं सदी के भारत के गाँवों की जानकारी से यह पता चलता है की भारतीय गाँव भी कौटुंबिक भावना से बंधे हुवे थे। परिवार की ही तरह गाँवों की भी व्यवस्थाएँ बनीं हुई थीं। जैसे परिवार के लोग एक दूसरे से आत्मीयता के धागे से बंधे होते हैं उसी प्रकार से गाँव के लोग भी आत्मीयता के धागे से बंधे हुवे थे। ‘इस गाँव में हमारे गाँव की बिटिया ब्याही है, मैं यहाँ पानी नहीं पी सकता’ ऐसा कहनेवाले कुछ लोग तो आज भी हिंदी भाषी गाँवों मे मिल जाते हैं। परिवार में जैसे पैसे के लेनदेन से व्यवहार नहीं होते उसी प्रकार गाँव में भी नहीं होते थे। गाँव के प्रत्येक मानव, जीव, जन्तु के निर्वाह की व्यवस्था बिठाई हुई थी। और निर्वाह भी सम्मान के साथ होता था। परिवार का कोई घटक परिवार को छोड अन्यत्र जाता है तो जैसे कुटुंब के सभी लोगों को दुख होता है। उसी तरह कोई गाँव छोडकर जाता था तो गाँव दुखी होता था। वह गाँव छोडकर नहीं जाए इसलिये मिन्नतें करता था। उस के कष्ट दूर करने की व्यवस्था करता था। लेकिन ये बातें अंग्रेजी शिक्षा के कारण हमारे भी समझ से परे हो गयीं हैं।
| |
| | | |
− | गाँव के तालाब होते थे। इन तालाबों का रखरखाव गाँव के लोग ही करते थे। अध्ययन के लिये पूरा विश्व ही गाँव माना जाता था। लेकिन रहने के लिये तो गाँव ही विश्व माना जाता था। काम के लिये सुबह निकलकर शामतक घर आ सके इतनी गाँव की सीमा होती थी। इसीलिये गोचर भूमि, जंगल, तालाब ये गाँव के हिस्से होते थे। दुनियाँभर की श्रेष्ठतम आवश्यक बातें गाँव में ही बनाने के प्रयास होते थे। इन प्रयासों से गाँव स्वावलंबी बनते थे। गाँव के लोग रक्षण, पोषण और शिक्षण की अपनी व्यवस्थाएँ निर्माण करते थे और चलाते भी थे। यही बातें तो किसी भी श्रेष्ठ समाज से अपेक्षित हैं। सब से महत्वपूर्ण बात तो यह हुआ करती थी की गाँव के हित अहित के सभी निर्णय गाँव के लोग सर्व सहमति से करते थे। यह तो ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ की प्रत्यक्ष व्यवस्था ही थी। ग्रामकुल के विषय में अलग अध्याय में हम अधिक जानने का प्रयास करेंगे| | + | == २. ग्रामकुल == |
− | 3 वसुधैव कुटुंबकम् : अयं निज: परोवेत्ति गणनां लघुचेतसाम् | + | ऐसा नहीं है कि अपने पूर्वजों ने समाज व्यवस्था की दृष्टि से केवल परिवार व्यवस्था का ही निर्माण किया था । श्रेष्ठ गुरुकुलों एवम् ग्रामकुलों की रचना भी की थी। गांधीजी के अनुयायी धर्मपालजी ने लिखे १८वीं सदी के भारत के गाँवों की जानकारी से यह पता चलता है कि भारतीय गाँव भी कौटुंबिक भावना से बंधे हुवे थे। परिवार की ही तरह गाँवों की भी व्यवस्थाएँ बनीं हुई थीं। जैसे परिवार के लोग एक दूसरे से आत्मीयता के धागे से बंधे होते हैं उसी प्रकार से गाँव के लोग भी आत्मीयता के धागे से बंधे हुवे थे। ‘इस गाँव में हमारे गाँव की बिटिया ब्याही है, मैं यहाँ पानी नहीं पी सकता’ ऐसा कहनेवाले कुछ लोग तो आज भी हिंदी भाषी गाँवों मे मिल जाते हैं। परिवार में जैसे पैसे के लेनदेन से व्यवहार नहीं होते उसी प्रकार गाँव में भी नहीं होते थे। गाँव के प्रत्येक मानव, जीव, जन्तु के निर्वाह की व्यवस्था बिठाई हुई थी। और निर्वाह भी सम्मान के साथ होता था। परिवार का कोई घटक परिवार को छोड अन्यत्र जाता है तो जैसे कुटुंब के सभी लोगों को दुख होता है। उसी तरह कोई गाँव छोडकर जाता था तो गाँव दुखी होता था। वह गाँव छोडकर नहीं जाए इसलिये मिन्नतें करता था। उस के कष्ट दूर करने की व्यवस्था करता था। लेकिन ये बातें अंग्रेजी शिक्षा के कारण हमारे भी समझ से परे हो गयीं हैं। |
− | उदार चरितानां तु वसुधैव कुटु्म्बकम् | + | |
− | भावार्थ : यह मेरा यह पराया यह तो संकुचित मन और भावना के लक्षण हैं । जिन के हृदय बडे होते हैं, मन विशाल होते हैं उन के लिये तो सारा विश्व ही एक कुटुंब होता है। ऐसा विशाल मन और हृदय रखनेवाला मानव समाज बनाने की आकांक्षा और प्रयास हमारे पूर्वजों ने किये । वास्तव में एकत्रित कुटुंब जिस भावना और व्यवस्थाओं के आधारपर सुव्यवस्थित ढँग से चलता है उसी प्रकार पूरा विश्व भी चल सकता है। यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे। इस दृष्टि से दस दस हजार से अधिक संख्या की आबादी वाले गुरुकुल विस्तारित कुटुंब ही हुआ करते थे। इसीलिये वे कुल कहलाए जाते थे। इसी तरह ग्राम भी ग्रामकुल हुआ करते थे। गुरुकुल, ग्रामकुल की तरह ही राष्ट्र(कुल) में भी यही परिवार भावना ही परस्पर संबंधों का आधार हुआ करती थी। | + | गाँव के तालाब होते थे। इन तालाबों का रखरखाव गाँव के लोग ही करते थे। अध्ययन के लिये पूरा विश्व ही गाँव माना जाता था। लेकिन रहने के लिये तो गाँव ही विश्व माना जाता था। काम के लिये सुबह निकलकर शाम तक घर आ सके इतनी गाँव की सीमा होती थी। इसीलिये गोचर भूमि, जंगल, तालाब ये गाँव के हिस्से होते थे। दुनिया भर की श्रेष्ठतम आवश्यक बातें गाँव में ही बनाने के प्रयास होते थे। इन प्रयासों से गाँव स्वावलंबी बनते थे। गाँव के लोग रक्षण, पोषण और शिक्षण की अपनी व्यवस्थाएँ निर्माण करते थे और चलाते भी थे। यही बातें तो किसी भी श्रेष्ठ समाज से अपेक्षित हैं। सब से महत्वपूर्ण बात तो यह हुआ करती थी कि गाँव के हित अहित के सभी निर्णय गाँव के लोग सर्व सहमति से करते थे। यह तो ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ की प्रत्यक्ष व्यवस्था ही थी। ग्रामकुल के विषय में हम इस [[Grama Kul (ग्रामकुल)|लेख]] को पढ़ सकते हैं । |
| + | |
| + | == 3 वसुधैव कुटुंबकम् == |
| + | <blockquote>अयं निज: परोवेत्ति गणनां लघुचेतसाम्</blockquote><blockquote>उदार चरितानां तु वसुधैव कुटु्म्बकम्</blockquote> भावार्थ : यह मेरा यह पराया यह तो संकुचित मन और भावना के लक्षण हैं । जिन के हृदय बडे होते हैं, मन विशाल होते हैं उन के लिये तो सारा विश्व ही एक कुटुंब होता है। ऐसा विशाल मन और हृदय रखनेवाला मानव समाज बनाने की आकांक्षा और प्रयास हमारे पूर्वजों ने किये । वास्तव में एकत्रित कुटुंब जिस भावना और व्यवस्थाओं के आधारपर सुव्यवस्थित ढँग से चलता है उसी प्रकार पूरा विश्व भी चल सकता है। यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे। इस दृष्टि से दस दस हजार से अधिक संख्या की आबादी वाले गुरुकुल विस्तारित कुटुंब ही हुआ करते थे। इसीलिये वे कुल कहलाए जाते थे। इसी तरह ग्राम भी ग्रामकुल हुआ करते थे। गुरुकुल, ग्रामकुल की तरह ही राष्ट्र(कुल) में भी यही परिवार भावना ही परस्पर संबंधों का आधार हुआ करती थी। |
| यह विश्वास और एप्रसा करने की सामर्थ्य हमारे पूर्वजों में थी । यह बात आज भी असंभव नहीं है । वैसी दुर्दमनीय आकांक्षा और तप-सामर्थ्य हमें जगाना होगा । | | यह विश्वास और एप्रसा करने की सामर्थ्य हमारे पूर्वजों में थी । यह बात आज भी असंभव नहीं है । वैसी दुर्दमनीय आकांक्षा और तप-सामर्थ्य हमें जगाना होगा । |
| वैश्वीकरण की पाश्चात्य घोषणाएँ तो बस दिखावा और छलावा मात्र हैं। जिन समाजों में पति-पत्नि एक छत के नीचे उम्र गुजार नहीं सकते उन्हे हम भारतीयों को वैश्वीकरण सिखाने का कोई अधिकार नहीं है । वसुधैव कुटुंबकम् कैसे होगा यह हमें भी अपने पूर्वजों से फिर से सीखना चाहिये और अभारतीयों को भी सिखाना चाहिये । | | वैश्वीकरण की पाश्चात्य घोषणाएँ तो बस दिखावा और छलावा मात्र हैं। जिन समाजों में पति-पत्नि एक छत के नीचे उम्र गुजार नहीं सकते उन्हे हम भारतीयों को वैश्वीकरण सिखाने का कोई अधिकार नहीं है । वसुधैव कुटुंबकम् कैसे होगा यह हमें भी अपने पूर्वजों से फिर से सीखना चाहिये और अभारतीयों को भी सिखाना चाहिये । |
Line 147: |
Line 148: |
| ==References== | | ==References== |
| मनुस्मृति | | मनुस्मृति |
− | प्रजातंत्र अथवा वर्णाश्रम व्यवस्था, लेखक गुरुदत्त, प्रकाशक हिन्दी साहित्य सदन, नई दिल्ली | + | |
− | हिंदूंचे समाज रचना शास्त्र, लेखक गोविन्द महादेव जोशी, प्रकाशक | + | प्रजातंत्र अथवा वर्णाश्रम व्यवस्था, लेखक गुरुदत्त, प्रकाशक हिन्दी साहित्य सदन, नई दिल्ली |
− | हिंदूंचे अर्थशास्त्र भाग १, लेखक गोविन्द महादेव जोशी, प्रकाशक | + | |
− | श्रीमद्भगवद्गीता मनुस्मृति ३. संस्कृति कोश, लेखक लक्ष्मण शास्त्री जोशी | + | हिंदूंचे समाज रचना शास्त्र, लेखक गोविन्द महादेव जोशी, प्रकाशक |
− | महाभारत-शांतिपर्व | + | |
| + | हिंदूंचे अर्थशास्त्र भाग १, लेखक गोविन्द महादेव जोशी, प्रकाशक |
| + | |
| + | श्रीमद्भगवद्गीता |
| + | |
| + | मनुस्मृति |
| + | |
| + | संस्कृति कोश, लेखक लक्ष्मण शास्त्री जोशी |
| + | |
| + | महाभारत-शांतिपर्व |
| + | |
| श्रीमद्भागवत पुराण | | श्रीमद्भागवत पुराण |
| <references /> | | <references /> |