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== प्राक्कथन ==
 
== प्राक्कथन ==
धार्मिक (धार्मिक) समाज यदि चिरंजीवी बना है तो वह भारत की कुटुंब व्यवस्था के कारण। बहुत दीर्घ काल तक विदेशी शासकों के प्रभाव के उपरांत भी आज यदि धार्मिक (धार्मिक) समाज में कुछ धार्मिकता शेष है तो वह परिवार व्यवस्था के कारण ही है । लगभग २००-२२५ वर्षों की विपरीत शिक्षा के उपरांत भी यदि धार्मिक (धार्मिक) समाज में धार्मिकता बची है तो वह हमारी कुटुंब व्यवस्था के कारण ही है। लेकिन विपरीत शिक्षा के साथ चल रही इस लडाई में कुटुंब व्यवस्था भी क्षीण हो गई है।  
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धार्मिक समाज यदि चिरंजीवी बना है तो वह भारत की कुटुंब व्यवस्था के कारण। बहुत दीर्घ काल तक विदेशी शासकों के प्रभाव के उपरांत भी आज यदि धार्मिक समाज में कुछ धार्मिकता शेष है तो वह परिवार व्यवस्था के कारण ही है । लगभग २००-२२५ वर्षों की विपरीत शिक्षा के उपरांत भी यदि धार्मिक समाज में धार्मिकता बची है तो वह हमारी कुटुंब व्यवस्था के कारण ही है। लेकिन विपरीत शिक्षा के साथ चल रही इस लडाई में कुटुंब व्यवस्था भी क्षीण हो गई है।  
    
आज विश्व जिसका अनुकरण करता है वह अमरिका एक बडे प्रमाण में टूटते कुटुंबों का देश है। कुटुंबों को फिर से व्यवस्थित कैसे किया जाए इस की चिंता अमरिका के ही नहीं सभी तथाकथित प्रगत देशों के हितचिंतक विद्वान करने लगे हैं। किन्तु प्रेम, आत्मीयता, कर्तव्य भावना, नि:स्वार्थ भाव से औरों के हित को प्राधान्य देना, औरों के लिये त्याग करने की मानसिकता, इन सब को पुन: लोगोंं के मन में जगाना सरल बात नहीं है। हमारे यहाँ कुटुंब व्यवस्था अब भी कुछ प्रमाण में टिकी हुई है तो हम उस का मूल्य समझते नहीं हैं।   
 
आज विश्व जिसका अनुकरण करता है वह अमरिका एक बडे प्रमाण में टूटते कुटुंबों का देश है। कुटुंबों को फिर से व्यवस्थित कैसे किया जाए इस की चिंता अमरिका के ही नहीं सभी तथाकथित प्रगत देशों के हितचिंतक विद्वान करने लगे हैं। किन्तु प्रेम, आत्मीयता, कर्तव्य भावना, नि:स्वार्थ भाव से औरों के हित को प्राधान्य देना, औरों के लिये त्याग करने की मानसिकता, इन सब को पुन: लोगोंं के मन में जगाना सरल बात नहीं है। हमारे यहाँ कुटुंब व्यवस्था अब भी कुछ प्रमाण में टिकी हुई है तो हम उस का मूल्य समझते नहीं हैं।   
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वास्तव में सुखी समाधानी धार्मिक (धार्मिक) समाज जीवन का रहस्य ही ‘परिवार भावना’ में है। हमारे सभी सामाजिक संबंधों का आधार कुटुंब भावना ही है। यह कुटुंब भावना केवल रक्त-संबंधों तक सीमित नहीं हुआ करती थी। इसका विस्तार रक्त-संबंधों से आगे सृष्टि के चराचर तक ले जाना यह कुटुंब व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण पहलू होता है। प्रत्यक्ष में सभी सामाजिक संबंधों में भी यह कुटुंब भावना या आत्मीयता व्यवहार में दिखाई दे ऐसे शिक्षा और संस्कार कुटुंबों में भी और विद्यालयों में भी दिये जाते थे। शिष्य गुरू का मानसपुत्र होता है। राजा प्रजा का पिता होता है। प्रजा का अर्थ ही संतान होता है। एक ही व्यवसाय में काम करनेवाले लोग स्पर्धक नहीं होते। व्यवसाय बंधू होते हैं। धरती माता होती है। गाय, तुलसी, गंगा ये माताएँ होतीं हैं। सभा भवन में व्याख्यान सुनने आये हुए लोग 'मेरे प्रिय बहनों और भाईयों' होते हैं। हमारे तो बाजार भी कुटुंब भावना से चलते हैं।धार्मिक (धार्मिक) परिवार का आदर्श भगवान शंकर का कुटुंब है। इस परिवार में एक दूसरे के शत्रू भी अपना बैर भूलकर आत्मीयता से रहते हैं। शंकरजी का वाहन बैल, पार्वती के वाहन शेर का खाद्य है। गणेशजी का वाहन मूषक, शंकरजी के गले में जो साँप है उसका खाद्य है। और यह साँप कार्तिकेय के वाहन मोर का खाद्य है। इसके अलावा शंकरजी के भाल पर चंद्रमा है और उनकी जटाओं से गंगावतरण हो रहा है। अर्थात् इस परिवार में केवल मनुष्य ही नहीं, साथ में पशु और पक्षी ही नहीं तो प्रकृति के जड़ तत्व भी विद्यमान हैं। इस प्रकार धार्मिक (धार्मिक) दृष्टि से कुटुंब का दायरा रक्त संबंध, मित्र परिवार, पडोसी, दुकानदार, भिखारी, गली के निवासी, व्यावसायिक संबंधी, सामाजिक संबंधी, अतिथी, पेड-पौधे, पशु-पक्षी, नदी या गाँव के तालाब या झरनों जैसे जल के स्रोत, मातृभूमि, धरती माता ऐसे पूरे विश्व तक होता है। स्वदेशो भुवनत्रयम् तक कुटुंब का विस्तार होना चाहिये ऐसा माना जाता है।   
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वास्तव में सुखी समाधानी धार्मिक समाज जीवन का रहस्य ही ‘परिवार भावना’ में है। हमारे सभी सामाजिक संबंधों का आधार कुटुंब भावना ही है। यह कुटुंब भावना केवल रक्त-संबंधों तक सीमित नहीं हुआ करती थी। इसका विस्तार रक्त-संबंधों से आगे सृष्टि के चराचर तक ले जाना यह कुटुंब व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण पहलू होता है। प्रत्यक्ष में सभी सामाजिक संबंधों में भी यह कुटुंब भावना या आत्मीयता व्यवहार में दिखाई दे ऐसे शिक्षा और संस्कार कुटुंबों में भी और विद्यालयों में भी दिये जाते थे। शिष्य गुरू का मानसपुत्र होता है। राजा प्रजा का पिता होता है। प्रजा का अर्थ ही संतान होता है। एक ही व्यवसाय में काम करनेवाले लोग स्पर्धक नहीं होते। व्यवसाय बंधू होते हैं। धरती माता होती है। गाय, तुलसी, गंगा ये माताएँ होतीं हैं। सभा भवन में व्याख्यान सुनने आये हुए लोग 'मेरे प्रिय बहनों और भाईयों' होते हैं। हमारे तो बाजार भी कुटुंब भावना से चलते हैं।धार्मिक परिवार का आदर्श भगवान शंकर का कुटुंब है। इस परिवार में एक दूसरे के शत्रू भी अपना बैर भूलकर आत्मीयता से रहते हैं। शंकरजी का वाहन बैल, पार्वती के वाहन शेर का खाद्य है। गणेशजी का वाहन मूषक, शंकरजी के गले में जो साँप है उसका खाद्य है। और यह साँप कार्तिकेय के वाहन मोर का खाद्य है। इसके अलावा शंकरजी के भाल पर चंद्रमा है और उनकी जटाओं से गंगावतरण हो रहा है। अर्थात् इस परिवार में केवल मनुष्य ही नहीं, साथ में पशु और पक्षी ही नहीं तो प्रकृति के जड़ तत्व भी विद्यमान हैं। इस प्रकार धार्मिक दृष्टि से कुटुंब का दायरा रक्त संबंध, मित्र परिवार, पडोसी, दुकानदार, भिखारी, गली के निवासी, व्यावसायिक संबंधी, सामाजिक संबंधी, अतिथी, पेड-पौधे, पशु-पक्षी, नदी या गाँव के तालाब या झरनों जैसे जल के स्रोत, मातृभूमि, धरती माता ऐसे पूरे विश्व तक होता है। स्वदेशो भुवनत्रयम् तक कुटुंब का विस्तार होना चाहिये ऐसा माना जाता है।   
    
किसी भी समाज की अर्थव्यवस्था उस समाज की रीढ होती है। अच्छी अर्थव्यवस्था के बिना कोई समाज सुखी और समृद्ध नहीं हो सकता। समाज के सुखी और समृद्ध होने का अर्थ है समाज का सुसंस्कृत होना और समाज की सभी इच्छाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति करने की शक्ति उस समाज में होना। अर्थ का प्रभाव और अभाव दोनों ही समाज में अव्यवस्था और अशांति निर्माण करते हैं। समाज की सुख और समृद्धि इन दोनों आवश्यकताओं की पूर्ति जिस प्रकार से संयुक्त कुटुंब व्यवस्था से हो सकती है अन्य किसी भी कुटुंब व्यवस्था से नहीं हो सकती।   
 
किसी भी समाज की अर्थव्यवस्था उस समाज की रीढ होती है। अच्छी अर्थव्यवस्था के बिना कोई समाज सुखी और समृद्ध नहीं हो सकता। समाज के सुखी और समृद्ध होने का अर्थ है समाज का सुसंस्कृत होना और समाज की सभी इच्छाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति करने की शक्ति उस समाज में होना। अर्थ का प्रभाव और अभाव दोनों ही समाज में अव्यवस्था और अशांति निर्माण करते हैं। समाज की सुख और समृद्धि इन दोनों आवश्यकताओं की पूर्ति जिस प्रकार से संयुक्त कुटुंब व्यवस्था से हो सकती है अन्य किसी भी कुटुंब व्यवस्था से नहीं हो सकती।   
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धार्मिक (धार्मिक) समाज में कुटुंब यह सब से छोटी सामाजिक इकाई मानी जाती है। इस इकाई में सामाजिकता के पाठ पढकर मनुष्य समाज को भी कुटुंब की तरह बनाए ऐसी यह व्यवस्था है। यही व्यवस्था विस्तार पाती है तो ‘ग्रामकुल’ बनती है। और आगे विस्तार पाकर ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ भी बनती है। अब इन तीनों की संक्षेप में जानकारी लेंगे।<ref>जीवन का धार्मिक प्रतिमान-खंड १, अध्याय १२, लेखक - दिलीप केलकर</ref>   
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धार्मिक समाज में कुटुंब यह सब से छोटी सामाजिक इकाई मानी जाती है। इस इकाई में सामाजिकता के पाठ पढकर मनुष्य समाज को भी कुटुंब की तरह बनाए ऐसी यह व्यवस्था है। यही व्यवस्था विस्तार पाती है तो ‘ग्रामकुल’ बनती है। और आगे विस्तार पाकर ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ भी बनती है। अब इन तीनों की संक्षेप में जानकारी लेंगे।<ref>जीवन का धार्मिक प्रतिमान-खंड १, अध्याय १२, लेखक - दिलीप केलकर</ref>   
    
== कुटुंब / परिवार ==
 
== कुटुंब / परिवार ==
संस्कृत शब्द कुटुंब का ही प्रतिशब्द परिवार है। धार्मिक (धार्मिक) एकत्रित कुटुंब यह आज भी विदेशी लोगोंं के लिये आकर्षण का विषय है । बडी संख्या में वर्तमान शिक्षा और जीवनशैली के कारण टूट रहे यह कुटुंब अब तो हम जैसे धार्मिकों के भी कुतुहल और अध्ययन का विषय बन गए हैं।   
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संस्कृत शब्द कुटुंब का ही प्रतिशब्द परिवार है। धार्मिक एकत्रित कुटुंब यह आज भी विदेशी लोगोंं के लिये आकर्षण का विषय है । बडी संख्या में वर्तमान शिक्षा और जीवनशैली के कारण टूट रहे यह कुटुंब अब तो हम जैसे धार्मिकों के भी कुतुहल और अध्ययन का विषय बन गए हैं।   
    
गृहिणी, कुटुंब व्यवस्था का आधारस्तंभ है। स्त्री की भूमिका घर में अत्यंत महत्वपूर्ण है । वह ठीक रहेगी तो वह घर कुटुंब बनता है । स्त्री को सम्मान से देखना और उस के अनुसार व्यवहार करना हर कुटुंब के लिये अनिवार्य बात है। यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता:। यानी जिस घर और समाज में नारी या स्त्री का सम्मान होता है उस घर या समाज के निवासी देवता स्वरूप ही होते हैं। वैसे तो घर में स्त्री की भिन्न भिन्न भूमिकाएँ होतीं हैं । किन्तु इन सब में माता की भूमिका ही स्त्री की प्रमुख भूमिका मानी गई है । उसे विषयवासना का साधन नही माना गया है । वह क्षण काल की पत्नि और अनंत काल की माता मानी जाती है । इसीलिये स्त्री को जिस घर में आदर, सम्मान मिलता है और जिस घर की स्त्री ऐसे आदर सम्मान के पात्र होती है वह घर कुटुंब बन जाता है ।   
 
गृहिणी, कुटुंब व्यवस्था का आधारस्तंभ है। स्त्री की भूमिका घर में अत्यंत महत्वपूर्ण है । वह ठीक रहेगी तो वह घर कुटुंब बनता है । स्त्री को सम्मान से देखना और उस के अनुसार व्यवहार करना हर कुटुंब के लिये अनिवार्य बात है। यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता:। यानी जिस घर और समाज में नारी या स्त्री का सम्मान होता है उस घर या समाज के निवासी देवता स्वरूप ही होते हैं। वैसे तो घर में स्त्री की भिन्न भिन्न भूमिकाएँ होतीं हैं । किन्तु इन सब में माता की भूमिका ही स्त्री की प्रमुख भूमिका मानी गई है । उसे विषयवासना का साधन नही माना गया है । वह क्षण काल की पत्नि और अनंत काल की माता मानी जाती है । इसीलिये स्त्री को जिस घर में आदर, सम्मान मिलता है और जिस घर की स्त्री ऐसे आदर सम्मान के पात्र होती है वह घर कुटुंब बन जाता है ।   
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बच्चा जब पैदा होता है तो उसे केवल अपनी भूख और अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति होनी चाहिये, इतनी ही समझ होती है। वह केवल ‘अपने लिये जीनेवाला जीव’ होता है। कुटुंब उसे सामाजिक बनाता है। संस्कारित कर ऐसे केवल अपने हित की सोचनेवाले अर्भक को, केवल अपने लिये जीनेवाले उस जीव को ‘अपनों के लिये जीनेवाला घर का मुखिया’ बनाता है।   
 
बच्चा जब पैदा होता है तो उसे केवल अपनी भूख और अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति होनी चाहिये, इतनी ही समझ होती है। वह केवल ‘अपने लिये जीनेवाला जीव’ होता है। कुटुंब उसे सामाजिक बनाता है। संस्कारित कर ऐसे केवल अपने हित की सोचनेवाले अर्भक को, केवल अपने लिये जीनेवाले उस जीव को ‘अपनों के लिये जीनेवाला घर का मुखिया’ बनाता है।   
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हमारे पूर्वजों ने बहुत सोच समझकर, परिश्रमपूर्वक परिवार व्यवस्था का निर्माण किया था । केवल व्यवस्था ही निर्माण नहीं की अपितु उसे पूर्णत्व की स्थिति तक ले गये। उस व्यवस्था में ही ऐसे घटक विकसित किये जो उस व्यवस्था को बनाए भी रखते थे और सुदृढ भी बनाते थे । इसीलिये धार्मिक (धार्मिक) कुटुंब व्यवस्था कालजयी बनीं। इस कुटुंब व्यवस्था की और उसमें भी संयुक्त कुटुंब की कुछ महत्वपूर्ण विशेषताएँ निम्न हैं:   
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हमारे पूर्वजों ने बहुत सोच समझकर, परिश्रमपूर्वक परिवार व्यवस्था का निर्माण किया था । केवल व्यवस्था ही निर्माण नहीं की अपितु उसे पूर्णत्व की स्थिति तक ले गये। उस व्यवस्था में ही ऐसे घटक विकसित किये जो उस व्यवस्था को बनाए भी रखते थे और सुदृढ भी बनाते थे । इसीलिये धार्मिक कुटुंब व्यवस्था कालजयी बनीं। इस कुटुंब व्यवस्था की और उसमें भी संयुक्त कुटुंब की कुछ महत्वपूर्ण विशेषताएँ निम्न हैं:   
 
# सुसंस्कृत, सुखी, समाधानी, स्वावलंबी, आत्मविश्वासयुक्त, सदाचारी और सामाजिक सहनिवास के संस्कारों की व्यवस्था।   
 
# सुसंस्कृत, सुखी, समाधानी, स्वावलंबी, आत्मविश्वासयुक्त, सदाचारी और सामाजिक सहनिवास के संस्कारों की व्यवस्था।   
 
# परिवार में जब बच्चा जन्म लेता है तब उसे अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के सिवाय अन्य कोई समझ नहीं होती। एक ढँग से कहें की वह निपट स्वार्थी होता है तो गलत नहीं है। जो पैदा होते समय केवल अपने लिये ही सोचता है ऐसे निपट स्वार्थी जीव को अपनों के लिये जीनेवाला कुटुंब का मुखिया बनाने की कुटुंब यह प्रक्रिया है। वास्तव में यह मनुष्य को मोक्षगामी यानि अपने लक्ष्य की दिशा में ले जाने की ही व्यवस्था है। ‘अपनों के लिये जीना’ इससे अधिक श्रेष्ठ सामाजिक भावना अन्य नहीं है। नि:स्वार्थ भाव से अन्यों के लिये जीना मानव को मोक्षगामी बनाता है।   
 
# परिवार में जब बच्चा जन्म लेता है तब उसे अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के सिवाय अन्य कोई समझ नहीं होती। एक ढँग से कहें की वह निपट स्वार्थी होता है तो गलत नहीं है। जो पैदा होते समय केवल अपने लिये ही सोचता है ऐसे निपट स्वार्थी जीव को अपनों के लिये जीनेवाला कुटुंब का मुखिया बनाने की कुटुंब यह प्रक्रिया है। वास्तव में यह मनुष्य को मोक्षगामी यानि अपने लक्ष्य की दिशा में ले जाने की ही व्यवस्था है। ‘अपनों के लिये जीना’ इससे अधिक श्रेष्ठ सामाजिक भावना अन्य नहीं है। नि:स्वार्थ भाव से अन्यों के लिये जीना मानव को मोक्षगामी बनाता है।   
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== ग्रामकुल ==
 
== ग्रामकुल ==
ऐसा नहीं  है कि अपने पूर्वजों ने समाज व्यवस्था की दृष्टि से केवल परिवार व्यवस्था का ही निर्माण किया था । श्रेष्ठ गुरुकुलों एवम् ग्रामकुलों की रचना भी की थी। गांधीजी के अनुयायी धर्मपालजी ने लिखे १८वीं सदी के भारत के गाँवों की जानकारी से यह पता चलता है कि धार्मिक (धार्मिक) गाँव भी कौटुंबिक भावना से बंधे हुवे थे। परिवार की ही तरह गाँवों की भी व्यवस्थाएँ बनीं हुई थीं। जैसे परिवार के लोग एक दूसरे से आत्मीयता के धागे से बंधे होते हैं उसी प्रकार से गाँव के लोग भी आत्मीयता के धागे से बंधे हुवे थे। ‘इस गाँव में हमारे गाँव की बिटिया ब्याही है, मैं यहाँ पानी नहीं पी सकता’  ऐसा कहनेवाले कुछ लोग तो आज भी हिंदी भाषी गाँवों मे मिल जाते हैं। परिवार में जैसे पैसे के लेनदेन से व्यवहार नहीं होते उसी प्रकार गाँव में भी नहीं होते थे। गाँव के प्रत्येक मानव, जीव, जन्तु के निर्वाह की व्यवस्था बिठाई हुई थी। और निर्वाह भी सम्मान के साथ होता था। परिवार का कोई घटक परिवार को छोड अन्यत्र जाता है तो जैसे कुटुंब के सभी लोगोंं को दुख होता है। उसी तरह कोई गाँव छोडकर जाता था तो गाँव दुखी होता था। वह गाँव छोडकर नहीं जाए इसलिये मिन्नतें करता था। उस के कष्ट दूर करने की व्यवस्था करता था। लेकिन ये बातें अंग्रेजी शिक्षा के कारण हमारे भी समझ से परे हो गयीं हैं।
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ऐसा नहीं  है कि अपने पूर्वजों ने समाज व्यवस्था की दृष्टि से केवल परिवार व्यवस्था का ही निर्माण किया था । श्रेष्ठ गुरुकुलों एवम् ग्रामकुलों की रचना भी की थी। गांधीजी के अनुयायी धर्मपालजी ने लिखे १८वीं सदी के भारत के गाँवों की जानकारी से यह पता चलता है कि धार्मिक गाँव भी कौटुंबिक भावना से बंधे हुवे थे। परिवार की ही तरह गाँवों की भी व्यवस्थाएँ बनीं हुई थीं। जैसे परिवार के लोग एक दूसरे से आत्मीयता के धागे से बंधे होते हैं उसी प्रकार से गाँव के लोग भी आत्मीयता के धागे से बंधे हुवे थे। ‘इस गाँव में हमारे गाँव की बिटिया ब्याही है, मैं यहाँ पानी नहीं पी सकता’  ऐसा कहनेवाले कुछ लोग तो आज भी हिंदी भाषी गाँवों मे मिल जाते हैं। परिवार में जैसे पैसे के लेनदेन से व्यवहार नहीं होते उसी प्रकार गाँव में भी नहीं होते थे। गाँव के प्रत्येक मानव, जीव, जन्तु के निर्वाह की व्यवस्था बिठाई हुई थी। और निर्वाह भी सम्मान के साथ होता था। परिवार का कोई घटक परिवार को छोड अन्यत्र जाता है तो जैसे कुटुंब के सभी लोगोंं को दुख होता है। उसी तरह कोई गाँव छोडकर जाता था तो गाँव दुखी होता था। वह गाँव छोडकर नहीं जाए इसलिये मिन्नतें करता था। उस के कष्ट दूर करने की व्यवस्था करता था। लेकिन ये बातें अंग्रेजी शिक्षा के कारण हमारे भी समझ से परे हो गयीं हैं।
    
गाँव के तालाब होते थे। इन तालाबों का रखरखाव गाँव के लोग ही करते थे। अध्ययन के लिये पूरा विश्व ही गाँव माना जाता था। लेकिन रहने के लिये तो गाँव ही विश्व माना जाता था। काम के लिये सुबह निकलकर शाम तक घर आ सके इतनी गाँव  की सीमा होती थी। इसीलिये गोचर भूमि, जंगल, तालाब ये गाँव के हिस्से होते थे। दुनिया भर की श्रेष्ठतम आवश्यक बातें गाँव में ही बनाने के प्रयास होते थे। इन प्रयासों से गाँव स्वावलंबी बनते थे। गाँव के लोग रक्षण, पोषण और शिक्षण की अपनी व्यवस्थाएँ निर्माण करते थे और चलाते भी थे। यही बातें तो किसी भी श्रेष्ठ समाज से अपेक्षित हैं। सब से महत्वपूर्ण बात तो यह हुआ करती थी कि गाँव के हित अहित के सभी निर्णय गाँव के लोग सर्व सहमति से करते थे। यह तो ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ की प्रत्यक्ष व्यवस्था ही थी। ग्रामकुल के विषय में हम इस [[Grama Kul (ग्रामकुल)|लेख]] को पढ़ सकते हैं  ।
 
गाँव के तालाब होते थे। इन तालाबों का रखरखाव गाँव के लोग ही करते थे। अध्ययन के लिये पूरा विश्व ही गाँव माना जाता था। लेकिन रहने के लिये तो गाँव ही विश्व माना जाता था। काम के लिये सुबह निकलकर शाम तक घर आ सके इतनी गाँव  की सीमा होती थी। इसीलिये गोचर भूमि, जंगल, तालाब ये गाँव के हिस्से होते थे। दुनिया भर की श्रेष्ठतम आवश्यक बातें गाँव में ही बनाने के प्रयास होते थे। इन प्रयासों से गाँव स्वावलंबी बनते थे। गाँव के लोग रक्षण, पोषण और शिक्षण की अपनी व्यवस्थाएँ निर्माण करते थे और चलाते भी थे। यही बातें तो किसी भी श्रेष्ठ समाज से अपेक्षित हैं। सब से महत्वपूर्ण बात तो यह हुआ करती थी कि गाँव के हित अहित के सभी निर्णय गाँव के लोग सर्व सहमति से करते थे। यह तो ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ की प्रत्यक्ष व्यवस्था ही थी। ग्रामकुल के विषय में हम इस [[Grama Kul (ग्रामकुल)|लेख]] को पढ़ सकते हैं  ।
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* तीसरी पीढी में भी हर चार बच्चोंं में दो ही बेटे होंगे ऐसा मानकर अब यह कुटुंब ३० लोगोंं का बन जाएगा।  
 
* तीसरी पीढी में भी हर चार बच्चोंं में दो ही बेटे होंगे ऐसा मानकर अब यह कुटुंब ३० लोगोंं का बन जाएगा।  
 
* अब यह वास्तव में संयुक्त कुटुंब के वास्तविक और लगभग सभी लाभ देने लगेगा।
 
* अब यह वास्तव में संयुक्त कुटुंब के वास्तविक और लगभग सभी लाभ देने लगेगा।
संयुक्त परिवारों की पुन: प्रतिष्ठापना और दृढीकरण संयुक्त कुटुंब के असीम लाभ होने के उपरांत भी इसे प्रत्यक्ष में लाना अत्यंत कठिन है। विपरीत शिक्षा ने पुरानी पीढी के साथ ही युवा पीढी की मानसिकता बिगाड डाली है। 'अब हम इतने आगे आ गये हैं कि अब लौटना संभव नहीं है' - ऐसी दलील दी जाती है। १० पीढ़ियों की विपरीत शिक्षा के फलस्वरूप उत्पन्न हुई व्यक्तिवादिता की भावना के कारण स्त्री के शोषण का जो वातावरण और जो व्यवस्था खडी हो गयी है उसे अपनी सुरक्षा को खतरे में डालकर भी स्त्रियाँ गँवाना नहीं चाहतीं। अपना पूरा समय अपनी पैसा कमाने की क्षमता बढाने के लिये युवा पीढी खर्च करना चाहती है। इहवादी संकीर्ण सोच के कारण आगे क्या होगा किसने देखा है, ऐसी मानसिकता समाजव्यापी बन गई है। व्यक्तिवादिता, इहवादिता और जड़वादिता की शिक्षा ने मनुष्य को स्वार्थी, उपभोगवादी और जड़ बुध्दि का बना दिया है। पेड से टूटे हुए जड़ पत्ते की तरह वह परिस्थिति के थपेडे सहते हुए केवल अपने लिये सोचने को ही पुरूषार्थ समझने लगा है। समाज जीवन को श्रेष्ठ और चिरंजीवी बनाने को वह अपना दायित्व नहीं मानता। सामाजिक उन्नयन के लिये मैं इस जन्म में तो क्या जन्म जन्मांतर भगीरथ प्रयास करूंगा ऐसा वह नहीं सोचता। नई पीढी के लोगोंं को समझाने से पहले वर्तमान मार्गदर्शक पीढी के लोगोंं को उनके आत्मविश्वासहीन और न्यूनताबोध की मानसिकता से बाहर आना होगा। लोगोंं को समझाने के लिये ही बहुत सारी शक्ति लगानी होगी। वर्तमान में भी जो संयुक्त परिवार चला रहे हैं उन्हें उच्चतम पुरस्कारों से सम्मानित करना होगा। सामाजिक दबाव बनाकर संयुक्त कुटुंब विरोधी भूमिका रखनेवालों को निष्प्रभ करना होगा। कुटुंबों में और विद्यालयों में जहाँ भी संभव है इस योजना का महत्व युवा वर्ग को समझाना होगा। युवक-युवतियों की मानसिकता बदलनी होगी। नये पैदा होने वाले बच्चोंं को योजना से जन्म देना होगा। गर्भ से ही संयुक्त परिवार का आग्रह संस्कारों से प्राप्त करने के कारण दूसरी पीढी में कुछ राहत मिल सकती है। तीसरी पीढी में जब इस व्यवस्था के लाभ मिलने लगेंगे तब इस योजना को चलाने में और विस्तार देने में अधिक सहजता आएगी। इस के लिये निम्न कुछ बातों का आग्रह करना होगा:
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संयुक्त परिवारों की पुन: प्रतिष्ठापना और दृढीकरण संयुक्त कुटुंब के असीम लाभ होने के उपरांत भी इसे प्रत्यक्ष में लाना अत्यंत कठिन है। विपरीत शिक्षा ने पुरानी पीढी के साथ ही युवा पीढी की मानसिकता बिगाड डाली है। 'अब हम इतने आगे आ गये हैं कि अब लौटना संभव नहीं है' - ऐसी दलील दी जाती है। १० पीढ़ियों की विपरीत शिक्षा के फलस्वरूप उत्पन्न हुई व्यक्तिवादिता की भावना के कारण स्त्री के शोषण का जो वातावरण और जो व्यवस्था खडी हो गयी है उसे अपनी सुरक्षा को खतरे में डालकर भी स्त्रियाँ गँवाना नहीं चाहतीं। अपना पूरा समय अपनी पैसा कमाने की क्षमता बढाने के लिये युवा पीढी खर्च करना चाहती है। इहवादी संकीर्ण सोच के कारण आगे क्या होगा किसने देखा है, ऐसी मानसिकता समाजव्यापी बन गई है। व्यक्तिवादिता, इहवादिता और जड़वादिता की शिक्षा ने मनुष्य को स्वार्थी, उपभोगवादी और जड़ बुद्धि का बना दिया है। पेड से टूटे हुए जड़ पत्ते की तरह वह परिस्थिति के थपेडे सहते हुए केवल अपने लिये सोचने को ही पुरूषार्थ समझने लगा है। समाज जीवन को श्रेष्ठ और चिरंजीवी बनाने को वह अपना दायित्व नहीं मानता। सामाजिक उन्नयन के लिये मैं इस जन्म में तो क्या जन्म जन्मांतर भगीरथ प्रयास करूंगा ऐसा वह नहीं सोचता। नई पीढी के लोगोंं को समझाने से पहले वर्तमान मार्गदर्शक पीढी के लोगोंं को उनके आत्मविश्वासहीन और न्यूनताबोध की मानसिकता से बाहर आना होगा। लोगोंं को समझाने के लिये ही बहुत सारी शक्ति लगानी होगी। वर्तमान में भी जो संयुक्त परिवार चला रहे हैं उन्हें उच्चतम पुरस्कारों से सम्मानित करना होगा। सामाजिक दबाव बनाकर संयुक्त कुटुंब विरोधी भूमिका रखनेवालों को निष्प्रभ करना होगा। कुटुंबों में और विद्यालयों में जहाँ भी संभव है इस योजना का महत्व युवा वर्ग को समझाना होगा। युवक-युवतियों की मानसिकता बदलनी होगी। नये पैदा होने वाले बच्चोंं को योजना से जन्म देना होगा। गर्भ से ही संयुक्त परिवार का आग्रह संस्कारों से प्राप्त करने के कारण दूसरी पीढी में कुछ राहत मिल सकती है। तीसरी पीढी में जब इस व्यवस्था के लाभ मिलने लगेंगे तब इस योजना को चलाने में और विस्तार देने में अधिक सहजता आएगी। इस के लिये निम्न कुछ बातों का आग्रह करना होगा:
 
# अपने से प्रारंभ करना। हो सके तो अपने भाईयों के साथ बात कर, उन्हें समझाकर एकसाथ रहना प्रारंभ करना।
 
# अपने से प्रारंभ करना। हो सके तो अपने भाईयों के साथ बात कर, उन्हें समझाकर एकसाथ रहना प्रारंभ करना।
 
# अपने बच्चोंं को संयुक्त कुटुंब का महत्व समझाना। वे विभक्त नहीं हों इसलिये हर संभव प्रयास करना। यथासंभव अपने बच्चोंंपर व्यक्तिवादिता, इहवादिता और जड़वादिता के संस्कार नहीं हों इसे सुनिश्चित करना। इस हेतु विद्यालयों में और समाज में जो विपरीत वातावरण है उससे बच्चोंं की रक्षा करना।  
 
# अपने बच्चोंं को संयुक्त कुटुंब का महत्व समझाना। वे विभक्त नहीं हों इसलिये हर संभव प्रयास करना। यथासंभव अपने बच्चोंंपर व्यक्तिवादिता, इहवादिता और जड़वादिता के संस्कार नहीं हों इसे सुनिश्चित करना। इस हेतु विद्यालयों में और समाज में जो विपरीत वातावरण है उससे बच्चोंं की रक्षा करना।  
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== उपसंहार ==
 
== उपसंहार ==
कई कुटुंब वर्तमान शिक्षा के प्रभाव में टूटने की कगार पर हैं। कई संयुक्त परिवारों में उनके सदस्यों में चल रहे झगडों के (जो वास्तविकता भी है) उदाहरण भी लोग देंगे। सामान्य जन तो ऐसे उदाहरणों से संभ्रम में पड जाएँगे। लेकिन जो समाज जीवन को समग्रता में और एकात्मता से देखने का प्रयास करेंगे उन्हें यह ध्यान में आएगा कि संयुक्त परिवार यह जीवन के पूरे प्रतिमान को धार्मिक (धार्मिक) बनाने की प्रक्रिया का एक अनिवार्य और महत्त्वपूर्ण अंग है। इसलिये सामान्य जन के संभ्रम से विचलित न होकर, हतोत्साहित न होते हुए हमें निष्ठा से संयुक्त कुटुंबों की फिर से प्रतिष्ठापना करनी होगी।  
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कई कुटुंब वर्तमान शिक्षा के प्रभाव में टूटने की कगार पर हैं। कई संयुक्त परिवारों में उनके सदस्यों में चल रहे झगडों के (जो वास्तविकता भी है) उदाहरण भी लोग देंगे। सामान्य जन तो ऐसे उदाहरणों से संभ्रम में पड जाएँगे। लेकिन जो समाज जीवन को समग्रता में और एकात्मता से देखने का प्रयास करेंगे उन्हें यह ध्यान में आएगा कि संयुक्त परिवार यह जीवन के पूरे प्रतिमान को धार्मिक बनाने की प्रक्रिया का एक अनिवार्य और महत्त्वपूर्ण अंग है। इसलिये सामान्य जन के संभ्रम से विचलित न होकर, हतोत्साहित न होते हुए हमें निष्ठा से संयुक्त कुटुंबों की फिर से प्रतिष्ठापना करनी होगी।  
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संयुक्त कुटुंब व्यवस्था का पुनरूत्थान वर्तमान में अत्यंत कठिन बात हो गई है। लोगोंं की ‘यह अब असंभव है’ ऐसी प्रतिक्रिया आना अत्यंत स्वाभाविक है। संयुक्त परिवारों द्वारा चलाए जा रहे कौटुम्बिक उद्योगों पर आधारित अर्थव्यवस्था, ऐसे परिवारों के परस्परावलंबन पर आधारित ग्राम को स्वावलंबी बनानेवाली, एक कुटुंब जैसा बनाने वाली ग्रामकुल की मालिकों की मानसिकता वाले समाज की अर्थव्यवस्था आदि जीवन के धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान के अनिवार्य अंग हैं।  
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संयुक्त कुटुंब व्यवस्था का पुनरूत्थान वर्तमान में अत्यंत कठिन बात हो गई है। लोगोंं की ‘यह अब असंभव है’ ऐसी प्रतिक्रिया आना अत्यंत स्वाभाविक है। संयुक्त परिवारों द्वारा चलाए जा रहे कौटुम्बिक उद्योगों पर आधारित अर्थव्यवस्था, ऐसे परिवारों के परस्परावलंबन पर आधारित ग्राम को स्वावलंबी बनानेवाली, एक कुटुंब जैसा बनाने वाली ग्रामकुल की मालिकों की मानसिकता वाले समाज की अर्थव्यवस्था आदि जीवन के धार्मिक प्रतिमान के अनिवार्य अंग हैं।  
    
वर्तमान में संयुक्त कुटुंब निर्माण और विस्तार यह विषय केवल कुछ लोगोंं के दिमाग में आए प्रबल विचार तक ही सीमित है। कुछ लोगोंं और कुटुंबों तक यह सीमित नहीं रहे। यह विषय सभी हिंदू समाज का बनना चाहिये। इस दृष्टि से हिंदू समाज के हित में काम करनेवाले सभी संगठन, संस्थाएँ और कुटुंब इस विषय को गंभीरता से लें तो तीन पीढियों में हमारे देश का चित्र फिर से जैसा हमें अपेक्षित है वैसा सुखी, सुसंस्कृत और समृद्ध दिखाई देने लगेगा।
 
वर्तमान में संयुक्त कुटुंब निर्माण और विस्तार यह विषय केवल कुछ लोगोंं के दिमाग में आए प्रबल विचार तक ही सीमित है। कुछ लोगोंं और कुटुंबों तक यह सीमित नहीं रहे। यह विषय सभी हिंदू समाज का बनना चाहिये। इस दृष्टि से हिंदू समाज के हित में काम करनेवाले सभी संगठन, संस्थाएँ और कुटुंब इस विषय को गंभीरता से लें तो तीन पीढियों में हमारे देश का चित्र फिर से जैसा हमें अपेक्षित है वैसा सुखी, सुसंस्कृत और समृद्ध दिखाई देने लगेगा।
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[[Category:Dharmik Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान - भाग १)]]
 
[[Category:Dharmik Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान - भाग १)]]
 
[[Category:Dharmik Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान)]]
 
[[Category:Dharmik Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान)]]
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[[Category:Dharmik Jeevan Pratimaan Paathykram]]

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