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सुधार जारि
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ज्योतिष के त्रिप्रश्नों (दिक् देश एवं काल) में से एक है- दिक् । सामान्यतया दिक् शब्द का अर्थ होता है- दिशा। दिग् व्यवस्था द्वारा ब्रह्माण्ड के अन्तर्गत एवं इस पृथ्वी पर किसी की स्थिति का निर्धारण किया जा सकता है। सामान्यतया दिक् या दिशा के बारे में आम लोग केवल इतना जानते हैं कि दिशायें केवल चार होती हैं- पूर्व, पश्चिम, उत्तर एवं दक्षिण, परन्तु ऐसा नहीं है। ज्योतिषशास्त्रमें देश की अवधारणा और उसके भेदों का वर्णन है। इसमें देश और भूमि का विश्लेषण। ग्रामवास में नराकृति, नाम राशि के अनुसार ग्रामवास का शुभ विचार, विधि तथा निषेध, अक्षांश, देशान्तर आदि का परिचय प्राप्त होगा। एवं दिक् परिचय, दिक् साधन की प्राचीन विधियाँ, दिक् साधन की आधुनिक विधियाँ और इन दोनों विधियों के अन्तर का ज्ञान यहाँ प्राप्त करेंगे। ज्योतिष शास्त्रमें काल की अवधारणा और इसके भेदों का वर्णन भी किया गया है।
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त्रिप्रश्नाधिकार सिद्धान्त एवं करण ग्रंथों का यह एक महत्वपूर्ण प्रकरण है। इसके अंतर्गत तीन प्रमुख प्रश्नों के समाधान हैं , इसलिए इसे त्रिप्रश्नाधिकार कहा जाता है। वे तीनों प्रश्न हैं - दिक् , देश और काल। इनमें दिक्-देश का परस्पर घनिष्ठ संबंध है। एक के ज्ञान में दूसरा सहायक होता है परंतु काल इनसे भिन्न है। कई अन्य शास्त्रों ने केवल देश और काल दो को ही स्वीकार किया है। ज्योतिष के अनुसार देश के साथ दिक् का संबंध होते हुए भी देश और दिक् में भेद माना है तथा दोनों के साधन का मार्ग अलग-अलग बतलाया है। विना दिक् ज्ञान के देशज्ञान संभव नहीं और विना देश के दिक् का कोई उपयोग नहीं। अतः ज्योतिषशास्त्र ने दिक्-देश और काल तीनों की अलग-अलग सत्ता स्वीकार की है। इन तीनों विषयों का विवेचन इस लेख में किया गया है।  
    
== दिक् परिचय ==
 
== दिक् परिचय ==
 
ज्योतिषशास्त्र के किसी भी स्कन्ध के मुख्य रूप से तीन आधार स्तम्भ हैं - दिक् , देश एवं काल। इन्हीं तीनों के आधार पर ज्योतिषीय गणित, फलित एवं संहिता आदि स्कन्ध अपना-अपना कार्य करती है।अतः उनमें यहाँ दिक् साधन से सम्बन्धित विषयों को प्रस्तुत किया जा रहा है। यहाँ हम दिक् साधन के गणितीय एवं उसका सैद्धान्तिक पक्ष के स्वरूप को समझते हैं।
 
ज्योतिषशास्त्र के किसी भी स्कन्ध के मुख्य रूप से तीन आधार स्तम्भ हैं - दिक् , देश एवं काल। इन्हीं तीनों के आधार पर ज्योतिषीय गणित, फलित एवं संहिता आदि स्कन्ध अपना-अपना कार्य करती है।अतः उनमें यहाँ दिक् साधन से सम्बन्धित विषयों को प्रस्तुत किया जा रहा है। यहाँ हम दिक् साधन के गणितीय एवं उसका सैद्धान्तिक पक्ष के स्वरूप को समझते हैं।
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ज्योतिष के त्रिप्रश्नों (दिक् देश एवं काल) में से एक है- दिक् । सामान्यतया दिक् शब्द का अर्थ होता है- दिशा। दिग् व्यवस्था द्वारा ब्रह्माण्ड के अन्तर्गत एवं इस पृथ्वी पर किसी की स्थिति का निर्धारण किया जा सकता है। सामान्यतया दिक् या दिशा के बारे में आम लोग केवल इतना जानते हैं कि दिशायें केवल चार होती हैं- पूर्व, पश्चिम, उत्तर एवं दक्षिण, परन्तु ऐसा नहीं है। ज्योतिषशास्त्रमें देश की अवधारणा और उसके भेदों का वर्णन है। इसमें देश और भूमि का विश्लेषण। ग्रामवास में नराकृति, नाम राशि के अनुसार ग्रामवास का शुभ विचार, विधि तथा निषेध, अक्षांश, देशान्तर आदि का परिचय प्राप्त होगा। एवं दिक् परिचय, दिक् साधन की प्राचीन विधियाँ, दिक् साधन की आधुनिक विधियाँ और इन दोनों विधियों के अन्तर का ज्ञान यहाँ प्राप्त करेंगे। ज्योतिष शास्त्रमें काल की अवधारणा और इसके भेदों का वर्णन भी किया गया है।
    
दिक् साधन ज्योतिषशास्त्र के मूलाधार पक्षों में से एक है। ऋषियों ने किसी भी वस्तु के परिज्ञान के लिये दिक् साधन की व्यवस्था प्रतिपादित किया है। ज्योतिष में प्रयोग के तीन पक्ष हैं- दिक् , देश एवं काल। इनके ज्ञानाभाव में ज्योतिषशास्त्र द्वारा सम्यक् रूप से किसी भी तथ्य को जानपाना सर्वथा दुष्कर है।
 
दिक् साधन ज्योतिषशास्त्र के मूलाधार पक्षों में से एक है। ऋषियों ने किसी भी वस्तु के परिज्ञान के लिये दिक् साधन की व्यवस्था प्रतिपादित किया है। ज्योतिष में प्रयोग के तीन पक्ष हैं- दिक् , देश एवं काल। इनके ज्ञानाभाव में ज्योतिषशास्त्र द्वारा सम्यक् रूप से किसी भी तथ्य को जानपाना सर्वथा दुष्कर है।
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इसके अतिरिक्त भी आचार्य ने लिखा है कि समग्र भूमण्डल पर स्थित व्यक्तियों के लिये सुमेरु उत्तर दिशा में होता है। अतः सुमेरु से १८०० दूसरी तरफ दक्षिण दिशा सिद्ध होगी। परन्तु प्रस्तुत प्रसंग में सूर्योदय तथा सूर्यास्त के द्वारा दिग्साधन करने से व्यवहारिक उपयोग में भी अनुभव हीनता से अनेक समस्याएं दिग् निर्धारण में उपस्थित हो जाती हैं क्यों कि सूर्य के विषुवत् रेखा से २३०। २७ (परम क्रान्ति तुल्य) उत्तर से लेकर विषुवत् रेखा से २३०।२७ दक्षिण तक भ्रमण करने के कारण ४६०।५४ के बीच में हर स्थान पर सूर्योदय एवं सूर्यास्त का स्थान क्रमशः रोज बदलता रहेगा जिससे एक जगह पर भी प्रतिदिन पूर्वादि दिशाएं भिन्न-भिन्न होती रहेंगी। अतः ४६०।५४ के मध्य किस बिन्दु के सूर्योदय को पूर्व बिन्दु मानकर किसी कार्य व्यापार का सम्पादन किया जाय एतदर्थ आचार्यों ने सूक्ष्म दिग्ज्ञान की व्यवस्थाएं दी हैं क्यों कि यागादि कर्म में स्वल्प दिग्दोष उपस्थित होने पर भी उनके फल नहीं मिलते है। अतः आचार्यों ने इस प्रपंच से मुक्ति के लिये सूक्ष्म प्रकार से दिग् साधन की अनेक विधियाँ ग्रन्थों में दी हैं।
 
इसके अतिरिक्त भी आचार्य ने लिखा है कि समग्र भूमण्डल पर स्थित व्यक्तियों के लिये सुमेरु उत्तर दिशा में होता है। अतः सुमेरु से १८०० दूसरी तरफ दक्षिण दिशा सिद्ध होगी। परन्तु प्रस्तुत प्रसंग में सूर्योदय तथा सूर्यास्त के द्वारा दिग्साधन करने से व्यवहारिक उपयोग में भी अनुभव हीनता से अनेक समस्याएं दिग् निर्धारण में उपस्थित हो जाती हैं क्यों कि सूर्य के विषुवत् रेखा से २३०। २७ (परम क्रान्ति तुल्य) उत्तर से लेकर विषुवत् रेखा से २३०।२७ दक्षिण तक भ्रमण करने के कारण ४६०।५४ के बीच में हर स्थान पर सूर्योदय एवं सूर्यास्त का स्थान क्रमशः रोज बदलता रहेगा जिससे एक जगह पर भी प्रतिदिन पूर्वादि दिशाएं भिन्न-भिन्न होती रहेंगी। अतः ४६०।५४ के मध्य किस बिन्दु के सूर्योदय को पूर्व बिन्दु मानकर किसी कार्य व्यापार का सम्पादन किया जाय एतदर्थ आचार्यों ने सूक्ष्म दिग्ज्ञान की व्यवस्थाएं दी हैं क्यों कि यागादि कर्म में स्वल्प दिग्दोष उपस्थित होने पर भी उनके फल नहीं मिलते है। अतः आचार्यों ने इस प्रपंच से मुक्ति के लिये सूक्ष्म प्रकार से दिग् साधन की अनेक विधियाँ ग्रन्थों में दी हैं।
 
==दिक् साधन की विविध शास्त्रीय विधियां==
 
==दिक् साधन की विविध शास्त्रीय विधियां==
ज्योतिष शास्त्र में दिक्साधन करने हेतु शंकु का बहुत महत्त्व है। अथर्ववेद के उपवेद रूप में प्रसिद्ध वास्तुशास्त्र में भी दिग्ज्ञान के शुद्धिकरण हेतु शंकु के प्रयोग का वर्णन भी उपलब्ध होता है। ग्राम-नगर-पुर-गृह आदि के निर्माण में शंकु का पर्याप्त महत्त्व रहता है। उपर्युक्त बातों को जानकर हम यह भी कह सकते हैं कि दिक् साधन वास्तुशास्त्र का एक प्रयोजन है। शंकु मुख्यतया लकडी-लोहे-धातु आदि से निर्मित एक दण्डिका होती है। जिसकी लम्बाई १२, १८ या २४ अंगुल की तथा उसके आधार की चौडाई ४,५ अथवा ६ अंगुल की हो सकती है। इसी प्रकार यह दण्डिका सूची के आकार की होती है। जो स्थान अथवा देश या क्षेत्र जहां हमें निर्माण का कार्य करना
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ज्योतिष शास्त्र में दिक्साधन करने हेतु शंकु का बहुत महत्त्व है। अथर्ववेद के उपवेद रूप में प्रसिद्ध वास्तुशास्त्र में भी दिग्ज्ञान के शुद्धिकरण हेतु शंकु के प्रयोग का वर्णन भी उपलब्ध होता है। ग्राम-नगर-पुर-गृह आदि के निर्माण में शंकु का पर्याप्त महत्त्व रहता है। उपर्युक्त बातों को जानकर हम यह भी कह सकते हैं कि दिक् साधन वास्तुशास्त्र का एक प्रयोजन है।  
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- शंकु मुख्यतया लकडी-लोहे-धातु आदि से निर्मित एक दण्डिका होती है। जिसकी लम्बाई १२, १८ या २४ अंगुल की तथा उसके आधार की चौडाई ४,५ अथवा ६ अंगुल की हो सकती है। इसी प्रकार यह दण्डिका सूची के आकार की होती है। जो स्थान अथवा देश या क्षेत्र जहां हमें निर्माण का कार्य करना
    
== दिक्साधन की आधुनिक विधि ==
 
== दिक्साधन की आधुनिक विधि ==
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== देश ==
 
== देश ==
देश अथवा स्थान के बिना हम दिक् और काल का ज्ञान ही नहीं कर सकते हैं। अर्थात् दिक् और काल का आधार देश ही है। देश के भेद से काल में भी भेद उत्पन्न हो जाता है। अतः भारतीय ज्योतिष परम्परा में त्रिप्रश्न अर्थात् दिक् , देश और काल तीनों का समग्र चिन्तन किया जाता है जिस में देश का स्थान सर्वाधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि देश से ही निर्माण प्रक्रिया का शुभारम्भ होता है।
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देश अथवा स्थान के बिना हम दिक् और काल का ज्ञान ही नहीं कर सकते हैं। अर्थात् दिक् और काल का आधार देश ही है। देश के भेद से काल में भी भेद उत्पन्न हो जाता है। अतः भारतीय ज्योतिष परम्परा में त्रिप्रश्न अर्थात् दिक् , देश और काल तीनों का समग्र चिन्तन किया जाता है जिस में देश का स्थान सर्वाधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि देश से ही निर्माण प्रक्रिया का शुभारम्भ होता है। देश का सम्बन्ध क्षेत्र विशेष अथवा स्थान विशेष से है जिसमें वास्तुनिर्माण किया जाना है। काल का सम्बन्ध समय से है। ज्योतिष के क्षेत्र में दिक् साधन के उपरान्त देशके शुभाशुभत्व का विचार किया जाता है। अतः शास्त्रानुसार देश और काल की शुद्धता के आधार पर वास्तु का विधान होना चाहिये। ज्योतिष और वास्तु के ग्रन्थों में दिक् , देश, काल पर विस्तार से वर्णन मिलता है। क्षेत्र अथवा देश का निर्धारण अक्षांश व देशान्तर के आधार पर होता है। प्रकृति, जनपद एवं जलवायु को दृष्टि में रखकर देश-भूमि चयन किया जाता है।<ref name=":1">योगेंद्र कुमार शर्मा, [http://egyankosh.ac.in//handle/123456789/80827 देश की अवधारणा एवं भेद], सन् २०२१, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ०२७७)।</ref>
 
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== परिचय ==
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देश का सम्बन्ध क्षेत्र विशेष अथवा स्थान विशेष से है जिसमें वास्तुनिर्माण किया जाना है। काल का सम्बन्ध समय से है। ज्योतिष के क्षेत्र में दिक् साधन के उपरान्त देशके शुभाशुभत्व का विचार किया जाता है। अतः शास्त्रानुसार देश और काल की शुद्धता के आधार पर वास्तु का विधान होना चाहिये। ज्योतिष और वास्तु के ग्रन्थों में दिक् , देश, काल पर विस्तार से वर्णन मिलता है। क्षेत्र अथवा देश का निर्धारण अक्षांश व देशान्तर के आधार पर होता है। प्रकृति, जनपद एवं जलवायु को दृष्टि में रखकर देश-भूमि चयन किया जाता है।<ref name=":1">योगेंद्र कुमार शर्मा, [http://egyankosh.ac.in//handle/123456789/80827 देश की अवधारणा एवं भेद], सन् २०२१, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ०२७७)।</ref>
      
== देश का विचार ==
 
== देश का विचार ==
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द्वितीय प्रकार से हम अपने देश का निर्धारण देशान्तरों के माध्यम से करते हैं कि कल्पना की है। इसके अन्तर्गत इनमें से एक वृत्त को मानक भूमध्य देशान्तर मानकर उससे पूर्व या पश्चिम कितने अंशादि पर अपना स्थान अथवा देश है इसका ज्ञान किया जाता है। किसी स्थान की सटीक स्थिति को उस स्थान के अक्षांश व देशान्तर की मदद से जान सकते हैं। किसी स्थान को अक्षांशधरातल पर उस स्थान की उत्तर-दक्षिण स्थिति को बताता है। यहाँ हम अक्षांश व देशान्तर को विस्तार से समझने का प्रयास करते हैं।<ref name=":1" />
 
द्वितीय प्रकार से हम अपने देश का निर्धारण देशान्तरों के माध्यम से करते हैं कि कल्पना की है। इसके अन्तर्गत इनमें से एक वृत्त को मानक भूमध्य देशान्तर मानकर उससे पूर्व या पश्चिम कितने अंशादि पर अपना स्थान अथवा देश है इसका ज्ञान किया जाता है। किसी स्थान की सटीक स्थिति को उस स्थान के अक्षांश व देशान्तर की मदद से जान सकते हैं। किसी स्थान को अक्षांशधरातल पर उस स्थान की उत्तर-दक्षिण स्थिति को बताता है। यहाँ हम अक्षांश व देशान्तर को विस्तार से समझने का प्रयास करते हैं।<ref name=":1" />
===अक्षांश विचार===
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===अक्षांश विचार (Latitudes)===
 
पूर्व से पश्चिम की तरफ पृथ्वी को घेरते हुए पूरी गोलाई में यदि पृथ्वी के उत्तरी एवं दक्षिणी ध्रुवों वाले भागों में समान दूरी पर रेखायें खीची जायें तो इनको अक्षांश (Latitude) कहा जाता है। इन अक्षांशों की सहायता से किसी व्यक्ति का स्थान भूमध्य रेखा अथवा विषुवत रेखा कितनी दूरी पर है? यह जान सकते हैं।
 
पूर्व से पश्चिम की तरफ पृथ्वी को घेरते हुए पूरी गोलाई में यदि पृथ्वी के उत्तरी एवं दक्षिणी ध्रुवों वाले भागों में समान दूरी पर रेखायें खीची जायें तो इनको अक्षांश (Latitude) कहा जाता है। इन अक्षांशों की सहायता से किसी व्यक्ति का स्थान भूमध्य रेखा अथवा विषुवत रेखा कितनी दूरी पर है? यह जान सकते हैं।
    
इसी के अनुसार लग्न आदि समस्त गणनायें की जाती हैं तथा पंचांग आदि बनाये जाते हैं। सामान्यतया हम  ये समझते हैं कि भूमध्यरेखा ०॰ अक्षांश रेखा है। अतः इसे ही निरक्षदेश कहते हैं। भूमध्यरेखा के समीप स्थित सभी स्थानों का राशि उदयमान बराबर रहता है। हम इस विषुवत रेखा से जैसे उत्तर अथवा दक्षिण दिशा की तरफ जाते हैं वैसे-वैसे उन स्थानों के राशि उदयमान में परिवर्तन आता जाता है।  
 
इसी के अनुसार लग्न आदि समस्त गणनायें की जाती हैं तथा पंचांग आदि बनाये जाते हैं। सामान्यतया हम  ये समझते हैं कि भूमध्यरेखा ०॰ अक्षांश रेखा है। अतः इसे ही निरक्षदेश कहते हैं। भूमध्यरेखा के समीप स्थित सभी स्थानों का राशि उदयमान बराबर रहता है। हम इस विषुवत रेखा से जैसे उत्तर अथवा दक्षिण दिशा की तरफ जाते हैं वैसे-वैसे उन स्थानों के राशि उदयमान में परिवर्तन आता जाता है।  
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===देशान्तर विचार===
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===देशान्तर विचार (Longitudes)===
देशान्तर का अर्थ होता है दो रेखा देशों का अन्तर। देश का अर्थ यहां स्थान है न कि राजनैतिक मानचित्र पर  
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देशान्तर का अर्थ होता है दो रेखा देशों का अन्तर। देश का अर्थ यहां स्थान है न कि राजनैतिक मानचित्र पर दर्शाया गया कोई देश। इस तरह सामान्य परिभाषा के आधार पर देशान्तर का अर्थ दो स्थानों का अन्तर है। यह देशान्तर दो प्रकार का होता है- १ , पूर्व- पश्चिम, जिसे हम पूर्वापर देशान्तर कहते हैं तथा दूसरा दक्षिण-उत्तर जिसे याम्योत्तर देशान्तर कहते हैं। पूर्वापर देशान्तर का ज्ञान अक्षांश द्वारा किया जाता है। रेखांश या देशान्तर रेखाएँ वे होती हैं जो रेखायें पृथ्वी पर उत्तरी ध्रुव से प्रारम्भ होकर भूमध्य रेखा को खडी काटती हुई दक्षिणी ध्रुव तक जाती है।  
 
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दर्शाया गया कोई देश। इस तरह सामान्य परिभाषा के आधार पर देशान्तर का अर्थ दो स्थानों का अन्तर है। यह देशान्तर दो प्रकार का होता है- १ , पूर्व- पश्चिम, जिसे हम पूर्वापर देशान्तर कहते हैं तथा दूसरा दक्षिण-उत्तर जिसे याम्योत्तर देशान्तर कहते हैं। पूर्वापर देशान्तर का ज्ञान अक्षांश द्वारा किया जाता है। रेखांश या देशान्तर रेखाएँ वे होती हैं जो रेखायें पृथ्वी पर उत्तरी ध्रुव से प्रारम्भ होकर भूमध्य रेखा को खडी काटती हुई दक्षिणी ध्रुव तक जाती है।
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देशान्तर रेखायें उत्तर से दक्षिण आडी रेखाएँ हैं तथा पृथ्वी पर पूर्व व पश्चिम की तरफ बराबर दूरी पर गोल पर इस प्रकार दिखती है जैसे संतरा की कलियां हों। इन रेखांश रेखाओं पर किसी एक स्थान को निश्चित करके भूमि पर दूसरे स्थानों की दूरी उस निश्चित किये हुए स्थान से नापी जाती है। अतः इनको ही हम देशान्तर रेखाओं के नाम से जानते हैं। इंग्लैण्ड स्थित ग्रीनविच नामक स्थान पर ०॰ देशान्तर मान लिया है अर्थात् ग्रीनविच को ०॰ देशान्तर मानकर निश्चित कर लिया गया है। प्राचीन काल में भारतीय ज्योतिष के अनुसार उज्जैन के देशान्तर को ०॰ निश्चित किया गया था। जहां से सभी स्थानों की दूरी मापी जाती थी। परन्तु अब ग्रीनविच से सभी स्थानों की दूरी मापी जाती है।
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यल्लङ्कोज्जयिनीपुरीकुरुक्षेत्रादिदेशान् स्पृशेत् । सूत्रं मेरुगतं बुधैर्निगदिता सा मध्यरेखाभुवः॥
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देशान्तर रेखायें उत्तर से दक्षिण आडी रेखाएँ हैं तथा पृथ्वी पर पूर्व व पश्चिम की तरफ बराबर दूरी पर गोल पर इस प्रकार दिखती है जैसे संतरा की कलियां हों। इन रेखांश रेखाओं पर किसी एक स्थान को निश्चित करके भूमि पर दूसरे स्थानों की दूरी उस निश्चित किये हुए स्थान से नापी जाती है। अतः इनको ही हम देशान्तर रेखाओं के नाम से जानते हैं। इंग्लैण्ड स्थित ग्रीनविच नामक स्थान पर ०॰ देशान्तर मान लिया है अर्थात् ग्रीनविच को ०॰ देशान्तर मानकर निश्चित कर लिया गया है। प्राचीन काल में भारतीय ज्योतिष के अनुसार उज्जैन के देशान्तर को ०॰ निश्चित किया गया था। जहां से सभी स्थानों की दूरी मापी जाती थी। परन्तु अब ग्रीनविच से सभी स्थानों की दूरी मापी जाती है। यल्लङ्कोज्जयिनीपुरीकुरुक्षेत्रादिदेशान् स्पृशेत् । सूत्रं मेरुगतं बुधैर्निगदिता सा मध्यरेखाभुवः॥
    
== सारांश ==
 
== सारांश ==
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==काल की अवधारणा==
 
==काल की अवधारणा==
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(main article Bharatiya Kalaman (भारतीय कालमन))
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यास्कानुसार काल वह शक्ति है जो सबको गति देती है। संसार में गति अथवा कर्म का मूलाधार काल ही है क्योंकि कोई भी गति या कर्म किसी काल में ही किया जाता है, चाहे वह सूक्ष्म हो या व्यापक हो। वस्तुतः ज्योतिषशास्त्र काल विधायक शास्त्र है, इसका मुख्य आधार ही कालगणना है। जन्मकुण्डली निर्माण से लेकर मुहूर्त शोधन व समष्टि गत शुभाशुभ का विचार तक इसी काल के सूक्ष्मातिसूक्ष्म एवं स्थूल दोनों रूपों द्वारा होता है अर्थात् सर्वत्र काल गणना ही आधार है।
 
यास्कानुसार काल वह शक्ति है जो सबको गति देती है। संसार में गति अथवा कर्म का मूलाधार काल ही है क्योंकि कोई भी गति या कर्म किसी काल में ही किया जाता है, चाहे वह सूक्ष्म हो या व्यापक हो। वस्तुतः ज्योतिषशास्त्र काल विधायक शास्त्र है, इसका मुख्य आधार ही कालगणना है। जन्मकुण्डली निर्माण से लेकर मुहूर्त शोधन व समष्टि गत शुभाशुभ का विचार तक इसी काल के सूक्ष्मातिसूक्ष्म एवं स्थूल दोनों रूपों द्वारा होता है अर्थात् सर्वत्र काल गणना ही आधार है।
 
===परिचय===
 
===परिचय===
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सामान्यतया काल को हम प्राणियों के प्राणों को हरने वाले यमराज के नाम से जानते हैं। इस आधार पर हम कह सहते हैं कि काल का एक रूप तो साक्षात् काल (यम ) है और दूसरा रूप काल का गणनात्मक (जिसकी गणना की जाए) है। यहां पर हम गणनात्मक काल लो भी मुख्यतः दो रूपों में बांट सकते हैं, जैसे- स्थूल और सूक्ष्म काल।
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=== स्थूल काल ===
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स्थूल काल का ही दूसरा नाम मूर्तकाल भी है। यह काल की गणना करने में सबसे छोटी इकाई भी है, यही प्राणादिकाल भी है। प्राण का ही दूसरा नाम असु है। जैसे १ प्राण = स्वस्थ व्यक्ति के श्वांस लेने व छोडने का समय= दीर्घ अक्षर उच्चारण काल = १० विपल = ४ सेकेण्ड । इसी प्रकार ६ प्राण की एक विनाडी (पल), ६० विनाडी (पल) की। नाडी, ६० नाडी (घटी) का एक नाक्षत्र अहोरात्र कहा गया है। ३० अहोरात्र का एक मास होता है। दो सूर्योदयों के मध्य का काल सावन दिन कहलाता है। संक्षिप्त रूप से कह सकते हैं जैसे-
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10 दीर्घाक्षर उच्चारण काल - 1 प्राण = 10 विपल
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06  प्राण = (10 x 6) = 60 विपल = 1 पल
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60 पल = 01 नाड़ी (घटी)
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60 नाड़ी = 1 अहोरात्र (नाक्षत्र)
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30 अहोरात्र = 1 मास
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यह काल मान स्थूल काल गणना के हैं।
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=== सूक्ष्मकाल (अमूर्तकाल) ===
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वस्तुतः अमूर्तकाल की सबसे छोटी इकाई त्रुटि है। दूसरे शब्दों में कहें तो हम कह सकते हैं कि एक सुई से कमल पत्र को छेदने में जितना समय लगता है वह त्रुटि है। इसीलिये कहा भी है -<blockquote>सूच्या भिन्ने पद्मपत्रे त्रुटिरित्यभिधीयते।</blockquote>इसके अलावा भी अमूर्तकाल में रेणु - लव - लीक्षक भी आते हैं, जिन्हैं हम निम्नप्रकार से समझ सकते हैं-
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1 त्रुटि = 1/ 3240000 सेकेंड
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60 त्रुटि = 1/ 54000 सेकेण्ड
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60 रेणु = 1 लव = 1/900 सेकेण्ड
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60 लव = 1 लीक्षक = 1/15 सेकेण्ड
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60 लीक्षक व 1 प्राण = 10 दीर्घ अक्षर के उच्चारण का काल
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कालः कल्यतेगतिकर्मणः। ( नि० २, २५)
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स हि कालः सर्वाण्येव भूतानि कालयति क्षयं नयतीत्यर्थः।
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प्राणादिः कथितो मूर्तस्त्रुट्याद्योऽमूर्तसंज्ञकः। षड्भिः प्राणैर्विनाडी स्यात् तत्षष्ठ्या नाडिका स्मृता॥
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नाडीषष्ठ्या तु नाक्षत्रमहोरात्रं प्रकीर्तितम् । तत् त्रिंशता भवेन्मासः सावनोऽर्कोदयस्तथा॥(सूर्य सिद्धान्त, मध्यमाधिकार-११-१२)
    
काल
 
काल
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अयन
 
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गोल
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== उद्धरण ==
 
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