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अर्थ : ऐसा कोई भी अक्षर नहीं है जिसका मंत्र निर्माण के लिए उपयोग न हो। ऐसी कोई वनस्पति नहीं जिसका कोई औषधि बनाने के लिए उपयोग (वैद्य जीवक की कथा) न होता हो। इसका अर्थ है कि प्रत्येक वनस्पति के अस्तित्व को कुछ न कुछ प्रयोजन तो है ही। भारतीय मान्यता है कि हर अस्तित्व का कुछ प्रयोजन होता है। इस प्रयोजन को समझकर यदि उस का उपयोग किया जाय तब अधिक से अधिक लाभ मिलता है। इसी तरह से ऐसा कोई भी मनुष्य नहीं है जिसका उपयोग नहीं है। क्षमतावान योजक इन सबका उपयोग क्रमश: अक्षरों का मन्त्रों के लिए, वनस्पति का रोग निवारण हेतु औषधि बनाने के लिए और प्रत्येक मनुष्य का उपयोग व्यक्ति, समाज या सृष्टि के हित के लिए किसी न किसी काम में आ सके इस ढंग से कर लेता है।  
 
अर्थ : ऐसा कोई भी अक्षर नहीं है जिसका मंत्र निर्माण के लिए उपयोग न हो। ऐसी कोई वनस्पति नहीं जिसका कोई औषधि बनाने के लिए उपयोग (वैद्य जीवक की कथा) न होता हो। इसका अर्थ है कि प्रत्येक वनस्पति के अस्तित्व को कुछ न कुछ प्रयोजन तो है ही। भारतीय मान्यता है कि हर अस्तित्व का कुछ प्रयोजन होता है। इस प्रयोजन को समझकर यदि उस का उपयोग किया जाय तब अधिक से अधिक लाभ मिलता है। इसी तरह से ऐसा कोई भी मनुष्य नहीं है जिसका उपयोग नहीं है। क्षमतावान योजक इन सबका उपयोग क्रमश: अक्षरों का मन्त्रों के लिए, वनस्पति का रोग निवारण हेतु औषधि बनाने के लिए और प्रत्येक मनुष्य का उपयोग व्यक्ति, समाज या सृष्टि के हित के लिए किसी न किसी काम में आ सके इस ढंग से कर लेता है।  
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परमात्मा ने सृष्टि के अनगिनत अस्तित्वों का निर्माण किया है। कोई भी वस्तू जब निर्माण की जाती है तब वह अकारण निर्माण नहीं की जाती। किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही उसका निर्माण कोई करता है। इसी तरह से सृष्टि के हर अस्तित्व के याने निर्मिती के निर्माण का कोई प्रयोजन होता है। प्रत्येक वनस्पति के संदर्भ में आयुर्वेद शास्त्र इसकी पुष्टी करता है।
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परमात्मा ने सृष्टि के अनगिनत अस्तित्वों का निर्माण किया है। कोई भी वस्तू जब निर्माण की जाती है तब वह अकारण निर्माण नहीं की जाती। किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही उसका निर्माण कोई करता है। इसी तरह से सृष्टि के हर अस्तित्व के याने निर्मिती के निर्माण का कोई प्रयोजन होता है। प्रत्येक वनस्पति के संदर्भ में आयुर्वेद शास्त्र इसकी पुष्टि करता है।
    
== चराचर में परमात्मा ==
 
== चराचर में परमात्मा ==
भारतीय मान्यता के अनुसार परमात्मा ने अपने में से ही सृष्टि का निर्माण किया है। याने सृष्टि का हर अस्तित्व परमात्मा का ही रूप है। इसे भारत में केवल तत्त्वज्ञान के तौरपर ही नहीं व्यवहार याने आचरण के लिए भी आग्रह का विषय बनाया गया है। इसीलिये वनस्पति से जब औषधि के लिए कुछ छाल, मूल, लकड़ी, फल, फूल या पत्ते लिए जाते हैं तब उस वनस्पति को आदर से पूजा जाता है। वनस्पति की प्रार्थना की जाती है कि,’हे वनस्पति! मैं आपसे मेरे स्वार्थ के लिए नहीं बल्कि किसी रोगी के दुःख को दूर करने के लिए आपके छाल, मूल, लकड़ी, फल, फूल या पत्ते लेना चाहता हूँ। कृपया हमपर कृपा कर मुझे रोगी का रोग दूर करने में सहायता करें।’
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भारतीय मान्यता के अनुसार परमात्मा ने अपने में से ही सृष्टि का निर्माण किया है। याने सृष्टि का हर अस्तित्व परमात्मा का ही रूप है। इसे भारत में केवल तत्वज्ञान के तौर पर ही नहीं व्यवहार याने आचरण के लिए भी आग्रह का विषय बनाया गया है। इसीलिये वनस्पति से जब औषधि के लिए कुछ छाल, मूल, लकड़ी, फल, फूल या पत्ते लिए जाते हैं तब उस वनस्पति को आदर से पूजा जाता है। वनस्पति की प्रार्थना की जाती है कि, "हे वनस्पति! मैं आपसे मेरे स्वार्थ के लिए नहीं बल्कि किसी रोगी के दुःख को दूर करने के लिए आपके छाल, मूल, लकड़ी, फल, फूल या पत्ते लेना चाहता हूँ। कृपया हम पर कृपा कर मुझे रोगी का रोग दूर करने में सहायता करें।"   
सामान्यत: जब किसी अन्य से मदद माँगी जाती है, तब नम्रता से ही माँगी जाती है। जब कोई आपके माँगनेपर प्रसन्नता से मदद करता है तब उस मदद का स्तर श्रेष्ठ होता है। मदद करनेवाला मन:पूर्वक मदद करता है। खुलकर मदद करता है। तब वह मदद आपके काम के लिए अधिक लाभप्रद होती है। भारत में सामान्यत: घर या कोई भी मकान बांधने से पूर्व इसीलिये भूमि-पूजन का कार्यक्रम किया जाता है। यह भूमि को और उस भूमि के सहारे जीनेवाले जीव, सूक्ष्मजीव और वनस्पतियों को प्रसन्न करने के लिए ही किया जाता है। वनस्पति भी जीव होते हैं। इसलिए आयुर्वेद कहता है कि ऐसी आदर से माँगकर ली हुई औषधि अधिक गुणकारी होती है।  
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आयुर्वेद में स्वास्थ्य का तीन प्रकार से विचार किया जाता है। सत्कार्यवाद, गुणपरिणामवाद और सहकार्यवाद। सत्कार्यवाद के अनुसार कार्य के गुण सूक्ष्म रूप में कारण में होते ही हैं, ऐसा कहा गया है। सांख्य दर्शन में यही कार्य कारण सिद्धांत के नाम से जाना जाता है। गुणपरिणामवाद में कुछ गुण तो दृष्ट याने सहज दिखाई देनेवाले होते हैं। लेकिन कुछ सूक्ष्म होने से अदृष्ट होते हैं। ये अदृष्ट गुण किसी विशेष प्रक्रिया में ही प्रकट होते हैं। इस अदृष्ट गुणों के प्रकट होकर दृष्ट होने की प्रक्रिया को ही गुणपरिणामवाद कहा है। हर द्रव्य के गुणों में त्रिगुणों में से की एक एक की मात्रा का प्रमाण भिन्न होता है। इस भिन्न परिमाण के कारण ही प्रत्येक द्रव्य में विविधता होती है। गुणपरिणामवाद में जिस प्रकार से गुणों की समानता के उपरांत भी विविधता होती है, इसके बराबर विपरीत सहकार्यवाद प्रत्येक द्रव्य की अन्यों से विविधता की ओर से हमें एकत्व की ओर ले जाता है।   
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सामान्यत: जब किसी अन्य से मदद माँगी जाती है, तब नम्रता से ही माँगी जाती है। जब कोई आपके माँगने पर प्रसन्नता से मदद करता है तब उस मदद का स्तर श्रेष्ठ होता है। मदद करनेवाला मन:पूर्वक मदद करता है। खुलकर मदद करता है। तब वह मदद आपके काम के लिए अधिक लाभप्रद होती है। भारत में सामान्यत: घर या कोई भी मकान बांधने से पूर्व इसीलिये भूमि-पूजन का कार्यक्रम किया जाता है। यह भूमि को और उस भूमि के सहारे जीनेवाले जीव, सूक्ष्मजीव और वनस्पतियों को प्रसन्न करने के लिए ही किया जाता है। वनस्पति भी जीव होते हैं। इसलिए आयुर्वेद कहता है कि ऐसी आदर से माँगकर ली हुई औषधि अधिक गुणकारी होती है।  
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आयुर्वेद में स्वास्थ्य का तीन प्रकार से विचार किया जाता है। सत्कार्यवाद, गुणपरिणामवाद और सहकार्यवाद। सत्कार्यवाद के अनुसार कार्य के गुण सूक्ष्म रूप में कारण में होते ही हैं, ऐसा कहा गया है। सांख्य दर्शन में यही कार्य कारण सिद्धांत के नाम से जाना जाता है। गुणपरिणामवाद में कुछ गुण तो दृष्ट याने सहज दिखाई देनेवाले होते हैं। लेकिन कुछ सूक्ष्म होने से अदृष्ट होते हैं। ये अदृष्ट गुण किसी विशेष प्रक्रिया में ही प्रकट होते हैं। इस अदृष्ट गुणों के प्रकट होकर दृष्ट होने की प्रक्रिया को ही गुणपरिणामवाद कहा है। हर द्रव्य के गुणों में त्रिगुणों में से की एक एक की मात्रा का प्रमाण भिन्न होता है। इस भिन्न परिमाण के कारण ही प्रत्येक द्रव्य में विविधता होती है। गुणपरिणामवाद में जिस प्रकार से गुणों की समानता के उपरांत भी विविधता होती है, इसके बराबर विपरीत सहकार्यवाद प्रत्येक द्रव्य की अन्यों से विविधता की ओर से हमें एकत्व की ओर ले जाता है।   
    
== प्रकृति सुसंगतता ==
 
== प्रकृति सुसंगतता ==
भारतीय जीवन दृष्टि प्रकृति सुसंगत जीवन सिखाती है। ईशावास्योपनिषद का पहला मंत्र ही कहता है ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत् । तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृध: कस्य स्विद्धनम् ।।
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भारतीय जीवन दृष्टि प्रकृति सुसंगत जीवन सिखाती है। ईशावास्योपनिषद का पहला मंत्र ही कहता है
अर्थ: संसार के छोटे से छोटे से लेकर बड़े से बड़े ऐसे सारे अस्तित्वों में परमात्मा का वास है। इसलिए उनका उपभोग त्यागमय मानसिकता से करना चाहिए। याने जितना आवश्यक है उतना ही उपभोग करना चाहिए। थोड़ा भी अधिक नहीं। (आवश्यकता से अधिक उपभोग को चोरी माना जाता है।)
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भारतीय स्वास्थ्य दृष्टि भी प्रकृति सुसंगतता का आदर करती है। ऊपर हमने देखा है कि किस प्रकार प्रकृति में उपलब्ध औषधि को सम्मान दिया जाता है। इस के साथ ही और भी एक बात बहुत महत्त्वपूर्ण है। वनस्पति से छाल, मूल, लकड़ी, फल, फूल या पत्ते उतने ही लिए जाते हैं जितने की रोगी के रोग निवारण के लिए आवश्यकता होती है। उससे थोड़ा सा भी अधिक लेना वर्जित माना जाता है।  
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ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत् ।
वर्तमान में रोगियों की संख्या इतनी बढ़ गयी है कि आयुर्वेद के अनुसार चिकित्सा करने वाले लोगों को भी अब गोलियाँ या पिलाने की दवाएँ बनाकर उनका संग्रह करना अनिवार्य हो गया है। दवाइयाँ बनानेवाले भी उपयुक्त वनस्पति की बड़ी मात्रा में उत्पादन के लिए औषधि की खेती करते हैं, बड़े बड़े कारखाने बनाते हैं। वैद्य भी एलोपेथी के डॉक्टरों से स्पर्धा करने लग जाते हैं। इन सब बातोंसे प्रकृति सुसंगतता को ठेस पहुँचती है। रोगीयों की बढ़ती संख्या यह जीवन के अभारतीय प्रतिमान की देन ही है।
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तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृध: कस्य स्विद्धनम् ।।
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अर्थ: संसार के छोटे से छोटे से लेकर बड़े से बड़े ऐसे सारे अस्तित्वों में परमात्मा का वास है। इसलिए उनका उपभोग त्यागमय मानसिकता से करना चाहिए। याने जितना आवश्यक है उतना ही उपभोग करना चाहिए। थोड़ा भी अधिक नहीं। (आवश्यकता से अधिक उपभोग को चोरी माना जाता है।)
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भारतीय स्वास्थ्य दृष्टि भी प्रकृति सुसंगतता का आदर करती है। ऊपर हमने देखा है कि किस प्रकार प्रकृति में उपलब्ध औषधि को सम्मान दिया जाता है। इस के साथ ही और भी एक बात बहुत महत्त्वपूर्ण है। वनस्पति से छाल, मूल, लकड़ी, फल, फूल या पत्ते उतने ही लिए जाते हैं जितने की रोगी के रोग निवारण के लिए आवश्यकता होती है। उससे थोड़ा सा भी अधिक लेना वर्जित माना जाता है।
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वर्तमान में रोगियों की संख्या इतनी बढ़ गयी है कि आयुर्वेद के अनुसार चिकित्सा करने वाले लोगों को भी अब गोलियाँ या पिलाने की दवाएँ बनाकर उनका संग्रह करना अनिवार्य हो गया है। दवाइयाँ बनानेवाले भी उपयुक्त वनस्पति की बड़ी मात्रा में उत्पादन के लिए औषधि की खेती करते हैं, बड़े बड़े कारखाने बनाते हैं। वैद्य भी एलोपेथी के डॉक्टरों से स्पर्धा करने लग जाते हैं। इन सब बातोंसे प्रकृति सुसंगतता को ठेस पहुँचती है। रोगीयों की बढ़ती संख्या यह जीवन के अभारतीय प्रतिमान की देन ही है।
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शून्य प्रदूषण औषधि निर्माण - आयुर्वेद की औषधियों का एक और भी विशेष गुण है। इनमें रासायनिक प्रक्रियाएँ न्यूनतम की जातीं हैं। रासायनिक प्रक्रिया से निर्माण हुए पदार्थ का प्रकृति में घुलना कठिन होता है। प्रकृति में घुलने में अधिक समय लगता है। आयुर्वेद में अपवाद से ही ऐसी औषधि बनाई जाती होगी जो प्रकृति का प्रदूषण करती होगी। इसे शून्य प्रदूषण औषधि उत्पादन कहा जा सकता है। वर्तमान में जो एलोपेथी की दवाइयाँ निर्माण हो रहीं हैं उनमें शायद ही कोई प्रदूषण नियन्त्रण मंडल के मानकों से कम प्रदूषण करती होंगी। इन दवाईयों का निर्माण शून्य प्रदूषण की कसौटीपर खरी उतरना तो असंभव है यह प्रदूषण नियंत्रण मंडल ने भी मान लिया है।
 
शून्य प्रदूषण औषधि निर्माण - आयुर्वेद की औषधियों का एक और भी विशेष गुण है। इनमें रासायनिक प्रक्रियाएँ न्यूनतम की जातीं हैं। रासायनिक प्रक्रिया से निर्माण हुए पदार्थ का प्रकृति में घुलना कठिन होता है। प्रकृति में घुलने में अधिक समय लगता है। आयुर्वेद में अपवाद से ही ऐसी औषधि बनाई जाती होगी जो प्रकृति का प्रदूषण करती होगी। इसे शून्य प्रदूषण औषधि उत्पादन कहा जा सकता है। वर्तमान में जो एलोपेथी की दवाइयाँ निर्माण हो रहीं हैं उनमें शायद ही कोई प्रदूषण नियन्त्रण मंडल के मानकों से कम प्रदूषण करती होंगी। इन दवाईयों का निर्माण शून्य प्रदूषण की कसौटीपर खरी उतरना तो असंभव है यह प्रदूषण नियंत्रण मंडल ने भी मान लिया है।
 
वनस्पतियों में भी जीवन होता है। भावनाएं होतीं हैं। उनकी भी दिनचर्या रहती है। विश्राम का समय होता है। काम का समय होता है। मनुष्य की ही भाँति वनस्पति के लिए सुखकर ऐसे समय में उसका उपयोग करने से औषधि अधिक प्रभावी होती है। इसलिये कई औषधियां रात के अँधेरे में अगरबत्ती के प्रकाश में वनस्पतियों से प्राप्त की जातीं हैं। चन्द्र और सूर्य भी औषधि के गुणों को प्रभावित करते हैं। इसलिए तिथियों का भी ध्यान रखा जाता है।   
 
वनस्पतियों में भी जीवन होता है। भावनाएं होतीं हैं। उनकी भी दिनचर्या रहती है। विश्राम का समय होता है। काम का समय होता है। मनुष्य की ही भाँति वनस्पति के लिए सुखकर ऐसे समय में उसका उपयोग करने से औषधि अधिक प्रभावी होती है। इसलिये कई औषधियां रात के अँधेरे में अगरबत्ती के प्रकाश में वनस्पतियों से प्राप्त की जातीं हैं। चन्द्र और सूर्य भी औषधि के गुणों को प्रभावित करते हैं। इसलिए तिथियों का भी ध्यान रखा जाता है।   
    
== शोध कार्य की आवश्यकता ==
 
== शोध कार्य की आवश्यकता ==
गत ५००-७०० वर्षों से भारत में अध्ययन और अनुसंधान की परम्परा खंडित सी हो गयी है। इसे फिर से शुरू करना होगा। जो समाज अध्ययन और अनुसंधान के क्षेत्र में आगे रहेगा वही विश्व का नेतृत्व करेगा। अब इसे ही लीजिये। किसी भी भारतीय औषधि का जिसमें पारा हो, विदेशों के क़ानून के अनुसार निर्यात नहीं किया जा सकता। क्यों कि उनके औषधि शास्त्र के अनुसार पारा जहरीला होता है। पारे का सेवन मनुष्य को हानी पहुंचाता है। आयुर्वेद का कहना है कि एकबार पारा-मारण की प्रक्रिया पारेपर हो जाने से वह जहरीला नहीं रह जाता। यह वास्तव भी है। इसलिए भारत में ऐसी पारायुक्त औषधियाँ उपयोग में ली जातीं हैं। लेकिन हमने अभीतक अध्ययन और अनुसंधान से यह नहीं पता किया कि इस पारा मारण प्रक्रिया से पारे में क्या परिवर्तन हो जाता है जिससे वह जहरीला नहीं रह जाता।  
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गत ५००-७०० वर्षों से भारत में अध्ययन और अनुसंधान की परम्परा खंडित सी हो गयी है। इसे फिर से शुरू करना होगा। जो समाज अध्ययन और अनुसंधान के क्षेत्र में आगे रहेगा वही विश्व का नेतृत्व करेगा। अब इसे ही लीजिये। किसी भी भारतीय औषधि का जिसमें पारा हो, विदेशों के क़ानून के अनुसार निर्यात नहीं किया जा सकता। क्योंकि उनके औषधि शास्त्र के अनुसार पारा जहरीला होता है। पारे का सेवन मनुष्य को हानी पहुंचाता है। आयुर्वेद का कहना है कि एक बार पारा-मारण की प्रक्रिया पारे पर हो जाने से वह जहरीला नहीं रह जाता। यह वास्तव भी है। इसलिए भारत में ऐसी पारायुक्त औषधियाँ उपयोग में ली जातीं हैं। लेकिन हमने अभी तक अध्ययन और अनुसंधान से यह नहीं पता किया कि इस पारा मारण प्रक्रिया से पारे में क्या परिवर्तन हो जाता है जिससे वह जहरीला नहीं रह जाता।  
स्वाधीनता के बाद भी भारत में आयुर्वेद के सन्दर्भ में शोध कार्य लगभग नहीं के बराबर हुआ होगा। शीघ्र परिणाम देनेवाली चिकित्सा प्रणाली (जिसका उपयोग शायद महाभारत के युद्ध में किया गया होगा) के सन्दर्भ में शायद ही कोई अनुसन्धान कार्य हुए हैं। इसी तरह से शल्यक्रिया के क्षेत्र में भी भारत में बहुत कम अनुसन्धान कार्य हुए हैं। अंग्रेज भारत में आए, उस समयतक भारत शल्यक्रिया में विश्व में अग्रणी देश था। अंग्रेजों ने जो हानी की वह तो वे करनेवाले ही थे। लेकिन आज तो हम स्वाधीन हैं, फिर आज अध्ययन और अनुसन्धान की उपेक्षा क्यों है ? अध्ययन और अनुसन्धान की भारतीय परम्परा बहुत दीर्घ और श्रेष्ठ रही है। इस परम्परा को फिर से प्रतिष्ठित करना होगा।  
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वर्तमान में आयुर्वेद का सही सही प्रयोग करनेवाला वैद्य अभाव से ही मिलता है। ऐलोपेथी जैसी ही औषधियाँ पहले से बनाई जातीं हैं। रोग के लिए बनाई जातीं हैं। रोगी के लिए बनाई हुई नहीं होती। इसलिए चिकित्सा का प्रभाव भी अल्प ही मिलता है।  
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स्वाधीनता के बाद भी भारत में आयुर्वेद के सन्दर्भ में शोध कार्य लगभग नहीं के बराबर हुआ होगा। शीघ्र परिणाम देनेवाली चिकित्सा प्रणाली (जिसका उपयोग शायद महाभारत के युद्ध में किया गया होगा) के सन्दर्भ में शायद ही कोई अनुसन्धान कार्य हुए हैं। इसी तरह से शल्यक्रिया के क्षेत्र में भी भारत में बहुत कम अनुसन्धान कार्य हुए हैं। अंग्रेज भारत में आए, उस समयतक भारत शल्यक्रिया में विश्व में अग्रणी देश था। अंग्रेजों ने जो हानि की वह तो वे करने वाले ही थे। लेकिन आज तो हम स्वाधीन हैं, फिर आज अध्ययन और अनुसन्धान की उपेक्षा क्यों है? अध्ययन और अनुसन्धान की भारतीय परम्परा बहुत दीर्घ और श्रेष्ठ रही है। इस परम्परा को फिर से प्रतिष्ठित करना होगा।  
आयुर्वेद की नाडी परीक्षा, सामुद्रिक शास्त्र आदि का तो लगभग लोप ही हो गया है। ये सब अध्ययन के विषय बनाने की आवश्यकता है। शासन की मान्यता के नियम भी ऐलोपेथी के लिए अनुकूल बनाए हुए हैं। इस में भी परिवर्तन की आवश्यकता है। लेकिन इस के लिए जो भारतीय स्वास्थ्य क्षेत्र के जानकार हैं उन्हें इसकी प्रस्तुति ठीक से करनी होगी। जाँच के वर्तमान साईंटिफिक तरीके पर्याप्त या शायद उचित नहीं हो सकते यह ध्यान में रखकर वैज्ञानिक(अष्टधा प्रकृति के सभी घटकों के लिए) तरीके लिखित स्वरूप में प्रस्तुत करने होंगे। सभी को शायद लिखकर बताना संभव भी नहीं होगा। ऐसे विषय में इतना तो बताना ही होगा कि यह लिखकर समझाने का विषय क्यों नहीं है ? शोध कार्य करनेवालों के लिए योग्यता रखनेवाले सामर्थ्यवान मार्गदर्शक भी चयन कर या चयन करनेपर भी न मिलते हों तो योजनापूर्वक तैयार करने होंगे। भारतीय स्वास्थ्य प्रणाली के सभी पहलुओं का जिसमें समावेश है ऐसी एक व्यापक योजना बनानी होगी। केवल बुद्धि है इसलिए कोई भी ऐरा गैरा वैद्य नहीं बनना चाहिए। रोग के निवारण में वैद्य की पात्रता का पहलू भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। वैद्यकीय क्षेत्र को किसी भी परिस्थिति में बदनाम नहीं करेंगे ऐसे वैद्य निर्माण करने की निर्दोष प्रक्रिया का विकास करना होगा।  
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वर्तमान में आयुर्वेद का सही सही प्रयोग करनेवाला वैद्य अभाव से ही मिलता है। ऐलोपेथी जैसी ही औषधियाँ पहले से बनाई जातीं हैं। रोग के लिए बनाई जातीं हैं। रोगी के लिए बनाई हुई नहीं होती। इसलिए चिकित्सा का प्रभाव भी अल्प ही मिलता है। आयुर्वेद की नाडी परीक्षा, सामुद्रिक शास्त्र आदि का तो लगभग लोप ही हो गया है। ये सब अध्ययन के विषय बनाने की आवश्यकता है। शासन की मान्यता के नियम भी ऐलोपेथी के लिए अनुकूल बनाए हुए हैं। इस में भी परिवर्तन की आवश्यकता है। लेकिन इस के लिए जो भारतीय स्वास्थ्य क्षेत्र के जानकार हैं उन्हें इसकी प्रस्तुति ठीक से करनी होगी। जाँच के वर्तमान साईंटिफिक तरीके पर्याप्त या शायद उचित नहीं हो सकते यह ध्यान में रखकर वैज्ञानिक (अष्टधा प्रकृति के सभी घटकों के लिए) तरीके लिखित स्वरूप में प्रस्तुत करने होंगे। सभी को शायद लिखकर बताना संभव भी नहीं होगा। ऐसे विषय में इतना तो बताना ही होगा कि यह लिखकर समझाने का विषय क्यों नहीं है? शोध कार्य करनेवालों के लिए योग्यता रखनेवाले सामर्थ्यवान मार्गदर्शक भी चयन कर या चयन करनेपर भी न मिलते हों तो योजनापूर्वक तैयार करने होंगे। भारतीय स्वास्थ्य प्रणाली के सभी पहलुओं का जिसमें समावेश है ऐसी एक व्यापक योजना बनानी होगी। केवल बुद्धि है इसलिए कोई भी ऐरा गैरा वैद्य नहीं बनना चाहिए। रोग के निवारण में वैद्य की पात्रता का पहलू भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। वैद्यकीय क्षेत्र को किसी भी परिस्थिति में बदनाम नहीं करेंगे ऐसे वैद्य निर्माण करने की निर्दोष प्रक्रिया का विकास करना होगा।  
    
==References==
 
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