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वर्तमान में रोगियों की संख्या इतनी बढ़ गयी है कि आयुर्वेद के अनुसार चिकित्सा करने वाले लोगोंं को भी अब गोलियाँ या पिलाने की दवाएँ बनाकर उनका संग्रह करना अनिवार्य हो गया है। दवाइयाँ बनानेवाले भी उपयुक्त वनस्पति की बड़ी मात्रा में उत्पादन के लिए औषधि की खेती करते हैं, बड़े बड़े कारखाने बनाते हैं। वैद्य भी एलोपेथी के डॉक्टरों से स्पर्धा करने लग जाते हैं। इन सब बातोंसे प्रकृति सुसंगतता को ठेस पहुँचती है। रोगीयों की बढ़ती संख्या यह जीवन के अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान की देन ही है।   
 
वर्तमान में रोगियों की संख्या इतनी बढ़ गयी है कि आयुर्वेद के अनुसार चिकित्सा करने वाले लोगोंं को भी अब गोलियाँ या पिलाने की दवाएँ बनाकर उनका संग्रह करना अनिवार्य हो गया है। दवाइयाँ बनानेवाले भी उपयुक्त वनस्पति की बड़ी मात्रा में उत्पादन के लिए औषधि की खेती करते हैं, बड़े बड़े कारखाने बनाते हैं। वैद्य भी एलोपेथी के डॉक्टरों से स्पर्धा करने लग जाते हैं। इन सब बातोंसे प्रकृति सुसंगतता को ठेस पहुँचती है। रोगीयों की बढ़ती संख्या यह जीवन के अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान की देन ही है।   
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शून्य प्रदूषण औषधि निर्माण - आयुर्वेद की औषधियों का एक और भी विशेष गुण है। इनमें रासायनिक प्रक्रियाएँ न्यूनतम की जातीं हैं। रासायनिक प्रक्रिया से निर्माण हुए पदार्थ का प्रकृति में घुलना कठिन होता है। प्रकृति में घुलने में अधिक समय लगता है। आयुर्वेद में अपवाद से ही ऐसी औषधि बनाई जाती होगी जो प्रकृति का प्रदूषण करती होगी। इसे शून्य प्रदूषण औषधि उत्पादन कहा जा सकता है। वर्तमान में जो एलोपेथी की दवाइयाँ निर्माण हो रहीं हैं उनमें शायद ही कोई प्रदूषण नियन्त्रण मंडल के मानकों से कम प्रदूषण करती होंगी। इन दवाईयों का निर्माण शून्य प्रदूषण की कसौटीपर खरी उतरना तो असंभव है यह प्रदूषण नियंत्रण मंडल ने भी मान लिया है।
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शून्य प्रदूषण औषधि निर्माण - आयुर्वेद की औषधियों का एक और भी विशेष गुण है। इनमें रासायनिक प्रक्रियाएँ न्यूनतम की जातीं हैं। रासायनिक प्रक्रिया से निर्माण हुए पदार्थ का प्रकृति में घुलना कठिन होता है। प्रकृति में घुलने में अधिक समय लगता है। आयुर्वेद में अपवाद से ही ऐसी औषधि बनाई जाती होगी जो प्रकृति का प्रदूषण करती होगी। इसे शून्य प्रदूषण औषधि उत्पादन कहा जा सकता है। वर्तमान में जो एलोपेथी की दवाइयाँ निर्माण हो रहीं हैं उनमें संभवतः ही कोई प्रदूषण नियन्त्रण मंडल के मानकों से कम प्रदूषण करती होंगी। इन दवाईयों का निर्माण शून्य प्रदूषण की कसौटीपर खरी उतरना तो असंभव है यह प्रदूषण नियंत्रण मंडल ने भी मान लिया है।
 
वनस्पतियों में भी जीवन होता है। भावनाएं होतीं हैं। उनकी भी दिनचर्या रहती है। विश्राम का समय होता है। काम का समय होता है। मनुष्य की ही भाँति वनस्पति के लिए सुखकर ऐसे समय में उसका उपयोग करने से औषधि अधिक प्रभावी होती है। इसलिये कई औषधियां रात के अँधेरे में अगरबत्ती के प्रकाश में वनस्पतियों से प्राप्त की जातीं हैं। चन्द्र और सूर्य भी औषधि के गुणों को प्रभावित करते हैं। अतः तिथियों का भी ध्यान रखा जाता है।   
 
वनस्पतियों में भी जीवन होता है। भावनाएं होतीं हैं। उनकी भी दिनचर्या रहती है। विश्राम का समय होता है। काम का समय होता है। मनुष्य की ही भाँति वनस्पति के लिए सुखकर ऐसे समय में उसका उपयोग करने से औषधि अधिक प्रभावी होती है। इसलिये कई औषधियां रात के अँधेरे में अगरबत्ती के प्रकाश में वनस्पतियों से प्राप्त की जातीं हैं। चन्द्र और सूर्य भी औषधि के गुणों को प्रभावित करते हैं। अतः तिथियों का भी ध्यान रखा जाता है।   
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गत ५००-७०० वर्षों से भारत में अध्ययन और अनुसंधान की परम्परा खंडित सी हो गयी है। इसे फिर से आरम्भ करना होगा। जो समाज अध्ययन और अनुसंधान के क्षेत्र में आगे रहेगा वही विश्व का नेतृत्व करेगा। अब इसे ही लीजिये। किसी भी धार्मिक  औषधि का जिसमें पारा हो, विदेशों के क़ानून के अनुसार निर्यात नहीं किया जा सकता। क्योंकि उनके औषधि शास्त्र के अनुसार पारा जहरीला होता है। पारे का सेवन मनुष्य को हानी पहुंचाता है। आयुर्वेद का कहना है कि एक बार पारा-मारण की प्रक्रिया पारे पर हो जाने से वह जहरीला नहीं रह जाता। यह वास्तव भी है। अतः भारत में ऐसी पारायुक्त औषधियाँ उपयोग में ली जातीं हैं। लेकिन हमने अभी तक अध्ययन और अनुसंधान से यह नहीं पता किया कि इस पारा मारण प्रक्रिया से पारे में क्या परिवर्तन हो जाता है जिससे वह जहरीला नहीं रह जाता।  
 
गत ५००-७०० वर्षों से भारत में अध्ययन और अनुसंधान की परम्परा खंडित सी हो गयी है। इसे फिर से आरम्भ करना होगा। जो समाज अध्ययन और अनुसंधान के क्षेत्र में आगे रहेगा वही विश्व का नेतृत्व करेगा। अब इसे ही लीजिये। किसी भी धार्मिक  औषधि का जिसमें पारा हो, विदेशों के क़ानून के अनुसार निर्यात नहीं किया जा सकता। क्योंकि उनके औषधि शास्त्र के अनुसार पारा जहरीला होता है। पारे का सेवन मनुष्य को हानी पहुंचाता है। आयुर्वेद का कहना है कि एक बार पारा-मारण की प्रक्रिया पारे पर हो जाने से वह जहरीला नहीं रह जाता। यह वास्तव भी है। अतः भारत में ऐसी पारायुक्त औषधियाँ उपयोग में ली जातीं हैं। लेकिन हमने अभी तक अध्ययन और अनुसंधान से यह नहीं पता किया कि इस पारा मारण प्रक्रिया से पारे में क्या परिवर्तन हो जाता है जिससे वह जहरीला नहीं रह जाता।  
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स्वाधीनता के बाद भी भारत में आयुर्वेद के सन्दर्भ में शोध कार्य लगभग नहीं के बराबर हुआ होगा। शीघ्र परिणाम देनेवाली चिकित्सा प्रणाली (जिसका उपयोग शायद महाभारत के युद्ध में किया गया होगा) के सन्दर्भ में शायद ही कोई अनुसन्धान कार्य हुए हैं। इसी तरह से शल्यक्रिया के क्षेत्र में भी भारत में बहुत कम अनुसन्धान कार्य हुए हैं। अंग्रेज भारत में आए, उस समयतक भारत शल्यक्रिया में विश्व में अग्रणी देश था। अंग्रेजों ने जो हानि की वह तो वे करने वाले ही थे। लेकिन आज तो हम स्वाधीन हैं, फिर आज अध्ययन और अनुसन्धान की उपेक्षा क्यों है? अध्ययन और अनुसन्धान की धार्मिक  परम्परा बहुत दीर्घ और श्रेष्ठ रही है। इस परम्परा को फिर से प्रतिष्ठित करना होगा।  
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स्वाधीनता के बाद भी भारत में आयुर्वेद के सन्दर्भ में शोध कार्य लगभग नहीं के बराबर हुआ होगा। शीघ्र परिणाम देनेवाली चिकित्सा प्रणाली (जिसका उपयोग संभवतः महाभारत के युद्ध में किया गया होगा) के सन्दर्भ में संभवतः ही कोई अनुसन्धान कार्य हुए हैं। इसी तरह से शल्यक्रिया के क्षेत्र में भी भारत में बहुत कम अनुसन्धान कार्य हुए हैं। अंग्रेज भारत में आए, उस समयतक भारत शल्यक्रिया में विश्व में अग्रणी देश था। अंग्रेजों ने जो हानि की वह तो वे करने वाले ही थे। लेकिन आज तो हम स्वाधीन हैं, फिर आज अध्ययन और अनुसन्धान की उपेक्षा क्यों है? अध्ययन और अनुसन्धान की धार्मिक  परम्परा बहुत दीर्घ और श्रेष्ठ रही है। इस परम्परा को फिर से प्रतिष्ठित करना होगा।  
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वर्तमान में आयुर्वेद का सही सही प्रयोग करनेवाला वैद्य अभाव से ही मिलता है। ऐलोपेथी जैसी ही औषधियाँ पहले से बनाई जातीं हैं। रोग के लिए बनाई जातीं हैं। रोगी के लिए बनाई हुई नहीं होती। अतः चिकित्सा का प्रभाव भी अल्प ही मिलता है। आयुर्वेद की नाडी परीक्षा, सामुद्रिक शास्त्र आदि का तो लगभग लोप ही हो गया है। ये सब अध्ययन के विषय बनाने की आवश्यकता है। शासन की मान्यता के नियम भी ऐलोपेथी के लिए अनुकूल बनाए हुए हैं। इस में भी परिवर्तन की आवश्यकता है। लेकिन इस के लिए जो धार्मिक  स्वास्थ्य क्षेत्र के जानकार हैं उन्हें इसकी प्रस्तुति ठीक से करनी होगी। जाँच के वर्तमान साईंटिफिक तरीके पर्याप्त या शायद उचित नहीं हो सकते यह ध्यान में रखकर वैज्ञानिक (अष्टधा प्रकृति के सभी घटकों के लिए) तरीके लिखित स्वरूप में प्रस्तुत करने होंगे। सभी को शायद लिखकर बताना संभव भी नहीं होगा। ऐसे विषय में इतना तो बताना ही होगा कि यह लिखकर समझाने का विषय क्यों नहीं है? शोध कार्य करनेवालों के लिए योग्यता रखनेवाले सामर्थ्यवान मार्गदर्शक भी चयन कर या चयन करनेपर भी न मिलते हों तो योजनापूर्वक तैयार करने होंगे। धार्मिक  स्वास्थ्य प्रणाली के सभी पहलुओं का जिसमें समावेश है ऐसी एक व्यापक योजना बनानी होगी। केवल बुद्धि है अतः कोई भी ऐरा गैरा वैद्य नहीं बनना चाहिए। रोग के निवारण में वैद्य की पात्रता का पहलू भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। वैद्यकीय क्षेत्र को किसी भी परिस्थिति में बदनाम नहीं करेंगे ऐसे वैद्य निर्माण करने की निर्दोष प्रक्रिया का विकास करना होगा।  
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वर्तमान में आयुर्वेद का सही सही प्रयोग करनेवाला वैद्य अभाव से ही मिलता है। ऐलोपेथी जैसी ही औषधियाँ पहले से बनाई जातीं हैं। रोग के लिए बनाई जातीं हैं। रोगी के लिए बनाई हुई नहीं होती। अतः चिकित्सा का प्रभाव भी अल्प ही मिलता है। आयुर्वेद की नाडी परीक्षा, सामुद्रिक शास्त्र आदि का तो लगभग लोप ही हो गया है। ये सब अध्ययन के विषय बनाने की आवश्यकता है। शासन की मान्यता के नियम भी ऐलोपेथी के लिए अनुकूल बनाए हुए हैं। इस में भी परिवर्तन की आवश्यकता है। लेकिन इस के लिए जो धार्मिक  स्वास्थ्य क्षेत्र के जानकार हैं उन्हें इसकी प्रस्तुति ठीक से करनी होगी। जाँच के वर्तमान साईंटिफिक तरीके पर्याप्त या संभवतः उचित नहीं हो सकते यह ध्यान में रखकर वैज्ञानिक (अष्टधा प्रकृति के सभी घटकों के लिए) तरीके लिखित स्वरूप में प्रस्तुत करने होंगे। सभी को संभवतः लिखकर बताना संभव भी नहीं होगा। ऐसे विषय में इतना तो बताना ही होगा कि यह लिखकर समझाने का विषय क्यों नहीं है? शोध कार्य करनेवालों के लिए योग्यता रखनेवाले सामर्थ्यवान मार्गदर्शक भी चयन कर या चयन करनेपर भी न मिलते हों तो योजनापूर्वक तैयार करने होंगे। धार्मिक  स्वास्थ्य प्रणाली के सभी पहलुओं का जिसमें समावेश है ऐसी एक व्यापक योजना बनानी होगी। केवल बुद्धि है अतः कोई भी ऐरा गैरा वैद्य नहीं बनना चाहिए। रोग के निवारण में वैद्य की पात्रता का पहलू भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। वैद्यकीय क्षेत्र को किसी भी परिस्थिति में बदनाम नहीं करेंगे ऐसे वैद्य निर्माण करने की निर्दोष प्रक्रिया का विकास करना होगा।  
    
==References==
 
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