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→‎लोकतंत्र की मर्यादाएँ: लेख सम्पादित किया
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वर्तमान में ऐसा माना जाता है कि लोकतंत्र किसी भी समाज के लिये सबसे श्रेष्ठ शासन व्यवस्था है। ऐसा कहना गलत नहीं होगा की वर्तमान में इस विचार का इतना अतिरेक हो गया है कि ‘लोकतंत्र’ साध्य बन गया है। इतना ही नहीं तो लोग इस विषय में विविध कारणों से इतने संवेदनशील हो गये हैं कि वर्तमान लोकतंत्र के लिये वैकल्पिक शासन व्यवस्था के बारे में प्रकट रूप (भाषण या लेखन) से बात करते ही लोग असहिष्णुता पर उतर आते हैं। इस वैकल्पिक शासन व्यवस्था के विचारों में समाज के लिये कुछ लाभकारी है या नहीं इस का विचार किये बगैर ही विकल्प की चर्चा करनेवाले को गालियाँ देने पर या मारने पर उतारू हो जाते हैं। अंतर्राष्ट्रीय  स्तर पर भी यूरोपीय देश और अमरिकी देश लोकतंत्र से भिन्न किसी शासन व्यवस्था को चलने नहीं देते। इसलिये वर्तमान में लोकतंत्र के विरोध में बोलने की किसी की हिम्मत नहीं होती।  
 
वर्तमान में ऐसा माना जाता है कि लोकतंत्र किसी भी समाज के लिये सबसे श्रेष्ठ शासन व्यवस्था है। ऐसा कहना गलत नहीं होगा की वर्तमान में इस विचार का इतना अतिरेक हो गया है कि ‘लोकतंत्र’ साध्य बन गया है। इतना ही नहीं तो लोग इस विषय में विविध कारणों से इतने संवेदनशील हो गये हैं कि वर्तमान लोकतंत्र के लिये वैकल्पिक शासन व्यवस्था के बारे में प्रकट रूप (भाषण या लेखन) से बात करते ही लोग असहिष्णुता पर उतर आते हैं। इस वैकल्पिक शासन व्यवस्था के विचारों में समाज के लिये कुछ लाभकारी है या नहीं इस का विचार किये बगैर ही विकल्प की चर्चा करनेवाले को गालियाँ देने पर या मारने पर उतारू हो जाते हैं। अंतर्राष्ट्रीय  स्तर पर भी यूरोपीय देश और अमरिकी देश लोकतंत्र से भिन्न किसी शासन व्यवस्था को चलने नहीं देते। इसलिये वर्तमान में लोकतंत्र के विरोध में बोलने की किसी की हिम्मत नहीं होती।  
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वर्तमान लोकतंत्र में लोग अनेकों विविध और विकट समस्याओं से जूझ रहे हैं। गरीबी, बेरोजगारी, हिंसा, असुरक्षा, आतंकवाद, भ्रष्टाचार, अस्वास्थ्य, प्रदूषण, टूटते परिवार, पगढीलापन, सांस्कृतिक विघटन, बढती मँहगाई, बढती विषमता, प्रकृति और दुर्बलों का शोषण, अपराधीकरण, स्त्रियोंपर अत्याचार, एक-पालकीय बच्चे, अविवाहित संबंध, घटते जंगल, घटता भूजलस्तर, बढता जन-धन-उत्पादन और सत्ता का केंद्रीकरण आदि। यह सूची और भी बढ सकती है। इस के उपरांत भी कोई वर्तमान लोकतंत्र के विषय में नहीं सोचे, चर्चा नहीं करे यह या तो तानाशाही कही जायेगी या फिर ऐसे समाज को एक विचारहीन समाज कहा जायेगा। लेकिन हिंदू या भारतीय समाज तो ऐसा कभी नहीं रहा। यह समाज तो सदैव ज्ञान संपन्न रहा है। युगानुकूल विचार करता रहा है। विश्व में संस्कृति और समृध्दि दोनों बातों में अग्रणी रहा है। फिर यह ऐसा बुध्दू कैसे बन गया? यह भी विचारणीय है।  
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वर्तमान लोकतंत्र में लोग अनेकों विविध और विकट समस्याओं से जूझ रहे हैं। गरीबी, बेरोजगारी, हिंसा, असुरक्षा, आतंकवाद, भ्रष्टाचार, अस्वास्थ्य, प्रदूषण, टूटते परिवार, पगढीलापन, सांस्कृतिक विघटन, बढती मँहगाई, बढती विषमता, प्रकृति और दुर्बलों का शोषण, अपराधीकरण, स्त्रियोंपर अत्याचार, एक-पालकीय बच्चे, अविवाहित संबंध, घटते जंगल, घटता भूजलस्तर, बढता जन-धन-उत्पादन और सत्ता का केंद्रीकरण आदि। यह सूची और भी बढ सकती है। इस के उपरांत भी कोई वर्तमान लोकतंत्र के विषय में नहीं सोचे, चर्चा नहीं करे यह या तो तानाशाही कही जायेगी या फिर ऐसे समाज को एक विचारहीन समाज कहा जायेगा। लेकिन हिंदू या भारतीय समाज तो ऐसा कभी नहीं रहा। यह समाज तो सदैव ज्ञान संपन्न रहा है। युगानुकूल विचार करता रहा है। विश्व में संस्कृति और समृध्दि दोनों बातों में अग्रणी रहा है। फिर यह ऐसा बुद्धू कैसे बन गया? यह भी विचारणीय है।  
    
आहार, निद्रा, भय और मैथुन यह प्राणिक आवेग हैं। इन प्राणिक आवेगों के स्तरपर जो जीते हैं उन्हें प्राणी कहते हैं। यह चारों बातें मनुष्य और पशु दोनों में होतीं हैं। इसलिये मनुष्य को भी प्राणी कहा जाता है। लेकिन अन्य जीवों की तरह मनुष्य केवल प्राणी नहीं होता। वह मनुष्य होता है। वह प्राण के स्तर से ऊपर के स्तर पर यानी मन के स्तर पर भी जीता है। अपने प्राणिक आवेगों को मन के द्वारा नियंत्रण में रखता है। और विचार करना यह मन का क्षेत्र है। लोगों ने अनेकों समस्याओं के होते हुए भी यदि विचार करना छोड दिया है तो वर्तमान में मनुष्य, मानव से पतित होकर पशुत्व की ओर बढ रहा है, इस का यह लक्षण है। यह मानव समाज के लिये वांछनीय नहीं है।   
 
आहार, निद्रा, भय और मैथुन यह प्राणिक आवेग हैं। इन प्राणिक आवेगों के स्तरपर जो जीते हैं उन्हें प्राणी कहते हैं। यह चारों बातें मनुष्य और पशु दोनों में होतीं हैं। इसलिये मनुष्य को भी प्राणी कहा जाता है। लेकिन अन्य जीवों की तरह मनुष्य केवल प्राणी नहीं होता। वह मनुष्य होता है। वह प्राण के स्तर से ऊपर के स्तर पर यानी मन के स्तर पर भी जीता है। अपने प्राणिक आवेगों को मन के द्वारा नियंत्रण में रखता है। और विचार करना यह मन का क्षेत्र है। लोगों ने अनेकों समस्याओं के होते हुए भी यदि विचार करना छोड दिया है तो वर्तमान में मनुष्य, मानव से पतित होकर पशुत्व की ओर बढ रहा है, इस का यह लक्षण है। यह मानव समाज के लिये वांछनीय नहीं है।   
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अच्छे लोकतंत्र के अच्छी तरह चलने के लिये कुछ बातें अनिवार्य होती हैं। वे निम्न हैं:
 
अच्छे लोकतंत्र के अच्छी तरह चलने के लिये कुछ बातें अनिवार्य होती हैं। वे निम्न हैं:
 
# लोग स्वतंत्र हों : स्वतंत्र होने का अर्थ है लोग अपनी इच्छा के अनुसार जिस किसी प्रतिनिधि का चयन करना चाहते हैं उसका चयन कर सकें। यह तब होता है जब लोग आत्मनिर्भर या स्वावलंबी भी होते हैं।
 
# लोग स्वतंत्र हों : स्वतंत्र होने का अर्थ है लोग अपनी इच्छा के अनुसार जिस किसी प्रतिनिधि का चयन करना चाहते हैं उसका चयन कर सकें। यह तब होता है जब लोग आत्मनिर्भर या स्वावलंबी भी होते हैं।
# लोग शिक्षित हों : लोग जब पढे-लिखे होंगे तो उनकी चुनाव लड रहे सभी प्रत्याशियों के बारे में जानकारी प्राप्त कर सकने की संभावनाएँ बढतीं हैं। अनपढ तो चुनाव में धूर्तों द्वारा कई तरह से बेवकूफ बनाया जा सकता है।
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# लोग शिक्षित हों : लोग जब पढे-लिखे होंगे तो उनकी चुनाव लड़ रहे सभी प्रत्याशियों के बारे में जानकारी प्राप्त कर सकने की संभावनाएँ बढतीं हैं। अनपढ तो चुनाव में धूर्तों द्वारा कई तरह से बेवकूफ बनाया जा सकता है।
 
# लोग जागरूक हों : चुनाव जिस पद के लिये हो रहे हों, उस पद पर योग्य व्यक्ति ही चुनकर आये ऐसा प्रयास करनेवाले हों । अपने लोकतंत्रात्मक आधिकारों के और अपने व्यापक हित के बारे में सजग हों ।
 
# लोग जागरूक हों : चुनाव जिस पद के लिये हो रहे हों, उस पद पर योग्य व्यक्ति ही चुनकर आये ऐसा प्रयास करनेवाले हों । अपने लोकतंत्रात्मक आधिकारों के और अपने व्यापक हित के बारे में सजग हों ।
 
# लोग समझदार हों : जिस पद के लिये चुनाव हों उस पद पर काम करने के लिये प्रत्याशी में किन गुण, लक्षणों और सामर्थ्य की आवश्यकता होगी इसकी समझ लोगों को होनी चाहिये।
 
# लोग समझदार हों : जिस पद के लिये चुनाव हों उस पद पर काम करने के लिये प्रत्याशी में किन गुण, लक्षणों और सामर्थ्य की आवश्यकता होगी इसकी समझ लोगों को होनी चाहिये।
 
# लोग लालची नहीं हों और गरीब भी नहीं हों : कई बार लोग पैसे के या सुविधाओं के लालच में मतदान करते हैं। वास्तव में यह मतदान नहीं होता। यह तो मत का क्रय-विक्रय ही होता है। लालची स्वभाव नहीं होने पर भी कई बार गरीबी लोगों को लाचार बना देती है। वह चंद सिक्कों के लिये अपना मत बेच देते हैं।
 
# लोग लालची नहीं हों और गरीब भी नहीं हों : कई बार लोग पैसे के या सुविधाओं के लालच में मतदान करते हैं। वास्तव में यह मतदान नहीं होता। यह तो मत का क्रय-विक्रय ही होता है। लालची स्वभाव नहीं होने पर भी कई बार गरीबी लोगों को लाचार बना देती है। वह चंद सिक्कों के लिये अपना मत बेच देते हैं।
# लोग चुनाव लड़ने वाले प्रत्येक प्रत्याशी को अंदर बाहर से जानते हों : छोटे गाँव के चुनाव में चुनाव क्षेत्र मर्यादित होता है। इसलिये वहाँ हर मतदाता प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़नेवाले प्रत्येक व्यक्ति को व्यक्तिश: और अंदर-बाहर से जानने की संभावनाएँ बहुत अधिक होतीं हैं। इसलिये चुनाव लड़ने वाला प्रत्याशी जिस पद के लिये चुनाव लड रहा है उस की योग्यता को वह ठीक से समझ सकता है। ऐसी स्थिति में मतदाता जब अपने विवेक से मत डालता है तो वह योग्य व्यक्ति का चयन करता है। किंतु जब चुनाव क्षेत्र की जनसंख्या बहुत अधिक होगी (लाखों में) तब सामान्यत: कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं होता जो सभी प्रत्याशियों को अंदर-बाहर से जानता हो। ऐसे में तो फिर प्रत्याशी की योग्यता यह कसौटी नहीं रह जाती। राजनीतिक दल, जाति, रिश्तेदारी, पहचान, अपने गाँव का होना आदि योग्यता से जिनका कोई संबंध नहीं है ऐसे मुद्दों पर मत डाला जाता है। सच्चे लोकतंत्र में यह अपेक्षित नहीं है।
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# लोग चुनाव लड़़ने वाले प्रत्येक प्रत्याशी को अंदर बाहर से जानते हों : छोटे गाँव के चुनाव में चुनाव क्षेत्र मर्यादित होता है। इसलिये वहाँ हर मतदाता प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़़नेवाले प्रत्येक व्यक्ति को व्यक्तिश: और अंदर-बाहर से जानने की संभावनाएँ बहुत अधिक होतीं हैं। इसलिये चुनाव लड़़ने वाला प्रत्याशी जिस पद के लिये चुनाव लड़ रहा है उस की योग्यता को वह ठीक से समझ सकता है। ऐसी स्थिति में मतदाता जब अपने विवेक से मत डालता है तो वह योग्य व्यक्ति का चयन करता है। किंतु जब चुनाव क्षेत्र की जनसंख्या बहुत अधिक होगी (लाखों में) तब सामान्यत: कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं होता जो सभी प्रत्याशियों को अंदर-बाहर से जानता हो। ऐसे में तो फिर प्रत्याशी की योग्यता यह कसौटी नहीं रह जाती। राजनीतिक दल, जाति, रिश्तेदारी, पहचान, अपने गाँव का होना आदि योग्यता से जिनका कोई संबंध नहीं है ऐसे मुद्दों पर मत डाला जाता है। सच्चे लोकतंत्र में यह अपेक्षित नहीं है।
# भौगोलिक निकटता हो : जब भौगोलिक क्षेत्र बहुत विशाल होता है तब हर मतदाता प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़नेवाले प्रत्येक व्यक्ति को व्यक्तिश: और अंदर-बाहर से जानने की संभावनाएँ बहुत कम होतीं हैं। ऐसे में योग्य व्यक्ति को ही मतदान होने की संभावनाएँ बहुत कम हो जातीं हैं। यहाँ भी विशाल आबादी के क्षेत्र जैसी कसौटीयों पर ही अर्थात् लोकतंत्र के लिये गलत कारणों से लोग मत देते हैं। मतदान केन्द्र की दूरी भी मतदान को प्रभावित करती है।
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# भौगोलिक निकटता हो : जब भौगोलिक क्षेत्र बहुत विशाल होता है तब हर मतदाता प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़़नेवाले प्रत्येक व्यक्ति को व्यक्तिश: और अंदर-बाहर से जानने की संभावनाएँ बहुत कम होतीं हैं। ऐसे में योग्य व्यक्ति को ही मतदान होने की संभावनाएँ बहुत कम हो जातीं हैं। यहाँ भी विशाल आबादी के क्षेत्र जैसी कसौटीयों पर ही अर्थात् लोकतंत्र के लिये गलत कारणों से लोग मत देते हैं। मतदान केन्द्र की दूरी भी मतदान को प्रभावित करती है।
 
# लोग निर्भय हों : बाहुबलियों से डरकर गलत मतदान करनेवालों की संख्या भी कम नहीं है। देश में कई निर्वाचन क्षेत्र ऐसे हैं जहाँ बाहुबली ही चुनकर आते हैं। वे उस पद के योग्य हैं ऐसा लोगों को लगता है इसलिये नहीं अपितु उन के बाहुबल के डर से ही लोग उन्हें मत देकर छुटकारा पाते हैं। बंगाल में चुनावों में हो रहा शस्त्र प्रदर्शन जिस प्रकार दूरदर्शन पर बताया गया था उससे लगता है कि क्या वास्तव में हम लोकतंत्र में जी रहे हैं?
 
# लोग निर्भय हों : बाहुबलियों से डरकर गलत मतदान करनेवालों की संख्या भी कम नहीं है। देश में कई निर्वाचन क्षेत्र ऐसे हैं जहाँ बाहुबली ही चुनकर आते हैं। वे उस पद के योग्य हैं ऐसा लोगों को लगता है इसलिये नहीं अपितु उन के बाहुबल के डर से ही लोग उन्हें मत देकर छुटकारा पाते हैं। बंगाल में चुनावों में हो रहा शस्त्र प्रदर्शन जिस प्रकार दूरदर्शन पर बताया गया था उससे लगता है कि क्या वास्तव में हम लोकतंत्र में जी रहे हैं?
 
# लोग सुरक्षित हों : लोगों का निर्भय होना ही पर्याप्त नहीं है। सुरक्षित होना वास्तव में अधिक आवश्यक है। बाहुबली या आतंकवादी चुनाव को प्रभावित तब ही कर पाते हैं जब चुनाव क्षेत्र में सुरक्षा की पक्की व्यवस्था नहीं होती।
 
# लोग सुरक्षित हों : लोगों का निर्भय होना ही पर्याप्त नहीं है। सुरक्षित होना वास्तव में अधिक आवश्यक है। बाहुबली या आतंकवादी चुनाव को प्रभावित तब ही कर पाते हैं जब चुनाव क्षेत्र में सुरक्षा की पक्की व्यवस्था नहीं होती।
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# चुनाव का आयोजन करनेवाली व्यवस्था के और शासन के लोग लोकतंत्र में गहरा विश्वास रखते हों : जिस शासन के काल में चुनाव हो रहे हैं वह शासन यदि लोकतंत्र में श्रध्दा रखनेवाला नहीं हो तो कोई चुनाव ठीक ढंग से नहीं हो सकते। इसी तरह यदि चुनाव के लिये की गई उम्मीदवारों की अर्जी से लेकर प्रत्यक्ष मतदान की व्यवस्थाएँ चुनाव आयोग के अधिकारी लापरवाही से करते हैं तो चुनाव ठीक होंगे इस की आश्वस्ति नहीं दी जा सकती।
 
# चुनाव का आयोजन करनेवाली व्यवस्था के और शासन के लोग लोकतंत्र में गहरा विश्वास रखते हों : जिस शासन के काल में चुनाव हो रहे हैं वह शासन यदि लोकतंत्र में श्रध्दा रखनेवाला नहीं हो तो कोई चुनाव ठीक ढंग से नहीं हो सकते। इसी तरह यदि चुनाव के लिये की गई उम्मीदवारों की अर्जी से लेकर प्रत्यक्ष मतदान की व्यवस्थाएँ चुनाव आयोग के अधिकारी लापरवाही से करते हैं तो चुनाव ठीक होंगे इस की आश्वस्ति नहीं दी जा सकती।
 
# जनता देशभक्त हो : देश के हित में काम करनेवाले लोग चुनकर आएँ इसलिये तो वास्तव में चुनाव होते हैं। लेकिन जब मतदाताओं में देशहित के विरोधी लोगों की संख्या लक्षणीय होती है तब थोडे से देशद्रोहियों के इकठ्ठे मतों से भी परिणाम विपरीत आ जाते हैं।
 
# जनता देशभक्त हो : देश के हित में काम करनेवाले लोग चुनकर आएँ इसलिये तो वास्तव में चुनाव होते हैं। लेकिन जब मतदाताओं में देशहित के विरोधी लोगों की संख्या लक्षणीय होती है तब थोडे से देशद्रोहियों के इकठ्ठे मतों से भी परिणाम विपरीत आ जाते हैं।
# जो योग्य है वह चुनाव में प्रत्याशी हो : सब से महत्वपूर्ण बात तो यह है कि जो सज्जन भी हैं, क्षमतावान भी हैं और बुध्दिमान भी हैं ऐसे लोग अपवाद से ही राजनीति के क्षेत्र में आते हैं। सामान्यत: तो धूर्त ही राजनीति के क्षेत्र के बादशाह होते हैं। ऐसे में व्यक्ति योग्य है किंतु चुनाव के या राजनीति के कीचड़ में नहीं उतरना चाहता ऐसा व्यक्ति प्रत्याशी बनने से दूर ही रहता है।
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# जो योग्य है वह चुनाव में प्रत्याशी हो : सब से महत्वपूर्ण बात तो यह है कि जो सज्जन भी हैं, क्षमतावान भी हैं और बुद्धिमान भी हैं ऐसे लोग अपवाद से ही राजनीति के क्षेत्र में आते हैं। सामान्यत: तो धूर्त ही राजनीति के क्षेत्र के बादशाह होते हैं। ऐसे में व्यक्ति योग्य है किंतु चुनाव के या राजनीति के कीचड़ में नहीं उतरना चाहता ऐसा व्यक्ति प्रत्याशी बनने से दूर ही रहता है।
    
== लोकतंत्र की मर्यादाएँ ==
 
== लोकतंत्र की मर्यादाएँ ==
# लोकतंत्र में सब लोग समान माने जाते हैं। एक व्यक्ति के स्वरूप में तो सब समान होते ही हैं। किंतु जब समझदारी का विषय आता है, जानकार होने का विषय आता है, निर्भयता का विषय आता है तो प्रत्येक मनुष्य अन्य मनुष्यों से भिन्न ही होता है। लोकतंत्र में बुध्दिमान की बुद्धि और बुध्दू की बुद्धि को समान ऑंका जाता है। सामान्य लोगों द्वारा योग्यता के बगैर ही बराबरी की अपेक्षा की जाती है। वास्तव में यह अराजक की स्थिति ही है। टके सेर भाजी टके सेर खाजा की स्थिति है। २. मतदाता की अर्हता तय करना भी एक कठिन विषय होता है। केवल सज्ञानता की कानूनद्वारा निर्धारित आयु और पागल नहीं होना इन दो बातों के आधार पर ही वर्तमान में मतदान का अधिकार मान्य हो जाता है। लेकिन आवश्यकता तो समझदारी की होती है। समझदार बनने की कोई आयु नहीं होती। कोई 15 वर्ष की आयु में समझदार हो जाता है तो कोई 50 वर्ष का होने पर भी समझदार नहीं बनता। ३. मतदाता का 'मत' कई कारणों से प्रभावित होता है। चुनाव लड रहे हर प्रत्याशी की अंदर बाहर से जानकारी नहीं होने से, जिस पद के लिये चुनाव हो रहे हैं उस पद की जिम्मेदारियाँ क्या हैं इस की जानकारी नहीं होने से, और उपर्युक्त लोकतंत्र के लिये अनिवार्य बातों में से कुछ बातों के अनुपोस्थित होने से यह हो सकता है। एॅसी परिस्थिति में मतदाता ने किया मतदान सटीक नहीं रह सकता। ४. जिस प्रकार से मतदाता की अर्हता महत्वपूर्ण है उसी प्रकार से प्रत्याशी की अर्हता तो उस से भी अधिक महत्व रखती है। किंतु इस विषय में भी जिस पद के लिये वह चुनाव लड रहा है उस दृष्टि से प्रत्याशी के संस्कार, लालन-पालन, उसकी शिक्षा और प्रशिक्षण इन बातों की कोई शर्त नहीं होती। ५. मतदान कभी भी १०० प्रतिशत नहीं होता। जो होता है उसी में अधिकतम मत जिसे मिलते हैं वह चुनाव जीत जाता है। विभिन्न कारणों से कई बार मतदान ४० प्रतिशत से भी कम होता है। ऐसी स्थिति में या अधिक प्रत्याशी संख्या होने पर मात्र २० प्रतिशत मत पाने वाला प्रत्याशी भी चुनाव जीत जाता है। स्वाधीनता के बाद के चुनाव में काँग्रेस ने संसद और विधानसभा की मिलाकर देशभर में ७२ प्रतिशत बैठकें जीतीं थीं। किंतु कुल बालिग मतदान का प्रत्यक्ष पेटी में प्राप्त हुआ मतदान मात्र २३ प्रतिशत ही था। इस २३ प्रतिशत में भी काँग्रेस को केवल ४५ प्रतिशत मत ही प्राप्त हुए थे। इसका अर्थ यह है कि कुल मतों में से केवल १०.३५ प्रतिशत मत पाने से काँग्रेस को पाशवी (ब्रूटल) बहुमत प्राप्त हो गया था। ६. चुनाव का व्यय इतना अधिक होता है कि सामान्य माली हालत वाला व्यक्ति चुनाव लड़ने का व्यय वहन नहीं कर सकता। फिर वह विविध प्रकार के हथकण्डे अपनाकर धन की व्यवस्था करता है। जब चुन कर आ जाता है तो जिन से उसने धन लिया है वे अपने दिये धन से कई गुना लाभ उससे प्राप्त करते हैं। इस से भ्रष्टाचार को बढावा मिलता है। कई बार तो लोग गुण्डों की मदद लेते हैं। विदेशी शक्तियों की मदद लेने वाले भी कई लोग होते हैं। ऐसे लोग चुन कर आने के बाद उन गुण्डों के लिये या विदेशी शक्तियों के लिये काम करते हैं। ७. वास्तव में अल्पमत और बहुमत वाला लोकतंत्र तो सीधा ' सर्व्हायव्हल ऑफ द फिटेस्ट यानी बलवानों को ही जीने का अधिकार है' इस सूत्र के आधार पर ही बनाया हुआ तंत्र है। जब आप बहुमत में आ जाते हैं यानी बलवान हो जाते हैं तब आप की इच्छा के अनुसार अल्पमत वालों को चलना पडेगा। ८. प्रत्याशी लोगों को क्या आश्वासन दे इस के कोई नियम नहीं बनाये जाते। चाँद तोडकर लाने जैसे झूठे आश्वासन भी वे दे सकते हैं। सामान्यत: सभी प्रत्याशी लोगों के काम (अपेक्षाओं) और मोह को बढाने वाले आश्वासन ही देते हैं। आश्वासनों की पूर्ति नहीं होने पर समाज में अराजक निर्माण होता है। ९. चुन कर आने के लिये प्रत्याशी का चालाक होना अनिवार्य होता है। बुध्दिमान होना, विवेकी होना इन गुणों से चालाकी को वरीयता मिलती है। चालाक प्रत्याशी लोगों को अच्छी तरह से भ्रमित कर (वास्तव में बेवकूफ बना) सकता है। बार बार भ्रमित कर सकता है। १०.कोई भी ऐरा गैरा श्रेष्ठ शासक नहीं बन सकता। श्रेष्ठ शासक तो जन्मजात होता है ऐसी भारतीय मान्यता है। ऐसा व्यक्ति जो जन्मजात शासक के गुण लक्षणोंवाला हो, जिसे संस्कार, शिक्षण और प्रशिक्षण भी शासक बनने का मिला हो, मिलना लोकतंत्र में अपघात से ही होता है। ऐसे शासक निर्माण की व्यवस्था भारतीय राज-कुटुम्ब अपने बच्चों के लिये करते थे। वर्तमान अभारतीय लोकतंत्र में नौकरशाही और नौकरशाहों का निर्माण मात्र हो सकता है।
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# लोकतंत्र में सब लोग समान माने जाते हैं। एक व्यक्ति के स्वरूप में तो सब समान होते ही हैं। किंतु जब समझदारी का विषय आता है, जानकार होने का विषय आता है, निर्भयता का विषय आता है तो प्रत्येक मनुष्य अन्य मनुष्यों से भिन्न ही होता है। लोकतंत्र में बुद्धिमान की बुद्धि और बुद्धू की बुद्धि को समान आँका जाता है। सामान्य लोगों द्वारा योग्यता के बगैर ही बराबरी की अपेक्षा की जाती है। वास्तव में यह अराजक की स्थिति ही है। टके सेर भाजी टके सेर खाजा की स्थिति है।
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# मतदाता की अर्हता तय करना भी एक कठिन विषय होता है। केवल सज्ञानता की कानून द्वारा निर्धारित आयु और पागल नहीं होना इन दो बातों के आधार पर ही वर्तमान में मतदान का अधिकार मान्य हो जाता है। लेकिन आवश्यकता तो समझदारी की होती है। समझदार बनने की कोई आयु नहीं होती। कोई 15 वर्ष की आयु में समझदार हो जाता है तो कोई 50 वर्ष का होने पर भी समझदार नहीं बनता।
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# मतदाता का 'मत' कई कारणों से प्रभावित होता है। चुनाव लड़ रहे हर प्रत्याशी की अंदर बाहर से जानकारी नहीं होने से, जिस पद के लिये चुनाव हो रहे हैं उस पद की जिम्मेदारियाँ क्या हैं इस की जानकारी नहीं होने से, और उपर्युक्त लोकतंत्र के लिये अनिवार्य बातों में से कुछ बातों के अनुपस्थित होने से यह हो सकता है। ऐसी परिस्थिति में मतदाता द्वारा किया मतदान सटीक नहीं रह सकता।
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# जिस प्रकार से मतदाता की अर्हता महत्वपूर्ण है उसी प्रकार से प्रत्याशी की अर्हता तो उस से भी अधिक महत्व रखती है। किंतु इस विषय में भी जिस पद के लिये वह चुनाव लड़ रहा है उस दृष्टि से प्रत्याशी के संस्कार, लालन-पालन, उसकी शिक्षा और प्रशिक्षण इन बातों की कोई शर्त नहीं होती।
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# मतदान कभी भी १०० प्रतिशत नहीं होता। जो होता है उसी में अधिकतम मत जिसे मिलते हैं वह चुनाव जीत जाता है। विभिन्न कारणों से कई बार मतदान ४० प्रतिशत से भी कम होता है। ऐसी स्थिति में या अधिक प्रत्याशी संख्या होने पर मात्र २० प्रतिशत मत पाने वाला प्रत्याशी भी चुनाव जीत जाता है। स्वाधीनता के बाद के चुनाव में काँग्रेस ने संसद और विधानसभा की मिलाकर देशभर में ७२ प्रतिशत बैठकें जीतीं थीं। किंतु कुल बालिग मतदान का प्रत्यक्ष पेटी में प्राप्त हुआ मतदान मात्र २३ प्रतिशत ही था। इस २३ प्रतिशत में भी काँग्रेस को केवल ४५ प्रतिशत मत ही प्राप्त हुए थे। इसका अर्थ यह है कि कुल मतों में से केवल १०.३५ प्रतिशत मत पाने से काँग्रेस को पाशवी (ब्रूटल) बहुमत प्राप्त हो गया था।
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# चुनाव का व्यय इतना अधिक होता है कि सामान्य माली हालत वाला व्यक्ति चुनाव लड़़ने का व्यय वहन नहीं कर सकता। फिर वह विविध प्रकार के हथकण्डे अपनाकर धन की व्यवस्था करता है। जब चुन कर आ जाता है तो जिन से उसने धन लिया है वे अपने दिये धन से कई गुना लाभ उससे प्राप्त करते हैं। इस से भ्रष्टाचार को बढावा मिलता है। कई बार तो लोग गुण्डों की मदद लेते हैं। विदेशी शक्तियों की मदद लेने वाले भी कई लोग होते हैं। ऐसे लोग चुन कर आने के बाद उन गुण्डों के लिये या विदेशी शक्तियों के लिये काम करते हैं।
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# वास्तव में अल्पमत और बहुमत वाला लोकतंत्र तो सीधा ' सर्व्हायव्हल ऑफ द फिटेस्ट यानी बलवानों को ही जीने का अधिकार है' इस सूत्र के आधार पर ही बनाया हुआ तंत्र है। जब आप बहुमत में आ जाते हैं यानी बलवान हो जाते हैं तब आप की इच्छा के अनुसार अल्पमत वालों को चलना पडेगा।
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# प्रत्याशी लोगों को क्या आश्वासन दे इस के कोई नियम नहीं बनाये जाते। चाँद तोडकर लाने जैसे झूठे आश्वासन भी वे दे सकते हैं। सामान्यत: सभी प्रत्याशी लोगों के काम (अपेक्षाओं) और मोह को बढाने वाले आश्वासन ही देते हैं। आश्वासनों की पूर्ति नहीं होने पर समाज में अराजक निर्माण होता है।
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# चुन कर आने के लिये प्रत्याशी का चालाक होना अनिवार्य होता है। बुद्धिमान होना, विवेकी होना इन गुणों से चालाकी को वरीयता मिलती है। चालाक प्रत्याशी लोगों को अच्छी तरह से भ्रमित कर (वास्तव में बेवकूफ बना) सकता है। बार बार भ्रमित कर सकता है।
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# कोई भी ऐरा गैरा श्रेष्ठ शासक नहीं बन सकता। श्रेष्ठ शासक तो जन्मजात होता है ऐसी भारतीय मान्यता है। ऐसा व्यक्ति जो जन्मजात शासक के गुण लक्षणोंवाला हो, जिसे संस्कार, शिक्षण और प्रशिक्षण भी शासक बनने का मिला हो, मिलना लोकतंत्र में अपघात से ही होता है। ऐसे शासक निर्माण की व्यवस्था भारतीय राज-कुटुम्ब अपने बच्चों के लिये करते थे। वर्तमान अभारतीय लोकतंत्र में नौकरशाही और नौकरशाहों का निर्माण मात्र हो सकता है।
    
== भारतीय  समाज  की  व्यवस्थाओं का  स्वरूप ==
 
== भारतीय  समाज  की  व्यवस्थाओं का  स्वरूप ==
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